संस्कृत अभ्युदय एक चाह
यह संस्कृत हमारी परम पूज्य भाषा
इसी का सदा अभ्युदय चाहता हूँ ।
इसी का मधुर गान सर्वत्र गूंजे,
वही देखना फिर समय चाहता हूँ । १
इसीं में अखिल ज्ञान संचित हमारा,
इसीने है जीवन सवाँरा, सुधारा
इसीके चरण-अर्चना-वन्दना में,
निरन्तर लगाना हृदय चाहता हूँ । २
इसी को पढूँ मैं, इसी में लिखू मैं,
इसी की सदा मञ्जु-वाणी सुनू मैँ ।
इसी के उदय में, इसी के प्रणय में,
मैं जीवन का अपने विलय चाहता हूँ । ३
-- रचयिता - श्री. वासुदेव द्विवेदी शास्त्री
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