संस्कृत एक महान सम्पत्ति
संस्कृत भाषा को मत भूलो भारत की सन्तान,
बड़े भाग्य से हमने पाई यह सम्पत्ति महान् । ०
वैज्ञानिक, यह देखो, कैसी इसकी अक्षरमाला,
स्वर-व्यञ्जन का देखो कैसा वर्गीकरण निराला,
वर्ण और उच्चारण का भी कैसा सूक्ष्म विवेक,
जैसा लिखो पढ़ो वैसा ही दोनों बिलकुल एक,
दुनिया की किस भाषा में है ऐसा लिपिविज्ञान,
बड़े भाग्य से हमने पाई यह सम्पत्ति महान् । १
इस भाषा का रूप जरा तो, देखें अद्भुत कैसा,
कोमल-परुष, विरल-अविरलका अनुपम मिश्रणजैसा,
कहीं बाल-सारल्य कहीं पर नवयौवन उद्दाम,
कहीं शान्त गम्भीर प्रकृति का चारुचित्र अभिराम,
नाना रूप, विविध, आभूषण, बहु शृङ्गार वितान,
बढ़े भाग्य से हमने पाई यह सम्पत्ति महान् । २
इस भाषा का छन्दों से भी कितना प्रिय सम्बन्ध,
नीरस विषयों का भी कैसा सरस पद्यमय बन्ध,
गद्यों में भी पद्यों जैसा श्रवण-सुखद संगीत,
विश्व काव्य साहित्य महोदधि का मधुमय नवनीत,
छंदों का भी कैसा मोहक स्वर-लय-तान विधान
बडे भाग्य से हमने पाई यह सम्पत्ति महान । ३
इसमें श्लेष-विरोधाभासों का अद्भुत विन्यास
यमक-अनुप्रासों का पद-पद पर मधुमय उल्लास,
इसमें अपना रूप सजाती मानों कविता-बाला,
वाणी का मणिमय क्रीडाङ्गण या यह नर्तनशाला,
रचना के अगणित वैचित्र्यों का रमणीय निधान,
बड़े भाग्य से हमने पाई यह सम्पत्ति महान । ४
रस के ही अनुरूप अक्षरों का सुन्दर संयोजन,
भावों के अनुरूप पदों का आह्लादक आयोजन,
पर्यायों में वस्तु-वस्तु के तत्त्वों का विश्लेष,
एक शब्द में बहुविध अर्थों का अद्भुत संश्लेष,
वसुधा में इसके वैभव का अति दुर्लभ उपमान,
बड़े भाग्य से हमने पाई यह सम्पत्ति महान । ५
रहीं बहुत-सी जग में पहले भाषायें विख्यात,
एक शब्द भी किन्तु न उनका आज किसी को ज्ञात ।
पर यह दिव्य हमारी वाणी यद्यपि अति प्राचीन
अहो आज भी कैसी इसकी जीवन-ज्योति नवीन ?
यही हमारी स्फूर्ति-प्रेरणा का भी मूल-स्थान,
बड़े भाग्य से हमने पाई यह सम्पत्ति महान । ६
-- रचयिता - श्री. वासुदेव द्विवेदी शास्त्री
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