संस्कृत की रक्षा एवं प्रचार के लिये प्रतिज्ञा
संस्कृत की सेवा में सबको तन मन आज लगाना है,
आज प्रतिज्ञा लेकर इसकी रक्षा में जुट जाना है । ०
यही हमारे पूज्य पूर्वजों की परमप्रिय वाणी है,
यही हमारी भुक्ति-मुक्ति की प्रिय जननी कल्याणी है,
सदियों से इसमें ही संचित सब साहित्य हमारा है,
वही इसीमें भारतीय प्रतिभा की निर्मल धारा है,
इसका विन्दु-बिन्दु अति पावन, मस्तक उसे चढ़ाना है,
इसकी रक्षा और वृद्धि का आज विधान बनाना है । १
कभी दूर देशों मैं भी था इसने पाया मान महान,
धर्म, राज्य, साहित्य, कला में अभिलेखों में भी सम्मान,
श्याम, अनाम, सुमात्रा, कम्बुज, मलय आदि सब देशों में,
जावा, बालि, बोनियो, सिंहल, वर्मा, चीन प्रदेशों में,
आज पुनः उन देशों में भी हमें इसे पहुँचाना है,
संस्कृत की सेवा में सबको तन मन आज लगाना है । २
-- रचयिता - श्री. वासुदेव द्विवेदी शास्त्री
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