संस्कृतसेवा आवश्यक निवेदन ब्राह्मणों से
ब्राह्मण भी संस्कृत छोड़ेंगे, नहीं कभी थी आशा,
किन्तु देश को हुई आपसे भीषण आज निराशा ।
अरे, आपने भी संस्कृत की शिक्षा से मुँह मोड़ा,
वह सम्बन्ध युगों का कैसे इतनी जळी तोड़ा ? । १
अंग्रेजी-शिक्षा का होगा नहीं उचित अवरोध,
किन्तु आपको आवश्यक है संस्कृत का भी बोध ।
ब्राह्मण को भी संस्कृत का हो नहीं यथावत् ज्ञान,
इससे बढ़कर और भला क्या होगा दोष महान ? । २
ऋषि-मुनियों ने जिस भाषा की भागीरथी बहाई,
जिस निधि की रक्षा में अपनी सारी आयु बिताई ।
उनके कुल की ही यह देखें कैसी करुण कहानी,
जहाँ सिन्धु था आज वहाँ पर नहीं बिन्दु भर पानी ? । ३
कभी आपके श्रीमुख में था श्रुतियों का आवास,
किन्तु आज सुर्ती-गाँजा का दुर्गन्धित उछ्वास ।
बैठ कुशासन पर, कर में ले, दर्भों का समुदाय-
कहाँ गया वह नियम उषा में करने का स्वाध्याय ? । ४
एक बार भी तो दुहरा दें अब भी वह इतिहास,
फिर से इस उजड़े मधुवन में लहराये मधुमास ।
कण्ठ-कण्ठ से सामगान का तान मधुर फिर फूटे,
अब से ऋषिकुल में सुरवाणी का मृदु तार न टूटे । ५
-- रचयिता - श्री. वासुदेव द्विवेदी शास्त्री
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