यह संस्कृत से कैसा विराग
यह संस्कृत से कैसा विराग ? । ०
जिसने ही जीवनदान दिया,
शुभ कर्मयोग का ज्ञान दिया,
सबसे ऊँचा सम्मान दिया,
कर दैन्य निराश दूर चूर--
``उत्तिष्ठत'' का वरदान दिया,
उस वन्द्य वत्सला माता का--
यह कैसा निर्घृण परित्याग ? । १
इसके विद्यालय श्री-विहीन,
इसके सेवक के मुख मलीन,
दिन प्रतिदिन इसकी दशा दीन,
पर छोड़ इसे तुम अपने को-
कह सकते कैसे ऋषिकुलीन,
अब नहीं समय यह सोने का-
ओ बन्धु, आज भी जाग जाग । २
अब इस को आज बचाना है,
उन्नति के पथ पर लाना है,
इसका दुख-दैन्य मिटाना है,
इसकी शिक्षा-संदेशों से-
आगे यह राष्ट्र बढ़ाना है,
कुल में इस मातृ-उपेक्षा का-
है उचित लगाना नहीं दाग । ३
कर बन्द अन्य सब काम-काज,
पूजा का ले साहित्य साज,
सँग में लेकर सारा समाज,
इस मातृ-उपेक्षा के अघ का-
हम कर लें प्रायश्चित्त आज;
है जब तक दग्ध नहीं करती--
इस देवी की अभिशाप-आग ।
यह संस्कृत से कैसा विराग ? । ४
-- रचयिता - श्री. वासुदेव द्विवेदी शास्त्री
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