श्रीब्रह्मास्तुतिः

श्रीब्रह्मास्तुतिः

नमो नमस्ते जगदेककर्त्रे नमो नमस्ते जगदेकपात्रे । नमो नमस्ते जगदेकहर्त्रे रजस्तमःसत्वगुणाय भूम्ने ॥ १॥ जगत् के एकमात्र कर्ता तुम्हें नमस्कार है, नमस्कार है, जगत् के एकमात्र पालक तुम्हें नमस्कार है, नमस्कार है । जगत् के एकमात्र हर्ता और सत्व, रज एवं तमो गुण के लिए भूमि स्वरूप तुमको नमस्कार है, नमस्कार है ॥ १ ॥ अण्डं चतुर्विंशतितत्त्वजातं तस्मिन्भवानेष विरञ्चिनामा । जगच्छरण्यो जगदुद्वमन्स्वयं पितामहस्त्वं परिगीयसे बुधैः ॥ २॥ चौबीस तत्त्वों से बने हुए अण्ड रूप जिस ब्रह्माण्ड में आप साक्षात् विरञ्चि नाम से जगत् को शरण देने वाले हैं । जगत् के स्वयं उद्वमन-कर्ता आप को विद्वान् लोग पितामह के नाम से कीर्तन करते हैं उन आपको नमस्कार है ॥ २ ॥ त्वं सर्वसाक्षी जगदन्तरात्मा हिरण्यगर्भो जगदेककर्ता । हर्ता तथा पालयितासि देव त्वत्तो न चान्यत्परमस्ति किञ्चित् ॥ ३॥ तुम सभी के साक्षी हो, जगत् के अन्तरात्मा, हिरण्यगर्भ, एवं जगत् के एकमात्र कर्ता, हर्ता तथा पालन करने वाले हे देव ! तुमसे दूसरा कोई श्रेष्ठ नहीं है ॥ ३ ॥ त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः साक्षात् स्वयं ज्योतिरजः परेशः । त्वन्मायया मोहितचेतसो ये पश्यन्ति नानात्त्वमहो त्वयीशे ॥ ४॥ तुम आदि देव हो । तुम पुराण पुरुष हो । तुम साक्षात् रूप से स्वयं ज्योतिमान् हो, अज हो और श्रेष्ठ ईश्वर हो । तुम्हारी माया से ही मोहित चित्त होकर तुम्हारे में ही वे (पुरुष) नानात्व को देखते हैं ॥ ४ ॥ त्वमाद्यः पुरुषः पूर्णस्त्वमनन्तो निराश्रयः । सूजसि त्वं च भूतानि भूतैरेवात्ममायया ॥ ५॥ तुम आदि देव, पूर्ण पुरुष हो, तुम अनन्त एवं निराश्रय हो । तुम पञ्चमहाभूतों से अपनी माया से ही प्राणियों का सृजन करते हो ॥ ५ ॥ त्वया सृष्टमिदं विश्वं सचराचरमोजसा । कथं न पालयस्येतत् ज्वलदाकस्मिकाग्निना ॥ ६॥ आपके ओज से चराचर जगत् के सहित यह सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि हुई है । अतः आकस्मिक अग्नि की ज्वाला से जब यह जल रहा है तो आप इसका पालन क्यों नहीं करते हैं ? ॥ ६ ॥ विनाशमेष्यति जगत् त्वया सृष्टमिदं प्रभो । न जानीमो वयं तत्र कारणं तद्विचिन्त्यताम् ॥ ७॥ हे प्रभो ! आपके द्वारा सृष्ट यह जगत् विनाश को प्राप्त हो जायगा । हम लोग उसका कारण नहीं जानते हैं । अतः आप ही उस पर विचार करें ॥ ७ ॥ कोऽयं वह्निरपूर्वोऽयमुत्थितः परितो ज्वलन् । तेनोद्विग्नमिदं विश्वं ससुरासुरमानवम् ॥ ८॥ यह अपूर्व वह्नि कौन सी है, जो चारों ओर से जलते हुए उठ गई है ? उस अग्नि से देवता, राक्षस और मनुष्यों के सहित यह सम्पूर्ण विश्व उद्विग्न हो गया है ॥ ८ ॥ तस्य त्वं शमनोपायं विचारय महामते । न चेदद्य भविष्यन्ति लोका भस्मावशेषिताः ॥ ९॥ हे महा मतिमान् ! उस अग्नि के शमन का उपाय विचार करिए । नहीं तो आज ही ये लोक भस्मीभूत हो जायेंगे ॥ ९ ॥ इति तेषां च गृणतां देवानामातुरं वचः । विमृश्य ध्यानयोगेन तदिदं हृद्यवाप सः ॥ १०॥ इस प्रकार उन देवों की आतुरता पूर्ण वाणी को सुनकर अपने ध्यानयोग से जानकर उनके हृदय में इस प्रकार विचार प्राप्त हुआ ॥ १० ॥ इति श्रीमाहेश्वरतन्त्रान्तर्गता ब्रह्मास्तुतिः समाप्ता । Tritiya paTalaH Verses 24-33 Encoded and proofread by Yogesh K Sharma yosharma at gmail.com
% Text title            : Brahmastuti from Maheshvaratantra
% File name             : brahmAstutimaheshvaratantra.itx
% itxtitle              : brahmAstutiH 2 (mAheshvaratantrAntargatA)
% engtitle              : brahmAstuti from maheshvaratantra
% Category              : deities_misc, brahma
% Location              : doc_deities_misc
% Sublocation           : deities_misc
% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Transliterated by     : Yogesh K Sharma yosharma at gmail.com
% Proofread by          : Yogesh K Sharma yosharma at gmail.com
% Description/comments  : Maheshwara Tantra Tritiya paTalaH Verses 24-33
% Indexextra            : (Scan)
% Latest update         : April 17, 2019
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% Site access           : https://sanskritdocuments.org

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