श्रीजानकी द्वादशनामस्तोत्रम्
श्रीजानकीचरितामृते अष्टाशीतितमोऽध्यायान्तर्गतम्
श्रीजनक उवाच ।
श्रुतं नाम सहस्रं मे ह्यष्टोत्तरशतं तथा ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि द्वादशं लोकविश्रुतम् ॥ २१॥
श्रीजनकजी महाराज बोले -
हे महर्षियों ! आप लोगोंकी कृपासे मैंने श्रीललीजीके हजार
तथा १०८ नामोंका श्रवण कर लिया, अब लोकप्रसिद्ध बारह नामोंको
भी श्रवण करना चाहता हूँ ॥ २१॥
यदि श्रोतुं तदर्होऽस्मि भवद्भिः कृपयोच्यताम् ।
अक्लेशं परमोदाराः सिद्धा ! कृपणवत्सलाः ॥ २२॥
है परम उदार, दीनवत्सल, सिद्ध महात्माओ ! यदि मैं उन्हें
सुखपूर्वक सुननेका अधिकारी होऊं, तो आप लोग उन्हें भी सुनानेकी
कृपा करें ॥ २२॥
श्रीअन्तरिक्ष उवाच -
मैथिली जानकी सीता वैदेही जनकात्मजा ।
कृपापीयूषजलधिः प्रियार्हा रामवल्लभा ॥ २३॥
श्रीअन्तरिक्ष-योगेश्वरजी महाराज बोले -
१ मैथिली - श्रीमिथिवंशमें सर्वोत्कृष्ट रूपसे विराजनेवाली
श्रीसीरध्वजराजदुलारीजी ।
२ जानकी - श्रीजनकजी महाराजके भावकी पूर्तिके लिये उनकी
यज्ञवेदीसे प्रकट होनेवाली ।
३ सीता - आश्रितोङ्के हृदयसे सम्पूर्ण दुःखोंकी मूल दुर्भावनाको
नष्ट करके सद्भावनाका विस्तार करनेवाली ।
४ वैदेही - भगवान श्रीरामजीके चिन्तनकी तल्लीनतासे देहकी सुधि
भूल जानेवाली शक्तियोंमे सर्वोत्तम ।
५ जनकात्मजा - श्रीसीरध्वज महाराज नामके श्रीजनकजी महाराजके
पुत्रीभावको स्वीकार करनेवाली ।
६ कृपापीयूषजलधिः - समुद्रके समान अथाह एवं अमृतके
सदृश असम्भवको सम्भव कर देनेवाली कृपासे युक्त ।
७ प्रियार्हा - जो प्यारेके योग्य और प्यारे श्रीरामभद्रजी जिनके योग्य हैं ।
८ रामवल्ल्भा - जो श्रीराघवेन्द्रसरकारकी परम प्यारी है ॥ २३॥
सुनयनासुता वीर्यशुल्काऽयोनी रसोद्भवा ।
द्वादशैतानि नामानि वाञ्छितार्थप्रदानि हि ॥ २४॥
९ सुनयनासुता - श्रीसुनयना महारानीके वात्सल्यभाव-जनित सुखका
भली भाँति विस्तार करनेवाली ।
१० वीर्यशुल्का - शिवधनुष तोड़ने की शक्तिरूपी न्यौछावर ही
वधूरूपमें जिनकी प्राप्तिका साधन है अर्थात् जो भगवान् शिवजीके
धनुष तोड़ने की शक्तिरूपी न्यौछावर अर्पण कर सकेगा उसीके
साथ जिनका विवाह होगा ।
११ अयोनिः - किसी कारण विशेषसे प्रकट न होकर केवल भक्तोंका
भाव पूर्ण करनेके लिये अपनी इच्छानुसार प्रकट होनेवाली ।
१२ रसोद्भवा - जन्मसे ही अपनी अलौकिकता व्यक्त करनेके लिये किसी
प्राकृत शरीरसे प्रकट न होकर पृथ्वीसे प्रकट होनेवाली ।
हे राजन् ! श्रीललीजीके ये बारह नाम मनोवाञ्छित (मन चाही )
सिद्धिको प्रदान करनेवाले है । यह सुनकर गद्गद हो श्रीजनकजी
महाराज बोले -
श्रीजनक उवाच ।
अहोऽहं परमो धन्यो धन्यधन्यो धरातले ।
सुताभावेन मां नित्यं नन्दयत्यखिलेश्वरी ॥ २५॥
हे नवो योगेश्वर महाराज ! इस पृथ्वीतलपर मैं धन्योंमे
भी धन्य, सबसे बढ़कर सौभाग्यशाली हूँ जो ये श्रीसर्वेश्वरीजी
पुत्रीभावसे मुझे नित्य आनन्द प्रदान कर रही हैं ॥ २५॥
यस्याः सम्बन्धमात्रेण त्रिलोक्यां सर्वभूभृताम् ।
यतीनां योगिवर्याणां सिद्धानां सुमहात्मनाम् ॥ २६॥
महाभागवतानां च मुनीनां त्रिदिवौकसाम् ।
पूज्यपूज्यप्रपूज्यानां ब्रह्मविष्णुपिनाकिनाम् ॥ २७॥
सर्वेषां दुर्लभाप्तीनामादरेक्षणभाजनम् ।
अहमस्मि विशेषेण स्वल्पभूमिपतिः पुमान् ॥ २८॥
में छोटा सा मनुष्य राजा, जिनके सम्बन्ध मात्रसे ही त्रिलोकीमें सभी
राजा, यति, योगी, सिद्ध, बड़े-बड़े महात्मा (२६) बड़े-बड़े भक्त,
मुनि देवता, पूज्योंके भी पूज्योंके महान् पूजनीय ब्रह्मा विष्णु,
महेश आदि (२७) कहाँ तक कहें जिनकी प्राप्ति महान् दुर्लभ है उन
सभीके आदरदृष्टिका विशेष रूपसे मैं पात्र ही रहा हूँ ॥ २८॥
इति श्रीजानकीचरितामृतान्तर्गतं श्रीजानकी द्वादशनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
अष्टाशीतितमोऽध्यायान्तर्गतम्
cहप्तेर्
श्रीजनक उवाच ।
श्रुतं नाम सहस्रं मे ह्यष्टोत्तरशतं तथा ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि द्वादशं लोकविश्रुतम् ॥ २१॥
यदि श्रोतुं तदर्होऽस्मि भवद्भिः कृपयोच्यताम् ।
अक्लेशं परमोदाराः सिद्धा ! कृपणवत्सलाः ॥ २२॥
मैथिली जानकी सीता वैदेही जनकात्मजा ।
कृपापीयूषजलधिः प्रियार्हा रामवल्लभा ॥ २३॥
सुनयनासुता वीर्यशुल्काऽयोनी रसोद्भवा ।
द्वादशैतानि नामानि वाञ्छितार्थप्रदानि हि ॥ २४॥
श्रीजनक उवाच ।
अहोऽहं परमो धन्यो धन्यधन्यो धरातले ।
सुताभावेन मां नित्यं नन्दयत्यखिलेश्वरी ॥ २५॥
यस्याः सम्बन्धमात्रेण त्रिलोक्यां सर्वभूभृताम् ।
यतीनां योगिवर्याणां सिद्धानां सुमहात्मनाम् ॥ २६॥
महाभागवतानां च मुनीनां त्रिदिवौकसाम् ।
पूज्यपूज्यप्रपूज्यानां ब्रह्मविष्णुपिनाकिनाम् ॥ २७॥
सर्वेषां दुर्लभाप्तीनामादरेक्षणभाजनम् ।
अहमस्मि विशेषेण स्वल्पभूमिपतिः पुमान् ॥ २८॥
इति श्रीजानकीचरितामृतान्तर्गतं श्रीजानकी द्वादशनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
Proofread by Ramana M.