श्रीलक्ष्मीकवचम् ३

श्रीलक्ष्मीकवचम् ३

अथ श्रीलक्ष्मीकवचप्रारम्भः । ईश्वर उवाच । अथ वक्ष्ये महेशानि कवचं सर्वकामदम् । यस्य विज्ञानमात्रेण भवेत्साक्षात्सदाशिवः ॥ १॥ ईश्वर बोले कि हे महेशानि! अब सर्वकामनापूरक लक्ष्मी कवच का वर्णन सुनो, जिसके जानने से शिवसायुज्य की प्राप्ति होती है ॥ १॥ नार्चनं तस्य देवेशि मन्त्रमात्रं जपेन्नरः । स भवेत्पार्व्वतीपुत्रः सर्वशास्त्रेषु पारगः ॥ २॥ हे देवेशि! उस का जाप करने मात्र से ही जापक पार्वती पुत्र के समान और सर्वशास्त्र में पारंगत हो जाता है ॥ २॥ विद्यार्थिना सदा सेव्या विशेषे विष्णुवल्लभा ॥ ३॥ जो विद्या की अभिलाषा करता है, उसे यत्नपूर्वक विष्णुप्रिया लक्ष्मीजी की आराधना करनी चाहिए ॥ ३॥ अस्याश्चतुरक्षरिविष्णुवनितारूपायाः कवचस्य श्रीभगवान् शिव ऋषिरनुष्टुप्च्छन्दो वाग्भवी देवता वाग्भवं बीजं लज्जाशक्ती रमा कीलकं कामबीजात्मकं कवचं मम सुपाण्डित्यकवित्वसर्वसिद्धिसमृद्धये जपे विनियोगः ॥ ४॥ इस चतुरक्षरी विष्णुवनिता कवच के ऋषि श्रीभगवान् शिव, अनुष्टुप् छन्द, देवता वाग्भवी, ऐं बीज, लज्जा शक्ति, रमा कीलक है । इस कवच का कामबीजात्मक, सुपाण्डित्य, कवित्व और सर्वसिद्धिसमृद्धिके निमित्त विनियोग किया जाता है ॥ ४॥ ऐङ्कारी मस्तके पातु वाग्भवी सर्वसिद्धिदा । ह्रीं पातु चक्षुषोर्म्मध्ये चक्षुर्युग्मे च शाङ्करी ॥ ५॥ ऐंकारी हमारे मस्तक की रक्षा करे, संपूर्ण सिद्धि देनेवाली वाग्भवी ह्रीं हमारे दोनों नेत्रों के मध्य की और शांकरी हमारे दोनों नेत्रों की रक्षा करे ॥ ५॥ जिह्वायां मुखवृत्ते च कर्णयोर्गण्डयोर्नसि । ओष्ठाधरे दन्तपङ्क्तौ तालुमूले हनौ पुनः । पातु मां विष्णुवनिता लक्ष्मीः श्रीवर्णरूपिणी ॥ ६॥ वर्णरूपिणी विष्णुवनिता लक्ष्मी हमारी जिह्वा, मुखमण्डल, दोनों कानों, नासिका, ओष्ठ, अधर, दंतपंक्ति, तालुमूल (तालुआ) और ठोड़ी की रक्षा करे ॥ ६॥ कर्णयुग्मे भुजद्वन्द्वे स्तनद्वन्द्वे च पार्व्वती । हृदये मणिबन्धे च ग्रीवायां पार्श्वयोः पुनः । सर्वाङ्गे पातु कामेशी महादेवी समुन्नतिः ॥ ७॥ पार्वतीनामक लक्ष्मी हमारे दोनों कानों की, दोनों भुजाओं, दोनों स्तनों, हृदय, मणिबंध, गरदन और पार्श्व की रक्षा करे, कामेशी महादेवी और समुन्नति हमारे संपूर्ण अंगों की रक्षा करे ॥ ७॥ व्युष्टिः पातु महामाया उत्कृष्टिः सर्वदावतु । सन्धिं पातु सदा देवी सर्वत्र शम्भुवल्लभा ॥ ८॥ व्युष्टि, महामाया और उत्कृष्टि सदा हमारी रक्षा करे । देवी शंभुवल्लभा सर्वत्र सदा हमारे संधि की रक्षा करे ॥ ८॥ वाग्भवी सर्वदा पातु पातु मां हरिगेहिनी । रमा पातु सदा देवी पातु माया स्वराट् स्वयम् ॥ ९॥ सरस्वती, हरिगेहिनी, रमा व माया सदा हमारी रक्षा करे ॥ ९॥ सर्वाङ्गे पातु मां लक्ष्मीर्विष्णुमाया सुरेश्वरी । विजया पातु भवने जया पातु सदा मम ॥ १०॥ विष्णुमाया सुरेश्वरी लक्ष्मी हमारे संपूर्ण अंगों की रक्षा करे, विजया हमारे घर की सदा रक्षा करे और जया हमारी रक्षा करे ॥ १०॥ शिवदूती सदा पातु सुन्दरी पातु सर्वदा । भैरवी पातु सर्वत्र भैरूण्डा सर्वदाऽवतु ॥ ११॥ शिवदूती, सुंदरी, भैरवी और भैरूण्डा सभी स्थानों में सदा हमारी रक्षा करे ॥ ११॥ त्वरिता पातु मां नित्यमुग्रतारा सदाऽवतु । पातु मां कालिका नित्यं कालरात्रिः सदाऽवतु ॥ १२॥ त्वरिता, उग्रतारा, कालिका और कालरात्रि प्रतिदिन सदा हमारी रक्षा करे ॥ १२॥ नवदुर्गा सदा पातु कामाख्या सर्वदावतु । योगिन्यः सर्वदा पातु मुद्राः पातु सदा मम ॥ १३॥ नवदुर्गा, कामाख्या और योगिनीगण व मुद्रासमूह सदा हमारी रक्षा करे ॥ १३॥ मातरः पातु देव्यश्च चक्रस्था योगिनीगणाः । सर्वत्र सर्वकार्येषु सर्वकर्म्मसु सर्वदा ॥ पातु मां देवदेवी च लक्ष्मीः सर्वसमृद्धिदा ॥ १४॥ मातृदेवीगण, चक्र की योगिनीगण और संपूर्ण समृद्धि देने वाली देवदेवी लक्ष्मी सदा हमारी रक्षा करे ॥ १४॥ इति ते कथितं दिव्यं कवचं सर्वसिद्धये । यत्र तत्र न वक्तव्यं यदीच्छेदात्मनो हितम् ॥ १५॥ इसप्रकार मैंने तुम्हें सर्वसिद्धिका कारणस्वरूप अत्युत्तम दिव्य लक्ष्मी कवच सुनाया । जो इससे लाभ उठाना चाहते हैं, उन्हें यह किसी को नहीं बताना चाहिए ॥ १५॥ शठाय भक्तिहीनाय निन्दकाय महेश्वरि । न्यूनाङ्गे अतिरिक्ताङ्गे दर्शयेन्न कदाचन ॥ १६॥ हे महेश्वरि! जो प्राणी भक्तिविहीन तथा निंदक है, जो स्थूल अंगवाला हो, या किसी भी अंग से हीन हो, उसके निकट प्राणांत का अवसर आनेपर भी यह कवच उजागर नहीं करना चाहिए ॥ १६॥ न स्तवं दर्शयेद्दिव्यं सन्दर्श्य शिवहा भवेत् ॥ १७॥ दुरात्मा मनुष्यों के निकट कभी इस स्तोत्र को प्रकट न करें, जो प्रकट करता है, वह शिवहत्या का दोषी होता है ॥ १७॥ कुलीनाय महोच्छ्राय दुर्गाभक्तिपराय च । वैष्णवाय विशुद्धाय दद्यात्कवचमुत्तमम् ॥ १८॥ जो मनुष्य कुलीन, उन्नतीमान्, दुर्गाभक्त, विष्णुभक्त और विशुद्धचित है, उसको ही यह अत्युत्तम दिव्य कवच दान करना चाहिए ॥ १८॥ निजशिष्याय शान्ताय धनिने ज्ञानिने तथा । दद्यात्कवचमित्युक्तं सर्वतन्त्रसमन्वितम् ॥ १९॥ शान्तशील अपने शिष्य को, भक्त को और ज्ञानी को ही यह कवच प्रदान किया जाना चाहिए और किसी को भी दान नहीं करना चाहिए ॥ १९॥ विलिख्य कवचं दिव्यं स्वयम्भुकुसुमैः शुभैः । स्वशुक्रैः परशुक्रैश्च नानागन्धसमन्वितैः ॥ २०॥ गोरोचनाकुङ्कुमेन रक्तचन्दनकेन वा । सुतिथौ शुभयोगे वा श्रवणायां रवेर्दिने ॥ २१॥ अश्विन्यांकृत्तिकायांवाफल्गुन्यांवामघासु च । पूर्व्वभाद्रपदायोगे स्वात्यां मङ्गलवासरे ॥ २२॥ विलिखेत्प्रपठेत्स्तोत्रं शुभयोगे सुरालये । आयुष्मत्प्रीतियोगे च ब्रह्मयोगे विशेषतः ॥ २३॥ इन्द्रयोगे शुभयोगे शुक्रयोगे तथैव च । कौलवे बालवे चैव वणिजे चैव सत्तमः ॥ २४॥ शुभतिथि को, शुभयोग में, श्रवण नक्षत्र में, रविवार को अश्विनी नक्षत्र में, कृत्तिका नक्षत्र में, फाल्गुनी नक्षत्र में, मघा नक्षत्र में, पूर्वभाद्रपद नक्षत्र में, स्वाति नक्षत्र में, मंगलवार को, विशेषकर के ब्रह्मयोग में, इंद्रयोग में, शुभयोग में, शुक्रयोग में, कौलव, बालव और वाणिजकरण योग के इन सब दिनों में स्वयम्भू कुसुम, गोरोचन, कुंकुम, लाल चंदन अथवा अत्युत्तम गन्धद्रव्य से इस दिव्य कवच को लिखकर इसकी पूजा करने से दीर्घायु और श्री की वृद्धि होती है ॥ २०॥२१॥२२॥२३॥२४॥ शून्यागारे श्मशाने वा विजने च विशेषतः । कुमारीं पूजयित्वादौ यजेद्देवीं सनातनीम् ॥ २५॥ सूने घर, श्मशान अथवा एकांत स्थान में कुमारी पूजा कर के, फिर सनातनी देवी लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए ॥ २५॥ मत्स्यमांसैः शाकसूपः पूजयेत्परदेवताम् । घृताद्यैः सोपकरणैः पूपसूपैर्व्विशेषतः ॥ २६॥ ब्राह्मणान्भोजायित्वादौ प्रीणयेत्परमेश्वरीम् ॥ २७॥ मत्स्य, मांस, सूप (दाल), शाक, पिट्ठि, घृत उपकरण (सामग्री) आदि अनेक प्रकार के द्रव्यों से लक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए । प्रथम ब्राह्मणों को भोजन काराकर फिर देवी की प्रीती की साधना करनी चाहिए ॥ २६॥२७॥ बहुना किमिहोक्तेन कृते त्वेवं दिनत्रयम् । तदाधरेन्महारक्षां शङ्करेणाभिभाषितम् ॥ २८॥ अधिक और क्या कहा जाए । जो कोई तीन दिन इस प्रकार लक्ष्मी की आराधना करता है, वह किसी भी प्रकार की विपत्ति में नहीं पड़ता तथा वह संपूर्ण आपदाओं से सुरक्षित रहता है । शंकर द्वारा कथित यह वाक्य कभी विफल होने वाला नहीं है ॥ २८॥ मारणद्वेषणादीनि लभते नात्र संशयः । स भवेत्पार्व्वतीपुत्रः सर्वशास्त्रविशारदः ॥ २९॥ जो मनुष्य भक्ति सहित लक्ष्मी की पूजा करके इस दिव्य कवच का पाठ करता है, उसके मारणद्वेषादि मंत्रों की सिद्धि होती है पार्व्वती का प्रियपुत्र और सर्वशास्त्रविशारद होता है ॥ २९॥ गुरूर्देवो हरः साक्षात्पत्नी तस्य हरप्रिया । अभेदेन भजेद्यस्तु तस्य सिद्धिरदूरतः ॥ ३०॥ जो मनुष्य एकान्तचित्त हो लक्ष्मीदेवी की आराधना करता है वह साक्षात देवदेव शिव की सायुज्यमुक्ति को प्राप्त करता है, उसकी स्त्री हरप्रिया के समान होती है और सिद्धि शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है और यह कहना भी अत्युक्ति नहीं होगा की उस पुरुष की सिद्धि निकटहि वर्तमान है ॥ ३०॥ सर्वदेवमयीं देवीं सर्वमन्त्रमयीं तथा । सुभक्त्या पूजयेद्यस्तु स भवेत्कमलाप्रियः ॥ ३१॥ जो मनुष्य भक्तिसहित सर्वदेवमयी और सर्वमन्त्रमयी लक्ष्मी देवी की पूजा करता है, उस पर निःसंदेह देवी की कृपा होती है । रक्तपुष्पैस्तथा गन्धैर्वस्त्रालङ्करणैस्तथा । भक्त्या यः पूजयेद्देवीं लभते परमां गतिम् ॥ ३२॥ जो मनुष्य लाल फूल, लाल चंदन, वस्त्र और अलंकारादि से भक्तिसहित लक्ष्मी देवी की पूजा करता है, वह अन्तकाल में मोक्ष पाता है ॥ ३२॥ नारी वा पुरूषो वापि यः पठेत्कवचं शुभम् । मन्त्रसिद्धिः कार्यसिद्धिर्लभते नात्र संशयः ॥ ३३॥ जो स्त्री या पुरूष इस कल्याण करनेवाले कवच का पाठ करते हैं, वह निःसंदेह मंत्रसिद्धि और कार्यसिद्धि प्राप्त करते हैं ॥ ३३॥ पठति य इह मर्त्यो नित्यमार्द्रान्तरात्मा । जपफलमनुमेयं लप्स्यते यद्विधेयम् । स भवति पदमुच्चैः सम्पदां पादनम्रः । क्षितिपमुकुटलक्ष्मीर्लक्षणानां चिराय ॥ ३४॥ जो मनुष्य भक्ती से नित्य इस लक्ष्मी कवच का पाठ करता है, वह निःसंदेह उत्तरोत्तर उन्नति करता है ॥ ३४॥ ॥ इति विश्वसारतन्त्रोक्तं लक्ष्मीकवचं कन्हैयलाल मिश्रकृताभाषाटीकासहितं समाप्तम् ॥

श्रीलक्ष्मीकवचम्

अथ श्रीलक्ष्मीकवचप्रारम्भः । ईश्वर उवाच । अथ वक्ष्ये महेशानि कवचं सर्वकामदम् । यस्य विज्ञानमात्रेण भवेत्साक्षात्सदाशिवः ॥ १॥ नार्चनं तस्य देवेशि मन्त्रमात्रं जपेन्नरः । स भवेत्पार्व्वतीपुत्रः सर्वशास्त्रेषु पारगः ॥ २॥ विद्यार्थिना सदा सेव्या विशेषे विष्णुवल्लभा ॥ ३॥ अस्याश्चतुरक्षरिविष्णुवनितारूपायाः कवचस्य श्रीभगवान् शिव ऋषिरनुष्टुप्च्छन्दो वाग्भवी देवता वाग्भवं बीजं लज्जाशक्ती रमा कीलकं कामबीजात्मकं कवचं मम सुपाण्डित्यकवित्वसर्वसिद्धिसमृद्धये जपे विनियोगः ॥ ४॥ ऐङ्कारी मस्तके पातु वाग्भवी सर्वसिद्धिदा । ह्रीं पातु चक्षुषोर्म्मध्ये चक्षुर्युग्मे च शाङ्करी ॥ ५॥ जिह्वायां मुखवृत्ते च कर्णयोर्गण्डयोर्नसि । ओष्ठाधरे दन्तपङ्क्तौ तालुमूले हनौ पुनः । पातु मां विष्णुवनिता लक्ष्मीः श्रीवर्णरूपिणी ॥ ६॥ कर्णयुग्मे भुजद्वन्द्वे स्तनद्वन्द्वे च पार्व्वती । हृदये मणिबन्धे च ग्रीवायां पार्श्वयोः पुनः । सर्वाङ्गे पातु कामेशी महादेवी समुन्नतिः ॥ ७॥ व्युष्टिः पातु महामाया उत्कृष्टिः सर्वदावतु । सन्धिं पातु सदा देवी सर्वत्र शम्भुवल्लभा ॥ ८॥ वाग्भवी सर्वदा पातु पातु मां हरिगेहिनी । रमा पातु सदा देवी पातु माया स्वराट् स्वयम् ॥ ९॥ सर्वाङ्गे पातु मां लक्ष्मीर्विष्णुमाया सुरेश्वरी । विजया पातु भवने जया पातु सदा मम ॥ १०॥ शिवदूती सदा पातु सुन्दरी पातु सर्वदा । भैरवी पातु सर्वत्र भैरूण्डा सर्वदाऽवतु ॥ ११॥ त्वरिता पातु मां नित्यमुग्रतारा सदाऽवतु । पातु मां कालिका नित्यं कालरात्रिः सदाऽवतु ॥ १२॥ नवदुर्गा सदा पातु कामाख्या सर्वदावतु । योगिन्यः सर्वदा पातु मुद्राः पातु सदा मम ॥ १३॥ मातरः पातु देव्यश्च चक्रस्था योगिनीगणाः । सर्वत्र सर्वकार्येषु सर्वकर्म्मसु सर्वदा ॥ पातु मां देवदेवी च लक्ष्मीः सर्वसमृद्धिदा ॥ १४॥ इति ते कथितं दिव्यं कवचं सर्वसिद्धये । यत्र तत्र न वक्तव्यं यदीच्छेदात्मनो हितम् ॥ १५॥ शठाय भक्तिहीनाय निन्दकाय महेश्वरि । न्यूनाङ्गे अतिरिक्ताङ्गे दर्शयेन्न कदाचन ॥ १६॥ न स्तवं दर्शयेद्दिव्यं सन्दर्श्य शिवहा भवेत् ॥ १७॥ कुलीनाय महोच्छ्राय दुर्गाभक्तिपराय च । वैष्णवाय विशुद्धाय दद्यात्कवचमुत्तमम् ॥ १८॥ निजशिष्याय शान्ताय धनिने ज्ञानिने तथा । दद्यात्कवचमित्युक्तं सर्वतन्त्रसमन्वितम् ॥ १९॥ विलिख्य कवचं दिव्यं स्वयम्भुकुसुमैः शुभैः । स्वशुक्रैः परशुक्रैश्च नानागन्धसमन्वितैः ॥ २०॥ गोरोचनाकुङ्कुमेन रक्तचन्दनकेन वा । सुतिथौ शुभयोगे वा श्रवणायां रवेर्दिने ॥ २१॥ अश्विन्यांकृत्तिकायांवाफल्गुन्यांवामघासु च । पूर्व्वभाद्रपदायोगे स्वात्यां मङ्गलवासरे ॥ २२॥ विलिखेत्प्रपठेत्स्तोत्रं शुभयोगे सुरालये । आयुष्मत्प्रीतियोगे च ब्रह्मयोगे विशेषतः ॥ २३॥ इन्द्रयोगे शुभयोगे शुक्रयोगे तथैव च । कौलवे बालवे चैव वणिजे चैव सत्तमः ॥ २४॥ शून्यागारे श्मशाने वा विजने च विशेषतः । कुमारीं पूजयित्वादौ यजेद्देवीं सनातनीम् ॥ २५॥ मत्स्यमांसैः शाकसूपः पूजयेत्परदेवताम् । घृताद्यैः सोपकरणैः पूपसूपैर्व्विशेषतः ॥ २६॥ ब्राह्मणान्भोजायित्वादौ प्रीणयेत्परमेश्वरीम् ॥ २७॥ बहुना किमिहोक्तेन कृते त्वेवं दिनत्रयम् । तदाधरेन्महारक्षां शङ्करेणाभिभाषितम् ॥ २८॥ मारणद्वेषणादीनि लभते नात्र संशयः । स भवेत्पार्व्वतीपुत्रः सर्वशास्त्रविशारदः ॥ २९॥ गुरूर्देवो हरः साक्षात्पत्नी तस्य हरप्रिया । अभेदेन भजेद्यस्तु तस्य सिद्धिरदूरतः ॥ ३०॥ सर्वदेवमयीं देवीं सर्वमन्त्रमयीं तथा । सुभक्त्या पूजयेद्यस्तु स भवेत्कमलाप्रियः ॥ ३१॥ रक्तपुष्पैस्तथा गन्धैर्वस्त्रालङ्करणैस्तथा । भक्त्या यः पूजयेद्देवीं लभते परमां गतिम् ॥ ३२॥ नारी वा पुरूषो वापि यः पठेत्कवचं शुभम् । मन्त्रसिद्धिः कार्यसिद्धिर्लभते नात्र संशयः ॥ ३३॥ पठति य इह मर्त्यो नित्यमार्द्रान्तरात्मा । जपफलमनुमेयं लप्स्यते यद्विधेयम् । स भवति पदमुच्चैः सम्पदां पादनम्रः । क्षितिपमुकुटलक्ष्मीर्लक्षणानां चिराय ॥ ३४॥ ॥ इति विश्वसारतन्त्रोक्तं लक्ष्मीकवचं कन्हैयलाल मिश्रकृताभाषाटीकासहितं समाप्तम् ॥ Encoded and proofread by Madhura Bal madhurabal11 at gmail.com
% Text title            : Laxmi Kavacham 3
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% Category              : devii, lakShmI, kavacha, devI
% Location              : doc_devii
% Sublocation           : devii
% SubDeity              : lakShmI
% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Transliterated by     : Madhura Bal madhurabal11 at gmail.com
% Proofread by          : Madhura Bal madhurabal11 at gmail.com
% Description/comments  : Vishvasaratantra
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% Latest update         : September 27, 2018
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