सौन्दर्यलहरी गुजराती सार्थ

सौन्दर्यलहरी गुजराती सार्थ

श्रीमत् शंकराचार्य विरचित सरळ गुजराती अनुवाद सहित अनुवादक : शांतिकुमार जयशंकर भट्ट एम।ए।,एलएल,बी,साहित्य-रत्न ॥ सौन्दर्यलहरी ॥ आनन्दलहरी (१-४०) शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि । अतस्त्वामाराध्यां हरिहरविरिञ्चादिभिरपि प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृतपुण्यः प्रभवति ॥ १॥ स्तुति जो शिव (परमात्मा) शक्तिनी साथे होय तो ज सृष्टिनी रचना करी शके छे अने जे एम न होय (अर्थात् शक्ति साथे न होय) तो आ देव खरेखर हलनचलन पण करी शकता नथी। तेथी हरि, रुद्र, अने ब्रह्मा वडे पूजवा योग्य एवी तने प्रणाम करवा माटे के (तारी) स्तुति करवा माटे (मारा जेवा ) पुण्यहीन केवी रीते समर्थ थाय ? तनीयांसं पांसुं तव चरणपङ्केरुहभवं विरिञ्चिस्सञ्चिन्वन् विरचयति लोकानविकलम् । वहत्येनं शौरिः कथमपि सहस्रेण शिरसां हरस्संक्षुद्यैनं भजति भसितोद्धूलनविधिम् ॥ २॥ देवीना पगनी रज (हे देवि) तारा चरणरूपी कमळमां उत्पन्न थयेली सूक्ष्म रजने एकठी करीने ब्रह्मा स्थावर जंगमात्मक अखंड सृष्टिओनी विविध रचना करे छे; शेषनाग हजार मस्तक उपर भारे श्रमथी एने धारण करे छे (अने) हर एनो नाश करी एनी भस्म बनावी अंग पर लगावे छे। अविद्यानामन्त-स्तिमिर-मिहिरद्वीपनगरी जडानां चैतन्य-स्तबक-मकरन्द-स्रुतिझरी । दरिद्राणां चिन्तामणिगुणनिका जन्मजलधौ निमग्नानां दंष्ट्रा मुररिपु-वराहस्य भवति ॥ ३॥ पगनी रजनी शक्ति (आ रज) अज्ञानीओना हृदयमांना अंधकार मारे सूर्यना प्रकाशने सतेज करे छे, जड लोको माटे चैतन्य (रूपी पुष्पो) ना गुच्छामांथी झरता रसना झरणां जेवी छे; दीनजनो माटे चिंतामणिओनी माळा छे अने संसारसागरमां डूबेलाओ माटे विष्णुना वराह अवतारना आगळना दांत ( जेवी) छे। त्वदन्यः पाणिभ्यामभयवरदो दैवतगणः त्वमेका नैवासि प्रकटितवराभीत्यभिनया । भयात् त्रातुं दातुं फलमपि च वाञ्छासमधिकं शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ ॥ ४॥ देवीना चरणो (हे देवि) तारा सिवायना देवोना समूहो बे हाथ वडे अभयदान अने वरदान आपे छे, परतु तुं तो एवी छे के,वरदान अने अभयदान अभिनय वडे प्रगट करती नथी। (कारण के) हे चौद भुवन माटे शरण लेवा लायक (देवि), भयमांथी रक्षण करवा अने वळी इच्छेला करतां पण वधु फळ आपवा माटे तारा चरणो ज समर्थ छे। हरिस्त्वामाराध्य प्रणतजनसौभाग्यजननीं पुरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभमनयत् । स्मरोऽपि त्वां नत्वा रतिनयनलेह्येन वपुषा मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम् ॥ ५॥ देवीनुं अप्रतिम सौंदर्य तुं प्रणाम करनाराओने भाग्यशाळी बनावती होवाथी भगवान विष्णुए तारी आराधना करी हती। अने नारी(मोहिनी)नुं स्वरूप धारण करी त्रिपुरारि- (महादेव)ना चित्तने पण विचलित कर्यु हतुं। वळी कामदेव पण तने प्रणाम करीने रतिना नयनथी चुंबन कराता शरीर वडे (अर्थात् अत्यंत मनोहर अने अदश्य शरीर वडे) मोटा मोटा मुनिओना अंतः- करणमां पण मोह उत्पन करी शके छे। धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पञ्च विशिखाः वसन्तः सामन्तो मलयमरुदायोधनरथः । तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपि कृपाम् अपाङ्गात्ते लब्ध्वा जगदिद-मनङ्गो विजयते ॥ ६॥ देवीना कृपाकटाक्ष हे हिमालयनी पुत्री,(कामदेवनुं) धनुष्य पुष्पोनुं छे, धनुष्यनी दोरी भमराओनी छे,(शब्द, स्पर्श, रस,रूप अने गंध ) पांच बाण छे, वसंत सामंत छे, मलय पर्वतने पवन युद्धनो रथ छे अने पोताने तो शरीर पण तथी। छतां तारा कटाक्षनी जरा जेटली कृपा पण पामीने एकलो (कामदेव) आ साराय जगतने जीती ले छे। क्वणत्काञ्चीदामा करिकलभकुम्भस्तननता परिक्षीणा मध्ये परिणतशरच्चन्द्रवदना । धनुर्बाणान् पाशं सृणिमपि दधाना करतलैः पुरस्तादास्तां नः पुरमथितुराहोपुरुषिका ॥ ७॥ भूषणो अने आयुधो साथे खणखणाट करती केडनी मेखलावाळी, हाथीना बच्चाना कुंभस्थळ जेवा स्तनोथी नमेली,अत्यन्त पातळी केडवाळी,सोळे कळाए खीलेला चंद्र जेवा वदनवाळी,हाथोमां धनुष्य,बाण,पाश अने अंकुश धारण करेली अने-त्रिपुरारि (महादेव) जेने माटे गर्व धारण करे छे एवी देवी अमारी सामे (ध्यानमां) रहो। सुधासिन्धोर्मध्ये सुरविटपिवाटीपरिवृते मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणिगृहे । शिवाकारे मञ्चे परमशिवपर्यङ्कनिलयां भजन्ति त्वां धन्याः कतिचन चिदानन्दलहरीम् ॥ ८॥ परमशिवना पलंगमां स्थान (हे देवि!) अमृतना समुद्रनी वचमां क९५- वृक्षोनी धटाओथी धेरायेला मणिद्वीप नामनो बेट छे, आ बेटमां कदंबनां वृक्षोनो बगीचो छे। आ बगीचामां चिंतामणिओनुं बनावेलुं धर छे। एमां कल्याणनुं स्वरूप धारण करतो पलंग छे। एमां परम कल्याणरूप शय्यामां तारो निवास छे आवी चित्तना आनंदनी लहेरीरूपी तने जे विरल लोको भजे छे तेओ धन्य छे। महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि । मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे ॥ ९॥ सहस्रारपद्ममां स्थान मूलाधारचक्रमां पृथ्वीतत्त्वने,मणिपुरचक्रमां जल अने अग्नितत्त्वने तथा स्वाधिष्ठानचक्रमां रहेला अग्नि- तत्त्वने, हृदयमां वायुतत्त्वने अने उपर (विशुद्धचक्रमां ) आक्राशतत्त्वने तथा भ्रूकुटिनी मध्यमां मनने आवी रीते शक्तिना तमाम मार्गोने वींधीने तुं हजार पांखडीवाळा कमळमां (सहस्रारचक्रमां) पतिनी साथे एकांतमां विहरे छे। सुधाधारासारैश्चरणयुगलान्तर्विगलितैः प्रपञ्चं सिञ्चन्ती पुनरपि रसाम्नायमहसः । अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभमध्युष्टवलयं स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणि ॥ १०॥ आधारकमां स्थान हे गुफामां रहेनारी ( देवि), तारा बन्ने चरणनी अंदरथी टपकती अमृतनी धाराओनी वर्षाथी तुं प्रपंचने (बोंतेर हजार नाडीओने ) सींचे छे अने वळी अमृतना गुणनी अधिकताने लीधे आधारचक्रमां पहोंची जईने पातानी जातने सर्पना जेवी गूंचळा- ना आकारनी बनावी आधारचक्रमां ( योगनिद्रामां ) निद्राधीन थई जाय छे। चतुर्भिः श्रीकण्ठैः शिवयुवतिभिः पञ्चभिरपि प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपि मूलप्रकृतिभिः । चतुश्चत्वारिंशद्वसुदलकलाश्रत्रिवलय- त्रिरेखाभिः सार्धं तव शरणकोणाः परिणताः ॥ ११॥ श्रीचक-निवासस्थान चार श्रीकंठ अने पांच शिवयुवतीओ एम नव मूल प्रकृतिओ वडे तारा निवासस्थान माटे ४३ त्रिंकोण बने छे अने ते शंभुना बिंदुस्थानथी अलग छे। आ तारुं निवासस्थान त्रण वर्तुळो अने त्रण रेखाओ सहित (आठ) वसु अने (सोळ) कळाओवाळुं छे। त्वदीयं सौन्दर्यं तुहिनगिरिकन्ये तुलयितुं कवीन्द्राः कल्पन्ते कथमपि विरिञ्चिप्रभृतयः । यदालोकौत्सुक्यादमरललना यान्ति मनसा तपोभिर्दुष्प्रापामपि गिरिशसायुज्यपदवीम् ॥ १२॥ सौंदर्य हे हिमालयनी पुत्री,तारा सौदर्यनी सरखा- मणी करवा माटे ब्रह्मा वगेरे सहुथी मोटा कविओ भारे मुश्केलीथी कल्पना करी शके छे। तारुं सौदर्य जोवानी उत्सुकताने लीधे अप्सराओ ध्यानस्थ थई जाय छे अने तप वडे पण महामुश्केलीथी मळी शके शिवसायुज्यनी (साक्षात्कारना दिव्य आनंदनी) पदवीने पामे छे। नरं वर्षीयांसं नयनविरसं नर्मसु जडं तवापाङ्गालोके पतितमनुधावन्ति शतशः । गलद्वेणीबन्धाः कुचकलशविस्रस्तसिचया हठात् त्रुट्यत्काञ्च्यो विगलितदुकूला युवतयः ॥ १३॥ दृष्टिनो महिमा (हे देवि) कोई अति वृद्ध होय,आंखथी कशुं जोवानो रस धरावतो न होय अने कामक्रीडामां जड बनी गयेलो होय पण एवा मानवी उपर तारी दष्टि पडतांनी साथे ज तेनी पाछळ सेंकडो युवतीए दोडे छे अने तेमनी वेणीना बंध तूटी जाय छे; स्तनप्रदेश परथी वस्रो सरकी पडे छे; गळामांनी मोतीनी माळाओ तूटी जाय छे अने रेशमी वस्त्रो सरी पडे छे। ( स्री ए शक्तिनुं प्रतीक छे अने तेथी युवतीओना रूपक द्वारा अहीं एनामां जागृत थती शक्तिओ समजवानी छे।) क्षितौ षट्पञ्चाशद् द्विसमधिकपञ्चाशदुदके हुताशे द्वाषष्टिश्चतुरधिकपञ्चाशदनिले । दिवि द्विष्षट्त्रिंशन्मनसि च चतुष्षष्टिरिति ये मयूखास्तेषामप्युपरि तव पादाम्बुजयुगम् ॥ १४॥ षट्चक्रमां सौथी उपर स्थान पृथ्वीतत्त्ववाळा ( मूलाधारमां) छप्पन,पाणीना तत्त्ववाळा (मणिपुरस्थानमां) बावन, अग्नितत्ववाळा (स्वाधिष्ठानचक्रमां) बासठ, वायुतत्त्ववाळा ( अनाहत- चक्रमां ) चोपन, आक्राशतत्त्ववाळा ( विशुद्रिचक्रमां ) बातेर अने मनस्तत्त्ववाळा (आज्ञाचक्रमां) चोसठ-आवी रीते तारां किरणो प्रसिद्ध छे अने तेमनी उपर (सहस्रार- चक्रमां) कमळो जेवां तारां बन्ने चरणो रहेलां छे। शरज्ज्योत्स्नाशुद्धां शशियुतजटाजूटमकुटां वरत्रासत्राणस्फटिकघटिकापुस्तककराम् । सकृन्न त्वा नत्वा कथमिव सतां संन्निदधते मधुक्षीरद्राक्षामधुरिमधुरीणाः भणितयः ॥ १५॥ वर् फणितयः कवित्वशक्ति आपनर शरदऋतुना चंद्रना प्रकाश शुद्ध,चंद्र सहित जटाने गुच्छ मुगटमां धारण करती, हाथमां स्फटिकनी माळा तथा पुस्तक धारण करीने वरदान तथा भय सामे अभयढान आपती एवी तने जे एक वार पण प्रणाम न करे ते सारा कविनी कविता जेवी मध,दूध अने द्राक्ष जेवी मधुर कविता केवी रीते रचे? कवीन्द्राणां चेतःकमलवनबालातपरुचिं भजन्ते ये सन्तः कतिचिदरुणामेव भवतीम् । विरिञ्चिप्रेयस्यास्तरुणतरश‍ृङ्गारलहरी- गभीराभिर्वाग्भिर्विदधति सतां रञ्जनममी ॥ १६॥ (हे देवि ) तुं मोटा कविओनां कमळोथी शोभता वनरूपी चित्त माटे प्रभातना सूर्यना तडका जेवी मधुर छे। तारा आवा लालाश पडता स्वरूपनुं घ्यान जे संतो जरा पण धरे छे, तेओ सरस्वतीनी शक्तिशाळी शॄंगारनी लहरीवाळी छतां गूढ ( अर्थ धरावती ) वाणी वडे श्रोताओनां हृदयने आनंदित करे छे। (अर्थात् उपरथी शॄंगारमय होवा छतां अंदर जुदो ज भावार्थ होय एवी उत्तम कविता बनावे छे।) सवित्रीभिर्वाचां शशिमणिशिलाभङ्गरुचिभिः वशिन्याद्याभिस्त्वां सह जननि संचिन्तयति यः । स कर्ता काव्यानां भवति महतां भङ्गिरुचिभिः वचोभिर्वाग्देवीवदनकमलामोदमधुरैः ॥ १७॥ हे माता,तारुं स्वरूप चंद्रकांत नामना मणि जेवुं मनोहर छे, जे वशिनी वगेरे आठ सावित्री साथे तारुं ध्यान धरे छे ते उच्च काटिनां अने मनो- हर अर्थ वाळां काव्यो रची शके छे अने एना आ वाणीनो विलास सरस्वतीना मुखरूपी कमळने आनंद पमाडे तेवा मधुर होय छे। ( आठ सावित्रीओ- वशिनी, कामेश्वरी,मोदिनी,विमला,अरणा,जयिनी, सर्वेश्वरी ने कौलिनी आ सर्वरोगहर आठ खूणा- वाळा चक्रनी वाग्देवीओ छे, ) तनुच्छायाभिस्ते तरुणतरणिश्रीसरणिभिः दिवं सर्वामुर्वीमरुणिमनि मग्नां स्मरति यः । भवन्त्यस्य त्रस्यद्वनहरिणशालीननयनाः सहोर्वश्या वश्याः कति कति न गीर्वाणगणिकाः ॥ १८॥ स्त्रीने वश करवानी शक्ति आपनार तारा शरीरनी कांति प्रभातनां सूर्यनी शोभा जेवी छे अने तेना वडे आकाश अने पृथ्वी लालाशथी छवाई जाय छे। ( आवा तारा स्वरूपनुं ) ध्यान धरे छे तेना वशमां, जंगलमां गभरायेला सुंदर हरणो जेवां नयनावाळी उर्वशी वगेरे केट- केटली अप्सराओ न आवी जाय ?(अही अप्सराओ एटले मात्र प्रेयस् तरफ दोरी जती मननी चंचळ वृत्तिओ समजवानी छे। ) मुखं बिन्दुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य तदधो हरार्धं ध्यायेद्यो हरमहिषि ते मन्मथकलाम् । स सद्यः संक्षोभं नयति वनिता इत्यतिलघु त्रिलोकीमप्याशु भ्रमयति रवीन्दुस्तनयुगाम् ॥ १९॥ मुखने बिंदुं बनावीने,एनी नीचे बे स्तनने बे बिदुं बनावीने हरना अर्ध भागनुं ध्यान धरवुं जोईए। हे शिवनी पटराणी,आवी रीते जे तारी कामकलानुं ध्यान धरे छे ए तरत ज स्रीओनां चित्तमां क्षोभ उत्पन्न करे छे ए ता ठीक छे, पण सूर्य अने चंद्र जेना स्तन छे एवा त्रिभुवनने पण डोलावे छे। (अही त्रिभुवननी सरखामणी विराट स्री साथे करवामां आवी छे अने एने डोलावनार अर्थात् शक्तिमय बनी जनार माटे सामान्य स्रीओनुं आकर्षण पण कचांथी रहे ? ) किरन्तीमङ्गेभ्यः किरणनिकुरम्बामृतरसं हृदि त्वामाधत्ते हिमकरशिलामूर्तिमिव यः । स सर्पाणां दर्पं शमयति शकुन्ताधिप इव ज्वरप्लुष्टान् दृष्ट्या सुखयति सुधाधारसिरया ॥ २०॥ विषमज्वर हरनार जे मनुष्य अंगोमांथी अमृतररूपी किरणोना समूहने फेलावता तथा चंद्रकांत मणिनी मूर्ति होय एवा तारा स्वरूपनुं ध्यान धरे छे, ते गरुडनी माफक सापना गर्वनुं शमन करे छे अने पोतानी अमृत वरसावती ( आज्ञाचक्रमां रहेली नाडीने लीधे ) जोतांनी साथे ज तावथी पीडाता लोकोने सुख आपे छे। तटिल्लेखातन्वीं तपनशशिवैश्वानरमयीं निषण्णां षण्णामप्युपरि कमलानां तव कलाम् । महापद्माटव्यां मृदितमलमायेन मनसा महान्तः पश्यन्तो दधति परमाह्लादलहरीम् ॥ २१॥ परम आनंद आपनार (हे देवि) तारी कला वीजळीनी रेखा जेवी पातळी अने सूर्य,चंद्र तथा अग्नि तेमां रहेला छे तथा ते षट्रचक्ररूपी कमळोनी उपर महापद्म- (सहस्रारचक्र)ना वनमां रहेली छे। आ कलाने महापुरुषो मायारूपी मळथी मुक्त थयेला मन वडे जुए छे अने परम आनंदनी लहेरीनो अनुभव करे छे। भवानि त्वं दासे मयि वितर दृष्टिं सकरुणा- मिति स्तोतुं वाञ्छन् कथयति भवानि त्वमिति यः । तदैव त्वं तस्मै दिशसि निजसायुज्यपदवीं मुकुन्दब्रह्मेन्द्रस्फुटमकुटनीराजितपदाम् ॥ २२॥ साचुज्य पद आपनार हे भवानि, मारा ( जेवा) दास पर तारी दयामय दृष्टि नाख ! एम स्तुति करवा इच्छनार ज्यारे हजी तो हे भवानि॥॥ एम कहे छे त्यां ज तुं तेने एवुं सायुज्यपद आपे छे के जे पदनी आरती ब्रह्मा,विष्णु अने इंद्र पण पाताना मुगटना प्रकाशथी उतारे छे। त्वया हृत्वा वामं वपुरपरितृप्तेन मनसा शरीरार्धं शम्भोरपरमपि शङ्के हृतमभूत् । यदेतत्त्वद्रूपं सकलमरुणाभं त्रिनयनं कुचाभ्यामानम्रं कुटिलशशिचूडालमकुटम् ॥ २३॥ गात्रो शंभुनुं डाबा भागनुं शरीर हरी लेवा छतां पण तारूं मन संताष पाम्युं न होय तेथी अर्धुं शरीर पण तें हरी लीधुं छे एम हुं मानुं छुं; कारण के तारुं आ आखुं शरीर लालाश पडता रंगथी प्रकाशे छे, त्रण नयनो धरावे छे अने बीजनो चंद्र केशना मुगटमां छे। जगत्सूते धाता हरिरवति रुद्रः क्षपयते तिरस्कुर्वन्नेतत्स्वमपि वपुरीशस्तिरयति । सदापूर्वः सर्वं तदिदमनुगृह्णाति च शिव- स्तवाज्ञामालम्ब्य क्षणचलितयोर्भ्रूलतिकयोः ॥ २४॥ स्व-आज्ञा-परतंत्र त्रिमूर्ति ब्रह्मा जगतनुं सर्ज न करे छे,विष्णु एनुं रक्षणु करे छे अने रुद्र एनो संहार करे छे। ए त्रणेय देवोने दूर करीने इश्वर पण पाताना शरीरने अंतर्धान करे छे। पछी ``सदा'' शब्द जेमना नामनी आगळ छे एवा सदाशिव एक क्षण माटे फरकेल भ्रमररूपी लता- ओ पासेथी आज्ञा मेळवीने एने पाताना शरीरमां लीन करे छे। ( अर्थात् देवीनी आंख बंध थवाथी आपेआप सदाशिवनी आंख पण बिडाई जाय छे अने समग्र विश्व तेमां समाई जाय छे। ) त्रयाणां देवानां त्रिगुणजनितानां तव शिवे भवेत् पूजा पूजा तव चरणयोर्या विरचिता । तथा हि त्वत्पादोद्वहनमणिपीठस्य निकटे स्थिता ह्येते शश्वन्मुकुलितकरोत्तंसमकुटाः ॥ २५॥ त्रिमूर्तिनी पूजा थाय एवी देवीनी पूजा शिव,तारा बंने चरणनी जे पूजा करवामां आवे तेने लीधे तारा त्रण गुण ( सत्त्व,रजस् अने तमस्)मांथी जन्मेला त्रण देवोनी पूजा थई जाय छे। अने ए बराबर छे; कारण के तारा पग मूकवानुं जे मणिओथी जडेलुं आसन छे,तेनी पासे तेओ हमेशां हाथ जेडीने तथा मुगट नमावीने ऊभा रहे छे। विरिञ्चिः पञ्चत्वं व्रजति हरिराप्नोति विरतिं विनाशं कीनाशो भजति धनदो याति निधनम् । वितन्द्री माहेन्द्री विततिरपि संमीलितदृशा महासंहारेऽस्मिन् विहरति सति त्वत्पतिरसौ ॥ २६॥ कल्पांते पण जीवंत ज्यारे महाप्रलय थाय छे त्यारे ब्रह्मा मृत्यु पामे छे,विष्णु पण मरण पामे छे,यमराजानो पण नाश थाय छे। कुबेरनुं पण अवसान थाय छे। जेने कयारेय पण तंद्रा आवती नथी एवो महेंद्र पण पातानी फेलायेली ( हजार ) आंखो बंध करी दे छे, पण त्यारे हे सति,तारा आ पति सदाशिव विहार करे छे। जपो जल्पः शिल्पं सकलमपि मुद्राविरचना गतिः प्रादक्षिण्यक्रमणमशनाद्याहुतिविधिः । प्रणामस्संवेशस्सुखमखिलमात्मार्पणदृशा सपर्यापर्यायस्तव भवतु यन्मे विलसितम् ॥ २७॥ बधां कार्यमां देवीनी पूजा हुं बोलुं ते ( मंत्रनो ) जप,हाथ वगेरेनुं हलनचलन ए मुद्रानी रचना,मारी हरफर ते प्रदक्षिणा,भोजन लेवुं ते आहुतिनी क्रिया, पड्या रहेवुं ते प्रणाम, बधां सुखोना उपभोग ते आत्म- समर्पणनी दष्टि - आम हुं जे कंई करुं ते तारी पूजा- मां फेरवाई जाव। सुधामप्यास्वाद्य प्रतिभयजरामृत्युहरिणीं विपद्यन्ते विश्वे विधिशतमखाद्या दिविषदः । करालं यत्क्ष्वेलं कबलितवतः कालकलना न शम्भोस्तन्मूलं तव जननि ताटङ्कमहिमा ॥ २८॥ देवीना कुंडळनो महिमा अमृत दुश्मनना भयने, वृद्रावस्थाने तथा मृत्यु- ने दूर राखे छे। आवुं अमृत पीवा छतां ब्रह्मा,इंद्र वगेरे देवो विश्वमां ( प्रलयकाळमां ) मृत्यु पामे पण भयंकर हळाहळ झेर पीनार शंभु पर काळनुं कंई चालतुं नथी,एनुं कारण तारा काननां कुंडळनो (तारा सतीपणाना प्रभावनो ) महिमा छे। किरीटं वैरिञ्चं परिहर पुरः कैटभभिदः कठोरे कोटीरे स्खलसि जहि जम्भारिमुकुटम् । प्रणम्रेष्वेतेषु प्रसभमुपयातस्य भवनं भवस्याभ्युत्थाने तव परिजनोक्तिर्विजयते ॥ २९॥ पतिमिलननी आतुरता अचानक भगवान शंकरने तारा निवास्थान पर आवेला जोईने तेम ज ब्रह्मा,विष्णु तथा इंद्र तने प्रणाम करी रह्या छे ए ( जोईने ) तारी दासी- ओ कहे छे के, ``ब्रह्माना मुगट ने दूर राखो; कैटभ राक्षसने मारनार विष्णुना मजबूत मुगटनी ( रखे ) ठोकर लागे; जम्भ नामना राक्षसने मारनार इंद्र- ना मुगटने पण् बाजुए राखो'' आवी तारी दासी- ओनी वाणी विजय पामे छे, स्वदेहोद्भूताभिर्घृणिभिरणिमाद्याभिरभितो निषेव्ये नित्ये त्वामहमिति सदा भावयति यः । किमाश्चर्यं तस्य त्रिनयनसमृद्धिं तृणयतो महासंवर्ताग्निर्विरचयति निराजनविधिम् ॥ ३०॥ अष्टसिद्धिमय किरणो हे सेवा करवा याग्य अने आदि तथा अंत वगरनी देवि,तारा पोताना देहमांथी बधी बाजुथी अणिमा वगेरे सिद्धिनां किरणो नीकळे छे। आवा तारा स्वरूपनुं जे भक्त,``तुं ते हुं छुं'' एम मानी हमेशां ध्यान धरे छे (तारी साथे तन्मय बनी जाय छे ),आरती प्रलयकाळनो अग्नि उतारे छे। चतुष्षष्ट्या तन्त्रैः सकलमतिसंधाय भुवनं स्थितस्तत्तत्सिद्धिप्रसवपरतन्त्रैः पशुपतिः । पुनस्त्वन्निर्बन्धादखिलपुरुषार्थैकघटना- स्वतन्त्रं ते तन्त्रं क्षितितलमवातीतरदिदम् ॥ ३१॥ देवीनुं तंत्र चोसठ सिद्धांतो( तंत्रो )नी सिद्धिओनो आधार ए सिद्धिओना जन्म पर रहेला छे ( अर्थात् ज्यां सुधी सिद्धिओ मळे नही त्यां सुधी पुरुषार्थ नकामो जाय छे )-आवा प्रकारनी रचना करीने साराय (मायामय ) जगतने छेतरीने भगवान शंकर स्थिर थई गया, पण तारा आग्रहने लीधे तारा स्वतन्त्र ( तंत्र ) सिद्रांतने ( तमाम पुरुषार्थनी सिद्धि मळे-तमाम आराधनानुं केळ मळे ए माटे ) पृथ्वीना पट पर उतार्या। शिवः शक्तिः कामः क्षितिरथ रविः शीतकिरणः स्मरो हंसः शक्रस्तदनु च परामारहरयः । अमी हृल्लेखाभिस्तिसृभिरवसानेषु घटिता भजन्ते वर्णास्ते तव जननि नामावयवताम् ॥ ३२॥ देवीमंत्र शिव ( ककार ), शक्ति (ऐकार), काम (इकार ), पृथ्वी (लकार ) अने सूर्य ( हकार ), चंद्र ( सकार ), स्मर ( ककार ), हंस ( हकार ), इंद्र ( लकार ) अने त्यार बाद पराशक्ति (सकार ), मार (ककार) अने हरि (लकार) आ त्रणेयना अंतमां ३ हृल्लेखाओ तारा नामना अवयवस्वरूप अक्षरोने साधको भजे छे, (अहीं हादि लोपामुद्राना मंत्रनो उल्लेख छे, जेना पंदर अक्षरो छे।) स्मरं योनिं लक्ष्मीं त्रितयमिदमादौ तव मनो- र्निधायैके नित्ये निरवधिमहाभोगरसिकाः । भजन्ति त्वां चिन्तामणिगुननिबद्धाक्षवलयाः शिवाग्नौ जुह्वन्तः सुरभिघृतधाराहुतिशतैः ॥ ३३॥ कामदेव,भुवनेश्वरी तथा श्रीबीज ए त्रणेने पहेलां तारा मंत्रमां जोडीने,हे आदि अने अंत वगरनी देवि,शाश्वत सुख अनुभववा इच्छनारा चित्कलारूपी मणिओने त्रिगुण( सत्त्,रजस तमस)ना दोरामां परोवी अमर माळा धारण करे छे अने (कुंडलिनीना मुखरूपी ) शिवाग्निमां (हवन- कुंडमां) कामधेनुना धीनी सेंकडो आहुत्तिओ आपीने तने भजे छे। शरीरं त्वं शम्भोः शशिमिहिरवक्षोरुहयुगं तवात्मानं मन्ये भगवति नवात्मानमनघम् । अतश्शेषश्शेषीत्ययमुभयसाधारणतया स्थितः संबन्धो वां समरसपरानन्दपरयोः ॥ ३४॥ शिव-शक्तिनो संबंध हे भगवति, हुं मानुं छुं के,तुं ज शंभुनुं शरीर छे अने चंद्र तथा सूर्य तारा बंने स्तन छे तथा तारो आत्मा ए जाणे के शंकरनो नवो आत्मा छे। एटले तमे बंने पराशक्ति अने आनंद एकरस बनी गयां होवाथी तमारा संबंध शेष अने शेषी जेवो छे ( एकात्मभाववाळो छे। ) मनस्त्वं व्योम त्वं मरुदसि मरुत्सारथिरसि त्वमापस्त्वं भूमिस्त्वयि परिणतायां न हि परम् । त्वमेव स्वात्मानं परिणमयितुं विश्ववपुषा चिदानन्दाकारं शिवयुवति भावेन बिभृषे ॥ ३५॥ देवीनी सर्वत्र व्यापकता शिवनी युवती,तुं मन छे,तुं आकाश छे, तुं पवन छे अने पवन जेनो सारथि छे एवो अग्नि पण तुं छे,तुं पाणी छे अने तुं भूमि छे। तारा (प्रकृत्तिना) विस्तारनी बहार कशुं ज नथी। तें पोते ज पोतानो विस्तार करवा माटे विश्वरूपी देह वडे ब्रह्मस्वरूपनो विस्तार कर्चो छे। तवाज्ञाचक्रस्थं तपनशशिकोटिद्युतिधरं परं शम्भुं वन्दे परिमिलितपार्श्वं परचिता । यमाराध्यन् भक्त्या रविशशिशुचीनामविषये निरालोकेऽलोके निवसति हि भालोकभवने ॥ ३६॥ आज्ञाचक्र (हे देवि) तारा आज्ञाचक्रमां रहेला अने अग- णित सूर्य अने चंद्रना प्रकाश धारण करनारा परम शिवने हुं वंदन करुं छु डे, जेमना डाबो भाग परम चैतन्यरूप (पार्वती साथे) साव मळी गयो छे। आवा परम शिवनी जे भक्तिपूर्वक आराधना करे छे ते जयां सूर्य, चंद्र अने अग्नि न होय एवा अदृश्य एकांतमय प्रकाशमय जगतमां (सहस्रारचक्रमां ) निरांते वसे छे, विशुद्धौ ते शुद्धस्फटिकविशदं व्योमजनकं शिवं सेवे देवीमपि शिवसमानव्यवसिताम् । ययोः कान्त्या यान्त्याः शशिकिरणसारूप्यसरणे- विधूतान्तर्ध्वान्ता विलसति चकोरीव जगती ॥ ३७॥ विशुद्धिचक्र तारा विशुद्धिचक्रमां आकाशतत्त्वना जनक,शुद्ध स्फटिक जेवा स्वच्छ शिवनी निर्गुण शिव समान ज रहेली देवीनी पण हुं सेवा करुं छुं। आ बंनेनी चंद्रनां किरणो जेवी कांतिथी त्रणेय लोक पातानो (अज्ञानरूपी ) अंदरना अंधकार नाश पामवाथी चकोरी माकृक आनंदी बने छे। समुन्मीलत् संवित् कमलमकरन्दैकरसिकं भजे हंसद्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम् । यदालापादष्टादशगुणितविद्यापरिणति- र्यदादत्ते दोषाद् गुणमखिलमद्भ्यः पय इव ॥ ३८॥ अनाकतचक्र विकसता ज्ञानरूपी कमळमांथी नीकळता रसना शोखीन अवर्णनीय अने महापुरुषोना मनमां करनारा हंसना युगलनी हुं आराधना करु छुं। आ युगलना अवाजथी १८ विद्याओना विकास थाय छे अने आ युगल पाणीमांथी दूध काढी ले तेम दोषमांथी बधाय गुणने काढी ले छे। तव स्वाधिष्ठाने हुतवहमधिष्ठाय निरतं तमीडे संवर्तं जननि महतीं तां च समयाम् । यदालोके लोकान् दहति महति क्रोधकलिते दयार्द्रा या दृष्टिः शिशिरमुपचारं रचयति ॥ ३९॥ स्वाधिष्ठानचक्र हे जननि,तारां स्वाधिष्ठानचक्रमां अग्नितत्त्वने हमेशां बराबर स्थापीने, जे संवर्ताग्नि छे तेनी तथा ए महती समयादेवीनी हुं आराधना करुं छुं।जयारे संवर्ताग्नि ( प्रलयनो अग्नि) कोधभरी नजरथी त्रणेच लोकोने सळगावी देवा मांडे छे,त्यारे आ समयादेवीनी दयार्द्र नजरथी एमने ठंडक वळे छे। तटित्त्वन्तं शक्त्या तिमिरपरिपन्थिफुरणया स्फुरन्नानारत्नाभरणपरिणद्धेन्द्रधनुषम् । तव श्यामं मेघं कमपि मणिपूरैकशरणं निषेवे वर्षन्तं हरमिहिरतप्तं त्रिभुवनम् ॥ ४०॥ मणिपुरचक्र तारा मणिपुरचक्रना शरणमां गयेला श्याम मेघोनुं रूप धारण करनारा कं नामना जलनी पण हुं सेवा करुं छुं के, जेमां अंधकारनी दुश्मन वीजळीनी चमक आभूषणोमां जडेलां विविध रत्नोनी चमकनी माफक इंद्रधनुष्यनुं रूप धारण करे छे अने जे अग्निने सूर्यना तापथी तपी गयेला त्रिभुवन पर वर्षा करे छे। तवाधारे मूले सह समयया लास्यपरया नवात्मानं मन्ये नवरसमहाताण्डवनटम् । उभाभ्यामेताभ्यामुदयविधिमुद्दिश्य दयया सनाथाभ्यां जज्ञे जनकजननीमज्जगदिदम् ॥ ४१॥ आधारचक्र (हे देवि) लास्य नृत्यमां तल्लीन बनेली समया- देवीनुं अने नव रस धरावता अद्दभुत तांडवना नृत्य- कार आनंदभैरवनुं चिंतन हुं मूलाधारचक्रमां करूं छुं। आ बन्नी दया करीने जगतने उत्पन्न कर्युं होवाथी जगतने माता अने पिता पण मळी गयां एम हुं मानुं छुं। सौन्दर्यलहरी गतैर्माणिक्यत्वं गगनमणिभिः सान्द्रघटितं किरीटं ते हैमं हिमगिरिसुते कीर्तयति यः । स नीडेयच्छायाच्छुरणशबलं चन्द्रशकलं धनुः शौनासीरं किमिति न निबध्नाति धिषणाम् ॥ ४२॥ देवीनो मुगट हिमालयनी पुत्री,तारा सोनाना मुगटमां आकाशना अनेक मणिओ ( ताराओ ) जडवामां आव्या छे आने तेमां पृथ्वीना माळा जेवो चंद्रने टुकडो (बीजनो चंद्र ) मणीओना प्रकाशथी चमके छे। (बीजना आ चंद्र पर मुगटना विविध मणिओ- ना प्रकाश पडवाथी ते इंद्रधधनुष्य जेवो देखातो होवाथी) आवा मुगटनुं वर्णन करनारा एम केम नहीं माने के,आ तो इंद्रधनुष्य छे ? धुनोतु ध्वान्तं नस्तुलितदलितेन्दीवरवनं घनस्निग्धश्लक्ष्णं चिकुरनिकुरुम्बं तव शिवे । यदीयं सौरभ्यं सहजमुपलब्धुं सुमनसो वसन्त्यस्मिन् मन्ये वलमथनवाटीविटपिनाम् ॥ ४३॥ देवीना केश हे शिवे ! तारा भरचक,चमकता अने मुलायम केश भूरा कमळना वन जेवा (लागे ) छे,आ केश- ना समूहे अमारा (अज्ञानरूपी) अंधकारने दूर करो। इंद्रना बगीचाना कल्पवृक्षनां पुष्पो आ केशमांथी कुदरती सुगंध प्राप्त करवा आ केशमां ज आवी वस्यां छे। तनोतु क्षेमं नस्तव वदनसौन्दर्यलहरी- परीवाहस्रोतःसरणिरिव सीमन्तसरणिः । वहन्ती सिन्दूरं प्रबलकबरीभारतिमिर- द्विषां बृन्दैर्बन्दीकृतमिव नवीनार्ककिरणम् ॥ ४४॥ देवीनो सेंथो (हे देवि) सिंदूरथी भरेलो तारो सेंथो तारा मुखना सौंदर्यनी लहेरीना प्रवाहनो मार्ग छे अने ते अमारुं कल्याण करो। भरचक अंबोडाना श्याम रंगमां आ सेंथो जाणे दुश्मनोना समूहोए प्रभातना सूर्यनां किरणोने बंदीवान बनाव्यां होय एवो लागे छे। अरालैः स्वाभाव्यादलिकलभसश्रीभिरलकैः परीतं ते वक्त्रं परिहसति पङ्केरुहरुचिम् । दरस्मेरे यस्मिन् दशनरुचिकिञ्जल्करुचिरे सुगन्धौ माद्यन्ति स्मरदहनचक्षुर्मधुलिहः ॥ ४५॥ देवीना केश अने दांत (हे देवी) कुदरती रीते ज वांकडिया तारा वाळ नाना भमरा जेवा शोभायमान छे। आवा वाळथी घेरायेलुं तारुं मुख कमळना सौंदर्यनी मश्करी करे छे। आ मुखनी अंदरना मनोहर दांत, हळवा स्मितने लीधे पुंकेसर जेवा मनोहर देखाय छे, (लाल होठनुं प्रतिबिंब पडवाथी) अने ते कामदेवने बाळी नाखनार (भगवान शंकर)नां नयनारूपी भमरा- सुगंधमां मस्त बनावे छे। ललाटं लावण्यद्युतिविमलमाभाति तव य- द्द्वितीयं तन्मन्ये मकुटघटितं चन्द्रशकलम् । विपर्यासन्यासादुभयमपि संभूय च मिथः सुधालेपस्यूतिः परिणमति राकाहिमकरः ॥ ४६॥ देवीनुं ललाट (हे देवि), तारुं ललाट सौंदर्यनी चमकनी पवित्रताथी प्रकाशे छे अने मने लागे छे के,तें जाणे मुगट धारण करेलो चंद्रनो टुकडो ( बीजनो चंद्र ) छे। ( केशमां रहेलो एक बीजना चंद्र ) अने आ बीजो ( बीजने चंद्र ) एम बन्ने एकबीजाथी ऊलटा बनी जईने अमृतना रसथी जोडाई जाय छे। अने जाणे के एमांथी पृर्ण चंद्र बन्यो छे। भ्रुवौ भुग्ने किंचिद्भुवनभयभङ्गव्यसनिनि त्वदीये नेत्राभ्यां मधुकररुचिभ्यां धृतगुणम् । धनुर्मन्ये सव्येतरकरगृहीतं रतिपतेः प्रकोष्ठे मुष्टौ च स्थगयति निगूढान्तरमुमे ॥ ४७॥ देवीनी भ्रमरो हे जगतना भयना नाश करवामां आनंद लेनारी उमा, तुं जयारे जरा भ्रमर चडावे छे त्यारे हुं तेने कामदेवे डाबा हाथमां लीधेला धनुष्यनी उपमा आपुं छुं; कारण के एनी पणछ ( दोरी ) मनोहर भमरा- ओरूपी नेत्रोनी बनेली छे अने एने मध्यभाग मुठ्ठी अने हथेळीनी नीचे छुपावी राख्यो छे। अहः सूते सव्यं तव नयनमर्कात्मकतया त्रियामां वामं ते सृजति रजनीनायकतया । तृतीया ते दृष्टिर्दरदलितहेमाम्बुजरुचिः समाधत्ते संध्यां दिवसनिशयोरन्तरचरीम् ॥ ४८॥ देवीनी दष्टि (हे देवि),तारुं जमणुं नयन सूर्यात्मक होवाथी दिवस बनावे छे अने डाबुं नयन चंद्रात्मक होवाथी रात्रि बनावे छे तथा तारुं त्रीजुं नयन जराक खीलेला (तपावेला) सोनाना कमळ जेवुं मनाहेर छे अने ते दिवस अने रातनी वच्चे रहेली संध्या बनावे छे। विशाला कल्याणी स्फुटरुचिरयोध्या कुवलयैः कृपाधाराधारा किमपि मधुराभोगवतिका । अवन्ती दृष्टिस्ते बहुनगरविस्तारविजया ध्रुवं तत्तन्नामव्यवहरणयोग्या विजयते ॥ ४९॥ (हे देवि) तारी दष्टि विशाळ अने कल्याणकारक छे, तेनुं सौंदर्य स्पष्ट होवाथी कमळोथी पण वधु सुंदर छे। ते कृपाना प्रवाहने आधार आपे छे। ते वर्णन न थई शके एवी मधुर, लांबी, रक्षण करनारी अने अनेक नगरोना विस्तार पर विजय मेळवनारी छे अने तेथी ज ते ते नामथी ( अर्थात् विशाला, कल्याणी, अयोध्या, धारा, मधुरा, भोगावती, अवंती अने विजया ) ओळखावी शकाय छे। आवी तारी दष्टि अचूक विजय पामे छे। कवीनां संदर्भस्तबकमकरन्दैकरसिकं कटाक्षव्याक्षेपभ्रमरकलभौ कर्णयुगलम् । अमुञ्चन्तौ दृष्ट्वा तव नवरसास्वादतरला- वसूयासंसर्गादलिकनयनं किंचिदरुणम् ॥ ५०॥ (हे देवि) तारा बन्ने कान कविनां काव्यो- रूपी गुच्छामांथी नीकळता रसना शोखीन छे अने आ तारा कान नव रसना आस्वादथी चेतनमय बनेला छे। तथा भमरा जेवा कटाक्ष फेकतां नयननो साथ छोडता नथी। आ जोईने ईर्ष्याने लीधे तारुं ललाट परनुं नेत्र जरा लाल बने छे। शिवे श‍ृङ्गारार्द्रा तदितरजने कुत्सनपरा सरोषा गङ्गायां गिरिशचरिते विस्मयवती । हराहिभ्यो भीता सरसिरुहसौभाग्यजयिनी सखीषु स्मेरा ते मयि जननी दृष्टिः सकरुणा ॥ ५१॥ (हे जननि) तारी दष्टि शिव तरफ श‍ृंगार- वाळी छे। शिवना विरोधीए तरफ घणु करनारी बिभत्स रसवाळी छे), गंगा तरफ गुस्सावाळी (रौद्र रसवाळी छे), शिवनी ( त्रिपुरविजय वगेरे पराकमोनी) कथा तरफ विस्मयवाळी छे ( अद्दभुत- रसवाळी छे ), शिवना सापथी भयभीत बनेली छे (भयानक रसवाळी छे), कमळनी लालाशने जन्म आपे छे (वीररसवाळी छे), सखीओ तरफ स्मित- वाळी छे ( हास्यरसवाळी छे ) मारा तरफ करुणामय छे ( शांत रसवाळी छे)। गते कर्णाभ्यर्णं गरुत इव पक्ष्माणि दधती पुरां भेत्तुश्चित्तप्रशमरसविद्रावणफले । इमे नेत्रे गोत्राधरपतिकुलोत्तंसकलिके तवाकर्णाकृष्टस्मरशरविलासं कलयतः ॥ ५२॥ पर्वतराजना कुळनी मुख्य कळी, आ तारां बंने नेत्रो बाणनी माफक काननी पासे पहोचेलां अने बाणना पाछळना भागनी माफक पांपणो धरावे छे तथा त्रिपुरनो नाश करनारु शंकरनी शांति- नो भंग करनार, फळ ( बाणना आगळना भाग) धरावे छे अने कान सुधी खेंचायेलां आ नयनो कामदेवना बाणनुं काम करे छे। विभक्तत्रैवर्ण्यं व्यतिकरितलीलाञ्जनतया विभाति त्वन्नेत्रत्रितयमिदमीशानदयिते । पुनः स्रष्टुं देवान् द्रुहिणहरिरुद्रानुपरतान् रजः सत्त्वं बिभ्रत्तम इति गुणानां त्रयमिव ॥ ५३॥ हे महादेवनी प्रेयसी,तारां त्रणे नेत्रो त्रण रंगनां अंजन लगाडवाथी जुदा जुदा त्रण रंगथी चमके छे अने महाप्रलयने अंते अंतर्धान थई गयेला ब्रह्मा,विष्णु अने रुद्रने फरी उत्पन्न करवा माटे रजस, सत्व अने तमस ए त्रण गुणोने जाणे धारण करतां होय एम लागे छे। पवित्रीकर्तुं नः पशुपतिपराधीनहृदये दयामित्रैर्नेत्रैररुणधवलश्यामरुचिभिः । नदः शोणो गङ्गा तपनतनयेति ध्रुवममुं त्रयाणां तीर्थानामुपनयसि संभेदमनघम् ॥ ५४॥ हे पशुपति (भगवान शंकर )ने हृदय अर्प ण करनारी देवि ! तारां लाल,धोळां अने श्याम तथा दयामय नेत्रो वडे तुं शोण,गंगा अने यमुना ए त्रण मोटी नदीओनो जाणे पवित्र तीर्थरूप संगम बनावे छे। निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगती तवेत्याहुः सन्तो धरणिधरराजन्यतनये । त्वदुन्मेषाज्जातं जगदिदमशेषं प्रलयतः परित्रातुं शङ्के परिहृतनिमेषास्तव दृशः ॥ ५५॥ हे हिमालयनी पुत्री,तुं ज्यारे तारां नेत्रो बंध करे छे त्यारे जगतनो प्रलय थाय छे अने नेत्रो उधाडे छे त्यारे जगतनो उद्दभव थाय छे एम संतो कहे छे। आ समग्र जगत प्रलय पछी तारां नेत्रो ऊधडवाथी जन्म पाम्युं छे अने मने लागे छे के,जाणे एनु संपूर्ण रक्षण करवानी तारी आंखोए मिचाई जवानुं बंध कर्युं छे। तवापर्णे कर्णेजपनयनपैशुन्यचकिता निलीयन्ते तोये नियतमनिमेषाः शफरिकाः । इयं च श्रीर्बद्धच्छदपुटकवाटं कुवलयम् जहाति प्रत्यूषे निशि च विघटय्य प्रविशति ॥ ५६॥ हे अपर्णा,हमेश उधाडी आंखवाळी माछली तो सदाय पाणीमां छुपायेली रहे छे। एमने एवो भय रहे छे के,क्यांक तारां नयनो ईर्ष्यावश थईने एमनी चाडी तारा कानमां न खाय; अने लक्ष्मी सवार थाय त्यारे कबाटनी माफक बंध थई जनारा कुमुदने छोडीने जती रहे छे अने राते एमने खोलीने प्रवेश करे छे। दृशा द्राघीयस्या दरदलितनीलोत्पलरुचा दवीयांसं दीनं स्नपय कृपया मामपि शिवे । अनेनायं धन्यो भवति न च ते हानिरियता वने वा हर्म्ये वा समकरनिपातो हिमकरः ॥ ५७॥ हे शिवे,तारी जराक विकसेला भूरा कमळ जेवी मनोहर दृष्टि वडे दूर रहेला मारा जेवा दीनने पण् कृपा करीने स्नान कराव ( मारा पर दष्टि नाख अने स्नान करवाथी पवित्र थवाय छे तेम पवित्र बनाव) ! आने लीधे (हुं) धन्य बनी जईश अने वळी तने नुकसान नही थाय; कारण के वनमां के महेलमां चंद्रनां किरणो तो एकसरखां ज पडे छे। अरालं ते पालीयुगलमगराजन्यतनये न केषामाधत्ते कुसुमशरकोदण्डकुतुकम् । तिरश्चीनो यत्र श्रवणपथमुल्लङ्घ्य विलस- न्नपाङ्गव्यासङ्गो दिशति शरसंधानधिषणाम् ॥ ५८॥ देवीना काननी बूट हे पर्वतराजपुत्री, तारा बंने काननी वांकी बूट कामदेवना ( पुष्पनुं बाण् धारण करनारना) बाण जेवुं आकर्षण कोने नही करे ? आ काननी बूट आगळ वधीने तारा तीरछा कटाक्ष काननी बूट ओळंगीने कान सुधी पहोंचेलां बाण जेवां देखाच छे। स्फुरद्गण्डाभोगप्रतिफलितताटङ्कयुगलं चतुश्चक्रं मन्ये तव मुखमिदं मन्मथरथम् । यमारुह्य द्रुह्यत्यवनिरथमर्केन्दुचरणं महावीरो मारः प्रमथपतये सज्जितवते ॥ ५९॥ देवीनां कुंडळो तारा चमकता गाल पर तारां कर्णफूलोनुं ( कुंडळोनुं) प्रतिबिंब पडे छे। (अने तेथी) मने लागे के, तारुं मुख चार पैंडावाळो कामदेवनो रथ छे। एना पर बेसीने महान वीर कामदेव सूर्य अने चंद्र जेनां पैडां छे एवा पृथ्वीना रथ पर युद्ध माटे सज्ज थयेला भगवान शंकरनो सामनो करे छे। सरस्वत्याः सूक्तीरमृतलहरीकौशलहरीः पिबन्त्याः शर्वाणि श्रवणचुलुकाभ्यामविरलम् । चमत्कारश्लाघाचलितशिरसः कुण्डलगणो झणत्कारैस्तारैः प्रतिवचनमाचष्ट इव ते ॥ ६०॥ देवीनां कुंडळनो अवाज हे शर्वाणी ! सरस्वतीनी मधुर वाणी अमृतनी लहरीथी पण चडी जाय छे। आ वाणीने कानरूपी पात्रथी तुं पीए छे अने प्रशंसा माटे तु मस्तक हलावे छे, ए समये तारां कुंडळो झणझणी ऊडे अने जाणे के ॐ कारना उच्चार करीने (बराबर एम कहीने ) पडघो पाडे छे। असौ नासावंशस्तुहिनगिरिवंशध्वजपटि त्वदीयो नेदीयः फलतु फलमस्माकमुचितम् । वहन्नन्तर्मुक्ताः शिशिरतरनिश्वासगलितं समृद्ध्या यत्तासां बहिरपि च मुक्तामणिधरः ॥ ६१॥ देवीनुं नाक हे हिमालयना वंशनी पताका, तारा नाकनुं आ टेरवुं अमने तरत ज फळ आपनार बनो;अथवा अमारा माटे एना पर याग्य फळ लागो; कारण के एनी अंदर तारा शीतळ उच्छवासथी मोती बने छे अने एमना डाबा नसकोरामां एटली समृद्धि छे के, एक मुक्तामणी बहार पण देखाय छे। प्रकृत्या रक्तायास्तव सुदति दन्तच्छदरुचेः प्रवक्ष्ये सादृश्यं जनयतु फलं विद्रुमलता । न बिम्बं तद्बिम्बप्रतिफलनरागादरुणितं तुलामध्यारोढुं कथमिव विलज्जेत कलया ॥ ६२॥ देवीना होठ हे सुंदर दांतवाळी (देवि), कुदरती रीते ज लाल एवा तारा होठोनी शोभानी तुलना करे एवा पदार्थोनां नाम हुं कहुं छुं। जो परवाळानी ( लाल ) लताने फळ आवे तो पण ए फळनी आकृति ( पूरती) नथी; कारण के एनी लालाश तो तारा शरीरनी लालाशनुं प्रतिबिंख मात्र छे। ए सहेज पण तुलना करवामां आवतां शा माटे शरमाई न जाय ? स्मितज्योत्स्नाजालं तव वदनचन्द्रस्य पिबतां चकोराणामासीदतिरसतया चञ्चुजडिमा । अतस्ते शीतांशोरमृतलहरीमम्लरुचयः पिबन्ति स्वच्छन्दं निशि निशि भृशं काञ्जिकधिया ॥ ६३॥ देवीनुं वदन तारा चंद्र जेवा मुखमांथी ( वरसती ) व्यापक, स्मितरूपी चांदनी अत्यंत मधुर छे अने तेने लीधे चकोर पक्षीओनी चांचो ( वधु पडतो रस पीवाथी ) जड थई गई छे,एटले तेओ चंद्रना खाटा अमृतने (एनी लहेरीने) इच्छा प्रमाणे कांजी समजीने खूब पीए छे। अविश्रान्तं पत्युर्गुणगणकथाम्रेडनजपा जपापुष्पच्छाया तव जननि जिह्वा जयति सा । यदग्रासीनायाः स्फटिकदृषदच्छच्छविमयी सरस्वत्या मूर्तिः परिणमति माणिक्यवपुषा ॥ ६४॥ देवीनी जीभ हे जननि, पतिना अनेक गुणोनी कथा वारंवार अटक्या वगर गानारी तथा जासूदना पुष्प जेवा रंग भरी जीभ विजय पामे छे। स्फटिकना पथ्थर जेवुं स्वरूप धरावती सरस्वतीनुं शरीर आ जीभना आगळना भाग पर होवाथी माणेकना शरीर जेवुं बनी जाय। रणे जित्वा दैत्यानपहृतशिरस्त्रैः कवचिभिर्- निवृत्तैश्चण्डांशत्रिपुरहरनिर्माल्यविमुखैः । विशाखेन्द्रोपेन्द्रैः शशिविशदकर्पूरशकला विलीयन्ते मातस्तव वदनताम्बूलकबलाः ॥ ६५॥ देवीना पाननो महिमा हे माता, लडाईना मेदानमां राक्षसोने जीतीने एमना माथानां रक्षण करनार साधनो तथा बख्तरो (कवच) उतारी लईने पाछा फरेला स्कंद,इंद्र अने विष्णुने अने शिवजीना निर्माल्यनो ( पूजामां चडावेलो अमल वगेरेनो ) भाग चंडनो होवाथी मळतो नथी। परतु चंद्र जेवा स्वच्छ कपूरना कटका धरवता तथा तारा मुखमां रहेला पानना कटका तेमा गहण करे छे, विपञ्च्या गायन्ती विविधमपदानं पशुपतेः त्वयारब्धे वक्तुं चलितशिरसा साधुवचने । तदीयैर्माधुर्यैरपलपिततन्त्रीकलरवां निजां वीणां वाणी निचुलयति चोलेन निभृतम् ॥ ६६॥ देवीनी वाणी सरस्वती (भगवान) शंकरनां विविध पराकमोनुं गान वीणा साथे करे छे, त्यारे तुं डोक हलावीने ``बराबर छे'' एम कहेवानी शरूआत करे छे त्यारे तारी वाणीनी मधुरता आगळ वीणानो अवाज पण झंखवाई जाय छे आने तेथी सरस्वती पोतानी वीणाने देखाय नही तेवी रीते कपडामां वींटी ले छे। कराग्रेण स्पृष्टं तुहिनगिरिणा वत्सलतया गिरीशेनोदस्तं मुहुरधरपानाकुलतया । करग्राह्यं शम्भोर्मुखमुकुरवृन्तं गिरिसुते कथङ्कारं ब्रूमस्तव चिबुकमौपम्यरहितम् ॥ ६७॥ देवीनी हडपची तारी हडपचीने वात्सल्यथी हिमालय आंगळीथी अडकता हता अने हवे होठ पर च्रुंबन करवा माटे भगवान शंकर आकुळताथी ऊंची करे छे, हे पर्वत- राजनी पुत्री, तारा मुखरूपी अरीसानो ए छेडो भगवान शंकरना हाथथी ज ऊंचो करवा योग्य छे। हडपचीने कशानी उपमा ज आपी शकाय तेम न होवाथी अमे एनुं वर्णन केवी रीते करीए ? भुजाश्लेषान् नित्यं पुरदमयितुः कण्टकवती तव ग्रीवा धत्ते मुखकमलनालश्रियमियम् । स्वतः श्वेता कालागुरुबहुलजम्बालमलिना मृणालीलालित्यम् वहति यदधो हारलतिका ॥ ६८॥ देवीनी डोक भगवान शंकरना (बे) हाथ वडे हंमेशां आलिंगन करवाने लीधे रोमांच अनुभवती तारी डोक मुखरूपी कमळनी दांडी जेवी शोभायमान छे, ते (डोक) पोते तो श्वेत छे पण लांबा समय सुधी अगरुनो गाढ लेप करेवाथी मलिन देखाय छे अने तेनी नीचे हार पहेरेलो छे। गले रेखास्तिस्रो गतिगमकगीतैकनिपुणे विवाहव्यानद्धप्रगुणगुणसंख्याप्रतिभुवः । विराजन्ते नानाविधमधुररागाकरभुवां त्रयाणां ग्रामाणां स्थितिनियमसीमान इव ते ॥ ६९॥ देवीना गळा परनी त्रण रेखाओ गति,गमक अने गीतमां संपूण निपुण (एवी देवि) तारा कंठ पर (सौभाग्यशाळी ) त्रण रेखाओ पडेली छे अने ते विवाहना समये बांधेला अनेक देरीआवाळा सौभाग्यसूत्र जेवी छे। ते अनेक प्रकारना मधुर रागना आश्रयस्थान बनेला त्रण ग्रामना स्थिति, नियम अने सीमा जेवी शाभे छे। ( गति,गमक अने गीत संगीतना त्रण प्रकारो छे। गति=संगीतना मार्ग अने देशी नामना प्रकार। गमक=स्वरनुं कंपन,गीत= संगीतता शब्दो, ग्राम=संगीतना स्वरो, स्थिति, नियम अने सीमा ए संगीतना क्रम छे। ) मृणालीमृद्वीनां तव भुजलतानां चतसृणां चतुर्भिः सौन्दर्यं सरसिजभवः स्तौति वदनैः । नखेभ्यः सन्त्रस्यन् प्रथममथनादन्धकरिपो- श्चतुर्णां शीर्षाणां सममभयहस्तार्पणधिया ॥ ७०॥ देवीनी भुजाओ, अगाउ शिवजीए नखो वडे ( ब्रह्माना पांचमा शिरनुं) उच्छेदन कर्युं त्यारे गभराई गयेला ब्रह्माए (बाकीनां) चार मस्तकनी रक्षा माटे तारा अभयदान आपनार चार भुजना शरणमां पातानी बुद्धि समर्पण करी हती अने कमळनी दांडी जेवा कोमळ तारी चार भुजाना सौंदर्य नी स्तुति ब्रह्मा चार मुखथी करे छे। नखानामुद्द्योतैर्नवनलिनरागं विहसतां कराणां ते कान्तिं कथय कथयामः कथमुमे । कयाचिद्वा साम्यं भजतु कलया हन्त कमलं यदि क्रीडल्लक्ष्मीचरणतललाक्षारसछणम् ॥ ७१॥ देवीना हाथ हे उमा, तारा ( हाथना ) नखोनो प्रकाश नवा खीलेला कमळनी रताशनी मश्करी करे छे। आवा हाथना सौंदर्यनुं अमे केवी रीते वर्णन करीए ते अमने कहे। जो कीडा करती लक्ष्मी पाताना अळताथी (लाल) रंगेला पग कमळ पर मूके तो कदाच ए कमळनी साथे अंशमात्र एनी तुलना थई शके। समं देवि स्कन्दद्विपवदनपीतं स्तनयुगं तवेदं नः खेदं हरतु सततं प्रस्नुतमुखम् । यदालोक्याशङ्काकुलितहृदयो हासजनकः स्वकुम्भौ हेरम्बः परिमृशति हस्तेन झडिति ॥ ७२॥ दैवीतु स्तनयुगल हे देवि, तारा सदाय (अमृत)झरता बन्ने स्तनो अमारो खेद हरी लो। कार्तिकेय अने गणेश एकसाथे स्तनपान करता होय त्यारे आ बन्ने स्तनने जोई न शकवाथी आकुळ बनेला हृदयवाळा गणेश पाताना कुंभस्थळने हाथ वडे जलदी शोधी रह्या ( तमने ) हसावी रह्या छे। ( अर्थात् गणेशने देवीना कुंभस्थळ जेवा स्तनो जोई शंका जाय छे के आ मारुं मस्तक तो नथी ने ?) अमू ते वक्षोजावमृतरसमाणिक्यकुतुपौ न संदेहस्पन्दो नगपतिपताके मनसि नः । पिबन्तौ तौ यस्मादविदितवधूसङ्गरसिकौ कुमारावद्यापि द्विरदवदनक्रौञ्चदलनौ ॥ ७३॥ हे हिमालयनी पताका, तारा आ स्तनो अमृत- रसना ( भरेला) माणेकना ( बनावेला ) कुप्पा (तेल भरवाना जूना जमानानां साधनो ) बाबतमां अमारा मनमां जराय शंका नथी; कारण के एमनुं स्तनपान करवाथी गणेश अने कार्तिकेय आजे पण कुंवारा ज रह्या छे, वहत्यम्ब स्तम्बेरमदनुजकुम्भप्रकृतिभिः समारब्धां मुक्तामणिभिरमलां हारलतिकाम् । कुचाभोगो बिम्बाधररुचिभिरन्तः शबलितां प्रतापव्यामिश्रां पुरदमयितुः कीर्तिमिव ते ॥ ७४॥ देवीनो हार हे माता,तारी छातीना भाग पर तें गजासुरन मस्तकरूपी कुंभस्थळमांथी नीकळेला मोतीओनी निर्मल माळा पहेरी छे। एना उपर तारा होठनो (लाल) प्रकाश पडवाथी ते लाल देखाच छे। आने लीधे तारी माळा जाणे के,भगवान शंकरनी प्रताप- शाळी कीर्ति जेवी छे। तव स्तन्यं मन्ये धरणिधरकन्ये हृदयतः पयःपारावारः परिवहति सारस्वतमिव । दयावत्या दत्तं द्रविडशिशुरास्वाद्य तव यत् कवीनां प्रौढानामजनि कमनीयः कवयिता ॥ ७५॥ देवीना स्तन्यनो महिमा हे पर्वतराजनी कन्या, हुं मानुं छुं के, तारा स्तनोमांथी दूधनो जे सागर वहे छे ते जाणे के,साक्षात् ज्ञान छे,ते दयाळु बनीने आ दूध आप्युं होवाथी तारा आ द्रविड (जातिना) बाळके (श्रीमद् शंकराचार्ये) प्रौढ कविओनी माफ्क मनोहर काव्य रच्युं छे। हरक्रोधज्वालावलिभिरवलीढेन वपुषा गभीरे ते नाभीसरसि कृतसङ्गो मनसिजः । समुत्तस्थौ तस्मादचलतनये धूमलतिका जनस्तां जानीते तव जननि रोमावलिरिति ॥ ७६॥ देवीनी रोमावलि हे पर्वत(राज)नी पुत्री, हे माता,(कामदहन समये) भगवान शंकरना क्रोधनी ज्वाळाओथी लपेटा- येला शरीरवाळा कामदेवे तारी नाभिरूपी खूब ऊंडा सरोवरमां डूबकी मारी; अने मनुष्य एम जणे छे के आने लीधे जे धुमाडानी सेर नीकळी ए ज तारी आ रोमावलि छे। यदेतत् कालिन्दीतनुतरतरङ्गाकृति शिवे कृशे मध्ये किंचिज्जननि तव यद्भाति सुधियाम् । विमर्दादन्योऽन्यं कुचकलशयोरन्तरगतं तनूभूतं व्योम प्रविशदिव नाभिं कुहरिणीम् ॥ ७७॥ हे शिवे, हे माता, यमुनाना खूब पातळा तरंगो जेवा आकार धरावती आ रोमावलि तारी पातळी केडना भागमां जराक देखाय छे ते सद्बुद्धि धरावनाराओने एवी लागे छे के जाणे तारा स्तनोरूपी कळशो एकबीजानी साथे धसावाने लीधे एमनी वच्चे रहेलु आकाश पातळुं बनी जईने नाभिरूपी गुफामां प्रवेशे छे। स्थिरो गङ्गावर्तः स्तनमुकुलरोमावलिलता- कलावालं कुण्डं कुसुमशरतेजोहुतभुजः । रतेर्लीलागारं किमपि तव नाभिर्गिरिसुते बिलद्वारं सिद्धेर्गिरिशनयनानां विजयते ॥ ७८॥ देवीनी नाभि हे पर्वत(राज)नी पुत्री,तारी नाभि जय पामे छे। एने आटला प्रकारनी उपमा आपी शकाय-- गंगानां वमळ, स्तनरूपी विकसेलां पुष्पो धारण करनार रेमावलीनी लतानुं रेखाओवाळुं पात्र, कामदेवना तेजरूपी अग्निने धारण करनार ( हवनने ) कुंड, रतिनुं क्रीडास्थळ अथवा भगवान शंकरना जय माटे सिद्धि प्राप्त करवा ( तप करवा ) गुफानुं द्वार छे। निसर्गक्षीणस्य स्तनतटभरेण क्लमजुषो नमन्मूर्तेर्नारीतिलक शनकैस्त्रुट्यत इव । चिरं ते मध्यस्य त्रुटिततटिनीतीरतरुणा समावस्थास्थेम्नो भवतु कुशलं शैलतनये ॥ ७९॥ देवीना पेटनो मध्यभाग हे पर्वत( राज )नी पुत्री, तारा (पेटना ) मध्य- भागनी सरखी अथवा सारी स्थितिमां रहो। आ मध्यभाग कुदरती रीते ज पातळो छे अने स्तनरूपी किनाराना भारथी थाकी जवाथी तारुं स्वरूप झूकी जाय छे अने तेने लीधे ते तारा नाभिना भाग पासे रेखाए पर धीमे धीमे नदीना तट पर तूटतां वृक्षो माकृक झूकी पडता देखाय छे। कुचौ सद्यःस्विद्यत्तटघटितकूर्पासभिदुरौ कषन्तौ दोर्मूले कनककलशाभौ कलयता । तव त्रातुं भङ्गादलमिति वलग्नं तनुभुवा त्रिधा नद्धं देवि त्रिवलि लवलीवल्लिभिरिव ॥ ८०॥ देवीना पेटनी त्रण रेखाओ हे देवि,तारी बगल धसावाने लीधे जलदी जलदी परसेवा थवाथी किनारी परथी चोळीना छेडा फाटी जाय छे अने तेथी तारा सुवर्णना कळश जेवा चम- कता स्तनोना हालवाने लीधे तूटता बचाववा जोडाणनी जरूर छे एम मानीने कामदेवे (पेट ५२) एक मनोहर वेलने त्रेवडी करीने बांधी दीधी होय एम लागे छे। गुरुत्वं विस्तारं क्षितिधरपतिः पार्वति निजा- न्नितम्बादाच्छिद्य त्वयि हरणरूपेण निदधे । अतस्ते विस्तीर्णो गुरुरयमशेषां वसुमतीं नितम्बप्राग्भारः स्थगयति लघुत्वं नयति च ॥ ८१॥ देवीनी साथळ हे पार्वति, पर्वतराज ( हिमालये ) पोतानी साथळमांथी भारे विस्तार कापीने तने दायजारूपे आप्या, आने लीधे तारा साथळना आ विशाळ विस्तारनो भार आखी पृथ्वीनी गतिने रोकी राखे छे तथा (तेना विस्तारनी सरखामणीमां ) पृथ्वी नानी लागे छे। करीन्द्राणां शुण्डान् कनककदलीकाण्डपटली- मुभाभ्यामूरुभ्यामुभयमपि निर्जित्य भवती । सुवृत्ताभ्यां पत्युः प्रणतिकठिनाभ्यां गिरिसुते विधिज्ञ्ये जानुभ्यां विबुधकरिकुम्भद्वयमसि ॥ ८२॥ देवीनां धूंटण हे पर्वत(राज )नी पुत्री, हे वेदोने जाणनारी, मोटा हाथीओनी सूंढने अने सुवर्णनी केळना थांभ- लाना समूहने तारां बंने धूंटण वडे जीती ले छे अने पतिने प्रणाम करतां करतां सखत बनी गयेलां एवां बंने धूंटणो (जाणे) बीजा दिकपालरूपी हाथीओनां कुंभस्थळ छे। पराजेतुं रुद्रं द्विगुणशरगर्भौ गिरिसुते निषङ्गौ जङ्घे ते विषमविशिखो बाढमकृत । यदग्रे दृश्यन्ते दशशरफलाः पादयुगली- नखाग्रच्छद्मानः सुरमकुटशाणैकनिशिताः ॥ ८३॥ देवीनी जंघाओ हे पर्वत(राजनी पुत्री,कामदेव माटे तारी बंने जंधाओ ए रुद्रने जीतवा माटे बमणां तीरोथी भरेला कामदेवना ( बाणना ) भाथा जेवी छे। आ बाणना भाथामां तारा बन्ने पगना नखना आगळना भागने ढांकता होय एवा दस बाणना आगळना भाग (जणाय) छे अने तेमने देवोना मुगटरूपी सराण ५र चढावीने अणीदार (तेजस्वी) बनावेला छे। श्रुतीनां मूर्धानो दधति तव यौ शेखरतया ममाप्येतौ मातः शिरसि दयया धेहि चरणौ । ययोः पाद्यं पाथः पशुपतिजटाजूटतटिनी ययोर्लाक्षालक्ष्मीररुणहरिचूडामणिरुचिः ॥ ८४॥ देवीना चरणो हे माता, तारां चरणो ऊंचा होवाथी वेदोना मस्तक उपर रहेला ए ज बे चरणोने दया करीने मारा मस्तक उपर मूक। तारा पग पूजवाथी झरतुं पाणी ए ज ( जाणे के) भगवान शंकरनी जटाना गुच्छामांथी नीकळती नदी (गंगा) एना आ पगनी नीचेना भागमां लगाडेला अळतानी चमक विष्णुना वाळमां धारण करेला लाल मणिनी चमक जेवी छे। नमोवाकं ब्रूमो नयनरमणीयाय पदयो- स्तवास्मै द्वन्द्वाय स्फुटरुचिरसालक्तकवते । असूयत्यत्यन्तं यदभिहननाय स्पृहयते पशूनामीशानः प्रमदवनकङ्केलितरवे ॥ ८५॥ नयनने रमणीय लागता अने अळतानी पार- दर्शक कांतिथी चमकता बंने चरणोने प्रणाम हो; एम अमे कहीए छीए। ( आ चरणोथी बगीचामां तुं अशोक वृक्षने ठेस मारे छे अने तेथी एवी रीते ) आ चरणोथी स्पर्श पामवा माटे भगवान शंकर तारा क्रीडाना बगीचामां अशोक वृक्षनी अदेखाई करे छे। मृषा कृत्वा गोत्रस्खलनमथ वैलक्ष्यनमितं ललाटे भर्तारं चरणकमले ताडयति ते । चिरादन्तःशल्यं दहनकृतमुन्मूलितवता तुलाकोटिक्वाणैः किलिकिलितमीशानरिपुणा ॥ ८६॥ इंद्रियोने जीतनार (तारा पतिने) तें चळाव्या होवाथी तेमनुं कपाळ लज्जाथी नमी गयुं छे। अने तेना पर तुं तारा चरणकमळथी प्रहार करे छे। काम- देवने भस्मीभूत करी निमूळ करी नाखवामां आव्यो होवाथी लांबा समयथी एना हृदयमां तीर खू ची गयुं होय एवी पीडा थती तारा झांझरनी धूधरीओना अवाजथी ( जाणे के) खिलखिलाट करीने हसी रह्यो छे। हिमानीहन्तव्यं हिमगिरिनिवासैकचतुरौ निशायां निद्राणं निशि चरमभागे च विशदौ । वरं लक्ष्मीपात्रं श्रियमतिसृजन्तौ समयिनां सरोजं त्वत्पादौ जननि जयतश्चित्रमिह किम् ॥ ८७॥ हे जननि,तारा बंने चरणकमळ जय पामे एमां आश्चर्य शुं छे ! तारां चरणकमळ हिमा- लयमां ( पण) कुशळताथी रही शके छे, जयारे (कमळ) हिमथी नाश पामे छे, कमळ राते बिडाई जाय छे जयारे तारां चरणकमळ राते तथा दिवसे खीलेलां रहे छे। ते इष्ट लक्ष्मीना आधार छे; ज्यारे आ चरणकमळ तारा भक्तोने अत्यंत लक्ष्मी आपे छे। पदं ते कीर्तीनां प्रपदमपदं देवि विपदां कथं नीतं सद्भिः कठिनकमठीकर्परतुलाम् । कथं वा बाहुभ्यामुपयमनकाले पुरभिदा यदादाय न्यस्तं दृषदि दयमानेन मनसा ॥ ८८॥ हे देवि,तारा चरणो कीर्तिओनां विशिष्टस्थानरूप छे अने त्यां आपत्ति रहेती नथी। शा माटे सत्पुरुषोए एने काचबानी पीठनी उपमा आपी हशे ? आ चरणो एटला कामळ छे के विवाह समये भगवान शंकरे दयामय मनथी मुश्केलीथी ग्रहण करीने पथ्थर पर मूक्या हता। नखैर्नाकस्त्रीणां करकमलसंकोचशशिभि- स्तरूणां दिव्यानां हसत इव ते चण्डि चरणौ । फलानि स्वःस्थेभ्यः किसलयकराग्रेण ददतां दरिद्रेभ्यो भद्रां श्रियमनिशमह्नाय ददतौ ॥ ८९॥ हे चंडि, तारा चरणो पाताना नख वडे कल्प- वृक्षोनी हांसी उडावे छे। आ नखो देवांगनाओना हाथरूपी कमळोने ( नमस्कारथी ) बंध करवाने माटे (दस) चंद्र जेवा छे। कल्पवृक्ष ते स्वर्गमां रहेनारा स्वावलंबी देवताओने पोताना पल्लवरूपी हाथना आगळना भागोथी फळ आपे छे; परंतु तारा चरणो दरिद्रोने हमेशां तरत पुष्कळ धन आपे छे, ददाने दीनेभ्यः श्रियमनिशमाशानुसदृशी- ममन्दं सौन्दर्यप्रकरमकरन्दम् विकिरति । तवास्मिन् मन्दारस्तबकसुभगे यातु चरणे निमज्जन्मज्जीवः करणचरणः षट्चरणताम् ॥ ९०॥ आ तारा चरणो मंदारवृक्षनां पुष्पोना गुच्छा जेवां सुंदर छे। मारा (पांच ज्ञानेंद्रिय अने एक अंतःकरणरूपी ) छ चरणवाळो आ जीव ( छ पगवाळो भमरो ) बनीने तारा चरणोमां मग्न बनी जाव। तारा आ चरणो गरीबोने एमनी आशा प्रमाणे लक्ष्मी आप्या करे छे अने सौंदर्यराशिना परागने खूब फेलावे छे। पदन्यासक्रीडापरिचयमिवारब्धुमनसः स्खलन्तस्ते खेलं भवनकलहंसा न जहति । अतस्तेषां शिक्षां सुभगमणिमञ्जीररणित- च्छलादाचक्षाणं चरणकमलं चारुचरिते ॥ ९१॥ हे मनोहर चरित्रवाळी,एम लागे छे के तारा भवनमां (रहेला) राजहंसो चालती वखते तारी चालनो परिचय मेळववा तारी गतिनो त्याग करता नथी। ( तारी पाछळ तारी चालनुं अनुकरण करे छे।) अने तुं चाले छे त्यारे चरणकमळो परना मणिथी जडेलां झांझरो झणकार करतां होवाथी ए अवाज एमने (जाणे के) चालवानुं शिक्षण आपी रह्यो छे। गतास्ते मञ्चत्वं द्रुहिणहरिरुद्रेश्वरभृतः शिवः स्वच्छच्छायाघटितकपटप्रच्छदपटः । त्वदीयानां भासां प्रतिफलनरागारुणतया शरीरी श‍ृङ्गारो रस इव दृशां दोग्धि कुतुकम् ॥ ९२॥ देवीनां गात्रो ब्रह्मा, हरि,रुद्र अने ईश्वर वडे तारा पलंगना चार पाया धारण करवामां आव्या छे। ( आ चार पाया ते मूलाधार,स्वाधिष्ठान, मणिपुर अने अना- हतचक्र। ) एना उपर शिव ए प्रकाशवाळी कपटरूपी मायानी चादर छे। ए चादर तारा प्रकाशनी झलकने लीधे लालाश पडती लागे छे। आने लीधे एम लागे के, जाणे श‍ृंगाररस साक्षात् बनीने दष्टिमां कुतूहल उत्पन्न करी रहो छे। अराला केशेषु प्रकृतिसरला मन्दहसिते शिरीषाभा चित्ते दृषदुपलशोभा कुचतटे । भृशं तन्वी मध्ये पृथुरुरसिजारोहविषये जगत्त्रातुं शम्भोर्जयति करुणा काचिदरुणा ॥ ९३॥ (हे देवि) (तारा) केश कुदरती रीते ज लीसा होवाथी वांकडिया छे, मुख पर स्मित छे,अंगो शिरीष जेवां चमकतां छे, स्तनोना छेडा पथ्थर जेवा कठोर छे,मध्यमा ( केडनो भाग) पातळो छे, साथळो विशाळ छे। आवी (जाणे के) शंभुनी लालाश पडती दया जगतना रक्षण माटे जय पामे छे। कलङ्कः कस्तूरी रजनिकरबिम्बं जलमयं कलाभिः कर्पूरैर्मरकतकरण्डं निबिडितम् । अतस्त्वद्भोगेन प्रतिदिनमिदं रिक्तकुहरं विधिर्भूयो भूयो निबिडयति नूनं तव कृते ॥ ९४॥ देवीना श‍ृंगारनो करंडियो (हे देवि), चंद्रनु बिंब एक मरकत मणिना बनावेला करंडिया जेवुं छे,एमां जे काळो डाध छे ते कस्तूरी छे। अने एनी चमकती कळाओ कपूर जेवी छे। बंनेने पाणीमां पीसीने तारा श‍ृंगार माटे करंडियामां राखेल छे। दर रात्रिए ते वपराय छे आने ब्रह्मा करीने दिवसे तेने वारंवार भरे छे। पुरारातेरन्तःपुरमसि ततस्त्वच्चरणयोः सपर्यामर्यादा तरलकरणानामसुलभा । तथा ह्येते नीताः शतमखमुखाः सिद्धिमतुलां तव द्वारोपान्तस्थितिभिरणिमाद्याभिरमराः ॥ ९५॥ देवीना चरणनी पूजा (हे देवि), तुं भगवान शंकरना अंतःपुरनी राणी छे एटले तारा चरणनी संपूर्ण पूजा चंचळ इंद्रिचावाळा ( मनुष्यो माटे ) सहेली नथी अने इंद्र जेमनी आगळ छे एवा देवाना समूह तारा द्रारनी पासे खडी रहेली अणिमा वगेरे अतुल सिद्धिओ पहोंची जाय छे। कलत्रं वैधात्रं कतिकति भजन्ते न कवयः श्रियो देव्याः को वा न भवति पतिः कैरपि धनैः । महादेवं हित्वा तव सति सतीनामचरमे कुचाभ्यामासङ्गः कुरवकतरोरप्यसुलभः ॥ ९६॥ देवीनुं पविव्रत विधातानी स्री सरस्वतीने शुं अनेक कविजने भजता नथी ? अथवा कोण थोडुं पण धनवान बनीने लक्ष्मीनो पति बनी जतो नथी ? परंतु हे सतीओमां श्रेष्ठ सति,महादेवने छोडीने तारा स्तनोनो संग ते कुरबक तरुने पण दुर्ल भ छे, गिरामाहुर्देवीं द्रुहिणगृहिणीमागमविदो हरेः पत्नीं पद्मां हरसहचरीमद्रितनयाम् । तुरीया कापि त्वं दुरधिगमनिःसीममहिमा महामाया विश्वं भ्रमयसि परब्रह्ममहिषि ॥ ९७॥ परब्रह्मनी पटराणी हे परब्रह्मनी पटराणी, शास्रोने जाणनाराओ ब्रह्मानी पत्नीने सरस्वती-वाग्देवी कहे छे, विष्णुनी पत्नीने पद्मा ( कमला ) कहे छे, महादेवनी पत्नीने पार्वती कहे छे, परंतु तुं महामाया कोइ चोथी ज छे। तारा महिमा असीम छे। तें सारा य विश्व- ने भ्रममां नाखी दीधुं छे अने तने जाणवानुं कठिन छे। कदा काले मातः कथय कलितालक्तकरसं पिबेयं विद्यार्थी तव चरणनिर्णेजनजलम् । प्रकृत्या मूकानामपि च कविताकारणतया कदा धत्ते वाणीमुखकमलताम्बूलरसताम् ॥ ९८॥ चरणना जलनो महिमा हे मा,ए बताव के एवो समय कयारे आवशे के,जयारे हुं एक विद्यार्थी तारा चरण पूजवाथी झरेलुं अने अळतो मिश्र थवाथी लाल बनेलुं जळ (चरणोदक) पीश ? आ चरणोदक-सरस्वतीना मुख- रूपी कमळमांथी नीकळेला पानना रस जेवो आ रस जन्मथी मूंगाने पण कविता करवानी शक्ति आपे छे। सरस्वत्या लक्ष्म्या विधिहरिसपत्नो विहरते रतेः पातिव्रत्यं शिथिलयति रम्येण वपुषा । चिरं जीवन्नेव क्षपितपशुपाशव्यतिकरः परानन्दाभिख्यम् रसयति रसं त्वद्भजनवान् ॥ ९९॥ देवीना भक्तनो महिमा तारी भक्ति करनार मनुष्य सरस्वती अने लक्ष्मी बंनेने प्राप्र करीने ब्रह्मा अने विष्णुनी माफक एमनो स्वामी बनी जाय छे अने विहरे छे। वळी ते मनोहर शरीर प्राप्र करी रतिनां पातिव्रतने शिथिल करी नाखे छे ते पाताना संसारी जीवननां बंधनोमांथी मुक्त बनीने लांबा समय सुधी परम आनंदने रस- स्वाद ले छे। प्रदीपज्वालाभिर्दिवसकरनीराजनविधिः सुधासूतेश्चन्द्रोपलजललवैरर्घ्यरचना । स्वकीयैरम्भोभिः सलिलनिधिसौहित्यकरणं त्वदीयाभिर्वाग्भिस्तव जननि वाचां स्तुतिरियम् ॥ १००॥ स्तोत्रना उपसंहा२ हे जननि, तारी आपेली वाणीनी शक्तिने लीधे आ स्तुति करी छे,ए दीपकनी ज्योतिथी सूर्यनी आरती उतारवा जेवुं छे, चंद्रकांत मणिमांथी टप- कतां जलबिंदुओथी चंद्रने अर्ध्य आपवा जेवुं छे अथवा समुद्रनो सत्कार एना ज जलथी करवा जेवुं छे। समानीतः पद्भ्यां मणिमुकुरतामम्बरमणि- र्भयादन्तःस्तिमितकिरणश्रेणिमसृणः । दधाति त्वद्वक्त्रंप्रतिफलनमश्रान्तविकचं निरातङ्कं चन्द्रान्निजहृदयपङ्केरुहमिव ॥ १०१॥ देवीनुं दर्पण आकाशनो मणि अर्थात् सूर्य तारा चरणो पासे होवाथी दर्पण तरीके काम आपे छे,तारा मुखना भयथी एणे पातानां किरणोना समूहने अंदर छुपावी लीधो होवाथी ते स्वच्छ छे अने तारा मुखनुं प्रति- बिंब एना हृदयकमळनी माफक हमेशां विकसित रहे छे अने चंद्रनो भय लागतो नथी। समुद्भूतस्थूलस्तनभरमुरश्चारु हसितं कटाक्षे कन्दर्पः कतिचन कदम्बद्युति वपुः । हरस्य त्वद्भ्रान्तिं मनसि जनयाम् स्म विमला भवत्या ये भक्ताः परिणतिरमीषामियमुमे ॥ १०२॥ देवीनी व्यापकता हे उमे, उपर रहेला तारा स्थूल स्तनोना भार- वाळो छातीनो भाग,सुंदर हास्य अने कटाक्षमां कंदर्प अने कदंब वृक्षनी शोभावाळुं शरीर शिवना मनमां तारी चाद आपीने भ्रम उत्पन्न करे छे; कारण के तारा पवित्र भकतोना हृदयमां तारुं प्रतिबिब बराबर तारा जेवुं ज देखाय छे। निधे नित्यस्मेरे निरवधिगुणे नीतिनिपुणे निराघातज्ञाने नियमपरचित्तैकनिलये । नियत्या निर्मुक्ते निखिलनिगमान्तस्तुतिपदे निरातङ्के नित्ये निगमय ममापि स्तुतिमिमाम् ॥ १०३॥ समर्पण सदाय हसमुखी,असीम गुणनी सागर, नीतिमां निपुण, निरतिशय ज्ञानवती,नियम परा- यण भक्तोना चित्तमां वसनारी,विधिना नियमोथी मुक्त,सर्व शास्रो जेना पदनी स्तुति करे छे एवी अभये, सनातनी,नित्ये मारी आ स्तुति स्वीकार करीने मने तारा निगमोमां स्थान आप। ॥ अत्रे श्रीमत्शंकराचार्य विरचित सौंदर्यलहरीनुं गुजराती भाषांतर संपूर्ण ॥ ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ सौन्दर्यलहरी सम्पूर्णा ॥ ॐ तत्सत् ॥ DPD
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