अष्टश्लोकी-रामायणम्

अष्टश्लोकी-रामायणम्

॥ ॐ श्री गणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीरामः सर्वमङ्गलम् ॥ भगवान् श्रीराम ने शरणागत-रक्षा के लिए जो प्रतिज्ञा की थी, उसका चित्रण महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामायण के युद्धकाण्ड में बड़ा हृदयाकर्षक किया है; जिसे अनूठा समझते हुए महर्षि वेदव्यासजी ने भी अपनी अध्यात्मरामायण के उसी काण्ड में ज्यों-का-त्यों अपनाया है । देखिए :- श्लोक - सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते । अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाभ्येतद् व्रतं मम ॥ - वाल्मिकी रामायण युद्धकाण्ड अध्याय १८, श्लोक ३३ - अध्यात्मरामायण युद्धकाण्ड अध्याय ३, श्लोक १२ भावानुवाद दोहा - ``तेरा हूँ'' यों सरन आ जाचे कोई जीव । मैं उसको देता अभय यह व्रत मम सुग्रीव ॥ ॐ नमो नारायणायास्तु । ``ॐ''कार रूपाय समग्रचन्द्रा ``न''नाय लोकत्रितयेश्वराय । ``मो''घेतराङ्घ्रि-स्मरण-प्रमाणा ``नारायणायास्तु'' नतिः पराय ॥

श्रीरामः सर्वमङ्गलम् ।

श्लोक - सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते । अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाभ्येतद् व्रतं मम ॥ दोहा - ``तेरा हूँ'' यों सरन आ जाचे कोई जीव । मैं उसको देता अभय यह व्रत मम सुग्रीव ॥ ``स''च्चित्परानन्दमयो रमेशः ``कृ''पानिधी रावणमुख्यं-हत्यै । ``दे''वैः स्तुतोऽस्यां भुवि रामनाम्ना- ``ऽव''तीर्ण आर्यानवितुं च धर्मम् ॥ १॥ ``ते''जस्वी देवों की स्तुति सुन विष्णु सच्चिदानन्द-स्वरूप । ``रा''म नाम से पुण्य-भूमि में प्रकट धर अवतार अनूप ॥ ``हूँ''डा-हूँडी रचते रावण आदि राक्षसों का क्षय-कर्म । ``यों'' फिर ``त्राहि'' मचाते जन की रक्षा से रचना था धर्म ॥ १॥ ``प्र्''अह्वः किशोरः पितुराकुलोत्था- ``ऽऽप''न्नेन गत्वा सह कौशिकेन । ``ना''शं नयन् सावरजो निशाटान् ``य''ज्ञं तदीयं प्रररक्ष रामः ॥ २॥ ``स''रल किशोर सुनम्र, पिता का आकृल भी पाकर आदेश । ``र''घुवर सानुज आश्रित विश्वामित्र-सङ्ग जा वन-प्रदेश ॥ ``न''र-भक्षक यज्ञान्तक राक्षस-सेना का करते संहार । ``आ''र्ष यज्ञ-रक्षा के कारण बने; खुला तब धर्म-द्वार ॥ २॥ ``त''तो मुनिस्त्रीं स्फुटयन् पदा शिलां ``वा''स्त्वादि-रभ्यां मिथिलां ददर्श सः । ``मी''मांसमानषु बलं च राजसु ``ति''ष्ठन् निमेषं शिवचापमाभनक् ॥ ३॥ ``जा''ते हुए वहाँ से, पद से छूकर शिला अहल्योद्धार । ``चे''ष्टा को दिखला कर प्रभु ने देखी मिथिला सुगृह-प्रकार ॥ ``को''ई अपने कई राम के शौर्य जाँचते रहे बड़े । ``ई''श-धनुष को तभी उनहोंने तोड़ा; एक निमेष खड़े ॥ ३॥ ``च''कोरनेत्रा परमेकमित्रा ``या'' प्राग्यमैषीदिह१ जानकी सा । ``च''कोरनेत्रा परमे कमित्रा ``ते''नोपयेमेऽह्मि रघूत्तमेन ॥ ४॥ ``जी''वन-मित्र एक जो रखती जिन्हें पूर्वं अति चाह चुकी । ``व''ह भी इच्छुक चतुरशिरोमणि समझे, मुझे सराह चुकी ॥ ``मैं''के में ही उन सीता को ब्याह लिया रघुवर ने । ``उ''स सुदिनीय विवाहोत्सव की महिमा को कवि क्या बरनी ॥ ४॥ ``अ''ङ्गीकृतं प्राग् वरमाप्य कैकयी ``भ''र्त्रा वनं गन्तुमशात् सुताग्रजम् । ``यं'' यौवराज्यार्थमसञ्जयत् पिता, ``स''र्पो विधिश्च स्त उभौ हि जिह्नगौ ॥ ५॥ ``स''ञ्ज किया जिस सुत को नृप ने यौवराज्य-पद को पाने । ``को''पित उसे कैकयी बोली, पति को बना विपिन जाने ॥ ``दे''ना था नृप को थाती वर, माँगा था उसने तब ही । ``ता''रतम्य क्या साँप व विधि में, दोनों हों चट कुटिल कहीम् ॥ ५॥ ``व''ने खरादौ निहते, दशास्यो ``भू''त्वा समायो हरति स्म सीताम् । ``ते''भ्यो निरैत्तत् स तु दण्डकेभ्यो ``यो''ग्यां सुकण्ठेन तथाऽऽप मैत्रीम् ॥ ६॥ ``अ''ब अरण्य में खरादि राक्षस रघुवर ने ज्यों ही मारे । ``भ''रसक माया कर रावण ने हरी जानकी छल धारे ॥ ``य''ह दण्डक वन छोड़ यहां से चले राम फिर भी आगे । ``य''थायोग्य सुग्रीव-आर्त को मित्र किया, आश्रय माँगे ॥ ६॥ ``द''ण्डं ददेऽधार्मिक-वालिने, स्रग्- ``दा''भ्नाऽभिषेकस्य सुकण्ठमार्चत् । ``ये''ते हनूमाञ्जनकात्मजाप्त्यै ``तद्''-वृत्तमाख्यादुभ्योः कृतार्थः ॥ ७॥ ``ह''ठी दुराचारी बालो को प्राणदण्ड का पात्र किया । ``व्र''त धारी सुग्रीव-मित्र को तब ही उसका राज्य दिया ॥ ``त''न-मन से हनुमान ।जुटे फिर, सकुशल सीता को पाया । ``म''धुरामृत उन दम्पतियों की कर्णाञ्जलि में टपकाया ॥ ७॥ ``व्र''ती दशास्यं स जघान, तत्पदं ``तं'' भक्तमानेष्ट, य आश्रितः पुरा । ``म''न्त्राभिषिक्तो रघुराट् स सीतया ``म''नोरथान् राज्यमथाप्य पूर्णवान् ॥ ८॥ ``म''र्यादापुरुषोत्तम प्रभु ने उस मदान्ध रावण को मार । ``सु''हृद विभीषण को दे उसका सारा साज्य निभाया प्यार ॥ ``ग्री''वा में वनमाल, मुकुट शिर, पा मन्त्रों से नृपाभिषेक । ``व''ही राज्य पा सीतापति ने किये मनोरथ पूर्ण अनेक ॥ ८॥ अष्टश्लोकी-रामायणमिति पद्यानुवाद संवलितम् । रामाश्रयार्थ-सिद्ध्यै नित्यानन्देन शास्त्रिणा रचितम् ॥ ॥ इति श्री नित्यानन्दशास्त्री दाधीचविरचिता अष्टश्लोकी-रामायण समाप्ता ॥ ॐ श्री सीतापतये रामचन्द्राय नमः ॥ ॐ श्री रामानुज भरतश्च लक्ष्मणश्च शत्रुघ्नेभ्यो नमः ॥ ॐ हं हनुमते नमः ॥ चरणों के प्रथमाक्षरों में इन्हें दिखाते हुए मैंने भावानुवाद-सहित यह अष्टश्लोकी-रामायण रचकर भगवद्-भक्तों की सेवा में उपस्थित की है । आशा है, इसका सदुपयोग करते हुए वे लाभ उठायेंगे । - नित्यानन्द शास्त्री दाधीच । Composed by Nityanandashastri Dadhicha Encoded and proofread by Pradeep Kumar Jha
% Text title            : Ashtashloki Ramayanam with Hindi meaning
% File name             : aShTashlokIrAmAyaNam.itx
% itxtitle              : aShTashlokIrAmAyaNam hindI bhAvAnuvAda\-sahita
% engtitle              : aShTashlokIrAmAyaNam
% Category              : raama, aShTaka
% Location              : doc_raama
% Sublocation           : raama
% Author                : nityAnanda shAstrI dAdhIcha
% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Transliterated by     : Pradeep Kumar Jha
% Proofread by          : Pradeep Kumar Jha
% Description/comments  : Each verse and dohA starts with letters from the shloka and dohA on the top
% Indexextra            : (Scan)
% Latest update         : November 27, 2023
% Send corrections to   : sanskrit at cheerful dot c om
% Site access           : https://sanskritdocuments.org

This text is prepared by volunteers and is to be used for personal study and research. The file is not to be copied or reposted for promotion of any website or individuals or for commercial purpose without permission. Please help to maintain respect for volunteer spirit.

BACK TO TOP
sanskritdocuments.org