चतुष्पदी
त्वदीया या कान्तिर्जनकपुरवामाभिलषिता
जगद्वन्द्याऽनिन्द्या जनकतनयाया हृदि मता ।
यतीनां सर्वस्वं नवनवघनाभातिललिता,
सकृद्रामस्वामिन् ! जगदधिपते गोचरयताम् ॥ १॥
हे श्रीरामजी महाराज ! जनकपुर की सम्पूर्ण सुन्दर स्त्रियों ने आपकी जिस कान्ति को अपना परम अभीष्ट बनाया था, जो कान्ति जगदम्बा श्रीजानकी जी के हृदय में सदा विराजती है, जो विरक्तों के सर्वस्व तथा नूतन मेघ के समान अत्यन्त सुन्दर है, उस (कान्ति) को एक बार मुझे दिखा दीजिये ॥ १॥
स्वकीयैः पापौघैर्भवभयमहामो हरजनी
तमः पारावारे शरणरहितं हन्त ! पतितम् ।
महीजाश्रीस्वामिन् ! सपदि समवेक्ष्यार्तशरण !
ग्रहीतुं मां बाहुं द्रुतमिह समुत्थापय विभो ॥ २॥
हे श्रीरामजी महाराज ! अपने अनेक पापों से संसार के भय और मोहरूप रात्रि के अन्धकार समुद्र में मुझ दीन को गिरा हुआ देखकर पकड़ने के लिये शीघ्र ही अपना भुज उठाइये ॥ २॥
गजत्राणे याऽऽसीद् द्रुततमगतिस्तेऽतिसुखदा,
तथा रक्षाकाले जनकतनयाया रघुपते ।
अनाथानां नाथ ! स्थितिमिह महागम्यजलधौ,
ममीक्ष्य त्रातुं मामपि सपदि तां धारय विभो ॥ ३॥
हे श्रीरामजी महाराज ! गजराज और श्रीजानकीजी की रक्षा के समय जो शीघ्रतम गति आपकी थी अर्थात् आपने अपनी जिस शक्ति के द्वारा इन दीनों की शीघ्र रक्षा की थी, हे अनाथों के नाथ ! मुझे इस संसाररूप अगाधसमुद्र में डूबते देखकर बचाने के लिये शीघ्र ही उसी गति को धारण करें ॥ ३॥
यमाप्तुं प्राचीना मुनय ऋषयश्चापि सकला,
जगद्भावैः खिन्ना वनतरुषु वासं विदधिरे ।
अहं रामस्वामिन् ! भवभयहर ! प्रार्थय इदम्,
तमेवाद्य प्रेक्षे चरणविमलालोकमधुना ॥ ४॥
हे श्रीरामजी महाराज ! आपके श्रीचरणों के दर्शन हेतु जिस प्रकार मुनियों ने संसार से उदासीन होकर जङ्गलों में निवास किया था, उसी प्रकाश को मैं भी देखूं, हे भवभय भंजन ! यही प्रार्थना है ॥ ४॥
॥ इति श्री परमहंसपरिव्राजक जगद्गुरु रामानन्दाचार्यस्वामि श्रीभगवदाचार्य महाराजैः १९७६ तमे विक्रम सम्वत्सरे प्रणीता चतुष्पदी समाप्ता ॥
Encoded and proofread by Mrityunjay Pandey