सीतारामदशश्लोकी अथवा श्रीसीतारामस्तवः
श्रीरामचन्द्रं सततं स्मरामि
राजीवनेत्रं सुरवृन्दसेव्यम् ।
संसारबीजं भरताग्रजं श्री-
सीतामनोज्ञं शुभचापमञ्जुम् ॥ १॥
रामं विधीशेन्द्रचयैः समीड्यं
समीरसूनुप्रियभक्तिहृद्यम् ।
कृपासुधासिन्धुमनन्तशक्तिं
नमामि नित्यं नवमेघरूपम् ॥ २॥
सदा शरण्यं नितरां प्रसन्न-
मरण्यभूक्षेत्रकृताऽधिवासम् ।
मुनीन्द्रवृन्दैर्यतियोगिसद्भि-
रुपासनीयं प्रभजामि रामम् ॥ ३॥
अनन्तसामर्थ्यमनन्तरूप-
मनन्तदेवैर्निगमैश्च मृग्यम् ।
अनन्तदिव्याऽमृतपूर्णसिन्धुं
श्रीराघवेन्द्रं नितरां स्मरामि ॥ ४॥
श्रीजानकीजीवनमूलबीजं
शत्रुघ्नसेवाऽतिशयप्रसन्नम् ।
क्षपाटसङ्घाऽन्तकरं वरेण्यं
श्रीरामचन्द्रं हृदि भावयामि ॥ ५॥
पुरीमयोध्यामवलोक्य सम्यक्
प्रफुल्लचित्तं सरयूप्रतीरे ।
श्रीलक्ष्मणेनाऽञ्चितपादपद्मं
श्रीरामचन्द्रं मनसा स्मरामि ॥ ६॥
श्रीरामचन्द्रं रघुवंशनाथं
सच्चित्रकूटे विहरन्तमीशम् ।
परात्परं दाशरथिं वरिष्ठं
सर्वेश्वरं नित्यमहं भजामि ॥ ७॥
दशाननप्राणहरं प्रवीणं
कारुण्यलावण्यगुणैककोषम् ।
वाल्मीकिरामायणगीयमानं
श्रीरामचन्द्रं हृदि चिन्तयामि ॥ ८॥
सीतारामस्तवश्चारु सीतारामाऽनुरागदः ।
राधासर्वेश्वराद्येन शरणान्तेन निर्मितः ॥ ९॥
इस चेतनाचेतनात्मक समग्र संसार की उत्पत्ति, स्थिति, लय आदि के कारणस्वरूप समस्तदेवों से सर्वदा संसेवित, अजेय धनुर्वाण से सुशोभित श्रीभरत के अग्रज भ्राता, जनकनन्दनी श्रीसीताजी से अति शोभायमान राजीवलोचन भगवान् श्रीराम का निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ १॥
ब्रह्मा-शङ्कर-इन्द्र आदि देव समूह द्वारा जिनकी स्तुति की जाती है, पवनतनय श्रीहनुमान् जी की निर्मल पराभक्ति से अतीव प्रसन्न, कृपा सुधा के अगाध सागर, अनन्त अपरिमेय अनिर्वचनीय शक्ति से परिपूर्ण, नवीन मेघ के समान दिव्य कान्तियुत भगवान् श्रीराम को नित्य नमन करते हैं ॥ २॥
शरणागत भक्तों के लिये परमशरण्यरूप हैं और सर्वदा प्रसन्न, वनोपवनों में जिन्होन्ने निशाचरों के परिशमन एवं ऋषि-मुनिजनों को कृतार्थ करने हेतु दीर्घकाल तक निवास किया । मुनि-यति-योगी-महापुरुष द्वारा समुपासित ऐसे भगवान् श्रीराम का सर्वतोभावेन भजन करते हैं ॥ ३॥
अनन्त असीम जिनका सामर्थ्य है, अनन्त अनिर्वचनीय
स्वरूप सम्पन्न, इन्द्रादिदेवों एवं वेदादि शास्त्रों द्वारा जिनके स्वरूप का अन्वेषण किया जाता है, अनन्त और दिव्य अमृत अर्थात् आनन्द के पूर्णतम समुद्र हैं ऐसे राघवेन्द्र भगवान् श्रीराम का निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ ४॥
जनक सुता श्रीसीताजी के परम दिव्य पावनतम जीवन के प्रमुख आधार रूप,कनिष्ठ भ्राता श्रीशत्रुघ्नजी द्वारा सश्रद्ध सम्पादित सेवा से अतिशय प्रसन्नचित्त, धर्म द्रोही अत्याचारी निशाचरों का सर्वविधा अन्त करने में तत्पर ऐसे परम वरेण्य भगवान् श्रीरामचन्द्रजी की अपने मानस में पूर्णतया मङ्गल भावना करते हैं ॥ ५॥
समस्त पुरियों में शीर्षस्थ पुरी श्रीअयोध्या का चतुर्दिक् सर्वत्र परिभ्रमण पूर्वक सुन्दर समवलोकन करके अतिशय प्रमुदित मनस्क, पुण्य सलिला श्रीसरयू के पवित्र तट पर निजभ्राता श्रीलक्ष्मणजी से परिसेवित है जिनके श्रीचरणकमल ऐसे जगन्मङ्गलकारक भुवनमोहन रघुकुल दिवाकर भगवान् राघवेन्द्र श्रीराम का अपने पवित्रान्तःकरण से स्मरण करते हैं ॥ ६॥
चित्रकूट के सुरम्य पर्वतीय वनों ऋषि-मुनिजनों के आश्रमों में विहार करते हुए दशरथात्मज सर्वमूर्द्धन्य वरिष्ठ परात्पर स्वरूप,रघुवंशदिवाकर सर्वेश्वर भगवान् श्रीरामभद्र का नित्यशः हम भजन करते हैं ॥ ७॥
महाबली घोर अत्याचारी रावण के प्राणों का हरण करने
वाले जो परम कुशल हैं, कारुण्य-लावण्य-सौन्दर्य-माधुर्यादि दिव्य गुणगणों के अपार मङ्गल कोषरूप हैं, महर्षिवरेण्य श्रीवाल्मीकि विरचित श्रीवाल्मीकि रामायण से विविधात्मक रूप से प्रगीयमान हैं ऐसे अवधेशकुमार भगवान् श्रीरामचन्द्र का अपने चित्त में समग्रविधा चिन्तन करते हैं ॥ ८॥
भगवान् श्रीसीताराम के दिव्य अनुराग को प्रदान करने वाला अतिश्रेष्ठ यह श्रीसीतारामस्तव जिसकी रचना उन्हीं की कृपाजन्य भाव से सम्पादित हुई जो हमें निमित्त बन कर यह सेवा प्रस्तुत है ॥ ९॥
इति सीतारामदशश्लोकी समाप्ता ।
Proofread by Mohan Chettoor