चतुष्षष्ट्यष्टकम्

चतुष्षष्ट्यष्टकम्

सूर्योवाच - देवेदेव जगताम्पते विभो भर्ग भीम भव चन्द्रभूषण । भूतनाथ भवभीतिहारक त्वां नतोऽस्मि नतवाञ्छितप्रद ॥ १॥ चन्द्रचूड मृड दूर्जटे हर त्र्यक्ष दक्षशततन्तुशातन । शान्त शाश्वत शिवापते शिव त्वां नतोऽस्मि नतवाञ्छितप्रद ॥ २॥ नीललोहित समीहितार्थद द्व्येकलोचन विरूपलोचन । व्योमकेश पशुपाशनाशन त्वां नतोऽस्मि नतवाञ्छितप्रद ॥ ३॥ वामदेव शितिकण्ठ शूलभृच्चन्द्रशेखर फणीन्द्रभूषण । कामकृत्पशुपते महेश्वर त्वां नतोऽस्मि नतवाञ्छितप्रद ॥ ४॥ त्र्यम्बक त्रिपुरसूदनेश्वर त्राणकृत्त्रिनयन त्रयीमय । कालकूटदलनान्तकान्तक त्वां नतोऽस्मि नतवाञ्छितप्रद ॥ ५॥ शर्वरीरहित शर्व सर्वग स्वर्गमार्गसुखदापवर्गद । अन्धकासुररिपो कपर्दभृत् त्वां नतोऽस्मि नतवाञ्छितप्रद ॥ ६॥ शङ्करोग्र गिरिजापते पते विश्वनाथ विधिविष्णुसंस्तुत । वेदवेद्य विदिताखिलेङ्गित त्वां नतोऽस्मि नतवाञ्छितप्रद ॥ ७॥ विश्वरूप पररूपवर्जित ब्रह्म जिह्मरहितामृतप्रद । वाङ्मनोविषयदूर दूरग त्वां नतोऽस्मि नतवाञ्छितप्रद ॥ ८॥ इति स्कन्दपुराणान्तर्गतं काशीखण्डे नवचत्वारिंशततमोऽध्याये चतुष्षष्ट्यष्टकं सम्पूर्णम् । हिन्दी अनुवाद - सूर्य बोले- देवाधिदेव! जगत्पते! सर्वव्यापी! भर्ग! भीम! भव! चन्द्रभूषण! भूतनाथ तथा भवभयहारी देव! आप प्रणत जनों को मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाले हैं, आपको नमस्कार है । चन्द्रचूड! मृइड! धूर्जटे! हर! त्र्यक्ष! दक्ष के सैकड़ओं यज्ञों का नाश करनेवाले शान्त! शाश्वत! शिवापते! शिव! आप प्रणत जनों को मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाले हैं, आपको मैं नमस्कार करता हूँ । नीललोहित! अभीष्ट वस्तु देनेवाले त्रिलोचन! विरूपाक्ष! व्योमकेश! जीवों के अज्ञानमय बन्धन का नाश करनेवाले! आप प्रणत जनों की मनोवाञ्छा पूर्ण करनेवाले हैं, आपको मेरा नमस्कार है । वामदेव! शितिकण्ठ! शूलपाणे! चन्द्रशेखर! नागेन्द्रभूषण! कामनाशन! पशुपते! महेश्वर! आप शरणागतों की इच्छा पूर्ण करनेवाले हैं, आपको मैं नमस्कार करता हूँ । त्र्यम्बक! त्रिपुरारे! ईश्वर! सबकी रक्षा करनेवाले त्रिनयन! तीनों वेदस्वरूप! कालकूट के विष का दलन करनेवाले! काल के भी काल! आप प्रणत जनों की मनोवाञ्छित वस्तुओं को देनेवाले हैं, आपको नमस्कार है । आप जहाँ हैं वहाँ रात्रि का अभाव है । शर्व! आप सर्वव्यापी हैं! स्वर्गमार्ग का सुख देनेवाले तथा अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाले हैं । अन्धकासुर के शत्रु तथा जटाजूटधारी हैं । प्रभो! आप प्रणत जनों की इच्छा पूर्ण करनेवाले हैं, आपको मेरा नमस्कार है । आप भक्तों के लिये कल्याणकारी और दुष्टों के लिये उग्र हैं । गिरिराज- नन्दिनी के प्राणवल्लभ! आप ही सबके वास्तविक पति हैं । विश्वनाथ! ब्रह्मा और विष्णु भी आपकी स्तुति करते हैं । आप ही वेदों के द्वारा जानने योग्य परमात्मा हैं, आपको सबकी चेष्टाओं का ज्ञान है । नाथ! आप अपने चरणों में मस्तक झुकानेवाले भक्तों को उनकी अभीष्ट वस्तुएँ देते हैं, आपको नमस्कार है । यह विश्व आपका ही स्वरूप है, तथापि आप सबसे परे हैं, आप ही निराकार ब्रह्म हैं, आप में कुटिलता का सर्वथा अभाव हैं, आप अमृइत (मोक्ष) देनेवाले हैं, मन और वाणी की पहुँच से सर्वथा दूर हैं । दूरतक पहुँचे हुए सर्वव्यापी परमेश्वर! आप प्रणत जनों को मनोवाञ्छित वस्तुएँ प्रदान करनेवाले हैं, आपको मेरा नमस्कार है ।
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