श्रीशिवस्तुतिः अन्धककृता
अन्धक उवाच -
कृत्स्नस्य योऽस्य जगतः सचराचरस्य
कर्ता कृतस्य च तथा सुखदुःखहेतुः ।
संहारहेतुरपि यः पुनरन्तकाले
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १॥
अन्धकने कहा-जो चराचर प्राणियोंसहित इस सम्पूर्ण जगत्को उत्पन्न
करनेवाले हैं, उत्पन्न हुए जगत्के सुख-दुःखमें एकमात्र कारण
हैं तथा अन्तकालमें जो पुनः इस विश्वके संहारमें भी कारण बनते
हैं, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ॥ १॥
यं योगिनो विगतमोहतमोरजस्का
भक्त्यैकतानमनसो विनिवृत्तकामाः ।
ध्यायन्ति निश्चलधियोऽमितदिव्यभावं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ २॥
जिनके हृदयसे मोह, तमोगुण और रजोगुण दूर हो गये हैं,
भक्तिके प्रभावसे जिनका चित्त भगवान्के ध्यानमें लीन हो रहा
है, जिनकी सम्पूर्ण कामनाएँ निवृत्त हो चुकी हैं और जिनकी
बुद्धि स्थिर हो गयी है, ऐसे योगी पुरुष अपरिमेय दिव्यभावसे
सम्पन्न जिन भगवान शिवका निरन्तर ध्यान करते रहते हैं,
उन शरणदाता भगवान श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ॥ २॥
यश्चेन्दुखण्डममलं विलसन्मयूखं
बद्ध्वा सदा प्रियतमां शिरसा बिभर्ति
यश्चार्धदेहमददाद् गिरिराजपुत्र्यै
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ३॥
जो सुन्दर किरणोंसे युक्त निर्मल चन्द्रमाकी कलाको जटा-जूटमें
बाँधकर अपनी प्रियतमा गंगाजीको मस्तकपर धारण करते हैं,
जिन्होंने गिरिराजकुमारी उमाको अपना आधा शरीर दे दिया है, उन
शरणदाता भगवान श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ॥ ३॥
योऽयं सकृद्विमलचारुविलोलतोयां
गग्ङां महोर्मिविषमां गगनात् पतन्तीम् ।
मूर्ध्नाऽऽददे स्रजमिव प्रतिलोलपुष्पां
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ४॥
आकाशसे गिरती हुई गंगाजीको, जो स्वच्छ, सुन्दर एवं चंचल
जलराशिसे युक्त तथा ऊँची-ऊँची लहरोंसे उल्लसित होनेके
कारण भयंकर जान पड़ती थीं, जिन्होंने हिलते हुए फूलोंसे
सुशोभित मालाकी भाँति सहसा अपने मस्तकपर धारण कर लिया,
उन शरणदाता भगवान श्रीशंकरको मैं शरण लेता हूँ ॥ ४॥
कैलासशैलशिखरं प्रतिकम्प्यमानं
कैलासशृङ्गसदूशेन दशाननेन ।
यः पादपद्यपरिवादनमादधानस्तं
शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ५॥
कैलास पर्वतके शिखरके समान ऊँचे शरीरवाले दशमुख
रावणके द्वारा हिलायी जाती हुई कैलासगिरिकी चोटीको जिन्होंने अपने
चरणकमलोंसे ताल देकर स्थिर कर दिया, उन शरणदाता भगवान
श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ॥ ५॥
येनासकृद् दितिसुताः समरे निरस्ता
विद्याधरोरगगणाश्च वरैः समग्राः ।
संयोजिता मुनिवराः फलमूलभक्षा-
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ६॥
जिन्होंने अनेक बार दैत्योंको युद्धमें परास्त किया है और
विद्याधर, नागगण तथा फल-मूलका आहार करनेवाले सम्पूर्ण
मुनिवरोंको उत्तम वर दिये हैं, उन शरणदाता भगवान
श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ॥ ६॥
दग्ध्वाध्वरं च नयने च तथा भगस्य
पूष्णस्तथा दशनपङ्किमपातयच्च ।
तस्तम्भ यः कुलिशयुक्तमहेन्द्रहस्तं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ७॥
जिन्होंने दक्षका यज्ञ भस्म करके भग देवताकी आँखें फोड़्
डालीं और पूषाके सारे दाँत गिरा दिये तथा वञ्रसहित देवराज
इन्द्रके हाथको भी स्तम्भित कर दिया-जडवत् निश्चेष्ट बना दिया,
उन शरणदाता भगवान श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ॥ ७॥
एनस्कृतोऽपि विषयेष्वपि सक्तभावा
ज्ञानान्वयश्रुतगुणैरपि नैव युक्ताः ।
यं संश्रिताः सुखभुजः पुरुषा भवन्ति
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ८॥
जो पापकर्ममें निरत और विषयासक्त हैं, जिनमें उत्तम ज्ञान,
उत्तम कुल, उत्तम शास्त्र-ज्ञान और उत्तम गुणोंका भी अभाव
है-ऐसे पुरुष भी जिनकी शरणमें जानेसे सुखी हो जाते हैं,
उन शरणदाता भगवान श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ॥ ८॥
अत्रिप्रसूतिरविकोटिसमानतेजाः
सन्त्रासनं विबुधदानवसत्तमानाम् ।
यः कालकूटमपिबत् समुदीर्णवेगं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ९॥
जो तेजमें करोड़ों चन्द्रमाओं और सूर्योके समान हैं, जिन्होंने
बड़े-बड़े देवताओं तथा दानवोंका भी दिल दहला देनेवाले कालकूट
नामक भयंकर विषका पान कर लिया था, उन प्रचण्ड वेगशाली
शरणदाता भगवान श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ॥ ९॥
ब्रहोनद्ररुद्रमरुतां च सषण्मुखानां
योऽदाद् वरांश्च बहुशो भगवान महेशः ।
नन्दिं च मृत्युवदनात् पुनरुज्जहार
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १०॥
जिन भगवान महेश्वरने कार्तिकेयसहित ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र तथा
मरुद्गणोंको अनेकों बार वर दिये हैं और नन्दीका मृत्युके मुखसे
उद्धार किया, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकरकी मैं शरण
लेता हूँ ॥ १०॥
आराधितः सुतपसा हिमवन्निकुञ्जे
धूप्रव्रतेन मनसाऽपि परैरगम्यः ।
सञ्जीवनी समददाद् भृगवे महात्मा
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ११॥
जो दूसरोंके लिये मनसे भी आगम्य हैं, महर्षि भृगुने हिमालय
पर्वतके निकुंजमें होमका धुआँ पीकर कठोर तपस्याके द्वारा
जिनको आराधना को थी तथा जिन महात्माने भृगुको (उनकी तपस्यासे
प्रसन्न होकर) संजीवनी विद्या प्रदान की, उन शरणदाता भगवान
श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हुँ ॥ ११॥
नानाविधैर्गजबिडालसमानवक्त्रै-
र्दक्षाध्वरप्रमथनैर्बलिभिर्गणौघैः ।
योऽभ्यर्च्यतेऽमरगणैश्च सलोकपालै-
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १२॥
हाथी और बिल्ली आदिकी-सी मुखाकृतिवाले तथा दक्षयज्ञका विनाश
करनेवाले नाना प्रकारके महाबली गर्णोंद्वारा जिनकी निरन्तर पूजा
होती रहती है एवं लोकपालोंसहित देवगण भी जिनको आराधना किया
करते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता
हूँ ॥ १२॥
क्रोडार्थमेव भगवान भुवनानि सप्त
नानानदीविहगपादपमण्डितानि ।
सब्रह्मकानि व्यसृजत् सुकृताहितानि
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १३॥
जिन भगवान्ने अपनी क्रोडाके लिये ही अनेकों नदियों, पक्षियों और
वृक्षोंसे सुशोभित एवं ब्रह्माजीसे अधिष्ठित सातों भुवनोंकी
रचना की है तथा जिन्होंने सम्पूर्ण लोकोंको अपने पुण्यपर ही
प्रतिष्ठित किया है, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकरकी मैं
शरण लेता हूँ ॥ १३॥
यस्याखिलं जगदिदं वशवर्ति नित्यं
योऽष्टाभिरिव तनुभिर्भुवनानि भुङ्के ।
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि १४॥
यह सम्पूर्ण विश्व सदा ही जिनकी आज्ञाके अधीन है, जो (जल, अग्नि,
यजमान, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, वायु और प्रकृति-इन) आठ
विग्रहोंसे समस्त लोकोंका उपभोग करते हैं तथा जो बड़े-से-बड़े
कारण-तत्त्वोंके भी महाकारण हैं, उन शरणदाता भगवान
श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ॥ १४॥
शङ्खेन्दुकुन्दधवलं वृषभप्रवीर-
मारुह्य यः क्षितिधरेन्द्रसुतानुयातः ।
यात्यम्बरे हिमविभूतिविभूषिताङ्ग-
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १५॥
जो अपने श्रीविग्रहको हिम और भस्मसे विभूषित करके शंख,
चन्द्रमा और कुन्दके समान शश्वेतवर्णवाले वृषभश्रेष्ठ
नन्दीपर सवार होकर गिरिराजकिशोरी उमाके साथ आकाशमें विचरते
हैं, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकरको में शरण लेता हूँ
॥ १५॥
शान्तं मुनिं यमनियोगपरायणं तै-
भीमैर्यमस्य पुरुषैः प्रतिनीयमानम् ।
भक्त्या नतं स्तुतिपर प्रसभं ररक्ष
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १६॥
यमराजको आज्ञाके पालनमें लगे रहनेपर भी जिन्हें वे भयंकर
यमदूत पकड़्कर लिये जा रहे थे तथा जो भक्तिसे नम्र होकर
स्तुति कर रहे थे, उन शान्त मुनिकी जिन्होंने बलपूर्वक यमदूतोंसे
रक्षा की, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकरकी मैं शरण लेता
हूँ ॥ १६॥
यः सव्यपाणिकमलाग्रनखेन देव-
स्तत् पञ्चमं प्रसभमेव पुरः सुराणाम् ।
ब्राह्मं शिरस्तरुणपद्मनिभं चकर्त
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १७॥
जिन्होंने समस्त देवताओंके सामने ही ब्रह्माजीके उस पाँचवें
मस्तकको, जो नवीन कमलके समान शोभा पा रहा था, अपने बायें
हाथके नखसे बलपूर्वक काट डाला था, उन शरणदाता भगवान
श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ॥। १७॥
यस्य प्रणम्य चरणौ वरदस्य भक्त्या
स्तुत्वा च वाग्भिरमलाभिरतन्द्रिताभिः ।
दीप्तैस्तमांसि नुदते स्वकरैर्विवस्वां-
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १८॥
जिन वरदायक भगवानके चरणोंमें भक्तिपूर्वक प्रणाम करके
तथा आलस्यरहित निर्मल वाणीके द्वारा जिनकी स्तुति करके सूर्यदेव
अपनी उद्दीप्त किरणोंसे जगतका अन्धकार दूर करते हैं, उन
शरणदाता भगवान श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ॥ १८॥
॥ इति श्रीस्कन्दमहापुराणे अवन्तीखण्डे अन्धककृता शिवस्तुतिः सम्पूर्णा ॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराणमे अवन्तीखण्डमें अन्धककृत
शिवस्तुति सम्पूर्ण हुई ॥
Proofread by Ganesh Kandu kanduganesh at gmail.com