श्रीविश्वनाथस्तवः

श्रीविश्वनाथस्तवः

भवानीकलत्रं हरे शूलपाणिं शरण्यं शिवं सर्पहारं गिरीशम् । अज्ञानान्तकं भक्तविज्ञानदं तं भजेऽहं मनोऽभीष्टरं विश्वनाथम् ॥ १॥ भवानी जिनकी पत्नी हैं, जो पापोंका हरण करनेवाले हैं, जिनके हाथमें त्रिशूल है, जो शरणागतकी रक्षा करनेमें प्रवीण हैं, कल्याणकारी हैं, सर्प जिनका हार है, जो गिरीश (कैलासगिरिके स्वामी) हैं, जो अज्ञानको नष्ट करनेवाले तथा भक्तोंको ज्ञान-विज्ञानसे समृद्ध बनानेवाले हैं, ऐसे उन मनोवांछित फल प्रदान करनेवाले विश्वके स्वामी भगवान विश्वनाथका मैं भजन करता हूँ ॥ १॥ अजं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रं गुणज्ञं दयाज्ञानसिन्धुं प्रभुं प्राणनाथम् । विभुं भावगम्यं भवं नीलकण्ठं भजेऽहं मनोऽभीष्टदं विश्वनाथम् ॥ २॥ जो अज (अजन्मा) हैं, जिनके पाँच मुख और तीन नेत्र हैं, जो गुणज्ञ हैं, दया और ज्ञानके सिन्धु हैं, सर्वसमर्थ तथा प्राणनाथ हैं, विभु (व्यापक) हैं, जिन्हें भक्तिभावसे प्राप्त किया जा सकता है, जो सृष्टिके उत्पादक हैं, जिनका कण्ठ नीला है, ऐसे मनोवांछित फल प्रदान करने- वाले विश्वके स्वामी भगवान विशवनाथका मैं भजन करता हूँ॥। २॥ चिताभस्मभूषार्चिताभासुराङ्गं श्मशानालयं त्र्यम्बकं मुण्डमालम् । कराभ्यां दधानं त्रिशूलं कपालं भजेऽहं मनोऽभीष्टदं विश्वनाथम् ॥ ३॥ जिनका शरीर चिताके भस्मरूपी अलंकारसे अलंकृत एवं दीप्तिमान है, जिनका निवास श्मशान है, जिनके तीन नेत्र हैं, जो मुण्डोंको माला धारण किये रहते हैं । जो दो हाथोंमें त्रिशूल और कपाल धारण किये रहते हैं, ऐसे मनोवांछित फल प्रदान करनेवाले विश्वके स्वामी भगवान विश्वनाथका मैं भजन करता हूँ ॥ ३॥ अघध्नं महाभैरवं भीमदंष्ट्रं निरीहं तुषाराचलाभाङ्गगौरम् । गजारिं गिरौ संस्थितं चन्द्रचूडं भजेऽहं मनोऽभीष्टदं विश्वनाथम् ॥ ४॥ जो पापोंके विनाशक हैं, जो महाभैरव हैं, जिनके दाँत भयानक हैं, जो समस्त कामनाओंसे रहित हैं, जिनका श्रीविग्रह बर्फके पर्वतका-सा गौर है और जिन्होंने गजासुरका विनाश किया है, जो पर्वतपर रहते हैं, जिनके सिरपर बालोंके जूट (जूड़े) -में चन्द्रमा विराजमान है, ऐसे मनोवांछित फल प्रदान करनेवाले विश्वके स्वामी भगवान विश्वनाथका मैं भजन करता हूँ ॥ ४॥ विधुं भालदेशे विभातं दधानं भुजङ्गेशसेव्यं पुरारिं महेशम् । शिवासंगृहीतारद्धदेहं प्रसन्नं भजेऽहं मनोऽभीष्टदं विश्वनाथम् ॥ ५॥ जो भालदेशमें दीप्तिमान चन्द्रमाको धारण किये हुए हैं, जिनकी सेवा सर्पराज करते रहते हैं, जो त्रिपुरारि तथा महान ईश हैं, जिनके शरीरके आधे भागको शिवा (माता पार्वतीजी) -ने अधिगृहीत किया है, जो सदा प्रसन्न रहते हैं, ऐसे मनोवांछित फल प्रदान करनेवाले विश्वके स्वामी भगवान विश्वनाथका मैं भजन करता हूँ ॥ ५॥ भवानीपतिं श्रीजगन्नाथनाथं गणेशं गृहीतं बलीवर्दयानम् । सदा विघ्नविच्छेदहेतुं कृपालुं भजेऽहं मनोऽभीष्टदं विश्वनाथम् ॥ ६॥ जो भवानीपति हैं, जो संसारके नाथोंके नाथ (स्वामी) हैं, जो गणोंके ईश हैं, जिन्होंने बैलको अपना वाहन चुना है, जिनकी कृपासे सदा विघ्नोंका विच्छेद होता रहता है, जो कृपालु हैं, ऐसे मनोवांछित फल प्रदान करनेवाले विश्वके स्वामी भगवान् विश्वनाथका मैं भजन करता हूँ ॥ ६॥ अगम्यं नटं योगिभिर्दण्डपाणिं प्रसन्नाननं व्योमकेशं भयघ्नम् । स्तुतं ब्रह्ममायादिभिः पादकञ्जं भजेऽहं मनोऽभीष्टदं विश्वनाथम् ॥ ७॥ जो योगिजनोंके लिये भी अगम्य हैं, जो नाट्य (नृत्य) - कलामें प्रवीण हैं, दण्डपाणि हैं, प्रसन्नमुख हैं तथा जिनके केश (किरण) व्योम (आकाश) -तक व्याप्त हैं, जो भयोंका नाश करनेवाले हैं, जिनके चरणकमलोंको स्तुति ब्रह्मा और माया आदि करते रहते हैं; ऐसे मनोवांछित फल प्रदान करनेवाले विश्वके स्वामी भगवान विश्वनाथका मैं भजन करता हुँ ॥ ७॥ मृडं योगमुद्राकृतं ध्याननिष्ठं धृतं नागयज्ञोपवीतं त्रिपुण्ड्म् । ददानं पदाम्भोजनम्राय कामं भजेऽहं मनोऽभीष्टदं विश्वनाथम् ॥ ८॥ जो आनन्दमूर्ति हैं, योगमुद्रा धारण किये हुए हैं तथा ध्यानयोगमें निरत हैं, जिन्होंने सर्पका यज्ञोपबीत और त्रिपुण्डू धारण कर रखा है, चरणकमलोंमें झुके भक्तको उसका अभीष्ट प्रदान करते हैं, ऐसे मनोवांछित फल प्रदान करनेवाले विश्वके स्वामी भगवान विश्वनाथका मैं भजन करता हूँ ॥ ८॥ मृडस्य स्वयं यः प्रभाते पठेन्ना हृदिस्थः शिवस्तस्य नित्यं प्रसन्नः । चिरस्थं धनं मित्रवर्ग कलत्रं सुपुत्रं मनोऽभीष्टमोक्षं ददाति ॥ ९॥ जो मनुष्य प्रभातकालमें भगवान मूड (विश्वनाथ) -के इस स्तवका पाठ करता है, उसके हृदयमें स्थित होकर शिव उसपर सदैव प्रसन्न रहते हैं और उसे चिरस्थायी सम्पत्ति, मित्रवर्ग, पत्नी, सत्पुत्र, मनोवांछित वस्तु तथा मोक्ष प्रदान करते हैं ॥ ९॥ योगीशमिश्रमुखपङ्कजनिर्गतं यो विश्वेश्वराष्टकमिदं पठति प्रभाते । आसाद्य शङ्करपदाम्बुजयुग्मभक्तिं भुक्त्वा समृद्धिमिह याति शिवान्तिकेऽन्ते ॥ १०॥ जो व्यक्ति योगीशमिश्रके मुखकमलसे निर्गत इस विश्वेश्वराष्टक (विश्वनाथस्तव) -का प्रभातवेलामें पाठ करता है, वह इस लोकमें भगवान् शंकरके चरणकमलोंकी भक्ति प्राप्त करके समृद्धिका भोग प्राप्त करता है और अन्तमें भगवान शिवका सांनिध्य प्राप्त कर लेता है ॥ १०॥ ॥ इति श्रीयोगीशमिश्रविरचितः श्रीविश्वनाथस्तवः सम्पूर्णः ॥ ॥ इस प्रकार श्रीयोगीशमिश्रविरचित श्रीविश्वनाथस्तव सम्पूर्ण हुआ ॥ Proofread by Ganesh Kandu kanduganesh at gmail.com
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% Author                : Yogisha Mishra
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% Latest update         : October 1, 2018
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