भ्रष्टाष्टकम्

भ्रष्टाष्टकम्

विश्वं सत्यं मनुते तनुते कर्माणि लोकसंसिद्ध्यै । वाचा मिथ्या जगदिति जल्पति नो वेत्ति यो महाभ्रष्टः ॥ १॥ संसार को सत्य मानता है, इह लोक और परलोक में सुख प्राप्ति की इच्छा से नाना प्रकार के कर्म भी करता है और केवल मुख से बोला करता है कि ``यह जगत् मिथ्या है'' परन्तु जगत् को यथार्थता से मिथ्या नहीं समझता वह महाभ्रष्ट है ॥ १॥ ब्रह्मैवेदं जल्पति दोषादोषोत्तमाधमान्पश्यन् । नग्नो भूत्वा विचरत्यवधूतत्वं प्रदर्शयन्भ्रष्टः ॥ २॥ वो भला बुरा मानता है, उच्च नीच भी विचारता है और मुख से ``यह सब ब्रह्म है'' ऐसा बकवाद करता है और नङ्गा डोलकर अपने अवधूत होने का प्रदर्शन करता है, वह भ्रष्ट है ॥ २॥ कृत्याकृत्यमशेषं त्यक्तुमशक्तं श्रुतेरगोचरताम् । आत्मनि जल्पन्हास्यास्पदतामेत्येष मानवो भ्रष्टः ॥ ३॥ समस्त विहित और निषिद्ध कर्मों का त्याग कर नहीं सकता और उसका समर्थन करने के लिये कहता है कि ``श्रुति ने भी मेरा पार नहीं पाया'' ऐसी हास्यास्पद अवस्था को प्राप्त हुआ मनुष्य भ्रष्ट है ॥ ३॥ पाशाष्टकसङ्कष्टश्लिष्टतनुर्मृष्टभोजनप्रीतः । शिष्टोऽहं मन्वानः कष्टमहो दुष्ट मानवो भ्रष्टः ॥ ४॥ महाकष्टप्रद आठ पाशों से जिसका शरीर जकड़ा हुआ है, जिसको रुचिकर भोजन में अति प्रीति है और जो अपने को प्रतिष्ठित मानता है, बड़े कष्ट की बात है कि ऐसा दुष्ट पुरुष भ्रष्ट है ॥ ४॥ आत्मैवेदं जल्पंल्लोकोक्तीरसहमानमेधावी । स्तुतिवाक्यानि श्रोतुं धावंस्तुष्टो न किं भवेद्भ्रष्टः ॥ ५॥ बडा बुद्धिमान् बनकर ``यह सब आत्मा ही है'', ऐसा कहने लगता है, परन्तु किसी की बुरी बात तो सही नहीं जाती और अपनी स्तुति सुनने के लिये दौडता फिरता है और सुनकर प्रसन्न भी होता है, ऐसा पुरुष भ्रष्ट नहीं तो क्या है ? ॥ ५॥ यस्मिन् स्वस्य च निष्ठा तद्धर्मिष्ठानशिष्टगणनायाम् । कुर्वन्कर्म हतोऽयं यद्यपि शिष्टो न किं भवेद्भ्रष्टः ॥ ६॥ जिनमें अपनी निष्ठा है ऐसे कर्मों को धर्मिष्ठ मनुष्यों की अवज्ञा करते हुए मरणपर्यन्त करता रहता है, ऐसा मूर्ख मनुष्य विद्वान् होते हुए भी भ्रष्ट नहीं तो क्या है ? ॥ ६॥ कर्तत्वं भोक्तृत्वं मन्वानः स्वात्मनि प्रभौ शम्भौ । रोदिति हा किं कृतमिति किं वा भोक्तव्यमित्यसौ भ्रष्टः ॥ ७॥ कर्तृत्व और भोक्तृत्व अपने आत्मस्वरूप परमात्मा शिवजी में मानता है और फिर ``हाय यह क्या किया, हाय कैसा यह भोग!'' इस प्रकार चिल्लाता है, रोता है - वह भ्रष्ट है ॥ ७॥ चिन्मात्रं स्वात्मानं देहं मन्वान एजते यमतः । सर्वात्मानमबुद्ध्वा ब्रह्माऽपि स्यादहो किल भ्रष्टः ॥ ८॥ अपने शरीर ही को चैतन्य स्वरूप आत्मा समझकर जो यम नियम से च्युत हो जाता है उसका तो कहना ही क्या ? ब्रह्मा भी क्यों नहीं यदि वह सब कुछ आत्मा ही है ऐसा नहीं जाने तो वह भी भ्रष्ट ही है ॥ ८॥ भ्रष्टाष्टकमेतद्यत्प्रविचारयतीह मानवो धन्यः । मान्यः स्याल्लोकेषु भ्रष्टत्वं वेत्ति निजचारित्र्यात् ॥ ९॥ इस भ्रष्टाष्टक का जो पुरुष विचार करता है वह धन्य है; क्योङ्कि जो अपने आचरण का भ्रष्टत्व जान लेता है वह दोनों लोक में मान्य हो जाता है ॥ ९॥ इति भ्रष्टाष्टकं सम्पूर्णम् । Proofread by Aruna Narayanan narayanan.aruna at gmail.com
% Text title            : Bhrashtashtakam
% File name             : bhraShTAShTakam.itx
% itxtitle              : bhraShTAShTakam
% engtitle              : bhraShTAShTakam
% Category              : misc, vedanta, aShTaka
% Location              : doc_z_misc_general
% Sublocation           : misc
% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Transliterated by     : Aruna Narayanan narayanan.aruna at gmail.com
% Proofread by          : Aruna Narayanan narayanan.aruna at gmail.com
% Indexextra            : (Scan)
% Latest update         : April 18, 2020
% Send corrections to   : (sanskrit at cheerful dot c om)
% Site access           : https://sanskritdocuments.org

This text is prepared by volunteers and is to be used for personal study and research. The file is not to be copied or reposted for promotion of any website or individuals or for commercial purpose without permission. Please help to maintain respect for volunteer spirit.

BACK TO TOP
sanskritdocuments.org