शुकाष्टकम्
(मन्दाक्रान्ता छन्द ।)
भेदाभेदो सपदि गलितौ पुण्यपापे विशीर्णे
मायामोहौ क्षयमुपगतौ नष्टसन्देहवृत्तेः ।
शब्दातीतं त्रिगुणरहितं प्राप्य तत्त्वावबोधं
निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ १॥
शब्द से परे और तीनों गुणों से रहित तत्त्व का बोध प्राप्त
करने से जिसकी सन्देह वृत्ति नष्ट हो जाती है, सर्व प्रकार के
संशय दूर हो जाते हैं, उसमें से भेद अभेद का विचार तत्क्षण
जाता रहता है, उसके पुण्य पाप नष्ट हो जाते हैं, माया मोह का
क्षय हो जाता है, जो तीनों गुणों से रहित मार्ग में विचरने वाला
है, उसको विधि क्या और निषेध क्या, उसके लिये विधि और
निषेध दोनों नहीं हैं ।
यद्वात्मानं सकलवपुषामेकमन्तर्बहिस्थं
द्रष्ट्वा पूर्णं स्वमिवसततं सर्वभाण्डस्थमेकम् ।
नान्यत्कार्यं किमपि च ततः कारणाद् भिन्नरूप
निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ २॥
जिसने सब शरीरों में भीतर और बाहर स्थित, अपने ही
समान सदा सब जगत् रूपी भाण्ड में स्थित, एक, पूर्ण आत्मा
को देख लिया है, उसके लिये उस परमात्मा रूपी कारण के
सिवाय दूसरा कार्य कुछ भी नहीं है । जो तीनों गुणों से रहित
मार्ग में विचरने वाला है, उसके लिये विधि क्या और निषेध
क्या -- दोनों ही नहीं हैं ।
हेम्नः कार्यं हुतवहगतं हेममेवेति यद्वत्
क्षीरे क्षीरं समरसतया तोयमेवाम्बु मध्ये ।
एवं सर्वं समरसतया त्वम्पदं तत्पदार्थे
निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ ३।
जैसे सुवर्ण की बनी हुई चीज अग्नि मे डालने से सुवर्ण
ही हो जाती है, जैसे दूध दूध में डालने से एक रस होने से दूध
ही हो जाता है, जैसे जल जल मे डालने से जल ही हो जाता है
इसी प्रकार सब त्वम्पद--जीव तत्पदार्थ--ईश्वर-ब्रह्म में समान
रसत्व के कारण ब्रह्म ही होता है । जो तीनों गुणों से रहित
मार्ग में विचरने वाला है, उसके लिये विधि क्या और निषेध
क्या---दोनों ही नहीं हैं ।
यस्मिन्विश्वं सकलभुवनं सामरस्यैकभूतं
उर्वीत्यापोऽनलमनिलखं जीवमेवङ्क्रमेण ।
यत्क्षाराब्धौ समरसतया सैन्धवैकत्वभूतं
निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ ४॥
जैसे समुद्र खारी है, ऐसे ही नमक भी खारी है, इसलिये
खारीपन दोनों में समान होने से नमक समुद्र रूप ही है इसी
प्रकार इस (ब्रह्म) में सब भुवन तथा पृथिवी, जल, वायु,
अग्नि और आकाश तथा जीव एक रसत्व के कारण एक ब्रह्म
ही है । जो तीनों गुणों से रहित मार्ग मे विचरने वाला है
उसको विधि क्या और निषेध क्या - कोई नहीम् ।
यद्वन्नद्योदधिसमरसौ सागरत्वं ह्यवाप्तौ
तद्वज्जीवालयपरिगतौ सामरस्यैक भूताः ।
भेदातीतं परिलयगतं सच्चिदानन्दरूपं
निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ ५॥
जैसे नदी समुद्र में मिल कर एक रसत्व के कारण समुद्र
रूप हो जाती है वैसे ही देह मे रहा हुआ जीव एक रसत्व के
कारण एक परमात्मा ही है, इस प्रकार भेद से रहित सर्वान्तर्यामी
होने के कारण केवल एक सच्चिदानन्द रूप ही है । जो
तीनोगुणों से रहित मार्ग में विचरने वाला है, उसके लिये विधि
क्या और निषेध क्या - दोनों ही नहीं हैं ।
द्रष्ट्वावेद्यं परमथपदं स्वात्मबोधस्वरूपं
बुद्ध्यात्मानं सकलवपुषामेकमन्तर्बहिस्थम् ।
भूत्वा नित्यं सदुदिततया स्वप्रकाशस्वरूपं
निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ ६॥
जानने योग्य, परमपद, स्वात्मबोध स्वरूप और सब शरीरों
के भीतर बाहर एक ही स्थित आत्मा को देख कर और तत्त्व
के उदय होने से स्वप्रकाश स्वरूप होकर जो तीनों गुणों से
रहित मार्ग में विचरने वाला है,उसको विधि क्या और निषेध
क्या - कोई नहीं है ।
कार्याकार्ये किमपि सततं नैव कर्तृत्वमस्ति
जीवन्मुक्तस्थितिरवगतो दग्धवस्त्रावभासः ।
एवं देहे प्रविलयगते तिष्ठमानो वियुक्तो
निस्नैगुण्ये पथिविचरतः कोविधि कोनिषेधः ॥ ७॥
जिसका कार्य अकार्य में कभी कुछ भी कर्तृत्व नहीं है,
जिसने जले हुए कपडों के समान सब सांसारिक वासनाओं को
जला कर जीवन्मुक्त स्थिति प्राप्त की है, वह शरीर में रहते हुए
भी शरीर रहित के समान है । जो तीनों गुणों से रहित मार्ग
में विचरने वाला है, उसको विधि क्या और निपेध क्या -- दोनों
ही नहीं है ।
कस्मात्कोहं किमपि च भवान्कोऽयमत्रप्रपञ्चः
स्वं स्वं वेद्यं गगनसदृशं पूर्णतत्त्वप्रकाशम् ।
आनन्दाख्यं समरसवने बाह्यमन्तर्विहीने
निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ ८॥
मैं कौन हूँ ? किससे हूँ ? आप कौन हैं ? यह प्रपञ्च क्या
है ? जो एकरस ब्रह्म रूप वन में भीतर और बाहर के भेद से
रहित आकाश के समान आनन्द नामक सर्वव्यापी पूर्ण तत्त्व
है, वह ही अपना आप जानने योग्य है, जो तीनों गुणों से
रहित मार्ग मे विचरने वाला है, उसको विधि क्या और निषेध
क्या -- दोनों में से एक भी नहीम् ।
इति शुकाष्टकं स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
Proofread by Aruna Narayanan narayanan.aruna at gmail.com