गुरुशिष्यपुराणसन्दर्भः
गुरु
कूर्म २.१२.३८ ( गुरु वर्ग का कथन, गुरु वर्ग के मध्य में भी
पांच गुरुओं के विशेष रूप से पूजनीय होने का कथन, गुरु -
महिमा ),
गरुड २.२.६२(गुरुतल्पग द्वारा तृण गुल्म लता योनि प्राप्ति
का उल्लेख), २.२.६३(गुरु तल्पग के दुश्चर्मा होने का उल्लेख),
३.१.४१(वायु के गुरुओं में सर्वश्रेष्ठ होने का उल्लेख),
नारद १.९.८५ ( सोमपाद ब्रह्मराक्षस व कल्माषपाद संवाद में
ब्रह्मराक्षस द्वारा गुरुओं के प्रकार तथा पुराणवक्ता के श्रेष्ठतम
गुरु होने का कथन ), २.२८.६३ ( गुरु -शिष्य के वधू - वर रूप
होने का कारण ),
पद्म २.८५.८ ( गुरु के माहात्म्य तथा गुरु की तीर्थरूपता का कथन
), २.८५+ ( गुरु माहात्म्यान्तर्गत च्यवन चरित्र तथा कुञ्जल शुक
के प्रबोधन का वर्णन ), ४.११ ( गुरुवार व्रत माहात्म्य के अन्तर्गत
भद्रश्रवा राजा की श्यामला नामक कन्या का वृत्तान्त ),
ब्रह्मवैवर्त्त ३.४४.६३ ( गुरु महिमा का वर्णन ), ४.५९.१३९ (
शची - कृत गुरु स्तोत्र ),
ब्रह्माण्ड ३.४.१.११४ ( भौत्य मनु के ९ पुत्रों में से एक ),
३.४.८.४( महागुरु की परिभाषा : ब्रह्मोपदेश से लेकर वेदान्त
तक की शिक्षा देने वाला ),
भविष्य २.१.६ ( माता, पिता, भ्राता आदि सम्बन्धियों की गुरु रूप
में महिमा का वर्णन),
मत्स्य २५.५७ ( गुरु शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या प्राप्त कर कच
का उदर से बाहर आकर गुरु को जीवित करने का प्रसंग ), २६.७ (
देवयानी का कच से पाणिग्रहण का अनुरोध, गुरु - पुत्री होने के कारण
कच की अस्वीकृति का वृत्तान्त ), ९३.१४ ( बृहस्पति का नाम ),
२११.२६ ( गुरु के ब्रह्मा का रूप तथा आहवनीय अग्नि होने का उल्लेख ),
लिङ्ग २.२०.१९ ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति हेतु गुरु के
माहात्म्य का कथन ),
वराह ९९.१७ ( संसार - सागर से पार होने के लिए गुरु के प्रसादन
का उल्लेख ),
वामन ९०.३६ ( महातल में विष्णु का गुरु नाम से वास ),
वायु ११०.५१ ( गुरु के वंश में मृत्यु को प्राप्त हुए अज्ञात व्यक्तियों
को प्रदत्त पिण्ड के अक्षय तृप्तिकारक होने का प्रार्थना ),
विष्णु ३.९.१ ( ब्रह्मचर्याश्रम में गुरु गृह में वास तथा गुरु
आज्ञा पालन का निर्देश ), ५.२१.२४ ( सान्दीपनि गुरु द्वारा कृष्ण -
बलराम से गुरुदक्षिणा के रूप में अपने मृत पुत्र की याचना ,
कृष्ण - बलराम द्वारा गुरु पुत्र - प्रदान करना ),
विष्णुधर्मोत्तर ३.२५६ ( गुरु - सेवा की प्रशंसा ),
शिव ६.१८ ( पतियों के गुरुत्व का कारण , शिष्यकरण विधि का
वर्णन ), ७.२.१५.२० ( गुरु के माहात्म्य का वर्णन ), ७.२.१५.४४(
गुरु के वरण व त्याग हेतु अपेक्षित लक्षण ),
स्कन्द १.२.१३.१४९ ( गुरु द्वारा पुष्पराग लिङ्ग का पूजन ,
शतरुद्रिय प्रसंग ), २.५.१६.२३ ( गुरु के लक्षणों का वर्णन ),
२.७.१९.२०( गुरु की सूर्य व प्राण के बीच स्थिति, प्राण से श्रेष्ठ,
सूर्य से अवर), ४.१.३६.७६ ( गुरु सेवा से स्व लोक पर विजय
प्राप्ति का उल्लेख ), ५.३.१५९.८ ( गुरु के आत्मवानों का शास्ता होने का
उल्लेख ), ५.३.१५९.१३ ( गुरुतल्प से दुश्चर्मा होने का उल्लेख ),
५.३.१५९.२१ ( गुरुदार -अभिलाषी के चिरकाल तक कृकलास बनने
का उल्लेख ), ६.२५२.३६( चातुर्मास में बृहस्पति की अश्वत्थ में
स्थिति का उल्लेख ), ७.१.९१.६ ( गुरु नामक ऋषि द्वारा त्र्यम्बक
मन्त्र जप से शिव की पूजा तथा दिव्य ऐश्वर्य की प्राप्ति ),
महाभारत शान्ति १०८, आश्वमेधिक २६.२( केवल हृदय में स्थित
गुरु के ही गुरु होने का उल्लेख ),
लक्ष्मीनारायण १.१९७ ( गुरु पूजा के माहात्म्यादि का निरूपण ), १.२०४.१
( भाल में गुरु व ब्रह्मरन्ध्र में श्रीहरि के ध्यान का निर्देश ),
१.२८३.३६ ( माता के गुरुओं में अनन्यतम होने का उल्लेख ), २.२४०.१२
( अनेक प्रकार के गुरुओं में देहयात्रा - गुरु, ज्ञानप्रदाता गुरु
तथा साक्षात् हरि रूप श्रेष्ठतम गुरु का वर्णन ), ३.३५.४९ (
४६ वें वत्सर में महर्षियों को ब्रह्मविद्यादि प्रदानार्थ श्रीहरि
का सुविद्याश्री सहित गुरु नारायण रूप में प्राकट्य ), ३.४९.५३ (
गुरु रूप तीर्थ का माहात्म्य ; गुरु व गुर्वी के अङ्गों में नारायण
व लक्ष्मी का वास ), ३.४९.५८ ( गुरु की निरुक्ति : ग - अन्धकार,
र - निरोध ), ३.५० ( गुरु तीर्थ का माहात्म्य : दिवोदास - कन्या
दिव्या देवी का गुरुतीर्थ में मोक्ष ), ३.५३.२ ( गुरु व गुरु -पत्नी
की सेवा तथा सम्मान करने का निर्देश ), ३.५५.७८ ( गुरु - महिमा ),
३.५५.८१( गुरुओं के गुरु अन्तरात्मा परमेश्वर का उल्लेख ), ३.६२.८८
( गुरु रूपी उत्तम तीर्थ में श्रीहरि का सदा निवास, गुरु - सेवा से
अभीष्ट प्राप्ति ), ३.६४.३४ ( गुरु - पूजा व गुरु - सेवा का माहात्म्य ),
३.६९.१० ( मन्त्रदीक्षा हेतु सद्गुरु के समीप गमन, सद्गुरु लक्षण,
गुरु द्वारा दीक्षा प्रदान का वर्णन ), ३.१२१.२० ( गुरु की तीर्थ रूपता
तथा माहात्म्य ), ४.५१.६२ ( गुरु की महिमा, गुरु के शरीराङ्गों में
देवों, लोकों, तीर्थों की स्थिति, गुरु की देह में ब्रह्माण्ड का न्यास ) ।
ब्रह्माण्ड २.३.७.२३६ ( गुरुसेवी : प्रमुख वानरों में से एक ),
भागवत १०.८०.३१ ( गुरुकुल : सुदामा के साथ श्रीकृष्ण द्वारा
गुरुकुल वास की घटनाओं के स्मरण का वर्णन ),
मत्स्य ४९.३७ ( गुरुधी : संकृति व सत्कृति के दो पुत्रों में से एक,
वितथ वंश ),
वायु ९९.१६० ( गुरुवीर्य : संकृति के दो पुत्रों में से एक ),
विष्णु ४.१९.२२ ( गुरुप्रीति : संकृति के दो पुत्रों में से एक ),
शिव ४.४०.४ ( गुरुद्रुह नामक व्याध की शिवरात्रि - व्रत प्रभाव
से मुक्ति प्राप्ति की कथा ), ।
शिष्य
शिष्य अग्नि २७(शिष्य की दीक्षा विधि), २९३.१६(गुरु से प्राप्त मन्त्र
की सिद्धि में ही कल्याण),
ब्रह्मवैवर्त्त ४.६०.४(तर्पण, पिण्डदान में शिष्य के पुत्र के
समकक्ष होने का कथन), ४.१०४.३०(विभिन्न ऋषियों के शिष्यों
की संख्या),
ब्रह्माण्ड २.३४.१२(द्वैपायन व्यास के शिष्य), २.३४.२४(पैल
के शिष्य), २.३४.३१(सत्यश्रिय के शिष्य), २.३५.२(शाकल्य के
शिष्य, २.३५.५(बाष्कलि के शिष्य), २.३५.२८(व्यास के शिष्य),
२.३५.३७(सुकर्मा के शिष्य), २.३५.४०(हिरण्यनाभ के शिष्य),
२.३५.४२(कुशुम के शिष्य), २.३५.४९(हिरण्यनाभ व लाङ्गलि के
शिष्य), २.३५.६०(शौनक के शिष्य), २.३५.६५(सूत के शिष्य),
२.३५.८८(देवदर्श के शिष्य),
भागवत ५.२.९(पूर्वचित्ति अप्सरा के संदर्भ में भ्रमरों की
शिष्यों से उपमा),
वामन ६१.२९(शिष्य व पुत्र में भेद, शिष्य की निरुक्ति :
शेषों/पापों को तारने वाले),
विष्णु ६.८(शिष्य परम्परा),
विष्णुधर्मोत्तर २.८६(शिष्य के आचार की विधि),
शिव ३.४+ (२८ द्वापरों के व्यासों के शिष्य), ६.१९(गुरु द्वारा
शिष्य को दीक्षा की विधि), ७.२.१६(शिष्य का दीक्षा संस्कार),
७.२.२०(शिष्य अभिषेक विधि),
स्कन्द २.५.१६(शिष्य के लक्षण), ४.२.५८.७२(काशी से दिवोदास
के उच्चाटन हेतु विष्णु व गरुड द्वारा बौद्ध आचार्य व शिष्य
रूप धारण),
महाभारत आश्वमेधिक ५१.४६(मन के शिष्य होने का उल्लेख),
लक्ष्मीनारायण १.३८२.१६३(विभिन्न ऋषियों के शिष्यों की संख्या),
२.४७.२०(शिष्य की निरुक्ति : शेष पाप हर), २.४७.५७(शिष्य द्वारा
विज्ञान से जोडने का उल्लेख, शिष्य की महिमा), २.४७.७९(शिष्यों
के ३ प्रकार ),
कथासरित् १०.७.१६३
From Purana Index prepared by Vipin Kumar vedastudy at yahoo.com
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