दशोपनिषद्रहस्यम्

दशोपनिषद्रहस्यम्

(श्रीमत्सिद्धेश्वरसूनुश्रीमद्रामचन्द्रपण्डितविरचितम्) From the article by Dr. M. L. Wadekar १. श्रीरामो लक्ष्मणाय स्वचरणशरणायोच एतद्रहस्यं निष्कामैः कर्मभिः स्वैर्भवति शुचिमनो यस्य सोऽत्राधिकारी । प्राप्य श्रीदैशिकास्याच्छुतिशिर-उदितैस्तत्त्वमस्यादिवाक्यैः स्वात्मब्रह्मैक्यबोधं जनिमृतिरहितो मोदते नित्यमुक्तः । (ईशावास्योपनिषद्रहस्यम्) २. सत्ये मय्येव भातं चरमचरमतोऽन्तर्बहिश्चाहमेको मत्तोऽन्यन्नास्ति किञ्चिज्जगदपि सवितुर्मण्डले पूरुषोऽहम् । इत्थं यस्य प्रबोधो गुरुवरकरुणापाङ्गतस्तस्य तृष्णा सन्देहो मोहशोकौ भयजननजरामृत्यवौ नैव सन्ति ॥ (केनोपनिषद्रहस्यम्) ३. स्वान्तःप्राणाक्षिवाणीप्रभृति च विषयाभासकं यस्य योगाद् यन्न प्राप्नोति चैतद्विदितमविदितं यद्भवेन्नात्मरूपम् । इन्द्राद्या देवमुख्या अपि किल न विदुर्यस्य शक्तिं निगूढां तद्बुद्धं येन सोऽसौ भवति नरवरोऽनन्तसौख्यप्रतिष्ठः ॥ (कठवहयुपनिषद्रहस्यम्) ४. सूक्ष्मात्सूक्ष्मो महीयान्महत उत धिया साधनैर्यो न लभ्यो बुद्धिस्थो योऽशरीरो रविबुधदहना यस्य भासा विभान्ति । षड्भिर्भावस्वभावै रहित उप सदास्तीतिरूपेण वेद्य- स्तं साक्षात्कृत्य धीरो गुरुवचनबलाज्जायते नित्यशान्तः ॥ (मुण्डकोपनिषद्रहस्यम्) ५. जायन्ते विस्फुलिङ्गा अनलत इह यद्वत्प्रदीप्तात्सरूपा- स्तद्वत्सर्वेऽपि भावा खलु यत उदिता यान्ति यस्मिल्लयं ते । अप्राणः सर्वविद्यः प्रणववरधनुः स्वात्मबाणैकलक्ष्य- स्तं जानन्नात्मरूपे त्यजति स भवति ब्रह्मरूपो विशोकः ॥ (प्रश्नोपनिषद्रहस्यम्) ६. प्राणः श्रद्धा खवायुज्वलनजलधरा इन्द्रियं मानसं च भकतं वीर्यं तपश्चाय सकलनिगमाः कर्मलोकाश्च नाम । यस्माज्जाताश्च यस्मिन्विलयमुपगताः षोडशैताः कला यः सर्वेषां संप्रतिष्ठा खलु तदधिगमाज्जायते वीतमृत्युः ॥ (माण्डूक्योपनिषद्रहस्यम्) ७. जाग्रत्स्वप्नः सुषुप्तिस्त्रितयमपि मतेस्तद्व्यपेक्षस्तुरीयः सर्वेषां यस्तु साक्षी गुणमलरहितोऽप्यात्तनानाभिधानः । भूताद्योऽचिन्त्य एकः स सकलजगतः प्रत्यगीशोऽयमात्मा ब्रह्मोङ्काराधिगम्यं विदितमिति भवेद्येव स ब्रह्मभूतः ॥ (तैत्तिरीयोपनिषद्रहस्यम्) ८. स्पृष्ट्वाकाशादिदेहावधिसकलमिदं तत्प्रविश्यान्तरस्थो यः सर्वेषामधीशो नियमयति सदानन्दचिद्रूप एकः । अन्नादीन्पञ्चकोशान्निजगुरूवचसा संविविच्यात्मभूतं तं विद्वान्नित्यतृप्तः किल भयरहितो वर्तते सर्वभूतः ॥ (ऐतरेयोपनिषद्रहस्यम्) ९. यो लोकाँल्लोकपालान्सकलमपि पुरा भोग्यजातं हि तेषां स्पृष्ट्वान्तः संप्रविश्य स्थिरचरमखिलं प्रेरयत्यान्तरः सः । दृष्ट्वा नात्रेषदन्यत्सकलजगदधिष्ठानरूपोऽहमेकः प्रज्ञानं ब्रह्म येनाधिगतमिति स नावाप्तकामोऽमृतः स्यात् ॥ (छान्दोग्योपनिषद्रहस्यम्) १०. मृद्रूपे ज्ञात एतद्घटमुखमखिलं तज्जमस्यानभिन्नं तद्वच्छ्रीदैशिकेनानुभवति सततं तत्त्वमस्येवमुक्तः । यस्मादाकाशमुख्यं भवति जगदिदं ब्रह्म तच्चाहमस्मी त्येतन्मत्तो न भिन्नं स भवति मनुजो ब्रह्म न ब्रह्मवेत्ता ॥ (बृहदारण्यकोपनिषद्रहस्यम्) ११. यस्यानन्दस्य मात्रा विविधसुखमिदं येन सर्वेऽपि जीवाः प्राणन्त्यव्याकृतं प्राग्जगदिदमखिलं व्याकरोन्नामरूपैः । अन्तर्यामी हृषीकाधिप इति विदितं व्यापकं ब्रह्म तत्रा- हं ब्रह्मास्मीति वेत्तैति विलयमसवस्तस्य नैवोच्छलन्ति ॥ (उपसंहारः) १२. श्रीरामाङ्घ्य्रब्जभृङ्गो गुरुचरणकृपापाङ्गलब्धैक्यबोधो यः श्रीसिद्धेशसूनुर्विरचितममुना रामचन्द्राभिधेन । यच्छ्लोकैः पङ्क्तिसंख्यैरिदमुपनिषदां सद्रहस्यं दशानां ज्ञात्वार्थं संपठेद्योऽनुभवति स सुखं सद्गुरोः संप्रसादात् ॥ इति श्रीमद्विद्वन्मुकुटालङ्कारहीरवरश्रीराजयोगिवर्य- श्रीसिद्धेश्वरसूनुश्रीरामचन्द्रपण्डितविरचितं दशोपनिषद्रहस्यं समाप्तम् ॥ रामचन्द्र पंडित विरचित छन्दोबद्ध दशोपनिषद्रहस्य - अल्पज्ञात स्वोपज्ञ ग्रन्थ डाॅ मुकुंद लालजी वाडेकर From Upanishat Sri - Anthology of Articles on Upanishads, page 202 उपोद्घात - संस्कृत भाषा में अलग-अलग शास्त्रों से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ विद्वानों ने लिखे हैं । भारत के हर प्रदेश में से शास्त्रों में ग्रन्थ प्रणीत करने वाले पंडितों की परम्परा रही है । रामचन्द्र पंडित भी उन्हीं विद्वानों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल एक ही शास्त्र में, अपितु अनेक शास्त्रों की अपनी विद्वता से अनेक शास्त्रों में स्वतन्त्र ग्रन्थों का प्रणयन किया लेकिन उनका यह प्रदान आधुनिक संशोधकों के निदर्शन में अभी तक लाया नहीं गया है । इसलिए इस संक्षिप्त शोधपत्र में रामचन्द्र पंडित का संस्कृत साहित्य में प्रदान और विशेषतया उनका वेदान्तपरक संक्षिप्त ग्रन्थ दशोपनिषद्रहस्य के बारे में विश्लेषण किया गया है । वह अप्रकाशित वेदान्त ग्रन्थ हस्तलिखित ग्रन्थ के रूप में ही अभी तक रहा था जिसका अभ्यास और सम्पादन करके मैंने यह लेख लिखा है । रामचन्द्र पंडित का परिचय - कोल्हापुर के सिद्धेश्वर महाराज के रामचन्द्र पंडित सबसे बडे पुत्र थे । उनकी कुल परम्परा और कुल वृत्तान्त के बारे में काफी जानकारी प्राप्त होती है । सिद्धेश्वर महाराज एक प्रथितयज्ञ भगवद्भक्त और साधुपुरुष थे । उनका जन्म चैत्र शुक्ल नवमी शकसंवत् १६६४ याने १७४३ ईसवी सन को हुआ था । उनकी माता का नाम गोदावरी और पिता का नाम रामभट्ट बाबा था । वे माध्यंदिन वाजसनेयी शाखा के थे और उनका गोत्र कृष्णात्रि था । वेद और अनेक शास्त्रों का उन्होंने अध्ययन किया था । अद्वैतानंद, योगानंद और वैकुंठानंद जैसे महान् संतों के सम्पर्क में आने से उनका मन भी अध्यात्म की तरफ रुचि लेने लगा और बाद में दिव्य साधनों के कारण वे भी सिद्ध पुरुष बन गये । उनका जीवन अनेक चमत्कारिक कथाओं से जुडा हुआ है । ऐसे तेजस्वी महापुरुष के रामचन्द्र पंडित पुत्र थे । उनका जन्म चैत्र कृष्ण नवमी को शक संवत् १९७१ में याने २६ अप्रैल १७६९ को हुआ । उन्होंने परम्परागत पद्धति से व्याकरण, न्याय, धर्मशास्त्र, अलंकारशास्त्र, श्रौतस्मार्त कर्म और मन्त्रशास्त्र का अध्ययन किया था । ऋग्वेद और यजुर्वेद का उनका अध्ययन ग्यारह साल की अल्प आयु में पूरा हुआ । बाद में उन्होंने विशिष्ट पंडितों के पास से व्याकरण, न्याय, श्रौत, मन्त्र, वेदान्त वगैरह शास्त्रों में प्रवीणता प्राप्त की । छन्दःशास्त्र और काव्यनाटकादि का परिशीलन उन्होंने किया ही था । ज्योतिषशास्त्र और संगीतशास्त्र में भी वे पारंगत थे । २३ वर्ष की आयु तक उन्होंने अनेक शास्त्रों और कलाओं में प्रागल्भ्य प्राप्त किया था । विद्वानों की वादसभा में भी अन्य विद्वान् का अपमान किये बिना खुद की विद्वत्ता प्रदर्शित करते थे । जीवन के परिणत काल में उनका जीवन ज्यादातर अध्यात्म की ओर झुका हुआ था । उन्हें कर्म, ज्ञान और उपासना मार्ग में अधिक रुचि होने लगी और खुद विदेही जनक का आदर्श सामने रख कर जीवन जीने लगे । कोल्हापुर के राजा छत्रपति ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया । राजा ने पूरा राज्य और महाराज यह खिताब भी उनको भेंट किया, लेकिन रामचन्द्र जी को उसमें कोई आसक्ति नहीं थी । उन्होंने वैशाख शुद्ध तृतीया शकसंवत् १७४२ याने २४ अप्रैल १८३० को समाधि ग्रहण की । पंडित जी रामजी के परम भक्त थे । प्रस्तुत दशोपनिषद्रस्य ग्रन्थ के आरम्भ में उन्होंने श्री राम को प्रणाम करके मंगलारम्भ किया है । अन्तिम श्लोक में भी उन्होंने खुद को श्रीराम भगवान् के पदकमल का भृंग अर्थात् भ्रमर ऐसा वर्णन किया है । गुरु प्रसाद से ब्रह्म के साथ ऐक्य का बोध हुआ था, ऐसा अपने बारे में वे बताते हैं । अन्तिम पुष्पिका में वे अपना परिचय ``विद्वन्मुकुटालङ्कारहीरवर'' और ``राजयोगिवर्य'' ऐसा प्रस्तुत करते हैं । रामचन्द्र पंडित के ग्रन्थ - रामचन्द्र पंडित ने संस्कृत और मराठी भाषा में अनेक विद्वत्तापरिपूर्ण ग्रन्थों की रचना की । उनके बहुत से ग्रन्थ अप्रकाशित और अल्पज्ञात रहे हैं । १. प्रातिशास्यज्योत्स्ना - वेदलक्षण विषयक यह ग्रन्थ वैदिक व्याकरण और वेदपठन की दृष्टि से उपयुक्त है । २. बैठ - वैदिक ऋचाओं के संस्मरण के उपयुक्त वेदलक्षणविषयक ग्रन्थ । ३. कुण्डेन्दु - कुण्डलक्षण विषयक यह ग्रन्थ नवग्रहों के पीठ वगैरह बनाने की प्रक्रिया के उपयुक्त है । लीलावती - यह गणित का ग्रन्थ इसमें सरलता से स्पष्ट किया है । क्षेत्र के मापन के उपयुक्त गणित की युक्तियाँ इसमें पायी जाती हैं । ४. वृत्ताभिराम - छन्दःशास्त्र का एक महत्त्व का ग्रन्थ कवियों और साहित्य शास्त्र के विद्वानों के उपयुक्त । ५. ईशावास्योपनिषद्भाष्य - ईशावास्य उपनिषद् की व्याख्या । वेदान्त का ग्रन्थ । ६. अधिकरणसंग्रह - ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों पर आधारित वेदान्तशास्त्र का छन्दोबद्ध ग्रन्थ । ७. दशोपनिषद्रहस्य - स्वोपज्ञवृत्ति के साथ-वेदान्त का संक्षिप्त ग्रन्थ । अपनी खुद लिखी हुई वृत्ति के साथ । ८. श्रीरामलीलासहस्रनाम - वैचित्र्यपूर्ण ढंग से लिखा हुआ स्तोत्र । राम भगवान् के जीवन और कार्य का विवरण, साथ में उनका सहस्र नाम भी पाया जाता है । ९. राममहिम्नस्तोत्र - शिवमहिम्नस्तोत्र के समान राममहिम्नस्तोत्र । इसके व्यतिरिक्त (१०) शयनोत्सव, (११) प्रबोधोत्सव (१२) भगवद्गीता - गीत-अभंग - भगवद्गीता के ७०० श्लोकों पर विरचित ७०० अभंगों (मराठी अभंग-स्तोत्र) का संग्रह । (१३) अष्टावक्रगीता समश्लोकी (१४) अगणित सुभाषित, आर्या, अभंग, पद, साकी वगैरह की रचना । दशोपनिषद्रहस्य - सिद्धेश्वर महाराजा की गुरु परम्परा में यशवंत महाराज थे । अभी उनके वंशज हैं । उनके व्यक्तिगत ग्रन्थ संग्रह में से उनके अनुराग और असीम अनुग्रह के कारण मुझे दशोपनिषद्रहस्य यह हस्तलिखित ग्रन्थ मिला । रामचन्द्र पण्डित, उनका जीवन और वंश परम्परा के बारे में भी उन्होंने मुझे अवगत कराया । तेरह पत्र संख्या के देवनागरी सुंदर हस्ताक्षर में लिखित यह ग्रन्थ 10.4x30.4 सेंटीमीटर के कागज पर उपलब्ध है । मध्य में मूल ग्रन्थ और ऊपर तथा नीचे के स्थान में उसकी स्वोपज्ञ व्याख्या दी गई है । । शीर्षक के अनुसार यह दस उपनिषदों के रहस्य बताने वाला छोटा सा, लेकिन अपूर्व छान्दोबद्ध ग्रन्थ है । हर एक उपनिषद् का रहस्य एक स्रग्धरा छन्द में विरचित श्लोक में प्रस्तुत किया गया है । ये श्लोक कवि ने खुद ग्रथित किये हैं । कुल बारह श्लोक है । पहला श्लोक उपोद्घात स्वरूप और मंगलारम्भ का है । अन्तिम श्लोक में कवि ने अपने बारे में और इस ग्रन्थ के बारे में बताया है । दूसरे श्लोक से ग्यारहवें श्लोक तक १० श्लोकों में दस उपनिषदों का रहस्यमय और गूढ संदेश प्रस्तुत किया है । वे दस उपनिषद् हैं - इशकेनकठप्रश्नमुण्डमाण्डूक्यतित्तिरिः । ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा ॥ इस ग्रन्थ में मुण्डक पहले और बाद में प्रश्न लिया है, यह परिवर्तन है । इस ग्रन्थ की और एक विशेषता यह है कि लेखक ने खुद हर एक श्लोक की वृत्ति लिखी है, जिसमें उन्होंने हर एक श्लोक को समझाने के लिए हर एक उपनिषद् के मूल अवतरणों को उद्धृत करके विषय को सरल किया है । वृत्ति में उपनिषदों के अतिरिक्त, भगवद्गीता, श्रीराम गीता, शांकरभाष्य, अपरोक्षानुभूति, भागवत, रामहृदय वगैरह ग्रन्थों से उद्धरण लिये हैं । शांकर सिद्धान्त के प्रति उनका आदरभाव स्पष्ट है । इस प्रकार दस उपनिषदों के सारभूत रहस्य को छन्दोबद्ध ग्रन्थ में कवि ने प्रस्तुत किया है । विद्वानों के परिशीलन के लिए मूल श्लोकों का पाठ इस लेख के साथ दिया है । Encoded and proofread by Pranab Mukherjee pranab9 at gmail.com
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% Author                : rAmachandrapaNDita
% Language              : Sanskrit
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% Transliterated by     : Pranab Mukherjee pranab9 at gmail.com
% Proofread by          : Pranab Mukherjee pranab9 at gmail.com
% Description-comments  : An article by Dr. M. L. Wadekar in Upanishat Sri - Anthology of Articles on Upanishads (page 202)
% Indexextra            : (upaniShatshrI)
% Latest update         : December 9, 2017
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