Mantra classification is following this convention :-
{अष्टकः, अध्यायः, वर्गः, मन्त्रः}, {मण्डलम्, सूक्तम्, मन्त्रः}, {मण्डलम्, अनुवाकः, सूक्तम्, मन्त्रः}
[1] (१-६) षळृर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरस अयास्य ऋषिः, पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
1 | प्र ण॑ इन्दो म॒हे तन॑ ऊ॒र्मिं न बिभ्र॑दर्षसि | अ॒भि दे॒वाँ अ॒यास्यः॑ ||{7.1.1.1}, {9.44.1}, {9.2.20.1} |
2 | म॒ती जु॒ष्टो धि॒या हि॒तः सोमो᳚ हिन्वे परा॒वति॑ | विप्र॑स्य॒ धार॑या क॒विः ||{7.1.1.2}, {9.44.2}, {9.2.20.2} |
3 | अ॒यं दे॒वेषु॒ जागृ॑विः सु॒त ए᳚ति प॒वित्र॒ आ | सोमो᳚ याति॒ विच॑र्षणिः ||{7.1.1.3}, {9.44.3}, {9.2.20.3} |
4 | स नः॑ पवस्व वाज॒युश्च॑क्रा॒णश्चारु॑मध्व॒रम् | ब॒र्हिष्माँ॒ आ वि॑वासति ||{7.1.1.4}, {9.44.4}, {9.2.20.4} |
5 | स नो॒ भगा᳚य वा॒यवे॒ विप्र॑वीरः स॒दावृ॑धः | सोमो᳚ दे॒वेष्वा य॑मत् ||{7.1.1.5}, {9.44.5}, {9.2.20.5} |
6 | स नो᳚ अ॒द्य वसु॑त्तये क्रतु॒विद्गा᳚तु॒वित्त॑मः | वाजं᳚ जेषि॒ श्रवो᳚ बृ॒हत् ||{7.1.1.6}, {9.44.6}, {9.2.20.6} |
[2] (१-६) षळृर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरस अयास्य ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
7 | स प॑वस्व॒ मदा᳚य॒ कं नृ॒चक्षा᳚ दे॒ववी᳚तये | इन्द॒विन्द्रा᳚य पी॒तये᳚ ||{7.1.2.1}, {9.45.1}, {9.2.21.1} |
8 | स नो᳚ अर्षा॒भि दू॒त्य१॑(अ॒) अंत्वमिन्द्रा᳚य तोशसे | दे॒वान्सखि॑भ्य॒ आ वर᳚म् ||{7.1.2.2}, {9.45.2}, {9.2.21.2} |
9 | उ॒त त्वाम॑रु॒णं व॒यं गोभि॑रञ्ज्मो॒ मदा᳚य॒ कम् | वि नो᳚ रा॒ये दुरो᳚ वृधि ||{7.1.2.3}, {9.45.3}, {9.2.21.3} |
10 | अत्यू᳚ प॒वित्र॑मक्रमीद्वा॒जी धुरं॒ न याम॑नि | इन्दु॑र्दे॒वेषु॑ पत्यते ||{7.1.2.4}, {9.45.4}, {9.2.21.4} |
11 | समी॒ सखा᳚यो अस्वर॒न्वने॒ क्रीळ᳚न्त॒मत्य॑विम् | इन्दुं᳚ ना॒वा अ॑नूषत ||{7.1.2.5}, {9.45.5}, {9.2.21.5} |
12 | तया᳚ पवस्व॒ धार॑या॒ यया᳚ पी॒तो वि॒चक्ष॑से | इन्दो᳚ स्तो॒त्रे सु॒वीर्य᳚म् ||{7.1.2.6}, {9.45.6}, {9.2.21.6} |
[3] (१-६) षळृर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरस अयास्य ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
13 | असृ॑ग्रन्दे॒ववी᳚त॒येऽत्या᳚सः॒ कृत्व्या᳚ इव | क्षर᳚न्तः पर्वता॒वृधः॑ ||{7.1.3.1}, {9.46.1}, {9.2.22.1} |
14 | परि॑ष्कृतास॒ इन्द॑वो॒ योषे᳚व॒ पित्र्या᳚वती | वा॒युं सोमा᳚ असृक्षत ||{7.1.3.2}, {9.46.2}, {9.2.22.2} |
15 | ए॒ते सोमा᳚स॒ इन्द॑वः॒ प्रय॑स्वन्तश्च॒मू सु॒ताः | इन्द्रं᳚ वर्धन्ति॒ कर्म॑भिः ||{7.1.3.3}, {9.46.3}, {9.2.22.3} |
16 | आ धा᳚वता सुहस्त्यः शु॒क्रा गृ॑भ्णीत म॒न्थिना᳚ | गोभिः॑ श्रीणीत मत्स॒रम् ||{7.1.3.4}, {9.46.4}, {9.2.22.4} |
17 | स प॑वस्व धनंजय प्रय॒न्ता राध॑सो म॒हः | अ॒स्मभ्यं᳚ सोम गातु॒वित् ||{7.1.3.5}, {9.46.5}, {9.2.22.5} |
18 | ए॒तं मृ॑जन्ति॒ मर्ज्यं॒ पव॑मानं॒ दश॒ क्षिपः॑ | इन्द्रा᳚य मत्स॒रं मद᳚म् ||{7.1.3.6}, {9.46.6}, {9.2.22.6} |
[4] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य भार्गवः कवि ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
19 | अ॒या सोमः॑ सुकृ॒त्यया᳚ म॒हश्चि॑द॒भ्य॑वर्धत | म॒न्दा॒न उद्वृ॑षायते ||{7.1.4.1}, {9.47.1}, {9.2.23.1} |
20 | कृ॒तानीद॑स्य॒ कर्त्वा॒ चेत᳚न्ते दस्यु॒तर्ह॑णा | ऋ॒णा च॑ धृ॒ष्णुश्च॑यते ||{7.1.4.2}, {9.47.2}, {9.2.23.2} |
21 | आत्सोम॑ इन्द्रि॒यो रसो॒ वज्रः॑ सहस्र॒सा भु॑वत् | उ॒क्थं यद॑स्य॒ जाय॑ते ||{7.1.4.3}, {9.47.3}, {9.2.23.3} |
22 | स्व॒यं क॒विर्वि॑ध॒र्तरि॒ विप्रा᳚य॒ रत्न॑मिच्छति | यदी᳚ मर्मृ॒ज्यते॒ धियः॑ ||{7.1.4.4}, {9.47.4}, {9.2.23.4} |
23 | सि॒षा॒सतू᳚ रयी॒णां वाजे॒ष्वर्व॑तामिव | भरे᳚षु जि॒ग्युषा᳚मसि ||{7.1.4.5}, {9.47.5}, {9.2.23.5} |
[5] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य भार्गवः कविषिः, पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
24 | तं त्वा᳚ नृ॒म्णानि॒ बिभ्र॑तं स॒धस्थे᳚षु म॒हो दि॒वः | चारुं᳚ सुकृ॒त्यये᳚महे ||{7.1.5.1}, {9.48.1}, {9.2.24.1} |
25 | संवृ॑क्तधृष्णुमु॒क्थ्यं᳚ म॒हाम॑हिव्रतं॒ मद᳚म् | श॒तं पुरो᳚ रुरु॒क्षणि᳚म् ||{7.1.5.2}, {9.48.2}, {9.2.24.2} |
26 | अत॑स्त्वा र॒यिम॒भि राजा᳚नं सुक्रतो दि॒वः | सु॒प॒र्णो अ᳚व्य॒थिर्भ॑रत् ||{7.1.5.3}, {9.48.3}, {9.2.24.3} |
27 | विश्व॑स्मा॒ इत्स्व॑र्दृ॒शे साधा᳚रणं रज॒स्तुर᳚म् | गो॒पामृ॒तस्य॒ विर्भ॑रत् ||{7.1.5.4}, {9.48.4}, {9.2.24.4} |
28 | अधा᳚ हिन्वा॒न इ᳚न्द्रि॒यं ज्यायो᳚ महि॒त्वमा᳚नशे | अ॒भि॒ष्टि॒कृद्विच॑र्षणिः ||{7.1.5.5}, {9.48.5}, {9.2.24.5} |
[6] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य भार्गवः कविजृषिः पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
29 | पव॑स्व वृ॒ष्टिमा सु नो॒ऽपामू॒र्मिं दि॒वस्परि॑ | अ॒य॒क्ष्मा बृ॑ह॒तीरिषः॑ ||{7.1.6.1}, {9.49.1}, {9.2.25.1} |
30 | तया᳚ पवस्व॒ धार॑या॒ यया॒ गाव॑ इ॒हागम॑न् | जन्या᳚स॒ उप॑ नो गृ॒हम् ||{7.1.6.2}, {9.49.2}, {9.2.25.2} |
31 | घृ॒तं प॑वस्व॒ धार॑या य॒ज्ञेषु॑ देव॒वीत॑मः | अ॒स्मभ्यं᳚ वृ॒ष्टिमा प॑व ||{7.1.6.3}, {9.49.3}, {9.2.25.3} |
32 | स न॑ ऊ॒र्जे व्य१॑(अ॒)'व्ययं᳚ प॒वित्रं᳚ धाव॒ धार॑या | दे॒वासः॑ शृ॒णव॒न्हि क᳚म् ||{7.1.6.4}, {9.49.4}, {9.2.25.4} |
33 | पव॑मानो असिष्यद॒द्रक्षां᳚स्यप॒जङ्घ॑नत् | प्र॒त्न॒वद्रो॒चय॒न्रुचः॑ ||{7.1.6.5}, {9.49.5}, {9.2.25.5} |
[7] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरस उचथ्य ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
34 | उत्ते॒ शुष्मा᳚स ईरते॒ सिन्धो᳚रू॒र्मेरि॑व स्व॒नः | वा॒णस्य॑ चोदया प॒विम् ||{7.1.7.1}, {9.50.1}, {9.2.26.1} |
35 | प्र॒स॒वे त॒ उदी᳚रते ति॒स्रो वाचो᳚ मख॒स्युवः॑ | यदव्य॒ एषि॒ सान॑वि ||{7.1.7.2}, {9.50.2}, {9.2.26.2} |
36 | अव्यो॒ वारे॒ परि॑ प्रि॒यं हरिं᳚ हिन्व॒न्त्यद्रि॑भिः | पव॑मानं मधु॒श्चुत᳚म् ||{7.1.7.3}, {9.50.3}, {9.2.26.3} |
37 | आ प॑वस्व मदिन्तम प॒वित्रं॒ धार॑या कवे | अ॒र्कस्य॒ योनि॑मा॒सद᳚म् ||{7.1.7.4}, {9.50.4}, {9.2.26.4} |
38 | स प॑वस्व मदिन्तम॒ गोभि॑रञ्जा॒नो अ॒क्तुभिः॑ | इन्द॒विन्द्रा᳚य पी॒तये᳚ ||{7.1.7.5}, {9.50.5}, {9.2.26.5} |
[8] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरस उचथ्य ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
39 | अध्व᳚र्यो॒ अद्रि॑भिः सु॒तं सोमं᳚ प॒वित्र॒ आ सृ॑ज | पु॒नी॒हीन्द्रा᳚य॒ पात॑वे ||{7.1.8.1}, {9.51.1}, {9.2.27.1} |
40 | दि॒वः पी॒यूष॑मुत्त॒मं सोम॒मिन्द्रा᳚य व॒ज्रिणे᳚ | सु॒नोता॒ मधु॑मत्तमम् ||{7.1.8.2}, {9.51.2}, {9.2.27.2} |
41 | तव॒ त्य इ᳚न्दो॒ अन्ध॑सो दे॒वा मधो॒र्व्य॑श्नते | पव॑मानस्य म॒रुतः॑ ||{7.1.8.3}, {9.51.3}, {9.2.27.3} |
42 | त्वं हि सो᳚म व॒र्धय᳚न्सु॒तो मदा᳚य॒ भूर्ण॑ये | वृष᳚न्स्तो॒तार॑मू॒तये᳚ ||{7.1.8.4}, {9.51.4}, {9.2.27.4} |
43 | अ॒भ्य॑र्ष विचक्षण प॒वित्रं॒ धार॑या सु॒तः | अ॒भि वाज॑मु॒त श्रवः॑ ||{7.1.8.5}, {9.51.5}, {9.2.27.5} |
[9] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरस उचथ्य ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
44 | परि॑ द्यु॒क्षः स॒नद्र॑यि॒र्भर॒द्वाजं᳚ नो॒ अन्ध॑सा | सु॒वा॒नो अ॑र्ष प॒वित्र॒ आ ||{7.1.9.1}, {9.52.1}, {9.2.28.1} |
45 | तव॑ प्र॒त्नेभि॒रध्व॑भि॒रव्यो॒ वारे॒ परि॑ प्रि॒यः | स॒हस्र॑धारो या॒त्तना᳚ ||{7.1.9.2}, {9.52.2}, {9.2.28.2} |
46 | च॒रुर्न यस्तमी᳚ङ्ख॒येन्दो॒ न दान॑मीङ्खय | व॒धैर्व॑धस्नवीङ्खय ||{7.1.9.3}, {9.52.3}, {9.2.28.3} |
47 | नि शुष्म॑मिन्दवेषां॒ पुरु॑हूत॒ जना᳚नाम् | यो अ॒स्माँ आ॒दिदे᳚शति ||{7.1.9.4}, {9.52.4}, {9.2.28.4} |
48 | श॒तं न॑ इन्द ऊ॒तिभिः॑ स॒हस्रं᳚ वा॒ शुची᳚नाम् | पव॑स्व मंह॒यद्र॑यिः ||{7.1.9.5}, {9.52.5}, {9.2.28.5} |
[10] (१-४) चतुरृचस्य सूक्तस्य काश्यपोऽवत्सार ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
49 | उत्ते॒ शुष्मा᳚सो अस्थू॒ रक्षो᳚ भि॒न्दन्तो᳚ अद्रिवः | नु॒दस्व॒ याः प॑रि॒स्पृधः॑ ||{7.1.10.1}, {9.53.1}, {9.2.29.1} |
50 | अ॒या नि॑ज॒घ्निरोज॑सा रथसं॒गे धने᳚ हि॒ते | स्तवा॒ अबि॑भ्युषा हृ॒दा ||{7.1.10.2}, {9.53.2}, {9.2.29.2} |
51 | अस्य᳚ व्र॒तानि॒ नाधृषे॒ पव॑मानस्य दू॒ढ्या᳚ | रु॒ज यस्त्वा᳚ पृत॒न्यति॑ ||{7.1.10.3}, {9.53.3}, {9.2.29.3} |
52 | तं हि᳚न्वन्ति मद॒च्युतं॒ हरिं᳚ न॒दीषु॑ वा॒जिन᳚म् | इन्दु॒मिन्द्रा᳚य मत्स॒रम् ||{7.1.10.4}, {9.53.4}, {9.2.29.4} |
[11] (१-४) चतुरृचस्य सूक्तस्य काश्यपोऽवत्सार ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
53 | अ॒स्य प्र॒त्नामनु॒ द्युतं᳚ शु॒क्रं दु॑दुह्रे॒ अह्र॑यः | पयः॑ सहस्र॒सामृषि᳚म् ||{7.1.11.1}, {9.54.1}, {9.2.30.1} |
54 | अ॒यं सूर्य॑ इवोप॒दृग॒यं सरां᳚सि धावति | स॒प्त प्र॒वत॒ आ दिव᳚म् ||{7.1.11.2}, {9.54.2}, {9.2.30.2} |
55 | अ॒यं विश्वा᳚नि तिष्ठति पुना॒नो भुव॑नो॒परि॑ | सोमो᳚ दे॒वो न सूर्यः॑ ||{7.1.11.3}, {9.54.3}, {9.2.30.3} |
56 | परि॑ णो दे॒ववी᳚तये॒ वाजाँ᳚ अर्षसि॒ गोम॑तः | पु॒ना॒न इ᳚न्दविन्द्र॒युः ||{7.1.11.4}, {9.54.4}, {9.2.30.4} |
[12] (१-४) चतुरृचस्य सूक्तस्य काश्यपोऽवत्सार ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
57 | यवं᳚यवं नो॒ अन्ध॑सा पु॒ष्टम्पु॑ष्टं॒ परि॑ स्रव | सोम॒ विश्वा᳚ च॒ सौभ॑गा ||{7.1.12.1}, {9.55.1}, {9.2.31.1} |
58 | इन्दो॒ यथा॒ तव॒ स्तवो॒ यथा᳚ ते जा॒तमन्ध॑सः | नि ब॒र्हिषि॑ प्रि॒ये स॑दः ||{7.1.12.2}, {9.55.2}, {9.2.31.2} |
59 | उ॒त नो᳚ गो॒विद॑श्व॒वित्पव॑स्व सो॒मान्ध॑सा | म॒क्षूत॑मेभि॒रह॑भिः ||{7.1.12.3}, {9.55.3}, {9.2.31.3} |
60 | यो जि॒नाति॒ न जीय॑ते॒ हन्ति॒ शत्रु॑म॒भीत्य॑ | स प॑वस्व सहस्रजित् ||{7.1.12.4}, {9.55.4}, {9.2.31.4} |
[13] (१-४) चतुरृचस्य सूक्तस्य काश्यपोऽवत्सार ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
61 | परि॒ सोम॑ ऋ॒तं बृ॒हदा॒शुः प॒वित्रे᳚ अर्षति | वि॒घ्नन्रक्षां᳚सि देव॒युः ||{7.1.13.1}, {9.56.1}, {9.2.32.1} |
62 | यत्सोमो॒ वाज॒मर्ष॑ति श॒तं धारा᳚ अप॒स्युवः॑ | इन्द्र॑स्य स॒ख्यमा᳚वि॒शन् ||{7.1.13.2}, {9.56.2}, {9.2.32.2} |
63 | अ॒भि त्वा॒ योष॑णो॒ दश॑ जा॒रं न क॒न्या᳚नूषत | मृ॒ज्यसे᳚ सोम सा॒तये᳚ ||{7.1.13.3}, {9.56.3}, {9.2.32.3} |
64 | त्वमिन्द्रा᳚य॒ विष्ण॑वे स्वा॒दुरि᳚न्दो॒ परि॑ स्रव | नॄन्स्तो॒तॄन्पा॒ह्यंह॑सः ||{7.1.13.4}, {9.56.4}, {9.2.32.4} |
[14] (१-४) चतुरृचस्य सूक्तस्य काश्यपोऽवत्सार ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
65 | प्र ते॒ धारा᳚ अस॒श्चतो᳚ दि॒वो न य᳚न्ति वृ॒ष्टयः॑ | अच्छा॒ वाजं᳚ सह॒स्रिण᳚म् ||{7.1.14.1}, {9.57.1}, {9.2.33.1} |
66 | अ॒भि प्रि॒याणि॒ काव्या॒ विश्वा॒ चक्षा᳚णो अर्षति | हरि॑स्तुञ्जा॒न आयु॑धा ||{7.1.14.2}, {9.57.2}, {9.2.33.2} |
67 | स म᳚र्मृजा॒न आ॒युभि॒रिभो॒ राजे᳚व सुव्र॒तः | श्ये॒नो न वंसु॑ षीदति ||{7.1.14.3}, {9.57.3}, {9.2.33.3} |
68 | स नो॒ विश्वा᳚ दि॒वो वसू॒तो पृ॑थि॒व्या अधि॑ | पु॒ना॒न इ᳚न्द॒वा भ॑र ||{7.1.14.4}, {9.57.4}, {9.2.33.4} |
[15] (१-४) चतुरृचस्य सूक्तस्य काश्यपोऽवत्सार ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
69 | तर॒त्स म॒न्दी धा᳚वति॒ धारा᳚ सु॒तस्यान्ध॑सः | तर॒त्स म॒न्दी धा᳚वति ||{7.1.15.1}, {9.58.1}, {9.2.34.1} |
70 | उ॒स्रा वे᳚द॒ वसू᳚नां॒ मर्त॑स्य दे॒व्यव॑सः | तर॒त्स म॒न्दी धा᳚वति ||{7.1.15.2}, {9.58.2}, {9.2.34.2} |
71 | ध्व॒स्रयोः᳚ पुरु॒षन्त्यो॒रा स॒हस्रा᳚णि दद्महे | तर॒त्स म॒न्दी धा᳚वति ||{7.1.15.3}, {9.58.3}, {9.2.34.3} |
72 | आ ययो᳚स्त्रिं॒शतं॒ तना᳚ स॒हस्रा᳚णि च॒ दद्म॑हे | तर॒त्स म॒न्दी धा᳚वति ||{7.1.15.4}, {9.58.4}, {9.2.34.4} |
[16] (१-४) चतुरृचस्य सूक्तस्य काश्यपोऽवत्सार ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
73 | पव॑स्व गो॒जिद॑श्व॒जिद्वि॑श्व॒जित्सो᳚म रण्य॒जित् | प्र॒जाव॒द्रत्न॒मा भ॑र ||{7.1.16.1}, {9.59.1}, {9.2.35.1} |
74 | पव॑स्वा॒द्भ्यो अदा᳚भ्यः॒ पव॒स्वौष॑धीभ्यः | पव॑स्व धि॒षणा᳚भ्यः ||{7.1.16.2}, {9.59.2}, {9.2.35.2} |
75 | त्वं सो᳚म॒ पव॑मानो॒ विश्वा᳚नि दुरि॒ता त॑र | क॒विः सी᳚द॒ नि ब॒र्हिषि॑ ||{7.1.16.3}, {9.59.3}, {9.2.35.3} |
76 | पव॑मान॒ स्व᳚र्विदो॒ जाय॑मानोऽभवो म॒हान् | इन्दो॒ विश्वाँ᳚ अ॒भीद॑सि ||{7.1.16.4}, {9.59.4}, {9.2.35.4} |
[17] (१-४) चतुरृचस्य सूक्तस्य काश्यपोऽवत्सार ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | (१-२, ४) प्रथमाद्वितीययोर्ऋचोश्चतुर्थ्याश्च गायत्री, (३) तृतीयायाश्च पुर उष्णिक् छन्दसी || | |
77 | प्र गा᳚य॒त्रेण॑ गायत॒ पव॑मानं॒ विच॑र्षणिम् | इन्दुं᳚ स॒हस्र॑चक्षसम् ||{7.1.17.1}, {9.60.1}, {9.2.36.1} |
78 | तं त्वा᳚ स॒हस्र॑चक्षस॒मथो᳚ स॒हस्र॑भर्णसम् | अति॒ वार॑मपाविषुः ||{7.1.17.2}, {9.60.2}, {9.2.36.2} |
79 | अति॒ वारा॒न्पव॑मानो असिष्यदत्क॒लशाँ᳚ अ॒भि धा᳚वति | इन्द्र॑स्य॒ हार्द्या᳚वि॒शन् ||{7.1.17.3}, {9.60.3}, {9.2.36.3} |
80 | इन्द्र॑स्य सोम॒ राध॑से॒ शं प॑वस्व विचर्षणे | प्र॒जाव॒द्रेत॒ आ भ॑र ||{7.1.17.4}, {9.60.4}, {9.2.36.4} |
[18] (१-३०) त्रिंशदृचस्य सूक्तस्य आङ्गिरसोऽमहीया षः, पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
81 | अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इन्दो॒ मदे॒ष्वा | अ॒वाह᳚न्नव॒तीर्नव॑ ||{7.1.18.1}, {9.61.1}, {9.3.1.1} |
82 | पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो᳚दासाय॒ शम्ब॑रम् | अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदु᳚म् ||{7.1.18.2}, {9.61.2}, {9.3.1.2} |
83 | परि॑ णो॒ अश्व॑मश्व॒विद्गोम॑दिन्दो॒ हिर᳚ण्यवत् | क्षरा᳚ सह॒स्रिणी॒रिषः॑ ||{7.1.18.3}, {9.61.3}, {9.3.1.3} |
84 | पव॑मानस्य ते व॒यं प॒वित्र॑मभ्युन्द॒तः | स॒खि॒त्वमा वृ॑णीमहे ||{7.1.18.4}, {9.61.4}, {9.3.1.4} |
85 | ये ते᳚ प॒वित्र॑मू॒र्मयो᳚ऽभि॒क्षर᳚न्ति॒ धार॑या | तेभि᳚र्नः सोम मृळय ||{7.1.18.5}, {9.61.5}, {9.3.1.5} |
86 | स नः॑ पुना॒न आ भ॑र र॒यिं वी॒रव॑ती॒मिष᳚म् | ईशा᳚नः सोम वि॒श्वतः॑ ||{7.1.19.1}, {9.61.6}, {9.3.1.6} |
87 | ए॒तमु॒ त्यं दश॒ क्षिपो᳚ मृ॒जन्ति॒ सिन्धु॑मातरम् | समा᳚दि॒त्येभि॑रख्यत ||{7.1.19.2}, {9.61.7}, {9.3.1.7} |
88 | समिन्द्रे᳚णो॒त वा॒युना᳚ सु॒त ए᳚ति प॒वित्र॒ आ | सं सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॑ ||{7.1.19.3}, {9.61.8}, {9.3.1.8} |
89 | स नो॒ भगा᳚य वा॒यवे᳚ पू॒ष्णे प॑वस्व॒ मधु॑मान् | चारु᳚र्मि॒त्रे वरु॑णे च ||{7.1.19.4}, {9.61.9}, {9.3.1.9} |
90 | उ॒च्चा ते᳚ जा॒तमन्ध॑सो दि॒वि षद्भूम्या द॑दे | उ॒ग्रं शर्म॒ महि॒ श्रवः॑ ||{7.1.19.5}, {9.61.10}, {9.3.1.10} |
91 | ए॒ना विश्वा᳚न्य॒र्य आ द्यु॒म्नानि॒ मानु॑षाणाम् | सिषा᳚सन्तो वनामहे ||{7.1.20.1}, {9.61.11}, {9.3.1.11} |
92 | स न॒ इन्द्रा᳚य॒ यज्य॑वे॒ वरु॑णाय म॒रुद्भ्यः॑ | व॒रि॒वो॒वित्परि॑ स्रव ||{7.1.20.2}, {9.61.12}, {9.3.1.12} |
93 | उपो॒ षु जा॒तम॒प्तुरं॒ गोभि॑र्भ॒ङ्गं परि॑ष्कृतम् | इन्दुं᳚ दे॒वा अ॑यासिषुः ||{7.1.20.3}, {9.61.13}, {9.3.1.13} |
94 | तमिद्व॑र्धन्तु नो॒ गिरो᳚ व॒त्सं सं॒शिश्व॑रीरिव | य इन्द्र॑स्य हृदं॒सनिः॑ ||{7.1.20.4}, {9.61.14}, {9.3.1.14} |
95 | अर्षा᳚ णः सोम॒ शं गवे᳚ धु॒क्षस्व॑ पि॒प्युषी॒मिष᳚म् | वर्धा᳚ समु॒द्रमु॒क्थ्य᳚म् ||{7.1.20.5}, {9.61.15}, {9.3.1.15} |
96 | पव॑मानो अजीजनद्दि॒वश्चि॒त्रं न त᳚न्य॒तुम् | ज्योति᳚र्वैश्वान॒रं बृ॒हत् ||{7.1.21.1}, {9.61.16}, {9.3.1.16} |
97 | पव॑मानस्य ते॒ रसो॒ मदो᳚ राजन्नदुच्छु॒नः | वि वार॒मव्य॑मर्षति ||{7.1.21.2}, {9.61.17}, {9.3.1.17} |
98 | पव॑मान॒ रस॒स्तव॒ दक्षो॒ वि रा᳚जति द्यु॒मान् | ज्योति॒र्विश्वं॒ स्व॑र्दृ॒शे ||{7.1.21.3}, {9.61.18}, {9.3.1.18} |
99 | यस्ते॒ मदो॒ वरे᳚ण्य॒स्तेना᳚ पव॒स्वान्ध॑सा | दे॒वा॒वीर॑घशंस॒हा ||{7.1.21.4}, {9.61.19}, {9.3.1.19} |
100 | जघ्नि᳚र्वृ॒त्रम॑मि॒त्रियं॒ सस्नि॒र्वाजं᳚ दि॒वेदि॑वे | गो॒षा उ॑ अश्व॒सा अ॑सि ||{7.1.21.5}, {9.61.20}, {9.3.1.20} |
101 | सम्मि॑श्लो अरु॒षो भ॑व सूप॒स्थाभि॒र्न धे॒नुभिः॑ | सीद᳚ञ्छ्ये॒नो न योनि॒मा ||{7.1.22.1}, {9.61.21}, {9.3.1.21} |
102 | स प॑वस्व॒ य आवि॒थेन्द्रं᳚ वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे | व॒व्रि॒वांसं᳚ म॒हीर॒पः ||{7.1.22.2}, {9.61.22}, {9.3.1.22} |
103 | सु॒वीरा᳚सो व॒यं धना॒ जये᳚म सोम मीढ्वः | पु॒ना॒नो व॑र्ध नो॒ गिरः॑ ||{7.1.22.3}, {9.61.23}, {9.3.1.23} |
104 | त्वोता᳚स॒स्तवाव॑सा॒ स्याम॑ व॒न्वन्त॑ आ॒मुरः॑ | सोम᳚ व्र॒तेषु॑ जागृहि ||{7.1.22.4}, {9.61.24}, {9.3.1.24} |
105 | अ॒प॒घ्नन्प॑वते॒ मृधोऽप॒ सोमो॒ अरा᳚व्णः | गच्छ॒न्निन्द्र॑स्य निष्कृ॒तम् ||{7.1.22.5}, {9.61.25}, {9.3.1.25} |
106 | म॒हो नो᳚ रा॒य आ भ॑र॒ पव॑मान ज॒ही मृधः॑ | रास्वे᳚न्दो वी॒रव॒द्यशः॑ ||{7.1.23.1}, {9.61.26}, {9.3.1.26} |
107 | न त्वा᳚ श॒तं च॒न ह्रुतो॒ राधो॒ दित्स᳚न्त॒मा मि॑नन् | यत्पु॑ना॒नो म॑ख॒स्यसे᳚ ||{7.1.23.2}, {9.61.27}, {9.3.1.27} |
108 | पव॑स्वेन्दो॒ वृषा᳚ सु॒तः कृ॒धी नो᳚ य॒शसो॒ जने᳚ | विश्वा॒ अप॒ द्विषो᳚ जहि ||{7.1.23.3}, {9.61.28}, {9.3.1.28} |
109 | अस्य॑ ते स॒ख्ये व॒यं तवे᳚न्दो द्यु॒म्न उ॑त्त॒मे | सा॒स॒ह्याम॑ पृतन्य॒तः ||{7.1.23.4}, {9.61.29}, {9.3.1.29} |
110 | या ते᳚ भी॒मान्यायु॑धा ति॒ग्मानि॒ सन्ति॒ धूर्व॑णे | रक्षा᳚ समस्य नो नि॒दः ||{7.1.23.5}, {9.61.30}, {9.3.1.30} |
[19] (१-३०) त्रिंशदृचस्य सूक्तस्य भार्गवो जमदग्निषिः, पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
111 | ए॒ते अ॑सृग्र॒मिन्द॑वस्ति॒रः प॒वित्र॑मा॒शवः॑ | विश्वा᳚न्य॒भि सौभ॑गा ||{7.1.24.1}, {9.62.1}, {9.3.2.1} |
112 | वि॒घ्नन्तो᳚ दुरि॒ता पु॒रु सु॒गा तो॒काय॑ वा॒जिनः॑ | तना᳚ कृ॒ण्वन्तो॒ अर्व॑ते ||{7.1.24.2}, {9.62.2}, {9.3.2.2} |
113 | कृ॒ण्वन्तो॒ वरि॑वो॒ गवे॒ऽभ्य॑र्षन्ति सुष्टु॒तिम् | इळा᳚म॒स्मभ्यं᳚ सं॒यत᳚म् ||{7.1.24.3}, {9.62.3}, {9.3.2.3} |
114 | असा᳚व्यं॒शुर्मदा᳚या॒प्सु दक्षो᳚ गिरि॒ष्ठाः | श्ये॒नो न योनि॒मास॑दत् ||{7.1.24.4}, {9.62.4}, {9.3.2.4} |
115 | शु॒भ्रमन्धो᳚ दे॒ववा᳚तम॒प्सु धू॒तो नृभिः॑ सु॒तः | स्वद᳚न्ति॒ गावः॒ पयो᳚भिः ||{7.1.24.5}, {9.62.5}, {9.3.2.5} |
116 | आदी॒मश्वं॒ न हेता॒रोऽशू᳚शुभन्न॒मृता᳚य | मध्वो॒ रसं᳚ सध॒मादे᳚ ||{7.1.25.1}, {9.62.6}, {9.3.2.6} |
117 | यास्ते॒ धारा᳚ मधु॒श्चुतोऽसृ॑ग्रमिन्द ऊ॒तये᳚ | ताभिः॑ प॒वित्र॒मास॑दः ||{7.1.25.2}, {9.62.7}, {9.3.2.7} |
118 | सो अ॒र्षेन्द्रा᳚य पी॒तये᳚ ति॒रो रोमा᳚ण्य॒व्यया᳚ | सीद॒न्योना॒ वने॒ष्वा ||{7.1.25.3}, {9.62.8}, {9.3.2.8} |
119 | त्वमि᳚न्दो॒ परि॑ स्रव॒ स्वादि॑ष्ठो॒ अङ्गि॑रोभ्यः | व॒रि॒वो॒विद्घृ॒तं पयः॑ ||{7.1.25.4}, {9.62.9}, {9.3.2.9} |
120 | अ॒यं विच॑र्षणिर्हि॒तः पव॑मानः॒ स चे᳚तति | हि॒न्वा॒न आप्यं᳚ बृ॒हत् ||{7.1.25.5}, {9.62.10}, {9.3.2.10} |
121 | ए॒ष वृषा॒ वृष᳚व्रतः॒ पव॑मानो अशस्ति॒हा | कर॒द्वसू᳚नि दा॒शुषे᳚ ||{7.1.26.1}, {9.62.11}, {9.3.2.11} |
122 | आ प॑वस्व सह॒स्रिणं᳚ र॒यिं गोम᳚न्तम॒श्विन᳚म् | पु॒रु॒श्च॒न्द्रं पु॑रु॒स्पृह᳚म् ||{7.1.26.2}, {9.62.12}, {9.3.2.12} |
123 | ए॒ष स्य परि॑ षिच्यते मर्मृ॒ज्यमा᳚न आ॒युभिः॑ | उ॒रु॒गा॒यः क॒विक्र॑तुः ||{7.1.26.3}, {9.62.13}, {9.3.2.13} |
124 | स॒हस्रो᳚तिः श॒ताम॑घो वि॒मानो॒ रज॑सः क॒विः | इन्द्रा᳚य पवते॒ मदः॑ ||{7.1.26.4}, {9.62.14}, {9.3.2.14} |
125 | गि॒रा जा॒त इ॒ह स्तु॒त इन्दु॒रिन्द्रा᳚य धीयते | विर्योना᳚ वस॒तावि॑व ||{7.1.26.5}, {9.62.15}, {9.3.2.15} |
126 | पव॑मानः सु॒तो नृभिः॒ सोमो॒ वाज॑मिवासरत् | च॒मूषु॒ शक्म॑ना॒सद᳚म् ||{7.1.27.1}, {9.62.16}, {9.3.2.16} |
127 | तं त्रि॑पृ॒ष्ठे त्रि॑वन्धु॒रे रथे᳚ युञ्जन्ति॒ यात॑वे | ऋषी᳚णां स॒प्त धी॒तिभिः॑ ||{7.1.27.2}, {9.62.17}, {9.3.2.17} |
128 | तं सो᳚तारो धन॒स्पृत॑मा॒शुं वाजा᳚य॒ यात॑वे | हरिं᳚ हिनोत वा॒जिन᳚म् ||{7.1.27.3}, {9.62.18}, {9.3.2.18} |
129 | आ॒वि॒शन्क॒लशं᳚ सु॒तो विश्वा॒ अर्ष᳚न्न॒भि श्रियः॑ | शूरो॒ न गोषु॑ तिष्ठति ||{7.1.27.4}, {9.62.19}, {9.3.2.19} |
130 | आ त॑ इन्दो॒ मदा᳚य॒ कं पयो᳚ दुहन्त्या॒यवः॑ | दे॒वा दे॒वेभ्यो॒ मधु॑ ||{7.1.27.5}, {9.62.20}, {9.3.2.20} |
131 | आ नः॒ सोमं᳚ प॒वित्र॒ आ सृ॒जता॒ मधु॑मत्तमम् | दे॒वेभ्यो᳚ देव॒श्रुत्त॑मम् ||{7.1.28.1}, {9.62.21}, {9.3.2.21} |
132 | ए॒ते सोमा᳚ असृक्षत गृणा॒नाः श्रव॑से म॒हे | म॒दिन्त॑मस्य॒ धार॑या ||{7.1.28.2}, {9.62.22}, {9.3.2.22} |
133 | अ॒भि गव्या᳚नि वी॒तये᳚ नृ॒म्णा पु॑ना॒नो अ॑र्षसि | स॒नद्वा᳚जः॒ परि॑ स्रव ||{7.1.28.3}, {9.62.23}, {9.3.2.23} |
134 | उ॒त नो॒ गोम॑ती॒रिषो॒ विश्वा᳚ अर्ष परि॒ष्टुभः॑ | गृ॒णा॒नो ज॒मद॑ग्निना ||{7.1.28.4}, {9.62.24}, {9.3.2.24} |
135 | पव॑स्व वा॒चो अ॑ग्रि॒यः सोम॑ चि॒त्राभि॑रू॒तिभिः॑ | अ॒भि विश्वा᳚नि॒ काव्या᳚ ||{7.1.28.5}, {9.62.25}, {9.3.2.25} |
136 | त्वं स॑मु॒द्रिया᳚ अ॒पो᳚ऽग्रि॒यो वाच॑ ई॒रय॑न् | पव॑स्व विश्वमेजय ||{7.1.29.1}, {9.62.26}, {9.3.2.26} |
137 | तुभ्ये॒मा भुव॑ना कवे महि॒म्ने सो᳚म तस्थिरे | तुभ्य॑मर्षन्ति॒ सिन्ध॑वः ||{7.1.29.2}, {9.62.27}, {9.3.2.27} |
138 | प्र ते᳚ दि॒वो न वृ॒ष्टयो॒ धारा᳚ यन्त्यस॒श्चतः॑ | अ॒भि शु॒क्रामु॑प॒स्तिर᳚म् ||{7.1.29.3}, {9.62.28}, {9.3.2.28} |
139 | इन्द्रा॒येन्दुं᳚ पुनीतनो॒ग्रं दक्षा᳚य॒ साध॑नम् | ई॒शा॒नं वी॒तिरा᳚धसम् ||{7.1.29.4}, {9.62.29}, {9.3.2.29} |
140 | पव॑मान ऋ॒तः क॒विः सोमः॑ प॒वित्र॒मास॑दत् | दध॑त्स्तो॒त्रे सु॒वीर्य᳚म् ||{7.1.29.5}, {9.62.30}, {9.3.2.30} |
[20] (१-३०) त्रिंशदृचस्य सूक्तस्य काश्यपो निध्रविषिः, पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
141 | आ प॑वस्व सह॒स्रिणं᳚ र॒यिं सो᳚म सु॒वीर्य᳚म् | अ॒स्मे श्रवां᳚सि धारय ||{7.1.30.1}, {9.63.1}, {9.3.3.1} |
142 | इष॒मूर्जं᳚ च पिन्वस॒ इन्द्रा᳚य मत्स॒रिन्त॑मः | च॒मूष्वा नि षी᳚दसि ||{7.1.30.2}, {9.63.2}, {9.3.3.2} |
143 | सु॒त इन्द्रा᳚य॒ विष्ण॑वे॒ सोमः॑ क॒लशे᳚ अक्षरत् | मधु॑माँ अस्तु वा॒यवे᳚ ||{7.1.30.3}, {9.63.3}, {9.3.3.3} |
144 | ए॒ते अ॑सृग्रमा॒शवोऽति॒ ह्वरां᳚सि ब॒भ्रवः॑ | सोमा᳚ ऋ॒तस्य॒ धार॑या ||{7.1.30.4}, {9.63.4}, {9.3.3.4} |
145 | इन्द्रं॒ वर्ध᳚न्तो अ॒प्तुरः॑ कृ॒ण्वन्तो॒ विश्व॒मार्य᳚म् | अ॒प॒घ्नन्तो॒ अरा᳚व्णः ||{7.1.30.5}, {9.63.5}, {9.3.3.5} |
146 | सु॒ता अनु॒ स्वमा रजो॒ऽभ्य॑र्षन्ति ब॒भ्रवः॑ | इन्द्रं॒ गच्छ᳚न्त॒ इन्द॑वः ||{7.1.31.1}, {9.63.6}, {9.3.3.6} |
147 | अ॒या प॑वस्व॒ धार॑या॒ यया॒ सूर्य॒मरो᳚चयः | हि॒न्वा॒नो मानु॑षीर॒पः ||{7.1.31.2}, {9.63.7}, {9.3.3.7} |
148 | अयु॑क्त॒ सूर॒ एत॑शं॒ पव॑मानो म॒नावधि॑ | अ॒न्तरि॑क्षेण॒ यात॑वे ||{7.1.31.3}, {9.63.8}, {9.3.3.8} |
149 | उ॒त त्या ह॒रितो॒ दश॒ सूरो᳚ अयुक्त॒ यात॑वे | इन्दु॒रिन्द्र॒ इति॑ ब्रु॒वन् ||{7.1.31.4}, {9.63.9}, {9.3.3.9} |
150 | परी॒तो वा॒यवे᳚ सु॒तं गिर॒ इन्द्रा᳚य मत्स॒रम् | अव्यो॒ वारे᳚षु सिञ्चत ||{7.1.31.5}, {9.63.10}, {9.3.3.10} |
151 | पव॑मान वि॒दा र॒यिम॒स्मभ्यं᳚ सोम दु॒ष्टर᳚म् | यो दू॒णाशो᳚ वनुष्य॒ता ||{7.1.32.1}, {9.63.11}, {9.3.3.11} |
152 | अ॒भ्य॑र्ष सह॒स्रिणं᳚ र॒यिं गोम᳚न्तम॒श्विन᳚म् | अ॒भि वाज॑मु॒त श्रवः॑ ||{7.1.32.2}, {9.63.12}, {9.3.3.12} |
153 | सोमो᳚ दे॒वो न सूर्योऽद्रि॑भिः पवते सु॒तः | दधा᳚नः क॒लशे॒ रस᳚म् ||{7.1.32.3}, {9.63.13}, {9.3.3.13} |
154 | ए॒ते धामा॒न्यार्या᳚ शु॒क्रा ऋ॒तस्य॒ धार॑या | वाजं॒ गोम᳚न्तमक्षरन् ||{7.1.32.4}, {9.63.14}, {9.3.3.14} |
155 | सु॒ता इन्द्रा᳚य व॒ज्रिणे॒ सोमा᳚सो॒ दध्या᳚शिरः | प॒वित्र॒मत्य॑क्षरन् ||{7.1.32.5}, {9.63.15}, {9.3.3.15} |
156 | प्र सो᳚म॒ मधु॑मत्तमो रा॒ये अ॑र्ष प॒वित्र॒ आ | मदो॒ यो दे᳚व॒वीत॑मः ||{7.1.33.1}, {9.63.16}, {9.3.3.16} |
157 | तमी᳚ मृजन्त्या॒यवो॒ हरिं᳚ न॒दीषु॑ वा॒जिन᳚म् | इन्दु॒मिन्द्रा᳚य मत्स॒रम् ||{7.1.33.2}, {9.63.17}, {9.3.3.17} |
158 | आ प॑वस्व॒ हिर᳚ण्यव॒दश्वा᳚वत्सोम वी॒रव॑त् | वाजं॒ गोम᳚न्त॒मा भ॑र ||{7.1.33.3}, {9.63.18}, {9.3.3.18} |
159 | परि॒ वाजे॒ न वा᳚ज॒युमव्यो॒ वारे᳚षु सिञ्चत | इन्द्रा᳚य॒ मधु॑मत्तमम् ||{7.1.33.4}, {9.63.19}, {9.3.3.19} |
160 | क॒विं मृ॑जन्ति॒ मर्ज्यं᳚ धी॒भिर्विप्रा᳚ अव॒स्यवः॑ | वृषा॒ कनि॑क्रदर्षति ||{7.1.33.5}, {9.63.20}, {9.3.3.20} |
161 | वृष॑णं धी॒भिर॒प्तुरं॒ सोम॑मृ॒तस्य॒ धार॑या | म॒ती विप्राः॒ सम॑स्वरन् ||{7.1.34.1}, {9.63.21}, {9.3.3.21} |
162 | पव॑स्व देवायु॒षगिन्द्रं᳚ गच्छतु ते॒ मदः॑ | वा॒युमा रो᳚ह॒ धर्म॑णा ||{7.1.34.2}, {9.63.22}, {9.3.3.22} |
163 | पव॑मान॒ नि तो᳚शसे र॒यिं सो᳚म श्र॒वाय्य᳚म् | प्रि॒यः स॑मु॒द्रमा वि॑श ||{7.1.34.3}, {9.63.23}, {9.3.3.23} |
164 | अ॒प॒घ्नन्प॑वसे॒ मृधः॑ क्रतु॒वित्सो᳚म मत्स॒रः | नु॒दस्वादे᳚वयुं॒ जन᳚म् ||{7.1.34.4}, {9.63.24}, {9.3.3.24} |
165 | पव॑माना असृक्षत॒ सोमाः᳚ शु॒क्रास॒ इन्द॑वः | अ॒भि विश्वा᳚नि॒ काव्या᳚ ||{7.1.34.5}, {9.63.25}, {9.3.3.25} |
166 | पव॑मानास आ॒शवः॑ शु॒भ्रा अ॑सृग्र॒मिन्द॑वः | घ्नन्तो॒ विश्वा॒ अप॒ द्विषः॑ ||{7.1.35.1}, {9.63.26}, {9.3.3.26} |
167 | पव॑माना दि॒वस्पर्य॒न्तरि॑क्षादसृक्षत | पृ॒थि॒व्या अधि॒ सान॑वि ||{7.1.35.2}, {9.63.27}, {9.3.3.27} |
168 | पु॒ना॒नः सो᳚म॒ धार॒येन्दो॒ विश्वा॒ अप॒ स्रिधः॑ | ज॒हि रक्षां᳚सि सुक्रतो ||{7.1.35.3}, {9.63.28}, {9.3.3.28} |
169 | अ॒प॒घ्नन्सो᳚म र॒क्षसो॒ऽभ्य॑र्ष॒ कनि॑क्रदत् | द्यु॒मन्तं॒ शुष्म॑मुत्त॒मम् ||{7.1.35.4}, {9.63.29}, {9.3.3.29} |
170 | अ॒स्मे वसू᳚नि धारय॒ सोम॑ दि॒व्यानि॒ पार्थि॑वा | इन्दो॒ विश्वा᳚नि॒ वार्या᳚ ||{7.1.35.5}, {9.63.30}, {9.3.3.30} |
[21] (१-३०) त्रिंशदृचस्य सूक्तस्य मारीचः कश्यप ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
171 | वृषा᳚ सोम द्यु॒माँ अ॑सि॒ वृषा᳚ देव॒ वृष᳚व्रतः | वृषा॒ धर्मा᳚णि दधिषे ||{7.1.36.1}, {9.64.1}, {9.3.4.1} |
172 | वृष्ण॑स्ते॒ वृष्ण्यं॒ शवो॒ वृषा॒ वनं॒ वृषा॒ मदः॑ | स॒त्यं वृ॑ष॒न्वृषेद॑सि ||{7.1.36.2}, {9.64.2}, {9.3.4.2} |
173 | अश्वो॒ न च॑क्रदो॒ वृषा॒ सं गा इ᳚न्दो॒ समर्व॑तः | वि नो᳚ रा॒ये दुरो᳚ वृधि ||{7.1.36.3}, {9.64.3}, {9.3.4.3} |
174 | असृ॑क्षत॒ प्र वा॒जिनो᳚ ग॒व्या सोमा᳚सो अश्व॒या | शु॒क्रासो᳚ वीर॒याशवः॑ ||{7.1.36.4}, {9.64.4}, {9.3.4.4} |
175 | शु॒म्भमा᳚ना ऋता॒युभि᳚र्मृ॒ज्यमा᳚ना॒ गभ॑स्त्योः | पव᳚न्ते॒ वारे᳚ अ॒व्यये᳚ ||{7.1.36.5}, {9.64.5}, {9.3.4.5} |
176 | ते विश्वा᳚ दा॒शुषे॒ वसु॒ सोमा᳚ दि॒व्यानि॒ पार्थि॑वा | पव᳚न्ता॒मान्तरि॑क्ष्या ||{7.1.37.1}, {9.64.6}, {9.3.4.6} |
177 | पव॑मानस्य विश्ववि॒त्प्र ते॒ सर्गा᳚ असृक्षत | सूर्य॑स्येव॒ न र॒श्मयः॑ ||{7.1.37.2}, {9.64.7}, {9.3.4.7} |
178 | के॒तुं कृ॒ण्वन्दि॒वस्परि॒ विश्वा᳚ रू॒पाभ्य॑र्षसि | स॒मु॒द्रः सो᳚म पिन्वसे ||{7.1.37.3}, {9.64.8}, {9.3.4.8} |
179 | हि॒न्वा॒नो वाच॑मिष्यसि॒ पव॑मान॒ विध᳚र्मणि | अक्रा᳚न्दे॒वो न सूर्यः॑ ||{7.1.37.4}, {9.64.9}, {9.3.4.9} |
180 | इन्दुः॑ पविष्ट॒ चेत॑नः प्रि॒यः क॑वी॒नां म॒ती | सृ॒जदश्वं᳚ र॒थीरि॑व ||{7.1.37.5}, {9.64.10}, {9.3.4.10} |
181 | ऊ॒र्मिर्यस्ते᳚ प॒वित्र॒ आ दे᳚वा॒वीः प॒र्यक्ष॑रत् | सीद᳚न्नृ॒तस्य॒ योनि॒मा ||{7.1.38.1}, {9.64.11}, {9.3.4.11} |
182 | स नो᳚ अर्ष प॒वित्र॒ आ मदो॒ यो दे᳚व॒वीत॑मः | इन्द॒विन्द्रा᳚य पी॒तये᳚ ||{7.1.38.2}, {9.64.12}, {9.3.4.12} |
183 | इ॒षे प॑वस्व॒ धार॑या मृ॒ज्यमा᳚नो मनी॒षिभिः॑ | इन्दो᳚ रु॒चाभि गा इ॑हि ||{7.1.38.3}, {9.64.13}, {9.3.4.13} |
184 | पु॒ना॒नो वरि॑वस्कृ॒ध्यूर्जं॒ जना᳚य गिर्वणः | हरे᳚ सृजा॒न आ॒शिर᳚म् ||{7.1.38.4}, {9.64.14}, {9.3.4.14} |
185 | पु॒ना॒नो दे॒ववी᳚तय॒ इन्द्र॑स्य याहि निष्कृ॒तम् | द्यु॒ता॒नो वा॒जिभि᳚र्य॒तः ||{7.1.38.5}, {9.64.15}, {9.3.4.15} |
186 | प्र हि᳚न्वा॒नास॒ इन्द॒वोऽच्छा᳚ समु॒द्रमा॒शवः॑ | धि॒या जू॒ता अ॑सृक्षत ||{7.1.39.1}, {9.64.16}, {9.3.4.16} |
187 | म॒र्मृ॒जा॒नास॑ आ॒यवो॒ वृथा᳚ समु॒द्रमिन्द॑वः | अग्म᳚न्नृ॒तस्य॒ योनि॒मा ||{7.1.39.2}, {9.64.17}, {9.3.4.17} |
188 | परि॑ णो याह्यस्म॒युर्विश्वा॒ वसू॒न्योज॑सा | पा॒हि नः॒ शर्म॑ वी॒रव॑त् ||{7.1.39.3}, {9.64.18}, {9.3.4.18} |
189 | मिमा᳚ति॒ वह्नि॒रेत॑शः प॒दं यु॑जा॒न ऋक्व॑भिः | प्र यत्स॑मु॒द्र आहि॑तः ||{7.1.39.4}, {9.64.19}, {9.3.4.19} |
190 | आ यद्योनिं᳚ हिर॒ण्यय॑मा॒शुरृ॒तस्य॒ सीद॑ति | जहा॒त्यप्र॑चेतसः ||{7.1.39.5}, {9.64.20}, {9.3.4.20} |
191 | अ॒भि वे॒ना अ॑नूष॒तेय॑क्षन्ति॒ प्रचे᳚तसः | मज्ज॒न्त्यवि॑चेतसः ||{7.1.40.1}, {9.64.21}, {9.3.4.21} |
192 | इन्द्रा᳚येन्दो म॒रुत्व॑ते॒ पव॑स्व॒ मधु॑मत्तमः | ऋ॒तस्य॒ योनि॑मा॒सद᳚म् ||{7.1.40.2}, {9.64.22}, {9.3.4.22} |
193 | तं त्वा॒ विप्रा᳚ वचो॒विदः॒ परि॑ ष्कृण्वन्ति वे॒धसः॑ | सं त्वा᳚ मृजन्त्या॒यवः॑ ||{7.1.40.3}, {9.64.23}, {9.3.4.23} |
194 | रसं᳚ ते मि॒त्रो अ᳚र्य॒मा पिब᳚न्ति॒ वरु॑णः कवे | पव॑मानस्य म॒रुतः॑ ||{7.1.40.4}, {9.64.24}, {9.3.4.24} |
195 | त्वं सो᳚म विप॒श्चितं᳚ पुना॒नो वाच॑मिष्यसि | इन्दो᳚ स॒हस्र॑भर्णसम् ||{7.1.40.5}, {9.64.25}, {9.3.4.25} |
196 | उ॒तो स॒हस्र॑भर्णसं॒ वाचं᳚ सोम मख॒स्युव᳚म् | पु॒ना॒न इ᳚न्द॒वा भ॑र ||{7.1.41.1}, {9.64.26}, {9.3.4.26} |
197 | पु॒ना॒न इ᳚न्दवेषां॒ पुरु॑हूत॒ जना᳚नाम् | प्रि॒यः स॑मु॒द्रमा वि॑श ||{7.1.41.2}, {9.64.27}, {9.3.4.27} |
198 | दवि॑द्युतत्या रु॒चा प॑रि॒ष्टोभ᳚न्त्या कृ॒पा | सोमाः᳚ शु॒क्रा गवा᳚शिरः ||{7.1.41.3}, {9.64.28}, {9.3.4.28} |
199 | हि॒न्वा॒नो हे॒तृभि᳚र्य॒त आ वाजं᳚ वा॒ज्य॑क्रमीत् | सीद᳚न्तो व॒नुषो᳚ यथा ||{7.1.41.4}, {9.64.29}, {9.3.4.29} |
200 | ऋ॒धक्सो᳚म स्व॒स्तये᳚ संजग्मा॒नो दि॒वः क॒विः | पव॑स्व॒ सूर्यो᳚ दृ॒शे ||{7.1.41.5}, {9.64.30}, {9.3.4.30} |
[22] (१-३०) त्रिंशदृचस्य सूक्तस्य वारुणिभृर्ग भु गिर्वो जमदग्निर्वा ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | गायत्री छन्दः || | |
201 | हि॒न्वन्ति॒ सूर॒मुस्र॑यः॒ स्वसा᳚रो जा॒मय॒स्पति᳚म् | म॒हामिन्दुं᳚ मही॒युवः॑ ||{7.2.1.1}, {9.65.1}, {9.3.5.1} |
202 | पव॑मान रु॒चारु॑चा दे॒वो दे॒वेभ्य॒स्परि॑ | विश्वा॒ वसू॒न्या वि॑श ||{7.2.1.2}, {9.65.2}, {9.3.5.2} |
203 | आ प॑वमान सुष्टु॒तिं वृ॒ष्टिं दे॒वेभ्यो॒ दुवः॑ | इ॒षे प॑वस्व सं॒यत᳚म् ||{7.2.1.3}, {9.65.3}, {9.3.5.3} |
204 | वृषा॒ ह्यसि॑ भा॒नुना᳚ द्यु॒मन्तं᳚ त्वा हवामहे | पव॑मान स्वा॒ध्यः॑ ||{7.2.1.4}, {9.65.4}, {9.3.5.4} |
205 | आ प॑वस्व सु॒वीर्यं॒ मन्द॑मानः स्वायुध | इ॒हो ष्वि᳚न्द॒वा ग॑हि ||{7.2.1.5}, {9.65.5}, {9.3.5.5} |
206 | यद॒द्भिः प॑रिषि॒च्यसे᳚ मृ॒ज्यमा᳚नो॒ गभ॑स्त्योः | द्रुणा᳚ स॒धस्थ॑मश्नुषे ||{7.2.2.1}, {9.65.6}, {9.3.5.6} |
207 | प्र सोमा᳚य व्यश्व॒वत्पव॑मानाय गायत | म॒हे स॒हस्र॑चक्षसे ||{7.2.2.2}, {9.65.7}, {9.3.5.7} |
208 | यस्य॒ वर्णं᳚ मधु॒श्चुतं॒ हरिं᳚ हि॒न्वन्त्यद्रि॑भिः | इन्दु॒मिन्द्रा᳚य पी॒तये᳚ ||{7.2.2.3}, {9.65.8}, {9.3.5.8} |
209 | तस्य॑ ते वा॒जिनो᳚ व॒यं विश्वा॒ धना᳚नि जि॒ग्युषः॑ | स॒खि॒त्वमा वृ॑णीमहे ||{7.2.2.4}, {9.65.9}, {9.3.5.9} |
210 | वृषा᳚ पवस्व॒ धार॑या म॒रुत्व॑ते च मत्स॒रः | विश्वा॒ दधा᳚न॒ ओज॑सा ||{7.2.2.5}, {9.65.10}, {9.3.5.10} |
211 | तं त्वा᳚ ध॒र्तार॑मो॒ण्यो॒३॑(ओ॒)ः पव॑मान स्व॒र्दृश᳚म् | हि॒न्वे वाजे᳚षु वा॒जिन᳚म् ||{7.2.3.1}, {9.65.11}, {9.3.5.11} |
212 | अ॒या चि॒त्तो वि॒पानया॒ हरिः॑ पवस्व॒ धार॑या | युजं॒ वाजे᳚षु चोदय ||{7.2.3.2}, {9.65.12}, {9.3.5.12} |
213 | आ न॑ इन्दो म॒हीमिषं॒ पव॑स्व वि॒श्वद॑र्शतः | अ॒स्मभ्यं᳚ सोम गातु॒वित् ||{7.2.3.3}, {9.65.13}, {9.3.5.13} |
214 | आ क॒लशा᳚ अनूष॒तेन्दो॒ धारा᳚भि॒रोज॑सा | एन्द्र॑स्य पी॒तये᳚ विश ||{7.2.3.4}, {9.65.14}, {9.3.5.14} |
215 | यस्य॑ ते॒ मद्यं॒ रसं᳚ ती॒व्रं दु॒हन्त्यद्रि॑भिः | स प॑वस्वाभिमाति॒हा ||{7.2.3.5}, {9.65.15}, {9.3.5.15} |
216 | राजा᳚ मे॒धाभि॑रीयते॒ पव॑मानो म॒नावधि॑ | अ॒न्तरि॑क्षेण॒ यात॑वे ||{7.2.4.1}, {9.65.16}, {9.3.5.16} |
217 | आ न॑ इन्दो शत॒ग्विनं॒ गवां॒ पोषं॒ स्वश्व्य᳚म् | वहा॒ भग॑त्तिमू॒तये᳚ ||{7.2.4.2}, {9.65.17}, {9.3.5.17} |
218 | आ नः॑ सोम॒ सहो॒ जुवो᳚ रू॒पं न वर्च॑से भर | सु॒ष्वा॒णो दे॒ववी᳚तये ||{7.2.4.3}, {9.65.18}, {9.3.5.18} |
219 | अर्षा᳚ सोम द्यु॒मत्त॑मो॒ऽभि द्रोणा᳚नि॒ रोरु॑वत् | सीद᳚ञ्छ्ये॒नो न योनि॒मा ||{7.2.4.4}, {9.65.19}, {9.3.5.19} |
220 | अ॒प्सा इन्द्रा᳚य वा॒यवे॒ वरु॑णाय म॒रुद्भ्यः॑ | सोमो᳚ अर्षति॒ विष्ण॑वे ||{7.2.4.5}, {9.65.20}, {9.3.5.20} |
221 | इषं᳚ तो॒काय॑ नो॒ दध॑द॒स्मभ्यं᳚ सोम वि॒श्वतः॑ | आ प॑वस्व सह॒स्रिण᳚म् ||{7.2.5.1}, {9.65.21}, {9.3.5.21} |
222 | ये सोमा᳚सः परा॒वति॒ ये अ᳚र्वा॒वति॑ सुन्वि॒रे | ये वा॒दः श᳚र्य॒णाव॑ति ||{7.2.5.2}, {9.65.22}, {9.3.5.22} |
223 | य आ᳚र्जी॒केषु॒ कृत्व॑सु॒ ये मध्ये᳚ प॒स्त्या᳚नाम् | ये वा॒ जने᳚षु प॒ञ्चसु॑ ||{7.2.5.3}, {9.65.23}, {9.3.5.23} |
224 | ते नो᳚ वृ॒ष्टिं दि॒वस्परि॒ पव᳚न्ता॒मा सु॒वीर्य᳚म् | सु॒वा॒ना दे॒वास॒ इन्द॑वः ||{7.2.5.4}, {9.65.24}, {9.3.5.24} |
225 | पव॑ते हर्य॒तो हरि॑र्गृणा॒नो ज॒मद॑ग्निना | हि॒न्वा॒नो गोरधि॑ त्व॒चि ||{7.2.5.5}, {9.65.25}, {9.3.5.25} |
226 | प्र शु॒क्रासो᳚ वयो॒जुवो᳚ हिन्वा॒नासो॒ न सप्त॑यः | श्री॒णा॒ना अ॒प्सु मृ᳚ञ्जत ||{7.2.6.1}, {9.65.26}, {9.3.5.26} |
227 | तं त्वा᳚ सु॒तेष्वा॒भुवो᳚ हिन्वि॒रे दे॒वता᳚तये | स प॑वस्वा॒नया᳚ रु॒चा ||{7.2.6.2}, {9.65.27}, {9.3.5.27} |
228 | आ ते॒ दक्षं᳚ मयो॒भुवं॒ वह्नि॑म॒द्या वृ॑णीमहे | पान्त॒मा पु॑रु॒स्पृह᳚म् ||{7.2.6.3}, {9.65.28}, {9.3.5.28} |
229 | आ म॒न्द्रमा वरे᳚ण्य॒मा विप्र॒मा म॑नी॒षिण᳚म् | पान्त॒मा पु॑रु॒स्पृह᳚म् ||{7.2.6.4}, {9.65.29}, {9.3.5.29} |
230 | आ र॒यिमा सु॑चे॒तुन॒मा सु॑क्रतो त॒नूष्वा | पान्त॒मा पु॑रु॒स्पृह᳚म् ||{7.2.6.5}, {9.65.30}, {9.3.5.30} |
[23] (१-३०) त्रिंशदृचस्य सूक्तस्य शतं वैखानसा ऋषयः (१-१८, २२-३०) प्रथमाद्यष्टादशों द्वाविंश्यादिनवानाञ्च पवमानः सोमः, (१९-२१) एकोनविंश्यादितृचस्य च पवमानोऽग्निदेवते | (१-१७, १९-३०) प्रथमादिसप्तदशर्चामक नविंश्यादिद्वादशानाञ्च गायत्री, (१८) अष्टादश्याश्चानुष्टप् छन्दसी || | |
231 | पव॑स्व विश्वचर्षणे॒ऽभि विश्वा᳚नि॒ काव्या᳚ | सखा॒ सखि॑भ्य॒ ईड्यः॑ ||{7.2.7.1}, {9.66.1}, {9.3.6.1} |
232 | ताभ्यां॒ विश्व॑स्य राजसि॒ ये प॑वमान॒ धाम॑नी | प्र॒ती॒ची सो᳚म त॒स्थतुः॑ ||{7.2.7.2}, {9.66.2}, {9.3.6.2} |
233 | परि॒ धामा᳚नि॒ यानि॑ ते॒ त्वं सो᳚मासि वि॒श्वतः॑ | पव॑मान ऋ॒तुभिः॑ कवे ||{7.2.7.3}, {9.66.3}, {9.3.6.3} |
234 | पव॑स्व ज॒नय॒न्निषो॒ऽभि विश्वा᳚नि॒ वार्या᳚ | सखा॒ सखि॑भ्य ऊ॒तये᳚ ||{7.2.7.4}, {9.66.4}, {9.3.6.4} |
235 | तव॑ शु॒क्रासो᳚ अ॒र्चयो᳚ दि॒वस्पृ॒ष्ठे वि त᳚न्वते | प॒वित्रं᳚ सोम॒ धाम॑भिः ||{7.2.7.5}, {9.66.5}, {9.3.6.5} |
236 | तवे॒मे स॒प्त सिन्ध॑वः प्र॒शिषं᳚ सोम सिस्रते | तुभ्यं᳚ धावन्ति धे॒नवः॑ ||{7.2.8.1}, {9.66.6}, {9.3.6.6} |
237 | प्र सो᳚म याहि॒ धार॑या सु॒त इन्द्रा᳚य मत्स॒रः | दधा᳚नो॒ अक्षि॑ति॒ श्रवः॑ ||{7.2.8.2}, {9.66.7}, {9.3.6.7} |
238 | समु॑ त्वा धी॒भिर॑स्वरन्हिन्व॒तीः स॒प्त जा॒मयः॑ | विप्र॑मा॒जा वि॒वस्व॑तः ||{7.2.8.3}, {9.66.8}, {9.3.6.8} |
239 | मृ॒जन्ति॑ त्वा॒ सम॒ग्रुवोऽव्ये᳚ जी॒रावधि॒ ष्वणि॑ | रे॒भो यद॒ज्यसे॒ वने᳚ ||{7.2.8.4}, {9.66.9}, {9.3.6.9} |
240 | पव॑मानस्य ते कवे॒ वाजि॒न्सर्गा᳚ असृक्षत | अर्व᳚न्तो॒ न श्र॑व॒स्यवः॑ ||{7.2.8.5}, {9.66.10}, {9.3.6.10} |
241 | अच्छा॒ कोशं᳚ मधु॒श्चुत॒मसृ॑ग्रं॒ वारे᳚ अ॒व्यये᳚ | अवा᳚वशन्त धी॒तयः॑ ||{7.2.9.1}, {9.66.11}, {9.3.6.11} |
242 | अच्छा᳚ समु॒द्रमिन्द॒वोऽस्तं॒ गावो॒ न धे॒नवः॑ | अग्म᳚न्नृ॒तस्य॒ योनि॒मा ||{7.2.9.2}, {9.66.12}, {9.3.6.12} |
243 | प्र ण॑ इन्दो म॒हे रण॒ आपो᳚ अर्षन्ति॒ सिन्ध॑वः | यद्गोभि᳚र्वासयि॒ष्यसे᳚ ||{7.2.9.3}, {9.66.13}, {9.3.6.13} |
244 | अस्य॑ ते स॒ख्ये व॒यमिय॑क्षन्त॒स्त्वोत॑यः | इन्दो᳚ सखि॒त्वमु॑श्मसि ||{7.2.9.4}, {9.66.14}, {9.3.6.14} |
245 | आ प॑वस्व॒ गवि॑ष्टये म॒हे सो᳚म नृ॒चक्ष॑से | एन्द्र॑स्य ज॒ठरे᳚ विश ||{7.2.9.5}, {9.66.15}, {9.3.6.15} |
246 | म॒हाँ अ॑सि सोम॒ ज्येष्ठ॑ उ॒ग्राणा᳚मिन्द॒ ओजि॑ष्ठः | युध्वा॒ सञ्छश्व॑ज्जिगेथ ||{7.2.10.1}, {9.66.16}, {9.3.6.16} |
247 | य उ॒ग्रेभ्य॑श्चि॒दोजी᳚या॒ञ्छूरे᳚भ्यश्चि॒च्छूर॑तरः | भू॒रि॒दाभ्य॑श्चि॒न्मंही᳚यान् ||{7.2.10.2}, {9.66.17}, {9.3.6.17} |
248 | त्वं सो᳚म॒ सूर॒ एष॑स्तो॒कस्य॑ सा॒ता त॒नूना᳚म् | वृ॒णी॒महे᳚ स॒ख्याय॑ वृणी॒महे॒ युज्या᳚य ||{7.2.10.3}, {9.66.18}, {9.3.6.18} |
249 | अग्न॒ आयूं᳚षि पवस॒ आ सु॒वोर्ज॒मिषं᳚ च नः | आ॒रे बा᳚धस्व दु॒च्छुना᳚म् ||{7.2.10.4}, {9.66.19}, {9.3.6.19} |
250 | अ॒ग्निरृषिः॒ पव॑मानः॒ पाञ्च॑जन्यः पु॒रोहि॑तः | तमी᳚महे महाग॒यम् ||{7.2.10.5}, {9.66.20}, {9.3.6.20} |
251 | अग्ने॒ पव॑स्व॒ स्वपा᳚ अ॒स्मे वर्चः॑ सु॒वीर्य᳚म् | दध॑द्र॒यिं मयि॒ पोष᳚म् ||{7.2.11.1}, {9.66.21}, {9.3.6.21} |
252 | पव॑मानो॒ अति॒ स्रिधो॒ऽभ्य॑र्षति सुष्टु॒तिम् | सूरो॒ न वि॒श्वद॑र्शतः ||{7.2.11.2}, {9.66.22}, {9.3.6.22} |
253 | स म᳚र्मृजा॒न आ॒युभिः॒ प्रय॑स्वा॒न्प्रय॑से हि॒तः | इन्दु॒रत्यो᳚ विचक्ष॒णः ||{7.2.11.3}, {9.66.23}, {9.3.6.23} |
254 | पव॑मान ऋ॒तं बृ॒हच्छु॒क्रं ज्योति॑रजीजनत् | कृ॒ष्णा तमां᳚सि॒ जङ्घ॑नत् ||{7.2.11.4}, {9.66.24}, {9.3.6.24} |
255 | पव॑मानस्य॒ जङ्घ्न॑तो॒ हरे᳚श्च॒न्द्रा अ॑सृक्षत | जी॒रा अ॑जि॒रशो᳚चिषः ||{7.2.11.5}, {9.66.25}, {9.3.6.25} |
256 | पव॑मानो र॒थीत॑मः शु॒भ्रेभिः॑ शु॒भ्रश॑स्तमः | हरि॑श्चन्द्रो म॒रुद्ग॑णः ||{7.2.12.1}, {9.66.26}, {9.3.6.26} |
257 | पव॑मानो॒ व्य॑श्नवद्र॒श्मिभि᳚र्वाज॒सात॑मः | दध॑त्स्तो॒त्रे सु॒वीर्य᳚म् ||{7.2.12.2}, {9.66.27}, {9.3.6.27} |
258 | प्र सु॑वा॒न इन्दु॑रक्षाः प॒वित्र॒मत्य॒व्यय᳚म् | पु॒ना॒न इन्दु॒रिन्द्र॒मा ||{7.2.12.3}, {9.66.28}, {9.3.6.28} |
259 | ए॒ष सोमो॒ अधि॑ त्व॒चि गवां᳚ क्रीळ॒त्यद्रि॑भिः | इन्द्रं॒ मदा᳚य॒ जोहु॑वत् ||{7.2.12.4}, {9.66.29}, {9.3.6.29} |
260 | यस्य॑ ते द्यु॒म्नव॒त्पयः॒ पव॑मा॒नाभृ॑तं दि॒वः | तेन॑ नो मृळ जी॒वसे᳚ ||{7.2.12.5}, {9.66.30}, {9.3.6.30} |
[24] (१-३२) द्वात्रिंशदृचस्य सूक्तस्य सप्तर्षयः-(१-३) प्रथमादितृचस्य बार्हस्पत्यो भरद्वाजः, (४-६) चतुर्थ्यादितृचस्य मारीचः कश्यपः, (७-९) सप्तम्यादितृचस्य रहूगणो गोतमः, (१०-१२) दशम्यादितृचस्य भौमोऽत्रिः, (१३-१५) त्रयोदश्यादितृचस्य गाथिनो विश्वामित्रः, (१६-१८) षोडश्यादितृचस्य भार्गवो जमदग्निः, (१९-२१) एकोनविंश्यादितृचस्य मैत्रावरुणिर्वसिष्ठः, (२२-३२) द्वाविंश्याद्येकादश ञ्चाङ्गिरसः पवित्रो वसिष्ठो वोभौ वा ऋषयः (१-९, १३-२२, २८-३०) प्रथमादिनवर्चाम् त्रयोदश्यादिदशानामष्टाविंश्यादितृचस्य च पवमानः सोमः, (१०-१२) दशम्यादितृचस्य पवमानः पूषा सोमो वा, (२३-२४) त्रयोविंशीचतुर्विंश्योः पवमानोऽग्निः, (२५) पञ्चविंश्याः पवमानोऽग्निः सविता वा, (२६) षड्विशं याः पवमानोऽग्निः पवमानाग्निसवितारो वा, (२७) सप्तविंश्याः पवमानोऽग्निर्विश्वे देवा वा, (३१-३२) एकत्रिंशीद्वात्रिंश्योश्च पावमान्यध्येतस्तुतिदेवताः | (१-१५, १९-२६, २८-२९) प्रथमादिपञ्चदशर्चामके नविंश्याद्यष्टानामष्टाविंश्येकोनत्रिंश्योश्च गायत्री, (१६-१८) षोडश्यादितृचस्य द्विपदा गायत्री, (२७, ३१-३२) सप्तविंश्येकत्रिंशीद्वात्रिंशीनामनुष्टुप्, (३०) त्रिंश्याश्च पर उष्णिक् छन्दांसि || | |
261 | त्वं सो᳚मासि धार॒युर्म॒न्द्र ओजि॑ष्ठो अध्व॒रे | पव॑स्व मंह॒यद्र॑यिः ||{7.2.13.1}, {9.67.1}, {9.3.7.1} |
262 | त्वं सु॒तो नृ॒माद॑नो दध॒न्वान्म॑त्स॒रिन्त॑मः | इन्द्रा᳚य सू॒रिरन्ध॑सा ||{7.2.13.2}, {9.67.2}, {9.3.7.2} |
263 | त्वं सु॑ष्वा॒णो अद्रि॑भिर॒भ्य॑र्ष॒ कनि॑क्रदत् | द्यु॒मन्तं॒ शुष्म॑मुत्त॒मम् ||{7.2.13.3}, {9.67.3}, {9.3.7.3} |
264 | इन्दु॑र्हिन्वा॒नो अ॑र्षति ति॒रो वारा᳚ण्य॒व्यया᳚ | हरि॒र्वाज॑मचिक्रदत् ||{7.2.13.4}, {9.67.4}, {9.3.7.4} |
265 | इन्दो॒ व्यव्य॑मर्षसि॒ वि श्रवां᳚सि॒ वि सौभ॑गा | वि वाजा᳚न्सोम॒ गोम॑तः ||{7.2.13.5}, {9.67.5}, {9.3.7.5} |
266 | आ न॑ इन्दो शत॒ग्विनं᳚ र॒यिं गोम᳚न्तम॒श्विन᳚म् | भरा᳚ सोम सह॒स्रिण᳚म् ||{7.2.14.1}, {9.67.6}, {9.3.7.6} |
267 | पव॑मानास॒ इन्द॑वस्ति॒रः प॒वित्र॑मा॒शवः॑ | इन्द्रं॒ यामे᳚भिराशत ||{7.2.14.2}, {9.67.7}, {9.3.7.7} |
268 | क॒कु॒हः सो॒म्यो रस॒ इन्दु॒रिन्द्रा᳚य पू॒र्व्यः | आ॒युः प॑वत आ॒यवे᳚ ||{7.2.14.3}, {9.67.8}, {9.3.7.8} |
269 | हि॒न्वन्ति॒ सूर॒मुस्र॑यः॒ पव॑मानं मधु॒श्चुत᳚म् | अ॒भि गि॒रा सम॑स्वरन् ||{7.2.14.4}, {9.67.9}, {9.3.7.9} |
270 | अ॒वि॒ता नो᳚ अ॒जाश्वः॑ पू॒षा याम॑नियामनि | आ भ॑क्षत्क॒न्या᳚सु नः ||{7.2.14.5}, {9.67.10}, {9.3.7.10} |
271 | अ॒यं सोमः॑ कप॒र्दिने᳚ घृ॒तं न प॑वते॒ मधु॑ | आ भ॑क्षत्क॒न्या᳚सु नः ||{7.2.15.1}, {9.67.11}, {9.3.7.11} |
272 | अ॒यं त॑ आघृणे सु॒तो घृ॒तं न प॑वते॒ शुचि॑ | आ भ॑क्षत्क॒न्या᳚सु नः ||{7.2.15.2}, {9.67.12}, {9.3.7.12} |
273 | वा॒चो ज॒न्तुः क॑वी॒नां पव॑स्व सोम॒ धार॑या | दे॒वेषु॑ रत्न॒धा अ॑सि ||{7.2.15.3}, {9.67.13}, {9.3.7.13} |
274 | आ क॒लशे᳚षु धावति श्ये॒नो वर्म॒ वि गा᳚हते | अ॒भि द्रोणा॒ कनि॑क्रदत् ||{7.2.15.4}, {9.67.14}, {9.3.7.14} |
275 | परि॒ प्र सो᳚म ते॒ रसोऽस॑र्जि क॒लशे᳚ सु॒तः | श्ये॒नो न त॒क्तो अ॑र्षति ||{7.2.15.5}, {9.67.15}, {9.3.7.15} |
276 | पव॑स्व सोम म॒न्दय॒न्निन्द्रा᳚य॒ मधु॑मत्तमः ||{7.2.16.1}, {9.67.16}, {9.3.7.16} |
277 | असृ॑ग्रन्दे॒ववी᳚तये वाज॒यन्तो॒ रथा᳚ इव ||{7.2.16.2}, {9.67.17}, {9.3.7.17} |
278 | ते सु॒तासो᳚ म॒दिन्त॑माः शु॒क्रा वा॒युम॑सृक्षत ||{7.2.16.3}, {9.67.18}, {9.3.7.18} |
279 | ग्राव्णा᳚ तु॒न्नो अ॒भिष्टु॑तः प॒वित्रं᳚ सोम गच्छसि | दध॑त्स्तो॒त्रे सु॒वीर्य᳚म् ||{7.2.16.4}, {9.67.19}, {9.3.7.19} |
280 | ए॒ष तु॒न्नो अ॒भिष्टु॑तः प॒वित्र॒मति॑ गाहते | र॒क्षो॒हा वार॑म॒व्यय᳚म् ||{7.2.16.5}, {9.67.20}, {9.3.7.20} |
281 | यदन्ति॒ यच्च॑ दूर॒के भ॒यं वि॒न्दति॒ मामि॒ह | पव॑मान॒ वि तज्ज॑हि ||{7.2.17.1}, {9.67.21}, {9.3.7.21} |
282 | पव॑मानः॒ सो अ॒द्य नः॑ प॒वित्रे᳚ण॒ विच॑र्षणिः | यः पो॒ता स पु॑नातु नः ||{7.2.17.2}, {9.67.22}, {9.3.7.22} |
283 | यत्ते᳚ प॒वित्र॑म॒र्चिष्यग्ने॒ वित॑तम॒न्तरा | ब्रह्म॒ तेन॑ पुनीहि नः ||{7.2.17.3}, {9.67.23}, {9.3.7.23} |
284 | यत्ते᳚ प॒वित्र॑मर्चि॒वदग्ने॒ तेन॑ पुनीहि नः | ब्र॒ह्म॒स॒वैः पु॑नीहि नः ||{7.2.17.4}, {9.67.24}, {9.3.7.24} |
285 | उ॒भाभ्यां᳚ देव सवितः प॒वित्रे᳚ण स॒वेन॑ च | मां पु॑नीहि वि॒श्वतः॑ ||{7.2.17.5}, {9.67.25}, {9.3.7.25} |
286 | त्रि॒भिष्ट्वं दे᳚व सवित॒र्वर्षि॑ष्ठैः सोम॒ धाम॑भिः | अग्ने॒ दक्षैः᳚ पुनीहि नः ||{7.2.18.1}, {9.67.26}, {9.3.7.26} |
287 | पु॒नन्तु॒ मां दे᳚वज॒नाः पु॒नन्तु॒ वस॑वो धि॒या | विश्वे᳚ देवाः पुनी॒त मा॒ जात॑वेदः पुनी॒हि मा᳚ ||{7.2.18.2}, {9.67.27}, {9.3.7.27} |
288 | प्र प्या᳚यस्व॒ प्र स्य᳚न्दस्व॒ सोम॒ विश्वे᳚भिरं॒शुभिः॑ | दे॒वेभ्य॑ उत्त॒मं ह॒विः ||{7.2.18.3}, {9.67.28}, {9.3.7.28} |
289 | उप॑ प्रि॒यं पनि॑प्नतं॒ युवा᳚नमाहुती॒वृध᳚म् | अग᳚न्म॒ बिभ्र॑तो॒ नमः॑ ||{7.2.18.4}, {9.67.29}, {9.3.7.29} |
290 | अ॒लाय्य॑स्य पर॒शुर्न॑नाश॒ तमा प॑वस्व देव सोम | आ॒खुं चि॑दे॒व दे᳚व सोम ||{7.2.18.5}, {9.67.30}, {9.3.7.30} |
291 | यः पा᳚वमा॒नीर॒ध्येत्यृषि॑भिः॒ सम्भृ॑तं॒ रस᳚म् | सर्वं॒ स पू॒तम॑श्नाति स्वदि॒तं मा᳚त॒रिश्व॑ना ||{7.2.18.6}, {9.67.31}, {9.3.7.31} |
292 | पा॒व॒मा॒नीर्यो अ॒ध्येत्यृषि॑भिः॒ सम्भृ॑तं॒ रस᳚म् | तस्मै॒ सर॑स्वती दुहे क्षी॒रं स॒र्पिर्मधू᳚द॒कम् ||{7.2.18.7}, {9.67.32}, {9.3.7.32} |
[25] (१-१०) दशर्चस्य सूक्तस्य भालन्दनो वत्सप्रि ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | (१-९) प्रथमादिनवर्ऋचाम् जगती, (१०) दशम्याश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
293 | प्र दे॒वमच्छा॒ मधु॑मन्त॒ इन्द॒वोऽसि॑ष्यदन्त॒ गाव॒ आ न धे॒नवः॑ | ब॒र्हि॒षदो᳚ वच॒नाव᳚न्त॒ ऊध॑भिः परि॒स्रुत॑मु॒स्रिया᳚ नि॒र्णिजं᳚ धिरे ||{7.2.19.1}, {9.68.1}, {9.4.1.1} |
294 | स रोरु॑वद॒भि पूर्वा᳚ अचिक्रददुपा॒रुहः॑ श्र॒थय᳚न्स्वादते॒ हरिः॑ | ति॒रः प॒वित्रं᳚ परि॒यन्नु॒रु ज्रयो॒ नि शर्या᳚णि दधते दे॒व आ वर᳚म् ||{7.2.19.2}, {9.68.2}, {9.4.1.2} |
295 | वि यो म॒मे य॒म्या᳚ संय॒ती मदः॑ साकं॒वृधा॒ पय॑सा पिन्व॒दक्षि॑ता | म॒ही अ॑पा॒रे रज॑सी वि॒वेवि॑ददभि॒व्रज॒न्नक्षि॑तं॒ पाज॒ आ द॑दे ||{7.2.19.3}, {9.68.3}, {9.4.1.3} |
296 | स मा॒तरा᳚ वि॒चर᳚न्वा॒जय᳚न्न॒पः प्र मेधि॑रः स्व॒धया᳚ पिन्वते प॒दम् | अं॒शुर्यवे᳚न पिपिशे य॒तो नृभिः॒ सं जा॒मिभि॒र्नस॑ते॒ रक्ष॑ते॒ शिरः॑ ||{7.2.19.4}, {9.68.4}, {9.4.1.4} |
297 | सं दक्षे᳚ण॒ मन॑सा जायते क॒विरृ॒तस्य॒ गर्भो॒ निहि॑तो य॒मा प॒रः | यूना᳚ ह॒ सन्ता᳚ प्रथ॒मं वि ज॑ज्ञतु॒र्गुहा᳚ हि॒तं जनि॑म॒ नेम॒मुद्य॑तम् ||{7.2.19.5}, {9.68.5}, {9.4.1.5} |
298 | म॒न्द्रस्य॑ रू॒पं वि॑विदुर्मनी॒षिणः॑ श्ये॒नो यदन्धो॒ अभ॑रत्परा॒वतः॑ | तं म॑र्जयन्त सु॒वृधं᳚ न॒दीष्वाँ उ॒शन्त॑मं॒शुं प॑रि॒यन्त॑मृ॒ग्मिय᳚म् ||{7.2.20.1}, {9.68.6}, {9.4.1.6} |
299 | त्वां मृ॑जन्ति॒ दश॒ योष॑णः सु॒तं सोम॒ ऋषि॑भिर्म॒तिभि॑र्धी॒तिभि॑र्हि॒तम् | अव्यो॒ वारे᳚भिरु॒त दे॒वहू᳚तिभि॒र्नृभि᳚र्य॒तो वाज॒मा द॑र्षि सा॒तये᳚ ||{7.2.20.2}, {9.68.7}, {9.4.1.7} |
300 | प॒रि॒प्र॒यन्तं᳚ व॒य्यं᳚ सुषं॒सदं॒ सोमं᳚ मनी॒षा अ॒भ्य॑नूषत॒ स्तुभः॑ | यो धार॑या॒ मधु॑माँ ऊ॒र्मिणा᳚ दि॒व इय॑र्ति॒ वाचं᳚ रयि॒षाळम॑र्त्यः ||{7.2.20.3}, {9.68.8}, {9.4.1.8} |
301 | अ॒यं दि॒व इ॑यर्ति॒ विश्व॒मा रजः॒ सोमः॑ पुना॒नः क॒लशे᳚षु सीदति | अ॒द्भिर्गोभि᳚र्मृज्यते॒ अद्रि॑भिः सु॒तः पु॑ना॒न इन्दु॒र्वरि॑वो विदत्प्रि॒यम् ||{7.2.20.4}, {9.68.9}, {9.4.1.9} |
302 | ए॒वा नः॑ सोम परिषि॒च्यमा᳚नो॒ वयो॒ दध॑च्चि॒त्रत॑मं पवस्व | अ॒द्वे॒षे द्यावा᳚पृथि॒वी हु॑वेम॒ देवा᳚ ध॒त्त र॒यिम॒स्मे सु॒वीर᳚म् ||{7.2.20.5}, {9.68.10}, {9.4.1.10} |
[26] (१-१०) दशर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरसो हिरण्यस्तूप ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | (१-८) प्रथमाद्यश्टर्चाम् जगती, (९-१०) नवमीदशम्योश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
303 | इषु॒र्न धन्व॒न्प्रति॑ धीयते म॒तिर्व॒त्सो न मा॒तुरुप॑ स॒र्ज्यूध॑नि | उ॒रुधा᳚रेव दुहे॒ अग्र॑ आय॒त्यस्य᳚ व्र॒तेष्वपि॒ सोम॑ इष्यते ||{7.2.21.1}, {9.69.1}, {9.4.2.1} |
304 | उपो᳚ म॒तिः पृ॒च्यते᳚ सि॒च्यते॒ मधु॑ म॒न्द्राज॑नी चोदते अ॒न्तरा॒सनि॑ | पव॑मानः संत॒निः प्र॑घ्न॒तामि॑व॒ मधु॑मान्द्र॒प्सः परि॒ वार॑मर्षति ||{7.2.21.2}, {9.69.2}, {9.4.2.2} |
305 | अव्ये᳚ वधू॒युः प॑वते॒ परि॑ त्व॒चि श्र॑थ्नी॒ते न॒प्तीरदि॑तेरृ॒तं य॒ते | हरि॑रक्रान्यज॒तः सं᳚य॒तो मदो᳚ नृ॒म्णा शिशा᳚नो महि॒षो न शो᳚भते ||{7.2.21.3}, {9.69.3}, {9.4.2.3} |
306 | उ॒क्षा मि॑माति॒ प्रति॑ यन्ति धे॒नवो᳚ दे॒वस्य॑ दे॒वीरुप॑ यन्ति निष्कृ॒तम् | अत्य॑क्रमी॒दर्जु॑नं॒ वार॑म॒व्यय॒मत्कं॒ न नि॒क्तं परि॒ सोमो᳚ अव्यत ||{7.2.21.4}, {9.69.4}, {9.4.2.4} |
307 | अमृ॑क्तेन॒ रुश॑ता॒ वास॑सा॒ हरि॒रम॑र्त्यो निर्णिजा॒नः परि᳚ व्यत | दि॒वस्पृ॒ष्ठं ब॒र्हणा᳚ नि॒र्णिजे᳚ कृतोप॒स्तर॑णं च॒म्वो᳚र्नभ॒स्मय᳚म् ||{7.2.21.5}, {9.69.5}, {9.4.2.5} |
308 | सूर्य॑स्येव र॒श्मयो᳚ द्रावयि॒त्नवो᳚ मत्स॒रासः॑ प्र॒सुपः॑ सा॒कमी᳚रते | तन्तुं᳚ त॒तं परि॒ सर्गा᳚स आ॒शवो॒ नेन्द्रा᳚दृ॒ते प॑वते॒ धाम॒ किं च॒न ||{7.2.22.1}, {9.69.6}, {9.4.2.6} |
309 | सिन्धो᳚रिव प्रव॒णे नि॒म्न आ॒शवो॒ वृष॑च्युता॒ मदा᳚सो गा॒तुमा᳚शत | शं नो᳚ निवे॒शे द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे॒ऽस्मे वाजाः᳚ सोम तिष्ठन्तु कृ॒ष्टयः॑ ||{7.2.22.2}, {9.69.7}, {9.4.2.7} |
310 | आ नः॑ पवस्व॒ वसु॑म॒द्धिर᳚ण्यव॒दश्वा᳚व॒द्गोम॒द्यव॑मत्सु॒वीर्य᳚म् | यू॒यं हि सो᳚म पि॒तरो॒ मम॒ स्थन॑ दि॒वो मू॒र्धानः॒ प्रस्थि॑ता वय॒स्कृतः॑ ||{7.2.22.3}, {9.69.8}, {9.4.2.8} |
311 | ए॒ते सोमाः॒ पव॑मानास॒ इन्द्रं॒ रथा᳚ इव॒ प्र य॑युः सा॒तिमच्छ॑ | सु॒ताः प॒वित्र॒मति॑ य॒न्त्यव्यं᳚ हि॒त्वी व॒व्रिं ह॒रितो᳚ वृ॒ष्टिमच्छ॑ ||{7.2.22.4}, {9.69.9}, {9.4.2.9} |
312 | इन्द॒विन्द्रा᳚य बृह॒ते प॑वस्व सुमृळी॒को अ॑नव॒द्यो रि॒शादाः᳚ | भरा᳚ च॒न्द्राणि॑ गृण॒ते वसू᳚नि दे॒वैर्द्या᳚वापृथिवी॒ प्राव॑तं नः ||{7.2.22.5}, {9.69.10}, {9.4.2.10} |
[27] (१-१०) दशर्चस्य सूक्तस्य वैश्वामित्रो रेण षिः, पवमानः सोमो देवता | (१-९) प्रथमादिनवर्चाम् जगती, (१०) दशम्याश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
313 | त्रिर॑स्मै स॒प्त धे॒नवो᳚ दुदुह्रे स॒त्यामा॒शिरं᳚ पू॒र्व्ये व्यो᳚मनि | च॒त्वार्य॒न्या भुव॑नानि नि॒र्णिजे॒ चारू᳚णि चक्रे॒ यदृ॒तैरव॑र्धत ||{7.2.23.1}, {9.70.1}, {9.4.3.1} |
314 | स भिक्ष॑माणो अ॒मृत॑स्य॒ चारु॑ण उ॒भे द्यावा॒ काव्ये᳚ना॒ वि श॑श्रथे | तेजि॑ष्ठा अ॒पो मं॒हना॒ परि᳚ व्यत॒ यदी᳚ दे॒वस्य॒ श्रव॑सा॒ सदो᳚ वि॒दुः ||{7.2.23.2}, {9.70.2}, {9.4.3.2} |
315 | ते अ॑स्य सन्तु के॒तवोऽमृ॑त्य॒वोऽदा᳚भ्यासो ज॒नुषी᳚ उ॒भे अनु॑ | येभि᳚र्नृ॒म्णा च॑ दे॒व्या᳚ च पुन॒त आदिद्राजा᳚नं म॒नना᳚ अगृभ्णत ||{7.2.23.3}, {9.70.3}, {9.4.3.3} |
316 | स मृ॒ज्यमा᳚नो द॒शभिः॑ सु॒कर्म॑भिः॒ प्र म॑ध्य॒मासु॑ मा॒तृषु॑ प्र॒मे सचा᳚ | व्र॒तानि॑ पा॒नो अ॒मृत॑स्य॒ चारु॑ण उ॒भे नृ॒चक्षा॒ अनु॑ पश्यते॒ विशौ᳚ ||{7.2.23.4}, {9.70.4}, {9.4.3.4} |
317 | स म᳚र्मृजा॒न इ᳚न्द्रि॒याय॒ धाय॑स॒ ओभे अ॒न्ता रोद॑सी हर्षते हि॒तः | वृषा॒ शुष्मे᳚ण बाधते॒ वि दु᳚र्म॒तीरा॒देदि॑शानः शर्य॒हेव॑ शु॒रुधः॑ ||{7.2.23.5}, {9.70.5}, {9.4.3.5} |
318 | स मा॒तरा॒ न ददृ॑शान उ॒स्रियो॒ नान॑ददेति म॒रुता᳚मिव स्व॒नः | जा॒नन्नृ॒तं प्र॑थ॒मं यत्स्व᳚र्णरं॒ प्रश॑स्तये॒ कम॑वृणीत सु॒क्रतुः॑ ||{7.2.24.1}, {9.70.6}, {9.4.3.6} |
319 | रु॒वति॑ भी॒मो वृ॑ष॒भस्त॑वि॒ष्यया॒ शृङ्गे॒ शिशा᳚नो॒ हरि॑णी विचक्ष॒णः | आ योनिं॒ सोमः॒ सुकृ॑तं॒ नि षी᳚दति ग॒व्ययी॒ त्वग्भ॑वति नि॒र्णिग॒व्ययी᳚ ||{7.2.24.2}, {9.70.7}, {9.4.3.7} |
320 | शुचिः॑ पुना॒नस्त॒न्व॑मरे॒पस॒मव्ये॒ हरि॒र्न्य॑धाविष्ट॒ सान॑वि | जुष्टो᳚ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय वा॒यवे᳚ त्रि॒धातु॒ मधु॑ क्रियते सु॒कर्म॑भिः ||{7.2.24.3}, {9.70.8}, {9.4.3.8} |
321 | पव॑स्व सोम दे॒ववी᳚तये॒ वृषेन्द्र॑स्य॒ हार्दि॑ सोम॒धान॒मा वि॑श | पु॒रा नो᳚ बा॒धाद्दु॑रि॒ताति॑ पारय क्षेत्र॒विद्धि दिश॒ आहा᳚ विपृच्छ॒ते ||{7.2.24.4}, {9.70.9}, {9.4.3.9} |
322 | हि॒तो न सप्ति॑र॒भि वाज॑म॒र्षेन्द्र॑स्येन्दो ज॒ठर॒मा प॑वस्व | ना॒वा न सिन्धु॒मति॑ पर्षि वि॒द्वाञ्छूरो॒ न युध्य॒न्नव॑ नो नि॒दः स्पः॑ ||{7.2.24.5}, {9.70.10}, {9.4.3.10} |
[28] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्य वैश्वामित्र ऋभव ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | (१-८) प्रथमाद्यश्टर्चाम् जगती, (९) नवम्याश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
323 | आ दक्षि॑णा सृज्यते शु॒ष्म्या॒३॑(आ॒)सदं॒ वेति॑ द्रु॒हो र॒क्षसः॑ पाति॒ जागृ॑विः | हरि॑रोप॒शं कृ॑णुते॒ नभ॒स्पय॑ उप॒स्तिरे᳚ च॒म्वो॒३॑(ओ॒)र्ब्रह्म॑ नि॒र्णिजे᳚ ||{7.2.25.1}, {9.71.1}, {9.4.4.1} |
324 | प्र कृ॑ष्टि॒हेव॑ शू॒ष ए᳚ति॒ रोरु॑वदसु॒र्य१॑(अ॒) अंवर्णं॒ नि रि॑णीते अस्य॒ तम् | जहा᳚ति व॒व्रिं पि॒तुरे᳚ति निष्कृ॒तमु॑प॒प्रुतं᳚ कृणुते नि॒र्णिजं॒ तना᳚ ||{7.2.25.2}, {9.71.2}, {9.4.4.2} |
325 | अद्रि॑भिः सु॒तः प॑वते॒ गभ॑स्त्योर्वृषा॒यते॒ नभ॑सा॒ वेप॑ते म॒ती | स मो᳚दते॒ नस॑ते॒ साध॑ते गि॒रा ने᳚नि॒क्ते अ॒प्सु यज॑ते॒ परी᳚मणि ||{7.2.25.3}, {9.71.3}, {9.4.4.3} |
326 | परि॑ द्यु॒क्षं सह॑सः पर्वता॒वृधं॒ मध्वः॑ सिञ्चन्ति ह॒र्म्यस्य॑ स॒क्षणि᳚म् | आ यस्मि॒न्गावः॑ सुहु॒ताद॒ ऊध॑नि मू॒र्धञ्छ्री॒णन्त्य॑ग्रि॒यं वरी᳚मभिः ||{7.2.25.4}, {9.71.4}, {9.4.4.4} |
327 | समी॒ रथं॒ न भु॒रिजो᳚रहेषत॒ दश॒ स्वसा᳚रो॒ अदि॑तेरु॒पस्थ॒ आ | जिगा॒दुप॑ ज्रयति॒ गोर॑पी॒च्यं᳚ प॒दं यद॑स्य म॒तुथा॒ अजी᳚जनन् ||{7.2.25.5}, {9.71.5}, {9.4.4.5} |
328 | श्ये॒नो न योनिं॒ सद॑नं धि॒या कृ॒तं हि॑र॒ण्यय॑मा॒सदं᳚ दे॒व एष॑ति | ए रि॑णन्ति ब॒र्हिषि॑ प्रि॒यं गि॒राश्वो॒ न दे॒वाँ अप्ये᳚ति य॒ज्ञियः॑ ||{7.2.26.1}, {9.71.6}, {9.4.4.6} |
329 | परा॒ व्य॑क्तो अरु॒षो दि॒वः क॒विर्वृषा᳚ त्रिपृ॒ष्ठो अ॑नविष्ट॒ गा अ॒भि | स॒हस्र॑णीति॒र्यतिः॑ परा॒यती᳚ रे॒भो न पू॒र्वीरु॒षसो॒ वि रा᳚जति ||{7.2.26.2}, {9.71.7}, {9.4.4.7} |
330 | त्वे॒षं रू॒पं कृ॑णुते॒ वर्णो᳚ अस्य॒ स यत्राश॑य॒त्समृ॑ता॒ सेध॑ति स्रि॒धः | अ॒प्सा या᳚ति स्व॒धया॒ दैव्यं॒ जनं॒ सं सु॑ष्टु॒ती नस॑ते॒ सं गोअ॑ग्रया ||{7.2.26.3}, {9.71.8}, {9.4.4.8} |
331 | उ॒क्षेव॑ यू॒था प॑रि॒यन्न॑रावी॒दधि॒ त्विषी᳚रधित॒ सूर्य॑स्य | दि॒व्यः सु॑प॒र्णोऽव॑ चक्षत॒ क्षां सोमः॒ परि॒ क्रतु॑ना पश्यते॒ जाः ||{7.2.26.4}, {9.71.9}, {9.4.4.9} |
[29] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरसो हरिमन्त ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | जगती छन्दः || | |
332 | हरिं᳚ मृजन्त्यरु॒षो न यु॑ज्यते॒ सं धे॒नुभिः॑ क॒लशे॒ सोमो᳚ अज्यते | उद्वाच॑मी॒रय॑ति हि॒न्वते᳚ म॒ती पु॑रुष्टु॒तस्य॒ कति॑ चित्परि॒प्रियः॑ ||{7.2.27.1}, {9.72.1}, {9.4.5.1} |
333 | सा॒कं व॑दन्ति ब॒हवो᳚ मनी॒षिण॒ इन्द्र॑स्य॒ सोमं᳚ ज॒ठरे॒ यदा᳚दु॒हुः | यदी᳚ मृ॒जन्ति॒ सुग॑भस्तयो॒ नरः॒ सनी᳚ळाभिर्द॒शभिः॒ काम्यं॒ मधु॑ ||{7.2.27.2}, {9.72.2}, {9.4.5.2} |
334 | अर॑ममाणो॒ अत्ये᳚ति॒ गा अ॒भि सूर्य॑स्य प्रि॒यं दु॑हि॒तुस्ति॒रो रव᳚म् | अन्व॑स्मै॒ जोष॑मभरद्विनंगृ॒सः सं द्व॒यीभिः॒ स्वसृ॑भिः क्षेति जा॒मिभिः॑ ||{7.2.27.3}, {9.72.3}, {9.4.5.3} |
335 | नृधू᳚तो॒ अद्रि॑षुतो ब॒र्हिषि॑ प्रि॒यः पति॒र्गवां᳚ प्र॒दिव॒ इन्दु॑रृ॒त्वियः॑ | पुरं᳚धिवा॒न्मनु॑षो यज्ञ॒साध॑नः॒ शुचि॑र्धि॒या प॑वते॒ सोम॑ इन्द्र ते ||{7.2.27.4}, {9.72.4}, {9.4.5.4} |
336 | नृबा॒हुभ्यां᳚ चोदि॒तो धार॑या सु॒तो᳚ऽनुष्व॒धं प॑वते॒ सोम॑ इन्द्र ते | आप्राः॒ क्रतू॒न्सम॑जैरध्व॒रे म॒तीर्वेर्न द्रु॒षच्च॒म्वो॒३॑(ओ॒)रास॑द॒द्धरिः॑ ||{7.2.27.5}, {9.72.5}, {9.4.5.5} |
337 | अं॒शुं दु॑हन्ति स्त॒नय᳚न्त॒मक्षि॑तं क॒विं क॒वयो॒ऽपसो᳚ मनी॒षिणः॑ | समी॒ गावो᳚ म॒तयो᳚ यन्ति सं॒यत॑ ऋ॒तस्य॒ योना॒ सद॑ने पुन॒र्भुवः॑ ||{7.2.28.1}, {9.72.6}, {9.4.5.6} |
338 | नाभा᳚ पृथि॒व्या ध॒रुणो᳚ म॒हो दि॒वो॒३॑(ओ॒)ऽपामू॒र्मौ सिन्धु॑ष्व॒न्तरु॑क्षि॒तः | इन्द्र॑स्य॒ वज्रो᳚ वृष॒भो वि॒भूव॑सुः॒ सोमो᳚ हृ॒दे प॑वते॒ चारु॑ मत्स॒रः ||{7.2.28.2}, {9.72.7}, {9.4.5.7} |
339 | स तू प॑वस्व॒ परि॒ पार्थि॑वं॒ रजः॑ स्तो॒त्रे शिक्ष᳚न्नाधून्व॒ते च॑ सुक्रतो | मा नो॒ निर्भा॒ग्वसु॑नः सादन॒स्पृशो᳚ र॒यिं पि॒शङ्गं᳚ बहु॒लं व॑सीमहि ||{7.2.28.3}, {9.72.8}, {9.4.5.8} |
340 | आ तू न॑ इन्दो श॒तदा॒त्वश्व्यं᳚ स॒हस्र॑दातु पशु॒मद्धिर᳚ण्यवत् | उप॑ मास्व बृह॒ती रे॒वती॒रिषोऽधि॑ स्तो॒त्रस्य॑ पवमान नो गहि ||{7.2.28.4}, {9.72.9}, {9.4.5.9} |
[30] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरसः पवित्र ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | जगती छन्दः || | |
341 | स्रक्वे᳚ द्र॒प्सस्य॒ धम॑तः॒ सम॑स्वरन्नृ॒तस्य॒ योना॒ सम॑रन्त॒ नाभ॑यः | त्रीन्स मू॒र्ध्नो असु॑रश्चक्र आ॒रभे᳚ स॒त्यस्य॒ नावः॑ सु॒कृत॑मपीपरन् ||{7.2.29.1}, {9.73.1}, {9.4.6.1} |
342 | स॒म्यक्स॒म्यञ्चो᳚ महि॒षा अ॑हेषत॒ सिन्धो᳚रू॒र्मावधि॑ वे॒ना अ॑वीविपन् | मधो॒र्धारा᳚भिर्ज॒नय᳚न्तो अ॒र्कमित्प्रि॒यामिन्द्र॑स्य त॒न्व॑मवीवृधन् ||{7.2.29.2}, {9.73.2}, {9.4.6.2} |
343 | प॒वित्र॑वन्तः॒ परि॒ वाच॑मासते पि॒तैषां᳚ प्र॒त्नो अ॒भि र॑क्षति व्र॒तम् | म॒हः स॑मु॒द्रं वरु॑णस्ति॒रो द॑धे॒ धीरा॒ इच्छे᳚कुर्ध॒रुणे᳚ष्वा॒रभ᳚म् ||{7.2.29.3}, {9.73.3}, {9.4.6.3} |
344 | स॒हस्र॑धा॒रेऽव॒ ते सम॑स्वरन्दि॒वो नाके॒ मधु॑जिह्वा अस॒श्चतः॑ | अस्य॒ स्पशो॒ न नि मि॑षन्ति॒ भूर्ण॑यः प॒देप॑दे पा॒शिनः॑ सन्ति॒ सेत॑वः ||{7.2.29.4}, {9.73.4}, {9.4.6.4} |
345 | पि॒तुर्मा॒तुरध्या ये स॒मस्व॑रन्नृ॒चा शोच᳚न्तः सं॒दह᳚न्तो अव्र॒तान् | इन्द्र॑द्विष्टा॒मप॑ धमन्ति मा॒यया॒ त्वच॒मसि॑क्नीं॒ भूम॑नो दि॒वस्परि॑ ||{7.2.29.5}, {9.73.5}, {9.4.6.5} |
346 | प्र॒त्नान्माना॒दध्या ये स॒मस्व॑र॒ञ्छ्लोक॑यन्त्रासो रभ॒सस्य॒ मन्त॑वः | अपा᳚न॒क्षासो᳚ बधि॒रा अ॑हासत ऋ॒तस्य॒ पन्थां॒ न त॑रन्ति दु॒ष्कृतः॑ ||{7.2.30.1}, {9.73.6}, {9.4.6.6} |
347 | स॒हस्र॑धारे॒ वित॑ते प॒वित्र॒ आ वाचं᳚ पुनन्ति क॒वयो᳚ मनी॒षिणः॑ | रु॒द्रास॑ एषामिषि॒रासो᳚ अ॒द्रुहः॒ स्पशः॒ स्वञ्चः॑ सु॒दृशो᳚ नृ॒चक्ष॑सः ||{7.2.30.2}, {9.73.7}, {9.4.6.7} |
348 | ऋ॒तस्य॑ गो॒पा न दभा᳚य सु॒क्रतु॒स्त्री ष प॒वित्रा᳚ हृ॒द्य१॑(अ॒)'न्तरा द॑धे | वि॒द्वान्स विश्वा॒ भुव॑ना॒भि प॑श्य॒त्यवाजु॑ष्टान्विध्यति क॒र्ते अ᳚व्र॒तान् ||{7.2.30.3}, {9.73.8}, {9.4.6.8} |
349 | ऋ॒तस्य॒ तन्तु॒र्वित॑तः प॒वित्र॒ आ जि॒ह्वाया॒ अग्रे॒ वरु॑णस्य मा॒यया᳚ | धीरा᳚श्चि॒त्तत्स॒मिन॑क्षन्त आश॒तात्रा᳚ क॒र्तमव॑ पदा॒त्यप्र॑भुः ||{7.2.30.4}, {9.73.9}, {9.4.6.9} |
[31] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्य दैर्घतमसः कक्षीवान् ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | (१-७, ९) प्रथमादिसप्तर्चाम् नवम्याश्च जगती, (८) अष्टम्याश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
350 | शिशु॒र्न जा॒तोऽव॑ चक्रद॒द्वने॒ स्व१॑(अ॒)'र्यद्वा॒ज्य॑रु॒षः सिषा᳚सति | दि॒वो रेत॑सा सचते पयो॒वृधा॒ तमी᳚महे सुम॒ती शर्म॑ स॒प्रथः॑ ||{7.2.31.1}, {9.74.1}, {9.4.7.1} |
351 | दि॒वो यः स्क॒म्भो ध॒रुणः॒ स्वा᳚तत॒ आपू᳚र्णो अं॒शुः प॒र्येति॑ वि॒श्वतः॑ | सेमे म॒ही रोद॑सी यक्षदा॒वृता᳚ समीची॒ने दा᳚धार॒ समिषः॑ क॒विः ||{7.2.31.2}, {9.74.2}, {9.4.7.2} |
352 | महि॒ प्सरः॒ सुकृ॑तं सो॒म्यं मधू॒र्वी गव्यू᳚ति॒रदि॑तेरृ॒तं य॒ते | ईशे॒ यो वृ॒ष्टेरि॒त उ॒स्रियो॒ वृषा॒पां ने॒ता य इ॒तऊ᳚तिरृ॒ग्मियः॑ ||{7.2.31.3}, {9.74.3}, {9.4.7.3} |
353 | आ॒त्म॒न्वन्नभो᳚ दुह्यते घृ॒तं पय॑ ऋ॒तस्य॒ नाभि॑र॒मृतं॒ वि जा᳚यते | स॒मी॒ची॒नाः सु॒दान॑वः प्रीणन्ति॒ तं नरो᳚ हि॒तमव॑ मेहन्ति॒ पेर॑वः ||{7.2.31.4}, {9.74.4}, {9.4.7.4} |
354 | अरा᳚वीदं॒शुः सच॑मान ऊ॒र्मिणा᳚ देवा॒व्य१॑(अ॒) अंमनु॑षे पिन्वति॒ त्वच᳚म् | दधा᳚ति॒ गर्भ॒मदि॑तेरु॒पस्थ॒ आ येन॑ तो॒कं च॒ तन॑यं च॒ धाम॑हे ||{7.2.31.5}, {9.74.5}, {9.4.7.5} |
355 | स॒हस्र॑धा॒रेऽव॒ ता अ॑स॒श्चत॑स्तृ॒तीये᳚ सन्तु॒ रज॑सि प्र॒जाव॑तीः | चत॑स्रो॒ नाभो॒ निहि॑ता अ॒वो दि॒वो ह॒विर्भ॑रन्त्य॒मृतं᳚ घृत॒श्चुतः॑ ||{7.2.32.1}, {9.74.6}, {9.4.7.6} |
356 | श्वे॒तं रू॒पं कृ॑णुते॒ यत्सिषा᳚सति॒ सोमो᳚ मी॒ढ्वाँ असु॑रो वेद॒ भूम॑नः | धि॒या शमी᳚ सचते॒ सेम॒भि प्र॒वद्दि॒वस्कव᳚न्ध॒मव॑ दर्षदु॒द्रिण᳚म् ||{7.2.32.2}, {9.74.7}, {9.4.7.7} |
357 | अध॑ श्वे॒तं क॒लशं॒ गोभि॑र॒क्तं कार्ष्म॒न्ना वा॒ज्य॑क्रमीत्सस॒वान् | आ हि᳚न्विरे॒ मन॑सा देव॒यन्तः॑ क॒क्षीव॑ते श॒तहि॑माय॒ गोना᳚म् ||{7.2.32.3}, {9.74.8}, {9.4.7.8} |
358 | अ॒द्भिः सो᳚म पपृचा॒नस्य॑ ते॒ रसोऽव्यो॒ वारं॒ वि प॑वमान धावति | स मृ॒ज्यमा᳚नः क॒विभि᳚र्मदिन्तम॒ स्वद॒स्वेन्द्रा᳚य पवमान पी॒तये᳚ ||{7.2.32.4}, {9.74.9}, {9.4.7.9} |
[32] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य भार्गवः कवि (ऋषिः), पवमानः सोमो देवता | जगती छन्दः || | |
359 | अ॒भि प्रि॒याणि॑ पवते॒ चनो᳚हितो॒ नामा᳚नि य॒ह्वो अधि॒ येषु॒ वर्ध॑ते | आ सूर्य॑स्य बृह॒तो बृ॒हन्नधि॒ रथं॒ विष्व᳚ञ्चमरुहद्विचक्ष॒णः ||{7.2.33.1}, {9.75.1}, {9.4.8.1} |
360 | ऋ॒तस्य॑ जि॒ह्वा प॑वते॒ मधु॑ प्रि॒यं व॒क्ता पति॑र्धि॒यो अ॒स्या अदा᳚भ्यः | दधा᳚ति पु॒त्रः पि॒त्रोर॑पी॒च्य१॑(अ॒) अंनाम॑ तृ॒तीय॒मधि॑ रोच॒ने दि॒वः ||{7.2.33.2}, {9.75.2}, {9.4.8.2} |
361 | अव॑ द्युता॒नः क॒लशाँ᳚ अचिक्रद॒न्नृभि᳚र्येमा॒नः कोश॒ आ हि॑र॒ण्यये᳚ | अ॒भीमृ॒तस्य॑ दो॒हना᳚ अनूष॒ताधि॑ त्रिपृ॒ष्ठ उ॒षसो॒ वि रा᳚जति ||{7.2.33.3}, {9.75.3}, {9.4.8.3} |
362 | अद्रि॑भिः सु॒तो म॒तिभि॒श्चनो᳚हितः प्ररो॒चय॒न्रोद॑सी मा॒तरा॒ शुचिः॑ | रोमा॒ण्यव्या᳚ स॒मया॒ वि धा᳚वति॒ मधो॒र्धारा॒ पिन्व॑माना दि॒वेदि॑वे ||{7.2.33.4}, {9.75.4}, {9.4.8.4} |
363 | परि॑ सोम॒ प्र ध᳚न्वा स्व॒स्तये॒ नृभिः॑ पुना॒नो अ॒भि वा᳚सया॒शिर᳚म् | ये ते॒ मदा᳚ आह॒नसो॒ विहा᳚यस॒स्तेभि॒रिन्द्रं᳚ चोदय॒ दात॑वे म॒घम् ||{7.2.33.5}, {9.75.5}, {9.4.8.5} |
[33] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य भार्गवः कवि ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | जगती छन्दः || | |
364 | ध॒र्ता दि॒वः प॑वते॒ कृत्व्यो॒ रसो॒ दक्षो᳚ दे॒वाना᳚मनु॒माद्यो॒ नृभिः॑ | हरिः॑ सृजा॒नो अत्यो॒ न सत्व॑भि॒र्वृथा॒ पाजां᳚सि कृणुते न॒दीष्वा ||{7.3.1.1}, {9.76.1}, {9.4.9.1} |
365 | शूरो॒ न ध॑त्त॒ आयु॑धा॒ गभ॑स्त्योः॒ स्व१॑(अ॒)ः सिषा᳚सन्रथि॒रो गवि॑ष्टिषु | इन्द्र॑स्य॒ शुष्म॑मी॒रय᳚न्नप॒स्युभि॒रिन्दु॑र्हिन्वा॒नो अ॑ज्यते मनी॒षिभिः॑ ||{7.3.1.2}, {9.76.2}, {9.4.9.2} |
366 | इन्द्र॑स्य सोम॒ पव॑मान ऊ॒र्मिणा᳚ तवि॒ष्यमा᳚णो ज॒ठरे॒ष्वा वि॑श | प्र णः॑ पिन्व वि॒द्युद॒भ्रेव॒ रोद॑सी धि॒या न वाजाँ॒ उप॑ मासि॒ शश्व॑तः ||{7.3.1.3}, {9.76.3}, {9.4.9.3} |
367 | विश्व॑स्य॒ राजा᳚ पवते स्व॒र्दृश॑ ऋ॒तस्य॑ धी॒तिमृ॑षि॒षाळ॑वीवशत् | यः सूर्य॒स्यासि॑रेण मृ॒ज्यते᳚ पि॒ता म॑ती॒नामस॑मष्टकाव्यः ||{7.3.1.4}, {9.76.4}, {9.4.9.4} |
368 | वृषे᳚व यू॒था परि॒ कोश॑मर्षस्य॒पामु॒पस्थे᳚ वृष॒भः कनि॑क्रदत् | स इन्द्रा᳚य पवसे मत्स॒रिन्त॑मो॒ यथा॒ जेषा᳚म समि॒थे त्वोत॑यः ||{7.3.1.5}, {9.76.5}, {9.4.9.5} |
[34] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य भार्गवः कवि (ऋषिः), पवमानः सोमो देवता | जगती छन्दः || | |
369 | ए॒ष प्र कोशे॒ मधु॑माँ अचिक्रद॒दिन्द्र॑स्य॒ वज्रो॒ वपु॑षो॒ वपु॑ष्टरः | अ॒भीमृ॒तस्य॑ सु॒दुघा᳚ घृत॒श्चुतो᳚ वा॒श्रा अ॑र्षन्ति॒ पय॑सेव धे॒नवः॑ ||{7.3.2.1}, {9.77.1}, {9.4.10.1} |
370 | स पू॒र्व्यः प॑वते॒ यं दि॒वस्परि॑ श्ये॒नो म॑था॒यदि॑षि॒तस्ति॒रो रजः॑ | स मध्व॒ आ यु॑वते॒ वेवि॑जान॒ इत्कृ॒शानो॒रस्तु॒र्मन॒साह॑ बि॒भ्युषा᳚ ||{7.3.2.2}, {9.77.2}, {9.4.10.2} |
371 | ते नः॒ पूर्वा᳚स॒ उप॑रास॒ इन्द॑वो म॒हे वाजा᳚य धन्वन्तु॒ गोम॑ते | ई॒क्षे॒ण्या᳚सो अ॒ह्यो॒३॑(ओ॒) न चार॑वो॒ ब्रह्म॑ब्रह्म॒ ये जु॑जु॒षुर्ह॒विर्ह॑विः ||{7.3.2.3}, {9.77.3}, {9.4.10.3} |
372 | अ॒यं नो᳚ वि॒द्वान्व॑नवद्वनुष्य॒त इन्दुः॑ स॒त्राचा॒ मन॑सा पुरुष्टु॒तः | इ॒नस्य॒ यः सद॑ने॒ गर्भ॑माद॒धे गवा᳚मुरु॒ब्जम॒भ्यर्ष॑ति व्र॒जम् ||{7.3.2.4}, {9.77.4}, {9.4.10.4} |
373 | चक्रि॑र्दि॒वः प॑वते॒ कृत्व्यो॒ रसो᳚ म॒हाँ अद॑ब्धो॒ वरु॑णो हु॒रुग्य॒ते | असा᳚वि मि॒त्रो वृ॒जने᳚षु य॒ज्ञियोऽत्यो॒ न यू॒थे वृ॑ष॒युः कनि॑क्रदत् ||{7.3.2.5}, {9.77.5}, {9.4.10.5} |
[35] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य भार्गवः कवि (ऋषिः), पवमानः सोमो देवता | जगती छन्दः || | |
374 | प्र राजा॒ वाचं᳚ ज॒नय᳚न्नसिष्यदद॒पो वसा᳚नो अ॒भि गा इ॑यक्षति | गृ॒भ्णाति॑ रि॒प्रमवि॑रस्य॒ तान्वा᳚ शु॒द्धो दे॒वाना॒मुप॑ याति निष्कृ॒तम् ||{7.3.3.1}, {9.78.1}, {9.4.11.1} |
375 | इन्द्रा᳚य सोम॒ परि॑ षिच्यसे॒ नृभि᳚र्नृ॒चक्षा᳚ ऊ॒र्मिः क॒विर॑ज्यसे॒ वने᳚ | पू॒र्वीर्हि ते᳚ स्रु॒तयः॒ सन्ति॒ यात॑वे स॒हस्र॒मश्वा॒ हर॑यश्चमू॒षदः॑ ||{7.3.3.2}, {9.78.2}, {9.4.11.2} |
376 | स॒मु॒द्रिया᳚ अप्स॒रसो᳚ मनी॒षिण॒मासी᳚ना अ॒न्तर॒भि सोम॑मक्षरन् | ता ईं᳚ हिन्वन्ति ह॒र्म्यस्य॑ स॒क्षणिं॒ याच᳚न्ते सु॒म्नं पव॑मान॒मक्षि॑तम् ||{7.3.3.3}, {9.78.3}, {9.4.11.3} |
377 | गो॒जिन्नः॒ सोमो᳚ रथ॒जिद्धि॑रण्य॒जित्स्व॒र्जिद॒ब्जित्प॑वते सहस्र॒जित् | यं दे॒वास॑श्चक्रि॒रे पी॒तये॒ मदं॒ स्वादि॑ष्ठं द्र॒प्सम॑रु॒णं म॑यो॒भुव᳚म् ||{7.3.3.4}, {9.78.4}, {9.4.11.4} |
378 | ए॒तानि॑ सोम॒ पव॑मानो अस्म॒युः स॒त्यानि॑ कृ॒ण्वन्द्रवि॑णान्यर्षसि | ज॒हि शत्रु॑मन्ति॒के दू᳚र॒के च॒ य उ॒र्वीं गव्यू᳚ति॒मभ॑यं च नस्कृधि ||{7.3.3.5}, {9.78.5}, {9.4.11.5} |
[36] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य भार्गवः कवि (ऋषिः), पवमानः सोमो देवता | जगती छन्दः || | |
379 | अ॒चो॒दसो᳚ नो धन्व॒न्त्विन्द॑वः॒ प्र सु॑वा॒नासो᳚ बृ॒हद्दि॑वेषु॒ हर॑यः | वि च॒ नश᳚न्न इ॒षो अरा᳚तयो॒ऽर्यो न॑शन्त॒ सनि॑षन्त नो॒ धियः॑ ||{7.3.4.1}, {9.79.1}, {9.4.12.1} |
380 | प्र णो᳚ धन्व॒न्त्विन्द॑वो मद॒च्युतो॒ धना᳚ वा॒ येभि॒रर्व॑तो जुनी॒मसि॑ | ति॒रो मर्त॑स्य॒ कस्य॑ चि॒त्परि॑ह्वृतिं व॒यं धना᳚नि वि॒श्वधा᳚ भरेमहि ||{7.3.4.2}, {9.79.2}, {9.4.12.2} |
381 | उ॒त स्वस्या॒ अरा᳚त्या अ॒रिर्हि ष उ॒तान्यस्या॒ अरा᳚त्या॒ वृको॒ हि षः | धन्व॒न्न तृष्णा॒ सम॑रीत॒ ताँ अ॒भि सोम॑ ज॒हि प॑वमान दुरा॒ध्यः॑ ||{7.3.4.3}, {9.79.3}, {9.4.12.3} |
382 | दि॒वि ते॒ नाभा᳚ पर॒मो य आ᳚द॒दे पृ॑थि॒व्यास्ते᳚ रुरुहुः॒ सान॑वि॒ क्षिपः॑ | अद्र॑यस्त्वा बप्सति॒ गोरधि॑ त्व॒च्य१॑(अ॒)प्सु त्वा॒ हस्तै᳚र्दुदुहुर्मनी॒षिणः॑ ||{7.3.4.4}, {9.79.4}, {9.4.12.4} |
383 | ए॒वा त॑ इन्दो सु॒भ्वं᳚ सु॒पेश॑सं॒ रसं᳚ तुञ्जन्ति प्रथ॒मा अ॑भि॒श्रियः॑ | निदं᳚निदं पवमान॒ नि ता᳚रिष आ॒विस्ते॒ शुष्मो᳚ भवतु प्रि॒यो मदः॑ ||{7.3.4.5}, {9.79.5}, {9.4.12.5} |
[37] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य भारद्वाजो वसु ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | जगती छन्दः || | |
384 | सोम॑स्य॒ धारा᳚ पवते नृ॒चक्ष॑स ऋ॒तेन॑ दे॒वान्ह॑वते दि॒वस्परि॑ | बृह॒स्पते᳚ र॒वथे᳚ना॒ वि दि॑द्युते समु॒द्रासो॒ न सव॑नानि विव्यचुः ||{7.3.5.1}, {9.80.1}, {9.4.13.1} |
385 | यं त्वा᳚ वाजिन्न॒घ्न्या अ॒भ्यनू᳚ष॒तायो᳚हतं॒ योनि॒मा रो᳚हसि द्यु॒मान् | म॒घोना॒मायुः॑ प्रति॒रन्महि॒ श्रव॒ इन्द्रा᳚य सोम पवसे॒ वृषा॒ मदः॑ ||{7.3.5.2}, {9.80.2}, {9.4.13.2} |
386 | एन्द्र॑स्य कु॒क्षा प॑वते म॒दिन्त॑म॒ ऊर्जं॒ वसा᳚नः॒ श्रव॑से सुम॒ङ्गलः॑ | प्र॒त्यङ्स विश्वा॒ भुव॑ना॒भि प॑प्रथे॒ क्रीळ॒न्हरि॒रत्यः॑ स्यन्दते॒ वृषा᳚ ||{7.3.5.3}, {9.80.3}, {9.4.13.3} |
387 | तं त्वा᳚ दे॒वेभ्यो॒ मधु॑मत्तमं॒ नरः॑ स॒हस्र॑धारं दुहते॒ दश॒ क्षिपः॑ | नृभिः॑ सोम॒ प्रच्यु॑तो॒ ग्राव॑भिः सु॒तो विश्वा᳚न्दे॒वाँ आ प॑वस्वा सहस्रजित् ||{7.3.5.4}, {9.80.4}, {9.4.13.4} |
388 | तं त्वा᳚ ह॒स्तिनो॒ मधु॑मन्त॒मद्रि॑भिर्दु॒हन्त्य॒प्सु वृ॑ष॒भं दश॒ क्षिपः॑ | इन्द्रं᳚ सोम मा॒दय॒न्दैव्यं॒ जनं॒ सिन्धो᳚रिवो॒र्मिः पव॑मानो अर्षसि ||{7.3.5.5}, {9.80.5}, {9.4.13.5} |
[38] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य भारद्वाजो वसु ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | (१-४) प्रथमादिचतुर्ऋचामा आं जगती, (५) पञ्चम्याश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
389 | प्र सोम॑स्य॒ पव॑मानस्यो॒र्मय॒ इन्द्र॑स्य यन्ति ज॒ठरं᳚ सु॒पेश॑सः | द॒ध्ना यदी॒मुन्नी᳚ता य॒शसा॒ गवां᳚ दा॒नाय॒ शूर॑मु॒दम᳚न्दिषुः सु॒ताः ||{7.3.6.1}, {9.81.1}, {9.4.14.1} |
390 | अच्छा॒ हि सोमः॑ क॒लशाँ॒ असि॑ष्यद॒दत्यो॒ न वोळ्हा᳚ र॒घुव॑र्तनि॒र्वृषा᳚ | अथा᳚ दे॒वाना᳚मु॒भय॑स्य॒ जन्म॑नो वि॒द्वाँ अ॑श्नोत्य॒मुत॑ इ॒तश्च॒ यत् ||{7.3.6.2}, {9.81.2}, {9.4.14.2} |
391 | आ नः॑ सोम॒ पव॑मानः किरा॒ वस्विन्दो॒ भव॑ म॒घवा॒ राध॑सो म॒हः | शिक्षा᳚ वयोधो॒ वस॑वे॒ सु चे॒तुना॒ मा नो॒ गय॑मा॒रे अ॒स्मत्परा᳚ सिचः ||{7.3.6.3}, {9.81.3}, {9.4.14.3} |
392 | आ नः॑ पू॒षा पव॑मानः सुरा॒तयो᳚ मि॒त्रो ग॑च्छन्तु॒ वरु॑णः स॒जोष॑सः | बृह॒स्पति᳚र्म॒रुतो᳚ वा॒युर॒श्विना॒ त्वष्टा᳚ सवि॒ता सु॒यमा॒ सर॑स्वती ||{7.3.6.4}, {9.81.4}, {9.4.14.4} |
393 | उ॒भे द्यावा᳚पृथि॒वी वि॑श्वमि॒न्वे अ᳚र्य॒मा दे॒वो अदि॑तिर्विधा॒ता | भगो॒ नृशंस॑ उ॒र्व१॑(अ॒)'न्तरि॑क्षं॒ विश्वे᳚ दे॒वाः पव॑मानं जुषन्त ||{7.3.6.5}, {9.81.5}, {9.4.14.5} |
[39] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य भारद्वाजो वसु (ऋषिः), पवमानः सोमो देवता | (१-४) प्रथमादिचतुर्ऋचाम् जगती, (५) पञ्चम्याश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
394 | असा᳚वि॒ सोमो᳚ अरु॒षो वृषा॒ हरी॒ राजे᳚व द॒स्मो अ॒भि गा अ॑चिक्रदत् | पु॒ना॒नो वारं॒ पर्ये᳚त्य॒व्ययं᳚ श्ये॒नो न योनिं᳚ घृ॒तव᳚न्तमा॒सद᳚म् ||{7.3.7.1}, {9.82.1}, {9.4.15.1} |
395 | क॒विर्वे᳚ध॒स्या पर्ये᳚षि॒ माहि॑न॒मत्यो॒ न मृ॒ष्टो अ॒भि वाज॑मर्षसि | अ॒प॒सेध᳚न्दुरि॒ता सो᳚म मृळय घृ॒तं वसा᳚नः॒ परि॑ यासि नि॒र्णिज᳚म् ||{7.3.7.2}, {9.82.2}, {9.4.15.2} |
396 | प॒र्जन्यः॑ पि॒ता म॑हि॒षस्य॑ प॒र्णिनो॒ नाभा᳚ पृथि॒व्या गि॒रिषु॒ क्षयं᳚ दधे | स्वसा᳚र॒ आपो᳚ अ॒भि गा उ॒तास॑र॒न्सं ग्राव॑भिर्नसते वी॒ते अ॑ध्व॒रे ||{7.3.7.3}, {9.82.3}, {9.4.15.3} |
397 | जा॒येव॒ पत्या॒वधि॒ शेव॑ मंहसे॒ पज्रा᳚या गर्भ शृणु॒हि ब्रवी᳚मि ते | अ॒न्तर्वाणी᳚षु॒ प्र च॑रा॒ सु जी॒वसे᳚ऽनि॒न्द्यो वृ॒जने᳚ सोम जागृहि ||{7.3.7.4}, {9.82.4}, {9.4.15.4} |
398 | यथा॒ पूर्वे᳚भ्यः शत॒सा अमृ॑ध्रः सहस्र॒साः प॒र्यया॒ वाज॑मिन्दो | ए॒वा प॑वस्व सुवि॒ताय॒ नव्य॑से॒ तव᳚ व्र॒तमन्वापः॑ सचन्ते ||{7.3.7.5}, {9.82.5}, {9.4.15.5} |
[40] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरसः पवित्र ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | जगती छन्दः || | |
399 | प॒वित्रं᳚ ते॒ वित॑तं ब्रह्मणस्पते प्र॒भुर्गात्रा᳚णि॒ पर्ये᳚षि वि॒श्वतः॑ | अत॑प्ततनू॒र्न तदा॒मो अ॑श्नुते शृ॒तास॒ इद्वह᳚न्त॒स्तत्समा᳚शत ||{7.3.8.1}, {9.83.1}, {9.4.16.1} |
400 | तपो᳚ष्प॒वित्रं॒ वित॑तं दि॒वस्प॒दे शोच᳚न्तो अस्य॒ तन्त॑वो॒ व्य॑स्थिरन् | अव᳚न्त्यस्य पवी॒तार॑मा॒शवो᳚ दि॒वस्पृ॒ष्ठमधि॑ तिष्ठन्ति॒ चेत॑सा ||{7.3.8.2}, {9.83.2}, {9.4.16.2} |
401 | अरू᳚रुचदु॒षसः॒ पृश्नि॑रग्रि॒य उ॒क्षा बि॑भर्ति॒ भुव॑नानि वाज॒युः | मा॒या॒विनो᳚ ममिरे अस्य मा॒यया᳚ नृ॒चक्ष॑सः पि॒तरो॒ गर्भ॒मा द॑धुः ||{7.3.8.3}, {9.83.3}, {9.4.16.3} |
402 | ग॒न्ध॒र्व इ॒त्था प॒दम॑स्य रक्षति॒ पाति॑ दे॒वानां॒ जनि॑मा॒न्यद्भु॑तः | गृ॒भ्णाति॑ रि॒पुं नि॒धया᳚ नि॒धाप॑तिः सु॒कृत्त॑मा॒ मधु॑नो भ॒क्षमा᳚शत ||{7.3.8.4}, {9.83.4}, {9.4.16.4} |
403 | ह॒विर्ह॑विष्मो॒ महि॒ सद्म॒ दैव्यं॒ नभो॒ वसा᳚नः॒ परि॑ यास्यध्व॒रम् | राजा᳚ प॒वित्र॑रथो॒ वाज॒मारु॑हः स॒हस्र॑भृष्टिर्जयसि॒ श्रवो᳚ बृ॒हत् ||{7.3.8.5}, {9.83.5}, {9.4.16.5} |
[41] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य वाच्यः प्रजापतिषिः, पवमानः सोमो देवता | जगती छन्दः || | |
404 | पव॑स्व देव॒माद॑नो॒ विच॑र्षणिर॒प्सा इन्द्रा᳚य॒ वरु॑णाय वा॒यवे᳚ | कृ॒धी नो᳚ अ॒द्य वरि॑वः स्वस्ति॒मदु॑रुक्षि॒तौ गृ॑णीहि॒ दैव्यं॒ जन᳚म् ||{7.3.9.1}, {9.84.1}, {9.4.17.1} |
405 | आ यस्त॒स्थौ भुव॑ना॒न्यम॑र्त्यो॒ विश्वा᳚नि॒ सोमः॒ परि॒ तान्य॑र्षति | कृ॒ण्वन्सं॒चृतं᳚ वि॒चृत॑म॒भिष्ट॑य॒ इन्दुः॑ सिषक्त्यु॒षसं॒ न सूर्यः॑ ||{7.3.9.2}, {9.84.2}, {9.4.17.2} |
406 | आ यो गोभिः॑ सृ॒ज्यत॒ ओष॑धी॒ष्वा दे॒वानां᳚ सु॒म्न इ॒षय॒न्नुपा᳚वसुः | आ वि॒द्युता᳚ पवते॒ धार॑या सु॒त इन्द्रं॒ सोमो᳚ मा॒दय॒न्दैव्यं॒ जन᳚म् ||{7.3.9.3}, {9.84.3}, {9.4.17.3} |
407 | ए॒ष स्य सोमः॑ पवते सहस्र॒जिद्धि᳚न्वा॒नो वाच॑मिषि॒रामु॑ष॒र्बुध᳚म् | इन्दुः॑ समु॒द्रमुदि॑यर्ति वा॒युभि॒रेन्द्र॑स्य॒ हार्दि॑ क॒लशे᳚षु सीदति ||{7.3.9.4}, {9.84.4}, {9.4.17.4} |
408 | अ॒भि त्यं गावः॒ पय॑सा पयो॒वृधं॒ सोमं᳚ श्रीणन्ति म॒तिभिः॑ स्व॒र्विद᳚म् | ध॒नं॒ज॒यः प॑वते॒ कृत्व्यो॒ रसो॒ विप्रः॑ क॒विः काव्ये᳚ना॒ स्व॑र्चनाः ||{7.3.9.5}, {9.84.5}, {9.4.17.5} |
[42] (१-१२) द्वादशर्चस्य सूक्तस्य भार्गवो वेन ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | (१-१०) प्रथमादिदश! जगती, (११-१२) एकादशीद्वादश्योश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
409 | इन्द्रा᳚य सोम॒ सुषु॑तः॒ परि॑ स्र॒वापामी᳚वा भवतु॒ रक्ष॑सा स॒ह | मा ते॒ रस॑स्य मत्सत द्वया॒विनो॒ द्रवि॑णस्वन्त इ॒ह स॒न्त्विन्द॑वः ||{7.3.10.1}, {9.85.1}, {9.4.18.1} |
410 | अ॒स्मान्स॑म॒र्ये प॑वमान चोदय॒ दक्षो᳚ दे॒वाना॒मसि॒ हि प्रि॒यो मदः॑ | ज॒हि शत्रूँ᳚र॒भ्या भ᳚न्दनाय॒तः पिबे᳚न्द्र॒ सोम॒मव॑ नो॒ मृधो᳚ जहि ||{7.3.10.2}, {9.85.2}, {9.4.18.2} |
411 | अद॑ब्ध इन्दो पवसे म॒दिन्त॑म आ॒त्मेन्द्र॑स्य भवसि धा॒सिरु॑त्त॒मः | अ॒भि स्व॑रन्ति ब॒हवो᳚ मनी॒षिणो॒ राजा᳚नम॒स्य भुव॑नस्य निंसते ||{7.3.10.3}, {9.85.3}, {9.4.18.3} |
412 | स॒हस्र॑णीथः श॒तधा᳚रो॒ अद्भु॑त॒ इन्द्रा॒येन्दुः॑ पवते॒ काम्यं॒ मधु॑ | जय॒न्क्षेत्र॑म॒भ्य॑र्षा॒ जय᳚न्न॒प उ॒रुं नो᳚ गा॒तुं कृ॑णु सोम मीढ्वः ||{7.3.10.4}, {9.85.4}, {9.4.18.4} |
413 | कनि॑क्रदत्क॒लशे॒ गोभि॑रज्यसे॒ व्य१॑(अ॒)'व्ययं᳚ स॒मया॒ वार॑मर्षसि | म॒र्मृ॒ज्यमा᳚नो॒ अत्यो॒ न सा᳚न॒सिरिन्द्र॑स्य सोम ज॒ठरे॒ सम॑क्षरः ||{7.3.10.5}, {9.85.5}, {9.4.18.5} |
414 | स्वा॒दुः प॑वस्व दि॒व्याय॒ जन्म॑ने स्वा॒दुरिन्द्रा᳚य सु॒हवी᳚तुनाम्ने | स्वा॒दुर्मि॒त्राय॒ वरु॑णाय वा॒यवे॒ बृह॒स्पत॑ये॒ मधु॑माँ॒ अदा᳚भ्यः ||{7.3.11.1}, {9.85.6}, {9.4.18.6} |
415 | अत्यं᳚ मृजन्ति क॒लशे॒ दश॒ क्षिपः॒ प्र विप्रा᳚णां म॒तयो॒ वाच॑ ईरते | पव॑माना अ॒भ्य॑र्षन्ति सुष्टु॒तिमेन्द्रं᳚ विशन्ति मदि॒रास॒ इन्द॑वः ||{7.3.11.2}, {9.85.7}, {9.4.18.7} |
416 | पव॑मानो अ॒भ्य॑र्षा सु॒वीर्य॑मु॒र्वीं गव्यू᳚तिं॒ महि॒ शर्म॑ स॒प्रथः॑ | माकि᳚र्नो अ॒स्य परि॑षूतिरीश॒तेन्दो॒ जये᳚म॒ त्वया॒ धनं᳚धनम् ||{7.3.11.3}, {9.85.8}, {9.4.18.8} |
417 | अधि॒ द्याम॑स्थाद्वृष॒भो वि॑चक्ष॒णोऽरू᳚रुच॒द्वि दि॒वो रो᳚च॒ना क॒विः | राजा᳚ प॒वित्र॒मत्ये᳚ति॒ रोरु॑वद्दि॒वः पी॒यूषं᳚ दुहते नृ॒चक्ष॑सः ||{7.3.11.4}, {9.85.9}, {9.4.18.9} |
418 | दि॒वो नाके॒ मधु॑जिह्वा अस॒श्चतो᳚ वे॒ना दु॑हन्त्यु॒क्षणं᳚ गिरि॒ष्ठाम् | अ॒प्सु द्र॒प्सं वा᳚वृधा॒नं स॑मु॒द्र आ सिन्धो᳚रू॒र्मा मधु॑मन्तं प॒वित्र॒ आ ||{7.3.11.5}, {9.85.10}, {9.4.18.10} |
419 | नाके᳚ सुप॒र्णमु॑पपप्ति॒वांसं॒ गिरो᳚ वे॒नाना᳚मकृपन्त पू॒र्वीः | शिशुं᳚ रिहन्ति म॒तयः॒ पनि॑प्नतं हिर॒ण्ययं᳚ शकु॒नं क्षाम॑णि॒ स्थाम् ||{7.3.11.6}, {9.85.11}, {9.4.18.11} |
420 | ऊ॒र्ध्वो ग᳚न्ध॒र्वो अधि॒ नाके᳚ अस्था॒द्विश्वा᳚ रू॒पा प्र॑ति॒चक्षा᳚णो अस्य | भा॒नुः शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॒ व्य॑द्यौ॒त्प्रारू᳚रुच॒द्रोद॑सी मा॒तरा॒ शुचिः॑ ||{7.3.11.7}, {9.85.12}, {9.4.18.12} |
[43] (१-४८) अष्टचत्वारिंशदृचस्य सूक्तस्य (१-१०) प्रथमादिदशर्चामकृष्टा माषाः, (११-२०) एकादश्यादिदशानां सिकता निवावरी, (२१-३०) एकविंश्यादिदशानां पृश्नयोऽजाः, (३१-४०) एकत्रिंश्यादिदशानामत्रेयः, (४१४५) एकचत्वारिंश्यादिपञ्चानां भौमोऽत्रिः, (४६-४८) षट्चत्वारिंश्यादितृचस्य च भार्गवः शौनको गृत्समद (ऋषयः) पवमानः सोमो देवता | जगती छन्दः || | |
421 | प्र त॑ आ॒शवः॑ पवमान धी॒जवो॒ मदा᳚ अर्षन्ति रघु॒जा इ॑व॒ त्मना᳚ | दि॒व्याः सु॑प॒र्णा मधु॑मन्त॒ इन्द॑वो म॒दिन्त॑मासः॒ परि॒ कोश॑मासते ||{7.3.12.1}, {9.86.1}, {9.5.1.1} |
422 | प्र ते॒ मदा᳚सो मदि॒रास॑ आ॒शवोऽसृ॑क्षत॒ रथ्या᳚सो॒ यथा॒ पृथ॑क् | धे॒नुर्न व॒त्सं पय॑सा॒भि व॒ज्रिण॒मिन्द्र॒मिन्द॑वो॒ मधु॑मन्त ऊ॒र्मयः॑ ||{7.3.12.2}, {9.86.2}, {9.5.1.2} |
423 | अत्यो॒ न हि॑या॒नो अ॒भि वाज॑मर्ष स्व॒र्वित्कोशं᳚ दि॒वो अद्रि॑मातरम् | वृषा᳚ प॒वित्रे॒ अधि॒ सानो᳚ अ॒व्यये॒ सोमः॑ पुना॒न इ᳚न्द्रि॒याय॒ धाय॑से ||{7.3.12.3}, {9.86.3}, {9.5.1.3} |
424 | प्र त॒ आश्वि॑नीः पवमान धी॒जुवो᳚ दि॒व्या अ॑सृग्र॒न्पय॑सा॒ धरी᳚मणि | प्रान्तरृष॑यः॒ स्थावि॑रीरसृक्षत॒ ये त्वा᳚ मृ॒जन्त्यृ॑षिषाण वे॒धसः॑ ||{7.3.12.4}, {9.86.4}, {9.5.1.4} |
425 | विश्वा॒ धामा᳚नि विश्वचक्ष॒ ऋभ्व॑सः प्र॒भोस्ते᳚ स॒तः परि॑ यन्ति के॒तवः॑ | व्या॒न॒शिः प॑वसे सोम॒ धर्म॑भिः॒ पति॒र्विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य राजसि ||{7.3.12.5}, {9.86.5}, {9.5.1.5} |
426 | उ॒भ॒यतः॒ पव॑मानस्य र॒श्मयो᳚ ध्रु॒वस्य॑ स॒तः परि॑ यन्ति के॒तवः॑ | यदी᳚ प॒वित्रे॒ अधि॑ मृ॒ज्यते॒ हरिः॒ सत्ता॒ नि योना᳚ क॒लशे᳚षु सीदति ||{7.3.13.1}, {9.86.6}, {9.5.1.6} |
427 | य॒ज्ञस्य॑ के॒तुः प॑वते स्वध्व॒रः सोमो᳚ दे॒वाना॒मुप॑ याति निष्कृ॒तम् | स॒हस्र॑धारः॒ परि॒ कोश॑मर्षति॒ वृषा᳚ प॒वित्र॒मत्ये᳚ति॒ रोरु॑वत् ||{7.3.13.2}, {9.86.7}, {9.5.1.7} |
428 | राजा᳚ समु॒द्रं न॒द्यो॒३॑(ओ॒) वि गा᳚हते॒ऽपामू॒र्मिं स॑चते॒ सिन्धु॑षु श्रि॒तः | अध्य॑स्था॒त्सानु॒ पव॑मानो अ॒व्ययं॒ नाभा᳚ पृथि॒व्या ध॒रुणो᳚ म॒हो दि॒वः ||{7.3.13.3}, {9.86.8}, {9.5.1.8} |
429 | दि॒वो न सानु॑ स्त॒नय᳚न्नचिक्रद॒द्द्यौश्च॒ यस्य॑ पृथि॒वी च॒ धर्म॑भिः | इन्द्र॑स्य स॒ख्यं प॑वते वि॒वेवि॑द॒त्सोमः॑ पुना॒नः क॒लशे᳚षु सीदति ||{7.3.13.4}, {9.86.9}, {9.5.1.9} |
430 | ज्योति᳚र्य॒ज्ञस्य॑ पवते॒ मधु॑ प्रि॒यं पि॒ता दे॒वानां᳚ जनि॒ता वि॒भूव॑सुः | दधा᳚ति॒ रत्नं᳚ स्व॒धयो᳚रपी॒च्यं᳚ म॒दिन्त॑मो मत्स॒र इ᳚न्द्रि॒यो रसः॑ ||{7.3.13.5}, {9.86.10}, {9.5.1.10} |
431 | अ॒भि॒क्रन्द᳚न्क॒लशं᳚ वा॒ज्य॑र्षति॒ पति॑र्दि॒वः श॒तधा᳚रो विचक्ष॒णः | हरि᳚र्मि॒त्रस्य॒ सद॑नेषु सीदति मर्मृजा॒नोऽवि॑भिः॒ सिन्धु॑भि॒र्वृषा᳚ ||{7.3.14.1}, {9.86.11}, {9.5.1.11} |
432 | अग्रे॒ सिन्धू᳚नां॒ पव॑मानो अर्ष॒त्यग्रे᳚ वा॒चो अ॑ग्रि॒यो गोषु॑ गच्छति | अग्रे॒ वाज॑स्य भजते महाध॒नं स्वा᳚यु॒धः सो॒तृभिः॑ पूयते॒ वृषा᳚ ||{7.3.14.2}, {9.86.12}, {9.5.1.12} |
433 | अ॒यं म॒तवा᳚ञ्छकु॒नो यथा᳚ हि॒तोऽव्ये᳚ ससार॒ पव॑मान ऊ॒र्मिणा᳚ | तव॒ क्रत्वा॒ रोद॑सी अन्त॒रा क॑वे॒ शुचि॑र्धि॒या प॑वते॒ सोम॑ इन्द्र ते ||{7.3.14.3}, {9.86.13}, {9.5.1.13} |
434 | द्रा॒पिं वसा᳚नो यज॒तो दि॑वि॒स्पृश॑मन्तरिक्ष॒प्रा भुव॑ने॒ष्वर्पि॑तः | स्व॑र्जज्ञा॒नो नभ॑सा॒भ्य॑क्रमीत्प्र॒त्नम॑स्य पि॒तर॒मा वि॑वासति ||{7.3.14.4}, {9.86.14}, {9.5.1.14} |
435 | सो अ॑स्य वि॒शे महि॒ शर्म॑ यच्छति॒ यो अ॑स्य॒ धाम॑ प्रथ॒मं व्या᳚न॒शे | प॒दं यद॑स्य पर॒मे व्यो᳚म॒न्यतो॒ विश्वा᳚ अ॒भि सं या᳚ति सं॒यतः॑ ||{7.3.14.5}, {9.86.15}, {9.5.1.15} |
436 | प्रो अ॑यासी॒दिन्दु॒रिन्द्र॑स्य निष्कृ॒तं सखा॒ सख्यु॒र्न प्र मि॑नाति सं॒गिर᳚म् | मर्य॑ इव युव॒तिभिः॒ सम॑र्षति॒ सोमः॑ क॒लशे᳚ श॒तया᳚म्ना प॒था ||{7.3.15.1}, {9.86.16}, {9.5.1.16} |
437 | प्र वो॒ धियो᳚ मन्द्र॒युवो᳚ विप॒न्युवः॑ पन॒स्युवः॑ सं॒वस॑नेष्वक्रमुः | सोमं᳚ मनी॒षा अ॒भ्य॑नूषत॒ स्तुभो॒ऽभि धे॒नवः॒ पय॑सेमशिश्रयुः ||{7.3.15.2}, {9.86.17}, {9.5.1.17} |
438 | आ नः॑ सोम सं॒यतं᳚ पि॒प्युषी॒मिष॒मिन्दो॒ पव॑स्व॒ पव॑मानो अ॒स्रिध᳚म् | या नो॒ दोह॑ते॒ त्रिरह॒न्नस॑श्चुषी क्षु॒मद्वाज॑व॒न्मधु॑मत्सु॒वीर्य᳚म् ||{7.3.15.3}, {9.86.18}, {9.5.1.18} |
439 | वृषा᳚ मती॒नां प॑वते विचक्ष॒णः सोमो॒ अह्नः॑ प्रतरी॒तोषसो᳚ दि॒वः | क्रा॒णा सिन्धू᳚नां क॒लशाँ᳚ अवीवश॒दिन्द्र॑स्य॒ हार्द्या᳚वि॒शन्म॑नी॒षिभिः॑ ||{7.3.15.4}, {9.86.19}, {9.5.1.19} |
440 | म॒नी॒षिभिः॑ पवते पू॒र्व्यः क॒विर्नृभि᳚र्य॒तः परि॒ कोशाँ᳚ अचिक्रदत् | त्रि॒तस्य॒ नाम॑ ज॒नय॒न्मधु॑ क्षर॒दिन्द्र॑स्य वा॒योः स॒ख्याय॒ कर्त॑वे ||{7.3.15.5}, {9.86.20}, {9.5.1.20} |
441 | अ॒यं पु॑ना॒न उ॒षसो॒ वि रो᳚चयद॒यं सिन्धु॑भ्यो अभवदु लोक॒कृत् | अ॒यं त्रिः स॒प्त दु॑दुहा॒न आ॒शिरं॒ सोमो᳚ हृ॒दे प॑वते॒ चारु॑ मत्स॒रः ||{7.3.16.1}, {9.86.21}, {9.5.1.21} |
442 | पव॑स्व सोम दि॒व्येषु॒ धाम॑सु सृजा॒न इ᳚न्दो क॒लशे᳚ प॒वित्र॒ आ | सीद॒न्निन्द्र॑स्य ज॒ठरे॒ कनि॑क्रद॒न्नृभि᳚र्य॒तः सूर्य॒मारो᳚हयो दि॒वि ||{7.3.16.2}, {9.86.22}, {9.5.1.22} |
443 | अद्रि॑भिः सु॒तः प॑वसे प॒वित्र॒ आँ इन्द॒विन्द्र॑स्य ज॒ठरे᳚ष्वावि॒शन् | त्वं नृ॒चक्षा᳚ अभवो विचक्षण॒ सोम॑ गो॒त्रमङ्गि॑रोभ्योऽवृणो॒रप॑ ||{7.3.16.3}, {9.86.23}, {9.5.1.23} |
444 | त्वां सो᳚म॒ पव॑मानं स्वा॒ध्योऽनु॒ विप्रा᳚सो अमदन्नव॒स्यवः॑ | त्वां सु॑प॒र्ण आभ॑रद्दि॒वस्परीन्दो॒ विश्वा᳚भिर्म॒तिभिः॒ परि॑ष्कृतम् ||{7.3.16.4}, {9.86.24}, {9.5.1.24} |
445 | अव्ये᳚ पुना॒नं परि॒ वार॑ ऊ॒र्मिणा॒ हरिं᳚ नवन्ते अ॒भि स॒प्त धे॒नवः॑ | अ॒पामु॒पस्थे॒ अध्या॒यवः॑ क॒विमृ॒तस्य॒ योना᳚ महि॒षा अ॑हेषत ||{7.3.16.5}, {9.86.25}, {9.5.1.25} |
446 | इन्दुः॑ पुना॒नो अति॑ गाहते॒ मृधो॒ विश्वा᳚नि कृ॒ण्वन्सु॒पथा᳚नि॒ यज्य॑वे | गाः कृ᳚ण्वा॒नो नि॒र्णिजं᳚ हर्य॒तः क॒विरत्यो॒ न क्रीळ॒न्परि॒ वार॑मर्षति ||{7.3.17.1}, {9.86.26}, {9.5.1.26} |
447 | अ॒स॒श्चतः॑ श॒तधा᳚रा अभि॒श्रियो॒ हरिं᳚ नव॒न्तेऽव॒ ता उ॑द॒न्युवः॑ | क्षिपो᳚ मृजन्ति॒ परि॒ गोभि॒रावृ॑तं तृ॒तीये᳚ पृ॒ष्ठे अधि॑ रोच॒ने दि॒वः ||{7.3.17.2}, {9.86.27}, {9.5.1.27} |
448 | तवे॒माः प्र॒जा दि॒व्यस्य॒ रेत॑स॒स्त्वं विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य राजसि | अथे॒दं विश्वं᳚ पवमान ते॒ वशे॒ त्वमि᳚न्दो प्रथ॒मो धा᳚म॒धा अ॑सि ||{7.3.17.3}, {9.86.28}, {9.5.1.28} |
449 | त्वं स॑मु॒द्रो अ॑सि विश्व॒वित्क॑वे॒ तवे॒माः पञ्च॑ प्र॒दिशो॒ विध᳚र्मणि | त्वं द्यां च॑ पृथि॒वीं चाति॑ जभ्रिषे॒ तव॒ ज्योतीं᳚षि पवमान॒ सूर्यः॑ ||{7.3.17.4}, {9.86.29}, {9.5.1.29} |
450 | त्वं प॒वित्रे॒ रज॑सो॒ विध᳚र्मणि दे॒वेभ्यः॑ सोम पवमान पूयसे | त्वामु॒शिजः॑ प्रथ॒मा अ॑गृभ्णत॒ तुभ्ये॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि येमिरे ||{7.3.17.5}, {9.86.30}, {9.5.1.30} |
451 | प्र रे॒भ ए॒त्यति॒ वार॑म॒व्ययं॒ वृषा॒ वने॒ष्वव॑ चक्रद॒द्धरिः॑ | सं धी॒तयो᳚ वावशा॒ना अ॑नूषत॒ शिशुं᳚ रिहन्ति म॒तयः॒ पनि॑प्नतम् ||{7.3.18.1}, {9.86.31}, {9.5.1.31} |
452 | स सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॒ परि᳚ व्यत॒ तन्तुं᳚ तन्वा॒नस्त्रि॒वृतं॒ यथा᳚ वि॒दे | नय᳚न्नृ॒तस्य॑ प्र॒शिषो॒ नवी᳚यसीः॒ पति॒र्जनी᳚ना॒मुप॑ याति निष्कृ॒तम् ||{7.3.18.2}, {9.86.32}, {9.5.1.32} |
453 | राजा॒ सिन्धू᳚नां पवते॒ पति॑र्दि॒व ऋ॒तस्य॑ याति प॒थिभिः॒ कनि॑क्रदत् | स॒हस्र॑धारः॒ परि॑ षिच्यते॒ हरिः॑ पुना॒नो वाचं᳚ ज॒नय॒न्नुपा᳚वसुः ||{7.3.18.3}, {9.86.33}, {9.5.1.33} |
454 | पव॑मान॒ मह्यर्णो॒ वि धा᳚वसि॒ सूरो॒ न चि॒त्रो अव्य॑यानि॒ पव्य॑या | गभ॑स्तिपूतो॒ नृभि॒रद्रि॑भिः सु॒तो म॒हे वाजा᳚य॒ धन्या᳚य धन्वसि ||{7.3.18.4}, {9.86.34}, {9.5.1.34} |
455 | इष॒मूर्जं᳚ पवमाना॒भ्य॑र्षसि श्ये॒नो न वंसु॑ क॒लशे᳚षु सीदसि | इन्द्रा᳚य॒ मद्वा॒ मद्यो॒ मदः॑ सु॒तो दि॒वो वि॑ष्ट॒म्भ उ॑प॒मो वि॑चक्ष॒णः ||{7.3.18.5}, {9.86.35}, {9.5.1.35} |
456 | स॒प्त स्वसा᳚रो अ॒भि मा॒तरः॒ शिशुं॒ नवं᳚ जज्ञा॒नं जेन्यं᳚ विप॒श्चित᳚म् | अ॒पां ग᳚न्ध॒र्वं दि॒व्यं नृ॒चक्ष॑सं॒ सोमं॒ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य रा॒जसे᳚ ||{7.3.19.1}, {9.86.36}, {9.5.1.36} |
457 | ई॒शा॒न इ॒मा भुव॑नानि॒ वीय॑से युजा॒न इ᳚न्दो ह॒रितः॑ सुप॒र्ण्यः॑ | तास्ते᳚ क्षरन्तु॒ मधु॑मद्घृ॒तं पय॒स्तव᳚ व्र॒ते सो᳚म तिष्ठन्तु कृ॒ष्टयः॑ ||{7.3.19.2}, {9.86.37}, {9.5.1.37} |
458 | त्वं नृ॒चक्षा᳚ असि सोम वि॒श्वतः॒ पव॑मान वृषभ॒ ता वि धा᳚वसि | स नः॑ पवस्व॒ वसु॑म॒द्धिर᳚ण्यवद्व॒यं स्या᳚म॒ भुव॑नेषु जी॒वसे᳚ ||{7.3.19.3}, {9.86.38}, {9.5.1.38} |
459 | गो॒वित्प॑वस्व वसु॒विद्धि॑रण्य॒विद्रे᳚तो॒धा इ᳚न्दो॒ भुव॑ने॒ष्वर्पि॑तः | त्वं सु॒वीरो᳚ असि सोम विश्व॒वित्तं त्वा॒ विप्रा॒ उप॑ गि॒रेम आ᳚सते ||{7.3.19.4}, {9.86.39}, {9.5.1.39} |
460 | उन्मध्व॑ ऊ॒र्मिर्व॒नना᳚ अतिष्ठिपद॒पो वसा᳚नो महि॒षो वि गा᳚हते | राजा᳚ प॒वित्र॑रथो॒ वाज॒मारु॑हत्स॒हस्र॑भृष्टिर्जयति॒ श्रवो᳚ बृ॒हत् ||{7.3.19.5}, {9.86.40}, {9.5.1.40} |
461 | स भ॒न्दना॒ उदि॑यर्ति प्र॒जाव॑तीर्वि॒श्वायु॒र्विश्वाः᳚ सु॒भरा॒ अह॑र्दिवि | ब्रह्म॑ प्र॒जाव॑द्र॒यिमश्व॑पस्त्यं पी॒त इ᳚न्द॒विन्द्र॑म॒स्मभ्यं᳚ याचतात् ||{7.3.20.1}, {9.86.41}, {9.5.1.41} |
462 | सो अग्रे॒ अह्नां॒ हरि॑र्हर्य॒तो मदः॒ प्र चेत॑सा चेतयते॒ अनु॒ द्युभिः॑ | द्वा जना᳚ या॒तय᳚न्न॒न्तरी᳚यते॒ नरा᳚ च॒ शंसं॒ दैव्यं᳚ च ध॒र्तरि॑ ||{7.3.20.2}, {9.86.42}, {9.5.1.42} |
463 | अ॒ञ्जते॒ व्य᳚ञ्जते॒ सम᳚ञ्जते॒ क्रतुं᳚ रिहन्ति॒ मधु॑ना॒भ्य᳚ञ्जते | सिन्धो᳚रुच्छ्वा॒से प॒तय᳚न्तमु॒क्षणं᳚ हिरण्यपा॒वाः प॒शुमा᳚सु गृभ्णते ||{7.3.20.3}, {9.86.43}, {9.5.1.43} |
464 | वि॒प॒श्चिते॒ पव॑मानाय गायत म॒ही न धारात्यन्धो᳚ अर्षति | अहि॒र्न जू॒र्णामति॑ सर्पति॒ त्वच॒मत्यो॒ न क्रीळ᳚न्नसर॒द्वृषा॒ हरिः॑ ||{7.3.20.4}, {9.86.44}, {9.5.1.44} |
465 | अ॒ग्रे॒गो राजाप्य॑स्तविष्यते वि॒मानो॒ अह्नां॒ भुव॑ने॒ष्वर्पि॑तः | हरि॑र्घृ॒तस्नुः॑ सु॒दृशी᳚को अर्ण॒वो ज्यो॒तीर॑थः पवते रा॒य ओ॒क्यः॑ ||{7.3.20.5}, {9.86.45}, {9.5.1.45} |
466 | अस॑र्जि स्क॒म्भो दि॒व उद्य॑तो॒ मदः॒ परि॑ त्रि॒धातु॒र्भुव॑नान्यर्षति | अं॒शुं रि॑हन्ति म॒तयः॒ पनि॑प्नतं गि॒रा यदि॑ नि॒र्णिज॑मृ॒ग्मिणो᳚ य॒युः ||{7.3.21.1}, {9.86.46}, {9.5.1.46} |
467 | प्र ते॒ धारा॒ अत्यण्वा᳚नि मे॒ष्यः॑ पुना॒नस्य॑ सं॒यतो᳚ यन्ति॒ रंह॑यः | यद्गोभि॑रिन्दो च॒म्वोः᳚ सम॒ज्यस॒ आ सु॑वा॒नः सो᳚म क॒लशे᳚षु सीदसि ||{7.3.21.2}, {9.86.47}, {9.5.1.47} |
468 | पव॑स्व सोम क्रतु॒विन्न॑ उ॒क्थ्योऽव्यो॒ वारे॒ परि॑ धाव॒ मधु॑ प्रि॒यम् | ज॒हि विश्वा᳚न्र॒क्षस॑ इन्दो अ॒त्रिणो᳚ बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे᳚ सु॒वीराः᳚ ||{7.3.21.3}, {9.86.48}, {9.5.1.48} |
[44] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्य काव्य उशना ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
469 | प्र तु द्र॑व॒ परि॒ कोशं॒ नि षी᳚द॒ नृभिः॑ पुना॒नो अ॒भि वाज॑मर्ष | अश्वं॒ न त्वा᳚ वा॒जिनं᳚ म॒र्जय॒न्तोऽच्छा᳚ ब॒र्ही र॑श॒नाभि᳚र्नयन्ति ||{7.3.22.1}, {9.87.1}, {9.5.2.1} |
470 | स्वा॒यु॒धः प॑वते दे॒व इन्दु॑रशस्ति॒हा वृ॒जनं॒ रक्ष॑माणः | पि॒ता दे॒वानां᳚ जनि॒ता सु॒दक्षो᳚ विष्ट॒म्भो दि॒वो ध॒रुणः॑ पृथि॒व्याः ||{7.3.22.2}, {9.87.2}, {9.5.2.2} |
471 | ऋषि॒र्विप्रः॑ पुरए॒ता जना᳚नामृ॒भुर्धीर॑ उ॒शना॒ काव्ये᳚न | स चि॑द्विवेद॒ निहि॑तं॒ यदा᳚सामपी॒च्य१॑(अ॒) अंगुह्यं॒ नाम॒ गोना᳚म् ||{7.3.22.3}, {9.87.3}, {9.5.2.3} |
472 | ए॒ष स्य ते॒ मधु॑माँ इन्द्र॒ सोमो॒ वृषा॒ वृष्णे॒ परि॑ प॒वित्रे᳚ अक्षाः | स॒ह॒स्र॒साः श॑त॒सा भू᳚रि॒दावा᳚ शश्वत्त॒मं ब॒र्हिरा वा॒ज्य॑स्थात् ||{7.3.22.4}, {9.87.4}, {9.5.2.4} |
473 | ए॒ते सोमा᳚ अ॒भि ग॒व्या स॒हस्रा᳚ म॒हे वाजा᳚या॒मृता᳚य॒ श्रवां᳚सि | प॒वित्रे᳚भिः॒ पव॑माना असृग्रञ्छ्रव॒स्यवो॒ न पृ॑त॒नाजो॒ अत्याः᳚ ||{7.3.22.5}, {9.87.5}, {9.5.2.5} |
474 | परि॒ हि ष्मा᳚ पुरुहू॒तो जना᳚नां॒ विश्वास॑र॒द्भोज॑ना पू॒यमा᳚नः | अथा भ॑र श्येनभृत॒ प्रयां᳚सि र॒यिं तुञ्जा᳚नो अ॒भि वाज॑मर्ष ||{7.3.23.1}, {9.87.6}, {9.5.2.6} |
475 | ए॒ष सु॑वा॒नः परि॒ सोमः॑ प॒वित्रे॒ सर्गो॒ न सृ॒ष्टो अ॑दधाव॒दर्वा᳚ | ति॒ग्मे शिशा᳚नो महि॒षो न शृङ्गे॒ गा ग॒व्यन्न॒भि शूरो॒ न सत्वा᳚ ||{7.3.23.2}, {9.87.7}, {9.5.2.7} |
476 | ए॒षा य॑यौ पर॒माद॒न्तरद्रेः॒ कूचि॑त्स॒तीरू॒र्वे गा वि॑वेद | दि॒वो न वि॒द्युत्स्त॒नय᳚न्त्य॒भ्रैः सोम॑स्य ते पवत इन्द्र॒ धारा᳚ ||{7.3.23.3}, {9.87.8}, {9.5.2.8} |
477 | उ॒त स्म॑ रा॒शिं परि॑ यासि॒ गोना॒मिन्द्रे᳚ण सोम स॒रथं᳚ पुना॒नः | पू॒र्वीरिषो᳚ बृह॒तीर्जी᳚रदानो॒ शिक्षा᳚ शचीव॒स्तव॒ ता उ॑प॒ष्टुत् ||{7.3.23.4}, {9.87.9}, {9.5.2.9} |
[45] (१-८) अष्टर्चस्य सूक्तस्य काव्य उशना ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
478 | अ॒यं सोम॑ इन्द्र॒ तुभ्यं᳚ सुन्वे॒ तुभ्यं᳚ पवते॒ त्वम॑स्य पाहि | त्वं ह॒ यं च॑कृ॒षे त्वं व॑वृ॒ष इन्दुं॒ मदा᳚य॒ युज्या᳚य॒ सोम᳚म् ||{7.3.24.1}, {9.88.1}, {9.5.3.1} |
479 | स ईं॒ रथो॒ न भु॑रि॒षाळ॑योजि म॒हः पु॒रूणि॑ सा॒तये॒ वसू᳚नि | आदीं॒ विश्वा᳚ नहु॒ष्या᳚णि जा॒ता स्व॑र्षाता॒ वन॑ ऊ॒र्ध्वा न॑वन्त ||{7.3.24.2}, {9.88.2}, {9.5.3.2} |
480 | वा॒युर्न यो नि॒युत्वाँ᳚ इ॒ष्टया᳚मा॒ नास॑त्येव॒ हव॒ आ शम्भ॑विष्ठः | वि॒श्ववा᳚रो द्रविणो॒दा इ॑व॒ त्मन्पू॒षेव॑ धी॒जव॑नोऽसि सोम ||{7.3.24.3}, {9.88.3}, {9.5.3.3} |
481 | इन्द्रो॒ न यो म॒हा कर्मा᳚णि॒ चक्रि॑र्ह॒न्ता वृ॒त्राणा᳚मसि सोम पू॒र्भित् | पै॒द्वो न हि त्वमहि॑नाम्नां ह॒न्ता विश्व॑स्यासि सोम॒ दस्योः᳚ ||{7.3.24.4}, {9.88.4}, {9.5.3.4} |
482 | अ॒ग्निर्न यो वन॒ आ सृ॒ज्यमा᳚नो॒ वृथा॒ पाजां᳚सि कृणुते न॒दीषु॑ | जनो॒ न युध्वा᳚ मह॒त उ॑प॒ब्दिरिय॑र्ति॒ सोमः॒ पव॑मान ऊ॒र्मिम् ||{7.3.24.5}, {9.88.5}, {9.5.3.5} |
483 | ए॒ते सोमा॒ अति॒ वारा॒ण्यव्या᳚ दि॒व्या न कोशा᳚सो अ॒भ्रव॑र्षाः | वृथा᳚ समु॒द्रं सिन्ध॑वो॒ न नीचीः᳚ सु॒तासो᳚ अ॒भि क॒लशाँ᳚ असृग्रन् ||{7.3.24.6}, {9.88.6}, {9.5.3.6} |
484 | शु॒ष्मी शर्धो॒ न मारु॑तं पव॒स्वान॑भिशस्ता दि॒व्या यथा॒ विट् | आपो॒ न म॒क्षू सु॑म॒तिर्भ॑वा नः स॒हस्रा᳚प्साः पृतना॒षाण्न य॒ज्ञः ||{7.3.24.7}, {9.88.7}, {9.5.3.7} |
485 | राज्ञो॒ नु ते॒ वरु॑णस्य व्र॒तानि॑ बृ॒हद्ग॑भी॒रं तव॑ सोम॒ धाम॑ | शुचि॒ष्ट्वम॑सि प्रि॒यो न मि॒त्रो द॒क्षाय्यो᳚ अर्य॒मेवा᳚सि सोम ||{7.3.24.8}, {9.88.8}, {9.5.3.8} |
[46] (१-७) सप्तर्चस्य सूक्तस्य काव्य उशना ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
486 | प्रो स्य वह्निः॑ प॒थ्या᳚भिरस्यान्दि॒वो न वृ॒ष्टिः पव॑मानो अक्षाः | स॒हस्र॑धारो असद॒न्न्य१॑(अ॒)स्मे मा॒तुरु॒पस्थे॒ वन॒ आ च॒ सोमः॑ ||{7.3.25.1}, {9.89.1}, {9.5.4.1} |
487 | राजा॒ सिन्धू᳚नामवसिष्ट॒ वास॑ ऋ॒तस्य॒ नाव॒मारु॑ह॒द्रजि॑ष्ठाम् | अ॒प्सु द्र॒प्सो वा᳚वृधे श्ये॒नजू᳚तो दु॒ह ईं᳚ पि॒ता दु॒ह ईं᳚ पि॒तुर्जाम् ||{7.3.25.2}, {9.89.2}, {9.5.4.2} |
488 | सिं॒हं न॑सन्त॒ मध्वो᳚ अ॒यासं॒ हरि॑मरु॒षं दि॒वो अ॒स्य पति᳚म् | शूरो᳚ यु॒त्सु प्र॑थ॒मः पृ॑च्छते॒ गा अस्य॒ चक्ष॑सा॒ परि॑ पात्यु॒क्षा ||{7.3.25.3}, {9.89.3}, {9.5.4.3} |
489 | मधु॑पृष्ठं घो॒रम॒यास॒मश्वं॒ रथे᳚ युञ्जन्त्युरुच॒क्र ऋ॒ष्वम् | स्वसा᳚र ईं जा॒मयो᳚ मर्जयन्ति॒ सना᳚भयो वा॒जिन॑मूर्जयन्ति ||{7.3.25.4}, {9.89.4}, {9.5.4.4} |
490 | चत॑स्र ईं घृत॒दुहः॑ सचन्ते समा॒ने अ॒न्तर्ध॒रुणे॒ निष॑त्ताः | ता ई᳚मर्षन्ति॒ नम॑सा पुना॒नास्ता ईं᳚ वि॒श्वतः॒ परि॑ षन्ति पू॒र्वीः ||{7.3.25.5}, {9.89.5}, {9.5.4.5} |
491 | वि॒ष्ट॒म्भो दि॒वो ध॒रुणः॑ पृथि॒व्या विश्वा᳚ उ॒त क्षि॒तयो॒ हस्ते᳚ अस्य | अस॑त्त॒ उत्सो᳚ गृण॒ते नि॒युत्वा॒न्मध्वो᳚ अं॒शुः प॑वत इन्द्रि॒याय॑ ||{7.3.25.6}, {9.89.6}, {9.5.4.6} |
492 | व॒न्वन्नवा᳚तो अ॒भि दे॒ववी᳚ति॒मिन्द्रा᳚य सोम वृत्र॒हा प॑वस्व | श॒ग्धि म॒हः पु॑रुश्च॒न्द्रस्य॑ रा॒यः सु॒वीर्य॑स्य॒ पत॑यः स्याम ||{7.3.25.7}, {9.89.7}, {9.5.4.7} |
[47] (१-६) षळृर्चस्य सूक्तस्य मैत्रावरणिर्वसिष्ठ ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
493 | प्र हि᳚न्वा॒नो ज॑नि॒ता रोद॑स्यो॒ रथो॒ न वाजं᳚ सनि॒ष्यन्न॑यासीत् | इन्द्रं॒ गच्छ॒न्नायु॑धा सं॒शिशा᳚नो॒ विश्वा॒ वसु॒ हस्त॑योरा॒दधा᳚नः ||{7.3.26.1}, {9.90.1}, {9.5.5.1} |
494 | अ॒भि त्रि॑पृ॒ष्ठं वृष॑णं वयो॒धामा᳚ङ्गू॒षाणा᳚मवावशन्त॒ वाणीः᳚ | वना॒ वसा᳚नो॒ वरु॑णो॒ न सिन्धू॒न्वि र॑त्न॒धा द॑यते॒ वार्या᳚णि ||{7.3.26.2}, {9.90.2}, {9.5.5.2} |
495 | शूर॑ग्रामः॒ सर्व॑वीरः॒ सहा᳚वा॒ञ्जेता᳚ पवस्व॒ सनि॑ता॒ धना᳚नि | ति॒ग्मायु॑धः क्षि॒प्रध᳚न्वा स॒मत्स्वषा᳚ळ्हः सा॒ह्वान्पृत॑नासु॒ शत्रू॑न् ||{7.3.26.3}, {9.90.3}, {9.5.5.3} |
496 | उ॒रुग᳚व्यूति॒रभ॑यानि कृ॒ण्वन्स॑मीची॒ने आ प॑वस्वा॒ पुरं᳚धी | अ॒पः सिषा᳚सन्नु॒षसः॒ स्व१॑(अ॒)र्गाः सं चि॑क्रदो म॒हो अ॒स्मभ्यं॒ वाजा॑न् ||{7.3.26.4}, {9.90.4}, {9.5.5.4} |
497 | मत्सि॑ सोम॒ वरु॑णं॒ मत्सि॑ मि॒त्रं मत्सीन्द्र॑मिन्दो पवमान॒ विष्णु᳚म् | मत्सि॒ शर्धो॒ मारु॑तं॒ मत्सि॑ दे॒वान्मत्सि॑ म॒हामिन्द्र॑मिन्दो॒ मदा᳚य ||{7.3.26.5}, {9.90.5}, {9.5.5.5} |
498 | ए॒वा राजे᳚व॒ क्रतु॑माँ॒ अमे᳚न॒ विश्वा॒ घनि॑घ्नद्दुरि॒ता प॑वस्व | इन्दो᳚ सू॒क्ताय॒ वच॑से॒ वयो᳚ धा यू॒यं पा᳚त स्व॒स्तिभिः॒ सदा᳚ नः ||{7.3.26.6}, {9.90.6}, {9.5.5.6} |
[48] (१-६) षळृर्चस्य सूक्तस्य मारीचः कश्यप ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
499 | अस॑र्जि॒ वक्वा॒ रथ्ये॒ यथा॒जौ धि॒या म॒नोता᳚ प्रथ॒मो म॑नी॒षी | दश॒ स्वसा᳚रो॒ अधि॒ सानो॒ अव्येऽज᳚न्ति॒ वह्निं॒ सद॑ना॒न्यच्छ॑ ||{7.4.1.1}, {9.91.1}, {9.5.6.1} |
500 | वी॒ती जन॑स्य दि॒व्यस्य॑ क॒व्यैरधि॑ सुवा॒नो न॑हु॒ष्ये᳚भि॒रिन्दुः॑ | प्र यो नृभि॑र॒मृतो॒ मर्त्ये᳚भिर्मर्मृजा॒नोऽवि॑भि॒र्गोभि॑र॒द्भिः ||{7.4.1.2}, {9.91.2}, {9.5.6.2} |
501 | वृषा॒ वृष्णे॒ रोरु॑वदं॒शुर॑स्मै॒ पव॑मानो॒ रुश॑दीर्ते॒ पयो॒ गोः | स॒हस्र॒मृक्वा᳚ प॒थिभि᳚र्वचो॒विद॑ध्व॒स्मभिः॒ सूरो॒ अण्वं॒ वि या᳚ति ||{7.4.1.3}, {9.91.3}, {9.5.6.3} |
502 | रु॒जा दृ॒ळ्हा चि॑द्र॒क्षसः॒ सदां᳚सि पुना॒न इ᳚न्द ऊर्णुहि॒ वि वाजा॑न् | वृ॒श्चोपरि॑ष्टात्तुज॒ता व॒धेन॒ ये अन्ति॑ दू॒रादु॑पना॒यमे᳚षाम् ||{7.4.1.4}, {9.91.4}, {9.5.6.4} |
503 | स प्र॑त्न॒वन्नव्य॑से विश्ववार सू॒क्ताय॑ प॒थः कृ॑णुहि॒ प्राचः॑ | ये दुः॒षहा᳚सो व॒नुषा᳚ बृ॒हन्त॒स्ताँस्ते᳚ अश्याम पुरुकृत्पुरुक्षो ||{7.4.1.5}, {9.91.5}, {9.5.6.5} |
504 | ए॒वा पु॑ना॒नो अ॒पः स्व१॑(अ॒)र्गा अ॒स्मभ्यं᳚ तो॒का तन॑यानि॒ भूरि॑ | शं नः॒ क्षेत्र॑मु॒रु ज्योतीं᳚षि सोम॒ ज्योङ्नः॒ सूर्यं᳚ दृ॒शये᳚ रिरीहि ||{7.4.1.6}, {9.91.6}, {9.5.6.6} |
[49] (१-६) षळृर्चस्य सूक्तस्य मारीचः कश्यप ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
505 | परि॑ सुवा॒नो हरि॑रं॒शुः प॒वित्रे॒ रथो॒ न स॑र्जि स॒नये᳚ हिया॒नः | आप॒च्छ्लोक॑मिन्द्रि॒यं पू॒यमा᳚नः॒ प्रति॑ दे॒वाँ अ॑जुषत॒ प्रयो᳚भिः ||{7.4.2.1}, {9.92.1}, {9.5.7.1} |
506 | अच्छा᳚ नृ॒चक्षा᳚ असरत्प॒वित्रे॒ नाम॒ दधा᳚नः क॒विर॑स्य॒ योनौ᳚ | सीद॒न्होते᳚व॒ सद॑ने च॒मूषूपे᳚मग्म॒न्नृष॑यः स॒प्त विप्राः᳚ ||{7.4.2.2}, {9.92.2}, {9.5.7.2} |
507 | प्र सु॑मे॒धा गा᳚तु॒विद्वि॒श्वदे᳚वः॒ सोमः॑ पुना॒नः सद॑ एति॒ नित्य᳚म् | भुव॒द्विश्वे᳚षु॒ काव्ये᳚षु॒ रन्तानु॒ जना᳚न्यतते॒ पञ्च॒ धीरः॑ ||{7.4.2.3}, {9.92.3}, {9.5.7.3} |
508 | तव॒ त्ये सो᳚म पवमान नि॒ण्ये विश्वे᳚ दे॒वास्त्रय॑ एकाद॒शासः॑ | दश॑ स्व॒धाभि॒रधि॒ सानो॒ अव्ये᳚ मृ॒जन्ति॑ त्वा न॒द्यः॑ स॒प्त य॒ह्वीः ||{7.4.2.4}, {9.92.4}, {9.5.7.4} |
509 | तन्नु स॒त्यं पव॑मानस्यास्तु॒ यत्र॒ विश्वे᳚ का॒रवः॑ सं॒नस᳚न्त | ज्योति॒र्यदह्ने॒ अकृ॑णोदु लो॒कं प्राव॒न्मनुं॒ दस्य॑वे कर॒भीक᳚म् ||{7.4.2.5}, {9.92.5}, {9.5.7.5} |
510 | परि॒ सद्मे᳚व पशु॒मान्ति॒ होता॒ राजा॒ न स॒त्यः समि॑तीरिया॒नः | सोमः॑ पुना॒नः क॒लशाँ᳚ अयासी॒त्सीद᳚न्मृ॒गो न म॑हि॒षो वने᳚षु ||{7.4.2.6}, {9.92.6}, {9.5.7.6} |
[50] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य गौतमो नोधा ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
511 | सा॒क॒मुक्षो᳚ मर्जयन्त॒ स्वसा᳚रो॒ दश॒ धीर॑स्य धी॒तयो॒ धनु॑त्रीः | हरिः॒ पर्य॑द्रव॒ज्जाः सूर्य॑स्य॒ द्रोणं᳚ ननक्षे॒ अत्यो॒ न वा॒जी ||{7.4.3.1}, {9.93.1}, {9.5.8.1} |
512 | सं मा॒तृभि॒र्न शिशु᳚र्वावशा॒नो वृषा᳚ दधन्वे पुरु॒वारो᳚ अ॒द्भिः | मर्यो॒ न योषा᳚म॒भि नि॑ष्कृ॒तं यन्सं ग॑च्छते क॒लश॑ उ॒स्रिया᳚भिः ||{7.4.3.2}, {9.93.2}, {9.5.8.2} |
513 | उ॒त प्र पि॑प्य॒ ऊध॒रघ्न्या᳚या॒ इन्दु॒र्धारा᳚भिः सचते सुमे॒धाः | मू॒र्धानं॒ गावः॒ पय॑सा च॒मूष्व॒भि श्री᳚णन्ति॒ वसु॑भि॒र्न नि॒क्तैः ||{7.4.3.3}, {9.93.3}, {9.5.8.3} |
514 | स नो᳚ दे॒वेभिः॑ पवमान र॒देन्दो᳚ र॒यिम॒श्विनं᳚ वावशा॒नः | र॒थि॒रा॒यता᳚मुश॒ती पुरं᳚धिरस्म॒द्र्य१॑(अ॒)गा दा॒वने॒ वसू᳚नाम् ||{7.4.3.4}, {9.93.4}, {9.5.8.4} |
515 | नू नो᳚ र॒यिमुप॑ मास्व नृ॒वन्तं᳚ पुना॒नो वा॒ताप्यं᳚ वि॒श्वश्च᳚न्द्रम् | प्र व᳚न्दि॒तुरि᳚न्दो ता॒र्यायुः॑ प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ||{7.4.3.5}, {9.93.5}, {9.5.8.5} |
[51] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरसः कण्व ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
516 | अधि॒ यद॑स्मिन्वा॒जिनी᳚व॒ शुभः॒ स्पर्ध᳚न्ते॒ धियः॒ सूर्ये॒ न विशः॑ | अ॒पो वृ॑णा॒नः प॑वते कवी॒यन्व्र॒जं न प॑शु॒वर्ध॑नाय॒ मन्म॑ ||{7.4.4.1}, {9.94.1}, {9.5.9.1} |
517 | द्वि॒ता व्यू॒र्ण्वन्न॒मृत॑स्य॒ धाम॑ स्व॒र्विदे॒ भुव॑नानि प्रथन्त | धियः॑ पिन्वा॒नाः स्वस॑रे॒ न गाव॑ ऋता॒यन्ती᳚र॒भि वा᳚वश्र॒ इन्दु᳚म् ||{7.4.4.2}, {9.94.2}, {9.5.9.2} |
518 | परि॒ यत्क॒विः काव्या॒ भर॑ते॒ शूरो॒ न रथो॒ भुव॑नानि॒ विश्वा᳚ | दे॒वेषु॒ यशो॒ मर्ता᳚य॒ भूष॒न्दक्षा᳚य रा॒यः पु॑रु॒भूषु॒ नव्यः॑ ||{7.4.4.3}, {9.94.3}, {9.5.9.3} |
519 | श्रि॒ये जा॒तः श्रि॒य आ निरि॑याय॒ श्रियं॒ वयो᳚ जरि॒तृभ्यो᳚ दधाति | श्रियं॒ वसा᳚ना अमृत॒त्वमा᳚य॒न्भव᳚न्ति स॒त्या स॑मि॒था मि॒तद्रौ᳚ ||{7.4.4.4}, {9.94.4}, {9.5.9.4} |
520 | इष॒मूर्ज॑म॒भ्य१॑(अ॒)र्षाश्वं॒ गामु॒रु ज्योतिः॑ कृणुहि॒ मत्सि॑ दे॒वान् | विश्वा᳚नि॒ हि सु॒षहा॒ तानि॒ तुभ्यं॒ पव॑मान॒ बाध॑से सोम॒ शत्रू॑न् ||{7.4.4.5}, {9.94.5}, {9.5.9.5} |
[52] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य काण्वः प्रस्कण्व ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
521 | कनि॑क्रन्ति॒ हरि॒रा सृ॒ज्यमा᳚नः॒ सीद॒न्वन॑स्य ज॒ठरे᳚ पुना॒नः | नृभि᳚र्य॒तः कृ॑णुते नि॒र्णिजं॒ गा अतो᳚ म॒तीर्ज॑नयत स्व॒धाभिः॑ ||{7.4.5.1}, {9.95.1}, {9.5.10.1} |
522 | हरिः॑ सृजा॒नः प॒थ्या᳚मृ॒तस्येय॑र्ति॒ वाच॑मरि॒तेव॒ नाव᳚म् | दे॒वो दे॒वानां॒ गुह्या᳚नि॒ नामा॒विष्कृ॑णोति ब॒र्हिषि॑ प्र॒वाचे᳚ ||{7.4.5.2}, {9.95.2}, {9.5.10.2} |
523 | अ॒पामि॒वेदू॒र्मय॒स्तर्तु॑राणाः॒ प्र म॑नी॒षा ई᳚रते॒ सोम॒मच्छ॑ | न॒म॒स्यन्ती॒रुप॑ च॒ यन्ति॒ सं चा च॑ विशन्त्युश॒तीरु॒शन्त᳚म् ||{7.4.5.3}, {9.95.3}, {9.5.10.3} |
524 | तं म᳚र्मृजा॒नं म॑हि॒षं न साना᳚वं॒शुं दु॑हन्त्यु॒क्षणं᳚ गिरि॒ष्ठाम् | तं वा᳚वशा॒नं म॒तयः॑ सचन्ते त्रि॒तो बि॑भर्ति॒ वरु॑णं समु॒द्रे ||{7.4.5.4}, {9.95.4}, {9.5.10.4} |
525 | इष्य॒न्वाच॑मुपव॒क्तेव॒ होतुः॑ पुना॒न इ᳚न्दो॒ वि ष्या᳚ मनी॒षाम् | इन्द्र॑श्च॒ यत्क्षय॑थः॒ सौभ॑गाय सु॒वीर्य॑स्य॒ पत॑यः स्याम ||{7.4.5.5}, {9.95.5}, {9.5.10.5} |
[53] (१-२४) चतुर्विंशत्यृचस्य सूक्तस्य दैवोदासिः प्रतर्दन ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
526 | प्र से᳚ना॒नीः शूरो॒ अग्रे॒ रथा᳚नां ग॒व्यन्ने᳚ति॒ हर्ष॑ते अस्य॒ सेना᳚ | भ॒द्रान्कृ॒ण्वन्नि᳚न्द्रह॒वान्सखि॑भ्य॒ आ सोमो॒ वस्त्रा᳚ रभ॒सानि॑ दत्ते ||{7.4.6.1}, {9.96.1}, {9.5.11.1} |
527 | सम॑स्य॒ हरिं॒ हर॑यो मृजन्त्यश्वह॒यैरनि॑शितं॒ नमो᳚भिः | आ ति॑ष्ठति॒ रथ॒मिन्द्र॑स्य॒ सखा᳚ वि॒द्वाँ ए᳚ना सुम॒तिं या॒त्यच्छ॑ ||{7.4.6.2}, {9.96.2}, {9.5.11.2} |
528 | स नो᳚ देव दे॒वता᳚ते पवस्व म॒हे सो᳚म॒ प्सर॑स इन्द्र॒पानः॑ | कृ॒ण्वन्न॒पो व॒र्षय॒न्द्यामु॒तेमामु॒रोरा नो᳚ वरिवस्या पुना॒नः ||{7.4.6.3}, {9.96.3}, {9.5.11.3} |
529 | अजी᳚त॒येऽह॑तये पवस्व स्व॒स्तये᳚ स॒र्वता᳚तये बृह॒ते | तदु॑शन्ति॒ विश्व॑ इ॒मे सखा᳚य॒स्तद॒हं व॑श्मि पवमान सोम ||{7.4.6.4}, {9.96.4}, {9.5.11.4} |
530 | सोमः॑ पवते जनि॒ता म॑ती॒नां ज॑नि॒ता दि॒वो ज॑नि॒ता पृ॑थि॒व्याः | ज॒नि॒ताग्नेर्ज॑नि॒ता सूर्य॑स्य जनि॒तेन्द्र॑स्य जनि॒तोत विष्णोः᳚ ||{7.4.6.5}, {9.96.5}, {9.5.11.5} |
531 | ब्र॒ह्मा दे॒वानां᳚ पद॒वीः क॑वी॒नामृषि॒र्विप्रा᳚णां महि॒षो मृ॒गाणा᳚म् | श्ये॒नो गृध्रा᳚णां॒ स्वधि॑ति॒र्वना᳚नां॒ सोमः॑ प॒वित्र॒मत्ये᳚ति॒ रेभ॑न् ||{7.4.7.1}, {9.96.6}, {9.5.11.6} |
532 | प्रावी᳚विपद्वा॒च ऊ॒र्मिं न सिन्धु॒र्गिरः॒ सोमः॒ पव॑मानो मनी॒षाः | अ॒न्तः पश्य᳚न्वृ॒जने॒माव॑रा॒ण्या ति॑ष्ठति वृष॒भो गोषु॑ जा॒नन् ||{7.4.7.2}, {9.96.7}, {9.5.11.7} |
533 | स म॑त्स॒रः पृ॒त्सु व॒न्वन्नवा᳚तः स॒हस्र॑रेता अ॒भि वाज॑मर्ष | इन्द्रा᳚येन्दो॒ पव॑मानो मनी॒ष्य१॑(अं॒)शोरू॒र्मिमी᳚रय॒ गा इ॑ष॒ण्यन् ||{7.4.7.3}, {9.96.8}, {9.5.11.8} |
534 | परि॑ प्रि॒यः क॒लशे᳚ दे॒ववा᳚त॒ इन्द्रा᳚य॒ सोमो॒ रण्यो॒ मदा᳚य | स॒हस्र॑धारः श॒तवा᳚ज॒ इन्दु᳚र्वा॒जी न सप्तिः॒ सम॑ना जिगाति ||{7.4.7.4}, {9.96.9}, {9.5.11.9} |
535 | स पू॒र्व्यो व॑सु॒विज्जाय॑मानो मृजा॒नो अ॒प्सु दु॑दुहा॒नो अद्रौ᳚ | अ॒भि॒श॒स्ति॒पा भुव॑नस्य॒ राजा᳚ वि॒दद्गा॒तुं ब्रह्म॑णे पू॒यमा᳚नः ||{7.4.7.5}, {9.96.10}, {9.5.11.10} |
536 | त्वया॒ हि नः॑ पि॒तरः॑ सोम॒ पूर्वे॒ कर्मा᳚णि च॒क्रुः प॑वमान॒ धीराः᳚ | व॒न्वन्नवा᳚तः परि॒धीँरपो᳚र्णु वी॒रेभि॒रश्वै᳚र्म॒घवा᳚ भवा नः ||{7.4.8.1}, {9.96.11}, {9.5.11.11} |
537 | यथाप॑वथा॒ मन॑वे वयो॒धा अ॑मित्र॒हा व॑रिवो॒विद्ध॒विष्मा॑न् | ए॒वा प॑वस्व॒ द्रवि॑णं॒ दधा᳚न॒ इन्द्रे॒ सं ति॑ष्ठ ज॒नयायु॑धानि ||{7.4.8.2}, {9.96.12}, {9.5.11.12} |
538 | पव॑स्व सोम॒ मधु॑माँ ऋ॒तावा॒पो वसा᳚नो॒ अधि॒ सानो॒ अव्ये᳚ | अव॒ द्रोणा᳚नि घृ॒तवा᳚न्ति सीद म॒दिन्त॑मो मत्स॒र इ᳚न्द्र॒पानः॑ ||{7.4.8.3}, {9.96.13}, {9.5.11.13} |
539 | वृ॒ष्टिं दि॒वः श॒तधा᳚रः पवस्व सहस्र॒सा वा᳚ज॒युर्दे॒ववी᳚तौ | सं सिन्धु॑भिः क॒लशे᳚ वावशा॒नः समु॒स्रिया᳚भिः प्रति॒रन्न॒ आयुः॑ ||{7.4.8.4}, {9.96.14}, {9.5.11.14} |
540 | ए॒ष स्य सोमो᳚ म॒तिभिः॑ पुना॒नोऽत्यो॒ न वा॒जी तर॒तीदरा᳚तीः | पयो॒ न दु॒ग्धमदि॑तेरिषि॒रमु॒र्वि॑व गा॒तुः सु॒यमो॒ न वोळ्हा᳚ ||{7.4.8.5}, {9.96.15}, {9.5.11.15} |
541 | स्वा॒यु॒धः सो॒तृभिः॑ पू॒यमा᳚नो॒ऽभ्य॑र्ष॒ गुह्यं॒ चारु॒ नाम॑ | अ॒भि वाजं॒ सप्ति॑रिव श्रव॒स्याभि वा॒युम॒भि गा दे᳚व सोम ||{7.4.9.1}, {9.96.16}, {9.5.11.16} |
542 | शिशुं᳚ जज्ञा॒नं ह᳚र्य॒तं मृ॑जन्ति शु॒म्भन्ति॒ वह्निं᳚ म॒रुतो᳚ ग॒णेन॑ | क॒विर्गी॒र्भिः काव्ये᳚ना क॒विः सन्सोमः॑ प॒वित्र॒मत्ये᳚ति॒ रेभ॑न् ||{7.4.9.2}, {9.96.17}, {9.5.11.17} |
543 | ऋषि॑मना॒ य ऋ॑षि॒कृत्स्व॒र्षाः स॒हस्र॑णीथः पद॒वीः क॑वी॒नाम् | तृ॒तीयं॒ धाम॑ महि॒षः सिषा᳚स॒न्सोमो᳚ वि॒राज॒मनु॑ राजति॒ ष्टुप् ||{7.4.9.3}, {9.96.18}, {9.5.11.18} |
544 | च॒मू॒षच्छ्ये॒नः श॑कु॒नो वि॒भृत्वा᳚ गोवि॒न्दुर्द्र॒प्स आयु॑धानि॒ बिभ्र॑त् | अ॒पामू॒र्मिं सच॑मानः समु॒द्रं तु॒रीयं॒ धाम॑ महि॒षो वि॑वक्ति ||{7.4.9.4}, {9.96.19}, {9.5.11.19} |
545 | मर्यो॒ न शु॒भ्रस्त॒न्वं᳚ मृजा॒नोऽत्यो॒ न सृत्वा᳚ स॒नये॒ धना᳚नाम् | वृषे᳚व यू॒था परि॒ कोश॒मर्ष॒न्कनि॑क्रदच्च॒म्वो॒३॑(ओ॒)रा वि॑वेश ||{7.4.9.5}, {9.96.20}, {9.5.11.20} |
546 | पव॑स्वेन्दो॒ पव॑मानो॒ महो᳚भिः॒ कनि॑क्रद॒त्परि॒ वारा᳚ण्यर्ष | क्रीळ᳚ञ्च॒म्वो॒३॑(ओ॒)रा वि॑श पू॒यमा᳚न॒ इन्द्रं᳚ ते॒ रसो᳚ मदि॒रो म॑मत्तु ||{7.4.10.1}, {9.96.21}, {9.5.11.21} |
547 | प्रास्य॒ धारा᳚ बृह॒तीर॑सृग्रन्न॒क्तो गोभिः॑ क॒लशाँ॒ आ वि॑वेश | साम॑ कृ॒ण्वन्सा᳚म॒न्यो᳚ विप॒श्चित्क्रन्द᳚न्नेत्य॒भि सख्यु॒र्न जा॒मिम् ||{7.4.10.2}, {9.96.22}, {9.5.11.22} |
548 | अ॒प॒घ्नन्ने᳚षि पवमान॒ शत्रू᳚न्प्रि॒यां न जा॒रो अ॒भिगी᳚त॒ इन्दुः॑ | सीद॒न्वने᳚षु शकु॒नो न पत्वा॒ सोमः॑ पुना॒नः क॒लशे᳚षु॒ सत्ता᳚ ||{7.4.10.3}, {9.96.23}, {9.5.11.23} |
549 | आ ते॒ रुचः॒ पव॑मानस्य सोम॒ योषे᳚व यन्ति सु॒दुघाः᳚ सुधा॒राः | हरि॒रानी᳚तः पुरु॒वारो᳚ अ॒प्स्वचि॑क्रदत्क॒लशे᳚ देवयू॒नाम् ||{7.4.10.4}, {9.96.24}, {9.5.11.24} |
[54] (१-५८) अष्टपञ्चाशदृचस्य सूक्तस्य (१-३) प्रथमादितृचस्य मैत्रावरणिर्वसिष्ठः, (४-६) चतुर्थ्यादितृचस्य वासिष्ठ इन्द्रप्रमतिः, (७-९) सप्तम्यादितृचस्य वासिष्ठो वृषगणः, (१०-१२) दशम्यादितृचस्य वासिष्ठो मन्युः, (१३-१५) त्रयोदश्यादितृचस्य वासिष्ठ उपमन्युः, (१६-१८) षोडश्यादितृचस्य वासिष्ठो व्याघ्रपात्, (१९-२१) एकोनविंश्यादितृचस्य वासिष्ठः शक्तिः, (२२२४) द्वाविंश्यादितृचस्य वासिष्ठः कर्णश्रतु, (२५-२७) पञ्चविंश्यादितृचस्य वासिष्ठो मृळीकः, (२८-३०) अष्टाविंश्यादितृचस्य वासिष्ठो वसुक्रः, (३१-४४) एकत्रिंश्यादिचतुर्दश चर्चाम् शाक्त्यः पराशरः, (४५-५८) पञ्चचत्वारिंश्यादिचतुर्दश नाञ्चाङ्गिरसः कुत्स (ऋषयः) पवमानः सोमो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
550 | अ॒स्य प्रे॒षा हे॒मना᳚ पू॒यमा᳚नो दे॒वो दे॒वेभिः॒ सम॑पृक्त॒ रस᳚म् | सु॒तः प॒वित्रं॒ पर्ये᳚ति॒ रेभ᳚न्मि॒तेव॒ सद्म॑ पशु॒मान्ति॒ होता᳚ ||{7.4.11.1}, {9.97.1}, {9.6.1.1} |
551 | भ॒द्रा वस्त्रा᳚ सम॒न्या॒३॑(आ॒) वसा᳚नो म॒हान्क॒विर्नि॒वच॑नानि॒ शंस॑न् | आ व॑च्यस्व च॒म्वोः᳚ पू॒यमा᳚नो विचक्ष॒णो जागृ॑विर्दे॒ववी᳚तौ ||{7.4.11.2}, {9.97.2}, {9.6.1.2} |
552 | समु॑ प्रि॒यो मृ॑ज्यते॒ सानो॒ अव्ये᳚ य॒शस्त॑रो य॒शसां॒ क्षैतो᳚ अ॒स्मे | अ॒भि स्व॑र॒ धन्वा᳚ पू॒यमा᳚नो यू॒यं पा᳚त स्व॒स्तिभिः॒ सदा᳚ नः ||{7.4.11.3}, {9.97.3}, {9.6.1.3} |
553 | प्र गा᳚यता॒भ्य॑र्चाम दे॒वान्सोमं᳚ हिनोत मह॒ते धना᳚य | स्वा॒दुः प॑वाते॒ अति॒ वार॒मव्य॒मा सी᳚दाति क॒लशं᳚ देव॒युर्नः॑ ||{7.4.11.4}, {9.97.4}, {9.6.1.4} |
554 | इन्दु॑र्दे॒वाना॒मुप॑ स॒ख्यमा॒यन्स॒हस्र॑धारः पवते॒ मदा᳚य | नृभिः॒ स्तवा᳚नो॒ अनु॒ धाम॒ पूर्व॒मग॒न्निन्द्रं᳚ मह॒ते सौभ॑गाय ||{7.4.11.5}, {9.97.5}, {9.6.1.5} |
555 | स्तो॒त्रे रा॒ये हरि॑रर्षा पुना॒न इन्द्रं॒ मदो᳚ गच्छतु ते॒ भरा᳚य | दे॒वैर्या᳚हि स॒रथं॒ राधो॒ अच्छा᳚ यू॒यं पा᳚त स्व॒स्तिभिः॒ सदा᳚ नः ||{7.4.12.1}, {9.97.6}, {9.6.1.6} |
556 | प्र काव्य॑मु॒शने᳚व ब्रुवा॒णो दे॒वो दे॒वानां॒ जनि॑मा विवक्ति | महि᳚व्रतः॒ शुचि॑बन्धुः पाव॒कः प॒दा व॑रा॒हो अ॒भ्ये᳚ति॒ रेभ॑न् ||{7.4.12.2}, {9.97.7}, {9.6.1.7} |
557 | प्र हं॒सास॑स्तृ॒पलं᳚ म॒न्युमच्छा॒मादस्तं॒ वृष॑गणा अयासुः | आ॒ङ्गू॒ष्य१॑(अ॒) अंपव॑मानं॒ सखा᳚यो दु॒र्मर्षं᳚ सा॒कं प्र व॑दन्ति वा॒णम् ||{7.4.12.3}, {9.97.8}, {9.6.1.8} |
558 | स रं᳚हत उरुगा॒यस्य॑ जू॒तिं वृथा॒ क्रीळ᳚न्तं मिमते॒ न गावः॑ | प॒री॒ण॒सं कृ॑णुते ति॒ग्मशृ᳚ङ्गो॒ दिवा॒ हरि॒र्ददृ॑शे॒ नक्त॑मृ॒ज्रः ||{7.4.12.4}, {9.97.9}, {9.6.1.9} |
559 | इन्दु᳚र्वा॒जी प॑वते॒ गोन्यो᳚घा॒ इन्द्रे॒ सोमः॒ सह॒ इन्व॒न्मदा᳚य | हन्ति॒ रक्षो॒ बाध॑ते॒ पर्यरा᳚ती॒र्वरि॑वः कृ॒ण्वन्वृ॒जन॑स्य॒ राजा᳚ ||{7.4.12.5}, {9.97.10}, {9.6.1.10} |
560 | अध॒ धार॑या॒ मध्वा᳚ पृचा॒नस्ति॒रो रोम॑ पवते॒ अद्रि॑दुग्धः | इन्दु॒रिन्द्र॑स्य स॒ख्यं जु॑षा॒णो दे॒वो दे॒वस्य॑ मत्स॒रो मदा᳚य ||{7.4.13.1}, {9.97.11}, {9.6.1.11} |
561 | अ॒भि प्रि॒याणि॑ पवते पुना॒नो दे॒वो दे॒वान्स्वेन॒ रसे᳚न पृ॒ञ्चन् | इन्दु॒र्धर्मा᳚ण्यृतु॒था वसा᳚नो॒ दश॒ क्षिपो᳚ अव्यत॒ सानो॒ अव्ये᳚ ||{7.4.13.2}, {9.97.12}, {9.6.1.12} |
562 | वृषा॒ शोणो᳚ अभि॒कनि॑क्रद॒द्गा न॒दय᳚न्नेति पृथि॒वीमु॒त द्याम् | इन्द्र॑स्येव व॒ग्नुरा शृ᳚ण्व आ॒जौ प्र॑चे॒तय᳚न्नर्षति॒ वाच॒मेमाम् ||{7.4.13.3}, {9.97.13}, {9.6.1.13} |
563 | र॒साय्यः॒ पय॑सा॒ पिन्व॑मान ई॒रय᳚न्नेषि॒ मधु॑मन्तमं॒शुम् | पव॑मानः संत॒निमे᳚षि कृ॒ण्वन्निन्द्रा᳚य सोम परिषि॒च्यमा᳚नः ||{7.4.13.4}, {9.97.14}, {9.6.1.14} |
564 | ए॒वा प॑वस्व मदि॒रो मदा᳚योदग्रा॒भस्य॑ न॒मय᳚न्वध॒स्नैः | परि॒ वर्णं॒ भर॑माणो॒ रुश᳚न्तं ग॒व्युर्नो᳚ अर्ष॒ परि॑ सोम सि॒क्तः ||{7.4.13.5}, {9.97.15}, {9.6.1.15} |
565 | जु॒ष्ट्वी न॑ इन्दो सु॒पथा᳚ सु॒गान्यु॒रौ प॑वस्व॒ वरि॑वांसि कृ॒ण्वन् | घ॒नेव॒ विष्व॑ग्दुरि॒तानि॑ वि॒घ्नन्नधि॒ ष्णुना᳚ धन्व॒ सानो॒ अव्ये᳚ ||{7.4.14.1}, {9.97.16}, {9.6.1.16} |
566 | वृ॒ष्टिं नो᳚ अर्ष दि॒व्यां जि॑ग॒त्नुमिळा᳚वतीं शं॒गयीं᳚ जी॒रदा᳚नुम् | स्तुके᳚व वी॒ता ध᳚न्वा विचि॒न्वन्बन्धूँ᳚रि॒माँ अव॑राँ इन्दो वा॒यून् ||{7.4.14.2}, {9.97.17}, {9.6.1.17} |
567 | ग्र॒न्थिं न वि ष्य॑ ग्रथि॒तं पु॑ना॒न ऋ॒जुं च॑ गा॒तुं वृ॑जि॒नं च॑ सोम | अत्यो॒ न क्र॑दो॒ हरि॒रा सृ॑जा॒नो मर्यो᳚ देव धन्व प॒स्त्या᳚वान् ||{7.4.14.3}, {9.97.18}, {9.6.1.18} |
568 | जुष्टो॒ मदा᳚य दे॒वता᳚त इन्दो॒ परि॒ ष्णुना᳚ धन्व॒ सानो॒ अव्ये᳚ | स॒हस्र॑धारः सुर॒भिरद॑ब्धः॒ परि॑ स्रव॒ वाज॑सातौ नृ॒षह्ये᳚ ||{7.4.14.4}, {9.97.19}, {9.6.1.19} |
569 | अ॒र॒श्मानो॒ ये᳚ऽर॒था अयु॑क्ता॒ अत्या᳚सो॒ न स॑सृजा॒नास॑ आ॒जौ | ए॒ते शु॒क्रासो᳚ धन्वन्ति॒ सोमा॒ देवा᳚स॒स्ताँ उप॑ याता॒ पिब॑ध्यै ||{7.4.14.5}, {9.97.20}, {9.6.1.20} |
570 | ए॒वा न॑ इन्दो अ॒भि दे॒ववी᳚तिं॒ परि॑ स्रव॒ नभो॒ अर्ण॑श्च॒मूषु॑ | सोमो᳚ अ॒स्मभ्यं॒ काम्यं᳚ बृ॒हन्तं᳚ र॒यिं द॑दातु वी॒रव᳚न्तमु॒ग्रम् ||{7.4.15.1}, {9.97.21}, {9.6.1.21} |
571 | तक्ष॒द्यदी॒ मन॑सो॒ वेन॑तो॒ वाग्ज्येष्ठ॑स्य वा॒ धर्म॑णि॒ क्षोरनी᳚के | आदी᳚माय॒न्वर॒मा वा᳚वशा॒ना जुष्टं॒ पतिं᳚ क॒लशे॒ गाव॒ इन्दु᳚म् ||{7.4.15.2}, {9.97.22}, {9.6.1.22} |
572 | प्र दा᳚नु॒दो दि॒व्यो दा᳚नुपि॒न्व ऋ॒तमृ॒ताय॑ पवते सुमे॒धाः | ध॒र्मा भु॑वद्वृज॒न्य॑स्य॒ राजा॒ प्र र॒श्मिभि॑र्द॒शभि॑र्भारि॒ भूम॑ ||{7.4.15.3}, {9.97.23}, {9.6.1.23} |
573 | प॒वित्रे᳚भिः॒ पव॑मानो नृ॒चक्षा॒ राजा᳚ दे॒वाना᳚मु॒त मर्त्या᳚नाम् | द्वि॒ता भु॑वद्रयि॒पती᳚ रयी॒णामृ॒तं भ॑र॒त्सुभृ॑तं॒ चार्विन्दुः॑ ||{7.4.15.4}, {9.97.24}, {9.6.1.24} |
574 | अर्वाँ᳚ इव॒ श्रव॑से सा॒तिमच्छेन्द्र॑स्य वा॒योर॒भि वी॒तिम॑र्ष | स नः॑ स॒हस्रा᳚ बृह॒तीरिषो᳚ दा॒ भवा᳚ सोम द्रविणो॒वित्पु॑ना॒नः ||{7.4.15.5}, {9.97.25}, {9.6.1.25} |
575 | दे॒वा॒व्यो᳚ नः परिषि॒च्यमा᳚नाः॒ क्षयं᳚ सु॒वीरं᳚ धन्वन्तु॒ सोमाः᳚ | आ॒य॒ज्यवः॑ सुम॒तिं वि॒श्ववा᳚रा॒ होता᳚रो॒ न दि॑वि॒यजो᳚ म॒न्द्रत॑माः ||{7.4.16.1}, {9.97.26}, {9.6.1.26} |
576 | ए॒वा दे᳚व दे॒वता᳚ते पवस्व म॒हे सो᳚म॒ प्सर॑से देव॒पानः॑ | म॒हश्चि॒द्धि ष्मसि॑ हि॒ताः स॑म॒र्ये कृ॒धि सु॑ष्ठा॒ने रोद॑सी पुना॒नः ||{7.4.16.2}, {9.97.27}, {9.6.1.27} |
577 | अश्वो॒ नो क्र॑दो॒ वृष॑भिर्युजा॒नः सिं॒हो न भी॒मो मन॑सो॒ जवी᳚यान् | अ॒र्वा॒चीनैः᳚ प॒थिभि॒र्ये रजि॑ष्ठा॒ आ प॑वस्व सौमन॒सं न॑ इन्दो ||{7.4.16.3}, {9.97.28}, {9.6.1.28} |
578 | श॒तं धारा᳚ दे॒वजा᳚ता असृग्रन्स॒हस्र॑मेनाः क॒वयो᳚ मृजन्ति | इन्दो᳚ स॒नित्रं᳚ दि॒व आ प॑वस्व पुरए॒तासि॑ मह॒तो धन॑स्य ||{7.4.16.4}, {9.97.29}, {9.6.1.29} |
579 | दि॒वो न सर्गा᳚ अससृग्र॒मह्नां॒ राजा॒ न मि॒त्रं प्र मि॑नाति॒ धीरः॑ | पि॒तुर्न पु॒त्रः क्रतु॑भिर्यता॒न आ प॑वस्व वि॒शे अ॒स्या अजी᳚तिम् ||{7.4.16.5}, {9.97.30}, {9.6.1.30} |
580 | प्र ते॒ धारा॒ मधु॑मतीरसृग्र॒न्वारा॒न्यत्पू॒तो अ॒त्येष्यव्या॑न् | पव॑मान॒ पव॑से॒ धाम॒ गोनां᳚ जज्ञा॒नः सूर्य॑मपिन्वो अ॒र्कैः ||{7.4.17.1}, {9.97.31}, {9.6.1.31} |
581 | कनि॑क्रद॒दनु॒ पन्था᳚मृ॒तस्य॑ शु॒क्रो वि भा᳚स्य॒मृत॑स्य॒ धाम॑ | स इन्द्रा᳚य पवसे मत्स॒रवा᳚न्हिन्वा॒नो वाचं᳚ म॒तिभिः॑ कवी॒नाम् ||{7.4.17.2}, {9.97.32}, {9.6.1.32} |
582 | दि॒व्यः सु॑प॒र्णोऽव॑ चक्षि सोम॒ पिन्व॒न्धाराः॒ कर्म॑णा दे॒ववी᳚तौ | एन्दो᳚ विश क॒लशं᳚ सोम॒धानं॒ क्रन्द᳚न्निहि॒ सूर्य॒स्योप॑ र॒श्मिम् ||{7.4.17.3}, {9.97.33}, {9.6.1.33} |
583 | ति॒स्रो वाच॑ ईरयति॒ प्र वह्नि॑रृ॒तस्य॑ धी॒तिं ब्रह्म॑णो मनी॒षाम् | गावो᳚ यन्ति॒ गोप॑तिं पृ॒च्छमा᳚नाः॒ सोमं᳚ यन्ति म॒तयो᳚ वावशा॒नाः ||{7.4.17.4}, {9.97.34}, {9.6.1.34} |
584 | सोमं॒ गावो᳚ धे॒नवो᳚ वावशा॒नाः सोमं॒ विप्रा᳚ म॒तिभिः॑ पृ॒च्छमा᳚नाः | सोमः॑ सु॒तः पू᳚यते अ॒ज्यमा᳚नः॒ सोमे᳚ अ॒र्कास्त्रि॒ष्टुभः॒ सं न॑वन्ते ||{7.4.17.5}, {9.97.35}, {9.6.1.35} |
585 | ए॒वा नः॑ सोम परिषि॒च्यमा᳚न॒ आ प॑वस्व पू॒यमा᳚नः स्व॒स्ति | इन्द्र॒मा वि॑श बृह॒ता रवे᳚ण व॒र्धया॒ वाचं᳚ ज॒नया॒ पुरं᳚धिम् ||{7.4.18.1}, {9.97.36}, {9.6.1.36} |
586 | आ जागृ॑वि॒र्विप्र॑ ऋ॒ता म॑ती॒नां सोमः॑ पुना॒नो अ॑सदच्च॒मूषु॑ | सप᳚न्ति॒ यं मि॑थु॒नासो॒ निका᳚मा अध्व॒र्यवो᳚ रथि॒रासः॑ सु॒हस्ताः᳚ ||{7.4.18.2}, {9.97.37}, {9.6.1.37} |
587 | स पु॑ना॒न उप॒ सूरे॒ न धातोभे अ॑प्रा॒ रोद॑सी॒ वि ष आ᳚वः | प्रि॒या चि॒द्यस्य॑ प्रिय॒सास॑ ऊ॒ती स तू धनं᳚ का॒रिणे॒ न प्र यं᳚सत् ||{7.4.18.3}, {9.97.38}, {9.6.1.38} |
588 | स व॑र्धि॒ता वर्ध॑नः पू॒यमा᳚नः॒ सोमो᳚ मी॒ढ्वाँ अ॒भि नो॒ ज्योति॑षावीत् | येना᳚ नः॒ पूर्वे᳚ पि॒तरः॑ पद॒ज्ञाः स्व॒र्विदो᳚ अ॒भि गा अद्रि॑मु॒ष्णन् ||{7.4.18.4}, {9.97.39}, {9.6.1.39} |
589 | अक्रा᳚न्समु॒द्रः प्र॑थ॒मे विध᳚र्मञ्ज॒नय᳚न्प्र॒जा भुव॑नस्य॒ राजा᳚ | वृषा᳚ प॒वित्रे॒ अधि॒ सानो॒ अव्ये᳚ बृ॒हत्सोमो᳚ वावृधे सुवा॒न इन्दुः॑ ||{7.4.18.5}, {9.97.40}, {9.6.1.40} |
590 | म॒हत्तत्सोमो᳚ महि॒षश्च॑कारा॒पां यद्गर्भोऽवृ॑णीत दे॒वान् | अद॑धा॒दिन्द्रे॒ पव॑मान॒ ओजोऽज॑नय॒त्सूर्ये॒ ज्योति॒रिन्दुः॑ ||{7.4.19.1}, {9.97.41}, {9.6.1.41} |
591 | मत्सि॑ वा॒युमि॒ष्टये॒ राध॑से च॒ मत्सि॑ मि॒त्रावरु॑णा पू॒यमा᳚नः | मत्सि॒ शर्धो॒ मारु॑तं॒ मत्सि॑ दे॒वान्मत्सि॒ द्यावा᳚पृथि॒वी दे᳚व सोम ||{7.4.19.2}, {9.97.42}, {9.6.1.42} |
592 | ऋ॒जुः प॑वस्व वृजि॒नस्य॑ ह॒न्तापामी᳚वां॒ बाध॑मानो॒ मृध॑श्च | अ॒भि॒श्री॒णन्पयः॒ पय॑सा॒भि गोना॒मिन्द्र॑स्य॒ त्वं तव॑ व॒यं सखा᳚यः ||{7.4.19.3}, {9.97.43}, {9.6.1.43} |
593 | मध्वः॒ सूदं᳚ पवस्व॒ वस्व॒ उत्सं᳚ वी॒रं च॑ न॒ आ प॑वस्वा॒ भगं᳚ च | स्वद॒स्वेन्द्रा᳚य॒ पव॑मान इन्दो र॒यिं च॑ न॒ आ प॑वस्वा समु॒द्रात् ||{7.4.19.4}, {9.97.44}, {9.6.1.44} |
594 | सोमः॑ सु॒तो धार॒यात्यो॒ न हित्वा॒ सिन्धु॒र्न नि॒म्नम॒भि वा॒ज्य॑क्षाः | आ योनिं॒ वन्य॑मसदत्पुना॒नः समिन्दु॒र्गोभि॑रसर॒त्सम॒द्भिः ||{7.4.19.5}, {9.97.45}, {9.6.1.45} |
595 | ए॒ष स्य ते᳚ पवत इन्द्र॒ सोम॑श्च॒मूषु॒ धीर॑ उश॒ते तव॑स्वान् | स्व॑र्चक्षा रथि॒रः स॒त्यशु॑ष्मः॒ कामो॒ न यो दे᳚वय॒तामस॑र्जि ||{7.4.20.1}, {9.97.46}, {9.6.1.46} |
596 | ए॒ष प्र॒त्नेन॒ वय॑सा पुना॒नस्ति॒रो वर्पां᳚सि दुहि॒तुर्दधा᳚नः | वसा᳚नः॒ शर्म॑ त्रि॒वरू᳚थम॒प्सु होते᳚व याति॒ सम॑नेषु॒ रेभ॑न् ||{7.4.20.2}, {9.97.47}, {9.6.1.47} |
597 | नू न॒स्त्वं र॑थि॒रो दे᳚व सोम॒ परि॑ स्रव च॒म्वोः᳚ पू॒यमा᳚नः | अ॒प्सु स्वादि॑ष्ठो॒ मधु॑माँ ऋ॒तावा᳚ दे॒वो न यः स॑वि॒ता स॒त्यम᳚न्मा ||{7.4.20.3}, {9.97.48}, {9.6.1.48} |
598 | अ॒भि वा॒युं वी॒त्य॑र्षा गृणा॒नो॒३॑(ओ॒)ऽभि मि॒त्रावरु॑णा पू॒यमा᳚नः | अ॒भी नरं᳚ धी॒जव॑नं रथे॒ष्ठाम॒भीन्द्रं॒ वृष॑णं॒ वज्र॑बाहुम् ||{7.4.20.4}, {9.97.49}, {9.6.1.49} |
599 | अ॒भि वस्त्रा᳚ सुवस॒नान्य॑र्षा॒भि धे॒नूः सु॒दुघाः᳚ पू॒यमा᳚नः | अ॒भि च॒न्द्रा भर्त॑वे नो॒ हिर᳚ण्या॒भ्यश्वा᳚न्र॒थिनो᳚ देव सोम ||{7.4.20.5}, {9.97.50}, {9.6.1.50} |
600 | अ॒भी नो᳚ अर्ष दि॒व्या वसू᳚न्य॒भि विश्वा॒ पार्थि॑वा पू॒यमा᳚नः | अ॒भि येन॒ द्रवि॑णम॒श्नवा᳚मा॒भ्या᳚र्षे॒यं ज॑मदग्नि॒वन्नः॑ ||{7.4.21.1}, {9.97.51}, {9.6.1.51} |
601 | अ॒या प॒वा प॑वस्वै॒ना वसू᳚नि माँश्च॒त्व इ᳚न्दो॒ सर॑सि॒ प्र ध᳚न्व | ब्र॒ध्नश्चि॒दत्र॒ वातो॒ न जू॒तः पु॑रु॒मेध॑श्चि॒त्तक॑वे॒ नरं᳚ दात् ||{7.4.21.2}, {9.97.52}, {9.6.1.52} |
602 | उ॒त न॑ ए॒ना प॑व॒या प॑व॒स्वाधि॑ श्रु॒ते श्र॒वाय्य॑स्य ती॒र्थे | ष॒ष्टिं स॒हस्रा᳚ नैगु॒तो वसू᳚नि वृ॒क्षं न प॒क्वं धू᳚नव॒द्रणा᳚य ||{7.4.21.3}, {9.97.53}, {9.6.1.53} |
603 | मही॒मे अ॑स्य॒ वृष॒नाम॑ शू॒षे माँश्च॑त्वे वा॒ पृश॑ने वा॒ वध॑त्रे | अस्वा᳚पयन्नि॒गुतः॑ स्ने॒हय॒च्चापा॒मित्राँ॒ अपा॒चितो᳚ अचे॒तः ||{7.4.21.4}, {9.97.54}, {9.6.1.54} |
604 | सं त्री प॒वित्रा॒ वित॑तान्ये॒ष्यन्वेकं᳚ धावसि पू॒यमा᳚नः | असि॒ भगो॒ असि॑ दा॒त्रस्य॑ दा॒तासि॑ म॒घवा᳚ म॒घव॑द्भ्य इन्दो ||{7.4.21.5}, {9.97.55}, {9.6.1.55} |
605 | ए॒ष वि॑श्व॒वित्प॑वते मनी॒षी सोमो॒ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य॒ राजा᳚ | द्र॒प्साँ ई॒रय᳚न्वि॒दथे॒ष्विन्दु॒र्वि वार॒मव्यं᳚ स॒मयाति॑ याति ||{7.4.22.1}, {9.97.56}, {9.6.1.56} |
606 | इन्दुं᳚ रिहन्ति महि॒षा अद॑ब्धाः प॒दे रे᳚भन्ति क॒वयो॒ न गृध्राः᳚ | हि॒न्वन्ति॒ धीरा᳚ द॒शभिः॒ क्षिपा᳚भिः॒ सम᳚ञ्जते रू॒पम॒पां रसे᳚न ||{7.4.22.2}, {9.97.57}, {9.6.1.57} |
607 | त्वया᳚ व॒यं पव॑मानेन सोम॒ भरे᳚ कृ॒तं वि चि॑नुयाम॒ शश्व॑त् | तन्नो᳚ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः ||{7.4.22.3}, {9.97.58}, {9.6.1.58} |
[55] (१-१२) द्वादशर्चस्य सूक्तस्य वार्षागिरोऽम्बरीषो भारद्वाज ऋजिश्वा च ऋषी। पवमानः सोमो देवता | (१-१०, १२) प्रथमादिदशों द्वादश्याश्चानुष्टप्, (११) एकादश्याश्च बृहती छन्दसी || | |
608 | अ॒भि नो᳚ वाज॒सात॑मं र॒यिम॑र्ष पुरु॒स्पृह᳚म् | इन्दो᳚ स॒हस्र॑भर्णसं तुविद्यु॒म्नं वि॑भ्वा॒सह᳚म् ||{7.4.23.1}, {9.98.1}, {9.6.2.1} |
609 | परि॒ ष्य सु॑वा॒नो अ॒व्ययं॒ रथे॒ न वर्मा᳚व्यत | इन्दु॑र॒भि द्रुणा᳚ हि॒तो हि॑या॒नो धारा᳚भिरक्षाः ||{7.4.23.2}, {9.98.2}, {9.6.2.2} |
610 | परि॒ ष्य सु॑वा॒नो अ॑क्षा॒ इन्दु॒रव्ये॒ मद॑च्युतः | धारा॒ य ऊ॒र्ध्वो अ॑ध्व॒रे भ्रा॒जा नैति॑ गव्य॒युः ||{7.4.23.3}, {9.98.3}, {9.6.2.3} |
611 | स हि त्वं दे᳚व॒ शश्व॑ते॒ वसु॒ मर्ता᳚य दा॒शुषे᳚ | इन्दो᳚ सह॒स्रिणं᳚ र॒यिं श॒तात्मा᳚नं विवाससि ||{7.4.23.4}, {9.98.4}, {9.6.2.4} |
612 | व॒यं ते᳚ अ॒स्य वृ॑त्रह॒न्वसो॒ वस्वः॑ पुरु॒स्पृहः॑ | नि नेदि॑ष्ठतमा इ॒षः स्याम॑ सु॒म्नस्या᳚ध्रिगो ||{7.4.23.5}, {9.98.5}, {9.6.2.5} |
613 | द्विर्यं पञ्च॒ स्वय॑शसं॒ स्वसा᳚रो॒ अद्रि॑संहतम् | प्रि॒यमिन्द्र॑स्य॒ काम्यं᳚ प्रस्ना॒पय᳚न्त्यू॒र्मिण᳚म् ||{7.4.23.6}, {9.98.6}, {9.6.2.6} |
614 | परि॒ त्यं ह᳚र्य॒तं हरिं᳚ ब॒भ्रुं पु॑नन्ति॒ वारे᳚ण | यो दे॒वान्विश्वाँ॒ इत्परि॒ मदे᳚न स॒ह गच्छ॑ति ||{7.4.24.1}, {9.98.7}, {9.6.2.7} |
615 | अ॒स्य वो॒ ह्यव॑सा॒ पान्तो᳚ दक्ष॒साध॑नम् | यः सू॒रिषु॒ श्रवो᳚ बृ॒हद्द॒धे स्व१॑(अ॒)'र्ण ह᳚र्य॒तः ||{7.4.24.2}, {9.98.8}, {9.6.2.8} |
616 | स वां᳚ य॒ज्ञेषु॑ मानवी॒ इन्दु॑र्जनिष्ट रोदसी | दे॒वो दे᳚वी गिरि॒ष्ठा अस्रे᳚ध॒न्तं तु॑वि॒ष्वणि॑ ||{7.4.24.3}, {9.98.9}, {9.6.2.9} |
617 | इन्द्रा᳚य सोम॒ पात॑वे वृत्र॒घ्ने परि॑ षिच्यसे | नरे᳚ च॒ दक्षि॑णावते दे॒वाय॑ सदना॒सदे᳚ ||{7.4.24.4}, {9.98.10}, {9.6.2.10} |
618 | ते प्र॒त्नासो॒ व्यु॑ष्टिषु॒ सोमाः᳚ प॒वित्रे᳚ अक्षरन् | अ॒प॒प्रोथ᳚न्तः सनु॒तर्हु॑र॒श्चितः॑ प्रा॒तस्ताँ अप्र॑चेतसः ||{7.4.24.5}, {9.98.11}, {9.6.2.11} |
619 | तं स॑खायः पुरो॒रुचं᳚ यू॒यं व॒यं च॑ सू॒रयः॑ | अ॒श्याम॒ वाज॑गन्ध्यं स॒नेम॒ वाज॑पस्त्यम् ||{7.4.24.6}, {9.98.12}, {9.6.2.12} |
[56] (१-८) अष्टर्चस्य सूक्तस्य काश्यपौ रेभसूनू ऋषी, पवमानः सोमो देवता | (१) प्रथम! बृहती, (२-८) द्वितीयादिसप्तानाञ्चानुष्टप् छन्दसी || | |
620 | आ ह᳚र्य॒ताय॑ धृ॒ष्णवे॒ धनु॑स्तन्वन्ति॒ पौंस्य᳚म् | शु॒क्रां व॑य॒न्त्यसु॑राय नि॒र्णिजं᳚ वि॒पामग्रे᳚ मही॒युवः॑ ||{7.4.25.1}, {9.99.1}, {9.6.3.1} |
621 | अध॑ क्ष॒पा परि॑ष्कृतो॒ वाजाँ᳚ अ॒भि प्र गा᳚हते | यदी᳚ वि॒वस्व॑तो॒ धियो॒ हरिं᳚ हि॒न्वन्ति॒ यात॑वे ||{7.4.25.2}, {9.99.2}, {9.6.3.2} |
622 | तम॑स्य मर्जयामसि॒ मदो॒ य इ᳚न्द्र॒पात॑मः | यं गाव॑ आ॒सभि॑र्द॒धुः पु॒रा नू॒नं च॑ सू॒रयः॑ ||{7.4.25.3}, {9.99.3}, {9.6.3.3} |
623 | तं गाथ॑या पुरा॒ण्या पु॑ना॒नम॒भ्य॑नूषत | उ॒तो कृ॑पन्त धी॒तयो᳚ दे॒वानां॒ नाम॒ बिभ्र॑तीः ||{7.4.25.4}, {9.99.4}, {9.6.3.4} |
624 | तमु॒क्षमा᳚णम॒व्यये॒ वारे᳚ पुनन्ति धर्ण॒सिम् | दू॒तं न पू॒र्वचि॑त्तय॒ आ शा᳚सते मनी॒षिणः॑ ||{7.4.25.5}, {9.99.5}, {9.6.3.5} |
625 | स पु॑ना॒नो म॒दिन्त॑मः॒ सोम॑श्च॒मूषु॑ सीदति | प॒शौ न रेत॑ आ॒दध॒त्पति᳚र्वचस्यते धि॒यः ||{7.4.26.1}, {9.99.6}, {9.6.3.6} |
626 | स मृ॑ज्यते सु॒कर्म॑भिर्दे॒वो दे॒वेभ्यः॑ सु॒तः | वि॒दे यदा᳚सु संद॒दिर्म॒हीर॒पो वि गा᳚हते ||{7.4.26.2}, {9.99.7}, {9.6.3.7} |
627 | सु॒त इ᳚न्दो प॒वित्र॒ आ नृभि᳚र्य॒तो वि नी᳚यसे | इन्द्रा᳚य मत्स॒रिन्त॑मश्च॒मूष्वा नि षी᳚दसि ||{7.4.26.3}, {9.99.8}, {9.6.3.8} |
[57] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्य काश्यपौ रेभसून ऋषी। पवमानः सोमो देवता | अनुष्टुप् छन्दः || | |
628 | अ॒भी न॑वन्ते अ॒द्रुहः॑ प्रि॒यमिन्द्र॑स्य॒ काम्य᳚म् | व॒त्सं न पूर्व॒ आयु॑नि जा॒तं रि॑हन्ति मा॒तरः॑ ||{7.4.27.1}, {9.100.1}, {9.6.4.1} |
629 | पु॒ना॒न इ᳚न्द॒वा भ॑र॒ सोम॑ द्वि॒बर्ह॑सं र॒यिम् | त्वं वसू᳚नि पुष्यसि॒ विश्वा᳚नि दा॒शुषो᳚ गृ॒हे ||{7.4.27.2}, {9.100.2}, {9.6.4.2} |
630 | त्वं धियं᳚ मनो॒युजं᳚ सृ॒जा वृ॒ष्टिं न त᳚न्य॒तुः | त्वं वसू᳚नि॒ पार्थि॑वा दि॒व्या च॑ सोम पुष्यसि ||{7.4.27.3}, {9.100.3}, {9.6.4.3} |
631 | परि॑ ते जि॒ग्युषो᳚ यथा॒ धारा᳚ सु॒तस्य॑ धावति | रंह॑माणा॒ व्य१॑(अ॒)'व्ययं॒ वारं᳚ वा॒जीव॑ सान॒सिः ||{7.4.27.4}, {9.100.4}, {9.6.4.4} |
632 | क्रत्वे॒ दक्षा᳚य नः कवे॒ पव॑स्व सोम॒ धार॑या | इन्द्रा᳚य॒ पात॑वे सु॒तो मि॒त्राय॒ वरु॑णाय च ||{7.4.27.5}, {9.100.5}, {9.6.4.5} |
633 | पव॑स्व वाज॒सात॑मः प॒वित्रे॒ धार॑या सु॒तः | इन्द्रा᳚य सोम॒ विष्ण॑वे दे॒वेभ्यो॒ मधु॑मत्तमः ||{7.4.28.1}, {9.100.6}, {9.6.4.6} |
634 | त्वां रि॑हन्ति मा॒तरो॒ हरिं᳚ प॒वित्रे᳚ अ॒द्रुहः॑ | व॒त्सं जा॒तं न धे॒नवः॒ पव॑मान॒ विध᳚र्मणि ||{7.4.28.2}, {9.100.7}, {9.6.4.7} |
635 | पव॑मान॒ महि॒ श्रव॑श्चि॒त्रेभि᳚र्यासि र॒श्मिभिः॑ | शर्ध॒न्तमां᳚सि जिघ्नसे॒ विश्वा᳚नि दा॒शुषो᳚ गृ॒हे ||{7.4.28.3}, {9.100.8}, {9.6.4.8} |
636 | त्वं द्यां च॑ महिव्रत पृथि॒वीं चाति॑ जभ्रिषे | प्रति॑ द्रा॒पिम॑मुञ्चथाः॒ पव॑मान महित्व॒ना ||{7.4.28.4}, {9.100.9}, {9.6.4.9} |
[58] (१-१६) षोळशर्चस्य सूक्तस्य (१-३) प्रथमादितृचस्य श्यावाश्विरन्धीगुः, (४-६) चतुर्थ्यादितृचस्य नाहुषो ययाति, (७-९) सप्तम्यादितृचस्य राजर्षिर्मानवो नहूषः, (१०-१२) दशम्यादितृचस्य सांवरणो मनुः, (१३-१६) त्रयोदश्यादिचतुर्ऋचामा स्य च वैश्वामित्रो वाच्यो वा प्रजापतिर्(ऋषयः) पवमानः सोमो देवता | (१, ४-१६) प्रथमर्चश्चतुर्थ्यादित्रयोदशानाञ्चानुष्टप् (२-३) द्वितीयातृतीययोश्च गायत्री छन्दसी || | |
637 | पु॒रोजि॑ती वो॒ अन्ध॑सः सु॒ताय॑ मादयि॒त्नवे᳚ | अप॒ श्वानं᳚ श्नथिष्टन॒ सखा᳚यो दीर्घजि॒ह्व्य᳚म् ||{7.5.1.1}, {9.101.1}, {9.6.5.1} |
638 | यो धार॑या पाव॒कया᳚ परिप्र॒स्यन्द॑ते सु॒तः | इन्दु॒रश्वो॒ न कृत्व्यः॑ ||{7.5.1.2}, {9.101.2}, {9.6.5.2} |
639 | तं दु॒रोष॑म॒भी नरः॒ सोमं᳚ वि॒श्वाच्या᳚ धि॒या | य॒ज्ञं हि᳚न्व॒न्त्यद्रि॑भिः ||{7.5.1.3}, {9.101.3}, {9.6.5.3} |
640 | सु॒तासो॒ मधु॑मत्तमाः॒ सोमा॒ इन्द्रा᳚य म॒न्दिनः॑ | प॒वित्र॑वन्तो अक्षरन्दे॒वान्ग॑च्छन्तु वो॒ मदाः᳚ ||{7.5.1.4}, {9.101.4}, {9.6.5.4} |
641 | इन्दु॒रिन्द्रा᳚य पवत॒ इति॑ दे॒वासो᳚ अब्रुवन् | वा॒चस्पति᳚र्मखस्यते॒ विश्व॒स्येशा᳚न॒ ओज॑सा ||{7.5.1.5}, {9.101.5}, {9.6.5.5} |
642 | स॒हस्र॑धारः पवते समु॒द्रो वा᳚चमीङ्ख॒यः | सोमः॒ पती᳚ रयी॒णां सखेन्द्र॑स्य दि॒वेदि॑वे ||{7.5.2.1}, {9.101.6}, {9.6.5.6} |
643 | अ॒यं पू॒षा र॒यिर्भगः॒ सोमः॑ पुना॒नो अ॑र्षति | पति॒र्विश्व॑स्य॒ भूम॑नो॒ व्य॑ख्य॒द्रोद॑सी उ॒भे ||{7.5.2.2}, {9.101.7}, {9.6.5.7} |
644 | समु॑ प्रि॒या अ॑नूषत॒ गावो॒ मदा᳚य॒ घृष्व॑यः | सोमा᳚सः कृण्वते प॒थः पव॑मानास॒ इन्द॑वः ||{7.5.2.3}, {9.101.8}, {9.6.5.8} |
645 | य ओजि॑ष्ठ॒स्तमा भ॑र॒ पव॑मान श्र॒वाय्य᳚म् | यः पञ्च॑ चर्ष॒णीर॒भि र॒यिं येन॒ वना᳚महै ||{7.5.2.4}, {9.101.9}, {9.6.5.9} |
646 | सोमाः᳚ पवन्त॒ इन्द॑वो॒ऽस्मभ्यं᳚ गातु॒वित्त॑माः | मि॒त्राः सु॑वा॒ना अ॑रे॒पसः॑ स्वा॒ध्यः॑ स्व॒र्विदः॑ ||{7.5.2.5}, {9.101.10}, {9.6.5.10} |
647 | सु॒ष्वा॒णासो॒ व्यद्रि॑भि॒श्चिता᳚ना॒ गोरधि॑ त्व॒चि | इष॑म॒स्मभ्य॑म॒भितः॒ सम॑स्वरन्वसु॒विदः॑ ||{7.5.3.1}, {9.101.11}, {9.6.5.11} |
648 | ए॒ते पू॒ता वि॑प॒श्चितः॒ सोमा᳚सो॒ दध्या᳚शिरः | सूर्या᳚सो॒ न द॑र्श॒तासो᳚ जिग॒त्नवो᳚ ध्रु॒वा घृ॒ते ||{7.5.3.2}, {9.101.12}, {9.6.5.12} |
649 | प्र सु᳚न्वा॒नस्यान्ध॑सो॒ मर्तो॒ न वृ॑त॒ तद्वचः॑ | अप॒ श्वान॑मरा॒धसं᳚ ह॒ता म॒खं न भृग॑वः ||{7.5.3.3}, {9.101.13}, {9.6.5.13} |
650 | आ जा॒मिरत्के᳚ अव्यत भु॒जे न पु॒त्र ओ॒ण्योः᳚ | सर॑ज्जा॒रो न योष॑णां व॒रो न योनि॑मा॒सद᳚म् ||{7.5.3.4}, {9.101.14}, {9.6.5.14} |
651 | स वी॒रो द॑क्ष॒साध॑नो॒ वि यस्त॒स्तम्भ॒ रोद॑सी | हरिः॑ प॒वित्रे᳚ अव्यत वे॒धा न योनि॑मा॒सद᳚म् ||{7.5.3.5}, {9.101.15}, {9.6.5.15} |
652 | अव्यो॒ वारे᳚भिः पवते॒ सोमो॒ गव्ये॒ अधि॑ त्व॒चि | कनि॑क्रद॒द्वृषा॒ हरि॒रिन्द्र॑स्या॒भ्ये᳚ति निष्कृ॒तम् ||{7.5.3.6}, {9.101.16}, {9.6.5.16} |
[59] (१-८) अष्टर्चस्य सूक्तस्याप्त्यस्त्रित ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | उष्णिक् छन्दः || | |
653 | क्रा॒णा शिशु᳚र्म॒हीनां᳚ हि॒न्वन्नृ॒तस्य॒ दीधि॑तिम् | विश्वा॒ परि॑ प्रि॒या भु॑व॒दध॑ द्वि॒ता ||{7.5.4.1}, {9.102.1}, {9.6.6.1} |
654 | उप॑ त्रि॒तस्य॑ पा॒ष्यो॒३॑(ओ॒)रभ॑क्त॒ यद्गुहा᳚ प॒दम् | य॒ज्ञस्य॑ स॒प्त धाम॑भि॒रध॑ प्रि॒यम् ||{7.5.4.2}, {9.102.2}, {9.6.6.2} |
655 | त्रीणि॑ त्रि॒तस्य॒ धार॑या पृ॒ष्ठेष्वेर॑या र॒यिम् | मिमी᳚ते अस्य॒ योज॑ना॒ वि सु॒क्रतुः॑ ||{7.5.4.3}, {9.102.3}, {9.6.6.3} |
656 | ज॒ज्ञा॒नं स॒प्त मा॒तरो᳚ वे॒धाम॑शासत श्रि॒ये | अ॒यं ध्रु॒वो र॑यी॒णां चिके᳚त॒ यत् ||{7.5.4.4}, {9.102.4}, {9.6.6.4} |
657 | अ॒स्य व्र॒ते स॒जोष॑सो॒ विश्वे᳚ दे॒वासो᳚ अ॒द्रुहः॑ | स्पा॒र्हा भ॑वन्ति॒ रन्त॑यो जु॒षन्त॒ यत् ||{7.5.4.5}, {9.102.5}, {9.6.6.5} |
658 | यमी॒ गर्भ॑मृता॒वृधो᳚ दृ॒शे चारु॒मजी᳚जनन् | क॒विं मंहि॑ष्ठमध्व॒रे पु॑रु॒स्पृह᳚म् ||{7.5.5.1}, {9.102.6}, {9.6.6.6} |
659 | स॒मी॒ची॒ने अ॒भि त्मना᳚ य॒ह्वी ऋ॒तस्य॑ मा॒तरा᳚ | त॒न्वा॒ना य॒ज्ञमा᳚नु॒षग्यद᳚ञ्ज॒ते ||{7.5.5.2}, {9.102.7}, {9.6.6.7} |
660 | क्रत्वा᳚ शु॒क्रेभि॑र॒क्षभि॑रृ॒णोरप᳚ व्र॒जं दि॒वः | हि॒न्वन्नृ॒तस्य॒ दीधि॑तिं॒ प्राध्व॒रे ||{7.5.5.3}, {9.102.8}, {9.6.6.8} |
[60] (१-६) षळृर्चस्य सूक्तस्याप्त्यस्त्रित ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | उष्णिक् छन्दः || | |
661 | प्र पु॑ना॒नाय॑ वे॒धसे॒ सोमा᳚य॒ वच॒ उद्य॑तम् | भृ॒तिं न भ॑रा म॒तिभि॒र्जुजो᳚षते ||{7.5.6.1}, {9.103.1}, {9.6.7.1} |
662 | परि॒ वारा᳚ण्य॒व्यया॒ गोभि॑रञ्जा॒नो अ॑र्षति | त्री ष॒धस्था᳚ पुना॒नः कृ॑णुते॒ हरिः॑ ||{7.5.6.2}, {9.103.2}, {9.6.7.2} |
663 | परि॒ कोशं᳚ मधु॒श्चुत॑म॒व्यये॒ वारे᳚ अर्षति | अ॒भि वाणी॒रृषी᳚णां स॒प्त नू᳚षत ||{7.5.6.3}, {9.103.3}, {9.6.7.3} |
664 | परि॑ णे॒ता म॑ती॒नां वि॒श्वदे᳚वो॒ अदा᳚भ्यः | सोमः॑ पुना॒नश्च॒म्वो᳚र्विश॒द्धरिः॑ ||{7.5.6.4}, {9.103.4}, {9.6.7.4} |
665 | परि॒ दैवी॒रनु॑ स्व॒धा इन्द्रे᳚ण याहि स॒रथ᳚म् | पु॒ना॒नो वा॒घद्वा॒घद्भि॒रम॑र्त्यः ||{7.5.6.5}, {9.103.5}, {9.6.7.5} |
666 | परि॒ सप्ति॒र्न वा᳚ज॒युर्दे॒वो दे॒वेभ्यः॑ सु॒तः | व्या॒न॒शिः पव॑मानो॒ वि धा᳚वति ||{7.5.6.6}, {9.103.6}, {9.6.7.6} |
[61] (१-६) षळृर्चस्य सूक्तस्य कारावौ पर्वतनारदौ काश्यप्यौ शिखण्डिन्यावप्सरसौ वा ऋषिके। पवमानः सोमो देवता | उष्णिक् छन्दः || | |
667 | सखा᳚य॒ आ नि षी᳚दत पुना॒नाय॒ प्र गा᳚यत | शिशुं॒ न य॒ज्ञैः परि॑ भूषत श्रि॒ये ||{7.5.7.1}, {9.104.1}, {9.7.1.1} |
668 | समी᳚ व॒त्सं न मा॒तृभिः॑ सृ॒जता᳚ गय॒साध॑नम् | दे॒वा॒व्य१॑(अ॒) अंमद॑म॒भि द्विश॑वसम् ||{7.5.7.2}, {9.104.2}, {9.7.1.2} |
669 | पु॒नाता᳚ दक्ष॒साध॑नं॒ यथा॒ शर्धा᳚य वी॒तये᳚ | यथा᳚ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय॒ शंत॑मः ||{7.5.7.3}, {9.104.3}, {9.7.1.3} |
670 | अ॒स्मभ्यं᳚ त्वा वसु॒विद॑म॒भि वाणी᳚रनूषत | गोभि॑ष्टे॒ वर्ण॑म॒भि वा᳚सयामसि ||{7.5.7.4}, {9.104.4}, {9.7.1.4} |
671 | स नो᳚ मदानां पत॒ इन्दो᳚ दे॒वप्स॑रा असि | सखे᳚व॒ सख्ये᳚ गातु॒वित्त॑मो भव ||{7.5.7.5}, {9.104.5}, {9.7.1.5} |
672 | सने᳚मि कृ॒ध्य१॑(अ॒)स्मदा र॒क्षसं॒ कं चि॑द॒त्रिण᳚म् | अपादे᳚वं द्व॒युमंहो᳚ युयोधि नः ||{7.5.7.6}, {9.104.6}, {9.7.1.6} |
[62] (१-६) षळृर्चस्य सूक्तस्य काण्वौ पर्वतनारदावृषी। पवमानः सोमो देवता | उष्णिक् छन्दः || | |
673 | तं वः॑ सखायो॒ मदा᳚य पुना॒नम॒भि गा᳚यत | शिशुं॒ न य॒ज्ञैः स्व॑दयन्त गू॒र्तिभिः॑ ||{7.5.8.1}, {9.105.1}, {9.7.2.1} |
674 | सं व॒त्स इ॑व मा॒तृभि॒रिन्दु॑र्हिन्वा॒नो अ॑ज्यते | दे॒वा॒वीर्मदो᳚ म॒तिभिः॒ परि॑ष्कृतः ||{7.5.8.2}, {9.105.2}, {9.7.2.2} |
675 | अ॒यं दक्षा᳚य॒ साध॑नो॒ऽयं शर्धा᳚य वी॒तये᳚ | अ॒यं दे॒वेभ्यो॒ मधु॑मत्तमः सु॒तः ||{7.5.8.3}, {9.105.3}, {9.7.2.3} |
676 | गोम᳚न्न इन्दो॒ अश्व॑वत्सु॒तः सु॑दक्ष धन्व | शुचिं᳚ ते॒ वर्ण॒मधि॒ गोषु॑ दीधरम् ||{7.5.8.4}, {9.105.4}, {9.7.2.4} |
677 | स नो᳚ हरीणां पत॒ इन्दो᳚ दे॒वप्स॑रस्तमः | सखे᳚व॒ सख्ये॒ नर्यो᳚ रु॒चे भ॑व ||{7.5.8.5}, {9.105.5}, {9.7.2.5} |
678 | सने᳚मि॒ त्वम॒स्मदाँ अदे᳚वं॒ कं चि॑द॒त्रिण᳚म् | सा॒ह्वाँ इ᳚न्दो॒ परि॒ बाधो॒ अप॑ द्व॒युम् ||{7.5.8.6}, {9.105.6}, {9.7.2.6} |
[63] (१-१४) चतुर्दशर्चस्य सूक्तस्य (१-३, १०-१४) प्रथमादितृचस्य दशम्यादिपञ्चानाञ्च चाक्षुषोऽग्निः, (४-६) चतुर्थ्यादितृचस्य मानवश्चक्षुः, (७-९) सप्तम्यादितृचस्य चाप्सवो मनुऋर्ष यः, पवमानः सोमो देवता | उष्णिक् छन्दः || | |
679 | इन्द्र॒मच्छ॑ सु॒ता इ॒मे वृष॑णं यन्तु॒ हर॑यः | श्रु॒ष्टी जा॒तास॒ इन्द॑वः स्व॒र्विदः॑ ||{7.5.9.1}, {9.106.1}, {9.7.3.1} |
680 | अ॒यं भरा᳚य सान॒सिरिन्द्रा᳚य पवते सु॒तः | सोमो॒ जैत्र॑स्य चेतति॒ यथा᳚ वि॒दे ||{7.5.9.2}, {9.106.2}, {9.7.3.2} |
681 | अ॒स्येदिन्द्रो॒ मदे॒ष्वा ग्रा॒भं गृ॑भ्णीत सान॒सिम् | वज्रं᳚ च॒ वृष॑णं भर॒त्सम॑प्सु॒जित् ||{7.5.9.3}, {9.106.3}, {9.7.3.3} |
682 | प्र ध᳚न्वा सोम॒ जागृ॑वि॒रिन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव | द्यु॒मन्तं॒ शुष्म॒मा भ॑रा स्व॒र्विद᳚म् ||{7.5.9.4}, {9.106.4}, {9.7.3.4} |
683 | इन्द्रा᳚य॒ वृष॑णं॒ मदं॒ पव॑स्व वि॒श्वद॑र्शतः | स॒हस्र॑यामा पथि॒कृद्वि॑चक्ष॒णः ||{7.5.9.5}, {9.106.5}, {9.7.3.5} |
684 | अ॒स्मभ्यं᳚ गातु॒वित्त॑मो दे॒वेभ्यो॒ मधु॑मत्तमः | स॒हस्रं᳚ याहि प॒थिभिः॒ कनि॑क्रदत् ||{7.5.10.1}, {9.106.6}, {9.7.3.6} |
685 | पव॑स्व दे॒ववी᳚तय॒ इन्दो॒ धारा᳚भि॒रोज॑सा | आ क॒लशं॒ मधु॑मान्सोम नः सदः ||{7.5.10.2}, {9.106.7}, {9.7.3.7} |
686 | तव॑ द्र॒प्सा उ॑द॒प्रुत॒ इन्द्रं॒ मदा᳚य वावृधुः | त्वां दे॒वासो᳚ अ॒मृता᳚य॒ कं प॑पुः ||{7.5.10.3}, {9.106.8}, {9.7.3.8} |
687 | आ नः॑ सुतास इन्दवः पुना॒ना धा᳚वता र॒यिम् | वृ॒ष्टिद्या᳚वो रीत्यापः स्व॒र्विदः॑ ||{7.5.10.4}, {9.106.9}, {9.7.3.9} |
688 | सोमः॑ पुना॒न ऊ॒र्मिणाव्यो॒ वारं॒ वि धा᳚वति | अग्रे᳚ वा॒चः पव॑मानः॒ कनि॑क्रदत् ||{7.5.10.5}, {9.106.10}, {9.7.3.10} |
689 | धी॒भिर्हि᳚न्वन्ति वा॒जिनं॒ वने॒ क्रीळ᳚न्त॒मत्य॑विम् | अ॒भि त्रि॑पृ॒ष्ठं म॒तयः॒ सम॑स्वरन् ||{7.5.11.1}, {9.106.11}, {9.7.3.11} |
690 | अस॑र्जि क॒लशाँ᳚ अ॒भि मी॒ळ्हे सप्ति॒र्न वा᳚ज॒युः | पु॒ना॒नो वाचं᳚ ज॒नय᳚न्नसिष्यदत् ||{7.5.11.2}, {9.106.12}, {9.7.3.12} |
691 | पव॑ते हर्य॒तो हरि॒रति॒ ह्वरां᳚सि॒ रंह्या᳚ | अ॒भ्यर्ष᳚न्स्तो॒तृभ्यो᳚ वी॒रव॒द्यशः॑ ||{7.5.11.3}, {9.106.13}, {9.7.3.13} |
692 | अ॒या प॑वस्व देव॒युर्मधो॒र्धारा᳚ असृक्षत | रेभ᳚न्प॒वित्रं॒ पर्ये᳚षि वि॒श्वतः॑ ||{7.5.11.4}, {9.106.14}, {9.7.3.14} |
[64] (१-२६) षड़िवशत्यृचस्य सूक्तस्य बार्हस्पत्यो भरद्वाजः, मारीचः कश्यपः, रहूगणो गोतमः, भौमोऽत्रिः, गाथिनो विश्वामित्रः, भार्गवो जमदग्निः मैत्रावरुणिर्वसिष्ठश्च सप्तर्षयः, पवमानः सोमो देवता | (१-२, ४-७, १०-१५, १७-२६) प्रथमाद्वितीययोर्ऋचोश्चतुर्थ्यादिचतसृणां दशम्यादिषण्णां सप्तदश्यादिदशानाञ्च प्रगाथः ((१, ४, ६, १०, १२, १४, १७, १९, २१, २३, २५) प्रथमाचतुर्थीषष्ठीदशमीद्वादशीचतुर्दश सप्तदश्येकोनविंश्येकविंशीत्रयोविंशीपञ्चविंशी नां बृहती, (२, ५, ७, ११, १३, १५, १८, २०, २२, २४, २६) द्वितीयापञ्चमीसप्तम्येकादशीत्रयोदशीपञ्चदश्यष्टादशीविंशीद्वाविंशीचतुर्विशीषड़िवशी नां सतोबृहती), (३) तृतीयाया भरिग्विराड़ द्विपदा (८-९) अष्टमीनवम्योबह ती, (१६) षोडश्याश्च द्विपदा विराट् छन्दांसि || | |
693 | परी॒तो षि᳚ञ्चता सु॒तं सोमो॒ य उ॑त्त॒मं ह॒विः | द॒ध॒न्वाँ यो नर्यो᳚ अ॒प्स्व१॑(अ॒)'न्तरा सु॒षाव॒ सोम॒मद्रि॑भिः ||{7.5.12.1}, {9.107.1}, {9.7.4.1} |
694 | नू॒नं पु॑ना॒नोऽवि॑भिः॒ परि॑ स्र॒वाद॑ब्धः सुर॒भिन्त॑रः | सु॒ते चि॑त्त्वा॒प्सु म॑दामो॒ अन्ध॑सा श्री॒णन्तो॒ गोभि॒रुत्त॑रम् ||{7.5.12.2}, {9.107.2}, {9.7.4.2} |
695 | परि॑ सुवा॒नश्चक्ष॑से देव॒माद॑नः॒ क्रतु॒रिन्दु᳚र्विचक्ष॒णः ||{7.5.12.3}, {9.107.3}, {9.7.4.3} |
696 | पु॒ना॒नः सो᳚म॒ धार॑या॒पो वसा᳚नो अर्षसि | आ र॑त्न॒धा योनि॑मृ॒तस्य॑ सीद॒स्युत्सो᳚ देव हिर॒ण्ययः॑ ||{7.5.12.4}, {9.107.4}, {9.7.4.4} |
697 | दु॒हा॒न ऊध॑र्दि॒व्यं मधु॑ प्रि॒यं प्र॒त्नं स॒धस्थ॒मास॑दत् | आ॒पृच्छ्यं᳚ ध॒रुणं᳚ वा॒ज्य॑र्षति॒ नृभि॑र्धू॒तो वि॑चक्ष॒णः ||{7.5.12.5}, {9.107.5}, {9.7.4.5} |
698 | पु॒ना॒नः सो᳚म॒ जागृ॑वि॒रव्यो॒ वारे॒ परि॑ प्रि॒यः | त्वं विप्रो᳚ अभ॒वोऽङ्गि॑रस्तमो॒ मध्वा᳚ य॒ज्ञं मि॑मिक्ष नः ||{7.5.13.1}, {9.107.6}, {9.7.4.6} |
699 | सोमो᳚ मी॒ढ्वान्प॑वते गातु॒वित्त॑म॒ ऋषि॒र्विप्रो᳚ विचक्ष॒णः | त्वं क॒विर॑भवो देव॒वीत॑म॒ आ सूर्यं᳚ रोहयो दि॒वि ||{7.5.13.2}, {9.107.7}, {9.7.4.7} |
700 | सोम॑ उ षुवा॒णः सो॒तृभि॒रधि॒ ष्णुभि॒रवी᳚नाम् | अश्व॑येव ह॒रिता᳚ याति॒ धार॑या म॒न्द्रया᳚ याति॒ धार॑या ||{7.5.13.3}, {9.107.8}, {9.7.4.8} |
701 | अ॒नू॒पे गोमा॒न्गोभि॑रक्षाः॒ सोमो᳚ दु॒ग्धाभि॑रक्षाः | स॒मु॒द्रं न सं॒वर॑णान्यग्मन्म॒न्दी मदा᳚य तोशते ||{7.5.13.4}, {9.107.9}, {9.7.4.9} |
702 | आ सो᳚म सुवा॒नो अद्रि॑भिस्ति॒रो वारा᳚ण्य॒व्यया᳚ | जनो॒ न पु॒रि च॒म्वो᳚र्विश॒द्धरिः॒ सदो॒ वने᳚षु दधिषे ||{7.5.13.5}, {9.107.10}, {9.7.4.10} |
703 | स मा᳚मृजे ति॒रो अण्वा᳚नि मे॒ष्यो᳚ मी॒ळ्हे सप्ति॒र्न वा᳚ज॒युः | अ॒नु॒माद्यः॒ पव॑मानो मनी॒षिभिः॒ सोमो॒ विप्रे᳚भि॒रृक्व॑भिः ||{7.5.14.1}, {9.107.11}, {9.7.4.11} |
704 | प्र सो᳚म दे॒ववी᳚तये॒ सिन्धु॒र्न पि॑प्ये॒ अर्ण॑सा | अं॒शोः पय॑सा मदि॒रो न जागृ॑वि॒रच्छा॒ कोशं᳚ मधु॒श्चुत᳚म् ||{7.5.14.2}, {9.107.12}, {9.7.4.12} |
705 | आ ह᳚र्य॒तो अर्जु॑ने॒ अत्के᳚ अव्यत प्रि॒यः सू॒नुर्न मर्ज्यः॑ | तमीं᳚ हिन्वन्त्य॒पसो॒ यथा॒ रथं᳚ न॒दीष्वा गभ॑स्त्योः ||{7.5.14.3}, {9.107.13}, {9.7.4.13} |
706 | अ॒भि सोमा᳚स आ॒यवः॒ पव᳚न्ते॒ मद्यं॒ मद᳚म् | स॒मु॒द्रस्याधि॑ वि॒ष्टपि॑ मनी॒षिणो᳚ मत्स॒रासः॑ स्व॒र्विदः॑ ||{7.5.14.4}, {9.107.14}, {9.7.4.14} |
707 | तर॑त्समु॒द्रं पव॑मान ऊ॒र्मिणा॒ राजा᳚ दे॒व ऋ॒तं बृ॒हत् | अर्ष᳚न्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ धर्म॑णा॒ प्र हि᳚न्वा॒न ऋ॒तं बृ॒हत् ||{7.5.14.5}, {9.107.15}, {9.7.4.15} |
708 | नृभि᳚र्येमा॒नो ह᳚र्य॒तो वि॑चक्ष॒णो राजा᳚ दे॒वः स॑मु॒द्रियः॑ ||{7.5.15.1}, {9.107.16}, {9.7.4.16} |
709 | इन्द्रा᳚य पवते॒ मदः॒ सोमो᳚ म॒रुत्व॑ते सु॒तः | स॒हस्र॑धारो॒ अत्यव्य॑मर्षति॒ तमी᳚ मृजन्त्या॒यवः॑ ||{7.5.15.2}, {9.107.17}, {9.7.4.17} |
710 | पु॒ना॒नश्च॒मू ज॒नय᳚न्म॒तिं क॒विः सोमो᳚ दे॒वेषु॑ रण्यति | अ॒पो वसा᳚नः॒ परि॒ गोभि॒रुत्त॑रः॒ सीद॒न्वने᳚ष्वव्यत ||{7.5.15.3}, {9.107.18}, {9.7.4.18} |
711 | तवा॒हं सो᳚म रारण स॒ख्य इ᳚न्दो दि॒वेदि॑वे | पु॒रूणि॑ बभ्रो॒ नि च॑रन्ति॒ मामव॑ परि॒धीँरति॒ ताँ इ॑हि ||{7.5.15.4}, {9.107.19}, {9.7.4.19} |
712 | उ॒ताहं नक्त॑मु॒त सो᳚म ते॒ दिवा᳚ स॒ख्याय॑ बभ्र॒ ऊध॑नि | घृ॒णा तप᳚न्त॒मति॒ सूर्यं᳚ प॒रः श॑कु॒ना इ॑व पप्तिम ||{7.5.15.5}, {9.107.20}, {9.7.4.20} |
713 | मृ॒ज्यमा᳚नः सुहस्त्य समु॒द्रे वाच॑मिन्वसि | र॒यिं पि॒शङ्गं᳚ बहु॒लं पु॑रु॒स्पृहं॒ पव॑माना॒भ्य॑र्षसि ||{7.5.16.1}, {9.107.21}, {9.7.4.21} |
714 | मृ॒जा॒नो वारे॒ पव॑मानो अ॒व्यये॒ वृषाव॑ चक्रदो॒ वने᳚ | दे॒वानां᳚ सोम पवमान निष्कृ॒तं गोभि॑रञ्जा॒नो अ॑र्षसि ||{7.5.16.2}, {9.107.22}, {9.7.4.22} |
715 | पव॑स्व॒ वाज॑सातये॒ऽभि विश्वा᳚नि॒ काव्या᳚ | त्वं स॑मु॒द्रं प्र॑थ॒मो वि धा᳚रयो दे॒वेभ्यः॑ सोम मत्स॒रः ||{7.5.16.3}, {9.107.23}, {9.7.4.23} |
716 | स तू प॑वस्व॒ परि॒ पार्थि॑वं॒ रजो᳚ दि॒व्या च॑ सोम॒ धर्म॑भिः | त्वां विप्रा᳚सो म॒तिभि᳚र्विचक्षण शु॒भ्रं हि᳚न्वन्ति धी॒तिभिः॑ ||{7.5.16.4}, {9.107.24}, {9.7.4.24} |
717 | पव॑माना असृक्षत प॒वित्र॒मति॒ धार॑या | म॒रुत्व᳚न्तो मत्स॒रा इ᳚न्द्रि॒या हया᳚ मे॒धाम॒भि प्रयां᳚सि च ||{7.5.16.5}, {9.107.25}, {9.7.4.25} |
718 | अ॒पो वसा᳚नः॒ परि॒ कोश॑मर्ष॒तीन्दु॑र्हिया॒नः सो॒तृभिः॑ | ज॒नय॒ञ्ज्योति᳚र्म॒न्दना᳚ अवीवश॒द्गाः कृ᳚ण्वा॒नो न नि॒र्णिज᳚म् ||{7.5.16.6}, {9.107.26}, {9.7.4.26} |
[65] (१-१६) षोळशर्चस्य सूक्तस्य (१-२) प्रथमाद्वितीययोर्ऋचोः शाक्त्यो गौरिवीतिः, (३, १४-१६) तृतीयायाश्चतुदर्श यादितृचस्य च वासिष्ठः शक्तिः, (४५) चतुर्थीपञ्चम्योराङ्गिरस ऊरुः, (६-७) षष्ठीसप्तम्योर्भारद्वाज ऋजिश्वा, (८-९) अष्टमीनवम्योराङ्गिरस ऊर्ध्वसपा, (१०-११) दशम्येकादश्योराङ्गिरसः कृतयशाः, (१२-१३) द्वादशीत्रयोदश्योश्च राजर्षिणञ्चय (ऋषयः) पवमानः सोमो देवता | काकभः प्रगाथः (विषमर्चाम् ककप, समर्चाम् सतोबृहती), (१३) त्रयोदश्या यवमध्या गायत्री छन्दः || | |
719 | पव॑स्व॒ मधु॑मत्तम॒ इन्द्रा᳚य सोम क्रतु॒वित्त॑मो॒ मदः॑ | महि॑ द्यु॒क्षत॑मो॒ मदः॑ ||{7.5.17.1}, {9.108.1}, {9.7.5.1} |
720 | यस्य॑ ते पी॒त्वा वृ॑ष॒भो वृ॑षा॒यते॒ऽस्य पी॒ता स्व॒र्विदः॑ | स सु॒प्रके᳚तो अ॒भ्य॑क्रमी॒दिषोऽच्छा॒ वाजं॒ नैत॑शः ||{7.5.17.2}, {9.108.2}, {9.7.5.2} |
721 | त्वं ह्य१॑(अ॒)'ङ्ग दैव्या॒ पव॑मान॒ जनि॑मानि द्यु॒मत्त॑मः | अ॒मृ॒त॒त्वाय॑ घो॒षयः॑ ||{7.5.17.3}, {9.108.3}, {9.7.5.3} |
722 | येना॒ नव॑ग्वो द॒ध्यङ्ङ॑पोर्णु॒ते येन॒ विप्रा᳚स आपि॒रे | दे॒वानां᳚ सु॒म्ने अ॒मृत॑स्य॒ चारु॑णो॒ येन॒ श्रवां᳚स्यान॒शुः ||{7.5.17.4}, {9.108.4}, {9.7.5.4} |
723 | ए॒ष स्य धार॑या सु॒तोऽव्यो॒ वारे᳚भिः पवते म॒दिन्त॑मः | क्रीळ᳚न्नू॒र्मिर॒पामि॑व ||{7.5.17.5}, {9.108.5}, {9.7.5.5} |
724 | य उ॒स्रिया॒ अप्या᳚ अ॒न्तरश्म॑नो॒ निर्गा अकृ᳚न्त॒दोज॑सा | अ॒भि व्र॒जं त॑त्निषे॒ गव्य॒मश्व्यं᳚ व॒र्मीव॑ धृष्ण॒वा रु॑ज ||{7.5.18.1}, {9.108.6}, {9.7.5.6} |
725 | आ सो᳚ता॒ परि॑ षिञ्च॒ताश्वं॒ न स्तोम॑म॒प्तुरं᳚ रज॒स्तुर᳚म् | व॒न॒क्र॒क्षमु॑द॒प्रुत᳚म् ||{7.5.18.2}, {9.108.7}, {9.7.5.7} |
726 | स॒हस्र॑धारं वृष॒भं प॑यो॒वृधं᳚ प्रि॒यं दे॒वाय॒ जन्म॑ने | ऋ॒तेन॒ य ऋ॒तजा᳚तो विवावृ॒धे राजा᳚ दे॒व ऋ॒तं बृ॒हत् ||{7.5.18.3}, {9.108.8}, {9.7.5.8} |
727 | अ॒भि द्यु॒म्नं बृ॒हद्यश॒ इष॑स्पते दिदी॒हि दे᳚व देव॒युः | वि कोशं᳚ मध्य॒मं यु॑व ||{7.5.18.4}, {9.108.9}, {9.7.5.9} |
728 | आ व॑च्यस्व सुदक्ष च॒म्वोः᳚ सु॒तो वि॒शां वह्नि॒र्न वि॒श्पतिः॑ | वृ॒ष्टिं दि॒वः प॑वस्व री॒तिम॒पां जिन्वा॒ गवि॑ष्टये॒ धियः॑ ||{7.5.18.5}, {9.108.10}, {9.7.5.10} |
729 | ए॒तमु॒ त्यं म॑द॒च्युतं᳚ स॒हस्र॑धारं वृष॒भं दिवो᳚ दुहुः | विश्वा॒ वसू᳚नि॒ बिभ्र॑तम् ||{7.5.19.1}, {9.108.11}, {9.7.5.11} |
730 | वृषा॒ वि ज॑ज्ञे ज॒नय॒न्नम॑र्त्यः प्र॒तप॒ञ्ज्योति॑षा॒ तमः॑ | स सुष्टु॑तः क॒विभि᳚र्नि॒र्णिजं᳚ दधे त्रि॒धात्व॑स्य॒ दंस॑सा ||{7.5.19.2}, {9.108.12}, {9.7.5.12} |
731 | स सु᳚न्वे॒ यो वसू᳚नां॒ यो रा॒यामा᳚ने॒ता य इळा᳚नाम् | सोमो॒ यः सु॑क्षिती॒नाम् ||{7.5.19.3}, {9.108.13}, {9.7.5.13} |
732 | यस्य॑ न॒ इन्द्रः॒ पिबा॒द्यस्य॑ म॒रुतो॒ यस्य॑ वार्य॒मणा॒ भगः॑ | आ येन॑ मि॒त्रावरु॑णा॒ करा᳚मह॒ एन्द्र॒मव॑से म॒हे ||{7.5.19.4}, {9.108.14}, {9.7.5.14} |
733 | इन्द्रा᳚य सोम॒ पात॑वे॒ नृभि᳚र्य॒तः स्वा᳚यु॒धो म॒दिन्त॑मः | पव॑स्व॒ मधु॑मत्तमः ||{7.5.19.5}, {9.108.15}, {9.7.5.15} |
734 | इन्द्र॑स्य॒ हार्दि॑ सोम॒धान॒मा वि॑श समु॒द्रमि॑व॒ सिन्ध॑वः | जुष्टो᳚ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय वा॒यवे᳚ दि॒वो वि॑ष्ट॒म्भ उ॑त्त॒मः ||{7.5.19.6}, {9.108.16}, {9.7.5.16} |
[66] (१-२२) द्वाविंशत्यृचस्य सूक्तस्यैश्वरयो धिष्ण्याग्नय (ऋषयः) पवमानः सोमो देवता | द्विपदा विराट् छन्दः || | |
735 | परि॒ प्र ध॒न्वेन्द्रा᳚य सोम स्वा॒दुर्मि॒त्राय॑ पू॒ष्णे भगा᳚य ||{7.5.20.1}, {9.109.1}, {9.7.6.1} |
736 | इन्द्र॑स्ते सोम सु॒तस्य॑ पेयाः॒ क्रत्वे॒ दक्षा᳚य॒ विश्वे᳚ च दे॒वाः ||{7.5.20.2}, {9.109.2}, {9.7.6.2} |
737 | ए॒वामृता᳚य म॒हे क्षया᳚य॒ स शु॒क्रो अ॑र्ष दि॒व्यः पी॒यूषः॑ ||{7.5.20.3}, {9.109.3}, {9.7.6.3} |
738 | पव॑स्व सोम म॒हान्स॑मु॒द्रः पि॒ता दे॒वानां॒ विश्वा॒भि धाम॑ ||{7.5.20.4}, {9.109.4}, {9.7.6.4} |
739 | शु॒क्रः प॑वस्व दे॒वेभ्यः॑ सोम दि॒वे पृ॑थि॒व्यै शं च॑ प्र॒जायै᳚ ||{7.5.20.5}, {9.109.5}, {9.7.6.5} |
740 | दि॒वो ध॒र्तासि॑ शु॒क्रः पी॒यूषः॑ स॒त्ये विध᳚र्मन्वा॒जी प॑वस्व ||{7.5.20.6}, {9.109.6}, {9.7.6.6} |
741 | पव॑स्व सोम द्यु॒म्नी सु॑धा॒रो म॒हामवी᳚ना॒मनु॑ पू॒र्व्यः ||{7.5.20.7}, {9.109.7}, {9.7.6.7} |
742 | नृभि᳚र्येमा॒नो ज॑ज्ञा॒नः पू॒तः क्षर॒द्विश्वा᳚नि म॒न्द्रः स्व॒र्वित् ||{7.5.20.8}, {9.109.8}, {9.7.6.8} |
743 | इन्दुः॑ पुना॒नः प्र॒जामु॑रा॒णः कर॒द्विश्वा᳚नि॒ द्रवि॑णानि नः ||{7.5.20.9}, {9.109.9}, {9.7.6.9} |
744 | पव॑स्व सोम॒ क्रत्वे॒ दक्षा॒याश्वो॒ न नि॒क्तो वा॒जी धना᳚य ||{7.5.20.10}, {9.109.10}, {9.7.6.10} |
745 | तं ते᳚ सो॒तारो॒ रसं॒ मदा᳚य पु॒नन्ति॒ सोमं᳚ म॒हे द्यु॒म्नाय॑ ||{7.5.21.1}, {9.109.11}, {9.7.6.11} |
746 | शिशुं᳚ जज्ञा॒नं हरिं᳚ मृजन्ति प॒वित्रे॒ सोमं᳚ दे॒वेभ्य॒ इन्दु᳚म् ||{7.5.21.2}, {9.109.12}, {9.7.6.12} |
747 | इन्दुः॑ पविष्ट॒ चारु॒र्मदा᳚या॒पामु॒पस्थे᳚ क॒विर्भगा᳚य ||{7.5.21.3}, {9.109.13}, {9.7.6.13} |
748 | बिभ॑र्ति॒ चार्विन्द्र॑स्य॒ नाम॒ येन॒ विश्वा᳚नि वृ॒त्रा ज॒घान॑ ||{7.5.21.4}, {9.109.14}, {9.7.6.14} |
749 | पिब᳚न्त्यस्य॒ विश्वे᳚ दे॒वासो॒ गोभिः॑ श्री॒तस्य॒ नृभिः॑ सु॒तस्य॑ ||{7.5.21.5}, {9.109.15}, {9.7.6.15} |
750 | प्र सु॑वा॒नो अ॑क्षाः स॒हस्र॑धारस्ति॒रः प॒वित्रं॒ वि वार॒मव्य᳚म् ||{7.5.21.6}, {9.109.16}, {9.7.6.16} |
751 | स वा॒ज्य॑क्षाः स॒हस्र॑रेता अ॒द्भिर्मृ॑जा॒नो गोभिः॑ श्रीणा॒नः ||{7.5.21.7}, {9.109.17}, {9.7.6.17} |
752 | प्र सो᳚म या॒हीन्द्र॑स्य कु॒क्षा नृभि᳚र्येमा॒नो अद्रि॑भिः सु॒तः ||{7.5.21.8}, {9.109.18}, {9.7.6.18} |
753 | अस॑र्जि वा॒जी ति॒रः प॒वित्र॒मिन्द्रा᳚य॒ सोमः॑ स॒हस्र॑धारः ||{7.5.21.9}, {9.109.19}, {9.7.6.19} |
754 | अ॒ञ्जन्त्ये᳚नं॒ मध्वो॒ रसे॒नेन्द्रा᳚य॒ वृष्ण॒ इन्दुं॒ मदा᳚य ||{7.5.21.10}, {9.109.20}, {9.7.6.20} |
755 | दे॒वेभ्य॑स्त्वा॒ वृथा॒ पाज॑से॒ऽपो वसा᳚नं॒ हरिं᳚ मृजन्ति ||{7.5.21.11}, {9.109.21}, {9.7.6.21} |
756 | इन्दु॒रिन्द्रा᳚य तोशते॒ नि तो᳚शते श्री॒णन्नु॒ग्रो रि॒णन्न॒पः ||{7.5.21.12}, {9.109.22}, {9.7.6.22} |
[67] (१-१२) द्वादशर्चस्य सूक्तस्य त्रैवष्णस्यरुणः पौरुकुत्स्यस्त्रसदस्युर्षी। पवमानः सोमो देवता | (१-३) प्रथमादितृचस्य पिपीलिकमध्यानुष्टप्, (४-९) चतुर्थ्यादितृचद्वयस्योर्ध्वबह ती, (१०-१२) दशम्यादितृचस्य च विराट् छन्दांसि || | |
757 | पर्यू॒ षु प्र ध᳚न्व॒ वाज॑सातये॒ परि॑ वृ॒त्राणि॑ स॒क्षणिः॑ | द्वि॒षस्त॒रध्या᳚ ऋण॒या न॑ ईयसे ||{7.5.22.1}, {9.110.1}, {9.7.7.1} |
758 | अनु॒ हि त्वा᳚ सु॒तं सो᳚म॒ मदा᳚मसि म॒हे स॑मर्य॒राज्ये᳚ | वाजाँ᳚ अ॒भि प॑वमान॒ प्र गा᳚हसे ||{7.5.22.2}, {9.110.2}, {9.7.7.2} |
759 | अजी᳚जनो॒ हि प॑वमान॒ सूर्यं᳚ वि॒धारे॒ शक्म॑ना॒ पयः॑ | गोजी᳚रया॒ रंह॑माणः॒ पुरं᳚ध्या ||{7.5.22.3}, {9.110.3}, {9.7.7.3} |
760 | अजी᳚जनो अमृत॒ मर्त्ये॒ष्वाँ ऋ॒तस्य॒ धर्म᳚न्न॒मृत॑स्य॒ चारु॑णः | सदा᳚सरो॒ वाज॒मच्छा॒ सनि॑ष्यदत् ||{7.5.22.4}, {9.110.4}, {9.7.7.4} |
761 | अ॒भ्य॑भि॒ हि श्रव॑सा त॒तर्दि॒थोत्सं॒ न कं चि॑ज्जन॒पान॒मक्षि॑तम् | शर्या᳚भि॒र्न भर॑माणो॒ गभ॑स्त्योः ||{7.5.22.5}, {9.110.5}, {9.7.7.5} |
762 | आदीं॒ के चि॒त्पश्य॑मानास॒ आप्यं᳚ वसु॒रुचो᳚ दि॒व्या अ॒भ्य॑नूषत | वारं॒ न दे॒वः स॑वि॒ता व्यू᳚र्णुते ||{7.5.22.6}, {9.110.6}, {9.7.7.6} |
763 | त्वे सो᳚म प्रथ॒मा वृ॒क्तब॑र्हिषो म॒हे वाजा᳚य॒ श्रव॑से॒ धियं᳚ दधुः | स त्वं नो᳚ वीर वी॒र्या᳚य चोदय ||{7.5.23.1}, {9.110.7}, {9.7.7.7} |
764 | दि॒वः पी॒यूषं᳚ पू॒र्व्यं यदु॒क्थ्यं᳚ म॒हो गा॒हाद्दि॒व आ निर॑धुक्षत | इन्द्र॑म॒भि जाय॑मानं॒ सम॑स्वरन् ||{7.5.23.2}, {9.110.8}, {9.7.7.8} |
765 | अध॒ यदि॒मे प॑वमान॒ रोद॑सी इ॒मा च॒ विश्वा॒ भुव॑ना॒भि म॒ज्मना᳚ | यू॒थे न नि॒ष्ठा वृ॑ष॒भो वि ति॑ष्ठसे ||{7.5.23.3}, {9.110.9}, {9.7.7.9} |
766 | सोमः॑ पुना॒नो अ॒व्यये॒ वारे॒ शिशु॒र्न क्रीळ॒न्पव॑मानो अक्षाः | स॒हस्र॑धारः श॒तवा᳚ज॒ इन्दुः॑ ||{7.5.23.4}, {9.110.10}, {9.7.7.10} |
767 | ए॒ष पु॑ना॒नो मधु॑माँ ऋ॒तावेन्द्रा॒येन्दुः॑ पवते स्वा॒दुरू॒र्मिः | वा॒ज॒सनि᳚र्वरिवो॒विद्व॑यो॒धाः ||{7.5.23.5}, {9.110.11}, {9.7.7.11} |
768 | स प॑वस्व॒ सह॑मानः पृत॒न्यून्सेध॒न्रक्षां॒स्यप॑ दु॒र्गहा᳚णि | स्वा॒यु॒धः सा᳚स॒ह्वान्सो᳚म॒ शत्रू॑न् ||{7.5.23.6}, {9.110.12}, {9.7.7.12} |
[68] (१-३) तृचस्य सूक्तस्य पारुच्छेपिरनानत ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | अत्यष्टिश्छन्दः || | |
769 | अ॒या रु॒चा हरि᳚ण्या पुना॒नो विश्वा॒ द्वेषां᳚सि तरति स्व॒युग्व॑भिः॒ सूरो॒ न स्व॒युग्व॑भिः | धारा᳚ सु॒तस्य॑ रोचते पुना॒नो अ॑रु॒षो हरिः॑ | विश्वा॒ यद्रू॒पा प॑रि॒यात्यृक्व॑भिः स॒प्तास्ये᳚भि॒रृक्व॑भिः ||{7.5.24.1}, {9.111.1}, {9.7.8.1} |
770 | त्वं त्यत्प॑णी॒नां वि॑दो॒ वसु॒ सं मा॒तृभि᳚र्मर्जयसि॒ स्व आ दम॑ ऋ॒तस्य॑ धी॒तिभि॒र्दमे᳚ | प॒रा॒वतो॒ न साम॒ तद्यत्रा॒ रण᳚न्ति धी॒तयः॑ | त्रि॒धातु॑भि॒ररु॑षीभि॒र्वयो᳚ दधे॒ रोच॑मानो॒ वयो᳚ दधे ||{7.5.24.2}, {9.111.2}, {9.7.8.2} |
771 | पूर्वा॒मनु॑ प्र॒दिशं᳚ याति॒ चेकि॑त॒त्सं र॒श्मिभि᳚र्यतते दर्श॒तो रथो॒ दैव्यो᳚ दर्श॒तो रथः॑ | अग्म᳚न्नु॒क्थानि॒ पौंस्येन्द्रं॒ जैत्रा᳚य हर्षयन् | वज्र॑श्च॒ यद्भव॑थो॒ अन॑पच्युता स॒मत्स्वन॑पच्युता ||{7.5.24.3}, {9.111.3}, {9.7.8.3} |
[69] (१-४) चतुरृचस्य सूक्तस्य आङ्गिरसः शिशु ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | पतिश्छन्दः || | |
772 | ना॒ना॒नं वा उ॑ नो॒ धियो॒ वि व्र॒तानि॒ जना᳚नाम् | तक्षा᳚ रि॒ष्टं रु॒तं भि॒षग्ब्र॒ह्मा सु॒न्वन्त॑मिच्छ॒तीन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.25.1}, {9.112.1}, {9.7.9.1} |
773 | जर॑तीभि॒रोष॑धीभिः प॒र्णेभिः॑ शकु॒नाना᳚म् | का॒र्मा॒रो अश्म॑भि॒र्द्युभि॒र्हिर᳚ण्यवन्तमिच्छ॒तीन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.25.2}, {9.112.2}, {9.7.9.2} |
774 | का॒रुर॒हं त॒तो भि॒षगु॑पलप्र॒क्षिणी᳚ न॒ना | नाना᳚धियो वसू॒यवोऽनु॒ गा इ॑व तस्थि॒मेन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.25.3}, {9.112.3}, {9.7.9.3} |
775 | अश्वो॒ वोळ्हा᳚ सु॒खं रथं᳚ हस॒नामु॑पम॒न्त्रिणः॑ | शेपो॒ रोम᳚ण्वन्तौ भे॒दौ वारिन्म॒ण्डूक॑ इच्छ॒तीन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.25.4}, {9.112.4}, {9.7.9.4} |
[70] (१-११) एकादशर्चस्य सूक्तस्य मारीचः कश्यप ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | पतिश्छन्दः || | |
776 | श॒र्य॒णाव॑ति॒ सोम॒मिन्द्रः॑ पिबतु वृत्र॒हा | बलं॒ दधा᳚न आ॒त्मनि॑ करि॒ष्यन्वी॒र्यं᳚ म॒हदिन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.26.1}, {9.113.1}, {9.7.10.1} |
777 | आ प॑वस्व दिशां पत आर्जी॒कात्सो᳚म मीढ्वः | ऋ॒त॒वा॒केन॑ स॒त्येन॑ श्र॒द्धया॒ तप॑सा सु॒त इन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.26.2}, {9.113.2}, {9.7.10.2} |
778 | प॒र्जन्य॑वृद्धं महि॒षं तं सूर्य॑स्य दुहि॒ताभ॑रत् | तं ग᳚न्ध॒र्वाः प्रत्य॑गृभ्ण॒न्तं सोमे॒ रस॒माद॑धु॒रिन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.26.3}, {9.113.3}, {9.7.10.3} |
779 | ऋ॒तं वद᳚न्नृतद्युम्न स॒त्यं वद᳚न्सत्यकर्मन् | श्र॒द्धां वद᳚न्सोम राजन्धा॒त्रा सो᳚म॒ परि॑ष्कृत॒ इन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.26.4}, {9.113.4}, {9.7.10.4} |
780 | स॒त्यमु॑ग्रस्य बृह॒तः सं स्र॑वन्ति संस्र॒वाः | सं य᳚न्ति र॒सिनो॒ रसाः᳚ पुना॒नो ब्रह्म॑णा हर॒ इन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.26.5}, {9.113.5}, {9.7.10.5} |
781 | यत्र॑ ब्र॒ह्मा प॑वमान छन्द॒स्यां॒३॒॑ वाचं॒ वद॑न् | ग्राव्णा॒ सोमे᳚ मही॒यते॒ सोमे᳚नान॒न्दं ज॒नय॒न्निन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.27.1}, {9.113.6}, {9.7.10.6} |
782 | यत्र॒ ज्योति॒रज॑स्रं॒ यस्मिँ॑ल्लो॒के स्व॑र्हि॒तम् | तस्मि॒न्मां धे᳚हि पवमाना॒मृते᳚ लो॒के अक्षि॑त॒ इन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.27.2}, {9.113.7}, {9.7.10.7} |
783 | यत्र॒ राजा᳚ वैवस्व॒तो यत्रा᳚व॒रोध॑नं दि॒वः | यत्रा॒मूर्य॒ह्वती॒राप॒स्तत्र॒ माम॒मृतं᳚ कृ॒धीन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.27.3}, {9.113.8}, {9.7.10.8} |
784 | यत्रा᳚नुका॒मं चर॑णं त्रिना॒के त्रि॑दि॒वे दि॒वः | लो॒का यत्र॒ ज्योति॑ष्मन्त॒स्तत्र॒ माम॒मृतं᳚ कृ॒धीन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.27.4}, {9.113.9}, {9.7.10.9} |
785 | यत्र॒ कामा᳚ निका॒माश्च॒ यत्र॑ ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टप᳚म् | स्व॒धा च॒ यत्र॒ तृप्ति॑श्च॒ तत्र॒ माम॒मृतं᳚ कृ॒धीन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.27.5}, {9.113.10}, {9.7.10.10} |
786 | यत्रा᳚न॒न्दाश्च॒ मोदा᳚श्च॒ मुदः॑ प्र॒मुद॒ आस॑ते | काम॑स्य॒ यत्रा॒प्ताः कामा॒स्तत्र॒ माम॒मृतं᳚ कृ॒धीन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.27.6}, {9.113.11}, {9.7.10.11} |
[71] (१-४) चतुरृचस्य सूक्तस्य मारीचः कश्यप ऋषिः | पवमानः सोमो देवता | पङ्क्तिश्छन्दः || | |
787 | य इन्दोः॒ पव॑मान॒स्यानु॒ धामा॒न्यक्र॑मीत् | तमा᳚हुः सुप्र॒जा इति॒ यस्ते᳚ सो॒मावि॑ध॒न्मन॒ इन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.28.1}, {9.114.1}, {9.7.11.1} |
788 | ऋषे᳚ मन्त्र॒कृतां॒ स्तोमैः॒ कश्य॑पोद्व॒र्धय॒न्गिरः॑ | सोमं᳚ नमस्य॒ राजा᳚नं॒ यो ज॒ज्ञे वी॒रुधां॒ पति॒रिन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.28.2}, {9.114.2}, {9.7.11.2} |
789 | स॒प्त दिशो॒ नाना᳚सूर्याः स॒प्त होता᳚र ऋ॒त्विजः॑ | दे॒वा आ᳚दि॒त्या ये स॒प्त तेभिः॑ सोमा॒भि र॑क्ष न॒ इन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.28.3}, {9.114.3}, {9.7.11.3} |
790 | यत्ते᳚ राजञ्छृ॒तं ह॒विस्तेन॑ सोमा॒भि र॑क्ष नः | अ॒रा॒ती॒वा मा न॑स्तारी॒न्मो च॑ नः॒ किं च॒नाम॑म॒दिन्द्रा᳚येन्दो॒ परि॑ स्रव ||{7.5.28.4}, {9.114.4}, {9.7.11.4} |
[72] (१-७) सप्तर्चस्य सूक्तस्याप्त्यस्त्रित ऋषिः | अग्निर्देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
791 | अग्रे᳚ बृ॒हन्नु॒षसा᳚मू॒र्ध्वो अ॑स्थान्निर्जग॒न्वान्तम॑सो॒ ज्योति॒षागा᳚त् | अ॒ग्निर्भा॒नुना॒ रुश॑ता॒ स्वङ्ग॒ आ जा॒तो विश्वा॒ सद्मा᳚न्यप्राः ||{7.5.29.1}, {10.1.1}, {10.1.1.1} |
792 | स जा॒तो गर्भो᳚ असि॒ रोद॑स्यो॒रग्ने॒ चारु॒र्विभृ॑त॒ ओष॑धीषु | चि॒त्रः शिशुः॒ परि॒ तमां᳚स्य॒क्तून्प्र मा॒तृभ्यो॒ अधि॒ कनि॑क्रदद्गाः ||{7.5.29.2}, {10.1.2}, {10.1.1.2} |
793 | विष्णु॑रि॒त्था प॑र॒मम॑स्य वि॒द्वाञ्जा॒तो बृ॒हन्न॒भि पा᳚ति तृ॒तीय᳚म् | आ॒सा यद॑स्य॒ पयो॒ अक्र॑त॒ स्वं सचे᳚तसो अ॒भ्य॑र्च॒न्त्यत्र॑ ||{7.5.29.3}, {10.1.3}, {10.1.1.3} |
794 | अत॑ उ त्वा पितु॒भृतो॒ जनि॑त्रीरन्ना॒वृधं॒ प्रति॑ चर॒न्त्यन्नैः᳚ | ता ईं॒ प्रत्ये᳚षि॒ पुन॑र॒न्यरू᳚पा॒ असि॒ त्वं वि॒क्षु मानु॑षीषु॒ होता᳚ ||{7.5.29.4}, {10.1.4}, {10.1.1.4} |
795 | होता᳚रं चि॒त्रर॑थमध्व॒रस्य॑ य॒ज्ञस्य॑यज्ञस्य के॒तुं रुश᳚न्तम् | प्रत्य॑र्धिं दे॒वस्य॑देवस्य म॒ह्ना श्रि॒या त्व१॑(अ॒)ग्निमति॑थिं॒ जना᳚नाम् ||{7.5.29.5}, {10.1.5}, {10.1.1.5} |
796 | स तु वस्त्रा॒ण्यध॒ पेश॑नानि॒ वसा᳚नो अ॒ग्निर्नाभा᳚ पृथि॒व्याः | अ॒रु॒षो जा॒तः प॒द इळा᳚याः पु॒रोहि॑तो राजन्यक्षी॒ह दे॒वान् ||{7.5.29.6}, {10.1.6}, {10.1.1.6} |
797 | आ हि द्यावा᳚पृथि॒वी अ॑ग्न उ॒भे सदा᳚ पु॒त्रो न मा॒तरा᳚ त॒तन्थ॑ | प्र या॒ह्यच्छो᳚श॒तो य॑वि॒ष्ठाथा व॑ह सहस्ये॒ह दे॒वान् ||{7.5.29.7}, {10.1.7}, {10.1.1.7} |
[73] (१-७) सप्तर्चस्य सूक्तस्याप्त्यस्त्रित ऋषिः | अग्निर्देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
798 | पि॒प्री॒हि दे॒वाँ उ॑श॒तो य॑विष्ठ वि॒द्वाँ ऋ॒तूँरृ॑तुपते यजे॒ह | ये दैव्या᳚ ऋ॒त्विज॒स्तेभि॑रग्ने॒ त्वं होतॄ᳚णाम॒स्याय॑जिष्ठः ||{7.5.30.1}, {10.2.1}, {10.1.2.1} |
799 | वेषि॑ हो॒त्रमु॒त पो॒त्रं जना᳚नां मन्धा॒तासि॑ द्रविणो॒दा ऋ॒तावा᳚ | स्वाहा᳚ व॒यं कृ॒णवा᳚मा ह॒वींषि॑ दे॒वो दे॒वान्य॑जत्व॒ग्निरर्ह॑न् ||{7.5.30.2}, {10.2.2}, {10.1.2.2} |
800 | आ दे॒वाना॒मपि॒ पन्था᳚मगन्म॒ यच्छ॒क्नवा᳚म॒ तदनु॒ प्रवो᳚ळ्हुम् | अ॒ग्निर्वि॒द्वान्स य॑जा॒त्सेदु॒ होता॒ सो अ॑ध्व॒रान्स ऋ॒तून्क॑ल्पयाति ||{7.5.30.3}, {10.2.3}, {10.1.2.3} |
801 | यद्वो᳚ व॒यं प्र॑मि॒नाम᳚ व्र॒तानि॑ वि॒दुषां᳚ देवा॒ अवि॑दुष्टरासः | अ॒ग्निष्टद्विश्व॒मा पृ॑णाति वि॒द्वान्येभि॑र्दे॒वाँ ऋ॒तुभिः॑ क॒ल्पया᳚ति ||{7.5.30.4}, {10.2.4}, {10.1.2.4} |
802 | यत्पा᳚क॒त्रा मन॑सा दी॒नद॑क्षा॒ न य॒ज्ञस्य॑ मन्व॒ते मर्त्या᳚सः | अ॒ग्निष्टद्धोता᳚ क्रतु॒विद्वि॑जा॒नन्यजि॑ष्ठो दे॒वाँ ऋ॑तु॒शो य॑जाति ||{7.5.30.5}, {10.2.5}, {10.1.2.5} |
803 | विश्वे᳚षां॒ ह्य॑ध्व॒राणा॒मनी᳚कं चि॒त्रं के॒तुं जनि॑ता त्वा ज॒जान॑ | स आ य॑जस्व नृ॒वती॒रनु॒ क्षाः स्पा॒र्हा इषः॑ क्षु॒मती᳚र्वि॒श्वज᳚न्याः ||{7.5.30.6}, {10.2.6}, {10.1.2.6} |
804 | यं त्वा॒ द्यावा᳚पृथि॒वी यं त्वाप॒स्त्वष्टा॒ यं त्वा᳚ सु॒जनि॑मा ज॒जान॑ | पन्था॒मनु॑ प्रवि॒द्वान्पि॑तृ॒याणं᳚ द्यु॒मद॑ग्ने समिधा॒नो वि भा᳚हि ||{7.5.30.7}, {10.2.7}, {10.1.2.7} |
[74] (१-७) सप्तर्चस्य सूक्तस्याप्त्यस्त्रित ऋषिः | अग्निर्देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
805 | इ॒नो रा᳚जन्नर॒तिः समि॑द्धो॒ रौद्रो॒ दक्षा᳚य सुषु॒माँ अ॑दर्शि | चि॒किद्वि भा᳚ति भा॒सा बृ॑ह॒तासि॑क्नीमेति॒ रुश॑तीम॒पाज॑न् ||{7.5.31.1}, {10.3.1}, {10.1.3.1} |
806 | कृ॒ष्णां यदेनी᳚म॒भि वर्प॑सा॒ भूज्ज॒नय॒न्योषां᳚ बृह॒तः पि॒तुर्जाम् | ऊ॒र्ध्वं भा॒नुं सूर्य॑स्य स्तभा॒यन्दि॒वो वसु॑भिरर॒तिर्वि भा᳚ति ||{7.5.31.2}, {10.3.2}, {10.1.3.2} |
807 | भ॒द्रो भ॒द्रया॒ सच॑मान॒ आगा॒त्स्वसा᳚रं जा॒रो अ॒भ्ये᳚ति प॒श्चात् | सु॒प्र॒के॒तैर्द्युभि॑र॒ग्निर्वि॒तिष्ठ॒न्रुश॑द्भि॒र्वर्णै᳚र॒भि रा॒मम॑स्थात् ||{7.5.31.3}, {10.3.3}, {10.1.3.3} |
808 | अ॒स्य यामा᳚सो बृह॒तो न व॒ग्नूनिन्धा᳚ना अ॒ग्नेः सख्युः॑ शि॒वस्य॑ | ईड्य॑स्य॒ वृष्णो᳚ बृह॒तः स्वासो॒ भामा᳚सो॒ याम᳚न्न॒क्तव॑श्चिकित्रे ||{7.5.31.4}, {10.3.4}, {10.1.3.4} |
809 | स्व॒ना न यस्य॒ भामा᳚सः॒ पव᳚न्ते॒ रोच॑मानस्य बृह॒तः सु॒दिवः॑ | ज्येष्ठे᳚भि॒र्यस्तेजि॑ष्ठैः क्रीळु॒मद्भि॒र्वर्षि॑ष्ठेभिर्भा॒नुभि॒र्नक्ष॑ति॒ द्याम् ||{7.5.31.5}, {10.3.5}, {10.1.3.5} |
810 | अ॒स्य शुष्मा᳚सो ददृशा॒नप॑वे॒र्जेह॑मानस्य स्वनयन्नि॒युद्भिः॑ | प्र॒त्नेभि॒र्यो रुश॑द्भिर्दे॒वत॑मो॒ वि रेभ॑द्भिरर॒तिर्भाति॒ विभ्वा᳚ ||{7.5.31.6}, {10.3.6}, {10.1.3.6} |
811 | स आ व॑क्षि॒ महि॑ न॒ आ च॑ सत्सि दि॒वस्पृ॑थि॒व्योर॑र॒तिर्यु॑व॒त्योः | अ॒ग्निः सु॒तुकः॑ सु॒तुके᳚भि॒रश्वै॒ रभ॑स्वद्भी॒ रभ॑स्वाँ॒ एह ग᳚म्याः ||{7.5.31.7}, {10.3.7}, {10.1.3.7} |
[75] (१-७) सप्तर्चस्य सूक्तस्याप्त्यस्त्रित ऋषिः | अग्निर्देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
812 | प्र ते᳚ यक्षि॒ प्र त॑ इयर्मि॒ मन्म॒ भुवो॒ यथा॒ वन्द्यो᳚ नो॒ हवे᳚षु | धन्व᳚न्निव प्र॒पा अ॑सि॒ त्वम॑ग्न इय॒क्षवे᳚ पू॒रवे᳚ प्रत्न राजन् ||{7.5.32.1}, {10.4.1}, {10.1.4.1} |
813 | यं त्वा॒ जना᳚सो अ॒भि सं॒चर᳚न्ति॒ गाव॑ उ॒ष्णमि॑व व्र॒जं य॑विष्ठ | दू॒तो दे॒वाना᳚मसि॒ मर्त्या᳚नाम॒न्तर्म॒हाँश्च॑रसि रोच॒नेन॑ ||{7.5.32.2}, {10.4.2}, {10.1.4.2} |
814 | शिशुं॒ न त्वा॒ जेन्यं᳚ व॒र्धय᳚न्ती मा॒ता बि॑भर्ति सचन॒स्यमा᳚ना | धनो॒रधि॑ प्र॒वता᳚ यासि॒ हर्य॒ञ्जिगी᳚षसे प॒शुरि॒वाव॑सृष्टः ||{7.5.32.3}, {10.4.3}, {10.1.4.3} |
815 | मू॒रा अ॑मूर॒ न व॒यं चि॑कित्वो महि॒त्वम॑ग्ने॒ त्वम॒ङ्ग वि॑त्से | शये᳚ व॒व्रिश्चर॑ति जि॒ह्वया॒दन्रे᳚रि॒ह्यते᳚ युव॒तिं वि॒श्पतिः॒ सन् ||{7.5.32.4}, {10.4.4}, {10.1.4.4} |
816 | कूचि॑ज्जायते॒ सन॑यासु॒ नव्यो॒ वने᳚ तस्थौ पलि॒तो धू॒मके᳚तुः | अ॒स्ना॒तापो᳚ वृष॒भो न प्र वे᳚ति॒ सचे᳚तसो॒ यं प्र॒णय᳚न्त॒ मर्ताः᳚ ||{7.5.32.5}, {10.4.5}, {10.1.4.5} |
817 | त॒नू॒त्यजे᳚व॒ तस्क॑रा वन॒र्गू र॑श॒नाभि॑र्द॒शभि॑र॒भ्य॑धीताम् | इ॒यं ते᳚ अग्ने॒ नव्य॑सी मनी॒षा यु॒क्ष्वा रथं॒ न शु॒चय॑द्भि॒रङ्गैः᳚ ||{7.5.32.6}, {10.4.6}, {10.1.4.6} |
818 | ब्रह्म॑ च ते जातवेदो॒ नम॑श्चे॒यं च॒ गीः सद॒मिद्वर्ध॑नी भूत् | रक्षा᳚ णो अग्ने॒ तन॑यानि तो॒का रक्षो॒त न॑स्त॒न्वो॒३॑(ओ॒) अप्र॑युच्छन् ||{7.5.32.7}, {10.4.7}, {10.1.4.7} |
[76] (१-७) सप्तर्चस्य सूक्तस्याप्त्यस्त्रित ऋषिः | अग्निर्देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
819 | एकः॑ समु॒द्रो ध॒रुणो᳚ रयी॒णाम॒स्मद्धृ॒दो भूरि॑जन्मा॒ वि च॑ष्टे | सिष॒क्त्यूध᳚र्नि॒ण्योरु॒पस्थ॒ उत्स॑स्य॒ मध्ये॒ निहि॑तं प॒दं वेः ||{7.5.33.1}, {10.5.1}, {10.1.5.1} |
820 | स॒मा॒नं नी॒ळं वृष॑णो॒ वसा᳚नाः॒ सं ज॑ग्मिरे महि॒षा अर्व॑तीभिः | ऋ॒तस्य॑ प॒दं क॒वयो॒ नि पा᳚न्ति॒ गुहा॒ नामा᳚नि दधिरे॒ परा᳚णि ||{7.5.33.2}, {10.5.2}, {10.1.5.2} |
821 | ऋ॒ता॒यिनी᳚ मा॒यिनी॒ सं द॑धाते मि॒त्वा शिशुं᳚ जज्ञतुर्व॒र्धय᳚न्ती | विश्व॑स्य॒ नाभिं॒ चर॑तो ध्रु॒वस्य॑ क॒वेश्चि॒त्तन्तुं॒ मन॑सा वि॒यन्तः॑ ||{7.5.33.3}, {10.5.3}, {10.1.5.3} |
822 | ऋ॒तस्य॒ हि व॑र्त॒नयः॒ सुजा᳚त॒मिषो॒ वाजा᳚य प्र॒दिवः॒ सच᳚न्ते | अ॒धी॒वा॒सं रोद॑सी वावसा॒ने घृ॒तैरन्नै᳚र्वावृधाते॒ मधू᳚नाम् ||{7.5.33.4}, {10.5.4}, {10.1.5.4} |
823 | स॒प्त स्वसॄ॒ररु॑षीर्वावशा॒नो वि॒द्वान्मध्व॒ उज्ज॑भारा दृ॒शे कम् | अ॒न्तर्ये᳚मे अ॒न्तरि॑क्षे पुरा॒जा इ॒च्छन्व॒व्रिम॑विदत्पूष॒णस्य॑ ||{7.5.33.5}, {10.5.5}, {10.1.5.5} |
824 | स॒प्त म॒र्यादाः᳚ क॒वय॑स्ततक्षु॒स्तासा॒मेका॒मिद॒भ्यं᳚हु॒रो गा᳚त् | आ॒योर्ह॑ स्क॒म्भ उ॑प॒मस्य॑ नी॒ळे प॒थां वि॑स॒र्गे ध॒रुणे᳚षु तस्थौ ||{7.5.33.6}, {10.5.6}, {10.1.5.6} |
825 | अस॑च्च॒ सच्च॑ पर॒मे व्यो᳚म॒न्दक्ष॑स्य॒ जन्म॒न्नदि॑तेरु॒पस्थे᳚ | अ॒ग्निर्ह॑ नः प्रथम॒जा ऋ॒तस्य॒ पूर्व॒ आयु॑नि वृष॒भश्च॑ धे॒नुः ||{7.5.33.7}, {10.5.7}, {10.1.5.7} |
[77] (१-७) सप्तर्चस्य सूक्तस्याप्त्यस्त्रित ऋषिः | अग्निर्देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
826 | अ॒यं स यस्य॒ शर्म॒न्नवो᳚भिर॒ग्नेरेध॑ते जरि॒ताभिष्टौ᳚ | ज्येष्ठे᳚भि॒र्यो भा॒नुभि॑रृषू॒णां प॒र्येति॒ परि॑वीतो वि॒भावा᳚ ||{7.6.1.1}, {10.6.1}, {10.1.6.1} |
827 | यो भा॒नुभि᳚र्वि॒भावा᳚ वि॒भात्य॒ग्निर्दे॒वेभि॑रृ॒तावाज॑स्रः | आ यो वि॒वाय॑ स॒ख्या सखि॒भ्योऽप॑रिह्वृतो॒ अत्यो॒ न सप्तिः॑ ||{7.6.1.2}, {10.6.2}, {10.1.6.2} |
828 | ईशे॒ यो विश्व॑स्या दे॒ववी᳚ते॒रीशे᳚ वि॒श्वायु॑रु॒षसो॒ व्यु॑ष्टौ | आ यस्मि᳚न्म॒ना ह॒वींष्य॒ग्नावरि॑ष्टरथः स्क॒भ्नाति॑ शू॒षैः ||{7.6.1.3}, {10.6.3}, {10.1.6.3} |
829 | शू॒षेभि᳚र्वृ॒धो जु॑षा॒णो अ॒र्कैर्दे॒वाँ अच्छा᳚ रघु॒पत्वा᳚ जिगाति | म॒न्द्रो होता॒ स जु॒ह्वा॒३॑(आ॒) यजि॑ष्ठः॒ सम्मि॑श्लो अ॒ग्निरा जि॑घर्ति दे॒वान् ||{7.6.1.4}, {10.6.4}, {10.1.6.4} |
830 | तमु॒स्रामिन्द्रं॒ न रेज॑मानम॒ग्निं गी॒र्भिर्नमो᳚भि॒रा कृ॑णुध्वम् | आ यं विप्रा᳚सो म॒तिभि॑र्गृ॒णन्ति॑ जा॒तवे᳚दसं जु॒ह्वं᳚ स॒हाना᳚म् ||{7.6.1.5}, {10.6.5}, {10.1.6.5} |
831 | सं यस्मि॒न्विश्वा॒ वसू᳚नि ज॒ग्मुर्वाजे॒ नाश्वाः॒ सप्ती᳚वन्त॒ एवैः᳚ | अ॒स्मे ऊ॒तीरिन्द्र॑वाततमा अर्वाची॒ना अ॑ग्न॒ आ कृ॑णुष्व ||{7.6.1.6}, {10.6.6}, {10.1.6.6} |
832 | अधा॒ ह्य॑ग्ने म॒ह्ना नि॒षद्या᳚ स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो हव्यो᳚ ब॒भूथ॑ | तं ते᳚ दे॒वासो॒ अनु॒ केत॑माय॒न्नधा᳚वर्धन्त प्रथ॒मास॒ ऊमाः᳚ ||{7.6.1.7}, {10.6.7}, {10.1.6.7} |
[78] (१-७) सप्तर्चस्य सूक्तस्याप्त्यस्त्रित ऋषिः | अग्निर्देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
833 | स्व॒स्ति नो᳚ दि॒वो अ॑ग्ने पृथि॒व्या वि॒श्वायु॑र्धेहि य॒जथा᳚य देव | सचे᳚महि॒ तव॑ दस्म प्रके॒तैरु॑रु॒ष्या ण॑ उ॒रुभि॑र्देव॒ शंसैः᳚ ||{7.6.2.1}, {10.7.1}, {10.1.7.1} |
834 | इ॒मा अ॑ग्ने म॒तय॒स्तुभ्यं᳚ जा॒ता गोभि॒रश्वै᳚र॒भि गृ॑णन्ति॒ राधः॑ | य॒दा ते॒ मर्तो॒ अनु॒ भोग॒मान॒ड्वसो॒ दधा᳚नो म॒तिभिः॑ सुजात ||{7.6.2.2}, {10.7.2}, {10.1.7.2} |
835 | अ॒ग्निं म᳚न्ये पि॒तर॑म॒ग्निमा॒पिम॒ग्निं भ्रात॑रं॒ सद॒मित्सखा᳚यम् | अ॒ग्नेरनी᳚कं बृह॒तः स॑पर्यं दि॒वि शु॒क्रं य॑ज॒तं सूर्य॑स्य ||{7.6.2.3}, {10.7.3}, {10.1.7.3} |
836 | सि॒ध्रा अ॑ग्ने॒ धियो᳚ अ॒स्मे सनु॑त्री॒र्यं त्राय॑से॒ दम॒ आ नित्य॑होता | ऋ॒तावा॒ स रो॒हिद॑श्वः पुरु॒क्षुर्द्युभि॑रस्मा॒ अह॑भिर्वा॒मम॑स्तु ||{7.6.2.4}, {10.7.4}, {10.1.7.4} |
837 | द्युभि॑र्हि॒तं मि॒त्रमि॑व प्र॒योगं᳚ प्र॒त्नमृ॒त्विज॑मध्व॒रस्य॑ जा॒रम् | बा॒हुभ्या᳚म॒ग्निमा॒यवो᳚ऽजनन्त वि॒क्षु होता᳚रं॒ न्य॑सादयन्त ||{7.6.2.5}, {10.7.5}, {10.1.7.5} |
838 | स्व॒यं य॑जस्व दि॒वि दे᳚व दे॒वान्किं ते॒ पाकः॑ कृणव॒दप्र॑चेताः | यथाय॑ज ऋ॒तुभि॑र्देव दे॒वाने॒वा य॑जस्व त॒न्वं᳚ सुजात ||{7.6.2.6}, {10.7.6}, {10.1.7.6} |
839 | भवा᳚ नो अग्नेऽवि॒तोत गो॒पा भवा᳚ वय॒स्कृदु॒त नो᳚ वयो॒धाः | रास्वा᳚ च नः सुमहो ह॒व्यदा᳚तिं॒ त्रास्वो॒त न॑स्त॒न्वो॒३॑(ओ॒) अप्र॑युच्छन् ||{7.6.2.7}, {10.7.7}, {10.1.7.7} |
[79] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्य त्वाष्ट्रस्त्रिशिरा ऋषिः | (१-६) प्रथमादितृचद्वयस्याग्निः, (७-९) सप्तम्यादितृचस्य चेन्द्रो देव || | |
840 | प्र के॒तुना᳚ बृह॒ता या᳚त्य॒ग्निरा रोद॑सी वृष॒भो रो᳚रवीति | दि॒वश्चि॒दन्ताँ᳚ उप॒माँ उदा᳚नळ॒पामु॒पस्थे᳚ महि॒षो व॑वर्ध ||{7.6.3.1}, {10.8.1}, {10.1.8.1} |
841 | मु॒मोद॒ गर्भो᳚ वृष॒भः क॒कुद्मा᳚नस्रे॒मा व॒त्सः शिमी᳚वाँ अरावीत् | स दे॒वता॒त्युद्य॑तानि कृ॒ण्वन्स्वेषु॒ क्षये᳚षु प्रथ॒मो जि॑गाति ||{7.6.3.2}, {10.8.2}, {10.1.8.2} |
842 | आ यो मू॒र्धानं᳚ पि॒त्रोरर॑ब्ध॒ न्य॑ध्व॒रे द॑धिरे॒ सूरो॒ अर्णः॑ | अस्य॒ पत्म॒न्नरु॑षी॒रश्व॑बुध्ना ऋ॒तस्य॒ योनौ᳚ त॒न्वो᳚ जुषन्त ||{7.6.3.3}, {10.8.3}, {10.1.8.3} |
843 | उ॒षौ᳚षो॒ हि व॑सो॒ अग्र॒मेषि॒ त्वं य॒मयो᳚रभवो वि॒भावा᳚ | ऋ॒ताय॑ स॒प्त द॑धिषे प॒दानि॑ ज॒नय᳚न्मि॒त्रं त॒न्वे॒३॑(ए॒) स्वायै᳚ ||{7.6.3.4}, {10.8.4}, {10.1.8.4} |
844 | भुव॒श्चक्षु᳚र्म॒ह ऋ॒तस्य॑ गो॒पा भुवो॒ वरु॑णो॒ यदृ॒ताय॒ वेषि॑ | भुवो᳚ अ॒पां नपा᳚ज्जातवेदो॒ भुवो᳚ दू॒तो यस्य॑ ह॒व्यं जुजो᳚षः ||{7.6.3.5}, {10.8.5}, {10.1.8.5} |
845 | भुवो᳚ य॒ज्ञस्य॒ रज॑सश्च ने॒ता यत्रा᳚ नि॒युद्भिः॒ सच॑से शि॒वाभिः॑ | दि॒वि मू॒र्धानं᳚ दधिषे स्व॒र्षां जि॒ह्वाम॑ग्ने चकृषे हव्य॒वाह᳚म् ||{7.6.4.1}, {10.8.6}, {10.1.8.6} |
846 | अ॒स्य त्रि॒तः क्रतु॑ना व॒व्रे अ॒न्तरि॒च्छन्धी॒तिं पि॒तुरेवैः॒ पर॑स्य | स॒च॒स्यमा᳚नः पि॒त्रोरु॒पस्थे᳚ जा॒मि ब्रु॑वा॒ण आयु॑धानि वेति ||{7.6.4.2}, {10.8.7}, {10.1.8.7} |
847 | स पित्र्या॒ण्यायु॑धानि वि॒द्वानिन्द्रे᳚षित आ॒प्त्यो अ॒भ्य॑युध्यत् | त्रि॒शी॒र्षाणं᳚ स॒प्तर॑श्मिं जघ॒न्वान्त्वा॒ष्ट्रस्य॑ चि॒न्निः स॑सृजे त्रि॒तो गाः ||{7.6.4.3}, {10.8.8}, {10.1.8.8} |
848 | भूरीदिन्द्र॑ उ॒दिन॑क्षन्त॒मोजोऽवा᳚भिन॒त्सत्प॑ति॒र्मन्य॑मानम् | त्वा॒ष्ट्रस्य॑ चिद्वि॒श्वरू᳚पस्य॒ गोना᳚माचक्रा॒णस्त्रीणि॑ शी॒र्षा परा᳚ वर्क् ||{7.6.4.4}, {10.8.9}, {10.1.8.9} |
[80] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्याम्बरीषः सिन्धद्वीपस्त्वाष्ट्रस्त्रिशिरा वा ऋषिः | आपो देवताः | (१-४, ६) प्रथमादिचतुर्ऋचामा, षष्ट्याश्च गायत्री, (५) पञ्चम्या वर्धमाना गायत्री, (७) सप्तम्याः प्रतिष्ठा गायत्री, (८-९) अष्टमीनवम्योश्चानुष्टप छन्दांसि || | |
849 | आपो॒ हि ष्ठा म॑यो॒भुव॒स्ता न॑ ऊ॒र्जे द॑धातन | म॒हे रणा᳚य॒ चक्ष॑से ||{7.6.5.1}, {10.9.1}, {10.1.9.1} |
850 | यो वः॑ शि॒वत॑मो॒ रस॒स्तस्य॑ भाजयते॒ह नः॑ | उ॒श॒तीरि॑व मा॒तरः॑ ||{7.6.5.2}, {10.9.2}, {10.1.9.2} |
851 | तस्मा॒ अरं᳚ गमाम वो॒ यस्य॒ क्षया᳚य॒ जिन्व॑थ | आपो᳚ ज॒नय॑था च नः ||{7.6.5.3}, {10.9.3}, {10.1.9.3} |
852 | शं नो᳚ दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒ आपो᳚ भवन्तु पी॒तये᳚ | शं योर॒भि स्र॑वन्तु नः ||{7.6.5.4}, {10.9.4}, {10.1.9.4} |
853 | ईशा᳚ना॒ वार्या᳚णां॒ क्षय᳚न्तीश्चर्षणी॒नाम् | अ॒पो या᳚चामि भेष॒जम् ||{7.6.5.5}, {10.9.5}, {10.1.9.5} |
854 | अ॒प्सु मे॒ सोमो᳚ अब्रवीद॒न्तर्विश्वा᳚नि भेष॒जा | अ॒ग्निं च॑ वि॒श्वश᳚म्भुवम् ||{7.6.5.6}, {10.9.6}, {10.1.9.6} |
855 | आपः॑ पृणी॒त भे᳚ष॒जं वरू᳚थं त॒न्वे॒३॑(ए॒) मम॑ | ज्योक्च॒ सूर्यं᳚ दृ॒शे ||{7.6.5.7}, {10.9.7}, {10.1.9.7} |
856 | इ॒दमा᳚पः॒ प्र व॑हत॒ यत्किं च॑ दुरि॒तं मयि॑ | यद्वा॒हम॑भिदु॒द्रोह॒ यद्वा᳚ शे॒प उ॒तानृ॑तम् ||{7.6.5.8}, {10.9.8}, {10.1.9.8} |
857 | आपो᳚ अ॒द्यान्व॑चारिषं॒ रसे᳚न॒ सम॑गस्महि | पय॑स्वानग्न॒ आ ग॑हि॒ तं मा॒ सं सृ॑ज॒ वर्च॑सा ||{7.6.5.9}, {10.9.9}, {10.1.9.9} |
[81] (१-१४) चतुर्दशर्चस्य सूक्तस्य (१, ३, ५-७, ११, १३) प्रथमातृतीययोर्ऋचोः पञ्चम्यादितृचस्यैकादशीत्रयोदश्योश्च वैवस्वती यमी (ऋषिका) (२, ४, ८-१०, १२, १४) द्वितीयाचतुओरष्टम्यादितृचस्य द्वादशीचतुदर्श योश्च वैवस्वतो यम ऋषिः | (१, ३, ५-७, ११, १३) प्रथमातृतीययोः पञ्चम्यादितृचस्यैकादशीत्रयोदश्योश्च यमः, (२, ४, ८-१०, १२, १४) द्वितीयाचतुर्योरष्टम्यादितृचस्य द्वादशीचतुदर्श योश्च यमी देवते | (१-१२, १४) प्रथमादिद्वादशर्चाम् चतुर्दर्श्याश्च त्रिष्टुप, (१३) त्रयोदश्याश्च विराट्स्थाना छन्दसी || | |
858 | ओ चि॒त्सखा᳚यं स॒ख्या व॑वृत्यां ति॒रः पु॒रू चि॑दर्ण॒वं ज॑ग॒न्वान् | पि॒तुर्नपा᳚त॒मा द॑धीत वे॒धा अधि॒ क्षमि॑ प्रत॒रं दीध्या᳚नः ||{7.6.6.1}, {10.10.1}, {10.1.10.1} |
859 | न ते॒ सखा᳚ स॒ख्यं व॑ष्ट्ये॒तत्सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपा॒ भवा᳚ति | म॒हस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒रा दि॒वो ध॒र्तार॑ उर्वि॒या परि॑ ख्यन् ||{7.6.6.2}, {10.10.2}, {10.1.10.2} |
860 | उ॒शन्ति॑ घा॒ ते अ॒मृता᳚स ए॒तदेक॑स्य चित्त्य॒जसं॒ मर्त्य॑स्य | नि ते॒ मनो॒ मन॑सि धाय्य॒स्मे जन्युः॒ पति॑स्त॒न्व१॑(अ॒)मा वि॑विश्याः ||{7.6.6.3}, {10.10.3}, {10.1.10.3} |
861 | न यत्पु॒रा च॑कृ॒मा कद्ध॑ नू॒नमृ॒ता वद᳚न्तो॒ अनृ॑तं रपेम | ग॒न्ध॒र्वो अ॒प्स्वप्या᳚ च॒ योषा॒ सा नो॒ नाभिः॑ पर॒मं जा॒मि तन्नौ᳚ ||{7.6.6.4}, {10.10.4}, {10.1.10.4} |
862 | गर्भे॒ नु नौ᳚ जनि॒ता दम्प॑ती कर्दे॒वस्त्वष्टा᳚ सवि॒ता वि॒श्वरू᳚पः | नकि॑रस्य॒ प्र मि॑नन्ति व्र॒तानि॒ वेद॑ नाव॒स्य पृ॑थि॒वी उ॒त द्यौः ||{7.6.6.5}, {10.10.5}, {10.1.10.5} |
863 | को अ॒स्य वे᳚द प्रथ॒मस्याह्नः॒ क ईं᳚ ददर्श॒ क इ॒ह प्र वो᳚चत् | बृ॒हन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ धाम॒ कदु॑ ब्रव आहनो॒ वीच्या॒ नॄन् ||{7.6.7.1}, {10.10.6}, {10.1.10.6} |
864 | य॒मस्य॑ मा य॒म्य१॑(अ॒) अंकाम॒ आग᳚न्समा॒ने योनौ᳚ सह॒शेय्या᳚य | जा॒येव॒ पत्ये᳚ त॒न्वं᳚ रिरिच्यां॒ वि चि॑द्वृहेव॒ रथ्ये᳚व च॒क्रा ||{7.6.7.2}, {10.10.7}, {10.1.10.7} |
865 | न ति॑ष्ठन्ति॒ न नि मि॑षन्त्ये॒ते दे॒वानां॒ स्पश॑ इ॒ह ये चर᳚न्ति | अ॒न्येन॒ मदा᳚हनो याहि॒ तूयं॒ तेन॒ वि वृ॑ह॒ रथ्ये᳚व च॒क्रा ||{7.6.7.3}, {10.10.8}, {10.1.10.8} |
866 | रात्री᳚भिरस्मा॒ अह॑भिर्दशस्ये॒त्सूर्य॑स्य॒ चक्षु॒र्मुहु॒रुन्मि॑मीयात् | दि॒वा पृ॑थि॒व्या मि॑थु॒ना सब᳚न्धू य॒मीर्य॒मस्य॑ बिभृया॒दजा᳚मि ||{7.6.7.4}, {10.10.9}, {10.1.10.9} |
867 | आ घा॒ ता ग॑च्छा॒नुत्त॑रा यु॒गानि॒ यत्र॑ जा॒मयः॑ कृ॒णव॒न्नजा᳚मि | उप॑ बर्बृहि वृष॒भाय॑ बा॒हुम॒न्यमि॑च्छस्व सुभगे॒ पतिं॒ मत् ||{7.6.7.5}, {10.10.10}, {10.1.10.10} |
868 | किं भ्राता᳚स॒द्यद॑ना॒थं भवा᳚ति॒ किमु॒ स्वसा॒ यन्निरृ॑तिर्नि॒गच्छा᳚त् | काम॑मूता ब॒ह्वे॒३॑(ए॒)तद्र॑पामि त॒न्वा᳚ मे त॒न्व१॑(अ॒) अंसं पि॑पृग्धि ||{7.6.8.1}, {10.10.11}, {10.1.10.11} |
869 | न वा उ॑ ते त॒न्वा᳚ त॒न्व१॑(अ॒) अंसं प॑पृच्यां पा॒पमा᳚हु॒र्यः स्वसा᳚रं नि॒गच्छा᳚त् | अ॒न्येन॒ मत्प्र॒मुदः॑ कल्पयस्व॒ न ते॒ भ्राता᳚ सुभगे वष्ट्ये॒तत् ||{7.6.8.2}, {10.10.12}, {10.1.10.12} |
870 | ब॒तो ब॑तासि यम॒ नैव ते॒ मनो॒ हृद॑यं चाविदाम | अ॒न्या किल॒ त्वां क॒क्ष्ये᳚व यु॒क्तं परि॑ ष्वजाते॒ लिबु॑जेव वृ॒क्षम् ||{7.6.8.3}, {10.10.13}, {10.1.10.13} |
871 | अ॒न्यमू॒ षु त्वं य᳚म्य॒न्य उ॒ त्वां परि॑ ष्वजाते॒ लिबु॑जेव वृ॒क्षम् | तस्य॑ वा॒ त्वं मन॑ इ॒च्छा स वा॒ तवाधा᳚ कृणुष्व सं॒विदं॒ सुभ॑द्राम् ||{7.6.8.4}, {10.10.14}, {10.1.10.14} |
[82] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्याङ्गिर्हविर्धान ऋषिः | अग्निर्देवता | (१-६) प्रथमादितृचद्वयस्य जगती, (७-९) सप्तम्यादितृचस्य च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
872 | वृषा॒ वृष्णे᳚ दुदुहे॒ दोह॑सा दि॒वः पयां᳚सि य॒ह्वो अदि॑ते॒रदा᳚भ्यः | विश्वं॒ स वे᳚द॒ वरु॑णो॒ यथा᳚ धि॒या स य॒ज्ञियो᳚ यजतु य॒ज्ञियाँ᳚ ऋ॒तून् ||{7.6.9.1}, {10.11.1}, {10.1.11.1} |
873 | रप॑द्गन्ध॒र्वीरप्या᳚ च॒ योष॑णा न॒दस्य॑ ना॒दे परि॑ पातु मे॒ मनः॑ | इ॒ष्टस्य॒ मध्ये॒ अदि॑ति॒र्नि धा᳚तु नो॒ भ्राता᳚ नो ज्ये॒ष्ठः प्र॑थ॒मो वि वो᳚चति ||{7.6.9.2}, {10.11.2}, {10.1.11.2} |
874 | सो चि॒न्नु भ॒द्रा क्षु॒मती॒ यश॑स्वत्यु॒षा उ॑वास॒ मन॑वे॒ स्व᳚र्वती | यदी᳚मु॒शन्त॑मुश॒तामनु॒ क्रतु॑म॒ग्निं होता᳚रं वि॒दथा᳚य॒ जीज॑नन् ||{7.6.9.3}, {10.11.3}, {10.1.11.3} |
875 | अध॒ त्यं द्र॒प्सं वि॒भ्वं᳚ विचक्ष॒णं विराभ॑रदिषि॒तः श्ये॒नो अ॑ध्व॒रे | यदी॒ विशो᳚ वृ॒णते᳚ द॒स्ममार्या᳚ अ॒ग्निं होता᳚र॒मध॒ धीर॑जायत ||{7.6.9.4}, {10.11.4}, {10.1.11.4} |
876 | सदा᳚सि र॒ण्वो यव॑सेव॒ पुष्य॑ते॒ होत्रा᳚भिरग्ने॒ मनु॑षः स्वध्व॒रः | विप्र॑स्य वा॒ यच्छ॑शमा॒न उ॒क्थ्य१॑(अ॒) अंवाजं᳚ सस॒वाँ उ॑प॒यासि॒ भूरि॑भिः ||{7.6.9.5}, {10.11.5}, {10.1.11.5} |
877 | उदी᳚रय पि॒तरा᳚ जा॒र आ भग॒मिय॑क्षति हर्य॒तो हृ॒त्त इ॑ष्यति | विव॑क्ति॒ वह्निः॑ स्वप॒स्यते᳚ म॒खस्त॑वि॒ष्यते॒ असु॑रो॒ वेप॑ते म॒ती ||{7.6.10.1}, {10.11.6}, {10.1.11.6} |
878 | यस्ते᳚ अग्ने सुम॒तिं मर्तो॒ अक्ष॒त्सह॑सः सूनो॒ अति॒ स प्र शृ᳚ण्वे | इषं॒ दधा᳚नो॒ वह॑मानो॒ अश्वै॒रा स द्यु॒माँ अम॑वान्भूषति॒ द्यून् ||{7.6.10.2}, {10.11.7}, {10.1.11.7} |
879 | यद॑ग्न ए॒षा समि॑ति॒र्भवा᳚ति दे॒वी दे॒वेषु॑ यज॒ता य॑जत्र | रत्ना᳚ च॒ यद्वि॒भजा᳚सि स्वधावो भा॒गं नो॒ अत्र॒ वसु॑मन्तं वीतात् ||{7.6.10.3}, {10.11.8}, {10.1.11.8} |
880 | श्रु॒धी नो᳚ अग्ने॒ सद॑ने स॒धस्थे᳚ यु॒क्ष्वा रथ॑म॒मृत॑स्य द्रवि॒त्नुम् | आ नो᳚ वह॒ रोद॑सी दे॒वपु॑त्रे॒ माकि॑र्दे॒वाना॒मप॑ भूरि॒ह स्याः᳚ ||{7.6.10.4}, {10.11.9}, {10.1.11.9} |
[83] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्याङ्गिर्हविर्धान ऋषिः | अग्निर्देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
881 | द्यावा᳚ ह॒ क्षामा᳚ प्रथ॒मे ऋ॒तेना᳚भिश्रा॒वे भ॑वतः सत्य॒वाचा᳚ | दे॒वो यन्मर्ता᳚न्य॒जथा᳚य कृ॒ण्वन्सीद॒द्धोता᳚ प्र॒त्यङ्स्वमसुं॒ यन् ||{7.6.11.1}, {10.12.1}, {10.1.12.1} |
882 | दे॒वो दे॒वान्प॑रि॒भूरृ॒तेन॒ वहा᳚ नो ह॒व्यं प्र॑थ॒मश्चि॑कि॒त्वान् | धू॒मके᳚तुः स॒मिधा॒ भाऋ॑जीको म॒न्द्रो होता॒ नित्यो᳚ वा॒चा यजी᳚यान् ||{7.6.11.2}, {10.12.2}, {10.1.12.2} |
883 | स्वावृ॑ग्दे॒वस्या॒मृतं॒ यदी॒ गोरतो᳚ जा॒तासो᳚ धारयन्त उ॒र्वी | विश्वे᳚ दे॒वा अनु॒ तत्ते॒ यजु॑र्गुर्दु॒हे यदेनी᳚ दि॒व्यं घृ॒तं वाः ||{7.6.11.3}, {10.12.3}, {10.1.12.3} |
884 | अर्चा᳚मि वां॒ वर्धा॒यापो᳚ घृतस्नू॒ द्यावा᳚भूमी शृणु॒तं रो᳚दसी मे | अहा॒ यद्द्यावोऽसु॑नीति॒मय॒न्मध्वा᳚ नो॒ अत्र॑ पि॒तरा᳚ शिशीताम् ||{7.6.11.4}, {10.12.4}, {10.1.12.4} |
885 | किं स्वि᳚न्नो॒ राजा᳚ जगृहे॒ कद॒स्याति᳚ व्र॒तं च॑कृमा॒ को वि वे᳚द | मि॒त्रश्चि॒द्धि ष्मा᳚ जुहुरा॒णो दे॒वाञ्छ्लोको॒ न या॒तामपि॒ वाजो॒ अस्ति॑ ||{7.6.11.5}, {10.12.5}, {10.1.12.5} |
886 | दु॒र्मन्त्वत्रा॒मृत॑स्य॒ नाम॒ सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपा॒ भवा᳚ति | य॒मस्य॒ यो म॒नव॑ते सु॒मन्त्वग्ने॒ तमृ॑ष्व पा॒ह्यप्र॑युच्छन् ||{7.6.12.1}, {10.12.6}, {10.1.12.6} |
887 | यस्मि᳚न्दे॒वा वि॒दथे᳚ मा॒दय᳚न्ते वि॒वस्व॑तः॒ सद॑ने धा॒रय᳚न्ते | सूर्ये॒ ज्योति॒रद॑धुर्मा॒स्य१॑(अ॒)क्तून्परि॑ द्योत॒निं च॑रतो॒ अज॑स्रा ||{7.6.12.2}, {10.12.7}, {10.1.12.7} |
888 | यस्मि᳚न्दे॒वा मन्म॑नि सं॒चर᳚न्त्यपी॒च्ये॒३॑(ए॒) न व॒यम॑स्य विद्म | मि॒त्रो नो॒ अत्रादि॑ति॒रना᳚गान्सवि॒ता दे॒वो वरु॑णाय वोचत् ||{7.6.12.3}, {10.12.8}, {10.1.12.8} |
889 | श्रु॒धी नो᳚ अग्ने॒ सद॑ने स॒धस्थे᳚ यु॒क्ष्वा रथ॑म॒मृत॑स्य द्रवि॒त्नुम् | आ नो᳚ वह॒ रोद॑सी दे॒वपु॑त्रे॒ माकि॑र्दे॒वाना॒मप॑ भूरि॒ह स्याः᳚ ||{7.6.12.4}, {10.12.9}, {10.1.12.9} |
[84] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्यादित्यो विवस्वानाङ्गिहविर्धानो वा ऋषिः | हविर्धाने शकटे देवते | (१-४) प्रथमादिचतुर्ऋचाम् त्रिष्टुप्, (५) पञ्चम्याश्च जगती छन्दसी || | |
890 | यु॒जे वां॒ ब्रह्म॑ पू॒र्व्यं नमो᳚भि॒र्वि श्लोक॑ एतु प॒थ्ये᳚व सू॒रेः | शृ॒ण्वन्तु॒ विश्वे᳚ अ॒मृत॑स्य पु॒त्रा आ ये धामा᳚नि दि॒व्यानि॑ त॒स्थुः ||{7.6.13.1}, {10.13.1}, {10.1.13.1} |
891 | य॒मे इ॑व॒ यत॑माने॒ यदैतं॒ प्र वां᳚ भर॒न्मानु॑षा देव॒यन्तः॑ | आ सी᳚दतं॒ स्वमु॑ लो॒कं विदा᳚ने स्वास॒स्थे भ॑वत॒मिन्द॑वे नः ||{7.6.13.2}, {10.13.2}, {10.1.13.2} |
892 | पञ्च॑ प॒दानि॑ रु॒पो अन्व॑रोहं॒ चतु॑ष्पदी॒मन्वे᳚मि व्र॒तेन॑ | अ॒क्षरे᳚ण॒ प्रति॑ मिम ए॒तामृ॒तस्य॒ नाभा॒वधि॒ सं पु॑नामि ||{7.6.13.3}, {10.13.3}, {10.1.13.3} |
893 | दे॒वेभ्यः॒ कम॑वृणीत मृ॒त्युं प्र॒जायै॒ कम॒मृतं॒ नावृ॑णीत | बृह॒स्पतिं᳚ य॒ज्ञम॑कृण्वत॒ ऋषिं᳚ प्रि॒यां य॒मस्त॒न्व१॑(अ॒) अंप्रारि॑रेचीत् ||{7.6.13.4}, {10.13.4}, {10.1.13.4} |
894 | स॒प्त क्ष॑रन्ति॒ शिश॑वे म॒रुत्व॑ते पि॒त्रे पु॒त्रासो॒ अप्य॑वीवतन्नृ॒तम् | उ॒भे इद॑स्यो॒भय॑स्य राजत उ॒भे य॑तेते उ॒भय॑स्य पुष्यतः ||{7.6.13.5}, {10.13.5}, {10.1.13.5} |
[85] (१-१६) षोळशर्चस्य सूक्तस्य वैवस्वतो यम ऋषिः | (१-५, १३-१६) प्रथमादिपञ्चर्चाम् त्रयोदश्यादिचतसृणाञ्च यमः, (६) षष्ठ्या अङ्गिरःपित्रथर्वभगृ वः, (७-९) सप्तम्यादितृचस्य लिङ्गोक्ताः पितरो वा, (१०-१२) दशम्यादितृचस्य च सारमेयौ श्वानौ देवताः | (१-१२) प्रथमादिद्वादशर्चाम् त्रिष्टुप्, (१३-१४, १६) त्रयोदशीचतुर्दशीषोडशीनामनुष्टुप्, (१५) पञ्चदश्याश्च बृहती छन्दांसि || | |
895 | प॒रे॒यि॒वांसं᳚ प्र॒वतो᳚ म॒हीरनु॑ ब॒हुभ्यः॒ पन्था᳚मनुपस्पशा॒नम् | वै॒व॒स्व॒तं सं॒गम॑नं॒ जना᳚नां य॒मं राजा᳚नं ह॒विषा᳚ दुवस्य ||{7.6.14.1}, {10.14.1}, {10.1.14.1} |
896 | य॒मो नो᳚ गा॒तुं प्र॑थ॒मो वि॑वेद॒ नैषा गव्यू᳚ति॒रप॑भर्त॒वा उ॑ | यत्रा᳚ नः॒ पूर्वे᳚ पि॒तरः॑ परे॒युरे॒ना ज॑ज्ञा॒नाः प॒थ्या॒३॑(आ॒) अनु॒ स्वाः ||{7.6.14.2}, {10.14.2}, {10.1.14.2} |
897 | मात॑ली क॒व्यैर्य॒मो अङ्गि॑रोभि॒र्बृह॒स्पति॒रृक्व॑भिर्वावृधा॒नः | याँश्च॑ दे॒वा वा᳚वृ॒धुर्ये च॑ दे॒वान्स्वाहा॒न्ये स्व॒धया॒न्ये म॑दन्ति ||{7.6.14.3}, {10.14.3}, {10.1.14.3} |
898 | इ॒मं य॑म प्रस्त॒रमा हि सीदाङ्गि॑रोभिः पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः | आ त्वा॒ मन्त्राः᳚ कविश॒स्ता व॑हन्त्वे॒ना रा᳚जन्ह॒विषा᳚ मादयस्व ||{7.6.14.4}, {10.14.4}, {10.1.14.4} |
899 | अङ्गि॑रोभि॒रा ग॑हि य॒ज्ञिये᳚भि॒र्यम॑ वैरू॒पैरि॒ह मा᳚दयस्व | विव॑स्वन्तं हुवे॒ यः पि॒ता ते॒ऽस्मिन्य॒ज्ञे ब॒र्हिष्या नि॒षद्य॑ ||{7.6.14.5}, {10.14.5}, {10.1.14.5} |
900 | अङ्गि॑रसो नः पि॒तरो॒ नव॑ग्वा॒ अथ᳚र्वाणो॒ भृग॑वः सो॒म्यासः॑ | तेषां᳚ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिया᳚ना॒मपि॑ भ॒द्रे सौ᳚मन॒से स्या᳚म ||{7.6.15.1}, {10.14.6}, {10.1.14.6} |
901 | प्रेहि॒ प्रेहि॑ प॒थिभिः॑ पू॒र्व्येभि॒र्यत्रा᳚ नः॒ पूर्वे᳚ पि॒तरः॑ परे॒युः | उ॒भा राजा᳚ना स्व॒धया॒ मद᳚न्ता य॒मं प॑श्यासि॒ वरु॑णं च दे॒वम् ||{7.6.15.2}, {10.14.7}, {10.1.14.7} |
902 | सं ग॑च्छस्व पि॒तृभिः॒ सं य॒मेने᳚ष्टापू॒र्तेन॑ पर॒मे व्यो᳚मन् | हि॒त्वाया᳚व॒द्यं पुन॒रस्त॒मेहि॒ सं ग॑च्छस्व त॒न्वा᳚ सु॒वर्चाः᳚ ||{7.6.15.3}, {10.14.8}, {10.1.14.8} |
903 | अपे᳚त॒ वी᳚त॒ वि च॑ सर्प॒तातो॒ऽस्मा ए॒तं पि॒तरो᳚ लो॒कम॑क्रन् | अहो᳚भिर॒द्भिर॒क्तुभि॒र्व्य॑क्तं य॒मो द॑दात्यव॒सान॑मस्मै ||{7.6.15.4}, {10.14.9}, {10.1.14.9} |
904 | अति॑ द्रव सारमे॒यौ श्वानौ᳚ चतुर॒क्षौ श॒बलौ᳚ सा॒धुना᳚ प॒था | अथा᳚ पि॒तॄन्सु॑वि॒दत्राँ॒ उपे᳚हि य॒मेन॒ ये स॑ध॒मादं॒ मद᳚न्ति ||{7.6.15.5}, {10.14.10}, {10.1.14.10} |
905 | यौ ते॒ श्वानौ᳚ यम रक्षि॒तारौ᳚ चतुर॒क्षौ प॑थि॒रक्षी᳚ नृ॒चक्ष॑सौ | ताभ्या᳚मेनं॒ परि॑ देहि राजन्स्व॒स्ति चा᳚स्मा अनमी॒वं च॑ धेहि ||{7.6.16.1}, {10.14.11}, {10.1.14.11} |
906 | उ॒रू॒ण॒साव॑सु॒तृपा᳚ उदुम्ब॒लौ य॒मस्य॑ दू॒तौ च॑रतो॒ जनाँ॒ अनु॑ | ताव॒स्मभ्यं᳚ दृ॒शये॒ सूर्या᳚य॒ पुन॑र्दाता॒मसु॑म॒द्येह भ॒द्रम् ||{7.6.16.2}, {10.14.12}, {10.1.14.12} |
907 | य॒माय॒ सोमं᳚ सुनुत य॒माय॑ जुहुता ह॒विः | य॒मं ह॑ य॒ज्ञो ग॑च्छत्य॒ग्निदू᳚तो॒ अरं᳚कृतः ||{7.6.16.3}, {10.14.13}, {10.1.14.13} |
908 | य॒माय॑ घृ॒तव॑द्ध॒विर्जु॒होत॒ प्र च॑ तिष्ठत | स नो᳚ दे॒वेष्वा य॑मद्दी॒र्घमायुः॒ प्र जी॒वसे᳚ ||{7.6.16.4}, {10.14.14}, {10.1.14.14} |
909 | य॒माय॒ मधु॑मत्तमं॒ राज्ञे᳚ ह॒व्यं जु॑होतन | इ॒दं नम॒ ऋषि॑भ्यः पूर्व॒जेभ्यः॒ पूर्वे᳚भ्यः पथि॒कृद्भ्यः॑ ||{7.6.16.5}, {10.14.15}, {10.1.14.15} |
910 | त्रिक॑द्रुकेभिः पतति॒ षळु॒र्वीरेक॒मिद्बृ॒हत् | त्रि॒ष्टुब्गा᳚य॒त्री छन्दां᳚सि॒ सर्वा॒ ता य॒म आहि॑ता ||{7.6.16.6}, {10.14.16}, {10.1.14.16} |
[86] (१-१४) चतुर्दशर्चस्य सूक्तस्य यामायनः शत ऋषिः | पितरो देवताः | (११०, १२-१४) प्रथमादिदशर्चाम् द्वादश्यादितृचस्य च त्रिष्टुप्, (११) एकादश्याश्च जगती छन्दसी || | |
911 | उदी᳚रता॒मव॑र॒ उत्परा᳚स॒ उन्म॑ध्य॒माः पि॒तरः॑ सो॒म्यासः॑ | असुं॒ य ई॒युर॑वृ॒का ऋ॑त॒ज्ञास्ते नो᳚ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे᳚षु ||{7.6.17.1}, {10.15.1}, {10.1.15.1} |
912 | इ॒दं पि॒तृभ्यो॒ नमो᳚ अस्त्व॒द्य ये पूर्वा᳚सो॒ य उप॑रास ई॒युः | ये पार्थि॑वे॒ रज॒स्या निष॑त्ता॒ ये वा᳚ नू॒नं सु॑वृ॒जना᳚सु वि॒क्षु ||{7.6.17.2}, {10.15.2}, {10.1.15.2} |
913 | आहं पि॒तॄन्सु॑वि॒दत्राँ᳚ अवित्सि॒ नपा᳚तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः᳚ | ब॒र्हि॒षदो॒ ये स्व॒धया᳚ सु॒तस्य॒ भज᳚न्त पि॒त्वस्त इ॒हाग॑मिष्ठाः ||{7.6.17.3}, {10.15.3}, {10.1.15.3} |
914 | बर्हि॑षदः पितर ऊ॒त्य१॑(अ॒)'र्वागि॒मा वो᳚ ह॒व्या च॑कृमा जु॒षध्व᳚म् | त आ ग॒ताव॑सा॒ शंत॑मे॒नाथा᳚ नः॒ शं योर॑र॒पो द॑धात ||{7.6.17.4}, {10.15.4}, {10.1.15.4} |
915 | उप॑हूताः पि॒तरः॑ सो॒म्यासो᳚ बर्हि॒ष्ये᳚षु नि॒धिषु॑ प्रि॒येषु॑ | त आ ग॑मन्तु॒ त इ॒ह श्रु॑व॒न्त्वधि॑ ब्रुवन्तु॒ ते᳚ऽवन्त्व॒स्मान् ||{7.6.17.5}, {10.15.5}, {10.1.15.5} |
916 | आच्या॒ जानु॑ दक्षिण॒तो नि॒षद्ये॒मं य॒ज्ञम॒भि गृ॑णीत॒ विश्वे᳚ | मा हिं᳚सिष्ट पितरः॒ केन॑ चिन्नो॒ यद्व॒ आगः॑ पुरु॒षता॒ करा᳚म ||{7.6.18.1}, {10.15.6}, {10.1.15.6} |
917 | आसी᳚नासो अरु॒णीना᳚मु॒पस्थे᳚ र॒यिं ध॑त्त दा॒शुषे॒ मर्त्या᳚य | पु॒त्रेभ्यः॑ पितर॒स्तस्य॒ वस्वः॒ प्र य॑च्छत॒ त इ॒होर्जं᳚ दधात ||{7.6.18.2}, {10.15.7}, {10.1.15.7} |
918 | ये नः॒ पूर्वे᳚ पि॒तरः॑ सो॒म्यासो᳚ऽनूहि॒रे सो᳚मपी॒थं वसि॑ष्ठाः | तेभि᳚र्य॒मः सं᳚ररा॒णो ह॒वींष्यु॒शन्नु॒शद्भिः॑ प्रतिका॒मम॑त्तु ||{7.6.18.3}, {10.15.8}, {10.1.15.8} |
919 | ये ता᳚तृ॒षुर्दे᳚व॒त्रा जेह॑माना होत्रा॒विदः॒ स्तोम॑तष्टासो अ॒र्कैः | आग्ने᳚ याहि सुवि॒दत्रे᳚भिर॒र्वाङ्स॒त्यैः क॒व्यैः पि॒तृभि॑र्घर्म॒सद्भिः॑ ||{7.6.18.4}, {10.15.9}, {10.1.15.9} |
920 | ये स॒त्यासो᳚ हवि॒रदो᳚ हवि॒ष्पा इन्द्रे᳚ण दे॒वैः स॒रथं॒ दधा᳚नाः | आग्ने᳚ याहि स॒हस्रं᳚ देवव॒न्दैः परैः॒ पूर्वैः᳚ पि॒तृभि॑र्घर्म॒सद्भिः॑ ||{7.6.18.5}, {10.15.10}, {10.1.15.10} |
921 | अग्नि॑ष्वात्ताः पितर॒ एह ग॑च्छत॒ सदः॑सदः सदत सुप्रणीतयः | अ॒त्ता ह॒वींषि॒ प्रय॑तानि ब॒र्हिष्यथा᳚ र॒यिं सर्व॑वीरं दधातन ||{7.6.19.1}, {10.15.11}, {10.1.15.11} |
922 | त्वम॑ग्न ईळि॒तो जा᳚तवे॒दोऽवा᳚ड्ढ॒व्यानि॑ सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वी | प्रादाः᳚ पि॒तृभ्यः॑ स्व॒धया॒ ते अ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे᳚व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑ ||{7.6.19.2}, {10.15.12}, {10.1.15.12} |
923 | ये चे॒ह पि॒तरो॒ ये च॒ नेह याँश्च॑ वि॒द्म याँ उ॑ च॒ न प्र॑वि॒द्म | त्वं वे᳚त्थ॒ यति॒ ते जा᳚तवेदः स्व॒धाभि᳚र्य॒ज्ञं सुकृ॑तं जुषस्व ||{7.6.19.3}, {10.15.13}, {10.1.15.13} |
924 | ये अ॑ग्निद॒ग्धा ये अन॑ग्निदग्धा॒ मध्ये᳚ दि॒वः स्व॒धया᳚ मा॒दय᳚न्ते | तेभिः॑ स्व॒राळसु॑नीतिमे॒तां य॑थाव॒शं त॒न्वं᳚ कल्पयस्व ||{7.6.19.4}, {10.15.14}, {10.1.15.14} |
[87] (१-१४) चतुर्दशर्चस्य सूक्तस्य यामायनो दमन ऋषिः | अग्निर्देवता | (११०) प्रथमादिदशर्चाम् त्रिष्टुप, (११-१४) एकादश्यादिचतसृणाञ्चानुष्टुप्, छन्दसी || | |
925 | मैन॑मग्ने॒ वि द॑हो॒ माभि शो᳚चो॒ मास्य॒ त्वचं᳚ चिक्षिपो॒ मा शरी᳚रम् | य॒दा शृ॒तं कृ॒णवो᳚ जातवे॒दोऽथे᳚मेनं॒ प्र हि॑णुतात्पि॒तृभ्यः॑ ||{7.6.20.1}, {10.16.1}, {10.1.16.1} |
926 | शृ॒तं य॒दा कर॑सि जातवे॒दोऽथे᳚मेनं॒ परि॑ दत्तात्पि॒तृभ्यः॑ | य॒दा गच्छा॒त्यसु॑नीतिमे॒तामथा᳚ दे॒वानां᳚ वश॒नीर्भ॑वाति ||{7.6.20.2}, {10.16.2}, {10.1.16.2} |
927 | सूर्यं॒ चक्षु॑र्गच्छतु॒ वात॑मा॒त्मा द्यां च॑ गच्छ पृथि॒वीं च॒ धर्म॑णा | अ॒पो वा᳚ गच्छ॒ यदि॒ तत्र॑ ते हि॒तमोष॑धीषु॒ प्रति॑ तिष्ठा॒ शरी᳚रैः ||{7.6.20.3}, {10.16.3}, {10.1.16.3} |
928 | अ॒जो भा॒गस्तप॑सा॒ तं त॑पस्व॒ तं ते᳚ शो॒चिस्त॑पतु॒ तं ते᳚ अ॒र्चिः | यास्ते᳚ शि॒वास्त॒न्वो᳚ जातवेद॒स्ताभि᳚र्वहैनं सु॒कृता᳚मु लो॒कम् ||{7.6.20.4}, {10.16.4}, {10.1.16.4} |
929 | अव॑ सृज॒ पुन॑रग्ने पि॒तृभ्यो॒ यस्त॒ आहु॑त॒श्चर॑ति स्व॒धाभिः॑ | आयु॒र्वसा᳚न॒ उप॑ वेतु॒ शेषः॒ सं ग॑च्छतां त॒न्वा᳚ जातवेदः ||{7.6.20.5}, {10.16.5}, {10.1.16.5} |
930 | यत्ते᳚ कृ॒ष्णः श॑कु॒न आ᳚तु॒तोद॑ पिपी॒लः स॒र्प उ॒त वा॒ श्वाप॑दः | अ॒ग्निष्टद्वि॒श्वाद॑ग॒दं कृ॑णोतु॒ सोम॑श्च॒ यो ब्रा᳚ह्म॒णाँ आ᳚वि॒वेश॑ ||{7.6.21.1}, {10.16.6}, {10.1.16.6} |
931 | अ॒ग्नेर्वर्म॒ परि॒ गोभि᳚र्व्ययस्व॒ सं प्रोर्णु॑ष्व॒ पीव॑सा॒ मेद॑सा च | नेत्त्वा᳚ धृ॒ष्णुर्हर॑सा॒ जर्हृ॑षाणो द॒धृग्वि॑ध॒क्ष्यन्प᳚र्य॒ङ्खया᳚ते ||{7.6.21.2}, {10.16.7}, {10.1.16.7} |
932 | इ॒मम॑ग्ने चम॒सं मा वि जि॑ह्वरः प्रि॒यो दे॒वाना᳚मु॒त सो॒म्याना᳚म् | ए॒ष यश्च॑म॒सो दे᳚व॒पान॒स्तस्मि᳚न्दे॒वा अ॒मृता᳚ मादयन्ते ||{7.6.21.3}, {10.16.8}, {10.1.16.8} |
933 | क्र॒व्याद॑म॒ग्निं प्र हि॑णोमि दू॒रं य॒मरा᳚ज्ञो गच्छतु रिप्रवा॒हः | इ॒हैवायमित॑रो जा॒तवे᳚दा दे॒वेभ्यो᳚ ह॒व्यं व॑हतु प्रजा॒नन् ||{7.6.21.4}, {10.16.9}, {10.1.16.9} |
934 | यो अ॒ग्निः क्र॒व्यात्प्र॑वि॒वेश॑ वो गृ॒हमि॒मं पश्य॒न्नित॑रं जा॒तवे᳚दसम् | तं ह॑रामि पितृय॒ज्ञाय॑ दे॒वं स घ॒र्ममि᳚न्वात्पर॒मे स॒धस्थे᳚ ||{7.6.21.5}, {10.16.10}, {10.1.16.10} |
935 | यो अ॒ग्निः क्र᳚व्य॒वाह॑नः पि॒तॄन्यक्ष॑दृता॒वृधः॑ | प्रेदु॑ ह॒व्यानि॑ वोचति दे॒वेभ्य॑श्च पि॒तृभ्य॒ आ ||{7.6.22.1}, {10.16.11}, {10.1.16.11} |
936 | उ॒शन्त॑स्त्वा॒ नि धी᳚मह्यु॒शन्तः॒ समि॑धीमहि | उ॒शन्नु॑श॒त आ व॑ह पि॒तॄन्ह॒विषे॒ अत्त॑वे ||{7.6.22.2}, {10.16.12}, {10.1.16.12} |
937 | यं त्वम॑ग्ने स॒मद॑ह॒स्तमु॒ निर्वा᳚पया॒ पुनः॑ | कि॒याम्ब्वत्र॑ रोहतु पाकदू॒र्वा व्य॑ल्कशा ||{7.6.22.3}, {10.16.13}, {10.1.16.13} |
938 | शीति॑के॒ शीति॑कावति॒ ह्लादि॑के॒ ह्लादि॑कावति | म॒ण्डू॒क्या॒३॑(आ॒) सु सं ग॑म इ॒मं स्व१॑(अ॒)ग्निं ह॑र्षय ||{7.6.22.4}, {10.16.14}, {10.1.16.14} |
[88] (१-१४) चतुर्दशर्चस्य सूत्तस्य यामायनो देवश्रवा ऋषिः | (१-२) प्रथमाद्वितीययोर्ऋचोः सरण्यः, (३-६) तृतीयादिचतसृणां पूषा, (७-९) सप्तम्यादितृचस्य सरस्वती, (१०, १४) दशमीचतुदर्श योरापः, (११-१३) एकादश्यादितृचस्य च आपः सोमो वा देवताः | (१-१२) प्रथमादिद्वादशर्चाम् त्रिष्टुप, (१३) त्रयोदश्या अनुष्टः पुरस्ताद्ब्रहती वा, (१४) चतुदर्श याश्चानुष्टुप्, छन्दांसि || | |
939 | त्वष्टा᳚ दुहि॒त्रे व॑ह॒तुं कृ॑णो॒तीती॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ समे᳚ति | य॒मस्य॑ मा॒ता प᳚र्यु॒ह्यमा᳚ना म॒हो जा॒या विव॑स्वतो ननाश ||{7.6.23.1}, {10.17.1}, {10.2.1.1} |
940 | अपा᳚गूहन्न॒मृतां॒ मर्त्ये᳚भ्यः कृ॒त्वी सव᳚र्णामददु॒र्विव॑स्वते | उ॒ताश्विना᳚वभर॒द्यत्तदासी॒दज॑हादु॒ द्वा मि॑थु॒ना स॑र॒ण्यूः ||{7.6.23.2}, {10.17.2}, {10.2.1.2} |
941 | पू॒षा त्वे॒तश्च्या᳚वयतु॒ प्र वि॒द्वानन॑ष्टपशु॒र्भुव॑नस्य गो॒पाः | स त्वै॒तेभ्यः॒ परि॑ ददत्पि॒तृभ्यो॒ऽग्निर्दे॒वेभ्यः॑ सुविद॒त्रिये᳚भ्यः ||{7.6.23.3}, {10.17.3}, {10.2.1.3} |
942 | आयु᳚र्वि॒श्वायुः॒ परि॑ पासति त्वा पू॒षा त्वा᳚ पातु॒ प्रप॑थे पु॒रस्ता᳚त् | यत्रास॑ते सु॒कृतो॒ यत्र॒ ते य॒युस्तत्र॑ त्वा दे॒वः स॑वि॒ता द॑धातु ||{7.6.23.4}, {10.17.4}, {10.2.1.4} |
943 | पू॒षेमा आशा॒ अनु॑ वेद॒ सर्वाः॒ सो अ॒स्माँ अभ॑यतमेन नेषत् | स्व॒स्ति॒दा आघृ॑णिः॒ सर्व॑वी॒रोऽप्र॑युच्छन्पु॒र ए᳚तु प्रजा॒नन् ||{7.6.23.5}, {10.17.5}, {10.2.1.5} |
944 | प्रप॑थे प॒थाम॑जनिष्ट पू॒षा प्रप॑थे दि॒वः प्रप॑थे पृथि॒व्याः | उ॒भे अ॒भि प्रि॒यत॑मे स॒धस्थे॒ आ च॒ परा᳚ च चरति प्रजा॒नन् ||{7.6.24.1}, {10.17.6}, {10.2.1.6} |
945 | सर॑स्वतीं देव॒यन्तो᳚ हवन्ते॒ सर॑स्वतीमध्व॒रे ता॒यमा᳚ने | सर॑स्वतीं सु॒कृतो᳚ अह्वयन्त॒ सर॑स्वती दा॒शुषे॒ वार्यं᳚ दात् ||{7.6.24.2}, {10.17.7}, {10.2.1.7} |
946 | सर॑स्वति॒ या स॒रथं᳚ य॒याथ॑ स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद᳚न्ती | आ॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्हिषि॑ मादयस्वानमी॒वा इष॒ आ धे᳚ह्य॒स्मे ||{7.6.24.3}, {10.17.8}, {10.2.1.8} |
947 | सर॑स्वतीं॒ यां पि॒तरो॒ हव᳚न्ते दक्षि॒णा य॒ज्ञम॑भि॒नक्ष॑माणाः | स॒ह॒स्रा॒र्घमि॒ळो अत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानेषु धेहि ||{7.6.24.4}, {10.17.9}, {10.2.1.9} |
948 | आपो᳚ अ॒स्मान्मा॒तरः॑ शुन्धयन्तु घृ॒तेन॑ नो घृत॒प्वः॑ पुनन्तु | विश्वं॒ हि रि॒प्रं प्र॒वह᳚न्ति दे॒वीरुदिदा᳚भ्यः॒ शुचि॒रा पू॒त ए᳚मि ||{7.6.24.5}, {10.17.10}, {10.2.1.10} |
949 | द्र॒प्सश्च॑स्कन्द प्रथ॒माँ अनु॒ द्यूनि॒मं च॒ योनि॒मनु॒ यश्च॒ पूर्वः॑ | स॒मा॒नं योनि॒मनु॑ सं॒चर᳚न्तं द्र॒प्सं जु॑हो॒म्यनु॑ स॒प्त होत्राः᳚ ||{7.6.25.1}, {10.17.11}, {10.2.1.11} |
950 | यस्ते᳚ द्र॒प्सः स्कन्द॑ति॒ यस्ते᳚ अं॒शुर्बा॒हुच्यु॑तो धि॒षणा᳚या उ॒पस्था᳚त् | अ॒ध्व॒र्योर्वा॒ परि॑ वा॒ यः प॒वित्रा॒त्तं ते᳚ जुहोमि॒ मन॑सा॒ वष॑ट्कृतम् ||{7.6.25.2}, {10.17.12}, {10.2.1.12} |
951 | यस्ते᳚ द्र॒प्सः स्क॒न्नो यस्ते᳚ अं॒शुर॒वश्च॒ यः प॒रः स्रु॒चा | अ॒यं दे॒वो बृह॒स्पतिः॒ सं तं सि᳚ञ्चतु॒ राध॑से ||{7.6.25.3}, {10.17.13}, {10.2.1.13} |
952 | पय॑स्वती॒रोष॑धयः॒ पय॑स्वन्माम॒कं वचः॑ | अ॒पां पय॑स्व॒दित्पय॒स्तेन॑ मा स॒ह शु᳚न्धत ||{7.6.25.4}, {10.17.14}, {10.2.1.14} |
[89] (१-१४) चतुर्दशर्चस्य सूक्तस्य यामायनः संकसु क ऋषिः | (१-४) प्रथमादिचतुर्ऋचाम् मृत्युः, (५) पञ्चम्या धाता, (६) षष्ठ्यास्त्वष्टा, (७-१३) सप्तम्यादिसप्तानां पितृमधे :, (१४) चतुर्दर्श्याश्च पितृमधे : प्रजापतिर्वा देवताः | (१-१०, १२) प्रथमादिदशर्चाम् द्वादश्याश्च त्रिष्टुप् (११) एकादश्याः प्रस्तारपङ्क्तिः, (१३) त्रयोदश्या जगती, (१४) चतुदर्श याश्चानष्टप छन्दांसि || | |
953 | परं᳚ मृत्यो॒ अनु॒ परे᳚हि॒ पन्थां॒ यस्ते॒ स्व इत॑रो देव॒याना᳚त् | चक्षु॑ष्मते शृण्व॒ते ते᳚ ब्रवीमि॒ मा नः॑ प्र॒जां री᳚रिषो॒ मोत वी॒रान् ||{7.6.26.1}, {10.18.1}, {10.2.2.1} |
954 | मृ॒त्योः प॒दं यो॒पय᳚न्तो॒ यदैत॒ द्राघी᳚य॒ आयुः॑ प्रत॒रं दधा᳚नाः | आ॒प्याय॑मानाः प्र॒जया॒ धने᳚न शु॒द्धाः पू॒ता भ॑वत यज्ञियासः ||{7.6.26.2}, {10.18.2}, {10.2.2.2} |
955 | इ॒मे जी॒वा वि मृ॒तैराव॑वृत्र॒न्नभू᳚द्भ॒द्रा दे॒वहू᳚तिर्नो अ॒द्य | प्राञ्चो᳚ अगाम नृ॒तये॒ हसा᳚य॒ द्राघी᳚य॒ आयुः॑ प्रत॒रं दधा᳚नाः ||{7.6.26.3}, {10.18.3}, {10.2.2.3} |
956 | इ॒मं जी॒वेभ्यः॑ परि॒धिं द॑धामि॒ मैषां॒ नु गा॒दप॑रो॒ अर्थ॑मे॒तम् | श॒तं जी᳚वन्तु श॒रदः॑ पुरू॒चीर॒न्तर्मृ॒त्युं द॑धतां॒ पर्व॑तेन ||{7.6.26.4}, {10.18.4}, {10.2.2.4} |
957 | यथाहा᳚न्यनुपू॒र्वं भव᳚न्ति॒ यथ॑ ऋ॒तव॑ ऋ॒तुभि॒र्यन्ति॑ सा॒धु | यथा॒ न पूर्व॒मप॑रो॒ जहा᳚त्ये॒वा धा᳚त॒रायूं᳚षि कल्पयैषाम् ||{7.6.26.5}, {10.18.5}, {10.2.2.5} |
958 | आ रो᳚ह॒तायु॑र्ज॒रसं᳚ वृणा॒ना अ॑नुपू॒र्वं यत॑माना॒ यति॒ ष्ठ | इ॒ह त्वष्टा᳚ सु॒जनि॑मा स॒जोषा᳚ दी॒र्घमायुः॑ करति जी॒वसे᳚ वः ||{7.6.27.1}, {10.18.6}, {10.2.2.6} |
959 | इ॒मा नारी᳚रविध॒वाः सु॒पत्नी॒राञ्ज॑नेन स॒र्पिषा॒ सं वि॑शन्तु | अ॒न॒श्रवो᳚ऽनमी॒वाः सु॒रत्ना॒ आ रो᳚हन्तु॒ जन॑यो॒ योनि॒मग्रे᳚ ||{7.6.27.2}, {10.18.7}, {10.2.2.7} |
960 | उदी᳚र्ष्व नार्य॒भि जी᳚वलो॒कं ग॒तासु॑मे॒तमुप॑ शेष॒ एहि॑ | ह॒स्त॒ग्रा॒भस्य॑ दिधि॒षोस्तवे॒दं पत्यु॑र्जनि॒त्वम॒भि सं ब॑भूथ ||{7.6.27.3}, {10.18.8}, {10.2.2.8} |
961 | धनु॒र्हस्ता᳚दा॒ददा᳚नो मृ॒तस्या॒स्मे क्ष॒त्राय॒ वर्च॑से॒ बला᳚य | अत्रै॒व त्वमि॒ह व॒यं सु॒वीरा॒ विश्वाः॒ स्पृधो᳚ अ॒भिमा᳚तीर्जयेम ||{7.6.27.4}, {10.18.9}, {10.2.2.9} |
962 | उप॑ सर्प मा॒तरं॒ भूमि॑मे॒तामु॑रु॒व्यच॑सं पृथि॒वीं सु॒शेवा᳚म् | ऊर्ण᳚म्रदा युव॒तिर्दक्षि॑णावत ए॒षा त्वा᳚ पातु॒ निरृ॑तेरु॒पस्था᳚त् ||{7.6.27.5}, {10.18.10}, {10.2.2.10} |
963 | उच्छ्व᳚ञ्चस्व पृथिवि॒ मा नि बा᳚धथाः सूपाय॒नास्मै᳚ भव सूपवञ्च॒ना | मा॒ता पु॒त्रं यथा᳚ सि॒चाभ्ये᳚नं भूम ऊर्णुहि ||{7.6.28.1}, {10.18.11}, {10.2.2.11} |
964 | उ॒च्छ्वञ्च॑माना पृथि॒वी सु ति॑ष्ठतु स॒हस्रं॒ मित॒ उप॒ हि श्रय᳚न्ताम् | ते गृ॒हासो᳚ घृत॒श्चुतो᳚ भवन्तु वि॒श्वाहा᳚स्मै शर॒णाः स॒न्त्वत्र॑ ||{7.6.28.2}, {10.18.12}, {10.2.2.12} |
965 | उत्ते᳚ स्तभ्नामि पृथि॒वीं त्वत्परी॒मं लो॒गं नि॒दध॒न्मो अ॒हं रि॑षम् | ए॒तां स्थूणां᳚ पि॒तरो᳚ धारयन्तु॒ तेऽत्रा᳚ य॒मः साद॑ना ते मिनोतु ||{7.6.28.3}, {10.18.13}, {10.2.2.13} |
966 | प्र॒ती॒चीने॒ मामह॒नीष्वाः᳚ प॒र्णमि॒वा द॑धुः | प्र॒तीचीं᳚ जग्रभा॒ वाच॒मश्वं᳚ रश॒नया᳚ यथा ||{7.6.28.4}, {10.18.14}, {10.2.2.14} |
[90] (१-८) अष्टर्चस्य सूक्तस्य यामायनो मथितो वारुणिभृर्ग व भार्गवश्चयवनो वा ऋषिः | (१, २-८) प्रथमर्चः पूर्वार्धस्य द्वितीयादिसप्तानाञ्चापो गावो वा, (१) प्रथमाया उत्तरार्धस्य चाग्नीषोमो देवताः | (१-५, ७-८) प्रथमादिपञ्चा सप्तम्यष्टम्योश्चानुष्टप्, (६) षष्ठ्याश्च गायत्री छन्दसी || | |
967 | नि व॑र्तध्वं॒ मानु॑ गाता॒स्मान्सि॑षक्त रेवतीः | अग्नी᳚षोमा पुनर्वसू अ॒स्मे धा᳚रयतं र॒यिम् ||{7.7.1.1}, {10.19.1}, {10.2.3.1} |
968 | पुन॑रेना॒ नि व॑र्तय॒ पुन॑रेना॒ न्या कु॑रु | इन्द्र॑ एणा॒ नि य॑च्छत्व॒ग्निरे᳚ना उ॒पाज॑तु ||{7.7.1.2}, {10.19.2}, {10.2.3.2} |
969 | पुन॑रे॒ता नि व॑र्तन्ताम॒स्मिन्पु॑ष्यन्तु॒ गोप॑तौ | इ॒हैवाग्ने॒ नि धा᳚रये॒ह ति॑ष्ठतु॒ या र॒यिः ||{7.7.1.3}, {10.19.3}, {10.2.3.3} |
970 | यन्नि॒यानं॒ न्यय॑नं सं॒ज्ञानं॒ यत्प॒राय॑णम् | आ॒वर्त॑नं नि॒वर्त॑नं॒ यो गो॒पा अपि॒ तं हु॑वे ||{7.7.1.4}, {10.19.4}, {10.2.3.4} |
971 | य उ॒दान॒ड्व्यय॑नं॒ य उ॒दान॑ट् प॒राय॑णम् | आ॒वर्त॑नं नि॒वर्त॑न॒मपि॑ गो॒पा नि व॑र्तताम् ||{7.7.1.5}, {10.19.5}, {10.2.3.5} |
972 | आ नि॑वर्त॒ नि व॑र्तय॒ पुन᳚र्न इन्द्र॒ गा दे᳚हि | जी॒वाभि॑र्भुनजामहै ||{7.7.1.6}, {10.19.6}, {10.2.3.6} |
973 | परि॑ वो वि॒श्वतो᳚ दध ऊ॒र्जा घृ॒तेन॒ पय॑सा | ये दे॒वाः के च॑ य॒ज्ञिया॒स्ते र॒य्या सं सृ॑जन्तु नः ||{7.7.1.7}, {10.19.7}, {10.2.3.7} |
974 | आ नि॑वर्तन वर्तय॒ नि नि॑वर्तन वर्तय | भूम्या॒श्चत॑स्रः प्र॒दिश॒स्ताभ्य॑ एना॒ नि व॑र्तय ||{7.7.1.8}, {10.19.8}, {10.2.3.8} |
[91] (१-२०) दशर्चस्य सूक्तस्यैन्द्रः प्राजापत्यो वा विमदः, वासक्रो वसकृद्वा ऋषिः | अग्निर्देवता | (१) प्रथमर्च एकपदा विराट्, (२) द्वितीयाया अनुष्टुप् (३८) तृतीयादितृचद्वयस्य गायत्री, (९) नवम्या विराट्, (१०) दशम्याश्च त्रिष्टुप् छन्दः || | |
975 | भ॒द्रं नो॒ अपि॑ वातय॒ मनः॑ ||{7.7.2.1}, {10.20.1}, {10.2.4.1} |
976 | अ॒ग्निमी᳚ळे भु॒जां यवि॑ष्ठं शा॒सा मि॒त्रं दु॒र्धरी᳚तुम् | यस्य॒ धर्म॒न्स्व१॑(अ॒)रेनीः᳚ सप॒र्यन्ति॑ मा॒तुरूधः॑ ||{7.7.2.2}, {10.20.2}, {10.2.4.2} |
977 | यमा॒सा कृ॒पनी᳚ळं भा॒साके᳚तुं व॒र्धय᳚न्ति | भ्राज॑ते॒ श्रेणि॑दन् ||{7.7.2.3}, {10.20.3}, {10.2.4.3} |
978 | अ॒र्यो वि॒शां गा॒तुरे᳚ति॒ प्र यदान॑ड्दि॒वो अन्ता॑न् | क॒विर॒भ्रं दीद्या᳚नः ||{7.7.2.4}, {10.20.4}, {10.2.4.4} |
979 | जु॒षद्ध॒व्या मानु॑षस्यो॒र्ध्वस्त॑स्था॒वृभ्वा᳚ य॒ज्ञे | मि॒न्वन्सद्म॑ पु॒र ए᳚ति ||{7.7.2.5}, {10.20.5}, {10.2.4.5} |
980 | स हि क्षेमो᳚ ह॒विर्य॒ज्ञः श्रु॒ष्टीद॑स्य गा॒तुरे᳚ति | अ॒ग्निं दे॒वा वाशी᳚मन्तम् ||{7.7.2.6}, {10.20.6}, {10.2.4.6} |
981 | य॒ज्ञा॒साहं॒ दुव॑ इषे॒ऽग्निं पूर्व॑स्य॒ शेव॑स्य | अद्रेः᳚ सू॒नुमा॒युमा᳚हुः ||{7.7.3.1}, {10.20.7}, {10.2.4.7} |
982 | नरो॒ ये के चा॒स्मदा विश्वेत्ते वा॒म आ स्युः॑ | अ॒ग्निं ह॒विषा॒ वर्ध᳚न्तः ||{7.7.3.2}, {10.20.8}, {10.2.4.8} |
983 | कृ॒ष्णः श्वे॒तो᳚ऽरु॒षो यामो᳚ अस्य ब्र॒ध्न ऋ॒ज्र उ॒त शोणो॒ यश॑स्वान् | हिर᳚ण्यरूपं॒ जनि॑ता जजान ||{7.7.3.3}, {10.20.9}, {10.2.4.9} |
984 | ए॒वा ते᳚ अग्ने विम॒दो म॑नी॒षामूर्जो᳚ नपाद॒मृते᳚भिः स॒जोषाः᳚ | गिर॒ आ व॑क्षत्सुम॒तीरि॑या॒न इष॒मूर्जं᳚ सुक्षि॒तिं विश्व॒माभाः᳚ ||{7.7.3.4}, {10.20.10}, {10.2.4.10} |
[92] (१-८) अष्टर्चस्य सूक्तस्यैन्द्रः प्राजापत्यो वा विमदः, वासक्रो वसकृद्वा ऋषिः | अग्निर्देवता | प्रास्तारपतिश्छन्दः || | |
985 | आग्निं न स्ववृ॑क्तिभि॒र्होता᳚रं त्वा वृणीमहे | य॒ज्ञाय॑ स्ती॒र्णब॑र्हिषे॒ वि वो॒ मदे᳚ शी॒रं पा᳚व॒कशो᳚चिषं॒ विव॑क्षसे ||{7.7.4.1}, {10.21.1}, {10.2.5.1} |
986 | त्वामु॒ ते स्वा॒भुवः॑ शु॒म्भन्त्यश्व॑राधसः | वेति॒ त्वामु॑प॒सेच॑नी॒ वि वो॒ मद॒ ऋजी᳚तिरग्न॒ आहु॑ति॒र्विव॑क्षसे ||{7.7.4.2}, {10.21.2}, {10.2.5.2} |
987 | त्वे ध॒र्माण॑ आसते जु॒हूभिः॑ सिञ्च॒तीरि॑व | कृ॒ष्णा रू॒पाण्यर्जु॑ना॒ वि वो॒ मदे॒ विश्वा॒ अधि॒ श्रियो᳚ धिषे॒ विव॑क्षसे ||{7.7.4.3}, {10.21.3}, {10.2.5.3} |
988 | यम॑ग्ने॒ मन्य॑से र॒यिं सह॑सावन्नमर्त्य | तमा नो॒ वाज॑सातये॒ वि वो॒ मदे᳚ य॒ज्ञेषु॑ चि॒त्रमा भ॑रा॒ विव॑क्षसे ||{7.7.4.4}, {10.21.4}, {10.2.5.4} |
989 | अ॒ग्निर्जा॒तो अथ᳚र्वणा वि॒दद्विश्वा᳚नि॒ काव्या᳚ | भुव॑द्दू॒तो वि॒वस्व॑तो॒ वि वो॒ मदे᳚ प्रि॒यो य॒मस्य॒ काम्यो॒ विव॑क्षसे ||{7.7.4.5}, {10.21.5}, {10.2.5.5} |
990 | त्वां य॒ज्ञेष्वी᳚ळ॒तेऽग्ने᳚ प्रय॒त्य॑ध्व॒रे | त्वं वसू᳚नि॒ काम्या॒ वि वो॒ मदे॒ विश्वा᳚ दधासि दा॒शुषे॒ विव॑क्षसे ||{7.7.5.1}, {10.21.6}, {10.2.5.6} |
991 | त्वां य॒ज्ञेष्वृ॒त्विजं॒ चारु॑मग्ने॒ नि षे᳚दिरे | घृ॒तप्र॑तीकं॒ मनु॑षो॒ वि वो॒ मदे᳚ शु॒क्रं चेति॑ष्ठम॒क्षभि॒र्विव॑क्षसे ||{7.7.5.2}, {10.21.7}, {10.2.5.7} |
992 | अग्ने᳚ शु॒क्रेण॑ शो॒चिषो॒रु प्र॑थयसे बृ॒हत् | अ॒भि॒क्रन्द᳚न्वृषायसे॒ वि वो॒ मदे॒ गर्भं᳚ दधासि जा॒मिषु॒ विव॑क्षसे ||{7.7.5.3}, {10.21.8}, {10.2.5.8} |
[93] (१-१५) पञ्चदशर्चस्य सूक्तस्यैन्द्रः प्राजापत्यो वा विमदः, वासुक्रो वसुकृद्वा ऋषिः | इन्द्रो देवता | (१-४, ६, ८, १०-१४) प्रथमादिचतुर्ऋचामा, षष्ठ्यष्टम्योर्दशम्यादिपञ्चानाञ्च पुरस्ताद्ब्रहती, (५, ७, ९) पञ्चमीसप्तमीनवमीनामनुष्टुप्, (१५) पञ्चदश्याश्च त्रिष्टुप् छन्दांसि || | |
993 | कुह॑ श्रु॒त इन्द्रः॒ कस्मि᳚न्न॒द्य जने᳚ मि॒त्रो न श्रू᳚यते | ऋषी᳚णां वा॒ यः क्षये॒ गुहा᳚ वा॒ चर्कृ॑षे गि॒रा ||{7.7.6.1}, {10.22.1}, {10.2.6.1} |
994 | इ॒ह श्रु॒त इन्द्रो᳚ अ॒स्मे अ॒द्य स्तवे᳚ व॒ज्र्यृची᳚षमः | मि॒त्रो न यो जने॒ष्वा यश॑श्च॒क्रे असा॒म्या ||{7.7.6.2}, {10.22.2}, {10.2.6.2} |
995 | म॒हो यस्पतिः॒ शव॑सो॒ असा॒म्या म॒हो नृ॒म्णस्य॑ तूतु॒जिः | भ॒र्ता वज्र॑स्य धृ॒ष्णोः पि॒ता पु॒त्रमि॑व प्रि॒यम् ||{7.7.6.3}, {10.22.3}, {10.2.6.3} |
996 | यु॒जा॒नो अश्वा॒ वात॑स्य॒ धुनी᳚ दे॒वो दे॒वस्य॑ वज्रिवः | स्यन्ता᳚ प॒था वि॒रुक्म॑ता सृजा॒नः स्तो॒ष्यध्व॑नः ||{7.7.6.4}, {10.22.4}, {10.2.6.4} |
997 | त्वं त्या चि॒द्वात॒स्याश्वागा᳚ ऋ॒ज्रा त्मना॒ वह॑ध्यै | ययो᳚र्दे॒वो न मर्त्यो᳚ य॒न्ता नकि᳚र्वि॒दाय्यः॑ ||{7.7.6.5}, {10.22.5}, {10.2.6.5} |
998 | अध॒ ग्मन्तो॒शना᳚ पृच्छते वां॒ कद॑र्था न॒ आ गृ॒हम् | आ ज॑ग्मथुः परा॒काद्दि॒वश्च॒ ग्मश्च॒ मर्त्य᳚म् ||{7.7.7.1}, {10.22.6}, {10.2.6.6} |
999 | आ न॑ इन्द्र पृक्षसे॒ऽस्माकं॒ ब्रह्मोद्य॑तम् | तत्त्वा᳚ याचाम॒हेऽवः॒ शुष्णं॒ यद्धन्नमा᳚नुषम् ||{7.7.7.2}, {10.22.7}, {10.2.6.7} |
1000 | अ॒क॒र्मा दस्यु॑र॒भि नो᳚ अम॒न्तुर॒न्यव्र॑तो॒ अमा᳚नुषः | त्वं तस्या᳚मित्रह॒न्वध॑र्दा॒सस्य॑ दम्भय ||{7.7.7.3}, {10.22.8}, {10.2.6.8} |
1001 | त्वं न॑ इन्द्र शूर॒ शूरै᳚रु॒त त्वोता᳚सो ब॒र्हणा᳚ | पु॒रु॒त्रा ते॒ वि पू॒र्तयो॒ नव᳚न्त क्षो॒णयो᳚ यथा ||{7.7.7.4}, {10.22.9}, {10.2.6.9} |
1002 | त्वं तान्वृ॑त्र॒हत्ये᳚ चोदयो॒ नॄन्का᳚र्पा॒णे शू᳚र वज्रिवः | गुहा॒ यदी᳚ कवी॒नां वि॒शां नक्ष॑त्रशवसाम् ||{7.7.7.5}, {10.22.10}, {10.2.6.10} |
1003 | म॒क्षू ता त॑ इन्द्र दा॒नाप्न॑स आक्षा॒णे शू᳚र वज्रिवः | यद्ध॒ शुष्ण॑स्य द॒म्भयो᳚ जा॒तं विश्वं᳚ स॒याव॑भिः ||{7.7.8.1}, {10.22.11}, {10.2.6.11} |
1004 | माकु॒ध्र्य॑गिन्द्र शूर॒ वस्वी᳚र॒स्मे भू᳚वन्न॒भिष्ट॑यः | व॒यंव॑यं त आसां सु॒म्ने स्या᳚म वज्रिवः ||{7.7.8.2}, {10.22.12}, {10.2.6.12} |
1005 | अ॒स्मे ता त॑ इन्द्र सन्तु स॒त्याहिं᳚सन्तीरुप॒स्पृशः॑ | वि॒द्याम॒ यासां॒ भुजो᳚ धेनू॒नां न व॑ज्रिवः ||{7.7.8.3}, {10.22.13}, {10.2.6.13} |
1006 | अ॒ह॒स्ता यद॒पदी॒ वर्ध॑त॒ क्षाः शची᳚भिर्वे॒द्याना᳚म् | शुष्णं॒ परि॑ प्रदक्षि॒णिद्वि॒श्वाय॑वे॒ नि शि॑श्नथः ||{7.7.8.4}, {10.22.14}, {10.2.6.14} |
1007 | पिबा᳚पि॒बेदि᳚न्द्र शूर॒ सोमं॒ मा रि॑षण्यो वसवान॒ वसुः॒ सन् | उ॒त त्रा᳚यस्व गृण॒तो म॒घोनो᳚ म॒हश्च॑ रा॒यो रे॒वत॑स्कृधी नः ||{7.7.8.5}, {10.22.15}, {10.2.6.15} |
[94] (१-७) सप्तर्चस्य सूक्तस्यैन्द्रः प्राजापत्यो वा विमदः, वासुक्रो वसुकृद्वा ऋषिः | इन्द्रो देवता | (१, ७) प्रथमासप्तम्यो चोस्त्रिष्टुप, (२-४, ६) द्वितीयादितृचस्य षष्ठ्याश्च जगती, (५) पञ्चम्याश्चाभिसारिणी छन्दांसि || | |
1008 | यजा᳚मह॒ इन्द्रं॒ वज्र॑दक्षिणं॒ हरी᳚णां र॒थ्य१॑(अ॒) अंविव्र॑तानाम् | प्र श्मश्रु॒ दोधु॑वदू॒र्ध्वथा᳚ भू॒द्वि सेना᳚भि॒र्दय॑मानो॒ वि राध॑सा ||{7.7.9.1}, {10.23.1}, {10.2.7.1} |
1009 | हरी॒ न्व॑स्य॒ या वने᳚ वि॒दे वस्विन्द्रो᳚ म॒घैर्म॒घवा᳚ वृत्र॒हा भु॑वत् | ऋ॒भुर्वाज॑ ऋभु॒क्षाः प॑त्यते॒ शवोऽव॑ क्ष्णौमि॒ दास॑स्य॒ नाम॑ चित् ||{7.7.9.2}, {10.23.2}, {10.2.7.2} |
1010 | य॒दा वज्रं॒ हिर᳚ण्य॒मिदथा॒ रथं॒ हरी॒ यम॑स्य॒ वह॑तो॒ वि सू॒रिभिः॑ | आ ति॑ष्ठति म॒घवा॒ सन॑श्रुत॒ इन्द्रो॒ वाज॑स्य दी॒र्घश्र॑वस॒स्पतिः॑ ||{7.7.9.3}, {10.23.3}, {10.2.7.3} |
1011 | सो चि॒न्नु वृ॒ष्टिर्यू॒थ्या॒३॑(आ॒) स्वा सचाँ॒ इन्द्रः॒ श्मश्रू᳚णि॒ हरि॑ता॒भि प्रु॑ष्णुते | अव॑ वेति सु॒क्षयं᳚ सु॒ते मधूदिद्धू᳚नोति॒ वातो॒ यथा॒ वन᳚म् ||{7.7.9.4}, {10.23.4}, {10.2.7.4} |
1012 | यो वा॒चा विवा᳚चो मृ॒ध्रवा᳚चः पु॒रू स॒हस्राशि॑वा ज॒घान॑ | तत्त॒दिद॑स्य॒ पौंस्यं᳚ गृणीमसि पि॒तेव॒ यस्तवि॑षीं वावृ॒धे शवः॑ ||{7.7.9.5}, {10.23.5}, {10.2.7.5} |
1013 | स्तोमं᳚ त इन्द्र विम॒दा अ॑जीजन॒न्नपू᳚र्व्यं पुरु॒तमं᳚ सु॒दान॑वे | वि॒द्मा ह्य॑स्य॒ भोज॑नमि॒नस्य॒ यदा प॒शुं न गो॒पाः क॑रामहे ||{7.7.9.6}, {10.23.6}, {10.2.7.6} |
1014 | माकि᳚र्न ए॒ना स॒ख्या वि यौ᳚षु॒स्तव॑ चेन्द्र विम॒दस्य॑ च॒ ऋषेः᳚ | वि॒द्मा हि ते॒ प्रम॑तिं देव जामि॒वद॒स्मे ते᳚ सन्तु स॒ख्या शि॒वानि॑ ||{7.7.9.7}, {10.23.7}, {10.2.7.7} |
[95] (१-६) षळृर्चस्य सूक्तस्यैन्द्रः प्राजापत्यो वा विमदः, वासुक्रो वसुकृद्वा ऋषिः | (१-३) प्रथमतृचस्येन्द्रः, (४-६) द्वितीयतृचस्य चाश्विनौ देवताः | (१-३) प्रथमतृचस्यास्तारपङ्क्तिः, (४-६) द्वितीयतृचस्य चानुष्टप् छन्दसी || | |
1015 | इन्द्र॒ सोम॑मि॒मं पि॑ब॒ मधु॑मन्तं च॒मू सु॒तम् | अ॒स्मे र॒यिं नि धा᳚रय॒ वि वो॒ मदे᳚ सह॒स्रिणं᳚ पुरूवसो॒ विव॑क्षसे ||{7.7.10.1}, {10.24.1}, {10.2.8.1} |
1016 | त्वां य॒ज्ञेभि॑रु॒क्थैरुप॑ ह॒व्येभि॑रीमहे | शची᳚पते शचीनां॒ वि वो॒ मदे॒ श्रेष्ठं᳚ नो धेहि॒ वार्यं॒ विव॑क्षसे ||{7.7.10.2}, {10.24.2}, {10.2.8.2} |
1017 | यस्पति॒र्वार्या᳚णा॒मसि॑ र॒ध्रस्य॑ चोदि॒ता | इन्द्र॑ स्तोतॄ॒णाम॑वि॒ता वि वो॒ मदे᳚ द्वि॒षो नः॑ पा॒ह्यंह॑सो॒ विव॑क्षसे ||{7.7.10.3}, {10.24.3}, {10.2.8.3} |
1018 | यु॒वं श॑क्रा माया॒विना᳚ समी॒ची निर॑मन्थतम् | वि॒म॒देन॒ यदी᳚ळि॒ता नास॑त्या नि॒रम᳚न्थतम् ||{7.7.10.4}, {10.24.4}, {10.2.8.4} |
1019 | विश्वे᳚ दे॒वा अ॑कृपन्त समी॒च्योर्नि॒ष्पत᳚न्त्योः | नास॑त्यावब्रुवन्दे॒वाः पुन॒रा व॑हता॒दिति॑ ||{7.7.10.5}, {10.24.5}, {10.2.8.5} |
1020 | मधु॑मन्मे प॒राय॑णं॒ मधु॑म॒त्पुन॒राय॑नम् | ता नो᳚ देवा दे॒वत॑या यु॒वं मधु॑मतस्कृतम् ||{7.7.10.6}, {10.24.6}, {10.2.8.6} |
[96] (१-११) एकादशर्चस्य सूक्तस्यैन्द्रः प्राजापत्यो वा विमदः, वासुक्रो वसुकृद्वा ऋषिः | सोमो देवता | आस्तारपङ्क्तिश्छन्दः || | |
1021 | भ॒द्रं नो॒ अपि॑ वातय॒ मनो॒ दक्ष॑मु॒त क्रतु᳚म् | अधा᳚ ते स॒ख्ये अन्ध॑सो॒ वि वो॒ मदे॒ रण॒न्गावो॒ न यव॑से॒ विव॑क्षसे ||{7.7.11.1}, {10.25.1}, {10.2.9.1} |
1022 | हृ॒दि॒स्पृश॑स्त आसते॒ विश्वे᳚षु सोम॒ धाम॑सु | अधा॒ कामा᳚ इ॒मे मम॒ वि वो॒ मदे॒ वि ति॑ष्ठन्ते वसू॒यवो॒ विव॑क्षसे ||{7.7.11.2}, {10.25.2}, {10.2.9.2} |
1023 | उ॒त व्र॒तानि॑ सोम ते॒ प्राहं मि॑नामि पा॒क्या᳚ | अधा᳚ पि॒तेव॑ सू॒नवे॒ वि वो॒ मदे᳚ मृ॒ळा नो᳚ अ॒भि चि॑द्व॒धाद्विव॑क्षसे ||{7.7.11.3}, {10.25.3}, {10.2.9.3} |
1024 | समु॒ प्र य᳚न्ति धी॒तयः॒ सर्गा᳚सोऽव॒ताँ इ॑व | क्रतुं᳚ नः सोम जी॒वसे॒ वि वो॒ मदे᳚ धा॒रया᳚ चम॒साँ इ॑व॒ विव॑क्षसे ||{7.7.11.4}, {10.25.4}, {10.2.9.4} |
1025 | तव॒ त्ये सो᳚म॒ शक्ति॑भि॒र्निका᳚मासो॒ व्यृ᳚ण्विरे | गृत्स॑स्य॒ धीरा᳚स्त॒वसो॒ वि वो॒ मदे᳚ व्र॒जं गोम᳚न्तम॒श्विनं॒ विव॑क्षसे ||{7.7.11.5}, {10.25.5}, {10.2.9.5} |
1026 | प॒शुं नः॑ सोम रक्षसि पुरु॒त्रा विष्ठि॑तं॒ जग॑त् | स॒माकृ॑णोषि जी॒वसे॒ वि वो॒ मदे॒ विश्वा᳚ स॒म्पश्य॒न्भुव॑ना॒ विव॑क्षसे ||{7.7.12.1}, {10.25.6}, {10.2.9.6} |
1027 | त्वं नः॑ सोम वि॒श्वतो᳚ गो॒पा अदा᳚भ्यो भव | सेध॑ राज॒न्नप॒ स्रिधो॒ वि वो॒ मदे॒ मा नो᳚ दुः॒शंस॑ ईशता॒ विव॑क्षसे ||{7.7.12.2}, {10.25.7}, {10.2.9.7} |
1028 | त्वं नः॑ सोम सु॒क्रतु᳚र्वयो॒धेया᳚य जागृहि | क्षे॒त्र॒वित्त॑रो॒ मनु॑षो॒ वि वो॒ मदे᳚ द्रु॒हो नः॑ पा॒ह्यंह॑सो॒ विव॑क्षसे ||{7.7.12.3}, {10.25.8}, {10.2.9.8} |
1029 | त्वं नो᳚ वृत्रहन्त॒मेन्द्र॑स्येन्दो शि॒वः सखा᳚ | यत्सीं॒ हव᳚न्ते समि॒थे वि वो॒ मदे॒ युध्य॑मानास्तो॒कसा᳚तौ॒ विव॑क्षसे ||{7.7.12.4}, {10.25.9}, {10.2.9.9} |
1030 | अ॒यं घ॒ स तु॒रो मद॒ इन्द्र॑स्य वर्धत प्रि॒यः | अ॒यं क॒क्षीव॑तो म॒हो वि वो॒ मदे᳚ म॒तिं विप्र॑स्य वर्धय॒द्विव॑क्षसे ||{7.7.12.5}, {10.25.10}, {10.2.9.10} |
1031 | अ॒यं विप्रा᳚य दा॒शुषे॒ वाजाँ᳚ इयर्ति॒ गोम॑तः | अ॒यं स॒प्तभ्य॒ आ वरं॒ वि वो॒ मदे॒ प्रान्धं श्रो॒णं च॑ तारिष॒द्विव॑क्षसे ||{7.7.12.6}, {10.25.11}, {10.2.9.11} |
[97] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्यैन्द्रः प्राजापत्यो वा विमदः, वासुक्रो वसुकृद्वा ऋषिः | पूषा देवता | (१, ४) प्रथमाचतुर्योर्चोरुष्णिक्, (२-३, ५-९) द्वितीयातृतीययोः पञ्चम्यादिपञ्चानाञ्चानुष्टुप्छन्दसी || | |
1032 | प्र ह्यच्छा᳚ मनी॒षा स्पा॒र्हा यन्ति॑ नि॒युतः॑ | प्र द॒स्रा नि॒युद्र॑थः पू॒षा अ॑विष्टु॒ माहि॑नः ||{7.7.13.1}, {10.26.1}, {10.2.10.1} |
1033 | यस्य॒ त्यन्म॑हि॒त्वं वा॒ताप्य॑म॒यं जनः॑ | विप्र॒ आ वं᳚सद्धी॒तिभि॒श्चिके᳚त सुष्टुती॒नाम् ||{7.7.13.2}, {10.26.2}, {10.2.10.2} |
1034 | स वे᳚द सुष्टुती॒नामिन्दु॒र्न पू॒षा वृषा᳚ | अ॒भि प्सुरः॑ प्रुषायति व्र॒जं न॒ आ प्रु॑षायति ||{7.7.13.3}, {10.26.3}, {10.2.10.3} |
1035 | मं॒सी॒महि॑ त्वा व॒यम॒स्माकं᳚ देव पूषन् | म॒ती॒नां च॒ साध॑नं॒ विप्रा᳚णां चाध॒वम् ||{7.7.13.4}, {10.26.4}, {10.2.10.4} |
1036 | प्रत्य॑र्धिर्य॒ज्ञाना᳚मश्वह॒यो रथा᳚नाम् | ऋषिः॒ स यो मनु॑र्हितो॒ विप्र॑स्य यावयत्स॒खः ||{7.7.13.5}, {10.26.5}, {10.2.10.5} |
1037 | आ॒धीष॑माणायाः॒ पतिः॑ शु॒चाया᳚श्च शु॒चस्य॑ च | वा॒सो॒वा॒योऽवी᳚ना॒मा वासां᳚सि॒ मर्मृ॑जत् ||{7.7.14.1}, {10.26.6}, {10.2.10.6} |
1038 | इ॒नो वाजा᳚नां॒ पति॑रि॒नः पु॑ष्टी॒नां सखा᳚ | प्र श्मश्रु॑ हर्य॒तो दू᳚धो॒द्वि वृथा॒ यो अदा᳚भ्यः ||{7.7.14.2}, {10.26.7}, {10.2.10.7} |
1039 | आ ते॒ रथ॑स्य पूषन्न॒जा धुरं᳚ ववृत्युः | विश्व॑स्या॒र्थिनः॒ सखा᳚ सनो॒जा अन॑पच्युतः ||{7.7.14.3}, {10.26.8}, {10.2.10.8} |
1040 | अ॒स्माक॑मू॒र्जा रथं᳚ पू॒षा अ॑विष्टु॒ माहि॑नः | भुव॒द्वाजा᳚नां वृ॒ध इ॒मं नः॑ शृणव॒द्धव᳚म् ||{7.7.14.4}, {10.26.9}, {10.2.10.9} |
[98] (१-२४) चतुर्विंशत्यृचस्य सूक्तस्यैन्द्रो वसुक्र ऋषिः | इन्द्रो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
1041 | अस॒त्सु मे᳚ जरितः॒ साभि॑वे॒गो यत्सु᳚न्व॒ते यज॑मानाय॒ शिक्ष᳚म् | अना᳚शीर्दाम॒हम॑स्मि प्रह॒न्ता स॑त्य॒ध्वृतं᳚ वृजिना॒यन्त॑मा॒भुम् ||{7.7.15.1}, {10.27.1}, {10.2.11.1} |
1042 | यदीद॒हं यु॒धये᳚ सं॒नया॒न्यदे᳚वयून्त॒न्वा॒३॑(आ॒) शूशु॑जानान् | अ॒मा ते॒ तुम्रं᳚ वृष॒भं प॑चानि ती॒व्रं सु॒तं प᳚ञ्चद॒शं नि षि᳚ञ्चम् ||{7.7.15.2}, {10.27.2}, {10.2.11.2} |
1043 | नाहं तं वे᳚द॒ य इति॒ ब्रवी॒त्यदे᳚वयून्स॒मर॑णे जघ॒न्वान् | य॒दावाख्य॑त्स॒मर॑ण॒मृघा᳚व॒दादिद्ध॑ मे वृष॒भा प्र ब्रु॑वन्ति ||{7.7.15.3}, {10.27.3}, {10.2.11.3} |
1044 | यदज्ञा᳚तेषु वृ॒जने॒ष्वासं॒ विश्वे᳚ स॒तो म॒घवा᳚नो म आसन् | जि॒नामि॒ वेत्क्षेम॒ आ सन्त॑मा॒भुं प्र तं क्षि॑णां॒ पर्व॑ते पाद॒गृह्य॑ ||{7.7.15.4}, {10.27.4}, {10.2.11.4} |
1045 | न वा उ॒ मां वृ॒जने᳚ वारयन्ते॒ न पर्व॑तासो॒ यद॒हं म॑न॒स्ये | मम॑ स्व॒नात्कृ॑धु॒कर्णो᳚ भयात ए॒वेदनु॒ द्यून्कि॒रणः॒ समे᳚जात् ||{7.7.15.5}, {10.27.5}, {10.2.11.5} |
1046 | दर्श॒न्न्वत्र॑ शृत॒पाँ अ॑नि॒न्द्रान्बा᳚हु॒क्षदः॒ शर॑वे॒ पत्य॑मानान् | घृषुं᳚ वा॒ ये नि॑नि॒दुः सखा᳚य॒मध्यू॒ न्वे᳚षु प॒वयो᳚ ववृत्युः ||{7.7.16.1}, {10.27.6}, {10.2.11.6} |
1047 | अभू॒र्वौक्षी॒र्व्यु१॑(उ॒) आयु॑रान॒ड्दर्ष॒न्नु पूर्वो॒ अप॑रो॒ नु द॑र्षत् | द्वे प॒वस्ते॒ परि॒ तं न भू᳚तो॒ यो अ॒स्य पा॒रे रज॑सो वि॒वेष॑ ||{7.7.16.2}, {10.27.7}, {10.2.11.7} |
1048 | गावो॒ यवं॒ प्रयु॑ता अ॒र्यो अ॑क्ष॒न्ता अ॑पश्यं स॒हगो᳚पा॒श्चर᳚न्तीः | हवा॒ इद॒र्यो अ॒भितः॒ समा᳚य॒न्किय॑दासु॒ स्वप॑तिश्छन्दयाते ||{7.7.16.3}, {10.27.8}, {10.2.11.8} |
1049 | सं यद्वयं᳚ यव॒सादो॒ जना᳚नाम॒हं य॒वाद॑ उ॒र्वज्रे᳚ अ॒न्तः | अत्रा᳚ यु॒क्तो᳚ऽवसा॒तार॑मिच्छा॒दथो॒ अयु॑क्तं युनजद्वव॒न्वान् ||{7.7.16.4}, {10.27.9}, {10.2.11.9} |
1050 | अत्रेदु॑ मे मंससे स॒त्यमु॒क्तं द्वि॒पाच्च॒ यच्चतु॑ष्पात्संसृ॒जानि॑ | स्त्री॒भिर्यो अत्र॒ वृष॑णं पृत॒न्यादयु॑द्धो अस्य॒ वि भ॑जानि॒ वेदः॑ ||{7.7.16.5}, {10.27.10}, {10.2.11.10} |
1051 | यस्या᳚न॒क्षा दु॑हि॒ता जात्वास॒ कस्तां वि॒द्वाँ अ॒भि म᳚न्याते अ॒न्धाम् | क॒त॒रो मे॒निं प्रति॒ तं मु॑चाते॒ य ईं॒ वहा᳚ते॒ य ईं᳚ वा वरे॒यात् ||{7.7.17.1}, {10.27.11}, {10.2.11.11} |
1052 | किय॑ती॒ योषा᳚ मर्य॒तो व॑धू॒योः परि॑प्रीता॒ पन्य॑सा॒ वार्ये᳚ण | भ॒द्रा व॒धूर्भ॑वति॒ यत्सु॒पेशाः᳚ स्व॒यं सा मि॒त्रं व॑नुते॒ जने᳚ चित् ||{7.7.17.2}, {10.27.12}, {10.2.11.12} |
1053 | प॒त्तो ज॑गार प्र॒त्यञ्च॑मत्ति शी॒र्ष्णा शिरः॒ प्रति॑ दधौ॒ वरू᳚थम् | आसी᳚न ऊ॒र्ध्वामु॒पसि॑ क्षिणाति॒ न्य᳚ङ्ङुत्ता॒नामन्वे᳚ति॒ भूमि᳚म् ||{7.7.17.3}, {10.27.13}, {10.2.11.13} |
1054 | बृ॒हन्न॑च्छा॒यो अ॑पला॒शो अर्वा᳚ त॒स्थौ मा॒ता विषि॑तो अत्ति॒ गर्भः॑ | अ॒न्यस्या᳚ व॒त्सं रि॑ह॒ती मि॑माय॒ कया᳚ भु॒वा नि द॑धे धे॒नुरूधः॑ ||{7.7.17.4}, {10.27.14}, {10.2.11.14} |
1055 | स॒प्त वी॒रासो᳚ अध॒रादुदा᳚यन्न॒ष्टोत्त॒रात्ता॒त्सम॑जग्मिर॒न्ते | नव॑ प॒श्चाता᳚त्स्थिवि॒मन्त॑ आय॒न्दश॒ प्राक्सानु॒ वि ति॑र॒न्त्यश्नः॑ ||{7.7.17.5}, {10.27.15}, {10.2.11.15} |
1056 | द॒शा॒नामेकं᳚ कपि॒लं स॑मा॒नं तं हि᳚न्वन्ति॒ क्रत॑वे॒ पार्या᳚य | गर्भं᳚ मा॒ता सुधि॑तं व॒क्षणा॒स्ववे᳚नन्तं तु॒षय᳚न्ती बिभर्ति ||{7.7.18.1}, {10.27.16}, {10.2.11.16} |
1057 | पीवा᳚नं मे॒षम॑पचन्त वी॒रा न्यु॑प्ता अ॒क्षा अनु॑ दी॒व आ᳚सन् | द्वा धनुं᳚ बृह॒तीम॒प्स्व१॑(अ॒)'न्तः प॒वित्र॑वन्ता चरतः पु॒नन्ता᳚ ||{7.7.18.2}, {10.27.17}, {10.2.11.17} |
1058 | वि क्रो᳚श॒नासो॒ विष्व᳚ञ्च आय॒न्पचा᳚ति॒ नेमो᳚ न॒हि पक्ष॑द॒र्धः | अ॒यं मे᳚ दे॒वः स॑वि॒ता तदा᳚ह॒ द्र्व᳚न्न॒ इद्व॑नवत्स॒र्पिर᳚न्नः ||{7.7.18.3}, {10.27.18}, {10.2.11.18} |
1059 | अप॑श्यं॒ ग्रामं॒ वह॑मानमा॒राद॑च॒क्रया᳚ स्व॒धया॒ वर्त॑मानम् | सिष॑क्त्य॒र्यः प्र यु॒गा जना᳚नां स॒द्यः शि॒श्ना प्र॑मिना॒नो नवी᳚यान् ||{7.7.18.4}, {10.27.19}, {10.2.11.19} |
1060 | ए॒तौ मे॒ गावौ᳚ प्रम॒रस्य॑ यु॒क्तौ मो षु प्र से᳚धी॒र्मुहु॒रिन्म॑मन्धि | आप॑श्चिदस्य॒ वि न॑श॒न्त्यर्थं॒ सूर॑श्च म॒र्क उप॑रो बभू॒वान् ||{7.7.18.5}, {10.27.20}, {10.2.11.20} |
1061 | अ॒यं यो वज्रः॑ पुरु॒धा विवृ॑त्तो॒ऽवः सूर्य॑स्य बृह॒तः पुरी᳚षात् | श्रव॒ इदे॒ना प॒रो अ॒न्यद॑स्ति॒ तद᳚व्य॒थी ज॑रि॒माण॑स्तरन्ति ||{7.7.19.1}, {10.27.21}, {10.2.11.21} |
1062 | वृ॒क्षेवृ॑क्षे॒ निय॑ता मीमय॒द्गौस्ततो॒ वयः॒ प्र प॑तान्पूरु॒षादः॑ | अथे॒दं विश्वं॒ भुव॑नं भयात॒ इन्द्रा᳚य सु॒न्वदृष॑ये च॒ शिक्ष॑त् ||{7.7.19.2}, {10.27.22}, {10.2.11.22} |
1063 | दे॒वानां॒ माने᳚ प्रथ॒मा अ॑तिष्ठन्कृ॒न्तत्रा᳚देषा॒मुप॑रा॒ उदा᳚यन् | त्रय॑स्तपन्ति पृथि॒वीम॑नू॒पा द्वा बृबू᳚कं वहतः॒ पुरी᳚षम् ||{7.7.19.3}, {10.27.23}, {10.2.11.23} |
1064 | सा ते᳚ जी॒वातु॑रु॒त तस्य॑ विद्धि॒ मा स्मै᳚ता॒दृगप॑ गूहः सम॒र्ये | आ॒विः स्वः॑ कृणु॒ते गूह॑ते बु॒सं स पा॒दुर॑स्य नि॒र्णिजो॒ न मु॑च्यते ||{7.7.19.4}, {10.27.24}, {10.2.11.24} |
[99] (१-१२) द्वादशर्चस्य सूक्तस्य (१) प्रथमर्च इन्द्रस्नुषा वसुक्रपत्री (ऋषिका) (२, ६, ८, १०, १२) द्वितीयाषष्ठ्यष्टमीदशमीद्वादशीनामिन्द्रः, (३-५, ७, ९, ११) तृतीयादितृचस्य सप्तमीनवम्येकादशीनाञ्चैन्द्रो वसुक्र ऋषिः | (१, ३-५, ७, ९, ११) प्रथमर्चस्तृतीयादितृचस्य सप्तमीनवम्येकादशीनाञ्चेन्द्रः, (२, ६, ८, १०, १२) द्वितीयाषष्ठ्यष्टमीदशमीद्वादशीनाञ्चैन्द्रो वसनो देवते | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
1065 | विश्वो॒ ह्य१॑(अ॒)'न्यो अ॒रिरा᳚ज॒गाम॒ ममेदह॒ श्वशु॑रो॒ ना ज॑गाम | ज॒क्षी॒याद्धा॒ना उ॒त सोमं᳚ पपीया॒त्स्वा᳚शितः॒ पुन॒रस्तं᳚ जगायात् ||{7.7.20.1}, {10.28.1}, {10.2.12.1} |
1066 | स रोरु॑वद्वृष॒भस्ति॒ग्मशृ᳚ङ्गो॒ वर्ष्म᳚न्तस्थौ॒ वरि॑म॒न्ना पृ॑थि॒व्याः | विश्वे᳚ष्वेनं वृ॒जने᳚षु पामि॒ यो मे᳚ कु॒क्षी सु॒तसो᳚मः पृ॒णाति॑ ||{7.7.20.2}, {10.28.2}, {10.2.12.2} |
1067 | अद्रि॑णा ते म॒न्दिन॑ इन्द्र॒ तूया᳚न्सु॒न्वन्ति॒ सोमा॒न्पिब॑सि॒ त्वमे᳚षाम् | पच᳚न्ति ते वृष॒भाँ अत्सि॒ तेषां᳚ पृ॒क्षेण॒ यन्म॑घवन्हू॒यमा᳚नः ||{7.7.20.3}, {10.28.3}, {10.2.12.3} |
1068 | इ॒दं सु मे᳚ जरित॒रा चि॑किद्धि प्रती॒पं शापं᳚ न॒द्यो᳚ वहन्ति | लो॒पा॒शः सिं॒हं प्र॒त्यञ्च॑मत्साः क्रो॒ष्टा व॑रा॒हं निर॑तक्त॒ कक्षा᳚त् ||{7.7.20.4}, {10.28.4}, {10.2.12.4} |
1069 | क॒था त॑ ए॒तद॒हमा चि॑केतं॒ गृत्स॑स्य॒ पाक॑स्त॒वसो᳚ मनी॒षाम् | त्वं नो᳚ वि॒द्वाँ ऋ॑तु॒था वि वो᳚चो॒ यमर्धं᳚ ते मघवन्क्षे॒म्या धूः ||{7.7.20.5}, {10.28.5}, {10.2.12.5} |
1070 | ए॒वा हि मां त॒वसं᳚ व॒र्धय᳚न्ति दि॒वश्चि᳚न्मे बृह॒त उत्त॑रा॒ धूः | पु॒रू स॒हस्रा॒ नि शि॑शामि सा॒कम॑श॒त्रुं हि मा॒ जनि॑ता ज॒जान॑ ||{7.7.20.6}, {10.28.6}, {10.2.12.6} |
1071 | ए॒वा हि मां त॒वसं᳚ ज॒ज्ञुरु॒ग्रं कर्म᳚न्कर्म॒न्वृष॑णमिन्द्र दे॒वाः | वधीं᳚ वृ॒त्रं वज्रे᳚ण मन्दसा॒नोऽप᳚ व्र॒जं म॑हि॒ना दा॒शुषे᳚ वम् ||{7.7.21.1}, {10.28.7}, {10.2.12.7} |
1072 | दे॒वास॑ आयन्पर॒शूँर॑बिभ्र॒न्वना᳚ वृ॒श्चन्तो᳚ अ॒भि वि॒ड्भिरा᳚यन् | नि सु॒द्र्व१॑(अ॒) अंदध॑तो व॒क्षणा᳚सु॒ यत्रा॒ कृपी᳚ट॒मनु॒ तद्द॑हन्ति ||{7.7.21.2}, {10.28.8}, {10.2.12.8} |
1073 | श॒शः क्षु॒रं प्र॒त्यञ्चं᳚ जगा॒राद्रिं᳚ लो॒गेन॒ व्य॑भेदमा॒रात् | बृ॒हन्तं᳚ चिदृह॒ते र᳚न्धयानि॒ वय॑द्व॒त्सो वृ॑ष॒भं शूशु॑वानः ||{7.7.21.3}, {10.28.9}, {10.2.12.9} |
1074 | सु॒प॒र्ण इ॒त्था न॒खमा सि॑षा॒याव॑रुद्धः परि॒पदं॒ न सिं॒हः | नि॒रु॒द्धश्चि᳚न्महि॒षस्त॒र्ष्यावा᳚न्गो॒धा तस्मा᳚ अ॒यथं᳚ कर्षदे॒तत् ||{7.7.21.4}, {10.28.10}, {10.2.12.10} |
1075 | तेभ्यो᳚ गो॒धा अ॒यथं᳚ कर्षदे॒तद्ये ब्र॒ह्मणः॑ प्रति॒पीय॒न्त्यन्नैः᳚ | सि॒म उ॒क्ष्णो᳚ऽवसृ॒ष्टाँ अ॑दन्ति स्व॒यं बला᳚नि त॒न्वः॑ शृणा॒नाः ||{7.7.21.5}, {10.28.11}, {10.2.12.11} |
1076 | ए॒ते शमी᳚भिः सु॒शमी᳚ अभूव॒न्ये हि᳚न्वि॒रे त॒न्व१॑(अ॒)ः सोम॑ उ॒क्थैः | नृ॒वद्वद॒न्नुप॑ नो माहि॒ वाजा᳚न्दि॒वि श्रवो᳚ दधिषे॒ नाम॑ वी॒रः ||{7.7.21.6}, {10.28.12}, {10.2.12.12} |
[100] (१-८) अष्टर्चस्य सूक्तस्यैन्द्रो वसुक्र ऋषिः | इन्द्रो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
1077 | वने॒ न वा॒ यो न्य॑धायि चा॒कञ्छुचि᳚र्वां॒ स्तोमो᳚ भुरणावजीगः | यस्येदिन्द्रः॑ पुरु॒दिने᳚षु॒ होता᳚ नृ॒णां नर्यो॒ नृत॑मः क्ष॒पावा॑न् ||{7.7.22.1}, {10.29.1}, {10.2.13.1} |
1078 | प्र ते᳚ अ॒स्या उ॒षसः॒ प्राप॑रस्या नृ॒तौ स्या᳚म॒ नृत॑मस्य नृ॒णाम् | अनु॑ त्रि॒शोकः॑ श॒तमाव॑ह॒न्नॄन्कुत्से᳚न॒ रथो॒ यो अस॑त्सस॒वान् ||{7.7.22.2}, {10.29.2}, {10.2.13.2} |
1079 | कस्ते॒ मद॑ इन्द्र॒ रन्त्यो᳚ भू॒द्दुरो॒ गिरो᳚ अ॒भ्यु१॑(उ॒)ग्रो वि धा᳚व | कद्वाहो᳚ अ॒र्वागुप॑ मा मनी॒षा आ त्वा᳚ शक्यामुप॒मं राधो॒ अन्नैः᳚ ||{7.7.22.3}, {10.29.3}, {10.2.13.3} |
1080 | कदु॑ द्यु॒म्नमि᳚न्द्र॒ त्वाव॑तो॒ नॄन्कया᳚ धि॒या क॑रसे॒ कन्न॒ आग॑न् | मि॒त्रो न स॒त्य उ॑रुगाय भृ॒त्या अन्ने᳚ समस्य॒ यदस᳚न्मनी॒षाः ||{7.7.22.4}, {10.29.4}, {10.2.13.4} |
1081 | प्रेर॑य॒ सूरो॒ अर्थं॒ न पा॒रं ये अ॑स्य॒ कामं᳚ जनि॒धा इ॑व॒ ग्मन् | गिर॑श्च॒ ये ते᳚ तुविजात पू॒र्वीर्नर॑ इन्द्र प्रति॒शिक्ष॒न्त्यन्नैः᳚ ||{7.7.22.5}, {10.29.5}, {10.2.13.5} |
1082 | मात्रे॒ नु ते॒ सुमि॑ते इन्द्र पू॒र्वी द्यौर्म॒ज्मना᳚ पृथि॒वी काव्ये᳚न | वरा᳚य ते घृ॒तव᳚न्तः सु॒तासः॒ स्वाद्म᳚न्भवन्तु पी॒तये॒ मधू᳚नि ||{7.7.23.1}, {10.29.6}, {10.2.13.6} |
1083 | आ मध्वो᳚ अस्मा असिच॒न्नम॑त्र॒मिन्द्रा᳚य पू॒र्णं स हि स॒त्यरा᳚धाः | स वा᳚वृधे॒ वरि॑म॒न्ना पृ॑थि॒व्या अ॒भि क्रत्वा॒ नर्यः॒ पौंस्यै᳚श्च ||{7.7.23.2}, {10.29.7}, {10.2.13.7} |
1084 | व्या᳚न॒ळिन्द्रः॒ पृत॑नाः॒ स्वोजा॒ आस्मै᳚ यतन्ते स॒ख्याय॑ पू॒र्वीः | आ स्मा॒ रथं॒ न पृत॑नासु तिष्ठ॒ यं भ॒द्रया᳚ सुम॒त्या चो॒दया᳚से ||{7.7.23.3}, {10.29.8}, {10.2.13.8} |
[101] (१-१५) पञ्चदशर्चस्य सूक्तस्यैलषू : कवष ऋषिः | आपोऽपां नपाद्वा देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
1085 | प्र दे᳚व॒त्रा ब्रह्म॑णे गा॒तुरे᳚त्व॒पो अच्छा॒ मन॑सो॒ न प्रयु॑क्ति | म॒हीं मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य धा॒सिं पृ॑थु॒ज्रय॑से रीरधा सुवृ॒क्तिम् ||{7.7.24.1}, {10.30.1}, {10.3.1.1} |
1086 | अध्व᳚र्यवो ह॒विष्म᳚न्तो॒ हि भू॒ताच्छा॒प इ॑तोश॒तीरु॑शन्तः | अव॒ याश्चष्टे᳚ अरु॒णः सु॑प॒र्णस्तमास्य॑ध्वमू॒र्मिम॒द्या सु॑हस्ताः ||{7.7.24.2}, {10.30.2}, {10.3.1.2} |
1087 | अध्व᳚र्यवो॒ऽप इ॑ता समु॒द्रम॒पां नपा᳚तं ह॒विषा᳚ यजध्वम् | स वो᳚ दददू॒र्मिम॒द्या सुपू᳚तं॒ तस्मै॒ सोमं॒ मधु॑मन्तं सुनोत ||{7.7.24.3}, {10.30.3}, {10.3.1.3} |
1088 | यो अ॑नि॒ध्मो दीद॑यद॒प्स्व१॑(अ॒)'न्तर्यं विप्रा᳚स॒ ईळ॑ते अध्व॒रेषु॑ | अपां᳚ नपा॒न्मधु॑मतीर॒पो दा॒ याभि॒रिन्द्रो᳚ वावृ॒धे वी॒र्या᳚य ||{7.7.24.4}, {10.30.4}, {10.3.1.4} |
1089 | याभिः॒ सोमो॒ मोद॑ते॒ हर्ष॑ते च कल्या॒णीभि᳚र्युव॒तिभि॒र्न मर्यः॑ | ता अ॑ध्वर्यो अ॒पो अच्छा॒ परे᳚हि॒ यदा᳚सि॒ञ्चा ओष॑धीभिः पुनीतात् ||{7.7.24.5}, {10.30.5}, {10.3.1.5} |
1090 | ए॒वेद्यूने᳚ युव॒तयो᳚ नमन्त॒ यदी᳚मु॒शन्नु॑श॒तीरेत्यच्छ॑ | सं जा᳚नते॒ मन॑सा॒ सं चि॑कित्रेऽध्व॒र्यवो᳚ धि॒षणाप॑श्च दे॒वीः ||{7.7.25.1}, {10.30.6}, {10.3.1.6} |
1091 | यो वो᳚ वृ॒ताभ्यो॒ अकृ॑णोदु लो॒कं यो वो᳚ म॒ह्या अ॒भिश॑स्ते॒रमु᳚ञ्चत् | तस्मा॒ इन्द्रा᳚य॒ मधु॑मन्तमू॒र्मिं दे᳚व॒माद॑नं॒ प्र हि॑णोतनापः ||{7.7.25.2}, {10.30.7}, {10.3.1.7} |
1092 | प्रास्मै᳚ हिनोत॒ मधु॑मन्तमू॒र्मिं गर्भो॒ यो वः॑ सिन्धवो॒ मध्व॒ उत्सः॑ | घृ॒तपृ॑ष्ठ॒मीड्य॑मध्व॒रेष्वापो᳚ रेवतीः शृणु॒ता हवं᳚ मे ||{7.7.25.3}, {10.30.8}, {10.3.1.8} |
1093 | तं सि᳚न्धवो मत्स॒रमि᳚न्द्र॒पान॑मू॒र्मिं प्र हे᳚त॒ य उ॒भे इय॑र्ति | म॒द॒च्युत॑मौशा॒नं न॑भो॒जां परि॑ त्रि॒तन्तुं᳚ वि॒चर᳚न्त॒मुत्स᳚म् ||{7.7.25.4}, {10.30.9}, {10.3.1.9} |
1094 | आ॒वर्वृ॑तती॒रध॒ नु द्वि॒धारा᳚ गोषु॒युधो॒ न नि॑य॒वं चर᳚न्तीः | ऋषे॒ जनि॑त्री॒र्भुव॑नस्य॒ पत्नी᳚र॒पो व᳚न्दस्व स॒वृधः॒ सयो᳚नीः ||{7.7.25.5}, {10.30.10}, {10.3.1.10} |
1095 | हि॒नोता᳚ नो अध्व॒रं दे᳚वय॒ज्या हि॒नोत॒ ब्रह्म॑ स॒नये॒ धना᳚नाम् | ऋ॒तस्य॒ योगे॒ वि ष्य॑ध्व॒मूधः॑ श्रुष्टी॒वरी᳚र्भूतना॒स्मभ्य॑मापः ||{7.7.26.1}, {10.30.11}, {10.3.1.11} |
1096 | आपो᳚ रेवतीः॒ क्षय॑था॒ हि वस्वः॒ क्रतुं᳚ च भ॒द्रं बि॑भृ॒थामृतं᳚ च | रा॒यश्च॒ स्थ स्व॑प॒त्यस्य॒ पत्नीः॒ सर॑स्वती॒ तद्गृ॑ण॒ते वयो᳚ धात् ||{7.7.26.2}, {10.30.12}, {10.3.1.12} |
1097 | प्रति॒ यदापो॒ अदृ॑श्रमाय॒तीर्घृ॒तं पयां᳚सि॒ बिभ्र॑ती॒र्मधू᳚नि | अ॒ध्व॒र्युभि॒र्मन॑सा संविदा॒ना इन्द्रा᳚य॒ सोमं॒ सुषु॑तं॒ भर᳚न्तीः ||{7.7.26.3}, {10.30.13}, {10.3.1.13} |
1098 | एमा अ॑ग्मन्रे॒वती᳚र्जी॒वध᳚न्या॒ अध्व᳚र्यवः सा॒दय॑ता सखायः | नि ब॒र्हिषि॑ धत्तन सोम्यासो॒ऽपां नप्त्रा᳚ संविदा॒नास॑ एनाः ||{7.7.26.4}, {10.30.14}, {10.3.1.14} |
1099 | आग्म॒न्नाप॑ उश॒तीर्ब॒र्हिरेदं न्य॑ध्व॒रे अ॑सदन्देव॒यन्तीः᳚ | अध्व᳚र्यवः सुनु॒तेन्द्रा᳚य॒ सोम॒मभू᳚दु वः सु॒शका᳚ देवय॒ज्या ||{7.7.26.5}, {10.30.15}, {10.3.1.15} |
[102] (१-११) एकादशर्चस्य सूक्तस्यैलष : कवष ऋषिः | विश्वे देवा देवताः | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
1100 | आ नो᳚ दे॒वाना॒मुप॑ वेतु॒ शंसो॒ विश्वे᳚भिस्तु॒रैरव॑से॒ यज॑त्रः | तेभि᳚र्व॒यं सु॑ष॒खायो᳚ भवेम॒ तर᳚न्तो॒ विश्वा᳚ दुरि॒ता स्या᳚म ||{7.7.27.1}, {10.31.1}, {10.3.2.1} |
1101 | परि॑ चि॒न्मर्तो॒ द्रवि॑णं ममन्यादृ॒तस्य॑ प॒था नम॒सा वि॑वासेत् | उ॒त स्वेन॒ क्रतु॑ना॒ सं व॑देत॒ श्रेयां᳚सं॒ दक्षं॒ मन॑सा जगृभ्यात् ||{7.7.27.2}, {10.31.2}, {10.3.2.2} |
1102 | अधा᳚यि धी॒तिरस॑सृग्र॒मंशा᳚स्ती॒र्थे न द॒स्ममुप॑ य॒न्त्यूमाः᳚ | अ॒भ्या᳚नश्म सुवि॒तस्य॑ शू॒षं नवे᳚दसो अ॒मृता᳚नामभूम ||{7.7.27.3}, {10.31.3}, {10.3.2.3} |
1103 | नित्य॑श्चाकन्या॒त्स्वप॑ति॒र्दमू᳚ना॒ यस्मा᳚ उ दे॒वः स॑वि॒ता ज॒जान॑ | भगो᳚ वा॒ गोभि॑रर्य॒मेम॑नज्या॒त्सो अ॑स्मै॒ चारु॑श्छदयदु॒त स्या᳚त् ||{7.7.27.4}, {10.31.4}, {10.3.2.4} |
1104 | इ॒यं सा भू᳚या उ॒षसा᳚मिव॒ क्षा यद्ध॑ क्षु॒मन्तः॒ शव॑सा स॒माय॑न् | अ॒स्य स्तु॒तिं ज॑रि॒तुर्भिक्ष॑माणा॒ आ नः॑ श॒ग्मास॒ उप॑ यन्तु॒ वाजाः᳚ ||{7.7.27.5}, {10.31.5}, {10.3.2.5} |
1105 | अ॒स्येदे॒षा सु॑म॒तिः प॑प्रथा॒नाभ॑वत्पू॒र्व्या भूम॑ना॒ गौः | अ॒स्य सनी᳚ळा॒ असु॑रस्य॒ योनौ᳚ समा॒न आ भर॑णे॒ बिभ्र॑माणाः ||{7.7.28.1}, {10.31.6}, {10.3.2.6} |
1106 | किं स्वि॒द्वनं॒ क उ॒ स वृ॒क्ष आ᳚स॒ यतो॒ द्यावा᳚पृथि॒वी नि॑ष्टत॒क्षुः | सं॒त॒स्था॒ने अ॒जरे᳚ इ॒तऊ᳚ती॒ अहा᳚नि पू॒र्वीरु॒षसो᳚ जरन्त ||{7.7.28.2}, {10.31.7}, {10.3.2.7} |
1107 | नैताव॑दे॒ना प॒रो अ॒न्यद॑स्त्यु॒क्षा स द्यावा᳚पृथि॒वी बि॑भर्ति | त्वचं᳚ प॒वित्रं᳚ कृणुत स्व॒धावा॒न्यदीं॒ सूर्यं॒ न ह॒रितो॒ वह᳚न्ति ||{7.7.28.3}, {10.31.8}, {10.3.2.8} |
1108 | स्ते॒गो न क्षामत्ये᳚ति पृ॒थ्वीं मिहं॒ न वातो॒ वि ह॑ वाति॒ भूम॑ | मि॒त्रो यत्र॒ वरु॑णो अ॒ज्यमा᳚नो॒ऽग्निर्वने॒ न व्यसृ॑ष्ट॒ शोक᳚म् ||{7.7.28.4}, {10.31.9}, {10.3.2.9} |
1109 | स्त॒रीर्यत्सूत॑ स॒द्यो अ॒ज्यमा᳚ना॒ व्यथि॑रव्य॒थीः कृ॑णुत॒ स्वगो᳚पा | पु॒त्रो यत्पूर्वः॑ पि॒त्रोर्जनि॑ष्ट श॒म्यां गौर्ज॑गार॒ यद्ध॑ पृ॒च्छान् ||{7.7.28.5}, {10.31.10}, {10.3.2.10} |
1110 | उ॒त कण्वं᳚ नृ॒षदः॑ पु॒त्रमा᳚हुरु॒त श्या॒वो धन॒माद॑त्त वा॒जी | प्र कृ॒ष्णाय॒ रुश॑दपिन्व॒तोध॑रृ॒तमत्र॒ नकि॑रस्मा अपीपेत् ||{7.7.28.6}, {10.31.11}, {10.3.2.11} |
[103] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्यैल) : कवष ऋषिः | इन्द्रो देवता | (१-५) प्रथमादिपञ्चर्चाम् जगती, (६-९) षष्ठ्यादिचतसृणाञ्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
1111 | प्र सु ग्मन्ता᳚ धियसा॒नस्य॑ स॒क्षणि॑ व॒रेभि᳚र्व॒राँ अ॒भि षु प्र॒सीद॑तः | अ॒स्माक॒मिन्द्र॑ उ॒भयं᳚ जुजोषति॒ यत्सो॒म्यस्यान्ध॑सो॒ बुबो᳚धति ||{7.7.29.1}, {10.32.1}, {10.3.3.1} |
1112 | वी᳚न्द्र यासि दि॒व्यानि॑ रोच॒ना वि पार्थि॑वानि॒ रज॑सा पुरुष्टुत | ये त्वा॒ वह᳚न्ति॒ मुहु॑रध्व॒राँ उप॒ ते सु व᳚न्वन्तु वग्व॒नाँ अ॑रा॒धसः॑ ||{7.7.29.2}, {10.32.2}, {10.3.3.2} |
1113 | तदिन्मे᳚ छन्त्स॒द्वपु॑षो॒ वपु॑ष्टरं पु॒त्रो यज्जानं᳚ पि॒त्रोर॒धीय॑ति | जा॒या पतिं᳚ वहति व॒ग्नुना᳚ सु॒मत्पुं॒स इद्भ॒द्रो व॑ह॒तुः परि॑ष्कृतः ||{7.7.29.3}, {10.32.3}, {10.3.3.3} |
1114 | तदित्स॒धस्थ॑म॒भि चारु॑ दीधय॒ गावो॒ यच्छास᳚न्वह॒तुं न धे॒नवः॑ | मा॒ता यन्मन्तु᳚र्यू॒थस्य॑ पू॒र्व्याभि वा॒णस्य॑ स॒प्तधा᳚तु॒रिज्जनः॑ ||{7.7.29.4}, {10.32.4}, {10.3.3.4} |
1115 | प्र वोऽच्छा᳚ रिरिचे देव॒युष्प॒दमेको᳚ रु॒द्रेभि᳚र्याति तु॒र्वणिः॑ | ज॒रा वा॒ येष्व॒मृते᳚षु दा॒वने॒ परि॑ व॒ ऊमे᳚भ्यः सिञ्चता॒ मधु॑ ||{7.7.29.5}, {10.32.5}, {10.3.3.5} |
1116 | नि॒धी॒यमा᳚न॒मप॑गूळ्हम॒प्सु प्र मे᳚ दे॒वानां᳚ व्रत॒पा उ॑वाच | इन्द्रो᳚ वि॒द्वाँ अनु॒ हि त्वा᳚ च॒चक्ष॒ तेना॒हम॑ग्ने॒ अनु॑शिष्ट॒ आगा᳚म् ||{7.7.30.1}, {10.32.6}, {10.3.3.6} |
1117 | अक्षे᳚त्रवित्क्षेत्र॒विदं॒ ह्यप्रा॒ट् स प्रैति॑ क्षेत्र॒विदानु॑शिष्टः | ए॒तद्वै भ॒द्रम॑नु॒शास॑नस्यो॒त स्रु॒तिं वि᳚न्दत्यञ्ज॒सीना᳚म् ||{7.7.30.2}, {10.32.7}, {10.3.3.7} |
1118 | अ॒द्येदु॒ प्राणी॒दम॑मन्नि॒माहापी᳚वृतो अधयन्मा॒तुरूधः॑ | एमे᳚नमाप जरि॒मा युवा᳚न॒महे᳚ळ॒न्वसुः॑ सु॒मना᳚ बभूव ||{7.7.30.3}, {10.32.8}, {10.3.3.8} |
1119 | ए॒तानि॑ भ॒द्रा क॑लश क्रियाम॒ कुरु॑श्रवण॒ दद॑तो म॒घानि॑ | दा॒न इद्वो᳚ मघवानः॒ सो अ॑स्त्व॒यं च॒ सोमो᳚ हृ॒दि यं बिभ᳚र्मि ||{7.7.30.4}, {10.32.9}, {10.3.3.9} |
[104] (१-९) नवर्चस्य सूक्तस्यैल) : कवष ऋषिः | (१) प्रथम] विश्वे देवाः, (२-३) द्वितीयातृतीययोरिन्द्रः, (४-५) चतुर्थीपञ्चम्योस्त्रासदस्यवस्य कुरुश्रवणस्य दानस्तुतिः, (६-९) षष्ठ्यादिचतसृणाञ्च मैत्रातिथिरुपमश्रवा देवताः | (१) प्रथमर्चस्त्रिष्टुप, (२-३) द्वितीयातृतीययोः प्रगाथः (द्वितीयाया बृहती, तृतीयायाः सतोबृहती), (४-९) चतुर्थ्यादितृचद्वयस्य च गायत्री छन्दांसि || | |
1120 | प्र मा᳚ युयुज्रे प्र॒युजो॒ जना᳚नां॒ वहा᳚मि स्म पू॒षण॒मन्त॑रेण | विश्वे᳚ दे॒वासो॒ अध॒ माम॑रक्षन्दुः॒शासु॒रागा॒दिति॒ घोष॑ आसीत् ||{7.8.1.1}, {10.33.1}, {10.3.4.1} |
1121 | सं मा᳚ तपन्त्य॒भितः॑ स॒पत्नी᳚रिव॒ पर्श॑वः | नि बा᳚धते॒ अम॑तिर्न॒ग्नता॒ जसु॒र्वेर्न वे᳚वीयते म॒तिः ||{7.8.1.2}, {10.33.2}, {10.3.4.2} |
1122 | मूषो॒ न शि॒श्ना व्य॑दन्ति मा॒ध्यः॑ स्तो॒तारं᳚ ते शतक्रतो | स॒कृत्सु नो᳚ मघवन्निन्द्र मृळ॒याधा᳚ पि॒तेव॑ नो भव ||{7.8.1.3}, {10.33.3}, {10.3.4.3} |
1123 | कु॒रु॒श्रव॑णमावृणि॒ राजा᳚नं॒ त्रास॑दस्यवम् | मंहि॑ष्ठं वा॒घता॒मृषिः॑ ||{7.8.1.4}, {10.33.4}, {10.3.4.4} |
1124 | यस्य॑ मा ह॒रितो॒ रथे᳚ ति॒स्रो वह᳚न्ति साधु॒या | स्तवै᳚ स॒हस्र॑दक्षिणे ||{7.8.1.5}, {10.33.5}, {10.3.4.5} |
1125 | यस्य॒ प्रस्वा᳚दसो॒ गिर॑ उप॒मश्र॑वसः पि॒तुः | क्षेत्रं॒ न र॒ण्वमू॒चुषे᳚ ||{7.8.2.1}, {10.33.6}, {10.3.4.6} |
1126 | अधि॑ पुत्रोपमश्रवो॒ नपा᳚न्मित्रातिथेरिहि | पि॒तुष्टे᳚ अस्मि वन्दि॒ता ||{7.8.2.2}, {10.33.7}, {10.3.4.7} |
1127 | यदीशी᳚या॒मृता᳚नामु॒त वा॒ मर्त्या᳚नाम् | जीवे॒दिन्म॒घवा॒ मम॑ ||{7.8.2.3}, {10.33.8}, {10.3.4.8} |
1128 | न दे॒वाना॒मति᳚ व्र॒तं श॒तात्मा᳚ च॒न जी᳚वति | तथा᳚ यु॒जा वि वा᳚वृते ||{7.8.2.4}, {10.33.9}, {10.3.4.9} |
[105] (१-१४) चतुर्दशर्चस्य सूक्तस्यैलषू : कवषो मौजवानक्षो वा ऋषिः | (१, ७, ९, १२) प्रथमासप्तमीनवमीद्वादशीनामृचामक्षाः, (२-६, ८, १०-११, १४) द्वितीयादिपञ्चानामष्टमीदशम्येकादशीचतुर्दशीनाञ्चाक्षकितवनिन्दा, (१३) त्रयोदश्याश्च कृषिदेवताः | (१-६, ८-१४) प्रथमादिषडचामष्टम्यादिसप्तानाञ्च त्रिष्टुप्, (७) सप्तम्याश्च जगती छन्दसी || | |
1129 | प्रा॒वे॒पा मा᳚ बृह॒तो मा᳚दयन्ति प्रवाते॒जा इरि॑णे॒ वर्वृ॑तानाः | सोम॑स्येव मौजव॒तस्य॑ भ॒क्षो वि॒भीद॑को॒ जागृ॑वि॒र्मह्य॑मच्छान् ||{7.8.3.1}, {10.34.1}, {10.3.5.1} |
1130 | न मा᳚ मिमेथ॒ न जि॑हीळ ए॒षा शि॒वा सखि॑भ्य उ॒त मह्य॑मासीत् | अ॒क्षस्या॒हमे᳚कप॒रस्य॑ हे॒तोरनु᳚व्रता॒मप॑ जा॒याम॑रोधम् ||{7.8.3.2}, {10.34.2}, {10.3.5.2} |
1131 | द्वेष्टि॑ श्व॒श्रूरप॑ जा॒या रु॑णद्धि॒ न ना᳚थि॒तो वि᳚न्दते मर्डि॒तार᳚म् | अश्व॑स्येव॒ जर॑तो॒ वस्न्य॑स्य॒ नाहं वि᳚न्दामि कित॒वस्य॒ भोग᳚म् ||{7.8.3.3}, {10.34.3}, {10.3.5.3} |
1132 | अ॒न्ये जा॒यां परि॑ मृशन्त्यस्य॒ यस्यागृ॑ध॒द्वेद॑ने वा॒ज्य१॑(अ॒)क्षः | पि॒ता मा॒ता भ्रात॑र एनमाहु॒र्न जा᳚नीमो॒ नय॑ता ब॒द्धमे॒तम् ||{7.8.3.4}, {10.34.4}, {10.3.5.4} |
1133 | यदा॒दीध्ये॒ न द॑विषाण्येभिः परा॒यद्भ्योऽव॑ हीये॒ सखि॑भ्यः | न्यु॑प्ताश्च ब॒भ्रवो॒ वाच॒मक्र॑तँ॒ एमीदे᳚षां निष्कृ॒तं जा॒रिणी᳚व ||{7.8.3.5}, {10.34.5}, {10.3.5.5} |
1134 | स॒भामे᳚ति कित॒वः पृ॒च्छमा᳚नो जे॒ष्यामीति॑ त॒न्वा॒३॑(आ॒) शूशु॑जानः | अ॒क्षासो᳚ अस्य॒ वि ति॑रन्ति॒ कामं᳚ प्रति॒दीव्ने॒ दध॑त॒ आ कृ॒तानि॑ ||{7.8.4.1}, {10.34.6}, {10.3.5.6} |
1135 | अ॒क्षास॒ इद᳚ङ्कु॒शिनो᳚ नितो॒दिनो᳚ नि॒कृत्वा᳚न॒स्तप॑नास्तापयि॒ष्णवः॑ | कु॒मा॒रदे᳚ष्णा॒ जय॑तः पुन॒र्हणो॒ मध्वा॒ सम्पृ॑क्ताः कित॒वस्य॑ ब॒र्हणा᳚ ||{7.8.4.2}, {10.34.7}, {10.3.5.7} |
1136 | त्रि॒प॒ञ्चा॒शः क्री᳚ळति॒ व्रात॑ एषां दे॒व इ॑व सवि॒ता स॒त्यध᳚र्मा | उ॒ग्रस्य॑ चिन्म॒न्यवे॒ ना न॑मन्ते॒ राजा᳚ चिदेभ्यो॒ नम॒ इत्कृ॑णोति ||{7.8.4.3}, {10.34.8}, {10.3.5.8} |
1137 | नी॒चा व॑र्तन्त उ॒परि॑ स्फुरन्त्यह॒स्तासो॒ हस्त॑वन्तं सहन्ते | दि॒व्या अङ्गा᳚रा॒ इरि॑णे॒ न्यु॑प्ताः शी॒ताः सन्तो॒ हृद॑यं॒ निर्द॑हन्ति ||{7.8.4.4}, {10.34.9}, {10.3.5.9} |
1138 | जा॒या त॑प्यते कित॒वस्य॑ ही॒ना मा॒ता पु॒त्रस्य॒ चर॑तः॒ क्व॑ स्वित् | ऋ॒णा॒वा बिभ्य॒द्धन॑मि॒च्छमा᳚नो॒ऽन्येषा॒मस्त॒मुप॒ नक्त॑मेति ||{7.8.4.5}, {10.34.10}, {10.3.5.10} |
1139 | स्त्रियं᳚ दृ॒ष्ट्वाय॑ कित॒वं त॑तापा॒न्येषां᳚ जा॒यां सुकृ॑तं च॒ योनि᳚म् | पू॒र्वा॒ह्णे अश्वा᳚न्युयु॒जे हि ब॒भ्रून्सो अ॒ग्नेरन्ते᳚ वृष॒लः प॑पाद ||{7.8.5.1}, {10.34.11}, {10.3.5.11} |
1140 | यो वः॑ सेना॒नीर्म॑ह॒तो ग॒णस्य॒ राजा॒ व्रात॑स्य प्रथ॒मो ब॒भूव॑ | तस्मै᳚ कृणोमि॒ न धना᳚ रुणध्मि॒ दशा॒हं प्राची॒स्तदृ॒तं व॑दामि ||{7.8.5.2}, {10.34.12}, {10.3.5.12} |
1141 | अ॒क्षैर्मा दी᳚व्यः कृ॒षिमित्कृ॑षस्व वि॒त्ते र॑मस्व ब॒हु मन्य॑मानः | तत्र॒ गावः॑ कितव॒ तत्र॑ जा॒या तन्मे॒ वि च॑ष्टे सवि॒तायम॒र्यः ||{7.8.5.3}, {10.34.13}, {10.3.5.13} |
1142 | मि॒त्रं कृ॑णुध्वं॒ खलु॑ मृ॒ळता᳚ नो॒ मा नो᳚ घो॒रेण॑ चरता॒भि धृ॒ष्णु | नि वो॒ नु म॒न्युर्वि॑शता॒मरा᳚तिर॒न्यो ब॑भ्रू॒णां प्रसि॑तौ॒ न्व॑स्तु ||{7.8.5.4}, {10.34.14}, {10.3.5.14} |
[106] (१-१४) चतुर्दशर्चस्य सूक्तस्य धानाको लुश ऋषिः | विश्वे देवा देवताः | (१-१२) प्रथमादिद्वादश! जगती, (१३-१४) त्रयोदशीचतुर्दश्योश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
1143 | अबु॑ध्रमु॒ त्य इन्द्र॑वन्तो अ॒ग्नयो॒ ज्योति॒र्भर᳚न्त उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टिषु | म॒ही द्यावा᳚पृथि॒वी चे᳚तता॒मपो॒ऽद्या दे॒वाना॒मव॒ आ वृ॑णीमहे ||{7.8.6.1}, {10.35.1}, {10.3.6.1} |
1144 | दि॒वस्पृ॑थि॒व्योरव॒ आ वृ॑णीमहे मा॒तॄन्सिन्धू॒न्पर्व॑ताञ्छर्य॒णाव॑तः | अ॒ना॒गा॒स्त्वं सूर्य॑मु॒षास॑मीमहे भ॒द्रं सोमः॑ सुवा॒नो अ॒द्या कृ॑णोतु नः ||{7.8.6.2}, {10.35.2}, {10.3.6.2} |
1145 | द्यावा᳚ नो अ॒द्य पृ॑थि॒वी अना᳚गसो म॒ही त्रा᳚येतां सुवि॒ताय॑ मा॒तरा᳚ | उ॒षा उ॒च्छन्त्यप॑ बाधताम॒घं स्व॒स्त्य१॑(अ॒)ग्निं स॑मिधा॒नमी᳚महे ||{7.8.6.3}, {10.35.3}, {10.3.6.3} |
1146 | इ॒यं न॑ उ॒स्रा प्र॑थ॒मा सु॑दे॒व्यं᳚ रे॒वत्स॒निभ्यो᳚ रे॒वती॒ व्यु॑च्छतु | आ॒रे म॒न्युं दु᳚र्वि॒दत्र॑स्य धीमहि स्व॒स्त्य१॑(अ॒)ग्निं स॑मिधा॒नमी᳚महे ||{7.8.6.4}, {10.35.4}, {10.3.6.4} |
1147 | प्र याः सिस्र॑ते॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिभि॒र्ज्योति॒र्भर᳚न्तीरु॒षसो॒ व्यु॑ष्टिषु | भ॒द्रा नो᳚ अ॒द्य श्रव॑से॒ व्यु॑च्छत स्व॒स्त्य१॑(अ॒)ग्निं स॑मिधा॒नमी᳚महे ||{7.8.6.5}, {10.35.5}, {10.3.6.5} |
1148 | अ॒न॒मी॒वा उ॒षस॒ आ च॑रन्तु न॒ उद॒ग्नयो᳚ जिहतां॒ ज्योति॑षा बृ॒हत् | आयु॑क्षाताम॒श्विना॒ तूतु॑जिं॒ रथं᳚ स्व॒स्त्य१॑(अ॒)ग्निं स॑मिधा॒नमी᳚महे ||{7.8.7.1}, {10.35.6}, {10.3.6.6} |
1149 | श्रेष्ठं᳚ नो अ॒द्य स॑वित॒र्वरे᳚ण्यं भा॒गमा सु॑व॒ स हि र॑त्न॒धा असि॑ | रा॒यो जनि॑त्रीं धि॒षणा॒मुप॑ ब्रुवे स्व॒स्त्य१॑(अ॒)ग्निं स॑मिधा॒नमी᳚महे ||{7.8.7.2}, {10.35.7}, {10.3.6.7} |
1150 | पिप॑र्तु मा॒ तदृ॒तस्य॑ प्र॒वाच॑नं दे॒वानां॒ यन्म॑नु॒ष्या॒३॑(आ॒) अम᳚न्महि | विश्वा॒ इदु॒स्राः स्पळुदे᳚ति॒ सूर्यः॑ स्व॒स्त्य१॑(अ॒)ग्निं स॑मिधा॒नमी᳚महे ||{7.8.7.3}, {10.35.8}, {10.3.6.8} |
1151 | अ॒द्वे॒षो अ॒द्य ब॒र्हिषः॒ स्तरी᳚मणि॒ ग्राव्णां॒ योगे॒ मन्म॑नः॒ साध॑ ईमहे | आ॒दि॒त्यानां॒ शर्म॑णि॒ स्था भु॑रण्यसि स्व॒स्त्य१॑(अ॒)ग्निं स॑मिधा॒नमी᳚महे ||{7.8.7.4}, {10.35.9}, {10.3.6.9} |
1152 | आ नो᳚ ब॒र्हिः स॑ध॒मादे᳚ बृ॒हद्दि॒वि दे॒वाँ ई᳚ळे सा॒दया᳚ स॒प्त होतॄ॑न् | इन्द्रं᳚ मि॒त्रं वरु॑णं सा॒तये॒ भगं᳚ स्व॒स्त्य१॑(अ॒)ग्निं स॑मिधा॒नमी᳚महे ||{7.8.7.5}, {10.35.10}, {10.3.6.10} |
1153 | त आ᳚दित्या॒ आ ग॑ता स॒र्वता᳚तये वृ॒धे नो᳚ य॒ज्ञम॑वता सजोषसः | बृह॒स्पतिं᳚ पू॒षण॑म॒श्विना॒ भगं᳚ स्व॒स्त्य१॑(अ॒)ग्निं स॑मिधा॒नमी᳚महे ||{7.8.8.1}, {10.35.11}, {10.3.6.11} |
1154 | तन्नो᳚ देवा यच्छत सुप्रवाच॒नं छ॒र्दिरा᳚दित्याः सु॒भरं᳚ नृ॒पाय्य᳚म् | पश्वे᳚ तो॒काय॒ तन॑याय जी॒वसे᳚ स्व॒स्त्य१॑(अ॒)ग्निं स॑मिधा॒नमी᳚महे ||{7.8.8.2}, {10.35.12}, {10.3.6.12} |
1155 | विश्वे᳚ अ॒द्य म॒रुतो॒ विश्व॑ ऊ॒ती विश्वे᳚ भवन्त्व॒ग्नयः॒ समि॑द्धाः | विश्वे᳚ नो दे॒वा अव॒सा ग॑मन्तु॒ विश्व॑मस्तु॒ द्रवि॑णं॒ वाजो᳚ अ॒स्मे ||{7.8.8.3}, {10.35.13}, {10.3.6.13} |
1156 | यं दे᳚वा॒सोऽव॑थ॒ वाज॑सातौ॒ यं त्राय॑ध्वे॒ यं पि॑पृ॒थात्यंहः॑ | यो वो᳚ गोपी॒थे न भ॒यस्य॒ वेद॒ ते स्या᳚म दे॒ववी᳚तये तुरासः ||{7.8.8.4}, {10.35.14}, {10.3.6.14} |
[107] (१-१४) चतुर्दशर्चस्य सूक्तस्य धानाको लुश ऋषिः | विश्वे देवा देवताः | (१-१२) प्रथमादिद्वादशर्चाम् जगती, (१३-१४) त्रयोदशीचतुर्दश्योश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
1157 | उ॒षासा॒नक्ता᳚ बृह॒ती सु॒पेश॑सा॒ द्यावा॒क्षामा॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ᳚र्य॒मा | इन्द्रं᳚ हुवे म॒रुतः॒ पर्व॑ताँ अ॒प आ᳚दि॒त्यान्द्यावा᳚पृथि॒वी अ॒पः स्वः॑ ||{7.8.9.1}, {10.36.1}, {10.3.7.1} |
1158 | द्यौश्च॑ नः पृथि॒वी च॒ प्रचे᳚तस ऋ॒ताव॑री रक्षता॒मंह॑सो रि॒षः | मा दु᳚र्वि॒दत्रा॒ निरृ॑तिर्न ईशत॒ तद्दे॒वाना॒मवो᳚ अ॒द्या वृ॑णीमहे ||{7.8.9.2}, {10.36.2}, {10.3.7.2} |
1159 | विश्व॑स्मान्नो॒ अदि॑तिः पा॒त्वंह॑सो मा॒ता मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य रे॒वतः॑ | स्व᳚र्व॒ज्ज्योति॑रवृ॒कं न॑शीमहि॒ तद्दे॒वाना॒मवो᳚ अ॒द्या वृ॑णीमहे ||{7.8.9.3}, {10.36.3}, {10.3.7.3} |
1160 | ग्रावा॒ वद॒न्नप॒ रक्षां᳚सि सेधतु दु॒ष्ष्वप्न्यं॒ निरृ॑तिं॒ विश्व॑म॒त्रिण᳚म् | आ॒दि॒त्यं शर्म॑ म॒रुता᳚मशीमहि॒ तद्दे॒वाना॒मवो᳚ अ॒द्या वृ॑णीमहे ||{7.8.9.4}, {10.36.4}, {10.3.7.4} |
1161 | एन्द्रो᳚ ब॒र्हिः सीद॑तु॒ पिन्व॑ता॒मिळा॒ बृह॒स्पतिः॒ साम॑भिरृ॒क्वो अ॑र्चतु | सु॒प्र॒के॒तं जी॒वसे॒ मन्म॑ धीमहि॒ तद्दे॒वाना॒मवो᳚ अ॒द्या वृ॑णीमहे ||{7.8.9.5}, {10.36.5}, {10.3.7.5} |
1162 | दि॒वि॒स्पृशं᳚ य॒ज्ञम॒स्माक॑मश्विना जी॒राध्व॑रं कृणुतं सु॒म्नमि॒ष्टये᳚ | प्रा॒चीन॑रश्मि॒माहु॑तं घृ॒तेन॒ तद्दे॒वाना॒मवो᳚ अ॒द्या वृ॑णीमहे ||{7.8.10.1}, {10.36.6}, {10.3.7.6} |
1163 | उप॑ ह्वये सु॒हवं॒ मारु॑तं ग॒णं पा᳚व॒कमृ॒ष्वं स॒ख्याय॑ श॒म्भुव᳚म् | रा॒यस्पोषं᳚ सौश्रव॒साय॑ धीमहि॒ तद्दे॒वाना॒मवो᳚ अ॒द्या वृ॑णीमहे ||{7.8.10.2}, {10.36.7}, {10.3.7.7} |
1164 | अ॒पां पेरुं᳚ जी॒वध᳚न्यं भरामहे देवा॒व्यं᳚ सु॒हव॑मध्वर॒श्रिय᳚म् | सु॒र॒श्मिं सोम॑मिन्द्रि॒यं य॑मीमहि॒ तद्दे॒वाना॒मवो᳚ अ॒द्या वृ॑णीमहे ||{7.8.10.3}, {10.36.8}, {10.3.7.8} |
1165 | स॒नेम॒ तत्सु॑स॒निता᳚ स॒नित्व॑भिर्व॒यं जी॒वा जी॒वपु॑त्रा॒ अना᳚गसः | ब्र॒ह्म॒द्विषो॒ विष्व॒गेनो᳚ भरेरत॒ तद्दे॒वाना॒मवो᳚ अ॒द्या वृ॑णीमहे ||{7.8.10.4}, {10.36.9}, {10.3.7.9} |
1166 | ये स्था मनो᳚र्य॒ज्ञिया॒स्ते शृ॑णोतन॒ यद्वो᳚ देवा॒ ईम॑हे॒ तद्द॑दातन | जैत्रं॒ क्रतुं᳚ रयि॒मद्वी॒रव॒द्यश॒स्तद्दे॒वाना॒मवो᳚ अ॒द्या वृ॑णीमहे ||{7.8.10.5}, {10.36.10}, {10.3.7.10} |
1167 | म॒हद॒द्य म॑ह॒तामा वृ॑णीम॒हेऽवो᳚ दे॒वानां᳚ बृह॒ताम॑न॒र्वणा᳚म् | यथा॒ वसु॑ वी॒रजा᳚तं॒ नशा᳚महै॒ तद्दे॒वाना॒मवो᳚ अ॒द्या वृ॑णीमहे ||{7.8.11.1}, {10.36.11}, {10.3.7.11} |
1168 | म॒हो अ॒ग्नेः स॑मिधा॒नस्य॒ शर्म॒ण्यना᳚गा मि॒त्रे वरु॑णे स्व॒स्तये᳚ | श्रेष्ठे᳚ स्याम सवि॒तुः सवी᳚मनि॒ तद्दे॒वाना॒मवो᳚ अ॒द्या वृ॑णीमहे ||{7.8.11.2}, {10.36.12}, {10.3.7.12} |
1169 | ये स॑वि॒तुः स॒त्यस॑वस्य॒ विश्वे᳚ मि॒त्रस्य᳚ व्र॒ते वरु॑णस्य दे॒वाः | ते सौभ॑गं वी॒रव॒द्गोम॒दप्नो॒ दधा᳚तन॒ द्रवि॑णं चि॒त्रम॒स्मे ||{7.8.11.3}, {10.36.13}, {10.3.7.13} |
1170 | स॒वि॒ता प॒श्चाता᳚त्सवि॒ता पु॒रस्ता᳚त्सवि॒तोत्त॒रात्ता᳚त्सवि॒ताध॒रात्ता᳚त् | स॒वि॒ता नः॑ सुवतु स॒र्वता᳚तिं सवि॒ता नो᳚ रासतां दी॒र्घमायुः॑ ||{7.8.11.4}, {10.36.14}, {10.3.7.14} |
[108] (१-१२) द्वादशर्चस्य सूक्तस्य सौर्योऽभितपा ऋषिः | सूर्यो देवता | (१-९, ११-१२) प्रथमादिनवर्चामक दशीद्वादश्योश्च जगती, (१०) दशम्याश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
1171 | नमो᳚ मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ चक्ष॑से म॒हो दे॒वाय॒ तदृ॒तं स॑पर्यत | दू॒रे॒दृशे᳚ दे॒वजा᳚ताय के॒तवे᳚ दि॒वस्पु॒त्राय॒ सूर्या᳚य शंसत ||{7.8.12.1}, {10.37.1}, {10.3.8.1} |
1172 | सा मा᳚ स॒त्योक्तिः॒ परि॑ पातु वि॒श्वतो॒ द्यावा᳚ च॒ यत्र॑ त॒तन॒न्नहा᳚नि च | विश्व॑म॒न्यन्नि वि॑शते॒ यदेज॑ति वि॒श्वाहापो᳚ वि॒श्वाहोदे᳚ति॒ सूर्यः॑ ||{7.8.12.2}, {10.37.2}, {10.3.8.2} |
1173 | न ते॒ अदे᳚वः प्र॒दिवो॒ नि वा᳚सते॒ यदे᳚त॒शेभिः॑ पत॒रै र॑थ॒र्यसि॑ | प्रा॒चीन॑म॒न्यदनु॑ वर्तते॒ रज॒ उद॒न्येन॒ ज्योति॑षा यासि सूर्य ||{7.8.12.3}, {10.37.3}, {10.3.8.3} |
1174 | येन॑ सूर्य॒ ज्योति॑षा॒ बाध॑से॒ तमो॒ जग॑च्च॒ विश्व॑मुदि॒यर्षि॑ भा॒नुना᳚ | तेना॒स्मद्विश्वा॒मनि॑रा॒मना᳚हुति॒मपामी᳚वा॒मप॑ दु॒ष्ष्वप्न्यं᳚ सुव ||{7.8.12.4}, {10.37.4}, {10.3.8.4} |
1175 | विश्व॑स्य॒ हि प्रेषि॑तो॒ रक्ष॑सि व्र॒तमहे᳚ळयन्नु॒च्चर॑सि स्व॒धा अनु॑ | यद॒द्य त्वा᳚ सूर्योप॒ब्रवा᳚महै॒ तं नो᳚ दे॒वा अनु॑ मंसीरत॒ क्रतु᳚म् ||{7.8.12.5}, {10.37.5}, {10.3.8.5} |
1176 | तं नो॒ द्यावा᳚पृथि॒वी तन्न॒ आप॒ इन्द्रः॑ शृण्वन्तु म॒रुतो॒ हवं॒ वचः॑ | मा शूने᳚ भूम॒ सूर्य॑स्य सं॒दृशि॑ भ॒द्रं जीव᳚न्तो जर॒णाम॑शीमहि ||{7.8.12.6}, {10.37.6}, {10.3.8.6} |
1177 | वि॒श्वाहा᳚ त्वा सु॒मन॑सः सु॒चक्ष॑सः प्र॒जाव᳚न्तो अनमी॒वा अना᳚गसः | उ॒द्यन्तं᳚ त्वा मित्रमहो दि॒वेदि॑वे॒ ज्योग्जी॒वाः प्रति॑ पश्येम सूर्य ||{7.8.13.1}, {10.37.7}, {10.3.8.7} |
1178 | महि॒ ज्योति॒र्बिभ्र॑तं त्वा विचक्षण॒ भास्व᳚न्तं॒ चक्षु॑षेचक्षुषे॒ मयः॑ | आ॒रोह᳚न्तं बृह॒तः पाज॑स॒स्परि॑ व॒यं जी॒वाः प्रति॑ पश्येम सूर्य ||{7.8.13.2}, {10.37.8}, {10.3.8.8} |
1179 | यस्य॑ ते॒ विश्वा॒ भुव॑नानि के॒तुना॒ प्र चेर॑ते॒ नि च॑ वि॒शन्ते᳚ अ॒क्तुभिः॑ | अ॒ना॒गा॒स्त्वेन॑ हरिकेश सू॒र्याह्ना᳚ह्ना नो॒ वस्य॑सावस्य॒सोदि॑हि ||{7.8.13.3}, {10.37.9}, {10.3.8.9} |
1180 | शं नो᳚ भव॒ चक्ष॑सा॒ शं नो॒ अह्ना॒ शं भा॒नुना॒ शं हि॒मा शं घृ॒णेन॑ | यथा॒ शमध्व॒ञ्छमस॑द्दुरो॒णे तत्सू᳚र्य॒ द्रवि॑णं धेहि चि॒त्रम् ||{7.8.13.4}, {10.37.10}, {10.3.8.10} |
1181 | अ॒स्माकं᳚ देवा उ॒भया᳚य॒ जन्म॑ने॒ शर्म॑ यच्छत द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे | अ॒दत्पिब॑दू॒र्जय॑मान॒माशि॑तं॒ तद॒स्मे शं योर॑र॒पो द॑धातन ||{7.8.13.5}, {10.37.11}, {10.3.8.11} |
1182 | यद्वो᳚ देवाश्चकृ॒म जि॒ह्वया᳚ गु॒रु मन॑सो वा॒ प्रयु॑ती देव॒हेळ॑नम् | अरा᳚वा॒ यो नो᳚ अ॒भि दु॑च्छुना॒यते॒ तस्मि॒न्तदेनो᳚ वसवो॒ नि धे᳚तन ||{7.8.13.6}, {10.37.12}, {10.3.8.12} |
[109] (१-५) पञ्चर्चस्य सूक्तस्य मुष्कवानिन्द्र ऋषिः | इन्द्रो देवता | जगती छन्दः || | |
1183 | अ॒स्मिन्न॑ इन्द्र पृत्सु॒तौ यश॑स्वति॒ शिमी᳚वति॒ क्रन्द॑सि॒ प्राव॑ सा॒तये᳚ | यत्र॒ गोषा᳚ता धृषि॒तेषु॑ खा॒दिषु॒ विष्व॒क्पत᳚न्ति दि॒द्यवो᳚ नृ॒षाह्ये᳚ ||{7.8.14.1}, {10.38.1}, {10.3.9.1} |
1184 | स नः॑ क्षु॒मन्तं॒ सद॑ने॒ व्यू᳚र्णुहि॒ गोअ᳚र्णसं र॒यिमि᳚न्द्र श्र॒वाय्य᳚म् | स्याम॑ ते॒ जय॑तः शक्र मे॒दिनो॒ यथा᳚ व॒यमु॒श्मसि॒ तद्व॑सो कृधि ||{7.8.14.2}, {10.38.2}, {10.3.9.2} |
1185 | यो नो॒ दास॒ आर्यो᳚ वा पुरुष्टु॒तादे᳚व इन्द्र यु॒धये॒ चिके᳚तति | अ॒स्माभि॑ष्टे सु॒षहाः᳚ सन्तु॒ शत्र॑व॒स्त्वया᳚ व॒यं तान्व॑नुयाम संग॒मे ||{7.8.14.3}, {10.38.3}, {10.3.9.3} |
1186 | यो द॒भ्रेभि॒र्हव्यो॒ यश्च॒ भूरि॑भि॒र्यो अ॒भीके᳚ वरिवो॒विन्नृ॒षाह्ये᳚ | तं वि॑खा॒दे सस्नि॑म॒द्य श्रु॒तं नर॑म॒र्वाञ्च॒मिन्द्र॒मव॑से करामहे ||{7.8.14.4}, {10.38.4}, {10.3.9.4} |
1187 | स्व॒वृजं॒ हि त्वाम॒हमि᳚न्द्र शु॒श्रवा᳚नानु॒दं वृ॑षभ रध्र॒चोद॑नम् | प्र मु᳚ञ्चस्व॒ परि॒ कुत्सा᳚दि॒हा ग॑हि॒ किमु॒ त्वावा᳚न्मु॒ष्कयो᳚र्ब॒द्ध आ᳚सते ||{7.8.14.5}, {10.38.5}, {10.3.9.5} |
[110] (१-१४) चतुर्दशर्चस्य सूक्तस्य काक्षीवती घोषा (ऋषिका) अश्विनौ देवते | (१-१३) प्रथमादित्रयोदशों जगती, (१४) चतुर्दर्श्याश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
1188 | यो वां॒ परि॑ज्मा सु॒वृद॑श्विना॒ रथो᳚ दो॒षामु॒षासो॒ हव्यो᳚ ह॒विष्म॑ता | श॒श्व॒त्त॒मास॒स्तमु॑ वामि॒दं व॒यं पि॒तुर्न नाम॑ सु॒हवं᳚ हवामहे ||{7.8.15.1}, {10.39.1}, {10.3.10.1} |
1189 | चो॒दय॑तं सू॒नृताः॒ पिन्व॑तं॒ धिय॒ उत्पुरं᳚धीरीरयतं॒ तदु॑श्मसि | य॒शसं᳚ भा॒गं कृ॑णुतं नो अश्विना॒ सोमं॒ न चारुं᳚ म॒घव॑त्सु नस्कृतम् ||{7.8.15.2}, {10.39.2}, {10.3.10.2} |
1190 | अ॒मा॒जुर॑श्चिद्भवथो यु॒वं भगो᳚ऽना॒शोश्चि॑दवि॒तारा᳚प॒मस्य॑ चित् | अ॒न्धस्य॑ चिन्नासत्या कृ॒शस्य॑ चिद्यु॒वामिदा᳚हुर्भि॒षजा᳚ रु॒तस्य॑ चित् ||{7.8.15.3}, {10.39.3}, {10.3.10.3} |
1191 | यु॒वं च्यवा᳚नं स॒नयं॒ यथा॒ रथं॒ पुन॒र्युवा᳚नं च॒रथा᳚य तक्षथुः | निष्टौ॒ग्र्यमू᳚हथुर॒द्भ्यस्परि॒ विश्वेत्ता वां॒ सव॑नेषु प्र॒वाच्या᳚ ||{7.8.15.4}, {10.39.4}, {10.3.10.4} |
1192 | पु॒रा॒णा वां᳚ वी॒र्या॒३॑(आ॒) प्र ब्र॑वा॒ जनेऽथो᳚ हासथुर्भि॒षजा᳚ मयो॒भुवा᳚ | ता वां॒ नु नव्या॒वव॑से करामहे॒ऽयं ना᳚सत्या॒ श्रद॒रिर्यथा॒ दध॑त् ||{7.8.15.5}, {10.39.5}, {10.3.10.5} |
1193 | इ॒यं वा᳚मह्वे शृणु॒तं मे᳚ अश्विना पु॒त्राये᳚व पि॒तरा॒ मह्यं᳚ शिक्षतम् | अना᳚पि॒रज्ञा᳚ असजा॒त्याम॑तिः पु॒रा तस्या᳚ अ॒भिश॑स्ते॒रव॑ स्पृतम् ||{7.8.16.1}, {10.39.6}, {10.3.10.6} |
1194 | यु॒वं रथे᳚न विम॒दाय॑ शु॒न्ध्युवं॒ न्यू᳚हथुः पुरुमि॒त्रस्य॒ योष॑णाम् | यु॒वं हवं᳚ वध्रिम॒त्या अ॑गच्छतं यु॒वं सुषु॑तिं चक्रथुः॒ पुरं᳚धये ||{7.8.16.2}, {10.39.7}, {10.3.10.7} |
1195 | यु॒वं विप्र॑स्य जर॒णामु॑पे॒युषः॒ पुनः॑ क॒लेर॑कृणुतं॒ युव॒द्वयः॑ | यु॒वं वन्द॑नमृश्य॒दादुदू᳚पथुर्यु॒वं स॒द्यो वि॒श्पला॒मेत॑वे कृथः ||{7.8.16.3}, {10.39.8}, {10.3.10.8} |
1196 | यु॒वं ह॑ रे॒भं वृ॑षणा॒ गुहा᳚ हि॒तमुदै᳚रयतं ममृ॒वांस॑मश्विना | यु॒वमृ॒बीस॑मु॒त त॒प्तमत्र॑य॒ ओम᳚न्वन्तं चक्रथुः स॒प्तव॑ध्रये ||{7.8.16.4}, {10.39.9}, {10.3.10.9} |
1197 | यु॒वं श्वे॒तं पे॒दवे᳚ऽश्वि॒नाश्वं᳚ न॒वभि॒र्वाजै᳚र्नव॒ती च॑ वा॒जिन᳚म् | च॒र्कृत्यं᳚ ददथुर्द्राव॒यत्स॑खं॒ भगं॒ न नृभ्यो॒ हव्यं᳚ मयो॒भुव᳚म् ||{7.8.16.5}, {10.39.10}, {10.3.10.10} |
1198 | न तं रा᳚जानावदिते॒ कुत॑श्च॒न नांहो᳚ अश्नोति दुरि॒तं नकि॑र्भ॒यम् | यम॑श्विना सुहवा रुद्रवर्तनी पुरोर॒थं कृ॑णु॒थः पत्न्या᳚ स॒ह ||{7.8.17.1}, {10.39.11}, {10.3.10.11} |
1199 | आ तेन॑ यातं॒ मन॑सो॒ जवी᳚यसा॒ रथं॒ यं वा᳚मृ॒भव॑श्च॒क्रुर॑श्विना | यस्य॒ योगे᳚ दुहि॒ता जाय॑ते दि॒व उ॒भे अह॑नी सु॒दिने᳚ वि॒वस्व॑तः ||{7.8.17.2}, {10.39.12}, {10.3.10.12} |
1200 | ता व॒र्तिर्या᳚तं ज॒युषा॒ वि पर्व॑त॒मपि᳚न्वतं श॒यवे᳚ धे॒नुम॑श्विना | वृक॑स्य चि॒द्वर्ति॑काम॒न्तरा॒स्या᳚द्यु॒वं शची᳚भिर्ग्रसि॒ताम॑मुञ्चतम् ||{7.8.17.3}, {10.39.13}, {10.3.10.13} |
1201 | ए॒तं वां॒ स्तोम॑मश्विनावक॒र्मात॑क्षाम॒ भृग॑वो॒ न रथ᳚म् | न्य॑मृक्षाम॒ योष॑णां॒ न मर्ये॒ नित्यं॒ न सू॒नुं तन॑यं॒ दधा᳚नाः ||{7.8.17.4}, {10.39.14}, {10.3.10.14} |
[111] (१-१४) चतुदर्श चस्य सूक्तस्य काक्षीवती घोषा (ऋषिका) अश्विनौ देवते | जगती छन्दः || | |
1202 | रथं॒ यान्तं॒ कुह॒ को ह॑ वां नरा॒ प्रति॑ द्यु॒मन्तं᳚ सुवि॒ताय॑ भूषति | प्रा॒त॒र्यावा᳚णं वि॒भ्वं᳚ वि॒शेवि॑शे॒ वस्तो᳚र्वस्तो॒र्वह॑मानं धि॒या शमि॑ ||{7.8.18.1}, {10.40.1}, {10.3.11.1} |
1203 | कुह॑ स्विद्दो॒षा कुह॒ वस्तो᳚र॒श्विना॒ कुहा᳚भिपि॒त्वं क॑रतः॒ कुहो᳚षतुः | को वां᳚ शयु॒त्रा वि॒धवे᳚व दे॒वरं॒ मर्यं॒ न योषा᳚ कृणुते स॒धस्थ॒ आ ||{7.8.18.2}, {10.40.2}, {10.3.11.2} |
1204 | प्रा॒तर्ज॑रेथे जर॒णेव॒ काप॑या॒ वस्तो᳚र्वस्तोर्यज॒ता ग॑च्छथो गृ॒हम् | कस्य॑ ध्व॒स्रा भ॑वथः॒ कस्य॑ वा नरा राजपु॒त्रेव॒ सव॒नाव॑ गच्छथः ||{7.8.18.3}, {10.40.3}, {10.3.11.3} |
1205 | यु॒वां मृ॒गेव॑ वार॒णा मृ॑ग॒ण्यवो᳚ दो॒षा वस्तो᳚र्ह॒विषा॒ नि ह्व॑यामहे | यु॒वं होत्रा᳚मृतु॒था जुह्व॑ते न॒रेषं॒ जना᳚य वहथः शुभस्पती ||{7.8.18.4}, {10.40.4}, {10.3.11.4} |
1206 | यु॒वां ह॒ घोषा॒ पर्य॑श्विना य॒ती राज्ञ॑ ऊचे दुहि॒ता पृ॒च्छे वां᳚ नरा | भू॒तं मे॒ अह्न॑ उ॒त भू᳚तम॒क्तवेऽश्वा᳚वते र॒थिने᳚ शक्त॒मर्व॑ते ||{7.8.18.5}, {10.40.5}, {10.3.11.5} |
1207 | यु॒वं क॒वी ष्ठः॒ पर्य॑श्विना॒ रथं॒ विशो॒ न कुत्सो᳚ जरि॒तुर्न॑शायथः | यु॒वोर्ह॒ मक्षा॒ पर्य॑श्विना॒ मध्वा॒सा भ॑रत निष्कृ॒तं न योष॑णा ||{7.8.19.1}, {10.40.6}, {10.3.11.6} |
1208 | यु॒वं ह॑ भु॒ज्युं यु॒वम॑श्विना॒ वशं᳚ यु॒वं शि॒ञ्जार॑मु॒शना॒मुपा᳚रथुः | यु॒वो ररा᳚वा॒ परि॑ स॒ख्यमा᳚सते यु॒वोर॒हमव॑सा सु॒म्नमा च॑के ||{7.8.19.2}, {10.40.7}, {10.3.11.7} |
1209 | यु॒वं ह॑ कृ॒शं यु॒वम॑श्विना श॒युं यु॒वं वि॒धन्तं᳚ वि॒धवा᳚मुरुष्यथः | यु॒वं स॒निभ्यः॑ स्त॒नय᳚न्तमश्वि॒नाप᳚ व्र॒जमू᳚र्णुथः स॒प्तास्य᳚म् ||{7.8.19.3}, {10.40.8}, {10.3.11.8} |
1210 | जनि॑ष्ट॒ योषा᳚ प॒तय॑त्कनीन॒को वि चारु॑हन्वी॒रुधो᳚ दं॒सना॒ अनु॑ | आस्मै᳚ रीयन्ते निव॒नेव॒ सिन्ध॑वो॒ऽस्मा अह्ने᳚ भवति॒ तत्प॑तित्व॒नम् ||{7.8.19.4}, {10.40.9}, {10.3.11.9} |
1211 | जी॒वं रु॑दन्ति॒ वि म॑यन्ते अध्व॒रे दी॒र्घामनु॒ प्रसि॑तिं दीधियु॒र्नरः॑ | वा॒मं पि॒तृभ्यो॒ य इ॒दं स॑मेरि॒रे मयः॒ पति॑भ्यो॒ जन॑यः परि॒ष्वजे᳚ ||{7.8.19.5}, {10.40.10}, {10.3.11.10} |
1212 | न तस्य॑ विद्म॒ तदु॒ षु प्र वो᳚चत॒ युवा᳚ ह॒ यद्यु॑व॒त्याः क्षेति॒ योनि॑षु | प्रि॒योस्रि॑यस्य वृष॒भस्य॑ रे॒तिनो᳚ गृ॒हं ग॑मेमाश्विना॒ तदु॑श्मसि ||{7.8.20.1}, {10.40.11}, {10.3.11.11} |
1213 | आ वा᳚मगन्सुम॒तिर्वा᳚जिनीवसू॒ न्य॑श्विना हृ॒त्सु कामा᳚ अयंसत | अभू᳚तं गो॒पा मि॑थु॒ना शु॑भस्पती प्रि॒या अ᳚र्य॒म्णो दुर्याँ᳚ अशीमहि ||{7.8.20.2}, {10.40.12}, {10.3.11.12} |
1214 | ता म᳚न्दसा॒ना मनु॑षो दुरो॒ण आ ध॒त्तं र॒यिं स॒हवी᳚रं वच॒स्यवे᳚ | कृ॒तं ती॒र्थं सु॑प्रपा॒णं शु॑भस्पती स्था॒णुं प॑थे॒ष्ठामप॑ दुर्म॒तिं ह॑तम् ||{7.8.20.3}, {10.40.13}, {10.3.11.13} |
1215 | क्व॑ स्विद॒द्य क॑त॒मास्व॒श्विना᳚ वि॒क्षु द॒स्रा मा᳚दयेते शु॒भस्पती᳚ | क ईं॒ नि ये᳚मे कत॒मस्य॑ जग्मतु॒र्विप्र॑स्य वा॒ यज॑मानस्य वा गृ॒हम् ||{7.8.20.4}, {10.40.14}, {10.3.11.14} |
[112] (१-३) तृचस्य सूक्तस्य घौषेयः सुहस्त्य ऋषिः | अश्विनौ देवते | जगती छन्दः || | |
1216 | स॒मा॒नमु॒ त्यं पु॑रुहू॒तमु॒क्थ्य१॑(अ॒) अंरथं᳚ त्रिच॒क्रं सव॑ना॒ गनि॑ग्मतम् | परि॑ज्मानं विद॒थ्यं᳚ सुवृ॒क्तिभि᳚र्व॒यं व्यु॑ष्टा उ॒षसो᳚ हवामहे ||{7.8.21.1}, {10.41.1}, {10.3.12.1} |
1217 | प्रा॒त॒र्युजं᳚ नास॒त्याधि॑ तिष्ठथः प्रात॒र्यावा᳚णं मधु॒वाह॑नं॒ रथ᳚म् | विशो॒ येन॒ गच्छ॑थो॒ यज्व॑रीर्नरा की॒रेश्चि॑द्य॒ज्ञं होतृ॑मन्तमश्विना ||{7.8.21.2}, {10.41.2}, {10.3.12.2} |
1218 | अ॒ध्व॒र्युं वा॒ मधु॑पाणिं सु॒हस्त्य॑म॒ग्निधं᳚ वा धृ॒तद॑क्षं॒ दमू᳚नसम् | विप्र॑स्य वा॒ यत्सव॑नानि॒ गच्छ॒थोऽत॒ आ या᳚तं मधु॒पेय॑मश्विना ||{7.8.21.3}, {10.41.3}, {10.3.12.3} |
[113] (१-११) एकादशर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरसः कृष्ण ऋषिः | इन्द्रो देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
1219 | अस्ते᳚व॒ सु प्र॑त॒रं लाय॒मस्य॒न्भूष᳚न्निव॒ प्र भ॑रा॒ स्तोम॑मस्मै | वा॒चा वि॑प्रास्तरत॒ वाच॑म॒र्यो नि रा᳚मय जरितः॒ सोम॒ इन्द्र᳚म् ||{7.8.22.1}, {10.42.1}, {10.3.13.1} |
1220 | दोहे᳚न॒ गामुप॑ शिक्षा॒ सखा᳚यं॒ प्र बो᳚धय जरितर्जा॒रमिन्द्र᳚म् | कोशं॒ न पू॒र्णं वसु॑ना॒ न्यृ॑ष्ट॒मा च्या᳚वय मघ॒देया᳚य॒ शूर᳚म् ||{7.8.22.2}, {10.42.2}, {10.3.13.2} |
1221 | किम॒ङ्ग त्वा᳚ मघवन्भो॒जमा᳚हुः शिशी॒हि मा᳚ शिश॒यं त्वा᳚ शृणोमि | अप्न॑स्वती॒ मम॒ धीर॑स्तु शक्र वसु॒विदं॒ भग॑मि॒न्द्रा भ॑रा नः ||{7.8.22.3}, {10.42.3}, {10.3.13.3} |
1222 | त्वां जना᳚ ममस॒त्येष्वि᳚न्द्र संतस्था॒ना वि ह्व॑यन्ते समी॒के | अत्रा॒ युजं᳚ कृणुते॒ यो ह॒विष्मा॒न्नासु᳚न्वता स॒ख्यं व॑ष्टि॒ शूरः॑ ||{7.8.22.4}, {10.42.4}, {10.3.13.4} |
1223 | धनं॒ न स्य॒न्द्रं ब॑हु॒लं यो अ॑स्मै ती॒व्रान्सोमाँ᳚ आसु॒नोति॒ प्रय॑स्वान् | तस्मै॒ शत्रू᳚न्सु॒तुका᳚न्प्रा॒तरह्नो॒ नि स्वष्ट्रा᳚न्यु॒वति॒ हन्ति॑ वृ॒त्रम् ||{7.8.22.5}, {10.42.5}, {10.3.13.5} |
1224 | यस्मि᳚न्व॒यं द॑धि॒मा शंस॒मिन्द्रे॒ यः शि॒श्राय॑ म॒घवा॒ काम॑म॒स्मे | आ॒राच्चि॒त्सन्भ॑यतामस्य॒ शत्रु॒र्न्य॑स्मै द्यु॒म्ना जन्या᳚ नमन्ताम् ||{7.8.23.1}, {10.42.6}, {10.3.13.6} |
1225 | आ॒राच्छत्रु॒मप॑ बाधस्व दू॒रमु॒ग्रो यः शम्बः॑ पुरुहूत॒ तेन॑ | अ॒स्मे धे᳚हि॒ यव॑म॒द्गोम॑दिन्द्र कृ॒धी धियं᳚ जरि॒त्रे वाज॑रत्नाम् ||{7.8.23.2}, {10.42.7}, {10.3.13.7} |
1226 | प्र यम॒न्तर्वृ॑षस॒वासो॒ अग्म᳚न्ती॒व्राः सोमा᳚ बहु॒लान्ता᳚स॒ इन्द्र᳚म् | नाह॑ दा॒मानं᳚ म॒घवा॒ नि यं᳚स॒न्नि सु᳚न्व॒ते व॑हति॒ भूरि॑ वा॒मम् ||{7.8.23.3}, {10.42.8}, {10.3.13.8} |
1227 | उ॒त प्र॒हाम॑ति॒दीव्या᳚ जयाति कृ॒तं यच्छ्व॒घ्नी वि॑चि॒नोति॑ का॒ले | यो दे॒वका᳚मो॒ न धना᳚ रुणद्धि॒ समित्तं रा॒या सृ॑जति स्व॒धावा॑न् ||{7.8.23.4}, {10.42.9}, {10.3.13.9} |
1228 | गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे᳚न॒ क्षुधं᳚ पुरुहूत॒ विश्वा᳚म् | व॒यं राज॑भिः प्रथ॒मा धना᳚न्य॒स्माके᳚न वृ॒जने᳚ना जयेम ||{7.8.23.5}, {10.42.10}, {10.3.13.10} |
1229 | बृह॒स्पति᳚र्नः॒ परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः | इन्द्रः॑ पु॒रस्ता᳚दु॒त म॑ध्य॒तो नः॒ सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरि॑वः कृणोतु ||{7.8.23.6}, {10.42.11}, {10.3.13.11} |
[114] (१-११) एकादशर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरसः कृष्ण ऋषिः | इन्द्रो देवता | (१-९) प्रथमादिनवर्चाम् जगती, (१०-११) दशम्येकादश्योश्च त्रिष्टुप् छन्दसी || | |
1230 | अच्छा᳚ म॒ इन्द्रं᳚ म॒तयः॑ स्व॒र्विदः॑ स॒ध्रीची॒र्विश्वा᳚ उश॒तीर॑नूषत | परि॑ ष्वजन्ते॒ जन॑यो॒ यथा॒ पतिं॒ मर्यं॒ न शु॒न्ध्युं म॒घवा᳚नमू॒तये᳚ ||{7.8.24.1}, {10.43.1}, {10.4.1.1} |
1231 | न घा᳚ त्व॒द्रिगप॑ वेति मे॒ मन॒स्त्वे इत्कामं᳚ पुरुहूत शिश्रय | राजे᳚व दस्म॒ नि ष॒दोऽधि॑ ब॒र्हिष्य॒स्मिन्सु सोमे᳚ऽव॒पान॑मस्तु ते ||{7.8.24.2}, {10.43.2}, {10.4.1.2} |
1232 | वि॒षू॒वृदिन्द्रो॒ अम॑तेरु॒त क्षु॒धः स इद्रा॒यो म॒घवा॒ वस्व॑ ईशते | तस्येदि॒मे प्र॑व॒णे स॒प्त सिन्ध॑वो॒ वयो᳚ वर्धन्ति वृष॒भस्य॑ शु॒ष्मिणः॑ ||{7.8.24.3}, {10.43.3}, {10.4.1.3} |
1233 | वयो॒ न वृ॒क्षं सु॑पला॒शमास॑द॒न्सोमा᳚स॒ इन्द्रं᳚ म॒न्दिन॑श्चमू॒षदः॑ | प्रैषा॒मनी᳚कं॒ शव॑सा॒ दवि॑द्युतद्वि॒दत्स्व१॑(अ॒)'र्मन॑वे॒ ज्योति॒रार्य᳚म् ||{7.8.24.4}, {10.43.4}, {10.4.1.4} |
1234 | कृ॒तं न श्व॒घ्नी वि चि॑नोति॒ देव॑ने सं॒वर्गं॒ यन्म॒घवा॒ सूर्यं॒ जय॑त् | न तत्ते᳚ अ॒न्यो अनु॑ वी॒र्यं᳚ शक॒न्न पु॑रा॒णो म॑घव॒न्नोत नूत॑नः ||{7.8.24.5}, {10.43.5}, {10.4.1.5} |
1235 | विशं᳚विशं म॒घवा॒ पर्य॑शायत॒ जना᳚नां॒ धेना᳚ अव॒चाक॑श॒द्वृषा᳚ | यस्याह॑ श॒क्रः सव॑नेषु॒ रण्य॑ति॒ स ती॒व्रैः सोमैः᳚ सहते पृतन्य॒तः ||{7.8.25.1}, {10.43.6}, {10.4.1.6} |
1236 | आपो॒ न सिन्धु॑म॒भि यत्स॒मक्ष॑र॒न्सोमा᳚स॒ इन्द्रं᳚ कु॒ल्या इ॑व ह्र॒दम् | वर्ध᳚न्ति॒ विप्रा॒ महो᳚ अस्य॒ साद॑ने॒ यवं॒ न वृ॒ष्टिर्दि॒व्येन॒ दानु॑ना ||{7.8.25.2}, {10.43.7}, {10.4.1.7} |
1237 | वृषा॒ न क्रु॒द्धः प॑तय॒द्रज॒स्स्वा यो अ॒र्यप॑त्नी॒रकृ॑णोदि॒मा अ॒पः | स सु᳚न्व॒ते म॒घवा᳚ जी॒रदा᳚न॒वेऽवि᳚न्द॒ज्ज्योति॒र्मन॑वे ह॒विष्म॑ते ||{7.8.25.3}, {10.43.8}, {10.4.1.8} |
1238 | उज्जा᳚यतां पर॒शुर्ज्योति॑षा स॒ह भू॒या ऋ॒तस्य॑ सु॒दुघा᳚ पुराण॒वत् | वि रो᳚चतामरु॒षो भा॒नुना॒ शुचिः॒ स्व१॑(अ॒)'र्ण शु॒क्रं शु॑शुचीत॒ सत्प॑तिः ||{7.8.25.4}, {10.43.9}, {10.4.1.9} |
1239 | गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे᳚न॒ क्षुधं᳚ पुरुहूत॒ विश्वा᳚म् | व॒यं राज॑भिः प्रथ॒मा धना᳚न्य॒स्माके᳚न वृ॒जने᳚ना जयेम ||{7.8.25.5}, {10.43.10}, {10.4.1.10} |
1240 | बृह॒स्पति᳚र्नः॒ परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः | इन्द्रः॑ पु॒रस्ता᳚दु॒त म॑ध्य॒तो नः॒ सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरि॑वः कृणोतु ||{7.8.25.6}, {10.43.11}, {10.4.1.11} |
[115] (१-११) एकादशर्चस्य सूक्तस्य आङ्गिरसः कृष्ण ऋषिः | इन्द्रो देवता | (१-३, १०-११) प्रथमादितृचस्य दशम्येकादश्यो[चोश्च त्रिष्टुप, (४-९) चतुर्थ्यादितृचद्वयस्य च जगती छन्दसी || | |
1241 | आ या॒त्विन्द्रः॒ स्वप॑ति॒र्मदा᳚य॒ यो धर्म॑णा तूतुजा॒नस्तुवि॑ष्मान् | प्र॒त्व॒क्षा॒णो अति॒ विश्वा॒ सहां᳚स्यपा॒रेण॑ मह॒ता वृष्ण्ये᳚न ||{7.8.26.1}, {10.44.1}, {10.4.2.1} |
1242 | सु॒ष्ठामा॒ रथः॑ सु॒यमा॒ हरी᳚ ते मि॒म्यक्ष॒ वज्रो᳚ नृपते॒ गभ॑स्तौ | शीभं᳚ राजन्सु॒पथा या᳚ह्य॒र्वाङ्वर्धा᳚म ते प॒पुषो॒ वृष्ण्या᳚नि ||{7.8.26.2}, {10.44.2}, {10.4.2.2} |
1243 | एन्द्र॒वाहो᳚ नृ॒पतिं॒ वज्र॑बाहुमु॒ग्रमु॒ग्रास॑स्तवि॒षास॑ एनम् | प्रत्व॑क्षसं वृष॒भं स॒त्यशु॑ष्म॒मेम॑स्म॒त्रा स॑ध॒मादो᳚ वहन्तु ||{7.8.26.3}, {10.44.3}, {10.4.2.3} |
1244 | ए॒वा पतिं᳚ द्रोण॒साचं॒ सचे᳚तसमू॒र्जः स्क॒म्भं ध॒रुण॒ आ वृ॑षायसे | ओजः॑ कृष्व॒ सं गृ॑भाय॒ त्वे अप्यसो॒ यथा᳚ केनि॒पाना᳚मि॒नो वृ॒धे ||{7.8.26.4}, {10.44.4}, {10.4.2.4} |
1245 | गम᳚न्न॒स्मे वसू॒न्या हि शंसि॑षं स्वा॒शिषं॒ भर॒मा या᳚हि सो॒मिनः॑ | त्वमी᳚शिषे॒ सास्मिन्ना स॑त्सि ब॒र्हिष्य॑नाधृ॒ष्या तव॒ पात्रा᳚णि॒ धर्म॑णा ||{7.8.26.5}, {10.44.5}, {10.4.2.5} |
1246 | पृथ॒क्प्राय᳚न्प्रथ॒मा दे॒वहू᳚त॒योऽकृ᳚ण्वत श्रव॒स्या᳚नि दु॒ष्टरा᳚ | न ये शे॒कुर्य॒ज्ञियां॒ नाव॑मा॒रुह॑मी॒र्मैव ते न्य॑विशन्त॒ केप॑यः ||{7.8.27.1}, {10.44.6}, {10.4.2.6} |
1247 | ए॒वैवापा॒गप॑रे सन्तु दू॒ढ्योऽश्वा॒ येषां᳚ दु॒र्युज॑ आयुयु॒ज्रे | इ॒त्था ये प्रागुप॑रे॒ सन्ति॑ दा॒वने᳚ पु॒रूणि॒ यत्र॑ व॒युना᳚नि॒ भोज॑ना ||{7.8.27.2}, {10.44.7}, {10.4.2.7} |
1248 | गि॒रीँरज्रा॒न्रेज॑मानाँ अधारय॒द्द्यौः क्र᳚न्दद॒न्तरि॑क्षाणि कोपयत् | स॒मी॒ची॒ने धि॒षणे॒ वि ष्क॑भायति॒ वृष्णः॑ पी॒त्वा मद॑ उ॒क्थानि॑ शंसति ||{7.8.27.3}, {10.44.8}, {10.4.2.8} |
1249 | इ॒मं बि॑भर्मि॒ सुकृ॑तं ते अङ्कु॒शं येना᳚रु॒जासि॑ मघवञ्छफा॒रुजः॑ | अ॒स्मिन्सु ते॒ सव॑ने अस्त्वो॒क्यं᳚ सु॒त इ॒ष्टौ म॑घवन्बो॒ध्याभ॑गः ||{7.8.27.4}, {10.44.9}, {10.4.2.9} |
1250 | गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे᳚न॒ क्षुधं᳚ पुरुहूत॒ विश्वा᳚म् | व॒यं राज॑भिः प्रथ॒मा धना᳚न्य॒स्माके᳚न वृ॒जने᳚ना जयेम ||{7.8.27.5}, {10.44.10}, {10.4.2.10} |
1251 | बृह॒स्पति᳚र्नः॒ परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः | इन्द्रः॑ पु॒रस्ता᳚दु॒त म॑ध्य॒तो नः॒ सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरि॑वः कृणोतु ||{7.8.27.6}, {10.44.11}, {10.4.2.11} |
[116] (१-१२) द्वादशर्चस्य सूक्तस्य भालन्दनो वत्सप्रि ऋषिः | अग्निर्देवता | त्रिष्टुप् छन्दः || | |
1252 | दि॒वस्परि॑ प्रथ॒मं ज॑ज्ञे अ॒ग्निर॒स्मद्द्वि॒तीयं॒ परि॑ जा॒तवे᳚दाः | तृ॒तीय॑म॒प्सु नृ॒मणा॒ अज॑स्र॒मिन्धा᳚न एनं जरते स्वा॒धीः ||{7.8.28.1}, {10.45.1}, {10.4.3.1} |
1253 | वि॒द्मा ते᳚ अग्ने त्रे॒धा त्र॒याणि॑ वि॒द्मा ते॒ धाम॒ विभृ॑ता पुरु॒त्रा | वि॒द्मा ते॒ नाम॑ पर॒मं गुहा॒ यद्वि॒द्मा तमुत्सं॒ यत॑ आज॒गन्थ॑ ||{7.8.28.2}, {10.45.2}, {10.4.3.2} |
1254 | स॒मु॒द्रे त्वा᳚ नृ॒मणा᳚ अ॒प्स्व१॑(अ॒)'न्तर्नृ॒चक्षा᳚ ईधे दि॒वो अ॑ग्न॒ ऊध॑न् | तृ॒तीये᳚ त्वा॒ रज॑सि तस्थि॒वांस॑म॒पामु॒पस्थे᳚ महि॒षा अ॑वर्धन् ||{7.8.28.3}, {10.45.3}, {10.4.3.3} |
1255 | अक्र᳚न्दद॒ग्निः स्त॒नय᳚न्निव॒ द्यौः क्षामा॒ रेरि॑हद्वी॒रुधः॑ सम॒ञ्जन् | स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो वि हीमि॒द्धो अख्य॒दा रोद॑सी भा॒नुना᳚ भात्य॒न्तः ||{7.8.28.4}, {10.45.4}, {10.4.3.4} |
1256 | श्री॒णामु॑दा॒रो ध॒रुणो᳚ रयी॒णां म॑नी॒षाणां॒ प्रार्प॑णः॒ सोम॑गोपाः | वसुः॑ सू॒नुः सह॑सो अ॒प्सु राजा॒ वि भा॒त्यग्र॑ उ॒षसा᳚मिधा॒नः ||{7.8.28.5}, {10.45.5}, {10.4.3.5} |
1257 | विश्व॑स्य के॒तुर्भुव॑नस्य॒ गर्भ॒ आ रोद॑सी अपृणा॒ज्जाय॑मानः | वी॒ळुं चि॒दद्रि॑मभिनत्परा॒यञ्जना॒ यद॒ग्निमय॑जन्त॒ पञ्च॑ ||{7.8.28.6}, {10.45.6}, {10.4.3.6} |
1258 | उ॒शिक्पा᳚व॒को अ॑र॒तिः सु॑मे॒धा मर्ते᳚ष्व॒ग्निर॒मृतो॒ नि धा᳚यि | इय॑र्ति धू॒मम॑रु॒षं भरि॑भ्र॒दुच्छु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॒ द्यामिन॑क्षन् ||{7.8.29.1}, {10.45.7}, {10.4.3.7} |
1259 | दृ॒शा॒नो रु॒क्म उ᳚र्वि॒या व्य॑द्यौद्दु॒र्मर्ष॒मायुः॑ श्रि॒ये रु॑चा॒नः | अ॒ग्निर॒मृतो᳚ अभव॒द्वयो᳚भि॒र्यदे᳚नं॒ द्यौर्ज॒नय॑त्सु॒रेताः᳚ ||{7.8.29.2}, {10.45.8}, {10.4.3.8} |
1260 | यस्ते᳚ अ॒द्य कृ॒णव॑द्भद्रशोचेऽपू॒पं दे᳚व घृ॒तव᳚न्तमग्ने | प्र तं न॑य प्रत॒रं वस्यो॒ अच्छा॒भि सु॒म्नं दे॒वभ॑क्तं यविष्ठ ||{7.8.29.3}, {10.45.9}, {10.4.3.9} |
1261 | आ तं भ॑ज सौश्रव॒सेष्व॑ग्न उ॒क्थौ᳚क्थ॒ आ भ॑ज श॒स्यमा᳚ने | प्रि॒यः सूर्ये᳚ प्रि॒यो अ॒ग्ना भ॑वा॒त्युज्जा॒तेन॑ भि॒नद॒दुज्जनि॑त्वैः ||{7.8.29.4}, {10.45.10}, {10.4.3.10} |
1262 | त्वाम॑ग्ने॒ यज॑माना॒ अनु॒ द्यून्विश्वा॒ वसु॑ दधिरे॒ वार्या᳚णि | त्वया᳚ स॒ह द्रवि॑णमि॒च्छमा᳚ना व्र॒जं गोम᳚न्तमु॒शिजो॒ वि व᳚व्रुः ||{7.8.29.5}, {10.45.11}, {10.4.3.11} |
1263 | अस्ता᳚व्य॒ग्निर्न॒रां सु॒शेवो᳚ वैश्वान॒र ऋषि॑भिः॒ सोम॑गोपाः | अ॒द्वे॒षे द्यावा᳚पृथि॒वी हु॑वेम॒ देवा᳚ ध॒त्त र॒यिम॒स्मे सु॒वीर᳚म् ||{7.8.29.6}, {10.45.12}, {10.4.3.12} |