गुरुवायुपुरेशस्तोत्राक्षरमाला

गुरुवायुपुरेशस्तोत्राक्षरमाला

ॐ श्रीपरमात्मने नमः । स्तोत्ररचयिता स्वामी श्रीज्ञानानन्दसरस्वती, अध्यक्ष, संस्कृत विभागः, शिवानन्दाश्रमः । भाषान्तरकर्त्री सुश्री प्रकाश अग्रवाल, सुश्री कल्पना गुप्ता, एम०ए०) प्रथमो भागः । अन्तः सन्ततमन्तरायरहितं दिव्यर्षिभिर्वीक्षितम् । सन्तप्तार्तिविनाशनैकानिरतं भक्तावने दीक्षितम् । खल्यादूरगतं सुरारिनिकरप्रध्वासनं सज्जना- वल्याधारमनारतं गुरुमरुद्गेहाधिनाथं भजे ॥ १॥ दिव्य ऋषियों द्वारा (अपने अन्तः करणों में) सर्वदा व्यवधानरहित भाव से दृष्ट, दुःखी जनों के दुःख-विनाश में ही रत, भक्तों के कल्याणकत्त, दुष्ट व्यक्तियों के लिए अगम्य (तथा) असुर-समूह के नाशकर्ता, सज्जनों के आधार-रूप श्री गुरुवायुपुरेश का मैं सदा भजन करता हूँ । आतङ्कापहमङ्घ्रिपङ्कजजुषां भक्तोत्तमानां सता- मातन्वानममन्दमोदमनिशं ध्यानैकतानात्मनाम् । खद्योतप्रतिमप्रभाविलसितं वातालयाधीश्वरं सद्योगिप्रकरान्तरङ्गसरसीहंसं सदा भावये ॥ २॥ (निज) चरण-कमलों में प्रीति रखने वाले सच्चे तथा उत्तम भक्तों के भय को दूर करने वाले, (अपने) ध्यान में नित्य एकाग्र हुई आत्माओं के लिए उत्तमोत्तम नन्द का प्रसार करने वाले, सूर्यवत् कान्ति से शोभायमान (तथा) श्रेष्ठ योगिजनों के अन्तःकरणरूपी सरोवर में हंस (के समान विलास करने वाले) श्री गुरुवायुपुराधीश का मैं सदा ध्यान करता हैं । इच्छामुज्झितवद्भिरैहिकसुखेष्वध्यात्ममार्गोन्मुखैः स्वच्छान्तःकरणैर्महामुनिजनैरालोक्यमानाकृतिम् । खिन्नानाखिललोकशोकनिकरध्वान्तांशुमन्तं सदा भिन्नाशेषसुरद्विषं गुरुसमीरागारवासं भजे ॥ ३॥ इहलौकिक सुखों की इच्छा को त्याग देने वाले अध्यात्ममार्गोन्मुखी निर्मलहृदय महामुनियों द्वारा दृष्ट स्वरूप वाले, समस्त लोकों के शोकसमूह-रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले सूर्य (तथा) निःशेष असुरों का अन्त करने वाले श्री गुरुवायुपुरेश का मैं सदा भजन करता हैं । ईहा नास्ति समस्तवस्तुषु बहिर्दृश्येषु मे मानसे मोहावेशविधायकानि सकलान्येतानि निस्संशयम् । खल्वेकं तव दिव्यमङ्गलतनुध्यानामृतं देहिनां शल्यध्वंसकरं तदेव मरुदागारेश मे दीयताम् ॥ ४॥ मेरे मन में समस्त (सांसारिक) पदार्थों तथा बाह्य दृश्यों के प्रति लालसा नहीं है । निस्सन्देह, ये सभी मोह के प्रवेश को उत्पन्न करने वाले हैं । दिव्य कल्याण का प्रसार करने वाले तुम्हारे रूप का एकमात्र ध्यान-रूप अमृत ही प्राणियों के समस्त कष्टों का निवारक है । हे गुरुवायुपुरेश (श्रीकृष्ण) ! वही (निज ध्यानामृत ही माप) मुझे प्रदान करें! उद्यत्पूर्णशशाङ्ककोमलमुखं गोपाङ्गनामोहनं हृद्यत्यन्तमुदावहं प्रणमतां सर्वेष्टसन्दोहनम् । खर्वं गर्वमशेषदुष्कृतकृतां नानाविधैश्चेष्टितैः कुर्वन्तं मरुदालयेशमनिशं भक्त्या समाराधये ॥ ५॥ उदित होते हुए पूर्ण चन्द्र की भाँति कोमल मुख वाले, गोपिकाओं को मोहित (तथा) प्रणाम करते हुए (भक्तजनों) के हृदयों को अत्यधिक आनन्दित करने वाले, सबकी इच्छाओं के पुजरूप तथा नाना प्रकार के कार्यों द्वारा दुष्कर्मा व्यक्तियों के समस्त दर्प को पूर्ण करने वाले श्री गुरुवायुपुरेश की मैं सदा भक्तिपूर्वक आराधना करता हैं । ऊढामोदमनारतं गुणवतां पूताशयानां नृणां गाढार्तिप्रकरापहं मुरहरं वातालयाधीश्वरम् । खण्डेन्दुप्रतिमालिकं पदसरोजानम्रपीयूषभुक् षण्डेड्यं सरसीरुहाक्षमखिलाधारं सदा भावये ॥ ६॥ निरन्तर परमानन्द रूप, अर्द्धचन्द्र के समान ललाट वाले, चरणकमलों में नमित अमृतपायी (देव-समूहों) द्वारा स्तुत, कमल-नयन, अखिलाधार, मुर-हन्ता श्री गुरुवायुपुरेश का मैं सदा ध्यान करता हैं, जो पवित्र विचारों वाले गुणी व्यक्तियों के घोर दुःख समूह को दूर करते हैं । ऋद्धज्योतिःस्फुरितवदनं सर्वगोपीजनानां शुद्धप्रेमप्रसरविषयं मारुतागारनाथम् । खेदव्रातं निजपदजुषां नाशयन्तं नितान्तं वेदप्रोक्तप्रकृतिविभवं माधवं भावयेऽहम् ॥ ७॥ समृद्ध ज्योति से दीप्त मुख वाले, समस्त गोपिकाओं के विशुद्ध प्रेम के विषय-भूत, निज चरण-प्रेमियों के दुःखों को सर्वथा नष्ट करने वाले, वेदप्रोक्त प्रकृति वैभव (से सम्पन्न) श्री गुरुवायुपुरेश (माधव) का मैं ध्यान करता हैं । ॠकान्तिनाशितपयोदगणावलेपं नाकाधिपादिसुरपालनजागरूकम् । ख्यातानिलालयपतिं शरणागतानां शातावहं मुरहरं शरणं प्रपद्ये ॥ ८॥ इन्द्रादि देवों के पालन में जागरूक, शरणागतों को आनन्द प्रदान करने वाले, मुर-हन्ता, (अपनी) चपल कान्ति से मेघ-समूहों के गर्व को नष्ट करने वाले, प्रसिद्ध गुरुवायुपुरेश (श्रीकृष्ण) की मैं शरण में जाता हूँ । लृसूनुराजसोदरं विदारितासुरं बिस- प्रसूननेत्रमच्युतं श्रितावनैकदीक्षितम् । खरांशुभास्वरं सदा सदाशयैर्निषेवितं पुराणपूरुषं भजे समीरगेहवासिनम् ॥ ९॥ देवराज इन्द्र के भ्राता, असुर-बिनाशक, कमलनयन, अच्युत, (अपने) आश्रित जनों की रक्षा में तत्पर, सूर्यवत् भास्वर तथा पवित्र आत्माओं द्वारा सदा सेवित, पुराणपुरुष श्रीगुरुवायुपुराधीश का मैं भजन करता हूँ । लॄरूपधारिनृगमोक्षदमक्षताभं चारूरुशोभितमनोहरपीतचेलम् । खर्चीकृतासुरमदं मरुदालयेश- मुर्वीसुरार्चितपदं सततं भजेऽहम् ॥ १०॥ सरीसृप (गिरगिट) -रूप-धारी नृग (राजा) को मोक्ष प्रदान करने वाले, पक्षुण्ण प्रभा-सम्पन्न, मनोहर पीत वस्त्रों से शोभित सुन्दर अङ्गों वाले (तथा) असुरों के दर्प को क्षय करने वाले उन श्रीगुरुवायुपुरेश का मैं सदा भजन करता हूँ, जिनके चरणों की वन्दना ब्राह्मण जन करते हैं । एकं श्रीगुरुवायुमन्दिरपतिं देवं दयासागरं श्रीकण्ठाम्बुजसम्भवादिदिविषत्सन्दोहसम्भावितम् । खेलालोलुपमङ्गनाभिरभिरामाभीरजाभिर्भृशं तालाङ्कानुजमाश्रितावनपरं भक्त्या समाराधये ॥ ११॥ दया के सागर, ब्रह्मादि देव-समूहों द्वारा विवेचनीय, सुन्दरी गोपिकाओं के साथ क्रीडा हेतु अत्यधिक समुत्सुक, बलभद्रानुज, अपने आश्रित जनों के हित चिन्तन में तत्पर, एकमात्र श्री गुरुवायुपुरेश की मैं भक्तिपूर्वक पाराधना करता हूँ ॥ ऐश्वर्यावहमात्तमोदमनिशं धर्माध्वसञ्चारिणां विश्वक्षेमविधायकं विधिनुतं विश्वार्तिविच्छेदकम् । खट्वारूढनृणां विदूरमनिलागारेश्वरं शाश्वतं वट्वाकारधरं बलेर्मदहरं ध्यायामि पीताम्बरम् ॥ १२॥ धर्ममार्गानुयायी जनों को सदा आनन्दपूर्वक ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, विश्व-क्षेम-विधायक, ब्रह्मा द्वारा नमस्कृत, संसार के कष्टों को दूर करने वाले, (दीर्घसूत्री मनुष्यों से दूर रहने वाले) , शाश्वत, पीताम्बरधारी, श्रीगुरुवायुपुरेश का मैं ध्यान करता हूँ, जिन्होन्ने वामन-रूप धारण कर बलि के गर्व का अन्त किया । ओङ्कारात्मकमात्मभक्तनिकरत्राणैकबद्धव्रतं पङ्कापेतहृदां सदा सुमनसां सर्वेष्टसन्दायकम् । खिद्रान् भक्तियुतान् क्षणेन धनदान् कुर्वाणमार्तोत्करे मुद्राहीनकृपं मरुत्पुरपतिं पद्मापतिं भावये ॥ १३॥ ओङ्काररूप, निज भक्त-समूह के त्राणार्थ व्रतबद्ध (तथा) निष्पाप हृदय सज्जन व्यक्तियों को समस्त अभीष्ट प्रदान करने वाले, लक्ष्मीपति, श्री गुरुवायुपुरेश का मैं ध्यान करता हूँ, जो अपने दरिद्र भक्तों को क्षणमात्र में धनपति (कुबेर) बना देते हैं तथा आर्तजनों पर असीम कृपा करते हैं । औदासीन्यविहीनसाधकगणेष्वात्माश्रितेष्वन्वहं मोदाधानपरायणं परिणतप्रज्ञैर्मुदा संस्तुतम् । खेदापोहनतत्परं निजपदाम्भोजाभिलीनात्मनां वेदान्तप्रतिपादितोरुविभवं वातालयेशं भजे ॥ १४॥ उदासीनता से रहित (अर्थात् दत्तचित्त) अपने प्राश्रित साधकगणों को आनन्द प्रदान करने में कुशल, बुद्धिमान् व्यक्तियों द्वारा हृदय से संस्तुत, अपने चरण-पद्मों में लीन जीवों के दुःख हरण में तत्पर, श्रीगुरुवायुपुरेश का मैं भजन करता हैं, जिनका विशाल वैभव वेदों में प्रतिपादित किया गया है । अम्भोजासनवासवादिसुमनोवृन्दैः समाराधितं दम्भोपेतनृणामगोचरमधर्मोच्चाटनैकव्रतम् । खण्डीकर्तुमनर्थजालमनिशं नानाविधं मामकं चण्डीशाभिनुतं समीरसदनाधीशं भजे सादरम् ॥ १५॥ ब्रह्मा तथा इन्द्रादि देवों द्वारा पूजित, दम्भी मनुष्यों के लिए अगोचर, अधर्म को उखाड् फेङ्कने का एकमात्र व्रत धारण किये हुए, चण्डीपति (परमेश्वर शिव) द्वारा भी स्तुत, श्री गुरुवायुपुरेश का मैं अपने नाना प्रकार के (दुःखादि रूपः) अनर्थ-जाल के विध्वंसार्थ आदरपूर्वक भजन करता हूँ । अः कल्याणकरः सतां स भगवान् दूरीकरोतु द्रुतं साकल्येन मदीयचित्तकदनं वातालयाधीश्वरः । खान्तोद्धृष्टसटासमन्वितनृसिंहाकारमालम्ब्य यः स्वान्तोदीर्णरुषा जघान दनुजं प्रह्लादतातं पुरा ॥ १६॥ सज्जनों का कल्याण करने वाले वह भगवान् श्रीगुरुवायुपुरेश मेरे चित्त को कष्ट देने वाले समस्त (तत्त्वों) को शीघ्र दूर करें, जिन्होन्ने प्राचीन काल में आकाश तक फैले केसरों से युक्त नृसिंहाकार धारण कर, अत्यधिक रोष (-युक्त हृदय) से प्रह्लाद के पिता दैत्य (हिरण्यकशिपु) का वध किया था । कलुषहरणदीक्षं स्वाङ्घ्रिपद्माश्रयाणां विलुलितकचभाराभीरनारीपरीतम् । खलु पवनपुरेशं देवमेकं व्रजोर्वी- विलुठितसुकुमाराकारमाराधयेऽहम् ॥ १७॥ अपने चरणकमलों का आश्रय लेने वाले (मनुष्यों) के पापों को दूर करने में कुशल, कुञ्चितकेशभार से युक्त गोपिकाओं से घिरे हुए (तथा) व्रजभूमि में लोटते हुए सुन्दर बालक को प्रकृति वाले एकमात्र देव श्रीगुरुवायुपुरेश की मैं आराधना करता हूँ ॥ खलदनुजकृतान्तं भक्तवात्सल्यवन्तं चलदलकललाटं दीनलोकानवन्तम् । खमणिसदृशभासं मारुतागारवासं सुमहितमुनिवृन्दैर्भावितं भावयेऽहम् ॥ १८॥ मैं दुष्ट दैत्यों का वध करने वाले, भक्तों के प्रेम से सम्पन्न, दीन जनों के रक्षक, चञ्चल अलकावलि से शोभित ललाट वाले, सूर्यवत् भास्वर (तथा) महामुनिवृन्दों द्वारा ध्यान किये जाने वाले श्रीगुरुवायुपुरेश की भावना करता हूँ । गतदुरितसमूहैः साधुभिर्भक्तिपूर्वं कृतनुतिततिवर्षं वातगेहाधिवासम् । खरनखरविदीर्णक्रूरदैत्याधिराजं सुरदरहरमीडे नारसिंहस्वरूपम् ॥ १९॥ मैं नृसिंहरूप में अपने तीक्ष्ण नखों से क्रूर दैत्याधिराज को विदीर्ण कर देवताओं के भय को दूर करने वाले श्री गुरुवायुपुरेश का स्तवन करता हैं जिनपर निष्पाप साधुसमूह भक्तिपूर्वक स्तुतियों को वर्षा करते हैं । घनचयसमवर्णं भूरिकारुण्यपूर्णं सनकमुखमुनीन्द्रैः सन्ततं स्तूयमानम् । खगपरिवृढकेतुं भक्तकल्याणहेतुं निगमलसितमीडे मारुतागारनाथम् ॥ २०॥ मैं मेघसमूह के समान (श्याम) वर्ण वाले, अतिशय करुणामय, सनकादि महामुनियों द्वारा सदा स्तुत, भक्तों के कल्याण के हेतुभूत (तथा) वेदों में प्रकाशित, गरुडध्वजी श्री गुरुवायुपुरेश की स्तुति करता हूँ ॥ मेचककलेवरं समनुरक्तगोपीजनैः समेतमिननन्दिनीपुळिनकेलिलोलाशयम् । खलीनविलसत्करं विदितभारतायोधने खिलीकृतरिपूत्करं पवनगेहवासं भजे ॥ २१॥ मैं मञ्जन के सदृश कृष्णवर्णं शरीर वाले, अनुरक्त गोपिकाओं के नाथ कालिन्दी-तट पर प्रसन्नतापूर्वक क्रीडा करने के इच्छुक, प्रसिद्ध महाभारत युद्ध में अश्वरास द्वारा सुशोभित करों वाले (तथा) रघु-समूह के नाशकर्ता श्रीगुरुवायुपुरेश का भजन करता हूँ । चञ्चरीकनिकरोपमालकलसन्मनोहरमुखाम्बुजं चञ्चलातुलितपीतवाससममेयकान्तिपरिवेष्टितम् । खञ्जरीटनयनं जनार्दनमनेकभक्तजनतामनः- कञ्जभानुमानिलालयेश्वरमनारतं मनसि भावये ॥ २२॥ मैं भ्रमर समूह के समान अलकावलि से घिरे मनोहर मुखकमल वाले, विद्युत् की भान्ति (ज्योतिर्मान) पीताम्बरधारी, अपरिमेय कान्ति से वेष्टित, खञ्जरीट के समान नयनों वाले, नाना भक्तजनों के मनस्कमल के लिए) सूर्य (सदृश्य) , जनार्दन श्रीगुरुवायुपुरेश का मन से ध्यान करता हूँ । छद्मापेतहृदां नृणामविरतं सर्वाभिलाषप्रदं पद्मावल्लभमप्रमेयविभवं वातालयाधीश्वरम् । खेदावेशवशंवदावनपरं कारुण्यवाराकरम् । पादानम्रजनाशुभोत्करहरं शौरिं समाराधये ॥ २३॥ मैं निश्छलहृदय मनुष्यों की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाले, लक्ष्मी जी के पति, अपरिमित दिव्य वैभव से सम्पन्न, करुणा-सागर, दुःखी जनों की रक्षा में तत्पर, (तथा) अपने चरणकमलों में नमन करने वाले मनुष्यों के अशुभहर्ता श्रीगुरुवायुपुरेश की आराधना करता हूँ । जननमरणसिन्धुमग्नमेनं जनमनिलालयवास दीनदीनम् । खलनिकरविदूर पाहि विष्णो जलजविलोचन दीनलोकबन्धो ॥ २४॥ दुष्टजनों के समूह से दूर रहने वाले, हे कमलनयन, दीनबन्धु, श्री गुरुवायुपुरवासी विष्णो ! जन्म-मरण के सिन्धु में निमग्न इस दीनातिदीन मनुष्य) की रक्षा कीजिए ! । झटिति सकलतापान् नाशयत्वच्युतो मे स्फुटितमरकताभः श्रीकरः पद्मनाभः । खचितविविधरत्नप्रोल्लसत्काञ्चिधारी प्रचितसुकृतगम्यः श्रीसमीरालयेशः ॥ २५॥ स्वच्छ मरकतमणि के समान प्राभा वाले, (भक्तों को) श्रीप्रदायक, नाना रत्नजटित दीप्तिमान् मेखला को धारण करने वाले, पुण्यकर्मा लोगों के लिए सुगम्य, पद्मनाभ, अच्युत श्रीगुरुबायुपुरेश मेरे समस्त कष्टों को तत्काल नष्ट करें ! अभञ्जनं सुरद्विषां जगद्रुहां विनाशनं प्रभञ्जनालयेश्वरं प्रभाविशेषभास्वरम् । खिलीकृतारसञ्चयं स्वपादपङ्कजद्वये । निलीनचेतसां सतां शुभावहं विभावये ॥ २६॥ मैं अत्यधिक कान्ति से प्रकाशमान्, असुर सेनाओं तथा जगत्द्रोही तत्त्वों के) विनाशकर्ता, शत्रु-समूहों का संहार करने वाले श्रीगुरुवायुपुरेश का ध्यान करता हूँ, जो अपने चरण-कमलों में लीनचित्त-सज्जन व्यक्तियों के शुभ का विधान करते हैं । टीकां करोमि भवतो भवतोयराशे- रेकान्तमध्यपतनेन नितान्ततान्तः । खेलाविलोलगुरुवायुपुरे मुरारे श्रीलास्यकालनिलयाव दयाम्बुधे माम् ॥ २७॥ गहन संसार-सागर में गिरने से नितान्त दुःखी तथा अकेला पडा मैं, गुरुवायुपुर में क्रीडा-विलास करने वाले, लक्ष्मी के लास्य तथा केलि के केन्द्र, दयासागर मुरारि आप का स्तवन करता हूँ । आप मेरी रक्षा करे ! ॥ रक्षा करे । ठमुखसुरनिषेव्यं दुष्टदैतेयकालं सुमुखमखिलभक्तक्षेमकृत्यैकदीक्षम् । खलविपिनकृशानुं शार्ङ्गपाणिं नभस्व- न्निलयकृतनिवासं वासुदेवं भजेऽहम् ॥ २८॥ मैं शिवादि देवों द्वारा पूज्य, दुष्ट दैत्यों के कालरूप, गुरुवायुपुरनिवासी, सुन्दर मुख वाले, शार्ङ्गपाणि श्रीवासुदेव का भजन करता हूँ । जो एकमात्र समस्त भक्तों के कल्याण में ही तत्पर तथा दुष्ट जनों के वन के लिए दावानल के समान हैं । डिण्डीरसन्निभमनोहरमन्दहासं खण्डीकृतासुरगणं तरुणार्कभासम् । खेयायिगीतयशसं निजभक्तदासं ध्यायामि चारुतरमारुतमन्दिरेशम् ॥ २९॥ मैं समुद्र के फेन की भाँति मनोहर मुस्कान वाले, असुर-समूहों के विनाशकर्ता, नवोदित सूर्य के समान भास्वर, (तथा) अपने भक्तों के दास, अत्यन्त सुन्दर, वायुमन्दिरपति (श्रीकृष्ण) का ध्यान करता हूँ, जिनका यशोगान देवगण करते हैं । ढौकनं विविधपद्यजालमयमर्पितं तव पदाम्बुजे नाकनायकमुखामरोत्करकिरीटकोटिमाणिदीपिते । ख्यातवातनिलयेश निस्तुलमहोविलासविमलात्मनां शातदायक जगन्नियामक पयोजनाभ परिपाहि माम् ॥ ३०॥ हे प्रसिद्ध वायुपुरेश ! विविधपद्यसमूहमयी यह स्तुति, इन्द्रादि देवगणों के मुकुट की करोडों मणियों से दीप्त तुम्हारे चरण-कमलों में अर्पित है । हे अतुलनीय महान् विलास करने वाले, पवित्रात्माओं के आनन्ददाता, जगन्नियन्ता पद्मनाभ ! मेरी रक्षा कीजिए ! णं सर्वगोपालकबालिकानां कंसद्विषं गोपकिशोरवेषम् । खिन्नार्तिविच्छेदकमब्जनाभं वन्दे सदा मारुतमन्दिरेशम् ॥ ३१॥ मैं समस्त गोपिकाओं के प्रिय, कंस-द्वेषी, दुःखीजनों के कष्टों को दूर करने वाले, किशोर गोप-रूपधारी, पद्मनाभ श्री वायुमन्दिर-पति श्रीकृष्ण) की सदा वन्दना करता हूँ । तरुणारुणकोटिभास्वरं करुणावारिधिमार्तपालकम् । खलदानववैरिणं मरुन्निलयेशं हरिमाश्रयेऽनिशम् ॥ ३२॥ मैं करोडों नवोदित सूर्यों के समान भास्वर, करुणासामर, दुःखीजनों के पालक तथा दुष्ट दानवों के वैरी, श्रीगुरुवायुपुरेश हरि का सदा आश्रय लेता हूँ । थं सतां सततमादधानमपदानमैश्वरमनारतं शंसतां विततचेतसामभिमतार्थदानकरणे रतम् । खादुकार्भकवदन्वहं पशुपयोषितां सदनसञ्चयात् स्वादुभोज्यनिकराशिनं शिवमाशुगालयपतिं भजे ॥ ३३॥ सज्जनों के सुख के अजस्र स्रोत, अपनी सर्वोत्कृष्ट कृतियों का निरन्तर गुणानुवाद गायन करने वाले विशाल हृदय व्यक्तियों के अभिमत फल प्रदान करने में सदा तत्पर गुरुवायुपुरेश का मैं भजन करता हूँ; जिन्होन्ने क्षुधातुर शिशु का रूप धारण कर गोपाङ्गनामों के घर में प्रवेश कर उनका स्वादिष्ट भोजन खाया । दानवान्तकमनन्यभक्तिमन्मानवावनपरं कृपाकरम् । खण्डितारिनिकरं धृतादरं मण्डितानिलनिकेतनं भजे ॥ ३४॥ मैं दानवों का अन्त करने वाले, अनन्य भक्ति से (अपनी साधना करने वाले भक्तों की) रक्षा में तत्पर, कृपालु (तथा) शत्रुसमूह के विनाशक श्रीगुरुवायुपुरेश का आदरपूर्वक भजन करता हूँ । धन्यात्मत्वं गुरुमरुदगारावलोकान्नकामं सन्न्यासित्वं सकलविषयेष्वाप्तवैराग्ययोगात् । खल्वेते मे पवनसदनाधीश लब्धेऽपि माया- शल्येनाहं दलितहृदयोऽस्म्यन्वहं पालयैनम् ॥ ३५॥ श्रीगुरुवायुपुरेश के दर्शन से मैं परम धन्य हो गया है तथा समस्त भौतिक) विषयों में वैराग्य हो जाने से (मैन्ने) सन्न्यासित्व को प्राप्त किया हूँ (तथापि) इन सब को प्राप्त कर लेने पर भी माया-रूपी शल्य से मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है । हे वायुपुराधीश (श्रीकृष्ण) माप इस मनुष्य) की रक्षा कीजिए ! निलीनचित्तोऽस्मि भवत्कथायां मलीमसान्तःकरणोऽपि सोऽहम् । खिलीकृताशेषरिपो नभस्वत्पुरीश मे देहि नितान्तभक्तिम् ॥ ३६॥ अन्तःकरण मलिन होने पर भी मैं आपकी कथाओं में लीनचित्त वाला हूँ । समस्त शत्रुओं का नाश करने वाले हे श्री गुरुवायुपुरेश ! आप मुझे अपनी अनन्य भक्ति प्रदान करे ! पवनपुरपते पयोधिकन्याधव नलिनेक्षण नन्दगोपसूनो । खलजनकुलकाल दिव्यशोभावलयित पालय मां कृपालयैनम् ॥ ३७॥ हे दिव्य तेज से शोभायमान, कृपागार, कमलनयन, नन्दपुत्र, लक्ष्मीपति, तथा) दुष्टजनों के कालरूप श्रीगुरुवायुपुरेश ! आप मेरा पालन करें ॥ फणिपरिवृढशायिन् मारुतागारवासिन् प्रणिपतदसुभाजां सर्वकल्याणदायिन् । खचितमणिविराजच्चारुकोटीरधारिन् । प्रचितविभवशालिन् चक्रपाणे नमस्ते ॥ ३८॥ हे शेषशायी, चक्रपाणि, अपने चरणों में नमन करने वाले सुपात्रों का समस्त कल्याण करने वाले, मणि-जटित सुन्दर शोभायमान मुकुटधारी तथा) समस्त वैभव-सम्पन्न गुरुवायुपुरेश (श्रीकृष्ण) आपको मेरा नमस्कार है ॥ बलसहज हरे सदा नभस्वन्निलयनिवास नितान्तकान्तमूर्ते । खुरदलितधरोग्रकेशीहत्याकर दनुजान्तक पाहि मां कृपालो ॥ ३९॥ सदा गुरुवायुपुरवासी, बलभद्र भ्राता, नितान्त सुन्दर प्राकृति वाले, (गोरूप धारण कर) अपने खुरों से पृथ्वी को विदीर्ण करने वाले, उग्रकेशि की हत्या करने वाले (तथा) दानवों के विनाशकर्ता, कृपालु हरि मेरी रक्षा कर ! । भक्त्या भवत्पदयुगस्मरणैकतानो मुक्त्याशया सकलपाल नयामि कालम् । खण्डेन्दुसन्निभललाटविनम्रभक्त षण्डेड्य वातपुरनायक पालयैनम् ॥ ४०॥ हे श्रीगुरुवायुपुराधीश ! मैं मुक्ति की इच्छा से भक्तिपूर्वक आपके चरण-युगलों का एकाग्र स्मरण करता हुआ (अपना) समय व्यतीत करता हूँ । हे अर्द्धचन्द्र के समान ललाट वाले, विनम्र भक्त-समूहों द्वारा स्तुत, सर्वपालक देव ! (आप) मेरा पालन करें ! महितमुनिजनेन्द्रपूतचेतोविहितनिवास मरुत्पुरेश शौरे । खलु तव करुणाकटाक्षवर्षं कलुषहरं मयि तत्पतत्वजस्रम् ॥ ४१॥ महामुनिजनों के पवित्र चित्त में निवास करने वाले हे श्री गुरुवायुपुरेश ! तुम्हारे कृपाकटाक्ष की वर्षा निश्चय ही समस्त पापों को दूर करती है । वह (कृपाकटाक्ष) मेरे ऊपर निरन्तर वर्षित हो ! यमनियमपरैरनन्यचित्तैर्यमिनिवहैरभिगम्यदिव्यमूर्ते । खमणिशतसमाभ दुष्टलोकप्रमथन मामव मारुतालयेश ॥ ४२॥ यम-नियमपूर्वक अनन्य भक्ति से (साधना करने वाले) मुनीन्द्रों द्वारा प्राप्य, शत सूर्यों के समान प्राभावाले, दुष्टजनविनाशक, दिव्यमूर्ति श्रीगुरुवायुपुरेश मेरी रक्षा करें ! रणनिहतसमस्तदेवविद्विड्गण पवनालयवास विश्वमूर्ते । खचरविनुत भक्तगीतनानासुचरित केशव सादरं नमस्ते ॥ ४३॥ युद्ध-रत समस्त देव-शत्रुओं को नष्ट करने वाले, देवस्तुत, विश्वमूर्ति, श्रीगुरुवायुपुरवासी केशव को मेरा सादर नमस्कार है, जिनके नाना सुकर्मों का भक्तगण गान करते हैं । लक्ष्यीकृतामृतपथं यतमानमेनं पक्षीन्द्रवाहन भवत्पदलीनचित्तम् । खेदाम्बुराशिपरिमग्नमवार्तबन्धो वेदान्तवेद्य गुरुमारुतगेहवासिन् ॥ ४४॥ वेदान्तों द्वारा ज्ञातव्य, गरुडवाही, आर्तबन्धु, हे गुरुवायुपुरवासी (श्री कृष्ण) ! आप दुःखसागर में निमग्न, मोक्ष को लक्ष्यकर प्रयत्नशील, अपने चरणों में लीनचित्त इस (मनुष्य) की रक्षा कीजिए ! वंशीलसत्करमपारकृपाम्बुराशिमाशीविषेन्द्रशयनं मरुदालयेशम् । खेलापरं पशुपबालगणेन साकं नीलाम्बरानुजमहं शरणं प्रपद्ये ॥ ४५॥ मैं वंशी से विभूषित करों वाले, अपार कृपासागर, गोप-बालकों के साथ क्रीडा करने वाले, बलभद्रानुज शेषशायी श्रीगुरुवायुपुराधीश की शरण में जाता हूँ ॥ शतमखमुखलेखैः सन्ततं सेव्यमानं नतमनुजसहस्रैः स्तूयमानापदानम् । खलनिकरविदूरं दिव्ययोगीश्वराणां सुलभमनिशमीडे मारुतागारवासम् ॥ ४६॥ मैं इन्द्रादि देवों द्वारा सतत सेवित, (चरणो में) नत सहस्रों मनुष्यों द्वारा स्तुत, दुष्टों के समूह से दूर (रहने वाले, तथा) दिव्य योगीश्वरों को सुलभ श्रीगुरुवायुपुरेश की सदा स्तुति करता हूँ । षट्कर्मभिः स्तोत्रगणैर्निकामं सत्कर्मभिश्चानिशमीड्यमानम् । ख्यातात्मवीर्यं शमितारिशौर्यं वातालयेशं सततं भजेऽहम् ॥ ४७॥ मैं सत्कर्मा मनुष्यों द्वारा स्तोत्रसमूहों से स्तुत तथा षट् (वैदिक) कर्मों द्वारा पूजित, शत्रु के पराक्रम का दमन करने वाले, प्रसिद्ध आत्मबली, श्री गुरुवायुपुरेश का सदा भजन करता हूँ ॥ सदा सदासेव्यपदं सुराणां मुदावहं पत्ररथेन्द्रवाहम् । खलातिदूरं परिदीप्रतेजोविलासमीडे मरुदालयेशम् ॥ ४८॥ मैं सज्जनों द्वारा सदा पूजित चरणों वाले, देवों के आनन्ददाता, दुष्ट जनों से दूर रहने वाले) , प्रदीप्त तेज से शोभायमान, गरुडवाही श्रीगुरुवायुपुरेश की स्तुति करता हूँ ॥ हरनुतगुणराशे गोपिकावृन्दवासो- हर सुरदरहारिन् दुष्टसंहारकारिन् । खरकरसमदीप्ते मारुतागारवासिन् परमपुरुष विष्णो पाहि मां पद्मपाणे ॥ ४९॥ हे शङ्कर द्वारा स्तुत गुणों वाले, गोपिकावृन्द के वस्त्रापहर्ता, देवों के भय को दूर करने वाले, दुष्ट-संहारी, सूर्यवत् भास्वर, पद्मपाणि गुरुवायुपुरवासी, पुराण-पुरुष विष्णु ! (आप) मेरी रक्षा कीजिए ! लान्तकस्वनसमेतगोपशिशुरूप केशव सुरद्विषा- मन्तक प्रथितदिव्यवैभव भवाब्धितारक जगत्प्रभो । खेलनोत्सुक कलिन्दजापुलिनकाननावलिषु गोपिका- बालिकाभिरभिरामरूप मरुदालयेश परिपाहि माम् ॥ ५०॥ मधुरस्वरयुक्त गोपशिशु (रूपधारी) , असुरविनाशक, विशाल दिव्य वैभव-सम्पन्न, संसार-सागर को पार कराने वाले, कालिन्दीतट के वनों में गोपिकाओं के साथ क्रीडा हेतु समुत्सुक, संसार के स्वामी, सुन्दर रूप वाले हे श्रीगुरुवायुपुराधीश, मेरी रक्षा कीजिए ! । क्षीणांहःप्रकरैर्नरैरविरतं सन्दृश्यमानं जगत्- प्राणागारपतिं निजाश्रितनृणां संसारतापापहम् । खिद्रान् भक्तजनान् कुबेरसदृशान् कुर्वन्तमार्तोत्करे भद्राधानपरायणं कृतिनुतं कृष्णं समाराधये ॥ ५१॥ क्षीण पापों वाले मनुष्यों द्वारा सदा दृष्ट, अपने आश्रित जनों के सांसारिक कष्टों को दूर करने वाले, दरिद्र भक्तजनों को कुबेर सदृश बनाने वाले, आर्तजनों के कल्याण में तत्पर, सुकृती व्यक्तियों द्वारा स्तुत्य, वायुपुराधीश श्रीकृष्ण की मैं आराधना करता हूँ । इति प्रथमो भागः । अथ द्वितीयो भागः । अस्तोककान्तिपारिवेषलसन्मुखाब्जं हस्तोढसारसविशिष्टगदारिशङ्खम् । ध्वस्तोद्धतासुरबलं मरुदालयेशं शस्तोरुवैभवमजस्रमुपाश्रयेऽहम् ॥ १॥ जिनका मुख-कमल प्रभा-मण्डल से अत्यधिक कान्तिवान् है, जो हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म लिए हुए हैं; जिन्होन्ने उद्धत (उद्दण्ड) असुरों के समूह को विनष्ट किया है और जो प्रभुत ऐश्वर्यवान् । हैं - ऐसे भगवान् विष्णु का मैं निरन्तर आश्रय लूँ ॥ आलोकनीयनवनीरदनीलकायं भूलोकवासिजनसञ्चयपुण्यमूर्तिम् । सालोक्यदं सुकृतिनां पवनालयेशं त्रैलोक्यनायकमहं शरणं प्रपद्ये ॥ २॥ जिनका शरीर रमणीय नव-नीरद के समान श्यामल वर्ण का है, जो सांसारिक जीवों के पुण्यों के सञ्चित विग्रह के समान हैं, जो पुण्यात्माओं को अपना लोक प्रदान करते हैं तथा जो तीनों लोकों के अधीश्वर हैं - ऐसे भगवान् श्रीकृष्ण की मैं शरण जाता हैं । इनशतसमभासं वातगेहाधिवासं मनसि मुनिवरेण्यैः सर्वदा दृश्यमानम् । अनवरतमनेकैर्मानुषैः सेव्यमानं कनकरुचिरवस्त्रं कृष्णमाराधयामि ॥ ३॥ जिनकी कान्ति शत-सूर्यों के समान है, जो तत्त्वद्रष्टा मुनियों के द्वारा निरन्तर अपने मन से साक्षात् देखे जाते हैं, जिनकी असङ्ख्य प्राणियों द्वारा निरन्तर सेवा की जा रही है तथा जिन्होन्ने स्वर्ण-दीप्त वस्त्र धारण किये हैं - ऐसे भगवान् श्रीकृष्ण की मैं आराधना करता हूँ । ईशादिसर्वदिविषद्गणमाननीयं नाशादपेतमहिशायिनमप्रमेयम् । क्लेशापहं प्रणमतां पवनालयेश- माशाविहीनजनमानसवासमीडे ॥ ४॥ भगवान् शङ्कर आदि सभी देवताओं के पूज्य, अविनाशी, अगम्य, शेष नाग पर शयन करने वाले, भक्तों के दुःखों को दूर करने वाले तथा सांसारिक विषय-भोगों की आशा से मुक्त पुरुषों के हृदय में वास करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण की मैं आराधना करता है । उपगतमनुजानां स्वाङ्घ्रिपद्माश्रयाणा- मपगतकलुषाणामिष्टदानैकदीक्षम् । उपचितरुचिदीप्रं मारुतागारवासं कृपणजनशरण्यं कृष्णमेवाश्रयेऽहम् ॥ ५॥ अपने चरण-कमलों का आश्रय देने वाले, शरणागत एवं पाप मुक्त मनुष्यों को इच्छित फल प्रदान करने वाले, परम कान्ति सम्पन्न, अशरण के शरण भगवान् श्रीकृष्ण की मैं शरण जाता हूँ । ऊढानुकम्पमभयप्रदमाश्रितानां गाढार्तिनाशनपरं पवनालयेशम् । रूढावलेपमलिनीकृतमानसानां मूढात्मनामतिविदूरगतं भजेऽहम् ॥ ६॥ भक्तों पर अनुकम्पा करने वाले, अपने आश्रितों को अभय देने तथा उनके दारुण दुःख दूर करने वाले, मिथ्याभिमान से मलिन चित्त वाले मूढबुद्धि पुरुषों से अति दूर स्थित श्रीकृष्ण भगवान् को मैं प्राप्त करूँ ! ऋद्धानुभावयुतमैहिकवस्तुपाली- बद्धात्मनामविषमं सुकृतैकगम्यम् । शुद्धान्तरङ्गमुनिमानसराजहंस- मिद्धादरं मरुदगारपतिं भजेऽहम् ॥ ७॥ ऋद्धि आदि प्रभाव से युक्त, लौकिक वस्तुओं में आबद्ध अज्ञानी व्यक्तियों द्वारा अज्ञेय, पुण्यात्माओं के द्वारा सुबोध, निर्मल अन्तःकरण वाले मुनियों के मन-रूपी मानसरोवर के लिए राजहंस, पूज्य पवनालयेश की मैं आराधना करता हूँ । ॠनाशनैकनिपुणं कृतदुष्कृतानां कीनाशमप्रतिमनैकविधापदानम् । दीनावनैकनिरतं मरुदालयेशम् । मानातिरिक्तमहसं समुपाश्रयेऽहम् ॥ ८॥ पापियों, दुष्कर्मियों तथा राक्षसों का विनाश करने में कुशल, दीनों की रक्षा में तत्पर अतुलनीय तेज वाले तथा नानाविध अनुपम दिव्य कृतियों वाले श्रीकृष्ण भगवान् की मैं शरण प्राप्त करूँ ॥ लृभारभूतदानवान् विनाशयन्तमन्वहं प्रभाविशेषरूषणैर्विराजमानविग्रहम् । शुभावहावलोकनं मरुत्पुरीनिकेतनं प्रभावपूर्णदैवतं भजे हरिं सदैव तम् ॥ ९॥ सदैव पृथ्वी के भार-स्वरूप राक्षसों का विनाश करने वाले, प्रभामण्डल विशेष के वर्तुल से सुशोभित शरीर वाले, कल्याणकारी दन वाले, मरुतागार में निवास करने वाले प्रभा-युक्त श्रीकृष्ण को मैं सदैव आराधना करता हूँ । लॄरूपधृङ्नृगनृपाय कृपातिरेकात् सारूप्यदं गुरुसमीरपुराधिवासम् । चारूत्तमाङ्गविलसच्छिखिपिञ्छजाल- मारूढभक्तिविनयः स्वयमाश्रयेऽहम् ॥ १०॥ दयाधिक्य से गिरगिट रूपधारी राजा नृग को सारूप्यमुक्ति देने वाले, सुन्दर सिर पर सुशोभित मयूरपङ्ख समूह वाले, पवनागार में निवास करने वाले, भक्ति एवं विनम्रता से युक्त मैं स्वयं उनका आश्रय लेता हूँ । एकमेव मरुदालयाधिपं शोकनाशनपरायणं सताम् । सूकराकृतिधरं दिवौकसां श्रीकरं नरकनाशनं भजे ॥ ११॥ पवनागार के एकमात्र स्वामी, सज्जनों के दुःख दूर करने में सर्वथा लीन, सूकर का रूप धारण करने वाले, देवताओं को समृद्धि प्रदान करने वाले, नरकासुर का नाश करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण की मैं आराधना करता हूँ । ऐदम्पर्यं निगमवचसां निस्तुलानन्दसान्द्रं खेदध्वान्तप्रकरमिहिरं मारुतागारवासम् । वेदप्रोक्तप्रथितमहिमाम्भोनिधिं गोपिकानां मोदप्रोज्जृम्भणकृतमहं कृष्णमाराधयामि ॥ १२॥ वेद-शास्त्र-वचनों के मूल विषय, अतुलनीय आनन्द से घनीभूत, दुःखान्धकार समूह के लिए सूर्य, वेद-कथित विस्तृत गौरव के समुद्र, गोपियों के आनन्द वृद्धि कर्ता पवनागारवासी श्रीकृष्ण की मैं उपासना करता हूँ । ओङ्काररूपमतिसान्द्रकलायपाली सङ्काशवर्णमभिचूर्णितदुष्टलोकम् । पङ्कापहं मरुदगारपतिं जनानाम् । तङ्कापनोदनपरं परमाश्रयेऽहम् ॥ १३॥ ओङ्कार रूप, अत्यधिक घने कलाय पुष्प समूह-सदृश वर्ण (रङ्ग) वाले, अधम (दुष्ट) समूह को नष्ट करने वाले, भक्तों के पाप (कलुष) एवं कष्टों के अपहरण में तत्पर पवनालयेश का मैं आश्रय लेता हूँ । औपम्यहीनगुणमप्रतिमप्रभावं कापट्यहीनमनसामवलोकनीयम् । श्रीपद्मनाभमजनिं पवनालयेश- मापन्नलोकपरिपालकमाश्रयेऽहम् ॥ १४॥ अनुपम गुण वाले, अतुल्य प्रभाव वाले, निष्कपट मन वालों के द्वारा दर्शनीय, अजन्मा, पीडितों की रक्षा करने वाले, पद्मनाभ, पवनगृह के स्वामी श्रीकृष्ण का मैं आश्रय लेता हूँ । अम्भोजलोचनमवर्णगुणापदानं दम्भोलिपाणिमुखनिर्जरसेव्यमानम् । शम्भोरपि प्रियकरं मरुदालयेशं तं भोगमोक्षदमजस्रमुपाश्रयेऽहम् ॥ १५॥ कमल नेत्र, अवर्णनीय गुण-समूह वाले, इन्द्रादि प्रमुख देवताओं से सेवित, शिव का भी प्रिय करने वाले, भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाले पवनागार के स्वामी का मैं आश्रय लेता हूँ । अः पातु मारुतनिकेतननायको मा- मापादमस्तकमनोहरदिव्यरूपः । व्यापादितासुरगणः स निजाङ्घ्रिभाजा- मापादिताखिलसुखः सुतरामुपेन्द्रः ॥ १६॥ नख-शिख पर्यन्त सुन्दर एवं अलौकिक रूपवाले, असुर समूह को नष्ट करने वाले, अपने चरणों की सेवा करने वालों के लिए सम्पूर्ण सुखों को प्रदान करने वाले उपेन्द्र मेरी अत्यधिक रक्षा करें । करसरसिजराजत्कम्बुचक्रासिपद्मं नरकदनुजकालं सर्वलोकैकपालम् । दरहरममराणां मारुतागारवासं मुरमथनमजस्रं भावये भावनीयम् ॥ १७॥ नरकासुर के लिए यम-रूप, अखिल विश्व के एकमात्र रक्षक, देवतामों के भयनाशक, मुर नामक राक्षस के नाशकर्ता तथा ध्यान करने योग्य श्रीगुरुवायुपुरेश का मैं ध्यान करता हूँ, जिनके कर-कमल शङ्ख, चक्र, खड्ग तथा पद्म से सुशोभित हैं । खगाधिराजवाहनं व्रजाङ्गनाविमोहनं प्रगाढभक्तिशालिनामभीष्टकार्यदोहनम् । अगाधशेमुषीजुषाऽप्यचिन्तनीयवैभवं मृगाङ्ककोमलाननं भजे मरुत्पुरेश्वरम् ॥ १८॥ गरुडवाही, गोपाङ्गनाओं को प्रलोभित करने वाले, परम भक्तिसंयुत मानवों के अभीष्ट कार्य के पूर्ण कर्ता तथा प्रकाण्ड विद्वानों के द्वारा भी अचिन्तनीय समृद्धि से सम्पन्न उन श्रीगुरुवायुपुरेश की मैं आराधना करता हूँ, जिनका मुख चन्द्रमा के समान रमणीय है । गतविषयतृषां हृदब्जवासं विततमनोहरपिञ्छशोभिशीर्षम् । सततमसुमतां विभावनीयं कृतगुरुवायुपुराधिवासमीडे ॥ १९॥ विषय-तृष्णा रहित मनुष्यों के हृदय-कमलवासी, विस्तृत मोरपङ्ख से सुशोभित शिर वाले तथा साधुभावी मनुष्यों द्वारा सदा चिन्तनीय गुरुवायुपुरवासी श्रीकृष्ण की मैं स्तुति करता हूँ ॥ घनतरमुदमात्मभक्तिभाजां मनसि सदा जनयन्तमन्तहीनम् । विनतजनपरीतमाश्रयेऽहं विनयपुरस्सरमाशुगालयेशम् ॥ २०॥ निज भक्तों के हृदय में सदा अमित आनन्द के जनक, तथा अविनाशी, विनीत जनों से सदा परिवृत श्रीगुरुवायुपुरेश का मैं विनम्रतापूर्वक प्रश्रय लेता हूँ । ङश्यामकोमलकलेवरमब्जनाभं पश्यामि दिव्यमहसं पुरतः कदाऽहम् । वश्यात्मवासरसिकं विमलाशयानां दृश्याकृतिं गुरुसमीरपुराधिवासम् ॥ २१॥ कज्जल के सदृश रमणीय श्यामल शरीर वाले तथा आत्मसंयमी लोगों के हृदय में निवास करने में प्रसन्नता अनुभव करने वाले उन श्री गुरुवायुपुरेश को कब मैं अपने सम्मुख देखेङ्गा, जो निर्मल हृदय व्यक्तियों को दृष्ट हैं तथा जिनकी कान्ति दिव्य है । चरणयुगलनम्रान् सर्वदा पावनान्तः- करणयुतमनुष्यान् पालयन्तं नितान्तम् । निरयपतितसाधूनुद्धरन्तं भजेऽहं सुररिपुशमनं तं मारुतागारनाथम् ॥ २२॥ निज चरणयुगल में सतत विनत पवित्र अन्तःकरण वाले व्यक्तियों के सर्व प्रकार से परिपालक, नरक में पतित सज्जनों के उद्धारक तथा देव-शत्रु असुरों के संहारक श्रीगुरुवायुपुरेश की मैं माराधना करता हूँ । छलपशुपकुमारं सर्ववेदान्तसारं खलनिकरविदूरं सज्जनाम्भोजसूरम् । बलरिपुसहजातं नाशिताज्ञानजातं जलजनयनमीडे वातगेहाधिवासम् ॥ २३॥ कमल-नेत्र तथा श्रीगुरुवायुपुरनिवासी श्रीकृष्ण की मैं स्तुति करता हूँ, जो ग्वाल-बाल का छद्मवेश धारण करने वाले, सम्पूर्ण वेदान्त के तत्त्व, दुष्टों को अप्राप्य, सज्जनरूपी कमलों के लिए सूर्य के समान, इन्द्र के सहोदर भ्राता तथा अज्ञान समूह के विनाशक हैं । जनिमरणविहीनं स्तुत्यनानापदानं जनिमदवनलोलं पीतकौशेयचेलम् । अनिशमशरणानामाश्रयं भावयेऽहम् । मुनिहृदयनिवासं श्रीसमीरालयेशम् ॥ २४॥ जन्म-मृत्यु से रहित, प्रशंसनीय अनेक कार्यों को करने वाले, प्राणियों की रक्षा को उत्सुक, पीताम्बरधारी, असहायों के आश्रय तथा मुनि-मानस में निवास करने वाले श्रीगुरुवायुपुरेश का मैं ध्यान करता हूँ । झणत्क्वणितनूपुरं सुजनकीर्तितानेकसद्- गुणप्रकरसागरं प्रकटकान्तिदीप्राननम् । प्रणम्रजनरक्षकं समनुरक्तगोपाङ्गना- गणप्रमदकारणं मरुदगारवासं भजे ॥ २५॥ जिनके चरणों में नूपुर झङ्कृत हो रहे हैं, जो सज्जनों द्वारा प्रशंसित अनेकों गुणों के सागर हैं, जिनका मुख अमित प्राभा से देदीप्यमान है, जो प्रणत जनों की रक्षा करते हैं तथा जो प्रेमी गोपिकाओं के आनन्द के हेतुभूत हैं - ऐसे गुरुवायुपुरेश की मैं आराधना करता हूँ । अभञ्जनं दानवसैनिकानां प्रभञ्जनागारविराजमानम् । स्वभक्तलोकावनजागरूकविभग्नदुष्टप्रकरं भजेऽहम् ॥ २६॥ असुर सेना के विनाशक, निज भक्तों की रक्षा में सदा जागरूक, दुष्टों@ का संहार करने वाले तथा वायुगृह में विराजमान (श्रीकृष्ण) की मैं आराधना करता हूँ । टीके समीरपुरनायकमात्मभक्त- लोकेष्टदाननिरतं निरघाभिगम्यम् । नाकेशमुख्यसुरवन्दितपादपद्म- राकेन्दुसुन्दरमुखं वसुदेवसूनुम् ॥ २७॥ अपने भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान में तत्पर, निष्पाप व्यक्तियों द्वारा सुगम्य, इन्द्रादि प्रमुख देवताओं से आराधित चरण-कमल वाले, पूर्णचन्द्र सम सुन्दर मुख वाले गुरुवायुपुरेश श्रीकृष्ण की मैं स्तुति करता हूँ । ठमाननीयविग्रहं कृतामरारिनिग्रहं समानतेष्टदायकं समीरगेहनायकम् । सुमानवाभिनन्दितं सुराधिराजवन्दितं स्वमानसेऽभिवादये समस्तकार्यसिद्धये। ॥ २८॥ शिव द्वारा भी पूज्य विग्रह वाले, देवशत्रु असुरों का दमन करने वाले, भक्तों को अभिमत फल प्रदान करने वाले, सज्जनों द्वारा अभिनन्दित तथा इन्द्र द्वारा भी पूजित श्रीगुरुवायुपुरेश का मैं अपने सम्पूर्ण कार्यों की सिद्धि के लिए अपने मन में अभिवादन करता हूँ । डामरासुरविनाशनं महःस्तोमदीप्रममराभिसेवितम् । कोमलाननलसत्स्मितं मरुद्धामनायकमजस्रमाश्रये ॥ २९॥ जो भयङ्कर असुरों के विनाशक हैं, जो अतिशय कान्ति से देदीप्यमान हैं, देवताओं द्वारा सेव्य हैं तथा जिनका मृदुल मुख मन्दस्मित से सुशोभित है - उन श्रीगुरुवायुपुरेश का मैं निरन्तर आश्रय लेता हूँ । ढौकिताखिलजनाभयप्रदं नाकिपालकमुपेन्द्रमाश्रये । लौकिकेप्सितविहीनमानवालोकितं मरुदगारनायकम् ॥ ३०॥ अपने सभी शरणागतों को अभय प्रदान करने वाले, देवताओं के रक्षक, लौकिक कामना-रहित मनुष्यों के दर्शन के विषय श्रीगुरुवायुपुरेश का मैं आश्रय लेता हूँ । णं गोपिकानां महितर्षिचेतोरङ्गोपविष्टं पवनालयेशम् । गङ्गोदयस्थानविशिष्टपादं श‍ृङ्गोपमाङ्गाभमुपाश्रयेऽहम् ॥ ३१॥ गोपियों को सुख देने वाले, महर्षियों के मन-रूपी रङ्गमञ्च पर विराजमान तथा भ्रमर के समान अङ्ग की कान्ति वाले श्रीगुरुवायुपुरेश का मैं आश्रय लेता हूँ, जिनका अनुपम चरण, गङ्गा का उद्गमस्थल है । तमालनीलं तरुणारुणाभं क्षमागुणाम्भोनिधिमञ्जनाभम् । प्रमाथिनं दुष्टजनोत्कराणां समाश्रये मारुतमन्दिरेशम् ॥ ३२॥ जिनका वर्ण तमाल के समान नील है, जिनकी कान्ति नवोदित सूर्य के सदृश है, जो क्षमादि गुणों के सागर तथा दुष्टों के विनाशकर्ता हैं, उन श्री गुरुवायुपुरेश का मैं आश्रय लेता हूँ, जिनके शरीर की प्राभा कज्जन के सदृश है । थमादधानं वरपण्डितानां सुमानवानां चरणानतानाम् । समाहितान्तःकरणैर्निरीक्ष्यं नमामि देवं मरुदालयेशम् ॥ ३३॥ श्रेष्ठ विद्वानों, सज्जनों तथा निज चरणों में अवनत व्यक्तियों को रक्षा करने वाले तथा प्रशान्त अन्तःकरण से दृष्ट श्रीगुरुवायुपुरेश को मैं नमस्कार करता हूँ । दनुजान्वयनाशनं सदा सन्मनुजानामपवर्गदानदीक्षम् । विनुतं कविभिर्मरुत्पुरेशं तनुमन्मानवपुण्यमाश्रयेऽहम् ॥ ३४॥ असुर वंश का विनाश करने वाले, सज्जनों को मोक्ष प्रदान करने को सदा समुत्सुक, कवियों द्वारा प्रशंसित तथा मनुष्यों के मूर्तिमान् पुण्य-रूप गुरुवायुपुरेश श्रीकृष्ण का मैं आश्रय लेता हूँ । धाराधरोपमरुचिं रुचिराङ्गभासं श्रीराजमानवदनं मरुदालयेशम् । घोरासुरान्तकमपारकृपापयोधिं नारायणं नरसखं शरणं प्रपद्ये ॥ ३५॥ नवनीरद के समान श्यामकान्ति वाले, मनोहर अङ्ग से दीप्तिमान्, सौन्दर्य से सुशोभित मुख वाले तथा असुरों के लिए यम-रूप, अर्जुन के सखा नारायण (श्रीगुरुवायुपुरेश) की मैं शरण प्राप्त करता हूँ, जो कृपा के असीम सागर हैं । नतजनपरितापं सर्वमुन्मूलयन्तं शतमखमुखलेखान् सर्वदा पालयन्तम् । कृतयमनियमानां योगिनामीक्षणीयं विततरुचिविदीप्रं नौमि वातालयेशम् ॥ ३६॥ जो विनत भक्तों के सम्पूर्ण दुःखों का उन्मूलन करते हैं तथा इन्द्रादि प्रमुख देवताओं की सदा रक्षा करते हैं, यम-नियम का पालन करने वाले योगियों को सदा दृष्ट तथा व्यापक तेज से देदीप्यमान हैं - ऐसे गुरुवायुपुरेश को मैं नमस्कार करता हूँ । पवनपुरनिवासं वासुदेवं कवीनां कवनविषयभूतं भूतजालैकपालम् । अवनविधिसमर्थं स्वाङ्घ्रिभाजां यशोदा- भवनविहितलीलं बालकृष्णं भजेऽहम् ॥ ३७॥ कवियों के काव्य के विषयभूत, प्राणीमात्र के एकमेव पालक, निज चरणागतों की रक्षा करने में समर्थ, यशोदा-गृह में क्रीडा करने वाले, पवनालयेश बालकृष्ण की मैं आराधना करता हूँ । फणिशायिनमाशुगालयेशं घृणिराजन्महनीयदिव्यरूपम् । प्रणिधानपरायणाभिदृश्यं प्रणिपत्यानिशमाश्रये मुकुन्दम् ॥ ३८॥ शेषनाग पर शयन करने वाले, तेज से देदीप्यमान, महान् अलौकिक स्वरूप वाले पवनालयेश मुकुन्द को मैं नमस्कार करता हूँ तथा उनका आश्रय लेता हैं, जो एकाग्रचित्त वाले व्यक्तियों को पुष्ट हैं । बलदेवसहोदरं मुरारिं खललोकैरनिरीक्ष्यमक्षताभम् । छलगोपशिशुं मरुत्पुरेशं जलजाक्षं सततं समाश्रयेऽहम् ॥ ३९॥ बलराम के अनुज, दुष्ट मनुष्यों को अदृष्ट, अक्षीण कान्तिवाले, कपटी गोप बालक का रूप धारण करने वाले तथा कमल से नेत्र वाले मरुत्पुरेश (मुरारि) का मैं निरन्तर आश्रय लेता हूँ । भुवनैकनियामकं व्रजस्त्रीभवनस्तोमकृतात्मबाललीलम् । भवतापहरं सतां नितान्तं पवमानालयनायकं भजेऽहम् ॥ ४०॥ मैं पवनगृहपति की उपासना करता हूँ, जो विश्वनियन्ता, व्रजाङ्गनाओं के प्राङ्गण में बाल-सुलभ लीलाएं करने वाले तथा सज्जनों के समस्त सांसारिक कष्टों के अपहर्ता हैं । मददूषितमानसानवेक्ष्यं मदनारेरपि मोदमादधानम् । कदनापनुदं नृणां नभस्वत्सदनाधीशमुपाश्रयेऽनुवेलम् ॥ ४१॥ कामारि शिव को आह्लादित करने वाले तथा मनुष्यों के पापों को दूर करने वाले वायुगृहपति का मैं बारम्बार आश्रय लेता है, जो अहङ्कार से मलिन मन वाले व्यक्तियों के लिए अनवलोकनीय हैं । यदुकुलार्णवपूर्णनिशाकरं विदुरकीर्तितदिव्यगुणोत्करम् । मृदुलपीतदुकूलमृभुद्विषां भिदुरमाशुगवेश्मपतिं भजे ॥ ४२॥ यदुवंश-रूपी सागर के लिए पूर्णेन्दु, विद्वानों द्वारा स्तुत दिव्य गुणों वाले, कोमल पीताम्बर धारण करने वाले, देवशत्रु राक्षसों का विनाश करने वाले पवनालयेश को मैं आराधना करता हूँ । राजीवलोचन हरे भगवन् नवाभ्र- राजीसवर्ण गुरुवायुपुरेश शौरे । जेजीयमानमहिमन्नखिलामरारि- जाजीन्धनानल कृपालय पालयैनम् ॥ ४३॥ कमलनयन, नवीन मेघ के समान (श्याम) वर्ण वाले, सम्पूर्ण दानवों की सेना-रूपी इन्धन के लिए अग्नि स्वरूप, प्रशस्त महिमा वाले, दया के आगार, हे भगवान् गुरुवायुपुरेश ! मेरी रक्षा कीजिए । लीलाविशेषविषयीकृतगोपवाटं नीलारविन्दनिभनिर्मलनीलभासम् । वेलातिरिक्तकरुणार्णवमाश्रयेऽहं नीलालकाञ्चितमुखं मरुदालयेशम् ॥ ४४॥ गोपों के अहातों को अपनी क्रीडा का विषय बनाने वाले तथा नील-कमल के समान निर्मल, श्याम कान्ति वाले पवनालयेश का मैं आश्रय लेता हूँ, जो असीम करुणा के सागर हैं तथा जिनका मुख, काले घुङ्घराले बालों से शोभायमान है । विनताश्रितपालनैकदीनं विनतानन्दनवाहनं रमेशम् । जनतापनुदं जनार्दनं तं मनसाऽहं कलये मरुत्परेशम् ॥ ४५॥ मैं जनार्दन (वायुपुरेश) का मन से चिन्तन करता हूँ, जो विनत शरणागतों की रक्षा करने में तत्पर रहते हैं, विनतापुत्र गरुड जिनका वाहन है, जो रमापति हैं तथा मानवमात्र के दुःख दूर करते हैं । शकटासुरनाशनं जनानां प्रकटानन्ददमाशुगालयेशम् । निकटागतलोकपारिजातं विकटाधृष्यमजस्रमाश्रयेऽहम् ॥ ४६॥ शकट नामक दैत्य का वध करने वाले, अपने (भक्त) जनों को आनन्द प्रदान करने वाले, शरणागतों के (इच्छानुरूप फल देने वाला) पारिजातक वृक्ष तथा दुष्ट मनुष्यों के लिए अगम्य हे वातालयेश ! मैं अपका निरन्तर प्राश्रय लेता हूँ । षडङ्घ्रिमात्माङ्गरुचाऽतिवेलं विडम्बयन्तं पवनालयेशम् । अडम्बरावाप्यमजस्रमीडे तृडंशहीनैर्मुनिभिर्निरीक्ष्यम् ॥ ४७॥ भ्रमरोपम कान्ति वाले वातालयेश की मैं निरन्तर स्तुति करता हूँ, जो अहङ्कार-रहित मानव को ही प्राप्य हैं तथा निरीह (इच्छारहित) मुनिजन हो जिनका दर्शन करने में सक्षम हैं । सततं भवदीयपादसेवावितताशं विविधार्तिपीडितं माम् । वितनुष्व निकाममाप्तकामं श्रितरक्षापर वातगेहवासिन् ॥ ४८॥ अपने आश्रित जनों की रक्षा में तत्पर हे गुरुवायुपुरेश, मैं नाना प्रकार के दुःखों से आक्रान्त आप पादाम्बुजों की निरन्तर सेवा का अत्यधिक आकाङ्क्षी हूँ । आप मेरी समस्त कामनाओं को पूर्ण कीजिए ॥ हतदितिसुतजाल भक्तलोकावृत पवमानपुरेश विश्वमूर्ते । अतनुतनुरुचा जितोद्यदर्कयुत परिपालय मां दयापयोधे ॥ ४९॥ हे असुर-समूह को नष्ट करने वाले, निज भक्तों से आवृत, विश्वमूति, शरीर की प्रभूत कान्ति से सहस्रों उदीयमान सूर्यों को हतप्रभ करने वाले, दयासिन्धु पवनालयेश ! मेरी रक्षा कीजिए । ळमध्याकराजल्ललाटं स्वगानक्रमप्रीणिताशेषगोपीकदम्बम् । नमस्यार्हमीशादिकानां भजेऽहं समस्तेष्टदं वातगेहाधिवासम् ॥ ५०॥ मैं श्रीगुरुवायुपुरेश की उपासना करता हूँ, जिनका मस्तक घुङ्घराले बालों से सुशोभित है, जो अपने मधुर गान से समस्त गोपियों को मुग्ध करते हैं, जो शिव आदि देवों के भी वन्दनीय हैं तथा (निज भक्तों को) समस्त अभिलषित पदार्थ प्रदान करते हैं । क्षन्तव्यो मेऽपराधः पवनपुरपते स्तोत्रनिर्मातुरेवं मन्तव्योऽहं विमूढः शिशुरिति भवता भक्तवात्सल्यराशे । अन्तर्भक्त्याद्य वर्णक्रमरचितमिमं स्तोत्ररूपं प्रबन्धं स्वान्तप्रीत्या गृहाण प्रविहितजगदामोद दामोदर त्वम् ॥ ५१॥ हे पवनपुरपते ! स्तोत्रनिर्माण के मेरे इस अपराध को क्षमा कीजिए । भक्त पर अपार स्नेह करने वाले, अप मुझे मूर्ख बालक के समान समझे । संसार को आनन्द प्रदान करने वाले हे दामोदर ! अब आप हार्दिक भक्ति द्वारा वर्णक्रमानुसार रचित इस स्तोत्ररूप प्रबन्ध को स्वान्तप्रीति से स्वीकार कीजिए । इति द्वितीयो भागः । Encoded and proofread by PSA Easwaran
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% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Transliterated by     : PSA Easwaran
% Proofread by          : PSA Easwaran
% Latest update         : February 8, 2018
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