श्रीविष्णोः प्रातःस्मरणम्
प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्त्तिशान्त्यै
नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम् ।
ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुं
चक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम् ॥ १॥
प्रातर्नमामि मनसा वचसा च मूर्ध्ना
पादारविन्दयुगलं परमस्य पुंसः ।
नारायणस्य नरकार्णवतारणस्य
पारायणप्रवणविप्रपरायणस्य ॥ २॥
प्रातर्भजामि भजतामभयङ्करं तं
प्राक्सर्वजन्मकृतपापभयापहत्यै ।
यो ग्राहवक्त्रपतिताङ्घ्रिगजेन्द्रघोर-
शोकप्रणाशनकरो धृतशङ्खचक्रः ॥ ३॥
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं प्रातः प्रातः पठेत्तु यः ।
लोकत्रयगुरुस्तस्मै दद्यादात्मपदं हरिः ॥ ४॥
॥ इति श्रीविष्णोः प्रातःस्मरणम् ॥
मैं भवभयरूप महारोग को उपशम करने के लिए गरुडवाहन,
पद्मनाभ, ग्राह के द्वारा अभिभूत गजेन्द्र मोक्षणकारी, चक्रास्त्रधारी,
नवीनकमलदललोचन, श्रीनारायण का स्मरण प्रातःकाल में करता
हूँ ॥ १॥
जो वेदाध्ययनशील विप्रवर्ग का एकमात्र आश्रय है, मैं प्रातःकाल
में मनः, वाक्य एवं मस्तक के द्वारा नरकार्णवतारण, परमपुरुष
श्रीनारायण के पादपद्मयुगल को प्रणाम करता हूँ ॥ २॥
ग्राहग्रस्त गजराज दारुण शोक से अभिभूत होने पर जिन्होंने
शङ्क-चक्र धारणपूर्वक गजराज के शोक को विदूरित किया था, मैं
जन्मासरीण निखिल पापभय विनाशार्थ भक्तभयापहारक का प्रातःकाल
में भजन करता हूँ ॥ ३॥
जो व्यक्ति प्रत्यूष में पवित्र श्लोकत्रय का पाठ करता है, लोकत्रय
के गुरु उनको निज आत्मपद प्रदान करते हैं ॥ ४॥
Encoded and proofread by Sunder Hattangadi