गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका

गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका

॥ राम ॥ विषयानुक्रमणिका विषय पदाङ्क विषय पदाङ्क श्री गणेश-स्तुति १ श्री राम स्तुति ४३-४५ सूर्य-स्तुति २ श्रीराम-नाम-वन्दना ४६ शिव-स्तुति ३-१४ श्रीराम-आरती ४७-४८ देवी-स्तुति १५-१६ हरिशङ्करी-पद ४९ गङ्गा-स्तुति १७-२० श्रीराम-स्तुति ५.५६ यमुना-स्तुति २१ श्रीरंग-स्तुति ५७-५९ काशी-स्तुति २२ श्रीनर-नारायण-स्तुति ६० चित्रकूट-स्तुति २३-२४ श्रीविन्दुमाधव-स्तुति ६१-६३ हनुमत्-स्तुति २५-३६ श्रीरामवन्दना ६४ लक्ष्मण-स्तुति ३७-३८ श्रीराम-नाम-जप ६५-७० भरत-स्तुति ३९ विनयावली ७१-२७९ शत्रुघ्न-स्तुति ४० --- --- श्रीसीता-स्तुति ४१-४२ --- --- राग-सूचौ आसावरी ६२,१८३-१८८ बिहाग १०७-१३४ कल्याण २०८-२११,२१४-२७९ भैरव २२,६५-७३ कान्हरा २४,२०४-२०७ भैरवी १९८-२०३ केदारा ४१-४४,२१२-२१३ मलार १६१ गौरी ३१,३६,४५,१८९-१९७ मारु १५ जैतश्री ६३,८३-८४ रामकली ६-९,१६-२०,४६-६१,१०६ टोड़ी ७८-८२ ललित ७५-७७ दण्डक ३७ विभास ७४ धनाश्री ४-५,१.१२,२५-२९, सारंग ३०,१५५-१५७ ३८-४०,८५-१०५ सूहो बिलावल १३५-१३६ नट १५८-१६० सोरठ १६२-१७८ बसन्त १३-१४,२३,६४ --- --- बिलावल १-३,२१,३२-३५,१०७, --- --- १३४,१३७-१५४,१७९-१८२ --- --- ॥ राम ॥ ॥ श्री हनुमते नमः ॥ दो० श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ॥ बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौ पवन-कुमार। बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस बिकार ॥ चौपाई जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥ राम दूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥ महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी ॥ कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा ॥ हाथ बज्र और ध्वजा बिराजै। काँधे मूँज जनेऊ साजै ॥ संकर सुवन केसरीनंदन। तेज प्रताप महा जग बंदन ॥ बिद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर ॥ प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया ॥ सूक्ष्म रुप धरि सियहि दिखावा। बिकट रुप धरि लंक जरावा ॥ भीम रुप धरि असुर सँहारे। रामचन्द्र के काज सँवारे ॥ लाय संजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥ रघुपति कीन्ही बहुत बडाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥ सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥ सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा ॥ जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥ तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥ तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना। लंकेश्वर भए सब जग जाना ॥ जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥ प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही। जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥ दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥ राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥ सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रच्छक काहु को डरना ॥ आपन तेज संहारो आपै। तीनो लोक हाँक ते काँपै ॥ भूत पिसाच निकट नहि आवै। महाबीर जब नाम सुनावै ॥ नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥ संकट तें हनुमान छुडावैं। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥ सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा ॥ और मनोरथ जो कोई लावै। सोइ अमित जीवन फल पावै ॥ चारो जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा ॥ साधु संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे ॥ अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता ॥ राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा ॥ तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख बिसरावै ॥ अंत काल रघुबर पुर जाई। जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥ और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ॥ संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥ जै जै जै हनुमान गोसाई। कृपा करहु गुरुदेव की नाई ॥ जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बंदि महासुख होई ॥ जो यह पढै हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥ तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥ दो० पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप। राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ॥ ॥ इति ॥ सियावर रामचन्द्र की जय। पवनसुत हनुमान की जय ॥ उमापति महादेव की जय। बोलो भाइ सब संतन्ह की जय ॥ ॥ श्री सीतारामाभ्यां नमः ॥ विनय-पत्रिका राग बिलावल श्रीगणेश-स्तुति १ गाइये गनपति जगबंदन। संकर-सुवन भवानी नंदन ॥ १ ॥ सिद्धि-सदन, गज बदन, बिनायक। कृपा-सिंधु,सुंदर सब-लायक ॥ २ ॥ मोदक-प्रिय, मुद-मंगल-दाता। बिद्या-बारिधि,बुद्धि बिधाता ॥ ३ ॥ माँगत तुलसिदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥ ४ ॥ सूर्य-स्तुति २ दीन-दयालु दिवाकर देवा। कर मुनि,मनुज,सुरासुर सेवा ॥ १ ॥ हिम-तम-करि केहरि करमाली। दहन दोष-दुख-दुरित-रुजाली ॥ २ ॥ कोक-कोकनद-लोक-प्रकासी। तेज-प्रताप-रूप-रस-रासी ॥ ३ ॥ सारथि-पंगु,दिब्य रथ-गामी। हरि-संकर-बिधि-मूरति स्वामी ॥ ४ ॥ बेद पुरान प्रगट जस जागै। तुलसी राम-भगति बर माँगै ॥ ५ ॥ शिव स्तुति ३ को जाँचिये संभु तजि आन। दीनदयालु भगत-आरति-हर,सब प्रकार समरथ भगवान ॥ १ ॥ कालकूट-जुर जरत सुरासुर,निज पन लागि किये बिष पान। दारुन दनुज,जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान ॥ २ ॥ जो गति अगम महामुनि दुर्लभ,कहत संत,श्रुति,सकल पुरान। सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान ॥ ३ ॥ सेवत सुलभ,उदार कलपतरु,पारबती-पति परम सुजान। देहु काम-रिपु राम-चरन-रति,तुलसिदास कहँ कृपानिधान ॥ ४ ॥ राग धनाश्री ४ दानी कहुँ संकर-सम नाहीं। दीन-दयालु दिबोई भावै,जाचक सदा सोहाहीं ॥ १ ॥ मारिकै मार थप्यौ जगमें,जाकी प्रथम रेख भट माहीं। ता ठाकुरकौ रीझि निवाजिबौ,कह्यौ क्यों परत मो पाहीं ॥ २ ॥ जोग कोटि करि जो गति हरिसों,मुनि माँगत सकुचाहीं। बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर,कीट पंतग समाहीं ॥ ३ ॥ ईस उदार उमापति परिहरि,अनत जे जाचन जाहीं। तुलसिदास ते मूढ़ माँगने,कबहुँ न पेट अघाहीं ॥ ४ ॥ ५ बावरो रावरो नाह भवानी। दानि बड़ो दिन देत दये बिनु,बेद-बडाई भानी ॥ १ ॥ निज घरकी बरबात बिलोकहु,हौ तुम परम सयानी। सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी ॥ २ ॥ जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी। तिन रंकनकौ नाक सँवारत,हौं आयो नकबानी ॥ ३ ॥ दुख-दीनता दुखी इनके दुख,जाचकता अकुलानी। यह अधिकार सौपिये औरहिं,भीख भली मैं जानी ॥ ४ ॥ प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत,सुनि बिधिकी बर बानी। तुलसी मुदित महेस मनहिं मन,जगत-मातु मुसुकानी ॥ ५ ॥ राग रामकली ६ जाँचिये गिरिजापति कासी। जासु भवन अनिमादिक दासी ॥ १ ॥ औढर-दानि द्रवत पुनि थोरें। सकत न देखि दीन करजोरे ॥ २ ॥ सुख-संपति,मति-सुगति सुहाई। सकल सुलभ संकर-सेवकाई ॥ ३ ॥ गये सरन आरतिकै लीन्हे। निरखि निहाल निमिषमहँ कीन्हे ॥ ४ ॥ तुलसिदास जाचक जस गावै। बिमल भगति रघुपतिकी पावै ॥ ५ ॥ ७ कस न दीनपर द्रवहु उमाबर। दारुन बिपति हरन करुनाकर ॥ १ ॥ बेद-पुरान कहत उदार हर। हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर ॥ २ ॥ कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज। होइ प्रसन्न दीन्हेहु सिव पद निज ॥ ३ ॥ जो गति अगम महामुनि गावहिं। तव पुर कीट पतंगहु पावहिं ॥ ४ ॥ देहु काम-रिपु ! राम -चरन-रति। तुलसिदास प्रभु ! हरहु भेद-मति ॥ ५ ॥ ८ देव बड़े,दाता बड़े, संकर बड़े भोरे। किये दूर दुख सबनिके, जिन्ह-जिन्ह कर जोरे ॥ १ ॥ सेवा, सुमिरन, पूजिबौ, पात आखत थोरे। दिये जगत जहँ लगि सबै,सुख,गज,रथ,घोरे ॥ २ ॥ गावँ बसत बामदेव, मैं कबहूँ न निहोरे। अधिभौतिक बाधा भई, ते किंकर तोरे ॥ ३ ॥ बेगि बोलि बलि बरजिये, करतूति कठोरे। तुलसी दलि, रूँध्यो चहैं सठ साखि सिहोरे ॥ ४ ॥ ९ सिव! सिव! होइ प्रसन्न करु दाया। करुनामय उदार कीरति,बलि जाउँ हरहु निज माया ॥ १ ॥ जलज-नयन,गुन-अयन,मयन-रिपु,महिमा जान न कोई। बिनु तव कृपा राम-पद-पंकज, सपनेहुँ भगति न होई ॥ २ ॥ रिषय,सिद्ध,मुनि,मनुज,दनुज,सुर,अपर जीव जग माहीं। तव पद बिमुख न पार पाव कोउ, कलप कोटि चलि जाहीं ॥ ३ ॥ अहिभूषन,दूषन-रिपु-सेवक, देव-देव, त्रिपुरारी। मोह-निहार-दिवाकर संकर, सरन सोक-भयहारी ॥ ४ ॥ गिरिजा-मन-मानस-मराल, कासीस, मसान-निवासी। तुलसिदास हरि-चरन-कमल-बर, देहु भगति अबिनासी ॥ ५ ॥ राग धनाश्री १० देव, मोह-तम-तरणि,हर,रुद्र,संकर,शरण,हरण,मम शोक लोकाभिरामं। बाल-शशि-भाल,सुविशाल लोचन-कमल, काम-सतकोटि-लावण्य-धामं ॥ १ ॥ कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-विग्रह रुचिर, तरुण-रवि-कोटि तनु तेज भ्राजै। भस्म सर्वांग अर्धांग शैलात्मजा, व्याल-नृकपाल-माला विराजै ॥ २ ॥ मौलिसंकुल जटा-मुकुट विद्युच्छटा, तटिनि-वर-वारि हरि-चरण-पूतं। श्रवण कुंडल,गरल कंठ, करुणाकंद,सच्चिदानंद वंदेऽवधूतं ॥ ३ ॥ शूल-शायक पिनाकासि-कर,शत्रु-वन-दहन इव धूमध्वज,वृषभ-यानं। व्याघ्र-गज-चर्म-परिधान,विज्ञान-घन,सिद्ध-सुर-मुनि-मनुज-सेव्यमानं ॥ ४ ॥ तांडवित-नृत्यपर,डमरु डिंडिम प्रवर,अशुभ इव भाति कल्याणाराशी। महाकल्पांत ब्रह्मांड-मंडल-दवन, भवन कैलास, आसीन काशी ॥ ५ ॥ तज्ञ,सर्वज्ञ,यज्ञेश, अच्युत,विभो,विश्व भवदंशसंभव पुरारी। ब्रह्मेंद्र,चंद्रार्क,वरुणाग्नि,वसु,मरुत,यम,अर्चि भवदंघ्नि सर्वाधिकारी ॥ अकल, निरुपाधि,निर्गुण,निरंजन,ब्रह्म, कर्म-पथमेकमज निर्विकारं। अखिलविग्रह,उग्ररूप,शिव,भूपसुर, सर्वगत,शर्व सर्वोपकारं ॥ ७ ॥ ज्ञान-वैराग्य,धन-धर्म,कैवल्य-सुख, सुभग सौभाग्य शिव!सानुकूलं। तदपि नर मूढ आरूढ संसार-पथ, भ्रमत भव,विमुख तव पादमूलं ॥ ८ ॥ नष्टमति,दुष्ट अति,कष्ट-रत,खेद-गत, दास तुलसी शंभु-शरण आया। देहि कामारि! श्रीराम-पद-पंकज भक्ति अनवरत गत-भेद-माया ॥ ९ ॥ भैरवरूप शिव-स्तुति ११ देव, भीषणाकार,भैरव,भयंकर,भूत-प्रेत-प्रमथाधिपति,विपति-हर्ता। मोह-मूषक-मार्जार,संसार-भय-हरण,तारण-तरण,अभय कर्ता ॥ १ ॥ अतुल बल, विपुलविस्तार,विग्रहगौर, अमल अति धवल धरणीधराभं। शिरसि संकुलित-कल-जूट पिंगलजटा, पटल शत-कोटि-विद्युच्छटाभं ॥ २ ॥ भ्राज विबुधापगा आप पावन परम, मौलि-मालेव शोभा विचित्रं। ललित लल्लाटपर राज रजनीशकल, कलाधर,नौमि हर धनद-मित्रं ॥ ३ ॥ इंदु-पावक-भानु-नयन,मर्दन-मयन, गुण-अयन,ज्ञान-विज्ञान-रूपं। रमण-गिरिजा,भवन भूधराधिप सदा, श्रवण कुंडल,वदनछवि अनूपं ॥ ४ ॥ चर्म-असि-शूल-धर,डमरु-शर-चाप-कर, यान वृषभेश,करुणा-निधानं। जरत सुर-असुर,नरलोक शोकाकुलं, मृदुलचित,अजित,कृत गरलपानं ॥ ५ ॥ भस्म तनु-भूषणं,व्याघ्र-चर्माम्बरं, उरग-नर-मौलि उर मालधारी। डाकिनी,शाकिनी,खेचरं,भूचरं, यंत्र-मंत्र-भंजन,प्रबल कल्मषारी ॥ ६ ॥ काल-अतिकाल,कलिकाल,व्यालादि-खग, त्रिपुर-मर्दन,भीम-कर्म भारी। सकल लोकान्त-कल्पान्त शूलाग्र कृत दिग्गजाव्यक्त-गुण नृत्यकारी ॥ ७ ॥ पाप-संताप-घनघोर संसृति दीन, भ्रमत जग योनि नहिं कोऽपि त्राता। पाहि भैरव-रूप राम-रूपी रुद्र,बंधु,गुरु,जनक,जननी,विधाता ॥ ८ ॥ यस्य गुण-गण गणति विमल मति शारधा,निगम नारद-प्रमुख ब्रह्मचारी। शेष,सर्वेश,आसीन आनंदवन,दास टुलसी प्रणत-त्रासहारी ॥ ९ ॥ १२ सदा- शंकरं,शंप्रदं,सज्जनानंददं,शैल-कन्या-वरं,परमरम्यं। काम-मदमोचनं,तामरस-लोचनं,वामदेवं भजे भावगम्यं ॥ १ ॥ कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं,सुंदरं, सच्चिदानंदकंदं। सिद्ध-सनकादि-योगींद्र-वृंदारका,विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं ॥ २ ॥ ब्रह्म-कुल-वल्लभं,सुलभ मति दुर्लभं,विकट-वेषं,विभुं,वेदपारं। नौमि करुणाकरं,गरल-गंगाधरं,निर्मलं,निर्गुणं,निर्विकारं ॥ ३ ॥ लोकनाथं,शोक-शूल-निर्मूलिनं,शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं। कालकालं,कलातीतमजरं हरं,कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं ॥ ४ ॥ तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं, सर्वगं, सर्वसौभाग्यमूलं। प्रचुर-भव-भंजनं,प्रणत-जन-रंजनं,दास तुलसी शरण सानुकूलं ॥ ५ ॥ १३ राग वसन्त सेवहु सिव-चरन-सरोज-रेनु। कल्यान-अखिल-प्रद कामधेनू ॥ १ ॥ कर्पूर-गौर, करुना-उदार। संसार-सार,भुजगेन्द्र-हार ॥ २ ॥ सुख-जन्मभूमि,महिमा अपार। निर्गुन, गुननायक,निराकार ॥ ३ ॥ त्रयनयन,मयन-मर्दन महेस। अहँकार निहार-उदित दिनेस ॥ ४ ॥ बर बाल निसाकर मौलि भ्राज। त्रैलोक-सोकहर प्रमथराज ॥ ५ ॥ जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल। तिन्ह की गति कासीपति कृपाल ॥ ६ ॥ उपकारी कोऽपर हर-समान। सुर-असुर जरत कृत गरल पान ॥ ७ ॥ बहु कल्प उपायन करि अनेक। बिनु संभु-कृपा नहिं भव-बिबेक ॥ ८ ॥ बिग्यान-भवन,गिरिसुता-रमन। कह तुलसिदास मम त्राससमन ॥ ९ ॥ १४ देखो देखो, बन बन्यो आजु उमाकंत। मानों देखन तुमहिं आई रितु बसंत ॥ १ ॥ जनु तनुदुति चंपक-कुसुम-माल। बर बसन नील नूतन तमाल ॥ २ ॥ कलकदलि जंघ, पद कमल लाल। सूचत कटि केहरि, गति मराल ॥ ३ ॥ भूषन प्रसून बहु बिबिध रंग। नूपूर किंकिनि कलरव बिहंग ॥ ४ ॥ कर नवल बकुल-पल्लव रसाल। श्रीफल कुच, कंचुकिलता-जाल ॥ ५ ॥ आनन सरोज, कच मधुप गुंज। लोचन बिसाल नव नील कंज ॥ ६ ॥ पिक बचन चरित बर बर्हि कीर। सित सुमन हास,लीला समीर ॥ ७ ॥ कह तुलसिदास सुनु सिव सुजान। उर बसि प्रपंच रचे पंचबान ॥ ८ ॥ करि कृपा हरिय भ्रम-फंद काम। जेहि हृदय बसहिं सुखरासि राम ॥ ९ ॥ देवी-स्तुति राग मारू १५ दुसह दोष-दुख,दलनि, करु देवि दाया। विश्व-मूलाऽसि,जन-सानुकूलाऽसि,कर शूलधारिणि महामूलमाया ॥ १ ॥ तडित गर्भाङ्ग सर्वाङ्ग सुन्दर लसत, दिव्य पट भव्य भूषण विराजैं। बालमृग-मंजु खंजन-विलोचनि,चन्द्रवदनि लखि कोटि रतिमार लाजैं ॥ २ ॥ रूप-सुख-शील-सीमाऽसि,भीमाऽसि,रामाऽसि,वामाऽसि वर बुद्धि बानी। छमुख हेरंब-अंबासि,जगदंबिके,शंभु-जायासि जय जय भवानी ॥ ३ ॥ चंड-भुजदंड-खंडनि,बिहंडनि महिष मुंड-मद-भंग कर अंग तोरे। शुंभ-निःशुंभ कुम्भीश रण-केशरिणि,क्रोध-वारीश अरि-वृन्द बोरे ॥ ४ ॥ निगम-आगम-अगम गुर्वि!तव गुन-कथन, उर्विधर करत जेहि सहसजीहा। देहि मा,मोहि पन प्रेम यह नेम निज, राम घनश्याम तुलसी पपीहा ॥ ५ ॥ राग रामकली १६ जय जय जगजननि देवि सुर-नर-मुनि-असुर-सेवि, भुक्ति-मुक्ति-दायनी,भय-हरणि कालिका। मंगल-मुद-सिद्धि-सदनि,पर्वशर्वरीश-वदनि, ताप-तिमिर-तरुण-तरणि-किरणमालिका ॥ १ ॥ वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल-शेल-धनुषबाण, धरणि,दलनि दानव-दल,रण-करालिका। पूतना-पिंशाच-प्रेत-डाकिनी-शाकिनी-समेत, भूत-ग्रह-बेताल-खग-मृगालि-जालिका ॥ २ ॥ जय महेश-भामिनी, अनेक-रूप-नामिनी, समस्त-लोक-स्वामिनी,हिमशैल-बालिका। रघुपति-पद परम प्रेम,तुलसी यह अचल नेम, देहु ह्वै प्रसन्न पाहि प्रणत-पालिका ॥ ३ ॥ गंगा-स्तुति राग रामकली १७ जय जय भगीरथनन्दिनि,मुनि-चय चकोर-चन्दिनि, नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जह्नु बालिका। बिस्नु-पद-सरोजजासि,ईस-सीसपर बिभासि, त्रिपथगासि,पुन्यरासि,पाप-छालिका ॥ १ ॥ बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि, भँवर बर बिभंगतर तरंग-मालिका। पुरजन पूजोपहार,सोभित ससि धवलधार, भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका ॥ २ ॥ निज तटबासी बिहंग, जल-थल-चर पसु-पतंग, कीट,जटिल तापस सब सरिस पालिका। तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस-बीर, बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका ॥ ३ ॥ १८ जयति जय सुरसरी जगदखिल-पावनी। विष्णु-पदकंज-मकरंद इव अम्बुवर वहसि,दुख दहसि,अघवृन्द-विद्राविनी ॥ १ ॥ मिलितजलपात्र-अजयुक्त-हरिचरणरज,विरज-वर-वारि त्रिपुरारि शिर-धामिनी। जह्नु-कन्या धन्य,पुण्यकृत सगर-सुत,भूधरद्रोणि-विद्दरणि,बहुनामिनी ॥ २ ॥ यक्ष,गंधर्व,मुनि,किन्नरोरग,दनुज,मनुज मज्जहिं सुकृत-पुंज युत-कामिनी। स्वर्ग-सोपान,विज्ञान-ज्ञानप्रदे,मोह-मद-मदन-पाथोज-हिमयामिनी ॥ ३ ॥ हरित गंभीर वानीर दुहुँ तीरवर,मध्य धारा विशद,विश्व अभिरामिनी। नील-पर्यक-कृत-शयन सर्पेश जनु,सहस सीसावली स्त्रोत सुर-स्वामिनी ॥ ४ ॥ अमित-महिमा,अमितरूप,भूपावली-मुकुट-मनिवंद्य त्रेलोक पथगामिनी। देहि रघुबीर-पद-प्रीति निर्भर मातु, दासतुलसी त्रासहरणि भवभामिनी ॥ ५ ॥ १९ हरनि पाप त्रिबिध ताप सुमिरत सुरसरित। बिलसति महि कल्प-बेलि मुद-मनोरथ-फरित ॥ १ ॥ सोहत ससि धवल धार सुधा-सलिल-भरित। बिमलतर तरंग लसत रघुबरके-से चरित ॥ २ ॥ तो बिनु जगदंब गंग कलिजुग का करित ? घोर भव अपारसिंधु तुलसी किमि तरित ॥ ३ ॥ २० ईस-सीस बससि, त्रिपथ लससि, नभ-पताल-धरनि। सुर-नर-मुनि-नाग-सिद्ध-सुजन मंगल-करनि ॥ १ ॥ देखत दुख-दोष-दुरित-दाह-दारिद-दरनि। सगर-सुवन साँसति-समनि,जलनिधि जल भरनि ॥ २ ॥ महिमाकी अवधि करसि बहु बिधि हरि-हरनि। तुलसी करु बानि बिमल, बिमल बारि बरनि ॥ ३ ॥ यमुना-स्तुति राग बिलावल २१ जमुना यों ज्यों ज्यों लागी बाढ़न। त्यों त्यों सुकृत-सुभट कलि भूपहिं, निदरि लगे बहु काढ़न ॥ १ ॥ ज्यों ज्यों जल मलीन त्यों त्यों जमगन मुख मलीन लहै आढ़ न। तुलसिदास जगदघ जवास ज्यों अनघमेघ लगे डाढ़न ॥ २ ॥ काशी-स्तुति राग भैरव २२ सेइअ सहित सनेह देह भरि, कामधेनु कलि कासी। समनि सोक-संताप-पाप-रुज,सकल-सुमंगल-रासी ॥ १ ॥ मरजादा चहुँओर चरनबर,सेवत सुरपुर-बासी। तीरथ सब सुभ अंग रोम सिवलिंग अमित अबिनासी ॥ २ ॥ अंतराइन ऐन भल,थन फल, बच्छ बेद-बिस्वासी। गलकंबल बरुना बिभाति जनु,लूम लसति,सरिताऽसी ॥ ३ ॥ दंडपानि भैरव बिषान, मलरुचि-खलगन-भयदा-सी। लोलदिनेस त्रिलोचन लोचन,करनघंट घंटा-सी ॥ ४ ॥ मनिकर्निका बदन-ससि सुंदर,सुरसरि-सुख सुखमा-सी। स्वारथ परमारथ परिपूरन,पंचकोसि महिमा-सी ॥ ५ ॥ बिस्वनाथ पालक कृपालुचित,लालति नित गिरिजा-सी। सिद्धि सची, सारद पूजहिं मन जोगवति रहति रमा-सी ॥ ६ ॥ पंचाच्छरी प्रान,मुद माधव,गब्य सुपंचनदा-सी। ब्रह्म-जीव-सम रामनाम जुग,आखर बिस्व बिकासी ॥ ७ ॥ चारितु चरति करम कुकरम करि,मरत जीवगन घासी। लहत परमपद पय पावन ,जेहि चहत प्रपंच-उदासी ॥ ८ ॥ कहत पुरान रची केसव निज कर-करतूति कला-सी। तुलसी बसि हरपुरी राम जपु,जो भयो चहै सुपासी ॥ ९ ॥ चित्रकूट-स्तुति राग बसन्त २३ सब सोच-बिमोचन चित्रकूट। कलिहरन,करन कल्यान बूट ॥ १ ॥ सुचि अवनि सुहावनि आलबाल। कानन बिचित्र,बारी बिसाल ॥ २ ॥ मंदाकिनि-मालिनि सदा सींच। बर बारि,बिषम नर-नारि नीच ॥ ३ ॥ साखा सुसृंग,भूरुह-सुपात। निरझर मधुबर,मृदु मलय बात ॥ ४ ॥ सुक,पिक,मधुकर,मुनिबर बिहारु। साधन प्रसून फल चारि चारु ॥ ५ ॥ भव-घोरघाम-हर सुखद छाँह। थप्यो थिर प्रभाव जानकी-नाह ॥ ६ ॥ साधक-सुपथिक बडे भाग पाइ। पावत अनेक अभिमत अघाइ ॥ ७ ॥ रस एक,रहित-गुन-करम-काल। सिय राम लखन पालक कृपाल ॥ ८ ॥ तुलसी जो राम पद चहिय प्रेम। सेइय गिरि करि निरुपाधि नेम ॥ ९ ॥ राग कान्हरा २४ अब चित चेति चित्रकूटहि चलु। कोपित कलि, लोपित मंगल मगु, बिलसत बढ़त मोह-माया-मलु ॥ १ ॥ भूमि बिलोकु राम-पद-अंकित, बन बिलोकु रघुबर-बिहारथलु। सैल-सृंग भवभंग-हेतु लखु, दलन कपट-पाखंड-दंभ-डलु ॥ २ ॥ जहँ जनमे जग-जनक जगपति, बिधि-हरि परिहरि प्रपंच छलु। सकृत प्रबेस करत जेहि आस्रम, बिगत-बिषाद भये पारथ नलु ॥ ३ ॥ न करु बिलंब बिचारु चारुमति, बरष पाछिले सम अगिले पलु। मंत्र सो जाइ जपहि, जो जपि भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु ॥ ४ ॥ रामनाम-जप जाग करत नित, मज्जत पय पावन पीवत जलु। करिहैं राम भावतौ मनकौ, सुख-साधन, अनयास महाफलु ॥ ५ ॥ कामदमनि कामता,कलपतरु सो जुग-जुग जागत जगतीतलु। तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये, एक प्रतीति प्रीति एकै बलु ॥ ६ ॥ हनुमत-स्तुति राग धनाश्री २५ जयत्यंजनी-गर्भ-अंभोधि-संभूत विधु विबुध-कुल-कैरवानंदकारी। केसरी-चारु-लोचन चकोरक-सुखद, लोकगन-शोक-संतापहारी ॥ १ ॥ जयति जय बालकपि केलि-कौतुक उदित-चंडकर-मंडल-ग्रासकर्त्ता। राहु-रवि-शक्र-पवि-गर्व-खर्वीकरण शरण-भयहरण जय भुवन-भर्ता ॥ २ ॥ जयति रणधीर, रघुवीरहित,देवमणि,रुद्र-अवतार, संसार-पाता। विप्र-सुर-सिद्ध-मुनि-आशिषाकारवपुष,विमलगुण,बुद्धि-वारिधि-विधाता ॥ ३ ॥ जयति सुग्रीव-ऋक्षादि-रक्षण-निपुण,बालि-बलशालि-बध-मुख्यहेतू। जलधि-लंघन सिंह सिंहिंका-मद-मथन,रजनिचर-नगर-उत्पात-केतू ॥ ४ ॥ जयति भूनन्दिनी-शोच-मोचन विपिन-दलन घननादवश विगतशंका। लूमलीलाऽनल-ज्वालमालाकुलित होलिकाकरण लंकेश-लंका ॥ ५ ॥ जयति सौमित्र रघुनंदनानंदकर,ऋक्ष-कपि-कटक-संघट-विधायी। बद्ध-वारिधि-सेतु अमर-मंगल-हेतु,भानुकुलकेतु-रण-विजयदायी ॥ ६ ॥ जयति जय वज्रतनु दशन नख मुख विकट,चंड-भुजदंड तरु-शैल-पानी। समर-तैलिक-यंत्र तिल-तमीचर-निकर,पेरि डारे सुभट घालि घानी ॥ ७ ॥ जयति दशकंठ-घटकर्ण-वारिद-नाद-कदन-कारन,कालनेमि-हंता। अघटघटना-सुघट सुघट-विघटन विकट,भूमि-पाताल-जल-गगन-गंता ॥ ८ ॥ जयति विश्व-विख्यात बानैत-विरुदावली,विदुष बरनत वेद विमल बानी। दास तुलसी त्रास शमन सीतारमण संग शोभित राम-राजधानी ॥ ९ ॥ २६ जयति मर्कटाधीश ,मृगराज-विक्रम,महादेव,मुद-मंगलालय,कपाली। मोह-मद-क्रोध-कामादि-खल-संकुला,घोर संसार-निशि किरणमाली ॥ १ ॥ जयति लसदंजनाऽदितिज,कपि-केसरी-कश्यप-प्रभव,जगदार्त्तिहर्त्ता। लोक-लोकप-कोक-कोकनद-शोकहर,हंस हनुमान कल्यानकर्ता ॥ २ ॥ जयति सुविशाल-विकराल-विग्रह,वज्रसार सर्वांग भुजदण्ड भारी। कुलिशनख, दशनवर लसत,बालधि बृहद, वैरि-शस्त्रास्त्रधर कुधरधारी ॥ ३ ॥ जयति जानकी-शोच-संताप-मोचन,रामलक्ष्मणानंद-वारिज-विकासी। कीस-कौतुक-केलि-लूम-लंका-दहन,दलन कानन तरुण तेजरासी ॥ ४ ॥ जयति पाथोधि-पाषाण-जलयानकर,यातुधान-प्रचुर-हर्ष-हाता। दुष्टरावण-कुंभकर्ण-पाकारिजित-मर्मभित्,कर्म-परिपाक-दाता ॥ ५ ॥ जयति भुवननैकभूषण,विभीषणवरद,विहित कृत राम-संग्राम साका। जयति पर-यत्रंमंत्राभिचार-ग्रसन,कारमन-कूट-कृत्यादि-हंता। शाकिनी-डाकिनी-पूतना-प्रेत-वेताल-भूत-प्रमथ-यूथ-यंता ॥ ७ ॥ पुष्पकारूढ़ सौमित्रि-सीता-सहित,भानु-कुलभानु-कीरति-पताका ॥ जयति वेदान्तविद विविध-विद्या-विशद,वेद-वेदांगविद ब्रह्मवादी। ज्ञान- विज्ञान-वैराग्य-भाजन विभो,विमल गुण गनति शुकनारदादी ॥ ८ ॥ जयति काल-गुण-कर्म-माया-मथन, निश्चलज्ञान,व्रत-सत्यरत,धर्मचारी। सिद्ध-सुरवृंद-योगींद्र-सेवति सदा,दास तुलसी प्रणत भय-तमारी ॥ ९ ॥ २७ जयति मंगलागार, संसारभारापहर,वानराकारविग्रह पुरारी। राम-रोषानल-ज्वालमाला-मिष ध्वांतर-सलभ-संहारकारी ॥ १ ॥ जयति मरुदंजनामोद-मंदिर,नतग्रीव सुग्रीव-दुखःखैकबंधो। यातुधानोद्धत-क्रुद्ध-कालाग्निहर,सिद्ध-सुर-सज्जनानंद-सिंधो ॥ २ ॥ जयति रुद्राग्रणी,विश्व-वंद्याग्रणी, विश्वविख्यात-भट-चक्रवर्ती। सामगाताग्रणी,कामजेताग्रणी,रामहित,रामभक्तानुवर्ती ॥ ३ ॥ जयतिसंग्रामजय, रामसंदेसहर,कौशला-कुशल-कल्याणभाषी। राम-विरहार्क-संतप्त-भरतादि-नरनारि-शीतलकरण कल्पशाषी ॥ ४ ॥ जयति सिंहासनासीन सीतारमण,निरखि निर्भरहरण नृत्यकारी। राम संभ्राज शोभा-सहित सर्वदा तुलसिमानस-रामपुर-विहारी ॥ ५ ॥ २८ जयति वात-संजात,विख्यात विक्रम,बृहद्बाहु,बलबिपुल,बालधिबिसाला। जातरूपाचलाकारविग्रह,लसल्लोम विद्युल्लता ज्वालमाला ॥ १ ॥ जयति बालार्क वर-वदन,पिंगल-नयन,कपिश-कर्कश-जटाजूटधारी। विकट भृकुटी,वज् दशन नख,वैरि-मदमत्त-कुंजर-पुंज-कुंजरारी ॥ २ ॥ जयति भीमार्जुन-व्यालसूदन-गर्वहर, धनंजय-रथ-त्राण-केतू। भीष्म-द्रोण-कर्णादि-पालित,कालदृक सुयोधन-चमू-निधन-हेतू ॥ ३ ॥ जयति गतराजदातार,हंतार संसार-संकट,दनुज-दर्पहारी। ईति-अति-भीति-ग्रह-प्रेत-चौरानल-व्याधिबाधा-शमन घोर मारी ॥ ४ ॥ जयति निगमागम व्याकरण करणलिपि,काव्यकौतुक-कला-कोटि-सिंधो। सामगायक, भक्त-कामदायक,वामदेव,श्रीराम-प्रिय-प्रेम बंधो ॥ ५ ॥ जयति घर्माशु-संदग्ध-संपाति-नवपक्ष-लोचन-दिव्य-देहदाता। कालकलि-पापसंताप-संकुल सदा,प्रणत तुलसीदास तात-माता ॥ ६ ॥ २९ जयति निर्भरानंद-संदोह कपिकेसरी,केसरी-सुवन भुवनैकभर्ता। दिव्यभूम्यंजना-मंजुलाकर-मणे,भक्त-संताप-चिंतापहर्ता ॥ १ ॥ जयति धमार्थ-कामापवर्गद,विभो ब्रह्मलोकादि-वैभव-विरागी। वचन-मानस-कर्म सत्य-धर्मव्रती,जानकीनाथ-चरणानुरागी ॥ २ ॥ जयति बिहगेश-बलबुद्धि-बेगाति-मद-मथन,मनमथ-मथन,ऊर्ध्वरेता। महानाटक-निपुन,कोटि-कविकुल-तिलक,गानगुण-गर्व-गंधर्व-जेता ॥ ३ ॥ जयति मंदोदरी-केश-कर्षण,विद्यमान दशकंठ भट-मुकुट मानी। भूमिजा-दुःख-संजात रोषांतकृत-जातनाजंतु कृत जातुधानी ॥ ४ ॥ जयति रामायण-श्रवण-संजात-रोमांच,लोचन सजल, शिथिल वाणी। रामपदपद्म-मकरंद-मधुकर पाहि,दास तुलसी शरण,शूलपाणी ॥ ५ ॥ राग सारंग ३० जाके गति है हनुमानकी। ताकी पैज पूजि आई, यह रेखा कुलिस पषानकी ॥ १ ॥ अघटित-घटन, सुघट-बिघटन,ऐसी बिरुदावलि नहिं आनकी। सुमिरत संकट-सोच-बिमोचन, मूरति मोद-निधानकी ॥ २ ॥ तापर सानुकूल गिरिजा, हर, लषन, राम अरु जानकी। तुलसी कपिकी कृपा-बिलोकनि, खानि सकल कल्यानकी ॥ ३ ॥ राग गौरी ३१ ताकिहै तमकि ताकी ओर को। जाको है सब भाँति भरोसो कपि केसरी-किसोरको ॥ १ ॥ जन-रंजन अरिगिन-गंजन मुख-भंजन खल बरजोरको। बेद-पुरान-प्रगट पुरुषारथ सकल-सुभट-सिरमोर को ॥ २ ॥ उथपे-थपन,थपे उथपन पन,बिबुधबृंद बँदिछोर को। जलधि लाँघि दहि लंक प्रबल बल दलन निसाचर घोर को ॥ ३ ॥ जाको बालबिनोद समुझि जिय डरत दिवाकर भोरको। जाकी चिबुक-चोट चूरन किय रद-मद कुलिस कठोरको ॥ ४ ॥ लोकपाल अनुकूल बिलोकिवो चहत बिलोचन-कोरको। सदा अभय,जय, मुद-मंगलमय जो सेवक रनरोरको ॥ ५ ॥ भगत-कामतरु नाम राम परिपूरन चंद चकोरको। तुलसी फल चारो करतल जस गावत गईबहोर को ॥ ६ ॥ राग बिलावल ३२ ऐसी तोही न बूझिये हनुमान हठीले। साहेब कहूँ न रामसे , तोसे न उसीले ॥ १ ॥ तेरे देखत सिंहके सिसु मेंढक लीले। जानत हौं कलि तेरेऊ मन गुनगन कीले ॥ २ ॥ हाँक सुनत दसकंधके भये बंधन ढीले। सो बल गयो किधौं भये अब गरबगहीले ॥ ३ ॥ सेवकको परदा फटे तू समरथ सीले। अधिक आपुते आपुनो सुनि मान सही ले ॥ ४ ॥ साँसति तुलसीदासकी सुनि सुजस तुही ले। तिहुँकाल तिनको भलौं जे राम-रँगीले ॥ ५ ॥ ३३ समरथ सुअन समीरके,रघुबीर-पियारे। मोपर कीबी तोहि जो करि लेहि भिया रे ॥ १ ॥ तेरी महिमा ते चलै चिंचिनी-चिया रे। अँधियारो मेरी बार क्यो,त्रिभुवन-उजियारे ॥ २ ॥ केहि करनी जन जानिकै सनमान किया रे। केहि अघ औगुन आपने कर डारि दिया रे ॥ ३ ॥ खाई खोंची माँगि मैं तेरो नाम लिया रे। तेरे बल,बलि,आजु लौं जग जागि जिया रे ॥ ४ ॥ जो तोसों होतौ फिरौं मेरो हेतु हिया रे। तौ कयों बदन देखावतो कहि बचन इयारे ॥ ५ ॥ तोसो ग्यान-निधान को सरबग्य बिया रे। हौं समुझत साई-द्रोहकी गति छार छिया रे ॥ ६ ॥ तेरे स्वामी राम से,स्वामिनी सिया रे। तहँ तुलसीके कौनको काको तकिया रे ॥ ७ ॥ ३४ अति आरत, अति स्वारथी, अति दीन-दुखारी। इनको बिलगु न मानिये, बोलहिं न बिचारी ॥ १ ॥ लोक-रीति देखी सुनी, व्याकुल नर-नारी। अति बरषे अनबरषेहूँ, देहिं दैवहिं गारी ॥ २ ॥ नाकहि आये नाथसों, साँसति भय भारी। कहि आयो, कीबी छमा, निज ओर निहारी ॥ ३ ॥ समै साँकरे सुमिरिये, समरथ हितकारी। सो सब बिधि ऊबर करै, अपराध बिसारी ॥ ४ ॥ बिगरी सेवककी सदा,साहेबहिं सुधारी। तुलसीपर तेरी कृपा, निरुपाधि निरारी ॥ ५ ॥ ३५ कटु कहिये गाढे परे, सुनि समुझि सुसाईं। करहिं अनभलेउ को भलो, आपनी भलाई ॥ १ ॥ समरथ सुभ जो पाइये, बीर पीर पराई। ताहि तकैं सब ज्यों नदी बारिधि न बुलाई ॥ २ ॥ अपने अपनेको भलो, चहैं लोग लुगाई। भावै जो जेहि तेहि भजै, सुभ असुभ सगाई ॥ ३ ॥ बाँह बोलि दै थापिये, जो निज बरिआई। बिन सेवा सों पालिये, सेवककी नाईं ॥ ४ ॥ चूक-चपलता मेरियै, तू बड़ो बड़ाई। होत आदरे ढीठ है, अति नीच निचाई ॥ ५ ॥ बंदिछोर बिरुदावली, निगमागम गाई। नीको तुलसीदासको, तेरियै निकाई ॥ ६ ॥ राम गौरी ३६ मंगल-मूरति मारुत-नंदन। सकल-अमंगल-मूल-निकंदन ॥ १ ॥ पवनतनय संतन हितकारी। ह्रदय बिराजत अवध-बिहारी ॥ २ ॥ मातु-पिता,गुरु,गनपति,सारद। सिवा समेत संभु,सुक,नारद ॥ ३ ॥ चरन बंदि बिनवौं सब काहू। देहु रामपद-नेह-निबाहू ॥ ४ ॥ बंदौं राम-लखन-बैदेही। जे तुलसीके परम सनेही ॥ ५ ॥ लक्ष्मण-स्तुति दण्डक ३७ लाल लाडिले लखन , हित हौ जनके। सुमिरे संकटहारी, सकल सुमंगलकारी , पालक कृपालु अपने पनके ॥ १ ॥ धरनी-धरनहार भंजन-भुवनभार , अवतार साहसी सहसफनके ॥ सत्यसंध, सत्यब्रत, परम धरमरत , निरमल करम बचन अरु मन के ॥ २ ॥ रूपके निधान, धनु-बान पानि, तून कटि, महाबीर बिदित, जितैया बड़े रनके ॥ सेवक-सुख-दायक, सबल, सब लायक, गायक जानकीनाथ गुनगनके ॥ ३ ॥ भावते भरत के, सुमित्रा-सीताके दुलारे , चातक चतुर राम स्याम घनके ॥ बल्लभ उरमिलाके, सुलभ सनेहबस , धनी धन तुलसीसे निरधनके ॥ ४ ॥ राग धनाश्री ३८ जयति लक्ष्मणानंत भगवंत भूधर, भुजग- राज, भुवनेश, भूभारहारी। प्रलय-पावक-महाज्वालमाला-वमन, शमन-संताप लीलावतारी ॥ १ ॥ जयति दाशरथि, समर-समरथ, सुमित्रा- सुवन, शत्रुसूदन, राम-भरत-बंधो। चारु-चंपक-वरन, वसन-भूषन-धरन, दिव्यतर, भव्य, लावण्य-सिधों ॥ २ ॥ जयति गाधेय-गौतम-जनक-सुख-जनक, विश्व-कंटक-कुटिल-कोटि-हंता। वचन-चय-चातुरी-परशुधर-गरबहर, सर्वदा रामभद्रानुगंता ॥ ३ ॥ जयति सीतेश-सेवासरस , बिषयरस- निरस, निरुपाधि धुरधर्मधारी। विपुलबलमूल शार्दूलविक्रम जलद- नाद-मर्दन, महावीर भारी ॥ ४ ॥ जयति संग्राम-सागर-भयंकर-तरन, रामहित-करण वरबाहु-सेतु। उर्मिला-रवन, कल्याण-मंगल-भवन, दासतुलसी-दोष-दवन-हेतू ॥ ५ ॥ भरत-स्तुति ३९ जयति भूमिजा-रमण-पदकंज-मकरंद-रस- रसिक-मधुकर भरत भूरिभागी। भुवन-भूषण, भानुवंश-भूषण, भूमिपाल- मनि रामचंद्रानुरागी ॥ १ ॥ जयति विबुधेश-धनदादि-दुर्लभ-महा- राज-संम्राज-सुख-पद-विरागी। खड्ग-धाराव्रती-प्रथमरेखा प्रकट शुद्धमति-युवति पति-प्रेमपागी ॥ २ ॥ जयति निरुपाधि-भक्तिभाव-यंत्रित-ह्रदय , बंधु-हित चित्रकुटाद्रि-चारी। पादुका-नृप-सचिव,पुहुमि-पालक परम धरम-धुर-धीर, वरवीर भारी ॥ ३ ॥ जयति संजीवनी-समय-संकट हनूमान धनुबान-महिमा बखानी। बाहुबल बिपुल परमिति पराक्रम अतुल, गूढ गति जानकी-जानि जानी ॥ ४ ॥ जयति रण-अजिर गन्धर्व-गण-गर्वहर, फिर किये रामगुणगाथ-गाता। माण्डवी-चित्त-चातक-नवांबुद-बरन, सरन तुलसीदास अभय दाता ॥ ५ ॥ शत्रुघ्न-स्तुति राग धनाश्री ४० जयति जय शत्रु-करि-केसरी शत्रुहन, शत्रुतम-तुहिनहर किरणकेतू। देव-महिदेव-महि-धेनु-सेवक सुजन- सिद्धि-मुनि-सकल-कल्याण-हेतू ॥ १ ॥ जयति सर्वांगसुदंर सुमित्रा-सुवन, भुवन-विख्यात-भरतानुगामी। वर्मचर्मासी-धनु-बाण-तूणीर-धर शत्रु-संकट-समय यत्प्रणामी ॥ २ ॥ जयति लवणाम्बुनिधि-कुंभसंभव महा- दनुज-दुर्जनदवन, दुरितहारि। लक्ष्मणानुज, भरत-राम-सीता-चरण- रेणु-भूषित-भाल-तिलकधारी ॥ ३ ॥ जयति श्रुतिकीर्ति-वल्लभ सुदुर्लभ सुलभ नमत नर्मद भुक्तिमुक्तिदाता। दासतुलसी चरण-शरण सीदत विभो, पाहि दीनार्त्त-संताप-हाता ॥ ४ ॥ श्रीसीता-स्तुति राग केदारा ४१ कबहुँक अंब, अवसर पाइ। मेरिऔ सुधि द्याइबी,कछु करुन-कथा चलाइ ॥ १ ॥ दीन, सब अँगहीन,छीन,मलीन,अघी अघाइ। नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ ॥ २ ॥ बूझिहैं 'सो है कोन', कहिबी नाम दसा जनाइ। सुनत राम कृपालुके मेरी बिगरीऔ बनि जाइ ॥ ३ ॥ जानकी जगजननि जनकी किये बचन सहाइ। तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ ॥ ४ ॥ ४२ कबहुँ समय सुधि द्ययाबी,मेरी मातु जानकी। जन कहाइ नाम लेत हौं,किये पन चातक ज्यों,प्यास-प्रेम-पानकी ॥ १ ॥ सरल कहाई प्रकृति आपु जानिए करुना-निधानकी। निजगुन,अरिकृत अनहितौ,दास-दोष सुरति चित रहत न दिये दानकी ॥ बानि बिसारनसील है मानद अमानकी। तुलसीदास न बिसारिये,मन करम बचन जाके,सपनेहुँ गति न आनकी ॥ श्रीराम-स्तुति ४३ जयति सच्चिदव्यापकानंद परब्रह्म-पद विग्रह-व्यक्त लीलावतारी। विकल ब्रह्मादि,सुर,सिद्ध,संकोचवश,विमल गुण-गेह नर-देह-धारी। १। जयति कोशलाधीश कल्याण कोशलसुता,कुशल कैवल्य-फल चारु चारी। वेद-बोधित करम-धरम-धरनीधेनु,विप्र-सेवक साधु-मोदकारी ॥ २ ॥ जयति ऋषि-मखपाल,शमन-सज्जन-साल,शापवश मुनिवधू-पापहारी। भंजि भवचाप,दलि दाप भूपावली,सहित भृगुनाथ नतमाथ भारी ॥ ३ ॥ जयति धारमिक-धुर,धीर रघुवीर गुर-मातु-पितु-बंधु-वचनानुसारी। चित्रकूटाद्रि विन्ध्याद्रि दंडकविपिन,धन्यकृत पुन्यकानन-विहारी ॥ ४ ॥ जयति पाकारिसुत-काक-करतूति-फलदानि खनि गर्त गोपित विराधा। दिव्य देवी वेश देखि लखि निशिचरी जनु विडंबित करी विश्वबाधा ॥ ५ ॥ जयति खर-त्रिशिर-दूषण चतुर्दश-सहस-सुभट-मारीच-संहारकर्ता। गृध्र-शबरी-भक्ति-विवश करुणासिंधु,चरित निरुपाधि,त्रिविधार्तिहर्ता ॥ ६ ॥ जयति मद-अंध कुकबंध बधि,बालि बलशालि बधि,करन सुग्रीव राजा। सुभट मर्कट-भालु-कटक-संघट सजत,नमत पद रावणानुज निवाजा ॥ ७ ॥ जयति पाथोधि-कृत-सेतु कौतुक हेतु,काल-मन अगम लई ललकि लंका। सकुल,सानुज,सदल दलित दशकंठ रण,लोक-लोकप किये रहित-शंका ॥ ८ ॥ जयति सौमित्रि-सीता-सचिव-सहित चले पुष्पकारुढ निज राजधानी। दासतुलसी मुदित अवधवासी सकल,राम भे भूप वैदेहि रानी ॥ ९ ॥ ४४ जयति राज-राजेंद्र राजीवलोचन,राम नाम कलि-कामतरु,साम-शाली। अनय-अंभोधि-कुंभज,निशाचर-निकर- तिमिर-घनघोर-खरकिरणमाली ॥ १ ॥ जयति मुनि-देव-नरदेव दसरत्थके , देव-मुनि-वंद्य किय अवध-वासी। लोक नायक-कोक-शोक-संकट-शमन, भानुकुल-कमल कानन-विकासी ॥ २ ॥ जयति श‍ृंगार-सर तामरस-दामदुति- देह,गुणगेह,विश्वोपकारी ॥ ।३ ॥ सकल सौभाग्य-सौंदर्य-सुषमारुप, मनोभव कोटि गर्वापहारी ॥ ३ ॥ (जयति) सुभग सारंग सुनिखंग सायक शक्ति, चारु चर्मासि वर वर्मधारी। धर्मधुरधीर,रघुवीर,भुजबल अतुल,। हेलया दलित भूभार भारी ॥ ४ ॥ जयति कलधौत मणि-मुकुट,कुंडल,तिलक- झलक भलि भाल,विधु-वदन-शोभा। दिव्य भूषन,बसन पीत,उपवीत, किय ध्यान कल्यान-भाजन न को भा ॥ ५ ॥ (जयति)भरत-सौमित्रि-शत्रुघ्न-सेवित,सुमुख, सचिव-सेवक-सुखद, सर्वदाता ॥ अधम,आरत,दीन,पतित,पातक-पीन सकृत नतमात्र कहि 'पाहि' पाता ॥ ६ ॥ जयति जय भुवन दसचारि जस जगमगत, पुन्यमय,धन्य जय रामराजा। चरित-सुरसरित कवि-मुख्य गिरि निःसरित, पिबत,मज्जत मुदित सँत-समाजा ॥ ७ ॥ जयति वर्णाश्रमाचारपर नारि-नर, सत्य-शम-दम-दया-दानशीला। विगत दुख-दोष,संतोस सुख सर्वदा, सुनत,गावत राम राजलीला ॥ ८ ॥ जयति वैराग्य-विज्ञान-वारांनिधे नमत नर्मद,पाप-ताप-हर्ता। दास तुलसी चरण शरण संशय-हरण, देहि अवलंब वैदेहि-भर्ता ॥ ९ ॥ राग गौरी ४५ श्री रामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं। नवकंज-लोचन,कंज-मुख,कर-कंज,पद कंजारुणं ॥ १ ॥ कंदर्प अगणित अमित छवि,नवनिल नीरद सुंदरं। पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं ॥ २ ॥ भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्य-वंश निकंदनं। रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनं ॥ ३ ॥ सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं। आजानुभुज शर-चाप-धर,संग्राम-जित-खरदूषणं ॥ ४ ॥ इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं। मम ह्रदय कंज निवास करु कामादि खल-दल-गंजनं ॥ ५ ॥ राग रामकली ४६ सदा राम जपु,राम जपु,राम जपु, राम जपु, राम जपु, मूढंअन बार बारं। सकल सौभाग्य-सुख-खानि जिय जानि शठ,मानि विश्वास वद वेदसारं ॥ कोशलेन्द्र नव-नीलकंजाभतनु,मदन-रिपु-कंजह्रदि-चंचरीकं। जानकीरवन सुखभवन भुवनैकप्रभु,समर-भंजन,परम कारुनीकं ॥ २ ॥ दनुज-वन धूमधुज,पीन आजानुभुज,दंड-कोदंडवर चंड बानं। अरुनकर चरण मुख नयन राजीव,गुन-अयन,बहु मयन-शोभा-निधानं ॥ ३ ॥ वासनावृंद-कैरव-दिवाकर, काम-क्रोध-मद कंज-कानन-तुषारं। लोभ अति मत्त नागेंद्र पंचानन भक्तहित हरण संसार-भारं ॥ ४ ॥ केशवं,क्लेशहं,केश-वंदित पद-द्वंद्व मंदाकिनी-मूलभूतं। सर्वदानंद-संदोह,मोहापहं, घोर-संसार-पाथोधि-पोतं ॥ ५ ॥ शोक-संदेह-पाथोदपटलानिलं, पाप-पर्वत-कठिन-कुलिशरूपं। संतजन-कामधुक-धेनु,विश्रामप्रद, नाम कलि-कलुष-भंजन अनूपं ॥ ६ ॥ धर्म-कल्पद्रुमाराम, हरिधाम-पथि संबलं, मूलमिदमेव एकं। भक्ति-वैराग्यं विज्ञान-शम-दान-दम, नाम आधीन साधन अनेकं ॥ ७ ॥ तेन तप्तं,हुतं,दत्तमेवाखिलं, तेन सर्व कृतं कर्मजालं। येन श्रीरामनामामृतं पानकृतमनिशमनवद्यमवलोक्य कालं ॥ ८ ॥ श्वपच,खल,भिल्ल,यवनादि हरिलोकगत, नामबल विपुल मति मल न परसी। त्यागि सब आस,संत्रास,भवपास असि निसित हरिनाम जपु दासतुलसी ॥ ४७ ऐसी आरती राम रघुबीरकी करहि मन। हरन दुखदुंद गोबिंद आनन्दघन ॥ १ ॥ अचरचर रूप हरि,सरबगत,सरबदा बसत,इति बासना धूप दीजै। दीप निजबोधगत-कोह-मद-मोह-तम,प्रौढऽभिमान चितबृति छीजै। २। भाव अतिशय विशद प्रवर नैवेद्य शुभ श्रीरमण परम संतोषकारी। प्रेम-तांबूल गत शूल संशय सकल,विपुल भव-बासना-बीजहारी। ३। अशुभ-शुभकर्म-घृतपूर्ण दश वर्तिका,त्याग पावक, सतोगुण प्रकासं। भक्ति-वैराग्य-विज्ञान दीपावली,अर्पि नीराजनं जगनिवासं ॥ ४ ॥ बिमल ह्रदि-भवन कृत शांति-पर्यक शुभ,शयन विश्राम श्रीरामराया। क्षमा-करुणा प्रमुख तत्र परिचारिका,यत्र हरि तत्र नहिं भेद-माया। ५। एहि आरती-निरत सनकादि,श्रुति,शेष,शिव,देवरिषि,अखिलमुनि तत्त्व-दरसी करै सोइ तरै,परिहरै कामादि मल,वदति इति अमलमति-दास तुलसी ॥ ६ ॥ ४८ हरति सब आरती आरती रामकी। दहन दुख-दोष,निरमूलिनी कामकी ॥ १ ॥ सुरभ सौरभ धूप दीपबर मालिका। उड़त अघ-बिहँग सुनि ताल करतालिका ॥ २ ॥ भक्त-ह्रदि-भवन, अज्ञान-तम-हारिनी। बिमल बिग्यानमय तेज-बिस्तारिनी ॥ ३ ॥ मोह-मद-कोह-कलि-कंज-हिमजामिनी। मुक्तिकी दूतिका,देह-दुति दामिनी ॥ ४ ॥ प्रनत-जन-कुमुद-बन-इंदु-कर-जालिका। तुलसि अभिमान-महिषेस बहु कालिका ॥ ५ ॥ हरिशंकरी पद ४९ देव- दनुज-बन-दहन,गुन-गहन,गोविंद नंदादि-आनंद-दाताऽविनाशी। शंभु,शिव,रुद्र,शंकर,भयंकर,भीम,घोर,तेजायतन,क्रोध-राशी ॥ १ ॥ अनँत,भगवंत-जगदंत-अंतक-त्रास-शमन,श्रीरमन,भुवनाभिरामं। भूधराधीश जगदीश ईशान,विज्ञानघन,ज्ञान-कल्यान-धामं ॥ २ ॥ वामनाव्यक्त,पावन,परावर,विभो,प्रकट परमातमा,प्रकृति-स्वामी। चंद्रशेखर,शूलपाणि,हर,अनघ,अज,अमित,अविछिन्न,वृशभेश-गामी ॥ ३ ॥ नीलजलदाभ तनु श्याम,बहु काम छवि राम राजीवलोचन कृपाला। कबुं-कर्पूर-वपु धवल,निर्मल मौलि जटा,सुर-तटिनि,सित सुमन माला ॥ ४ ॥ वसन किंजल्कधर,चक्र-सारंग-दर-कंज-कौमोदकी अति विशाला। मार-करि-मत्त-मृगराज,त्रैनैन,हर,नौमि अपहरण संसार-जाला ॥ ५ ॥ कृष्ण,करुणाभवन,दवन कालीय खल,विपुल कंसादि निर्वशकारी। त्रिपुर-मद-भंगकर,मत्तगज-चर्मधर,अन्धकोरग-ग्रसन पन्नगारी ॥ ६ ॥ ब्रह्म,व्यापक,अकल,सकल,पर,परमहित,ग्यान,गोतीत,गुण-वृत्ति-हर्त्ता। सिंधुसुत-गर्व-गिरि-वज्र,गौरीश,भव दक्ष-मख अखिल विध्वंसकर्त्ता ॥ ७ ॥ भक्तिप्रिय,भक्तजन-कामधुक धेनु,हरि हरण दुर्घट विकट विपति भारी। सुखद,नर्मद,वरद,विरज,अनवघ्यऽखिल,विपिन-आनंद-वीथिन-विहारी रुचिर हरिशंकरी नाम-मंत्रावली द्वंद्वदुख हरनि,आनंदखानी। विष्णु-शिव-लोक-सोपान-सम सर्वदा वदति तुलसीदास विशद बानी ॥ ८ ॥ ५० देव- भानुकुल-कमल-रवि,कोटि कंर्दप-छवि,काल-कलि-व्यालमिव वैनतेयं। प्रबल भुजदंड परचंड-कोदंड-धर तूणवर विशिख बलमप्रमेयं ॥ १ ॥ अरुण राजीवदल-नयन,सुषमा-अयन,श्याम तन-कांति वर वारिदाभं। तत्प कांचन-वस्त्र,शस्त्र-विद्या-निपुण,सिद्ध-सुर-सेव्य,पाथोजनाभं ॥ अखिल लावण्य-गृह,विश्व-विग्रह,परम प्रौढ,गुणगूढ़,महिमा उदारं। दुर्धर्ष,दुस्तर,दुर्ग,स्वर्ग-अपवर्ग-पति,भग्न संसार-पादप कुठारं ॥ ३ ॥ शापवश मुनिवधू-मुक्तकृत,विप्रहित,यज्ञ-रक्षण-दक्ष,पक्षकर्ता। जनक-नृप-सदसि शिवचाप-भंजन,उग्र भार्गवागर्व-गरिमापहर्ता ॥ ४ ॥ गुरु-गिरा-गौरवामर-सुदुस्त्यज राज्य त्यक्त,श्रीसहित सौमित्रि-भ्राता। संग जनकात्मजा,मनुजमनुसृत्य अज,दुष्ट-वध-निरत,त्रैलोक्यत्राता ॥ ५ ॥ दंडकारण्य कृतपुण्य पावन चरण,हरण मारीच-मायाकुरंगं। बालि बलमत्त गजराज इव केसरी,सुह्रद-सुग्रीव-दुख-राशि-भंगं ॥ ६ ॥ ऋक्ष,मर्कट विकट सुभट उभ्दट समर,शैल-संकाश रिपु त्रासकारी। बद्धपाथोधि,सुर-निकर-मोचन,सकुल दलन दससीस-भुजबीस भारी ॥ ७ ॥ दुष्ट विबुधारि-संघात,अपहरण महि-भार,अवतार कारण अनूपं। अमल,अनवद्य,अद्वैत,निर्गुण,सर्गुण,ब्रह्म सुमिरामि नरभूप-रूपं ॥ ८ ॥ शेष-श्रुति-शारदा-शंभु-नारद-सनक गनत गुन अंत नहीं तव चरित्रं। सोइ राम कामारि-प्रिय अवधपति सर्वदा दासतुलसी-त्रास-निधि वहित्रं ॥ ९ ॥ ५१ देव जानकीनाथ,रघुनाथ,रागादि-तम-तरणि,तारुण्यतनु,तेजधामं। सच्चिदानंद,आनंदकंदाकरं,विश्व-विश्राम,रामाभिरामं ॥ १ ॥ नीलनव-वारिधर-सुभग-शुभकांति,कटि पीत कौशेय वर वसनधारी। रत्न-हाटक-जटित-मुकुट-मंडित-मौलि,भानु-शत-सदृश उद्योतकारी ॥ २ ॥ श्रवण कुंडल,भाल तिलक,भूरुचिर अति,अरुण अंभोज लोचन विशालं। वक्र-अवलोक,त्रैलोक-शोकापहं,मार-रिपु-ह्रदय-मानस-मरालं ॥ ३ ॥ नासिका चारु सुकपोल,द्विज वज्रदुति,अधर बिंबोपमा,मधुरहासं। कंठ दर,चिबुक वर,वचन गंभीरतर,सत्य-संकल्प, सुरत्रास-नासं ॥ ४ ॥ सुमन सुविचित्र नव तुलसिकादल-युतं मृदृल वनमाल उर भ्राजमानं। भ्रमत आमोदवश मत्त मधुकर-निकर,मधुरतर मुखर कुर्वन्ति गानं ॥ ५ ॥ सुभग श्रीवत्स,केयूर,कंकण,हार,किंकणी-रटनि कटि-तट रसालं। वाम दिसि जनकजासीन-सिंहासनं कनक-मृदुवल्लित तरु तमालं ॥ ६ ॥ आजानु भुजदंड कोदंड-मंडित वाम बाहु, दक्षिण पाणि बाणमेकं। अखिल मुनि-निकर,सुर,सिद्ध,गंधर्व वर नमत नर नाग अवनिप अनेकं ॥ अनघ अविछिन्न,सर्वज्ञ,सर्वेश, खलु सर्वतोभद्र-दाताऽसमाकं। प्रणतजन-खेद-विच्छेद-विद्या-निपुण नौमि श्रीराम सौमित्रिसाकं ॥ ८ ॥ युगल पदपद्म,सुखसद्म पद्मालयं, चिन्ह कुलिशादि शोभाति भारी। हनुमंत-ह्रदि विमल कृत परममंदिर, सदातुलसी-शरण शोकहारी ॥ ५२ देव-- कोशलाधीश,जगदीश,जगदेकहित, अमितगुण,विपुल विस्तार लीला। गायंति तव चरित सुपवित्र श्रुति-शेष-शुक-शंभु-सनकादि मुनि मननशीला ॥ १ ॥ वारिचर-वपुष धरि भक्त-निस्तारपर, धरणिकृत नाव महिमातिगुर्वी। सकल यज्ञांशमय उग्र विग्रह क्रोड़, मर्दि दनुजेश उद्धरण उर्वी ॥ २ ॥ कमठ अति विकट तनु कठिन पृष्ठोपरी, भ्रमत मंदर कंडु-सुख मुरारी। प्रकटकृत अमृत,गो,इंदिरा,इंदु, वृंदारकावृंद-आनंदकारी ॥ ३ ॥ मनुज-मुनि-सिद्ध-सुर-नाग-त्रासक, दुष्ट दनुज द्विज-धर्म-मरजाद-हर्त्ता। अतुल मृगराज-वपुधरित, विद्दरित अरि, भक्त प्रहलाद-अहलाद-कर्त्ता ॥ ४ ॥ छलन बलि कपट-वटुरूप वामन ब्रह्म, भुवन पर्यंत पद तीन करणं। चरण-नख-नीर-त्रेलोक-पावन परम, विबुध-जननी-दुसह-शोक-हरणं ॥ ५ ॥ क्षत्रियाधीश-करिनिकर-नव-केसरी, परशुधर विप्र-सस-जलदरूपं। बीस भुजदंड दससीस खंडन चंड वेग सायक नौमि राम भूपं ॥ ६ ॥ भूमिभर-भार-हर,प्रकट परमातमा, ब्रह्म नररूपधर भक्तहेतू। वृष्णि-कुल-कुमुद-राकेश राधारमण, कंस-बंसाटवी-धूमकेतू ॥ ७ ॥ प्रबल पाखंड महि-मंडलाकुल देखि, निंद्यकृत अखिल मख कर्म-जालं। शुद्ध बोधैकघन,ज्ञान-गुणधाम, अज बौद्ध-अवतार वंदे कृपालं ॥ ८ ॥ कालकलिजनित-मल-मलिनमन सर्व नर मोह निशि-निबिड़यवनांधकारं। विष्णुयश पुत्र कलकी दिवाकर उदित दासतुलसी हरण विपतिभारं ॥ ९ ॥ ५३ देव-- सकल सौभाग्यप्रद सर्वतोभद्र-निधि, सर्व,सर्वेश,सर्वाभिरामं। शर्व-ह्रदि-कंज-मकरंद-मधुकर रुचिर-रूप, भूपालमणि नौमि रामं ॥ १ ॥ सर्वसुख-धाम गुणग्राम, विश्रामपद, नाम सर्वसंपदमति पुनीतं। निर्मलं शांत,सुविशुद्ध,बोधायतन, क्रोध-मद-हरण,करुणा-निकेतं ॥ २ ॥ अजित,निरुपाधि,गोतीतमव्यक्त, विभुमेकमनवद्यमजमद्वितीयं। प्राकृतं,प्रकट परमातमा,परमहित, प्रेरकानंत वंदे तुरीयं ॥ ३ ॥ भूधरं सुन्दरं,श्रीवरं,मदन-मद-मथन सौन्दर्य-सीमातिरम्यं। दुष्प्राप्य,दुष्पेक्ष्य,दुस्तर्क्य,दुष्पार, संसारहर,सुलभ,मृदुभाव-गम्यं ॥ सत्यकृत,सत्यरत,सत्यव्रत,सर्वदा, पुष्ट,संतुष्ट,संकष्टहारी। धर्मवर्मनि ब्रह्मकर्मबोधैक,विप्रपूज्य, ब्रह्मण्यजनप्रिय,मुरारी ॥ ५ ॥ नित्य,निर्मम,नित्यमुक्त,निर्मान, हरि,ज्ञानघन,सच्चिदानंद मूलं। सर्वरक्षक सर्वभक्षकाध्यक्ष,कूटस्थ, गूढार्चि, भक्तानुकूलं ॥ ६ ॥ सिद्ध-साधक-साध्य,वाच्य-वाचकरूप, मंत्र-जापक-जाप्य,सृष्टि-स्त्रष्टा। परम कारण,कञ्ञनाभ,जलदाभतनु, सगुण,निर्गुण,सकल दृश्य-द्रष्टा ॥ ७ ॥ व्योम-व्यापक,विरज,ब्रह्म,वरदेश, वैकुंठ, वामन विमल ब्रह्मचारी। सिद्ध-वृंदारकावृंदवंदित सदा, खंडि पाखंड-निर्मूलकारी ॥ ८ ॥ पूरनानंदसंदोह, अपहरन संमोह-अज्ञान, गुण-सन्निपातं। बचन-मन-कर्म-गत शरण तुलसीदास त्रास-पाथोधि इव कुंभजातं ॥ ९ ॥ ५४ देव-- विश्व-विख्यात,विश्वेश,विश्वायतन, विश्वमरजाद,व्यालारिगामी। ब्रह्म,वरदेश,वागीश,व्यापक,विमल विपुल,बलवान,निर्वानस्वामी ॥ १ ॥ प्रकृति,महतत्व,शब्दादि गुण,देवता व्योम,मरुदग्नि,अमलांबु,उर्वी। बुद्धि,मन,इंद्रिय,प्राण,चित्तातमा, काल,परमाणु,चिच्छक्ति गुर्वी ॥ २ ॥ सर्वमेवात्र त्वद्रूप भूपालमणि! व्यक्तमव्यक्त, गतभेद,विष्णो। भुवन भवदंग,कामारि-वंदित, पदद्वंद्व मंदाकिनी-जनक, जिष्णो ॥ ३ ॥ आदिमध्यांत,भगवंत! त्वं सर्वगतमीश, पश्यन्ति ये ब्रह्मवादी। यथा पट-तंतु,घट-मृतिका, सर्प-स्त्रग,दारुकरि,कनक-कटकांगदादी ॥ ४ ॥ गूढ़,गंभीर,गर्वघ्न,गूढार्थवित,गुप्त,गोतीत,गुरु,ग्यान-ग्याता। ग्येय,ग्यानप्रिय,प्रचुर गरिमागार, घोर-संसार-पर, पार दाता ॥ ५ ॥ सत्यसंकल्प,अतिकल्प,कल्पांतकृत,कल्पनातीत,अहि-तल्पवासी। वनज-लोचन,वनज-नाभ, वनदाभ-वपु, वनचरध्वज-कोटि-लावण्यरासी ॥ ६ ॥ सुकर,दुःकर,दुराराध्य,दुर्व्यसनहर,दुर्ग,दुर्द्धर्ष,दुर्गार्त्तिहर्त्ता। वेदगर्भार्भकादर्भ-गुनगर्व, अर्वांगपर-गर्व-निर्वाप-कर्त्ता ॥ ७ ॥ भक्त-अनुकूल,भवशूल-निर्मूलकर, तूल-अघ-नाम पावक-समानं। तरलतृष्णा-तमी-तरणि,धरणीधरण, शरण-भयहरण,करुणानिधानं ॥ ८ ॥ बहुल वृंदारकावृंद-वंदारु-पद-द्वंद्व मंदार-मालोर-धारी। पाहि मामीश संताप-संकुल सदा दास तुलसी प्रणत रावणारी ॥ ९ ॥ ५५ देव-- संत-संतापहर,विश्व-विश्रामकर, रामकामारि,अभिरामकारी। शुद्ध बोधायतन,सच्चिदानंदघन, सज्जनानंद-वर्धन,खरारी ॥ १ ॥ शील-समता-भवन,विषमता-मति-शमन,राम,रमारमन,रावनारी। खड्ग,कर चर्मवर,वर्मधर,रुचिरल कटि तूण,शर-शक्ति-सारंगधारी ॥ २ ॥ सत्यसंधान,निर्वानप्रद,सर्वहित, सर्वगुण-ज्ञान-विज्ञानशाली। सघन-तम-घोर-संसार-भर-शर्वरी नाम दिवसेष खर-किरणमाली ॥ ३ ॥ तपन तीच्छन तरुन तीव्र तापघ्न, तपरूप,तनभूप,तमपर,तपस्वी। मान-मद-मदन-मत्सर-मनोरथ-मथन, मोह-अंभोधि-मंदर,मनस्वी ॥ ४ ॥ वेद विख्यात,वरदेश,वामन,विरज,विमल,वागीश,वैकुंठस्वामी। काम-क्रोधादिमर्दन,विवर्धन,छमा-शांति-विग्रह,विहगराज-गामी ॥ ५ ॥ परम पावन,पाप-पुंज-मुंजावटी-अनल इव निमिष निर्मूलकर्त्ता। भुवन-भूषण,दूषणारि-भुवनेश,भूनाथ,श्रुतिमाथ जय भुवनभर्ता ॥ ६ ॥ अमल,अविचल,अकल,सकल,संतप्त-कलि-विकलता-भंजनानंदरासी। उरगनायक-शयन,तरुणपंकज-नयन,छीरसागर-अयन,सर्ववासी ॥ ७ ॥ सिद्ध-कवि-कोविकानंद-दायक पदद्वंद्व मंदात्ममनुजैर्दुरापं। यत्र संभूत अतिपूत जल सुरसरी दर्शनादेव अपहरति पापं ॥ ८ ॥ नित्य निर्मुक्त,संयुक्तगुण,निर्गुणानंद,भगवंत,न्यामक,नियंता। विश्व-पोषण-भरण,विश्व-कारण-करण, शरण तुलसीदास त्रास-हंता ॥ ९ ॥ ५६ देव-- दनुजसूदन दयासिंधु,दंभापहन दहन दुर्दोष,दर्पापहर्त्ता। दुष्टतादमन,दमभवन,दुःखौघहर दुर्ग दुर्वासना नाश कर्त्ता ॥ १ ॥ भूरिभूषण,भानुमंत,भगवंत, भवभंजनाभयद,भुवनेश भारी। भावनातीत,भववंद्य,भवभक्तहित, भूमिउद्धरण,भूधरण-धारी ॥ २ ॥ वरद,वनदाभ,वागीश,विश्वात्मा, विरज,वैकुण्ठ-मन्दिर-विहारी। व्यापक व्योम,वंदारु,वामन,विभो,ब्रह्मविद,ब्रह्म,चिंतापहारी ॥ ३ ॥ सहज सुन्दर,सुमुख,सुमन,शुभ सर्वदा, शुद्धसर्वज्ञ,स्वछन्दचारी। सर्वकृत,सर्वभृत,सर्वजित,सर्वहित, सत्य-संकल्प,कल्पांतकारी ॥ ४ ॥ नित्य,निर्मोह,निर्गुण,निरंजन, निजानंद,निर्वाण,निर्वाणदाता। निर्भरानंद,निःकंप,निःसीम,निर्मुक्त, निरुपाधि,निर्मम,विधाता ॥ ५ ॥ महामंगलमूल,मोद-महिमायतन,मुग्ध-मधु-मथन,मानद,अमानी। मदनमर्दन,मदातीत,मायारहित, मंजु मानाथ,पाथोजपानी ॥ ६ ॥ कमल-लोचन,कलाकोश,कोदंडधर,कोशलाधीश,कल्याणराशी। यातुधान प्रचुर मत्तकरि-केसरी, भक्तमन-पुण्य-आरण्यवासी ॥ ७ ॥ अनघ,अद्वैत,अनवद्य,अव्यक्त,अज, अमित अविकार,आनंदसिंधो। अचल,अनिकेत,अविरल,अनामय, अनारंभ,अंभोदनादहन-बंधो ॥ ८ ॥ दासतुलसी खेदखिन्न,आपन्न इह, शोकसंपन्न अतिशय सभीतं। प्रणतपालक राम, परम करुणाधाम, पाहि मामुर्विपति,दुर्विनीतं ॥ ९ ॥ ५७ देव-- देहि सतसंग निज-अंग श्रीरंग! भवभंग-कारण शरण-शोकहारी। ये तु भवदघ्रिपल्लव-समाश्रित सदा, भक्तिरत,विगतसंशय,मुरारी ॥ १ ॥ असुर,सुर,नाग,नर,यक्ष,गंधर्व,खग,रजनिचर,सिद्ध,ये चापि अन्ने। संत-संसर्ग त्रेवर्गपर,परमपद,प्राप्य निप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने ॥ २ ॥ वृत्र,बलि,बाण,प्रहलाद,मय,व्याध,गज,गृध्र,द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी। साधुपद-सलिल-निर्धूत-कल्मष सकल,श्वपच-यवनादि कैवल्य-भागी ॥ ३ ॥ शांत,निरपेक्ष,निर्मम,निरामय,अगुण,शब्दब्रह्मैकपर,ब्रह्मज्ञानी। दक्ष,समदृक,स्वदृक,विगत अति स्वपरमति,परमरतिविरति तव चक्रपानी ॥ ४ ॥ विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा,त्यक्तमदमन्यु,कृत पुण्यरासी। यत्र तिष्ठन्ति,तत्रेव अज शर्व हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी ॥ ५ ॥ वेद-पयसिंधु,सुविचार मंदरमहा, अखिल-मुनिवृंद निमर्थनकर्ता। सार सतसंगमुद् धृत्य इति निश्चिंतं वदति श्रीकृष्ण वैदर्भिभर्ता ॥ ६ ॥ शोक-संदेह,भय-हर्ष,तम-तर्षगण,साधु-सद्युक्ति विच्छेदकारी। यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू-निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी ॥ ७ ॥ यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश भ्रमत जगजोनि संकट अनेकं। तत्र त्वद्भक्ति,सज्जन-समागम, सदा भवतु मे राम विश्राममेकं ॥ ८ ॥ प्रबल भव-जनित त्रैव्याधि-भैषज भगति, भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी। संत-भगवंत अंतर निरंतर नहीं, किमपि मति मलिन कह दासतुलसी ॥ ९ ॥ ५८ देव-- देहि अवलंब कर कमल,कमलारमन,दमन-दुख,शमन-संताप भारी। अज्ञान-राकेश-ग्रासन विंधुतुद,गर्व-काम-करिमत्त-हरि,दूषणारी ॥ १ ॥ वपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंका-दुर्ग, रचित मन दनुज मय-रूपधारी। विविध कोशौघ, अति रुचिर-मंदिर-निकर,सत्वगुण प्रमुख त्रेकटककारी ॥ २ ॥ कुणप-अभिमान सागर भंयकर घोर, विपुल अवगाह,दुस्तर अपारं। नक्र रागादि-संकुल मनोरथ सकल, संग-संकल्प वीची-विकारं ॥ ३ ॥ मोह दशमौलि, तद्भ्रात अहँकार, पाकारिजित काम विश्रामहारी। लोभ अतिकाय,मत्सर महोदर दुष्ट,क्रोध पापिष्ठ-विबुधांतकारी ॥ ४ ॥ द्वेष दुर्मुख,दंभ खर अकंपन कपट, दर्प मनुजाद मद शूलपानी। अमितबल परम दुर्जय निशाचर-निकर सहित षडवर्ग गो-यातुधानी ॥ ५ ॥ जीव भवदंघ्रि-सेवक विभीषण बसत मध्य दुष्टाटवी ग्रसितचिंता। नियम-यम-सकल सुरलोक-लोकेश लंकेश-वश नाथ! अत्यंत भीता ॥ ६ ॥ ज्ञान-अवधेश-गृह गेहिनी भक्ति शुभ,तत्र अवतार भूभार-हर्ता। भक्त-संकष्ट अवलोकि पितु-वाक्य कृत गमन किय गहन वैदेहि-भर्ता ॥ ७ ॥ कैवल्य-साधन अखिल भालु मर्कट विपुल ज्ञान-सुग्रीवकृत जलधिसेतू। प्रबल वैराग्य दारुण प्रभंजन-तनय, विषय वन भवनमिव धूमकेतू ॥ ८ ॥ दुष्ट दनुजेश निर्वशकृत दासहित, विश्वदुख-हरण बोधैकरासी। अनुज निज जानकी सहित हरि सर्वदा दासतुलसी ह्रदय कमलवासी ॥ ९ ॥ ५९ देव-- दीन-उद्धरण रघुवर्य करुणाभवन शमन-संताप पापौघहारी। विमल विज्ञान-विग्रह,अनुग्रहरूप,भूपवर, विबुध,नर्मद,खरारी ॥ १ ॥ संसार-कांतार अति घोर,गंभीर,घन,गहन तरुकर्मसंकुल,मुरारी। वासना वल्लि खर-कंटकाकुल विपुल, निबिड़ विटपाटवी कठिन भारी ॥ २ ॥ विविध चितवृति-खग निकर श्येनोलूक,काक वक गृध्र आमिष-अहारी। अखिल खल,निपुण छल,छिद्र निरखत सदा, जीवजनपथिकमन-खेदकारी ॥ ३ ॥ क्रोध करिमत्त,मृगराज,कंदर्प,मद-दर्प वृक-भालु अति उग्रकर्मा। महिष मत्सर क्रूर,लोभ शूकररूप,फेरु छल,दंभ मार्जारधर्मा ॥ ४ ॥ कपट मर्कट विकट,व्याघ्र पाखण्डमुख,दुखद मृगव्रात,उत्पातकर्ता। ह्रदय अवलोकि यह शोक शरणागतं,पाहि मां पाहि भो विश्वभर्ता ॥ ५ ॥ प्रबल अहँकार दुरघट महीधर,महामोह गिरि-गुहा निबिड़ांधकारं। चित्त वेताल,मनुजाद मन,प्रेतगनरोग,भोगौघ वृश्चिक-विकारं ॥ ६ ॥ विषय-सुख-लालसा दंश-मशकादि,खल झिल्लि रूपादि सब सर्प,स्वामी। तत्र आक्षिप्त तव विषम माया नाथ,अंध मैं मंद,व्यालादगामी ॥ ७ ॥ घोर अवगाह भव आपगा पापजलपूर,दुष्प्रेक्ष्य,दुस्तर,अपारा। मकर षड्वर्ग,गो नक्र चक्राकुला,कूल शुभ-अशुभ,दुख तीव्र धारा ॥ ८ ॥ सकल संघट पोच शोचवश सर्वदा दासतुलसी विषम गहनग्रस्तं। त्राहि रघुवंशभूषण कृपा कर,कठिन काल विकराल-कलित्रास-त्रस्तं ॥ ९ ॥ ६० देव-- नौमि नारायणं नरं करुणायनं, ध्यान-पारायणं,ज्ञान-मूलं। अखिल संसार-उपकार-कारण, सदयह्रदय,तपनिरत,प्रणतानुकूलं ॥ १ ॥ श्याम नव तामरस-दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं। तरुण रमणीय राजीव-लोचन ललित, वदन राकेश,कर-निकस-हासं ॥ २ ॥ सकल सौंदर्य-निधि,विपुल गुणधाम, विधि-वेद-बुध-शंभु-सेवित,अमानं। अरुण पदकंज-मकरंद मंदाकिनी मधुप-मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं ॥ ३ ॥ शक्र-प्रेरित घोर मदन मद-भृगंकृत, क्रोधगत,बोधरत,ब्रह्मचारी। मार्केण्डय मुनिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी ॥ ४ ॥ पुण्य वन शैलसरि बद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं,एक रूपं। सिद्ध-योगीन्द्र-वृंदारकानंदप्रद,भद्रदायक दरस अति अनूपं ॥ ५ ॥ मान मनभंग,चितभंग,मद,क्रोधा लोभादि पर्वतदुर्ग,भुवन-भर्त्ता। द्वेष-मत्सर-राग प्रबल प्रत्यूह प्रति,भूरि निर्दय,क्रूर कर्म कर्त्ता ॥ ६ ॥ विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा,तीव्र दर्प कंदर्प खर खड्गधारा। धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक,तत्र के वराका वयं विगतसारा ॥ ७ ॥ परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ,नाथ! नहिं हाथ वर विरति-यष्टी। दर्शनारत दास,त्रसित माया-पाश,त्राहि हरि,त्राहि हरि,दास कष्टी ॥ ८ ॥ दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन,श्रमित अति,खेद,मति मोह नाशी। देहि अवलंब न विलंब अंभोज-कर,चक्रधर-तेजबल शर्मराशी ॥ ९ ॥ ६१ देव-- सकल सुखकंद, आनंदवन-पुण्यकृत,बिंदुमाधव द्वंद्व-विपतिहारी। यस्यांघ्रिपाथोज अज-शंभु-सनकादि-शुक-शेष-मुनिवृंद-अलि-निलयकारी ॥ १ ॥ अमल मरकत श्याम,काम शतकोटि छवि,पीतपट तड़ित इव जलदनीलं। अरुण शतपत्र लोचन,विलोकनि चारू,प्रणतजन-सुखद,करुणार्द्रशीलं ॥ २ ॥ काल-गजराज-मृगराज,दनुजेश-वन-दहन पावक,मोह-निशि-दिनेशं। चारिभुज चक्र-कौमोदकी-जलज-दर, सरसिजोपरि यथा राजहंस ॥ ३ ॥ मुकुट,कुंडल,तिलक,अलक अलिव्रातइव,भृकुटि,द्विज,अधरवर,चारुनासा। रुचिर सुकपोल,दर ग्रीव सुखसीव,हरि,इंदुकर-कुंदमिव मधुरहासा ॥ ४ ॥ उरसि वनमाल सुविशाल नवमंजरी, भ्राज श्रीवत्स-लांछन उदारं। परम ब्रह्मन्य,अतिधन्य,गतमन्यु,अज,अमितबल,विपुल महिमा अपारं ॥ ५ ॥ हार-केयूर,कर कनक कंकन रतन-जटित मणि-मेखला कटिप्रदेशं। युगल पद नूपुरामुखर कलहंसवत, सुभग सर्वांग सौन्दर्य वेशं ॥ ६ ॥ सकल सौभाग्य-संयुक्त त्रेलोक्य-श्री दक्षि दिशि रुचिर वारीश-कन्या। बसत विबुधापगा निकट तट सदनवर, नयन निरखंति नर तेऽति धन्या ॥ ७ ॥ अखिल मंगल-भवन,निबिड़ संशय-शमन दमन-वृजिनाटवी,कष्टहर्त्ता। विश्वधृत,विश्वहित,अजित,गोतीत,शिव,विश्वपालन,हरण,विश्वकर्त्ता ॥ ८ ॥ ज्ञान-विज्ञान-वैराग्य-ऐश्वर्य-निधि,सिद्धि अणिमादि दे भूरिदानं। ग्रसित-भव-व्याल अतित्रास तुलसीदास,त्राहि श्रीराम उरगारि-यानं ॥ ९ ॥ ६२ इहै परम फलु,परम बड़ाई। नखसिख रुचिर बिंदुमाधव छबि निरखहिं नयन अघाई ॥ १ ॥ बिसद किसोर पीन सुंदर बपु,श्याम सुरुचि अधिकाई। नीलकंज,बारिद,तमाल,मनि,इन्ह तनुते दुति पाई ॥ २ ॥ मृदुल चरन शुभ चिन्ह,पदज,नख अति अभूत उपमाई। अरुन नील पाथोज प्रसव जनु, मनिजुत दल-समुदाई ॥ ३ ॥ जातरूप मनि-जटित-मनोहर, नूपुर जन-सुखदाई। जनु हर-उर हरि बिबिध रूप धरि, रहे बर भवन बनाई ॥ ४ ॥ कटितट रटति चारु किंकिनि-रव,अनुपम,बरनि न जाई। हेम जलज कल कलित मध्य जनु,मधुकर मुखर सुहाई ॥ ५ ॥ उर बिसाल भृगुचरन चारु अति,सूचत कोमलताई। कंकन चारु बिबिध भूषन बिधि,रचि निज कर मन लाई ॥ ६ ॥ गज-मनिमाल बीच भ्राजत कहि जाति न पदक निकाई। जनु उडुगन-मंडल बारिदपर,नवग्रह रची अथाई ॥ ७ ॥ भुजगभोग-भुजदंड कंज दर चक्र गदा बनि आई। सोभासीव ग्रीव,चिबुकाधर,बदन अमित छबि छाई ॥ ८ ॥ कुलिस,कुंद-कुडमल,दामिनि-दुति,दसनन देखि लजाई। नासा-नयन-कपोल,ललित श्रुति कुंडल भ्रू मोहि भाई ॥ ९ ॥ कुंचित कच सिर मुकुट,भाल पर,तिलक कहौं समुझाई। अलप तड़ित जुग रेख इंदु महँ,रहि तजि चंचलताई ॥ १० ॥ निरमल पीत दुकुल अनूपम,उपमा हिय न समाई। बहु मनिजुत गिरि नील सिखरपर कनक-बसन रुचिराई ॥ ११ ॥ दच्छ भाग अनुराग-सहित इंदिरा अधिक ललिताई। हेमलता जनु तरु तमाल ढिग,नील निचोल ओढ़ाई ॥ १२ ॥ सत सारदा सेष श्रुति मिलिकै,सोभा कहि न सिराई। तुलसिदास मतिमंद द्वंदरत कहै कौन बिधि गाई ॥ १३ ॥ राग जैतश्री ६३ मन इतनोई या तनुको परम फलु। सब अँग सुभग बिंदुमाधव-छबि,तजि सुभाव,अवलोकु एक पलु ॥ १ ॥ तरुन अरुन अंभोज चरन मृदु,नख-दुति ह्रदय-तिमिर-हारी। कुलिस-केतु-जव-जलज रेख बर,अंकुस मन-गज-बसकारी ॥ २ ॥ कनक-जटित मनि नूपुर,मेखल,कटि-तट रटति मधुर बानी। त्रिबली उदर,गँभीर नाभि सर,जहँ उपजे बिरंचि ग्यानी ॥ ३ ॥ उर बनमाल,पदिक अति सोभित,बिप्र-चरन चित कहँ करषै। स्याम तामरस-दाम-बरन बपु पीत बसन सोभा बरषै ॥ ४ ॥ कर कंकन केयूर मनोहर,देति मोद मुद्रिक न्यारी। गदा कंज दर चारु चक्रधर,नाग-सुंड-सम भुज चारी ॥ ५ ॥ कंबुग्रीव,छबिसीव चिबुक द्विज,अधर अरुन,उन्नत नासा। नव राजीव नयन,ससि आनन,सेवक-सुखद बिसद हासा ॥ ६ ॥ रुचिर कपोल,श्रवन कुंडल,सिर मुकुट,सुतिलक भाल भ्राजै। ललित भृकुटि,सुंदर चितवनि,कच निरखि मधुप-अवली लाजे ॥ ७ ॥ रूप-सील-गुन-खानि दच्छ दिसि,सिंधु-सुता रत-पद-सेवा। जाकी कृपा-कटाच्छ चहत सिव,बिधि,मुनि,मनुज,दनुज,देवा ॥ ८ ॥ तुलसिदास भव-त्रास मिटै तब,जब मति येहि सरूप अटकै। नाहिंत दीन मलीन हीनसुख,कोटि जनम भ्रमि भ्रमि भटकै ॥ ९ ॥ राग बसन्त ६४ बंदौ रघुपति करुना-निधान। जाते छूटै भव-भेद-ग्यान ॥ १ ॥ रघुबंस-कुमुद-सुखप्रद निसेस। सेवत पद-पंकज अज महेस ॥ २ ॥ निज भक्त-ह्रदय-पाथोज-भृंग। लावन्य बपुष अगनित अनंग ॥ ३ ॥ अति प्रबल मोह-तम-मारतंड। अग्यान-गहन-पावक प्रचंड ॥ ४ ॥ अभिमान-सिंधु-कुंभज उदार। सुररंजन,भंजन भूमिभार ॥ ५ ॥ रागादि-सर्पगन-पन्नगारि। कंदर्प-नाग-मृगपति,मुरारि ॥ ६ ॥ भव-जलधि-पोत चरनारबिंद। जानकी-रवन आनंद-कंद ॥ ७ ॥ हनुमंत-प्रेम-बापी-मराल। निष्काम कामधुक गो दयाल ॥ ८ ॥ त्रेलोक-तिलक,गुनगहन राम। कह तुलसिदास बिश्राम-धाम ॥ ९ ॥ राग भैरव ६५ राम राम रमु,राम राम रटु, राम राम जपु जीहा। रामनाम-नवनेह-मेहको,मन! हठि होहि पपीहा ॥ १ ॥ सब साधन-फल कूप-सरित-सर,सागर-सलिल-निरासा। रामनाम-रति-स्वाति-सुधा-सुभ-सीकर प्रेमपियासा ॥ २ ॥ गरजि,तरजि,पाषान बरषि पवि,प्रीति परखि जिय जानै। अधिक अधिक अनुराग उमँग उर, पर परमिति पहिचानै ॥ ३ ॥ रामनाम-गति, रामनाम-मति, राम-नाम-अनुरागी। ल्है गये,है,जे होहिंगे, तेइ त्रिभुवन गनियत बड़भागी ॥ ४ ॥ एक अंग मग अगमु गवन कर, बिलमु न छिन छिन छाहैं। तुलसी हित अपनो अपनी दिसि,निरुपधि नेम निबाहैं ॥ ५ ॥ ६६ राम जपु,राम जपु, राम जपु बावरे। घोर भव-नीर-निधि नाम निज नाव रे ॥ १ ॥ एक ही साधन सब रिद्धि-सिद्धि साधि रे। ग्रसे कलि-रोग जोग-संजम-समाधि रे ॥ २ ॥ भलो जो है,पोच जो है,दाहिनो जो,बाम रे। राम-नाम ही सों अंत सब ही को काम रे ॥ ३ ॥ जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे। धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे ॥ ४ ॥ राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे। तुलसी परोसो त्यागि माँगै कूर कौर रे ॥ ५ ॥ ६७ राम राम जपु जिय सदा सानुराग रे। कलि न बिराग,जोग,जाग,तप,त्याग रे ॥ १ ॥ राम सुमिरत सब बिधि ही को राज रे। रामको बिसारिबो निषेध-सिरताज रे ॥ २ ॥ राम-नाम महामनि,फनि जगजाल रे। मनि लिये,फनि जियै,ब्याकुल बिहाल रे ॥ ३ ॥ राम-नाम कामतरु देत फल चारि रे। कहत पुरान,बेद,पंडित,पुरारि रे ॥ ४ ॥ राम-नाम प्रेम-परमारथको सार रे। राम-नाम तुलसीको जीवन-अधार रे ॥ ५ ॥ ६८ राम राम राम जीह जौलौं तू न जपिहै। तौलौं,तू कहूँ जाय, तिहूँ ताप तपिहै ॥ १ ॥ सुरसरि-तीर बिनु नीर दुख पाइहै। सुरतरु तरे तोहि दारिद सताइहै ॥ २ ॥ जागत,बागत सपने न सुख सोइहै। जनम जनम,जुग जुग जग रोइहै ॥ ३ ॥ छूटिबेके जतन बिसेष बाँधो जायगो। ह्वेहै बिष भोजन जो सुधा-सानि खायगो ॥ ४ ॥ तुलसी तिलोक,तिहूँ काल तोसे दीनको। रामनाम ही की गति जैसे जल मीनको ॥ ५ ॥ ६९ सुमिरु सनेहसों तू नाम रामरायको। संबल निसंबलको,सखा असहायको ॥ १ ॥ भाग है अभागेहूको,गुन गुनहीनको। गाहक गरीबको,दयालु दानि दीनको ॥ २ ॥ कुल अकुलीनको,सुन्यो है बेद साखि है। पाँगुरेको हाथ-पाँय,आँधरेको आँखि है ॥ ३ ॥ माय-बाप भूखेको, अधार निराधारको। सेतु भव-सागरको, हेतु सुखसारको ॥ ४ ॥ पतितपावन राम-नाम सो न दूसरो। सुमिरि सुभूमि भयो तुलसी सो ऊसरो ॥ ५ ॥ û ७० भलो भली भाँति है जो मेरे कहे लागिहै। मन राम-नामसों सुभाय अनुरागिहै ॥ १ ॥ राम-नामको प्रभाउ जानि जूड़ी आगिहै। सहित सहाय कलिकाल भीरु भागिहै ॥ २ ॥ राम-नामसों बिराग,जोग,जप जागिहै। बाम बिधि भाल हू न करम दाग दागिहै ॥ ३ ॥ राम-नाम मोदक सनेह सुधा पागिहै। पाइ परितोष तू न द्वार द्वार बागिहै ॥ ४ ॥ राम-नाम काम-तरु जोइ जोइ माँगिहै। तुलसिदास स्वारथ परमारथ न खाँगिहै ॥ ५ ॥ ७१ ऐसेहू साहबकी सेवा सों होत चोरु रे। आपनी न बुझ, न कहै को राँडरोरु रे ॥ १ ॥ मुनि-मन-अगम,सुगम माइ-बापु सों। कृपासिंधु,सहज सखा, सनेही आपु सों ॥ २ ॥ लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों। सब दिन दब देस, सबहिके साथ सों ॥ ३ ॥ स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी। प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी ॥ ४ ॥ काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी। सुमिरे सकुचि रुचि जोगवत जनकी ॥ ५ ॥ रीझे बस होत,खीझे देत निज धाम रे। फलत सकल फल कामतरु नाम रे ॥ ६ ॥ बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे। सोऊ तुलसी निवाज्यो ऐसो राजाराम रे ॥ ७ ॥ ७२ मेरो भलो कियो राम आपनी भलाई। हौं तो साई-द्रोही पै सेवक-हित साई ॥ १ ॥ रामसों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो। राम सो खरो है कौन, मोसों कौन खोटो ॥ २ ॥ लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं। एतो बड़ो अपराध भौ न मन बावौं ॥ ३ ॥ पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यों नीचो। बोरत न बारि ताहि जानि आपु सीचो ॥ ४ ॥ ७३ जागु,जागु,जीव जड़! जोहै जग-जामिनी। देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी ॥ १ ॥ सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-संताप रे। बूड्यो मृग-बारि खायो जेवरीको साँप रे ॥ २ ॥ कहैं बेद-बुध,तू तो बूझि मनमाहिं रे। दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिं रे ॥ ३ ॥ तुलसी जागेते जाय ताप तिहुँ ताय रे। राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे ॥ ४ ॥ राग विभास ७४ जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव, जागी त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे। करि बिचार,तजि बिकार,भजु उदार रामचंद्र, भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे ॥ १ ॥ मोहमय कुहू-निसा बिसाल काल बिपुल सोयो, खोयो सो अनूप रूप सुपन जू परे। अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश, बासना,सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे ॥ २ ॥ भागे मद-मान चोर भोर जानि जातुधान, काम-कोह-लोभ-छोभ-निकर अपडरे। देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप, ताप त्रिबिध प्रेम-आप दूर ही करे ॥ ३ ॥ श्रवन सुनि गिरा गँभीर, जागे अति धीर बीर, बर बिराग-तोष सकल संत आदरे। तुलसिदास प्रभुकृपालु, निरखि जीव जन बिहालु, भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे ॥ ४ ॥ राग ललित ७५ खोटो खरो रावरो हौं,रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो, जानो सब ही के मनकी। करम-बचन-हिये,कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि पानी परे सनकी ॥ १ ॥ दूसरो,भरोसो नाहिं बासना उपासनाकी, बासव,बिरंचि सुर-नर-मुनिगनकी। स्वारथ के साथी मेरे,हाथी स्वान लेवा देई,काहू तो न पीर रघुबीर! दीन जनकी ॥ २ ॥ साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य,दुसह साँसति कीजै आगे ही या तनकी। साँचे परौं,पाँऊ पान,पंचमें पन प्रमान,तुलसी चातक आस राम स्यामघनकी ॥ ३ ॥ ७६ रामको गुलाम,नाम रामबोला राख्यौ राम, काम यहै, नाम द्वै हौ कबहूँ कहत हौं। रोटी-लूगा नीके राखै,आगेहूकी बेद भाखै, भलो ह्वेहै तेरो,ताते आनँद लहत हौं ॥ १ ॥ बाँध्यौ हौं करम जड़ गरब गूढ़ निगड़, सुनत दुसह हौं तौ साँसति सहत हौं। आरत-अनाथ-नाथ,कौसलपाल कृपाल, लीन्हौ छीन दीन देख्यो दुरित दहत हौं ॥ २ ॥ बूझ्यौ ज्यौं ही,कह्यो,मैं हूँ चेरो ह्वेहौ रावरो जू मेरो कोऊ कहूँ नाहिं, चरन गहत हौं। मींजो गुरु पीठ,अपनाइ गहि बाँह,बोलि सेवक-सुखद,सदा बिरद बहत हौं ॥ ३ ॥ लोग कहै पोच,सो न सोच न सँकोच मेरे ब्याह न बरेखी,जाति-पाँति न चहत हौं। तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे, प्रीतिकी प्रतीति मन मुदित रहत हौं ॥ ४ ॥ ७७ जानकी-जीवन,जग-जीवन,जगत-हित, जगदीस,रघुनाथ,राजीवलोचन राम। सरद-बिधु-बदन,सुखसील,श्रीसदन, सहज सुंदर तनु,सोभा अगनित काम ॥ १ ॥ जग-सुपिता,सुमातु,सुगुरु,सुहित,सुमीत, सबको दाहिनो,दीनबन्धु,काहुको न बाम। आरतिहरन,सरनद,अतुलित दानि, प्रनतपालु,कृपालु,पतित-पावन नाम ॥ २ ॥ सकल बिस्व-बंदित,सकल सुर-सेवित, आगम-निगम कहैं रावरेई गुनग्राम। इहै जानि तुलसी तिहारो जन भयो, न्यारो कै गनिबो जहाँ गने गरीब गुलाम ॥ ३ ॥ राग टोडी ७८ देव- दीनको दयालु दानि दूसरो न कोऊ। जाहि दीनता कहौं हौं देखौं दीन सोऊ ॥ १ ॥ सुर,नर,मुनि,असुर,नाग,साहिब तौ घनेरे। (पै) तौ लौं जौं लौं रावरे न नेकु नयन फेरे ॥ २ ॥ त्रिभुवन,तिहुँ काल बिदित,बेद बदति चारी। आदि-अंत-मध्य राम! साहबी तिहारी ॥ ३ ॥ तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो। सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो ॥ ४ ॥ पाहन-पसु, बिटप-बिहँग अपने करि लीन्हे। महाराज दसरथके ! रंक राय कीन्हे ॥ ५ ॥ तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो। बारक कहिये कृपालु! तुलसिदास मेरो ॥ ६ ॥ ७९ देव- तू दयालु ,दीन हौं तू दानि, हौं भिखारी। हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी ॥ १ ॥ नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो ॥ २ ॥ ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर,हौं चेरो। तात-मात,गुरु-सखा, तू सब बिधि हितु मेरो ॥ ३ ॥ तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै। ज्यों त्यों, तुलसी कृपालु ! चरन-सरन पावै ॥ ४ ॥ ८० देव-- और काहि माँगिये, को माँगिबो निवारै। अभिमतदातार कौन, दुख-दरिद्र दारै ॥ १ ॥ धरमधाम राम काम-कोटि-रूप रूरो। साहब सब बिधि सुजान, दान-खडग-सूरो ॥ २ ॥ सुसमय दिन द्वै निसान सबके द्रार बाजै। कुसमय दसरथके ! दानि तैं गरीब निवाजै ॥ ३ ॥ सेवा बिनु गुनबिहीन दीनता सुनाये। जे जे तैं निहाल किये फूले फिरत पाये ॥ ४ ॥ तुलसीदास जाचक-रुचि जानि दान दीजै। रामचंद्र चंद्र तू, चकोर मोहिं कीजै ॥ ५ ॥ ८१ दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई। सुनहु नाथ ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई ॥ १ ॥ कबहुँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई। कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहुँ दया अति सोई ॥ २ ॥ कबहुँ दीन,मतिहीन, रंकतर,कबहुँ भूप अभिमानी। कबहुँ मूढ, पंडित बिडंबरत,कबहुँ धर्मरत ग्यानी ॥ ३ ॥ कबहुँ देव! जग धनमय रिपुमय कबहुँ नारिमय भासै। संसृति-संनिपात दारुन दुख बिनु हरि-कृपा न नासै ॥ ४ ॥ संजम,जप,तप,नेम,धरम, ब्रत,बहु भेषज-समुदाई। तुलसिदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहिं जाई ॥ ५ ॥ ८२ मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई। जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥ १ ॥ नयन मलिन परनारि निरखि,मन मलिन बिषय सँग लागे। हृदय मलिन बासना-मान मद, जीव सहज सुख त्यागे ॥ २ ॥ परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये। सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ-चरन बिसराये ॥ ३ ॥ तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै। राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै ॥ ४ ॥ राग जैतश्री ८३ कछु ह्वे न आई गयो जनम जाय। अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे न राम मन बचन- काय ॥ १ ॥ लरिकाई बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय। जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन बाय ॥ २ ॥ मध्य बयस धन हेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय। राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय ॥ ३ ॥ सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय। सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय ॥ ४ ॥ अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यो, बिकल अंग दले जरा धाय। सिर धुनि-धुनि पछिताय मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय ॥ ५ ॥ जिन्ह लगि निज परलोक बिगार् यौ, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय। तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं,तर् यौ गयँद जाके एक नाँय ॥ ६ ॥ ८४ तौ तू पछितैहै मन मींजि हाथ। भयो है सुगम तोको अमर-अगम तन,समुझिधौं कत खोवत अकाथ ॥ १ ॥ सुख-साधन हरिबिमुख बृथा जैसे श्रम फल घृतहित मथे पाथ। यह बिचारि, तजि कुपथ-कुसंगति चलि सुपंथ मिलि भले साथ ॥ २ ॥ देखु-राम-सेवक, सुनि कीरति, रटहि नाम करि गान गाथ। हृदय आनु धनुबान-पानि प्रभु,लसे मुनिपट, कटि कसे भाथ ॥ ३ ॥ तुलसिदास परिहरि प्रपंच सब, नाउ रामपद-कमल माथ। जनि डरपहि तोसे अनेक खल, अपनाये जानकीनाथ ॥ ४ ॥ राग धनाश्री ८५ मन! माधवको नेकु निहारहि। सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यो,छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि ॥ १ ॥ सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि। रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन बिषय-बिकारहि ॥ २ ॥ जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो चहै भव-पारहि। तौ जनि तुलसिदास निसि- बासर हरि-पद कमल बिसारहि ॥ ३ ॥ ८६ इहै कह्यो सुत! बेद चहूँ। श्रीरघुबीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ ॥ १ ॥ जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ। सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तेउ भजन करत अजहूँ ॥ २ ॥ जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ। हरि-पद-पंकज पाइ अचल भइ,करम-बचन-मनहूँ ॥ ३ ॥ करुनासिंधु,भगत-चिंतामनि,सोभा सेवतहूँ। और सकल सुर,असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ ॥ ४ ॥ सुरुचि कह्यो सोइ सत्य तात अति परुष बचन जबहूँ। तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ ॥ ५ ॥ ८७ सुनु मन मूढ सिखावन मेरो। हरि-पद-बिमुख लह्यो न काहु सुख सठ ! यह समुझ सबेरो ॥ १ ॥ बिछुरे ससि-रबि मन-नैननितें, पावत दुख बहुतेरो। भ्रमत श्रमित निसि-दिवस गगन महँ,तहँ रिपु राहु बडेरो ॥ २ ॥ जद्यपि अति पुनित सुरसरिता, तिहुँ पुर सुजस घनेरो। तजे चरन अजहूँ न मिटत नित,बहिबो ताहू केरो ॥ ३ ॥ छुटै न बिपति भजे बिनु रघुपति, श्रुति संदेहु निबेरो। तुलसिदास सब आस छाँडि करि, होहु रामको चेरो ॥ ४ ॥ ८८ कबहूँ मन बिश्राम न मान्यो। निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो ॥ १ ॥ जदपि बिषय-सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरुझान्यो। तदपि न तजत मूढ़ ममताबस,जानतहूँ नहिं जान्यो ॥ २ ॥ जनम अनेक किये नाना बिधि करम-कीच चित सान्यो। होइ न बिमल बिबेक-नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो ॥ ३ ॥ निज हित नाथ पिता गुरु हरिसों हरषि हदै नहि आन्यो। तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो ॥ ४ ॥ ८९ मेरो मन हरिजू! हठ न तजै। निसिदिन नाथ देउँ सिख बहु बिधि, करत सुभाउ निजै ॥ १ ॥ ज्यो जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुन दुख उपजै। ह्वे अनुकूल बिसारि सूल सठ पुनि खल पतिहिं भजै ॥ २ ॥ लोलुप भ्रम गृहपसु ज्यौं जहँ तहँ सिर पदत्रान बजै। तदपि अधम बिचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़ लजै ॥ ३ ॥ हौं हार् यौ करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै। तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै ॥ ४ ॥ ९० ऐसी मूढ़ता या मनकी। परिहरि राम-भगति-सुरसरिता,आस करत ओसकनकी ॥ १ ॥ धूम-समूह निरखि चातक ज्यो, तृषित जानि मति घनकी। नहिं तहँ सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचनकी ॥ २ ॥ ज्यो गच-काँच बिलोकि सेन जड छाँह आपने तनकी। टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी ॥ ३ ॥ कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जनकी। तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पनकी ॥ ४ ॥ ९१ नाचत ही निसि-दिवस मर् यो। तब ही ते न भयो हरि थिर जबतें जिव नाम धर् यो ॥ १ ॥ बहु बासना बिबिध कंचुकि भूषन लोभादि भर् यो। चर अरु अचर गगन जल थलमें,कौन न स्वाँग कर् यो ॥ २ ॥ देव-दनुज,मुनि,नाग,मनुज नहिं जाँचत कोउ उबर् यो। मेरो दुसह दरिद्र, दोष,दुख काहू तौ न हर् यो ॥ ३ ॥ थके नयन, पद, पानि, सुमति, बल, संग सकल बिछुर् यो। अब रघुनाथ सरन आयो जन,भव,भय बिकल डर् यो ॥ ४ ॥ जेहि गुनतें बस होहु रीझि करि, सो मोहि सब बिसर् यो। तुलसिदास निज भवन-द्वार प्रभु दीजै रहन पर् यो ॥ ५ ॥ ९२ माधवजू,मोसम मंद न कोऊ। जद्यपि मीन-पतंग हीनमति, मोहि नहिं पूजैं ओऊ ॥ १ ॥ रुचिर रुप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो। देखत बिपति बिषय न तजत हौं, ताते अधिक अयान्यो ॥ २ ॥ महामोह-सरिता अपार महँ, संतत फिरत बह्यो। श्रीहरि- चरन-कमल-नौका तजि,फिरि फिरि फेन गह्यो ॥ ३ ॥ अस्थि पुरातन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै। निज तालूगत रुधिर पान करि,मन संतोष धरै ॥ ४ ॥ परम कठिन भव-ब्याल-ग्रसित भयो अति भारी। चाहत अभय भेक सरनागत, खगपति-नाथ बिसारी ॥ ५ ॥ जलचर-बृंद जाल-अंतरगत होत सिमिटि इक पासा। एकहि एक खात लालच-बस, नहिं देखत निज नासा ॥ ६ ॥ मेरे अघ सारद अनेक जुग, गनत पार नहिं पावै। तुलसिदास पतित-पावन प्रभु यह भरोस जिय आवै ॥ ७ ॥ ९३ कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम। जेहि करुना सुनि श्रवन दीन-दुख, धावत हौ तजि धाम ॥ १ ॥ नागराज निज बल बिचारि हिय, हारि चरन चित दीन्हों। आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न कीन्हों ॥ २ ॥ दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिग्या राखी। अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी ॥ ३ ॥ भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु-राखु कह्यो नर- नारी। बसन पूरि,अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी ॥ ४ ॥ एक एक रिपुते त्रासित जन,तुम राखे रघुबीर। अब मोहिं देत दुसह दुख बहु रिपु कस न हरहु भव-पीर ॥ ५ ॥ लोभ-ग्राह, दनुजेस-क्रोध, कुरुराज-बंधु खल मार। तुलसिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार ॥ ६ ॥ ९४ काहे ते हरि मोहिं बिसारो। जानत निज महिमा मेरे अघ,तदपि न नाथ सँभारो ॥ १ ॥ पतित-पुनीत,दीनहित,असरन-सरन कहत श्रुति चारो। हौं नहिं अधम,सभीत,दीन ? किधौं बेदन मृषा पुकारो ? ॥ २ ॥ खग-गनिका-गज-ब्याध-पाँति जहँ तहँ हौहूँ बैठारो। अब केहि लाज कृपानिधान ! परसत पनवारो फारो ॥ ३ ॥ जो कलिकाल प्रबल अति होतो, तुव निदेसतें न्यारो। तौ हरि रोष भरोस दोष गुन तेहि भजते तजि गारो ॥ ४ ॥ मसक बिरंचि,बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो। यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो ॥ ५ ॥ नाहिन नरक परत मोकहँ डर,जद्यपि हौं अति हारो। यह बडि त्रास दासतुलसी प्रभु,नामहु पाप न जारो ॥ ६ ॥ ९५ तरु न मेरे अघ-अवगुन गनिहैं । जौ जमराज काज सब परिहरि, इहै ख्याल उर अनिहैं ॥ १ ॥ चलिहैं छूटि पुंज पापिनके, असमंजस जिय जनिहैं । देखि खलल अधिकार प्रभूसों (मेरी) भूरि भलाई भनिहैं ॥ २ ॥ हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत-सिरोमनि मनिहैं । ज्यों त्यों तुलसिदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं ॥ ३ ॥ ९६ जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके । तौ क्यों कटत सुकृत-नखते मो पै, बिपुल बृंद अघ-बनके ॥ १ ॥ कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके । हारहिं अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक-एक छनके ॥ २ ॥ जो चित चढ़ै नाम-महिमा निज, गुनगन पावन पनके । तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके ॥ ३ ॥ ९७ जौ पै हरि जनके औगुन गहते । तौ सुरपति कुरुराज बालिसों, कत हठि बैर बिसहते ॥ १ ॥ जौ जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते । तौ कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप-गेह बसि रहते ॥ २ ॥ जौ जहँ-तहँ प्रन राखि भगतको, भजन-प्रभाउ न कहते । तौ कलि कठिन करम-मारग जड़ हम केहि भाँति निबहते ॥ ३ ॥ जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते । तौ जमभट साँसति-हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते ॥ ४ ॥ जौ जगबिदित पतितपावन, अति बाँकुर बिरद न बहते । तौ बहुकलप कुटिल तुलसीसे, सपनेहुँ सुगति न लहते ॥ ५ ॥ ९८ ऐसी हरि करत दासपर प्रीति । निज प्रभुता बिसारि जनके बस, होत सदा यह रीति ॥ १ ॥ जिन बाँधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी । सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठि बाँध्यो सकत न छोरी ॥ २ ॥ जाकी मायाबस बिरंचि सिव, नाचत पार न पायो । करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिन्ह सोइ नाच नचायो ॥ ३ ॥ बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति,बेद-बिदित यह लीख । बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु है द्विज माँगी भीख ॥ ४ ॥ जाको नाम लिये छूटत भव-जनम-मरन दुख-भार । अंबरीष-हित लागि कृपानिधि सोइ जनमे दस बार ॥ ५ ॥ जोग-बिराग, ध्यान-जप-तप करि, जेहि खोजत मुनि ग्यानी । बानर-भालु चपल पसु पामर, नाथ तहाँ रति मानी ॥ ६ ॥ लोकपाल,जम,काल,पवन,रबि,ससि सब आग्याकारी । तुलसिदास प्रभु उग्रसेनके द्वार बेंत कर धारी ॥ ७ ॥ ९९ बिरद गरीबनिवाज रामको । गावत बेद-पुरान, संभु-सुक, प्रगट प्रभाउ नामको ॥ १ ॥ ध्रुव,प्रहलाद,बिभीषन,कपिपति,जड,पतंग,पाडंव,सुदामको । लोक सुजस परलोक सुगति,इन्हमें को है राम कामको ॥ २ ॥ गनिका, कोल,किरात,आदिकबि इन्हते अधिक बाम को। बाजिमेध कब कियो अजामिल, गज गायो कब सामको ॥ ३। छली,मलीन,हीन सब ही अँग, तुलसी सो छीन छामको। नाम-नरेस-प्रताप प्रबल जग, जुग-जुग चालत चामको ॥ ४ ॥ १०० सुनि सीतापति-सील-सुभाउ। मोद न मन,तन पुलक,नयन जल,सो नर खेहर खाउ ॥ १ ॥ सिसुपनतें पितु,मातु,बंधु,गुरु,सेवक,सचिव,सखाउ। कहत राम-बिधु-बदन रिसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ ॥ २ ॥ खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ। जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ ॥ ३ ॥ सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ। दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ ॥ ४ ॥ भव-धनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गये ताउ। छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इतौ न अनत समाउ ॥ ५ ॥ कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ। ता कुमातुको मन जोगवत ज्यों निज तन मरम कुघाउ ॥ ६ ॥ कपि-सेवा-बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ। देबेको न कछु रिनियाँ हौं धनिक तूँ पत्र लिखाउ ॥ ७ ॥ अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्यो छल-छाउ। भरत सभा सनमानि,सराहत, होत न हृदय अघाउ ॥ ८ ॥ निज करुना करतूति भगत पर चपत चलत चरचाउ। सकृत प्रनाम प्रनत जल बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ ॥ ९ ॥ समुझि समुझि गुनग्राम रामके, उर अनुराग बढ़ाउ। तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-पसाउ ॥ १० ॥ १०१ जाउँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे। काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे ॥ १ ॥ कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम उधारे। खग,मृग,ब्याध,पषान,बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ॥ २ ॥ देव,दनुज,मुनि,नाग,मनुज सब, माया-बिबस बिचारे। तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ॥ ३ ॥ १०२ हरि! तुम बहुत अनुग्रह कीन्हो। साधन-धाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों ॥ १ ॥ कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार। तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार ॥ २ ॥ बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक। ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक ॥ ३ ॥ कृपा-डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु-चारो। एहि बिधि बेधि हरहु मेरो दुख, कौतुक राम तिहारो ॥ ४ ॥ हैं श्रुति-बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै। तुलसिदास येहि जीव मोह-रजु, जेहि बाँध्यो सोइ छोरै ॥ ५ ॥ १०३ यह बिनती रघुबीर गुसाई। और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥ १ ॥ चहौं न सुगति,सुमति,संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई। हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥ २ ॥ कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई। तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाई ॥ ३ ॥ या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई। ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाई ॥ ४ ॥ १०४ जानकी-जीवनकी बलि जैहौं। चित कहै रामसीय-पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं ॥ १ ॥ उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-बिमुख न पैहौं। मन समेत या तनके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहौं ॥ २ ॥ श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहौं। रोकिहौं नयन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नैहौं ॥ ३ ॥ नातो-नेह नाथसों करि सब नातो-नेह बहैहौं। यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं ॥ ४ ॥ १०५ अबलौ नसानी, अब न नसैहौं। राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं ॥ १ ॥ पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं। स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं ॥ २ ॥ परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वे न हँसेहौं। मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं ॥ ३ ॥ राग रामकली १०६ महाराज रामादर् यो धन्य सोई। गरुअ,गुनरासि,सरबग्य,सुकृती,सूर,सील-निधि,साधु तेहि सम न कोई ॥ १ ॥ उपल,केवट,कीस,भालु,निसिचर,सबरि,गीध सम-दम-दया-दान-हीने। नाम लिये राम किये परम पावन सकल, नर तरत तिनके गुनगान कीने ॥ २ ॥ ब्याध अपराधकी साध राखी कहा, पिंगलै कौन मति भगति भेई। कौन धौं सोमजाजी अजामिल अधम, कौन गजराज धौं बाजपेयी ॥ ३ ॥ पांडु-सुत,गोपिका,बिदुर,कुबरी,सबरि,सुद्ध किये सुद्धता लेस कैसो। प्रेम लखि कृस्न किये आपने तिनहुको, सुजस संसार हरिहरको जैसो ॥ ४ ॥ कोल,खस,भील,जवनादि खल राम कहि, नीच ह्वे ऊँच पद को न पायो। दीन-दुख-दवन श्रीरवन करुना-भवन, पतित-पावन विरद बेद गायो ॥ ५ ॥ मंदमति,कुटिल,खल-तिलक तुलसी सरिस, भो न तिहुँ लोक तिहुँ काल कोऊ। नामकी कानि पहिचानि पन आपनो, ग्रसित कलि-ब्याल राख्यो सरन सोऊ ॥ ६ ॥ बिहाग राग --------- बिलावल १०७ है नीको मेरो देवता कोसलपति राम। सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम ॥ १ ॥ सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग। भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग ॥ २ ॥ बलिलपूजा चाहत नहीं, चाहत एक प्रीति। सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति ॥ ३ ॥ देहि सकल सुख,दुख दहै, आरत-जन-बंधु। गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करुनासिंधु ॥ ४ ॥ देस-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान। सबको प्रभु,सबमें बसै,सबकी गति जान ॥ ५ ॥ को करि कोटिक कामना, पूजै बहु देव। तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव ॥ ६ ॥ १०८ बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय। सकल काम पूरन करै, जाने सब कोय ॥ १ ॥ बेगि,बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस। बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस ॥ २ ॥ प्रेम-बारि-तरपन भलो, घृत सहज सनेहु। संसय-समिध, अगिनि छमा, ममता-बलि देहु ॥ ३ ॥ अघ-उचाटि, मन बस करै, मारै मद मार। आकरषै सुख-संपदा-संतोष-बिचार ॥ ४ ॥ जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि। तुलसिदास प्रभुपथ चढ् यौ, जौ लेहु निबाहि ॥ ५ ॥ १०९ कस न करहु करुना हरे! दुखहरन मुरारि! त्रिबिधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि ॥ १ ॥ इक कलिकाल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन। तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन ॥ २ ॥ सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन। यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मै करम बिहीन ॥ ३ ॥ भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे। दुख-सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे ॥ ४ ॥ तो सम देव न कोउ कृपालु, समुझौं मनमाहीं। तुलसिदास हरि तोषिये, सो साधन नाहीं ॥ ५ ॥ ११० कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति। इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥ १ ॥ जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी। हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥ २ ॥ मै अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे। जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥ ३ ॥ जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे। तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥ ४ ॥ १११ केसव! कहि न जाइ का कहिये। देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये ॥ १ ॥ सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे। धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे ॥ २ ॥ रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं। बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ॥ ३ ॥ कोउ कह सत्य,झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै। ø तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ॥ ४ ॥ ११२ केसव! कारन कौन गुसाई। जेहि अपराध असाध जानि मोहिं तजेउ अग्यकी नाई ॥ १ ॥ परम पुनीत संत कोमल-चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई। तौ कत बिप्र,ब्याध,गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई ? ॥ २ ॥ काल,करम,गति अगति जीवकी, सब हरि! हाथ तुम्हारे। सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! फिरउँ न तुमहिं बिसारे ॥ ३ ॥ जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे। मन-बच-करम नरक-सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे ॥ ४ ॥ जद्यपि नाथ उचित न होत अस, प्रभु सों करौं ढिठाई। तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई ॥ ५ ॥ ý ११३ माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे। प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमलपद देखे ॥ १ ॥ जब लगि मै न दीन,दयालु तैं, मैं न दास, तैं स्वामी। तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी ॥ २ ॥ तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत, श्रुति गावै। बहुत नात रघुनाथ! तोहि मोहि, अब न तजे बनि आवै ॥ ३ ॥ जनक-जननि,गुरुबंधु,सुहृदकल-पति, सब प्रकार हितकारी। द्वैतरूप तम-कूप परौं नहिं, अस कछु जतन बिचारी ॥ ४ ॥ ø सुनु अदभ्र करुना बारिजलोचन मोचन भय भारी। तुलसिदास प्रभु! तव प्रकास बिनु, संसय टरै न टारी ॥ ५ ॥ ú ११४ माधव! मो समान जग माहीं। सब बिधि हीन,मलीन,दीन अति, लीन-बिषय कोउ नाहीं ॥ १ ॥ तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत-हित ईस न त्यागी। मैं दुख-सोक-बिकल कृपालु! केहि कारन दया न लागी ॥ २ ॥ नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना। ग्यान-भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना ॥ ३ ॥ बेनु करील,श्रीखंड बसंतहि दूषन मृषा लगावै। सार-रहित हत-भाग्य सुरभि, पल्लव सो कहु किमि पावै ॥ ४ ॥ सब प्रकार मैं कठिन,मृदुल हरि,दृढ़ बिचार जिय मोरे। तुलसिदास प्रभु मोह-सृंखला, छुटिहि तुम्हारे छोरे ॥ ५ ॥ ११५ माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै। बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै ॥ १ ॥ घृतपूरन कराह अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै। ईंधन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै ॥ २ ॥ तरु-कोटर महँ बस बिहंग तरु काटे मरै न जैसे। साधन करिय बिचार-हीन मन सुद्ध होइ नहिं तैसे ॥ ३ ॥ अंतर मलिन बिषय मन अति, तन पावन करिय पखारे। मरइ न उरग अनेक जतन बलमीकि बिबिध बिधि मारे ॥ ४ ॥ तुलसिदास हरि-गुरु-करुना बिनु बिमल बिबेक न होई। बिनु बिबेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ॥ ५ ॥ ११६ माधव! असि तुम्हारि यह माया । करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहिं जब लगि करहु न दाया ॥ १ ॥ सुनिय,गुनिय,समुझिय,समुझाइय,दसा हृदय नहिं आवै । जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै ॥ २ ॥ ब्रह्म-पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै । तौ कत मृगजल-रूप बिषय कारन निसि-बासर धावै ॥ ३ ॥ जेहिके भवन बिमल चिंतामनि,सो कत काँच बटोरै । सपने परबस परै, जागि देखत केहि जाइ निहोरै ॥ ४ ॥ ग्यान-भगति साधन अनेक, सब सत्य,झूँठ कछु नाही । तुलसिदास हरि-कृपा मिटै भ्रम, यह भरोस मनमाहीं ॥ ५ ॥ ११७ हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै । जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै ॥ १ ॥ जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे । तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यो, फिरत बिषय अनुरागे ॥ २ ॥ भूत-द्रोह कृत मोह-बस्य हित आपन मै न बिचारो । मद-मत्सर-अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो ॥ ३ ॥ बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी । बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी ॥ ४ ॥ मैं अपराध-सिंधु करुनाकर ! जानत अंतरजामी । तुलसिदास भव-ब्याल-ग्रसित तव सरन उरग-रिपु-गामी ॥ ५ ॥ ११८ हे हरि ! कवन जतन सुख मानहु । ज्यों गज-दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु ॥ १ ॥ जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे । रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरिपद-सुख पाइय कैसे ॥ २ ॥ देखत चारु मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी । सबिष उरग-आहार,निठुर अस,यह करनी वह बानी ॥ ३ ॥ अखिल-जीव-वत्सल, निरमत्सर,दरन-कमल-अनुरागी । ते तव प्रिय रघुबीर धीरमति, अतिसय निज-पर-त्यागी ॥ ४ ॥ जद्यपि मम औगुन अपार संसार-जोग्य रघुराया । तुलसिदास निज गुन बिचारि करुनानिधान करु दाया ॥ ५ ॥ ११९ हे हरि ! कवन जतन भ्रम भागै । देखत,सुनत,बिचारत यह मन, निज सुभाउ नहिं त्यागै ॥ १ ॥ भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई । कोउ भल कहउ,देउ कछु, असि बासना न उरते जाई ॥ २ ॥ जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै । निज करनी बिपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै ॥ ३ ॥ जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत, दुख पावै । चित्रकार करहीन जथा स्वारथ बिनु चित्र बनावै ॥ ४ ॥ हृषीकेश सुनि नाउँ जाउँ बलि, अति भरोस जिय मोरे । तुलसिदास इंद्रिय-संभव दुख, हरे बनिहिं प्रभु तोरे ॥ ५ ॥ १२० हे हरि ! कस न हरहु भ्रम भारी । जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी ॥ १ ॥ अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाई । बिन बाँधे निज हठ सठ परबस पर् यो कीरकी नाई ॥ २ ॥ सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई । बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई ॥ ३ ॥ श्रुति-गुरु-साधु-समृति-संमत यह दृश्य असत दुखकारी । तेहि बिनु तजे, भजे बिनु रघुपति, बिपति सकै को टारी ॥ ४ ॥ बहु उपाय संसार-तरन कहँ, बिमल गिरा श्रुति गावै । तुलसिदास मैं-मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै ॥ ५ ॥ १२१ हे हरि ! यह भ्रमकी अधिकाई । देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई ॥ १ ॥ जो जग मृषा ताप-त्रय-अनुभव होइ कहहु केहि लेखे । कहि न जाय मृगबारि सत्य,भ्रम ते दुख होइ बिसेखे ॥ २ ॥ सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै । कोटिहुँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै ॥ ३ ॥ अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी । सम-संतोष-दया-बिबेक तें, व्यवहारी सुखकारी ॥ ४ ॥ तुलसिदास सब बिधि प्रपञ्च जग, जदपि झूठ श्रुति गावै । रघुपति-भगति, संत-संगति बिनु, को भव-त्रास नसावै ॥ ५ ॥ १२२ मै हरि, साधन करइ न जानी । जस आमय भेषज न कीन्ह तस,दोष कहा दिरमानी ॥ १ ॥ सपने नृप कहँ घटै बिप्र-बध, बिकल फिरै अघ लागे । बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे ॥ २ ॥ स्त्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक, प्रगट होइ अबिचारे । बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे ॥ ३ ॥ निज भ्रम ते रबिकर-सम्भव सागर अति भय उपजावै । अवगाहत बोहोत नौका चढ़ि कबहुँ पार न पावै ॥ ४ ॥ तुलसिदास जग आपु सहित जब लगि निरमूल न जाई । तब लगि कोटि कलप उपाय करि मरिय, तरिय नहिं भाई ॥ ५ ॥ १२३ अस कछु समुझि परत रघुराया ! बिनु तव कृपा दयालु ! दास-हित ! मोह न छूटै माया ॥ १ ॥ बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई । निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत नहिं होई ॥ २ ॥ जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै । चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ॥ ३ ॥ षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखानै । बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जानै ॥ ४ ॥ जबलगि नहिं निज हृदि प्रकास, अरु बिषय-आस मनमाहीं । तुलसिदास तबलगि जग-जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ॥ ५ ॥ १२४ जौ निज मन परिहरै बिकारा। तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख,संसय,सोक अपारा ॥ १ ॥ सत्रु,मित्र,मध्यस्थ,तीनि ये, मन कीन्हे बरिआई। त्यागन,गहन,उपेच्छनीय,अहि हाटक तृनकी नाई ॥ २ ॥ असन,बसन,पसु बस्तु बिबिध बिधिसब मनि महँ रह जैसे। सरग,नरक,चर-अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे ॥ ३ ॥ बिटप-मध्य पुतरिका,सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये। मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये ॥ ४ ॥ रघुपति-भगति-बारि-छालित-चित, बिनु प्रयास ही सूझै। तुलसिदास कह चिद-बिलास जग बूझत बूझत बूझै ॥ ५ ॥ १२५ मै केहि कहौं बिपति अति भारी। श्रीरघुबीर धीर हितकारी ॥ १ ॥ मम हृदय भवन प्रभु तोरा। तहँ बसे आइ बहु चोरा ॥ २ ॥ अति कठिन करहिं बरजोरा। मानहिं नहिं बिनय निहोरा ॥ ३ ॥ तम,मोह,लोभ,अहँकारा। मद,क्रोध,बोध-रिपु मारा ॥ ४ ॥ अति करहिं उपद्रव नाथा। मरदहिं मोहि जानि अनाथा ॥ ५ ॥ मैं एक,अमित बटपारा। कोउ सुनै न मोर पुकारा ॥ ६ ॥ भागेहु नहिं नाथ! उबारा। रघुनायक, करहुँ सँभारा ॥ ७ ॥ कह तुलसिदास सुनु रामा। लूटहिं तसकर तव धामा ॥ ८ ॥ चिंता यह मोहिं अपारा। अपजस नहिं होइ तुम्हारा ॥ ९ ॥ १२६ मन मेरे,मानहि सिख मेरी। जो निजु भगति चहै हरि केरी ॥ १ ॥ उर आनहि प्रभु-कृत हित जेते। सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥ २ ॥ दुख-सुख अरु अपमान-बड़ाई। सब सम लेखहि बिपति बिहाई ॥ ३ ॥ सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही। जनि तेहि लागि बिदूषहि केही ॥ ४ ॥ तुलसिदास बिनु असि मति आयै। मिलहिं न राम कपट-लौ लाये ॥ ५ ॥ १२७ मै जानी,हरिपद-रति नाहीं। सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं ॥ १ ॥ जे रघुबीर चरन अनुरागे। तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे ॥ २ ॥ काम-भुजंग डसत जब जाहीं। बिषय-नींब कटु लगत न ताही ॥ ३ ॥ असमंजस अस हृदय बिचारी। बढ़त सोच नित नूतन भारी ॥ ४ ॥ जब कब राम-कृपा दुख जाई। तुलसिदास नहिं आन उपाई ॥ ५ ॥ १२८ सुमिरु सनेह-सहित सीतापति। रामचरन तजि नहिंन आनि गति ॥ १ ॥ जप,तप,तीरथ,जोग समाधी। कलिमत बिकल,न कछु निरुपाधी ॥ २ ॥ करतहुँ सुकृत न पाप सिराहीं। रकतबीज जिमि बाढ़त जाहीं ॥ ३ ॥ हरति एक अघ-असुर-जालिका। तुलसिदास प्रभु-कृपा-कालिका ॥ ४ ॥ १२९ रुचिर रसना तू राम राम राम क्यों न रटत। सुमिरत सुख-सुकृत बढ़त, अघ-अमंगल घटत ॥ १ ॥ बिनु श्रम कलि-कलुषजाल कटु कराल कटत। दिनकरके उदय जैसे तिमिर-तोम फटत ॥ २ ॥ जोग,जाग,जप,बिराग,तप सुतीरथ-अटत। बाँधिबेको भव-गयंद रेनुकी रजु बटत ॥ ३ ॥ परिहरि सुर-मनि सुनाम, गुंजा लखि लटत। लालच लघु तेरो लखि, तुलसि तोहि हटत ॥ ४ ॥ १३० राम राम,राम राम,राम राम, जपत। मंगल-मुद उदित होत, कलि-मल-छल छपत ॥ १ ॥ कहु के लहे फल रसाल, बबुर बीज बपत। हाहरि जनि जनम जाय गाल गूल गपत ॥ २ ॥ काल,करम,गुन,सुभाउ सबके सीस तपत। राम-नाम-महिमाकी चरचा चले चपत ॥ ३ ॥ साधन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत। कलिजुग बर बनिज बिपुल, नाम-नगर खपत ॥ ४ ॥ नाम सों प्रतीति-प्रीति हृदय सुथिर थपत। पावन किये रावन-रिपु तुलसिहु-से अपत ॥ ५ ॥ १३१ पावन प्रेम राम-चरन-कमल जनम लाहु परम। रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम ॥ १ ॥ जोग,मख,बिबेक,बिरत,बेद-बिदित करम। करिबे कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर,नरम ॥ २ ॥ तुलसी सुनि, जानि-बूझि, भूलहि जनि भरम। तेहि प्रभुको होहि, जाहि सब ही की सरम ॥ ३ ॥ १३२ राम-से प्रीतमकी प्रीति-रहित जीव जाय जियत। जेहि सुख सुख मानि लेत, सुख सो समुझ कियत ॥ १ ॥ जहँ जहँ जेहि जोनि जनम महि, पताल,बियत। तहँ-तहँ तू बिषय-सुखहिं, चहत लहत नियत ॥ २ ॥ कत बिमोह लट्यो,फट्यो गगन मगन सियत। तुलसी प्रभु-सुजस गाइ, क्यों न सुधा पियत ॥ ३ ॥ १३३ तोसो हौं फिरि फिरि हित,प्रिय, पुनीत सत्य बचन कहत। सुनि मन,गुनि,समुझि, क्यों न सुगम सुमग गहत ॥ १ ॥ छोटो बड़ो,खोटो खरो, जग जो जहँ रहत। अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत ॥ २ ॥ बिधि लगि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत। पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत ॥ ३ ॥ बिषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत। योहीं जिय जानि,मानि सठ! तू साँसति सहत ॥ ४ ॥ पायो केहि घृत बिचारु, हरिन-बारि महत। तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत ॥ ५ ॥ १३४ ताते हौं बार बार देव! द्वार परि पुकार करत। आरति,नति,दीनता कहें प्रभु संकट हरत ॥ १ ॥ लोकपाल सोक-बिकल रावन-डर डरत। का सुनि सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत ॥ २ ॥ कौसिक,मुनि-तीय, जनक सोच-अनल जरत। साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत ॥ ३ ॥ केवट,खग,सबरि सहज चरनकमल न रत। सनमुख तोहिं होत नाथ! कुतरुíसुफरु फरत ॥ ४ ॥ बंधु-बैर कपि-बिभीषन गुरु गलानि गरत। सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत ॥ ५ ॥ सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत। ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत ॥ ६ ॥ जाने बिनु राम-रीति पचि पचि जग मरत। परिहरि छल सरन गये तुलसिहु-से तरत ॥ ७ ॥ राग सुहो बिलावल १३५ राम सनेही सों तैं न सनेह कियो। अगम जो अमरनि हूँ सो तनु तोहिं दियो ॥ दियो सुकुल जनम,सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको। जो पाइ पंडित परमपद, पावत पुरारि-मुरारिको ॥ यह भरतखंड,समीप सुरसरि,थल भलो,संगति भली। तेरी कुमति कायर! कलप-बल्ली चहति है बिष फल फली ॥ १ ॥ ! ! ! ! अजहूँ समुझि चित दै सुनु परमारथ।û है हित सो जगहूँ जाहिते स्वारथ ॥ स्वारथहि प्रिय,स्वारथ सो का ते कौन बेद बखानई। देखु खल,अहि-खेल परिहरि,सो प्रभुहि पहिचानाई ॥ पितु-मातु,गुरु,स्वामी,अपनपौ,तिय,तनय,सेवक,सखा। प्रिय लगत जाके प्रेमसों,बिनु हेतु हित तैं नहि लखा ॥ २ ॥ ! ! ! ! दूरि न सो हितू हेरि हिये ही है। छलहि छाँड़ि सुमिरे छोहु किये ही है। किये छोहु छाया कमल करकी भगतपर भजतहि भजै। जगदीश,जीवन जीवको, जो साज सब सबको सजै ॥ हरिहि हरिता,बिधिहि बिधिता,सिवहि सिवता जो दई। सोइ जानकी-पति मधुर मूरति,मोदमय मंगल मई ॥ ३ ॥ ! ! ! ! ठाकुर अतिहि बड़ो,सील,सरल,सुठि। ध्यान अगम सिवहूँ,भेट्यो केवट उठि ॥ भरि अंक भेट्यो सजल नयन, सनेह सिथिल सरीर सो। सुर,सिद्ध,मुनि,कबि कहत कोउ न प्रेमप्रिय रघुबीर सो। खग,सबरि,निसिचर,भालु,कपि किये आपु ते बंदित बड़े। तापर तिन्ह कि सेवा सुमिरि जिय जात जनु सकुचनि गड़े ॥ ४ ॥ ! ! ! ! स्वामीको सुभाव कह्यो सो जब उर आनिहै। सोच सकल मिटिहै, राम भलो मन मानिहैं ॥ भलो मानिहै रघुनाथ जोरि जो हाथ माथो नाइहै। ततकाल तुलसीदास जीवन-जनमको फल पाइहै ॥ जपि नाम करहि प्रनाम,कहि गुन-ग्राम,रामहिं धरि हिये। बिचरहि अवनि अवनीस-चरनसरोज मन-मधुकर किये ॥ ५ ॥ १३६ (१) जिव जबते हरितें बिलगान्यो। तबतें देह गेह निज जान्यो ॥ मायाबस स्वरुप बिसरायो। तेहि भ्रमतें दारुन दुख पायो ॥ पायो जो दारुन दुसह दुख, सुख-लेस सपनेहुँ नहिं मिल्यो। भव-सूल,सोक अनेक जेहि, तेहि पंथ तू हठि हठि चल्यो ॥ बहु जोनि जनम,जरा,बिपति, मतिमंद! हरि जान्यो नहीं। श्रीराम बिनु बिश्राम मूढ़! बिचारु, लखि पायो कहीं ॥ (२) आनँद-सिंधु-मध्य तव बासा। बिनु जाने कस मरसि पियासा ॥ मृग-भ्रम-बारि सत्य जिय जानी। तहँ तू मगन भयो सुख मानी ॥ तहँ मगन मज्जसि,पान करि,त्रयकाल जल नाहीं जहाँ। निज सहज अनुभव रूप तव खल! भूलि अब आयो तहाँ ॥ निरमल,निरंजन,निरबिकार,उदार,सुख तैं परिहर् यो। निःकाज राज बिहाय नृप इव सपन कारागृह पर् यो ॥ (३) तैं निज करम-डोरि दृढ़ कीन्हीं। अपने करनि गाँठि गहि दीन्हीं ॥ ताते परबस पर् यो अभागे। ता फल गरभ-बास-दुख आगे ॥ आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जान्यो सोऊ। सिर हेठ,ऊपर चरन, संकट बात नहिं पूछै कोऊ ॥ सोनित-पुरीष जो मूत्र-मल कृमि-कर्दमावृत सोवई। कोमल सरीर,गँभीर बेदन, सीस धुनि-धुनि रोवई ॥ (४) तू निज करम-जालल जहँ घेरो। श्रीहरि संग तज्यो नहिं तेरो ॥ बहुबिधि प्रतिपालन प्रभु कीन्हों। परम कृपालु ग्यान तोहि दीन्हों ॥ तोहि दियो ग्यान-बिबेक,जनम अनेककी तब सुधि भई। तेहि ईसकी हौं सरन, जाकी बिषम माया गुनमई ॥ जेहि किये जीव-निकाय बस,रसहीन,दिन-दिन अति नई। सो करौ बेगि सँभारि श्रीपति,बिपति, महँ जेहि मति दई ॥ (५) पुनि बहुबिधि गलानि जिय मानी। अब जग जाइ भजौं चक्रपानी ॥ ऐसेहि करि बिचार चुप साधी। प्रसव-पवन प्रेरेउ अपराधी ॥ प्रेर् यो जो परम प्रचंड मारुत,कष्ट नाना तैं सह्यो। सो ग्यान,ध्यान,बिराग,अनुभव जातना-पावक दह्यो ॥ अति खेद ब्याकुल,अलप बल,छिन एक बोलि न आवई। तव तीव्र कष्ट न जान कोउ, सब लोग हरषित गावई ॥ (६) बाल दसा जेते दुख पाये। अति असीम, नहिं जाहिं गनाये ॥ छुधा-ब्याधि-बाधा भइ भारी। बेदन नहिं जानै महतारी ॥ जननी न जानै पीर सो,केहि हेतु सिसु रोदन करै। सोइ करै बिबिध उपाय, जातें अधिक तुव छाती जरै ॥ कौमार,सैसव अरु किसोर अपार अघ को कहि सकै। ब्यतिरेक तोहि निरदय! महाखल! आन कहु को सहि सकै ॥ (७) जोबन जुवती सँग रँग रात्यो। तब तू महा मोह-मद मात्यो ॥ ताते तजी धरम-मरजादा। बिसरे तब सब प्रथम बिषादा ॥ बिसरे बिषाद,निकाय-संकट समुझि नहिं फाटत हियो। फिरि गर्भगत-आवर्त सृंसतिचक्र जेहि होइ सोइ कियो ॥ कृमि-भस्म-बिट-परिनाम तनु, तेहि लागि जग बैरी भयो। परदार,परधन,द्रोहपर,संसार बाढ़ै नित नयो ॥ (८) देखत ही आई बिरुधाई। जो तैं सपनेहुँ नाहिं बुलाई ॥ ताके गुन कछु कहे न जाहीं। सो अब प्रगट देखु तनु माहीं ॥ सो प्रगट तनु जरजर जराबस,ब्याधि,सूल सतावई। सिर-कंप,इन्द्रिय-सक्ति प्रतिहत,बचन काहु न भावई ॥ गृहपालहूतें अति निरादर,खान-पान न पावई। ऐसिहु दसा न बिराग तहँ,तृष्णा-तरंग बढ़ावई ॥ (९) कहि को सकै महाभव तेरे। जनम एकके कछुक गनेरे ॥ चारि खानि संतत अवगाहीं। अजहुँ न करु बिचार मन माहीं ॥ अजहुँ बिचारु,बिकार तजि, भजु राम जन-सुखदायकं। भवसिंधु दुस्तर जलरथं, भजु चक्रधर सुरनायकं ॥ बिनु हेतु करुनाकर,उदारे, अपार-माया-तारनं। कैवल्य-पति,जगपति,रमापति,प्रानपति,गतिकारनं ॥ (१०) रघुपति-भगति सुलभ,सुखकारी। सो त्रयताप-सोक-भय-हारी ॥ बिनु सतसंग भगति नहिं होई। ते तब मिलै द्रवै जब सोई ॥ जब द्रवै दीनदलयालु राघव, साधु-संगति पाइये। जेहि दरस-परस-समागमादिक पापरासि नसाइये ॥ जिनके मिले दुख-सुख समान, अमानतादिक गुन भये। मद-मोह लोभ-बिषाद-क्रोध सुबोधतें सहजहिं गये ॥ (११) सेवत साधु द्वैत-भय भागै। श्रीरघुबीर-चरन लय लागै ॥ देह-जनित विकार सब त्यागै। तब फिरि निज स्वरूप अनुरागै ॥ अनुराग सो निज रूप जो जगतें बिलच्छन देखिये। सन्तोष,सम,सीतल,सदा दम, देहवंत न लेखिये ॥ निरमल,निरामय,एकरस,तेहि हरष-सोक न ब्यापई। त्रैलोक-पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ॥ (१२) जो तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई। जो मारग श्रुति-साधु दिखावै। तेहि पथ चलत सबै सुख पावै ॥ पावै सदा सुख हरि-कृपा,संसार-आसा तजि रहै। सपनेहुँ नहीं सुख द्वैत-दरसन, बात कोटिक को कहै ॥ द्विज,देव,गुरु,हरि,संत बिनु संसार-पार न पाइये। यह जानि तुलसीदास त्रासहरन रमापति गाइये ॥ १३७ जो पै कृपा रघुपति कृपालुकी, बैर औरके कहा सरै। होइ न बाँको बार भगतको, जो कोउ कोटि उपाय करै ॥ १ ॥ तकै नीचु जो मीचु साधुकी, सो पामर तेहि मीचू मरै ॥ बेद-बिदित प्रहलाद-कथा सुनि, को न भगति-पथ पाउँ धरै ? ॥ २ ॥ गज उधारि हरि थप्यो बिभीषन, ध्रुव अबिचल कबहूँ न टरै। अंबरीष की साप सुरति करि, अजहुँ महामुनि ग्लानि गरै ॥ ३ ॥ सों धौं कहा जु न कियो सुजोधन, अबुध आपने मान जरै। प्रभु-प्रसाद सौभाग्य बिजय-जस, पांडवनै बरिआइ बरै ॥ ४ ॥ जोइ जोइ कूप खनैगो परकहँ, सो सठ फिरि तेहि कूप परै। सपनेहुँ सुख न संतद्रोहीकहँ, सुरतरु सोउ बिष-फरनि फरै ॥ ५ ॥ है काके द्वै सीस ईसके जौ हठि जनकी सीवँ चरै। तुलसिदास रघुबीर-बाहुबल सदा अभय काहु न डरै ॥ ६ ॥ १३८ कबहुँ सो कर-सरोज रघुनायक! धरिहौ नाथ सीस मेरे। जेहि कर अभय किये जन आरे, बारकल बिबस नाम टेरे ॥ १ ॥ जेहि कर-कमल कठोर संभुधन भंजि जनक-संसय मेट्यो। जेहि कर-कमल उठाइ बंधु ज्यों, परम प्रीती केवट भेंट्यो ॥ २ ॥ जेहि कर-कमल कृपालु गीधकहँ, पिंड देइ निजधाम दियो। जेहि कर बालि बिदारि दास-हित, कपिकुल-पति सुग्रीव कियो ॥ ३ ॥ आयो सरन सभीत बिभीषन जेहि कर-कमल तिलक कीन्हों। जेहि कर गहि सर चाप असुर हति, अभयदान देवन्ह दीन्हों ॥ ४ ॥ सीतल सुखद छाँह जेहि करकी, मेटति पापो,ताप,माया। निसि-बासर तेहि कर सरोजकी, चाहत तुलसिदास छाया ॥ ५ ॥ १३९ दीनदयालु,दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ ताप तई है। देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सब सुख हानि भई है ॥ १ ॥ प्रभुके बचन,बेद-बुध-सम्मत,'मम मूरति महिदेवमई है'। तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद,लोभ लालची लीलि लई है ॥ २ ॥ राज-समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है। नीति,प्रतीति,प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है ॥ ३ ॥ आश्रम-बरन-धरम-बिरहित जग, लोक-बेद-मरजाद गई है। प्रजा पतित,पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है ॥ ४ ॥ सांति,सत्य,सुभ,रीति गई घटि,बढ़ी कुरीति,कपट-कलई है। सीदत साधु,साधुता सोचति,खल बिलसत,हुलसति खलई है ॥ ५ ॥ परमारथ स्वारथ,साधन भये अफल,सफल नहिं सिद्धि सई है। कामधेनु-धरनी कलि-गोमर-बिबस बिकल जामति न बई है ॥ ६ ॥ कलि-करनी बरनिय कहाँ लौं,करत फिरत बिनु टहल टई है। तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है ॥ ७ ॥ त्यों त्यों नीच चढ़त सिर ऊपर, ज्यों ज्यों सीलबस ढील दई है। सरुष बरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हड़ेकी जई है ॥ ८ ॥ दीजै दादि देखि ना तौ बलि, महि मोद-मंगल रितई है। भरे भाग अनुराग लोग कहैं, राम कृपा-चितवनि चितई है ॥ ९ ॥ बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि, करुना-बारि भूमि भिजई है। राम-राज भयो काज,सगुन सुभ, राजा राम जगत-बिजई है ॥ १० ॥ समरथ बड़ो,सुजान सुसाहब, सुकृत-सैन हारत जितई है। सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँसति बितई है ॥ ११ ॥ उथपे थपन,उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है। तुलसी प्रभु आरत-आरतिहर, अभयबाँह केहि केहि न दई है ॥ १२ ॥ १४० ते नर नरकरूप जीवत जग भव-भंजन-पद-बिमुख अभागी। निसिबासर रुचिपाप असुचिमन,खलमति-मलिन,निगमापथ-त्यागी ॥ १ ॥ नहिं सतसंग भजन नहिं हरिको,स्त्रवन न राम-कथा-अनुरागी। सुत-बित-दार-भवन-ममता-निसि सोवत अति, न कबहुँ मति जागी ॥ २ ॥ तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि, सठ हठि पियत बिषय-बिष माँगी। सूकर-स्वान-सृगाल,सरिस जन, जनमत जगत जननि-दुख लागी ॥ ३ ॥ १४१ रामचंद्र! रघुनायक तुमसों हौं बिनती केहि भाँति करौं। अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम अनुमानि डरौं ॥ १ ॥ पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहिं हृदय धरौं। देखि आनकी बिपति परम सुख, सुनि संपति बिनु आगि जरौं ॥ २ ॥ भगति-बिराग-ग्यान साधन कहि बहु बिधि डहकत लोग फिरों। सिव-सरबस सुखधाम नाम तव, बेचि नरकप्रद उदर भरौं ॥ ३ ॥ जानत हौं निज पाप जलधि जिय, जल-सीकर सम सुनत लरौं। रज-सम-पर अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरि-सम रजतें निदरौं ॥ ४ ॥ नाना बेष बनाय दिवस-निसि, पर-बित जेहि तेहि जुगुति हरौं। एकौ पल न कबहुँ अलोल चित हित दै पद-सरोज सुमिरौं ॥ ५ ॥ जो आचरन बिचारहु मेरो,कलप कोटि लगि औटि मरौं। तुलसिदास प्रभु कृपा-बिलोकनि,गोपद-ज्यों भवसिंधु तरौं ॥ ६ ॥ १४२ सकुचत हौं अति राम कृपानिधि! क्यों करि बिनय सुनावौं। सकल धरम बिपरीत करत,केहि भाँति नाथ! मन भावौ ॥ १ ॥ जानत हौं हरि रूप चराचर, मैं हठि नयन न लावौं। अंजन-केस-सिखा जुवती, तहँ लोचन-सलभ पठावौं ॥ २ ॥ स्त्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझौं,समुझावौं। तिन्ह स्त्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावौं ॥ ३ ॥ जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौं। तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्यों रटि-रटि जनम नसावौं ॥ ४ ॥ 'करहु हृदय अति बिमल बसहिं हरि', कहि कहि सबहिं सिखावौं। हौं निज उर अभिमान-मोह-मद खल-मंडली बसावौं ॥ ५ ॥ जो तनु धरि हरिपद साधहिं जन, सो बिनु काज गँवावौं। हाटक-घट भरि धर् यो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौं ॥ ६ ॥ मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौं। पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ,सो जनावौं ॥ ७ ॥ बिप्र-द्रोह जनु बाँट पर् यो, हठि सबसों बैर बढ़ावौ। ताहूपर निज मति-बिलास सब संतन माँझ गनावौं ॥ ८ ॥ निगम सेस सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौं। तौ न सिराहिं कलप सत लगि प्रभु, कहा एक मुख गावौं ॥ ९ ॥ जो करनी आपनी बिचारौं, तौं कि सरन हौं आवौं। मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिं दिखावौं ॥ १० ॥ तुलसिदास प्रभु सो गुन नहिं, जेहि सपनेहुँ तुमहिं रिझावौं। नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौं ॥ ११ ॥ १४३ सुनहु राम रघुबीर गुसाई, मन अनीति-रत मेरो। चरन-सरोज बिसारि तिहारे, निसिदिन फिरत अनेरो ॥ १ ॥ मानत नाहिं निगम-अनुसासन, त्रास न काहू केरो। भूल्यो सूल करम-कोलुन्ह तिल ज्यों बहु बारनि पेरो ॥ २ ॥ जहँ सतसंग कथा माधवकी, सपनेहुँ करत न फेरो। लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, तिन्हसों प्रेम घनेरो ॥ ३ ॥ पर-गुन सुनत दाह, पर-दूषन सुनत हरख बहुतेरो। आप पापको नगर बसावत, सहि न सकत पर खेरो ॥ ४ ॥ साधन-फल,श्रुति-सार नाम तव, भव-सरिता कहँ बेरो। सो पर-कर काँकिनी लागि सठ, बेंचि होत हठि चेरो ॥ ५ ॥ कबहुँक हौं संगति-प्रभावतें,जाँउ सुमारग नेरो। तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो ॥ ६ ॥ इक हौं दीन,मलीन,हीनमति,बिपतिजाल अति घेरो। तापर सहि न जाय करुनानिधि, मनको दुसह दरेरो ॥ ७ ॥ हारि पर् यो करि जतन बहुत बिधि, तातें कहत सबेरो। तुलसिदास यह त्रास मिटै जब हृदय करहु तुम डेरो ॥ ८ ॥ १४४ सो धौ को जो नाम-लाज ते, नहिं राख्यो रघुबीर। कारुनीक बिनु कारन ही हरि हरी सकल भव-भीर ॥ १ ॥ बेद-बिदित,जग-बिदित अजामिल बिप्रबंधु अघ-धाम। घोर जमालय जात निवार् यो सुत-हित सुमिरत नाम ॥ २ ॥ पसु पामर अभिमान-सिंधु गज ग्रस्यो आइ जब ग्राह। सुमिरत सकृत सपदि आये प्रभु, हर् यो दुसह उर दाह ॥ ३ ॥ ब्याध,निषाद,गीध,गनिकादिक, अगनित औगुन-मूल। नाम-औटतें राम सबनिकी दूरि करी सब सूल ॥ ४ ॥ केहि आचरन घाटि हौं तिनतें, रघुकुल-भूषन भूप। सीदत तुलसिदास निसिबासर पर् यो भीम तम-कूप ॥ ५ ॥ १४५ कृपासिंधु! जन दीन दुवारे दादि न पावत काहे। जब जहँ तुमहिं पुकारत आरत, तहँ तिन्हके दुख दाहे ॥ १ ॥ गज,प्रहलाद,पांडुसुत,कपि सबको रिपु-संकट मेट्यो। प्रनत,बंधु-भय-बिकल,बिभीषन,उठि सो भरत ज्यों भेट्यो ॥ २ ॥ मैं तुम्हरो लेइ नाम ग्राम इक उर आपने बसावों। भजन,बिबेक,बिराग,लोग भले, मैं क्रम-क्रम करि ल्यावों ॥ ३ ॥ सुनि रिस भरे कुटिल कामादिक, करहिं जोर बरिआई। तिन्हहिं उजारि नारि-अरि-धन पुर राखहिं राम गुसाईं ॥ ४ ॥ सम-सेवा-छल-दान-दंड हौं, रचि उपाय पचि हार् यो। बिनु कारनको कलह बड़ो दुख, प्रभुसों प्रगटि पुकार् यो ॥ ५ ॥ सुर स्वारथी,अनीस,अलायक,निठुर,दया चित नाहीं। जाउँ कहाँ, को बिपति-निवारक, भवतारक जग माही ॥ ६ ॥ तुलसी जदपि पोच,तउ तुम्हरो, और न काहु केरो। दीजै भगति-बाँह बारक, ज्यों सुबस बसै अब खेरो ॥ ७ ॥ १४६ हौं सब बिधि राम, रावरो चाहत भयो चेरो। ठौर ठौर साहबी होत है, ख्याल काल कलि केरो ॥ १ ॥ काल-करम-इंद्रिय,बिषय गाहकगन घेरो। हौं न कबूलत, बाँधि कै मोल करत करेरो ॥ २ ॥ बंदि-छोर तेरो नाम है, बिरुदैत बड़ेरो। मैं कह्यो, तब छल-प्रीति कै माँगे उर डेरो ॥ ३ ॥ नाम-ओट अब लगि बच्यो मलजुग जग जेरो। अब गरीब जन पोषिये पाइबो न हेरो ॥ ४ ॥ जेहि कौतुक बक/खग स्वानको प्रभु न्याव निबेरो। तेहि कौतुक कहिये कृपालु! 'तुलसी है मेरो' ॥ ५ ॥ १४७ कृपासिंधु ताते रहौं निसिदिन मन मारे। महाराज! लाज आपुही निज जाँघ उघारे ॥ १ ॥ मिले रहैं, मार् यौ चहै कामादि संघाती। मो बिनु रहै न, मेरियै जारैं छल छाती ॥ २ ॥ बसत हिये हित जानि मैं सबकी रुचि पाली। कियो कथकको दंड हौं जड़ करम कुचाली ॥ ३ ॥ देखी सुनी न आजु लौं अपनायति ऐसी। करहिं सबै सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी ॥ ४ ॥ बड़े अलेखी लखि परै, परिहरै न जाहीं। असमंजसमें मगन हौं, लीजै गहि बाहीं ॥ ५ ॥ बारक बलि अवलोकिये, कौतुक जन जी को। अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसीको ॥ ६ ॥ १४८ कहौ कौन मुहँ लाइ कै रघुबीर गुसाई। सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई ॥ १ ॥ सेवत बस,सुमिरत सखा, सरनागत सो हौं। गुनगन सीतानाथके चित करत न हौं हौं ॥ २ ॥ कृपासिंधु बंधु दीनके आरत-हितकारी। प्रनत-पाल बिरुदावली सुनि जानि बिसारी ॥ ३ ॥ सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद-प्रीति सुधारी। पाइ सुसाहिब राम सों, भरि पेट बिगारी ॥ ४ ॥ नाथ गरीबनिवाज हैं,मैं गही न गरीबी। तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परै सो कीबी ॥ ५ ॥ १४९ कहाँ जाउँ, कासों कहौं, और ठौर न मेरे। जनम गँवायो तेरे ही द्वार किंकर तेरे ॥ १ ॥ मै तौ बिगारी नाथ सों आरतिके लीन्हें। तोहि कृपानिधि क्यों बनै मेरी-सी कीन्हें ॥ २ ॥ दिन-दुरदिन दिन-दुरदसा, दिन-दुख दिन-दूषन। जब लौं तू न बिलोकिहै रघुबंस-बिभूषन ॥ ३ ॥ दई पीठ बिनु डीठ मैं तुम बिस्व बिलोचन। तो सों तुही न दूसरो नत-सोच-बिमोचन ॥ ४ ॥ पराधीन देव दीन हौं,स्वाधीन गुसाईं। बोलनिहारे सों करै बलि बिनयकी झाई ॥ ५ ॥ आपु देखि मोहि देखिये जन मानिय साँचो। बड़ी ओट रामनामकी जेहि लई सो बाँचो ॥ ६ ॥ रहनि रीति राम रावरी नित हिय हुलसी है। ज्यों भावै त्यों करु कृपा तेरो तुलसी है ॥ ७ ॥ १५० रामभद्र! मोहिं आपनो सोच है अरु नाहीं। जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं ॥ १ ॥ नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ। तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ ॥ २ ॥ बड़ी गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं। कूर कुसेवक कहत हौं सेवककी नाई ॥ ३ ॥ भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी। बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब-सिर गारी ॥ ४ ॥ असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै। दीनबंधु! कीजै सोई बनि परै जो बूझै ॥ ५ ॥ बिरुदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौं। तुलसी प्रभुको परिहर् यो सरनागत सो हौं ॥ ६ ॥ १५१ जो पै चेराई रामकी करतो न लजातो। तौ तू दाम कुदाम ज्यों कर-कर न बिकातो ॥ १ ॥ जपत जीह रघुनाथको नाम नहिं अलसातो। बाजीगरके सूम ज्यों खल खेह न खातो ॥ २ ॥ जौ तू मन! मेरे कहे राम-नाम कमातो। सीतापति सनमुख सुखी सब ठाँव समातो ॥ ३ ॥ राम सोहाते तोहिं जौ तू सबहिं सोहातो। काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो ॥ ४ ॥ राम-नाम अनुरागही जिय जो रतिआतो। स्वारथ-परमारथ-पथी तोहिं सब पतिआतो ॥ ५ ॥ सेइ साधु सुनि समुझि कै पर-पीर पिरातो। जनम कोटिको काँदले हृद-हृदय थिरातो ॥ ६ ॥ भव-मग अगम अनंत है, बिनु श्रमहि सिरातो। महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो ॥ ७ ॥ अमर-अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो। होतो मंगल-मूल तू, अनुकूल बिधातो ॥ ८ ॥ जो मन-प्रीति-प्रतीतिसों राम-नामहिं रातो। नसातो तुलसी रामप्रसादसों तिहुँताप ------- ॥ ९ ॥ नसातो १५२ राम भलाई आपनी भल कियो न काको। जुग जुग जानकीनाथको जग जागत साको ॥ १ ॥ ब्रह्मादिक बिनती करी कहि दुख बसुधाको। रबिकुल-कैरव-चंद भो आनंद-सुधाको ॥ २ ॥ कौसिक गरत तुषार ज्यों तकि तेज तियाको। प्रभु अनहित हित को दियो फल कोप कृपाको ॥ ३ ॥ हर् यो पाप आप जाइकै संताप सिलाको। सोच-मगन काढ्यो सही साहिब मिथिलाको ॥ ४ ॥ रोष-रासि भृगुपति धनी अहमिति ममताको। चितवत भाजन करि लियो उपसम समताको ॥ ५ ॥ मुदित मानि आयसु चले बन मातु-पिताको। धरम-धुरंधर धीरधुर गुन-सील-जिता को ? ॥ ६ ॥ गुह गरीब गतग्याति हू जेहि जिउ न भखा को ? पायो पावन प्रेम ते सनमान सखाको ॥ ७ ॥ सदगति सबरी गीधकी सादर करता को ? सोच-सींव सुग्रीवके संकट-हरता को ? ॥ ८ ॥ अस काल-गहा राखि बिभीषनको सकै ----------- को ? तेहि काल कहाँ आज बिराजत राज है दसकंठ जहाँको ॥ ९ ॥ बालिस बासी अवधको बूझिये न खाको। सो पाँवर पहुँचो तहाँ जहँ मुनि-मन थाको ॥ १० ॥ गति न लहै राम-नामसों बिधि सो सिरिजा को ? सुमिरत कहत प्रचारि कै बल्लभ गिरिजाको ॥ ११ ॥ अकनि अजामिलकी कथा सानंद न भा को ? नाम लेत कलिकालहू हरिपुरहिं न गा को ? ॥ १२ ॥ राम-नाम-महिमा करै काम-भुरुह आको। साखी बेद पुरान है तुलसी-तन ताको ॥ १३ ॥ १५३ मेरे रावरियै गति है रघुपति बलि जाउँ । निलज नीच निरधन निरगुन कहँ, जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ ॥ १ ॥ है घर-घर बहु भरे सुसाहिब, सूझत सबनि आपनो दाउँ । बानर-बंधु बिभीषन-हितु बिनु, कोसलपाल कहूँ न समाउँ ॥ २ ॥ प्रनतारति- भंजन जन-रंजन, सरनागत पबि-पंजर नाउँ । कीजै दास दासतुलसी अब, कृपासिंधु बिनु मोल बिकाउँ ॥ ३ ॥ १५४ देव ! दूसरो कौन दीनको दयालु । सीलनिधान सुजान-सिरोमनि, सरनागत-प्रिय प्रनत-पालु ॥ १ ॥ को समरथ सरबग्य सकल प्रभु, सिव-सनेह-मानस मरालु । को साहिब किये मीत प्रीतिबस खग निसिचर कपि भील भालु ॥ २ ॥ नाथ हाथ माया-प्रपंच सब,जीव-दोष-गुन-करम-कालु । तुलसिदास भलो पोच रावरो, नेकु निरखि कीजिये निहालु ॥ ३ ॥ १५५ बिस्वास एक राम-नामको । मानत नहि परतीति अनत ऐसोइ सुभाव मन बामको ॥ १ ॥ पढिबो पर् यो न छठी छ मत रिगु जजुर अथर्वन सामको । ब्रत तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को ? ॥ २ ॥ करम-जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दामको । ग्यान बिराग जोग जप तप, भय लोभ मोह कोह कामको ॥ ३ ॥ सब दिन सब लायक भव गायक रघुनायक गुन-ग्रामको । बैठे नाम-कामतरु-तर डर कौन घोर घन घामको ॥ ४ ॥ को जानै को जैहै जमपुर को सुरपुर पर धामको । तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन रामगुलामको ॥ ५ ॥ १५६ कलि नाम कामतरु रामको । दलनिहार दारिद दुकाल दुख, दोष घोर घन घामको ॥ १ ॥ नाम लेत दाहिनो होत मन,बाम बिधाता बामको । कहत मुनीस महेस महातम,उलटे सूधे नामको ॥ २ ॥ भलो लोक-परलोक तासु जाके बल ललित-ललामको । तुलसी जग जानियत नामते सोच न कूच मुकामको ॥ ३ ॥ १५७ सेइये सुसाहिब राम सो । सुखद सुसील सुजान सूर सुचि, सुंदर कोटिक काम सो ॥ १ ॥ सारद सेस साधु महिमा कहैं, गुनगन-गायक साम सो । सुमिरि सप्रेम नाम जासों रति चाहत चंद्र-ललाम सो ॥ २ ॥ गमन बिदेस न लेस कलेसको,सकुचत सकृत प्रनाम सो । साखी ताको बिदित बिभीषन, बैठो है अबिचल धाम सो ॥ ३ ॥ टहल सहल जन महल-महल,जागत चारो जुग जाम सो । देखत दोष न रीझत ,रीझत सुनि सेवक गुन-ग्राम सो ॥ ४ ॥ जाके भजे तिलोक-तिलक भये,त्रिजग जोनि तनु तामसो । तुलसी ऐसे प्रभुहिं भजै जो न ताहि बिधाता बाम सो ॥ ५ ॥ राग नट १५८ कैसे देउँ नाथहिं खोरि । काम-लोलुप भ्रमत मन हरि भगति परिहरि तोरि ॥ १ ॥ बहुत प्रीति पुजाइबे पर, पूजिबे पर थोरि। देत सिख सिखयो न मानत,मूढ़ता असि मोरि ॥ २ ॥ किये सहित सनेह जे अघ हृदय राखे चोरि । संग-बस किये सुभ सुनाये सकल लोक निहोरि ॥ ३ ॥ करौं जो कछु धरौं सचि-पचि सुकृत-सिला बटोरि । पैठि उर बरबस दयानिधि दंभ लेत अँजोरि ॥ ४ ॥ लोभ मनहिं नचाव कपि ज्यों, गरे आसा-डोरि । बात कहौं बनाइ बुध ज्यों, बर बिराग निचोरि ॥ ५ ॥ एतेहुँ पर तुम्हरो कहावत,लाज अँचई घोरि । निलजता पर रीझि रघुबर, देहु तुलसिहिं छोरि ॥ ६ ॥ १५९ है प्रभु ! मेरोई सब दोसु । सीलसींधु कृपालु नाथ अनाथ आरत-पोसु ॥ १ ॥ बेष बचन बिराग मन अघ अवगुननिको कोसु । राम प्रीती प्रतीति पोली, कपट-करतब ठोसु ॥ २ ॥ राग-रंग कुसंग ही सों, साधु-संगति रोसु । चहत केहरि-जसहिं सेइ सृगाल ज्यों खरगोसु ॥ ३ ॥ संभु-सिखवन रसन हूँ नित राम-नामहिं घोसु । दंभहू कलि नाम कुंभज सोच-सागर-सोसु ॥ ४ ॥ मोद-मंगल-मूल अति अनुकूल निज निरजोसु । रामनाम प्रभाव सुनि तुलसिहुँ परम परितोसु ॥ ५ ॥ १६० मैं हरि पतित-पावन सुने । मैं पतित तुम पतित-पावन दोउ बानक बने ॥ १ ॥ ब्याध गनिका गज अजामिल साखि निगमनि भने । और अधम अनेक तारे जात कापै गने ॥ २ ॥ जानि नाम अजानि लीन्हें नरक सुरपुर मने । दासतुलसी सरन आयो, राखिये आपने ॥ ३ ॥ राग मलार १६१ तों सों प्रभु जो पै कहुँ कोउ होतो । तो सहि निपट निरादर निसिदिन, रटि लटि ऐसो घटि को तो ॥ १ ॥ कृपा-सुधा-जलदान माँगिबो कहाँ सो साँच निसोतो । स्वाति-सनेह-सलिल-सुख चाहत चित-चातक सो पोतो ॥ २ ॥ काल-करम-बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो । ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो ॥ ३ ॥ जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो । तेरे राज राय दसरथके, लयो बयो बिनु जोतो ॥ ४ ॥ रागसोरठ १६२ ऐसो को उदार जग माहीं । बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं ॥ १ ॥ जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी । सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी ॥ २ ॥ जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं । सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्ही ॥ ३ ॥ तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो । तौ भजु राम, काम सब पूरन करै कृपानिधि तेरो ॥ ४ ॥ १६३ एकै दानि-सिरोमनि साँचो। जोइ जाच्यो सोइ जाचकताबस, फिरि बहु नाच न नाचो ॥ १ ॥ सब स्वारथी असुर सुर नर मुनि कोउ न देत बिनु पाये। कोसलपालु कृपालु कलपतरु,द्रवत सकृत सिर नाये ॥ २ ॥ हरिहु और अवतार आपने, राखी बेद-बड़ाई। लै चिउरा निधि दई सुदामहिं जद्यपि बाल मिताई ॥ ३ ॥ कपि सबरी सुग्रीव बिभीषन, को नहिं कियो अजाची। अब तुलसिहि दुख देति दयानिधि दारून आस-पिसाची ॥ ४ ॥ १६४ जानत प्रीति-रीति रघुराई। नाते सब हाते करी राखत राम सनेह-सगाई ॥ १ ॥ नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई। ऐसेहु पितु तें अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई ॥ २ ॥ तिय-बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई। रन पर् यो बंधु बिभीषन ही को, सोच हृदय अधिकाई ॥ ३ ॥ घर गुरुगृह प्रिय सदन सासुरे,भइ जब जहँ पहुनाई। तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई ॥ ४ ॥ सहज सरूप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई। केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ॥ ५ ॥ प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई। तेरो रिनी हौं कह्यो कपि सों ऐसी मानही को सेवकाई ॥ ६ ॥ तुलसी राम-सनेह-सील लखि, जो न भगति उर आई। तौ तोहिं जनमि जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गवाँई ॥ ७ ॥ १६५ रघुबर! रावरि यहै बड़ाई। निदरि गनी आदर गरीबपर ,करत कृपा अधिकाई ॥ १ ॥ थके देव साधन करि सब, सपनेहु नहिं देत दिखाई। केवट कुटिल भालु कपि कौनप, कियो सकल संग भाई ॥ २ ॥ मिलि मुनिबृंद फिरत दंडक बन, सो चरचौ न चलाई। बारहि बार गीध सबरीकी बरनत प्रीति सुहाई ॥ ३ ॥ स्वान कहे तें कियो पुर बाहिर, जती गयंद चढ़ाई। तिय-निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नय नगर बसाई ॥ ४ ॥ यहि दरबार दीनको आदर, रीति सदा चलि आई। दीनदयालु दीन तुलसीकी काहु न सुरति कराई ॥ ५ ॥ १६६ ऐसे राम दीन-हितकारी। अतिकोमल करुनानिधान बिनु कारन पर-उपकारी ॥ १ ॥ साधन-हीन दीन निज अघ-बस, सिला भई मुनि-नारी। गृहतें गवनि परसि पद पावन घोर सापतें तारीं।२ ॥ हिंसारत निषाद तामस बपु, पसु-समान बनचारी। भेंट्यो हृदय लगाइ प्रेमबस, नहिं कुल जाति बिचारी ॥ ३ ॥ जद्यपि द्रोह कियो सुरपति-सुत, कह न जाय अति भारी। सकल लोक अवलोकि सोकहत, सरन गये भय टारी ॥ ४ ॥ बिहँग जोनि आमिष अहार पर, गीध कौन ब्रतधारी। जनक-समान क्रिया ताकी निज कर सब भाँति सँवारी ॥ ५ ॥ अधम जाति सबरी जोषित जड़, लोक-बेद तें न्यारी। जानि प्रीति, दै दरस कृपानिधि, सोउ रघुनात उधारी ॥ ६ ॥ कपि सुग्रीव बंधु-भय-ब्याकुल आयो सरन पुकारी। सहि न सके दारुन दुख जनके, हत्यो बालि,सहि गारी ॥ ७ ॥ रिपुको अनुज बिभीषन निशिचर, कौन भजन अधिकारी। सरन गये आगे ह्वे लीन्हौं भेट्यो भुजा पसारी ॥ ८ ॥ असुभ होइ जिनके सुमिरे ते बानर रीछ बिकारी। बेद-बिदित पावन किये ते सब, महिमा नाथ! तुम्हारी ॥ ९ ॥ कहँ लगि कहौं दीन अगनित जिन्हकी तुम बिपति निवारी। कलिमल-ग्रसित दासतुलसीपर, काहे कृपा बिसारी ? ॥ १० ॥ १६७ रघुपति-भगति करत कठिनाई। कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई ॥ १ ॥ जो जेहि कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी। सफरी सनमुख जल-प्रवाह सुरसरी बहै गज भारी ॥ २ ॥ ज्यों सर्करा मिलै सिकता महँ, बलतें न कोउ बिलगावै। अति रसस्य सूच्छम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ॥ ३ ॥ सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवे निद्रा तजि जोगी। सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख, अतिसय द्वैत-बियोगी ॥ ४ ॥ सोक मोह भय हरष दिवस-निसि देस-काल तहँ नाहीं। तुलसिदास यहि दसाहीन संसय निरमूल न जाहीं ॥ ५ ॥ १६८ जो पै राम-चरन-रति होती। तौ कत त्रिबिध सूल निसिबासर सहते बिपति निसोती ॥ १ ॥ जो संतोष-सुधा निसिबासर सपनेहुँ कबहुकँ पावै। तौ कत बिषय बिलोकि झूँठ जल मन-कुरंग ज्यों धावै ॥ २ ॥ जो श्रीपति-महिमा बिचारि उर भजते भाव बढ़ाए। तौ कत द्वार-द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए ॥ ३ ॥ जे लोलुप भये दास आसके ते सबहीके चेरे। प्रभु-बिस्वास आस जीती जिन्ह, ते सेवक हरि केरे ॥ ४ ॥ नहिं एकौ आचरन भजनको, बिनय करत हौं ताते। कीजै कृपा दासतुलसी पर, नाथ नामके नाते ॥ ५ ॥ १६९ जो मोही राम लागते मीठे। तौ नवरस षटरस-रस अनरस ह्वे जाते सब सीठे ॥ १ ॥ बंचक बिषय बिबिध तनु धरि अनुभवे सुने अरु डीठे। यह जानत हौं हृदय आपने सपने न अघाइ उबीठे ॥ २ ॥ तुलसिदास प्रभु सों एहि बल बचन कहत अति ढीठे। नामकी लाज राम करुनाकर केहि न दिये कर चीठे ॥ ३ ॥ १७० यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो। ज्यों छल छाँड़ि सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो ॥ १ ॥ ज्यों चितई परनारि, सुने पातक-प्रपंच घर-घरके। त्यों न साधु, सुरसरि-तरंग-निरमल गुनगन रघुबरके ॥ २ ॥ ज्यों नासा सुगंधरस-बस, रसना षटरस-रति मानी। राम-प्रसाद-माल जूठन लगि त्यों न ललकि ललचानी ॥ ३ ॥ चंदन-चंदबदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो। त्यों रघुपति-पद-पदुम-परस को तनु पातकी न तरस्यो ॥ ४ ॥ ज्यों सब भाँती कुदेव कुठाकुर सेये बपु बचन हिये हूँ। त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ ॥ ५ ॥ चंचल चरन लोभ लगि लोलुप द्वार-द्वार जग बागे। राम-सीय-आस्रमनि चलत त्यों भये न स्रमित अभागे ॥ ६ ॥ सकल अंग पद-बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है। है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु-मूरति कृपामई है ॥ ७ ॥ १७१ कीजै मोको जमजातनामई। राम! तुमसे सुचि सुहृद साहिबहिं ,मैं सठ पीठि दई ॥ १ ॥ गरभबास दस मास पालि पितु-मातु-रूप हित कीन्हों। जड़हि बिबेक,सुसील खलहिं, अपराधहिं आदर दीन्हों ॥ २ ॥ कपट करौं अंतरजामिहुँ सों, अघ ब्यापकहिं दुरावौं। ऐसेहु कुमति कुसेवक पर रघुपति न कियो मन बावौं ॥ ३ ॥ उदर भरौं कोंकर कहाइ बेंच्यौं बिषयनि हाथ हियो है। मोसे बंचकको कृपालु छल छाँड़ि कै छोह कियो है ॥ ४ ॥ पल-पलके उपकार रावरे जानि बूझी सुनि नीके। भिद्यो न कुलिसहुँ ते कठोर चित कबहुँ प्रेम सिय-पीके ॥ ५ ॥ स्वामीकी सेवक-हितता सब, कछु निज साँई-द्रोहाई। मैं मति-तुला तौलि देखी भइ मेरेहि दिसि गरूआई ॥ ६ ॥ एतेहु पर हित करत नाथ मेरो, करि आये, अरु करिहैं। तुलसी अपनी ओर जानियत प्रभुहि कनौड़ो भरिहैं ॥ ७ ॥ १७२ कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो। श्रीरघुनाथ-कृपालु-कृपातें संत-सुभाव गहौंगो ॥ १ ॥ जथालाभसंतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो। पर-हित-निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो ॥ २ ॥ परुष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो। बिगत मान, सम शीतल मन, परगुन नहिं दोष कहौंगो ॥ ३ ॥ परहरि देह-जनित चिंता, दुख-सुख समबुद्धि सहौंगो। तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि-भगति लहौंगो ॥ ४ ॥ १७३ नाहिंन आवत आन भरोसो। यहि कलिकाल सकल साधनतरु है स्रम-फलनि फरो सो ॥ १ ॥ तप,तीरथ,उपवास,दान,मख जेहि जो रुचै करो सो। पायेहि पै जानिबो करम-फल भरि-भरि बेद परोसो ॥ २ ॥ आगम-बिधि जप-जग करत नर सरत न काज खरो सो। सुख सपनेहु न जोग-सिधि-साधन, रोग बियोग धरो सो ॥ ३ ॥ काम, क्रोध,मद,लोभ,मोह मिलि ग्यान बिराग हरो सो। बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत आम घरो सो ॥ ४ ॥ बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो। गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोंहि लगत राज-डगरो सो ॥ ५ ॥ तुलसी बिनु परतीती प्रीति फिरि-फिरि पचि मरै मरो सो। रामनाम-बोहित भव-सागर चाहै तरन तरो सो ॥ ६ ॥ १७४ जाके प्रिय न राम-बैदेही। तजिये ताहि -------- कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥ १ ॥ सो छाँड़िये तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी। बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ॥ २ ॥ नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लों। अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं ॥ ३ ॥ तुलसि सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो। जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ॥ ४ ॥ १७५ रहनि जो पै -----रामसों नाहीं। लगन तौ नर खर कूकर सूकर सम बृथा जियत जग माहीं ॥ १ ॥ काम,क्रोध,मद,लोभ,नींद,भय,भूख,प्यास सबहीके। मनुज देह सुर-साधु सराहत, सो सनेह सिय-पीके ॥ २ ॥ सूर,सुजान,सुपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुआई। बिनु हरिभजन इँदारुनके फल तजत नहीं करुआई ॥ ३ ॥ कीरति, कुल करतूति, भूति भलि, सील, सरूप सलोने। तुलसी प्रभु-अनुराग-रहित जस सालन साग अलोने ॥ ४ ॥ १७६ राख्यो राम सुस्वामी सों नीच नेह न नातो। एते अनादर हूँ तोहि ते न हातो ॥ १ ॥ जोरे नये नाते नेह फोकट फीके। देहके दाहक, गाहक जीके ॥ २ ॥ अपने अपनेको सब चाहत नीको। मूल दुहुँको दयालु दूलह सीको ॥ ३ ॥ जीवको जीवन प्रानको प्यारो। सुखहूको सूख रामसो बिसारो ॥ ४ ॥ कियो करैगो तोसे खलको भलो। ऐसे सुसाहब सों तू कुचाल क्यौं चलो ॥ ५ ॥ तुलसी तेरी भलाई अजहूँ बूझै। राढ़उ राउत होत फिरिकै जूझै ॥ ६ ॥ १७७ जो तुम त्यागों राम हौं तौं नहीं त्यागो। परिहरि पाँय काहि अनुरागों ॥ १ ॥ सुखद सुप्रभु तुम सो जगमाहीं। श्रवन-नयन मन गोचर नाहीं ॥ २ ॥ हौं जड़ जीव,ईस रघुराया। तुम मायापति,हौं बस माया ॥ ३ ॥ हौं तो कुजाचक,स्वामी सुदाता। हौं कुपूत, तुम हितु पितु-माता ॥ ४ ॥ जो पै कहुँ कोउ बूझत बातो। तौ तुलसी बिनु मोल बिकातो ॥ ५ ॥ १७८ भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी। आरत स्वारथी सब कहैं बात बावरी ॥ १ ॥ जीवनको दानी घन कहा ताहि चाहिये। प्रेम नेमके निबाहे चातक सराहिये ॥ २ ॥ मीनतें न लाभ-लेस पानी पुन्य पीनको। जल बिनु थल कहा मीचु बिनु मीनको ॥ ३ ॥ बड़े ही की ओट बलि बाँचि आये छोटे हैं। चलत खरेके संग जहाँ-तहाँ खोटे हैं ॥ ४ ॥ यहि दरबार भलो दाहिनेहु-बामको। मोको सुभदायक भरोसो राम-नामको ॥ ५ ॥ कहत नसानी ह्वे ह्वे हिये नाथ नीकी है। जानत कृपानिधान तुलसीके जीकी है ॥ ६ ॥ राग बिलावल १७९ कहाँ जाउँ, कासों कहौ, कौन सुनै दीनकी। त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी ॥ १ ॥ जग जगदीस घर घरनि घनेरे हैं। निराधारके अधार गुनगन तेरे हैं ॥ २ ॥ गजराज-काज खगराज तजि धायो को। मोसे दोस-कोस पोसे, तोसे माय जायो को ॥ ३ ॥ मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके। किये बहुमोल तैं करैया गीध-श्राधके ॥ ४ ॥ तुलसीकी तेरे ही बनाये,बलि,बनैगी। प्रभुकी बिलंब-अंब दोष-दुख जनैगी ॥ ५ ॥ १८० बारक बिलोकि बलि कीजै मोहिं आपनो। राय दशरथके तू उथपन-थापनो ॥ १ ॥ साहिब सरनपाल सबल न दूसरो। तेरो नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो ॥ २ ॥ बचन करम तेरे मेरे मन गड़े हैं। देखे सुने जाने मैं जहान जेते बड़े हैं ॥ ३ ॥ कौन कियो समाधान सनमान सीलाको। भृगुनाथ सो रिषी जितैया कौन लीलाको ॥ ४ ॥ मातु-पितु-बन्धु-हितु, लोक-बेदपाल को। बोलको अचल, नत करत निहाल को ॥ ५ ॥ संग्रही सनेहबस अधम असाधुको। गीध सबरीको कहौ करिहै सराधु को ॥ ६ ॥ निराधारको अधार, दीनको दयालु को। मीत कपि-केवट-रजनिचर-भालु को ॥ ७ ॥ रंक,निरगुनी,नीच जितने निवाजे हैं। महाराज! सुजन -समाज ते बिराजे हैं ॥ ८ ॥ साँची बिरुदावली न बढ़ि कहि गई है। सीलसिंधु! ढील तुलसीकी बेर भई है ॥ ९ ॥ १८१ केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये। मोको और ठौर न, सुटेक एक तेरिये ॥ १ ॥ सहस सिलातें अति जड़ मति भई है। कासों कहौं कौन गति पाहनिहिं दई है ॥ २ ॥ पद-राग-जाग चहौं कौसिक ज्यों कियो हौं। कलि-मल खल देखि भारी भीति भियो हौं ॥ ३ ॥ करम-कपीस बालि-बली, त्रास-त्रस्यो हौं। चाहत अनाथ-नाथ! तेरी बाँह बस्यो हौं ॥ ४ ॥ महा मोह-रावन बिभीषन ज्यों हयो हौं। त्राहि, तुलसीस! त्राहि तिहूँ ताप तयो हौं ॥ ५ ॥ १८२ नाथ ! गुननाथ सुनि होत चित चाउ सो। राम रीझिबेको जानौं भगति न भाउ सो ॥ १ ॥ करम,सुभाउ,काल, ठाकुर न ठाउँ सो। सुधन न, सुतन न,सुमन, सुआउ सो ॥ २ ॥ जाँचौं जल जाहि कहै अमिय पियाउ सो। कासों कहौं काहू सों न बढ़त हियाउ सो ॥ ३ ॥ बाप! बलि जाऊँ, आप करिये उपाउ सो। तेरे ही निहारे परै हारेहू सुदाउ सो ॥ ४ ॥ तेरे ही सुझाये सूझै असुझ सुझाउ सो। तेरे ही बुझाये बूझै अबुझ बुझाउ सो ॥ ५ ॥ नाम अवलंबु-अंबु दीन मीन-राउ सो। प्रभुसों बनाइ कहौं जीह जरि जाउ सो ॥ ६ ॥ सब भाँति बिगरी है एक सुबनाउ-सो। तुलसी सुसाहिबहिं दियो है जनाउ सो ॥ ७ ॥ राग आसावरी १८३ राम! प्रीतिकी रीति आप नीके जनियत है। बड़े की बड़ाई, छोटे की छोटाई दूरि करै, ऐसी बिरुदावली, बलि, बेद मनियत है ॥ १ ॥ गीधको कियो सराध, भीलनीको खायो फल, सोऊ साधु-सभा भलीभाँति भनियत है। रावरे आदरे लोक बेद हूँ आदरियत, जोग ग्यान हूँ तें गरू गनियत है ॥ २ ॥ प्रभुकी कृपा कृपालु! कठिन कलि हूँ काल, महिमा समुझि उर अनियत है। तुलसी पराये बस भये रस अनरस, दीनबंधु! द्वारे हठ ठनियत है ॥ ३ ॥ १८४ राम-नामके जपे जाइ जियकी जरनि। कलिकाल अपर उपाय ते अपाय भये, जैसे तम नासिबेको चित्रके तरनि ॥ १ ॥ करम-कलाप परिताप पाप-साने सब, ज्यों सुफूल फूले तरु फोकट फरनि। दंभ,लोभ,लालच,उपासना बिनासि नीके, सुगति साधन भई उदर भरनि ॥ २ ॥ जोग न समाधि निरुपाधि न बिराग-ग्यान, बचन बिशेष बेष, कहूँ न करनि। कपट कुपथ कोटि, कहनि-रहनि खोटि, सकल सराहैं निज निज आचरनि ॥ ३ ॥ मरत महेस उपदेस हैं कहा करत, सुरसरि-तीर कासी धरम-धरनि। राम-नामको प्रताप हर कहैं, जपैं आप, जुग जुग जानैं जग, बेदहूँ बरनि ॥ ४ ॥ मति राम-नाम ही सों, रति राम-नाम ही सों, गति राम नाम ही की बिपति-हरनि। राम-नामसों प्रतीति प्रीति राखे कबहुँक, तुलसी ढरैंगे राम आपनी ढरनि ॥ ५ ॥ १८५ लाज न लागत दास कहावत। सो आचरन बिसारि सोच तजि, जो हरि तुम कहँ भावत ॥ १ ॥ सकल संग तजि भजत जाहि मुनि, जप तप जाग बनावत। मो-सम मंद महाखल पाँवर, कौन जतन तेहि पावत ॥ २ ॥ हरि निरमल, मलग्रसित हृदय, असमंजस मोहि जनावत। जेहि सर काक कंक बक सूकर, क्यों मराल तहँ आवत ॥ ३ ॥ जाकी सरन जाइ कोबिद दारुन त्रयताप बुझावत। तहूँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहुँ मिटत न सावत ॥ ४ ॥ भव-सरिता कहँ नाउ संत, यह कहि औरनि समुझावत। हौं तिनसों हरि! परम बैर करि ,तुम सों भलो मनावत ॥ ५ ॥ नाहिंन और ठौर मो कहँ, ताते हठि नातो लावत। राखु सरन उदार-चूड़ामनि! तुलसिदास गुन गावत ॥ ६ ॥ १८६ कौन जतन बिनती करिये। निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये ॥ १ ॥ जेहि साधन हरि! द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये। जाते बिपति-जाल निसिदिन दुख,तेहि पथ अनसरिये ॥ २ ॥ जानत हूँ मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये। सो बिपरीत देखि पर-सुख, बिनु कारन ही जरिये ॥ ३ ॥ श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये। निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये ॥ ४ ॥ संतत सोइ प्रिय मोहिं सदा जातें भवनिधि परिये। कहौं अब नाथ, कौन बलतें संसार-सोग हरिये ॥ ५ ॥ जब कब निज करुना-सुभावतें, द्रवहु तौ निस्तरिये। तुलसिदास बिस्वास आनि नहिं, कत पचि-पचि मरिये ॥ ६ ॥ १८७ ताहि तें आयो सरन सबेरें। ग्यान बिराग भगति साधन कछु सपनेहुँ नाथ! न मेरें ॥ १ ॥ लोभ-मोह-मद-काम-क्रोध रिपु फिरत रैनि-दिन घेरें। तिनहिं मिले मन भयो कुपथ-रत, फिरै तिहारेहि फेरें ॥ २ ॥ दोष-निलय यह बिषय सोक-प्रद कहत संत श्रुति टेरें। जानत हूँ अनुराग तहाँ अति सो, हरि तुम्हरेहि प्रेरें ? ॥ ३ ॥ बिष पियूष सम करहु अगिनि हिम, तारि सकहु बिनु बेरें। तुम सम ईस कृपालु परम हित पुनि न पाइहौं हेरें ॥ ४ ॥ यह जिय जानि रहौं सब तजि रघुबीर भरोसे तेरें। तुलसिदास यह बिपति बागुरौ तुम्हहिं सों बनै निबेरें ॥ ५ ॥ १८८ मैं तोहिं अब जान्यो संसार। बाँधि न सकहिं मोहि हरिके बल,प्रगट कपट-आगार ॥ १ ॥ देखत ही कमनीय, कछू नाहिंन पुनि किये बिचार। ज्यों कदलीतरु-मध्य निहारत, कबहुँ न निकसत सार ॥ २। तेरे लिये जनम अनेक मैं फिरत न पायों पार। महामोह-मृगजल-सरिता महँ बोर् यो हौं बारहिं बार ॥ ३ ॥ सुनु खल! छल बल कोटि किये बस होहिं न भगत उदार। सहित सहाय तहाँ बसि अब ,जेहि हृदय न नंदकुमार ॥ ४ ॥ तासों करहु चातुरी जो नहिं जानै मरम तुम्हार। सो परि डरै मरै रजु-अहि तें, बूझै नहिं ब्यवहार ॥ ५ ॥ निज हित सुनु सठ!हठ न करहि,जो चहहि कुसल परिवार। तुलसिदास प्रभुके दासनि तजि भजहि जहाँ मद मार ॥ ६ ॥ राग गौरी १८९ राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई रे। नाहिं तौ भव-बेगारि महँ परिहै, छूटत अति कठिनाई रे ॥ १ ॥ बाँस पुरान साज-सब अठकठ, सरल तिकोन खटोला रे। हमहिं दिहल करि कुटिल करमचँद मंद मोल बिनु डोला रे ॥ २ ॥ बिषम कहार मार-मद-माते चलहिं न पाउँ बटोरा रे। मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइय दुख झकझौरा रे ॥ ३ ॥ काँट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे। जस जस चलिय दूरि तस तस निज बास न भेंट लगाऊ रे ॥ ४ ॥ मारग अगम, संग नहिं संबल,नाउँ गाउँकर भूला रे। तुलसिदास भव त्रास हरहु अब ,होहु राम अनुकूला रे ॥ ५ ॥ १९० सहज सनेही रामसों तैं कियो न सहज सनेह। तातें भव-भाजन भयो,सुनु अजहुँ सिखावन एह ॥ १ ॥ ज्यों मुख मुकुर बिलोकिये अरु चित न रहै अनुहारि। त्यों सेवतहुँ न आपने, ये मातु-पिता, सुत-नारि ॥ २ ॥ दै दै सुमन तिल बासिकै, अरु खरि परिहरि रस लेत। स्वारथ हित भूतल भरे, मन मेचक, तन सेत ॥ ३ ॥ करि बीत्यो, अब करतु है करिबे हित मीत अपार। कबहुँ न कोउ रघुबीर सो नेह निबाहनिहार ॥ ४ ॥ जासों सब नातों फुरै, तासों न करी पहिचानि। तातें कछू समझ् यो नहीं, कहा लाभ कह हानि ॥ ५ ॥ साँचो जान्यो झूठको,झूठे कहँ साँचो जानि। को न गयो, को जात है,को न जैहै करि हितहानि ॥ ६ ॥ बेद कह्यो, बुध कहत हैं, अरु हौहुँ कहत हौं टेरि। तुलसी प्रभु साँचो हितू, तू हियकी आँखिन हेरि ॥ ७ ॥ १९१ एक सनेही साचिलो केवल कोसलपालु। प्रेम-कनोड़ो रामसो नहिं दूसरो दयालु ॥ १ ॥ तन-साथी सब स्वारथी, सुर ब्यवहार-सुजान। आरत-अधम-अनाथ हित को रघुबीर समान ॥ २ ॥ नाद निठूर, समचर सिखी, सलिल सनेह न सूर। ससि सरोग, दिनकरुबड़े, पयद प्रेम-पथ कूर ॥ ३ ॥ जाको मन जासों बँध्यो, ताको सुखदायक सोइ। सरल सील साहिब सदा सीतापति सरिस न कोइ ॥ ४ ॥ सुनि सेवा सही को करै, परिहरै को दूषन देखि। केहि दिवान दिन दीन को आदर-अनुराग बिसेखि ॥ ५ ॥ खग-सबरी पितु-मातु ज्यों माने, कपि को किये मीत। केवट भेंट्यों भरत ज्यो, ऐसो को कहु पतित-पुनीत ॥ ६ ॥ देह अभागहिं भागु को, को राखै सरन सभीत। बेद-बिदित विरुदावली, कबि-कोबिद गावत गीत ॥ ७ ॥ कैसेउ पाँवर पातकी, जेहि लई नामकी ओट। गाँठी बाँध्यो दाम तो, परख्यो न फेरि खर-खोट ॥ ८ ॥ मन मलीन, कलि किलबिषी होत सुनत जासु कृत-काज। सो तुलसी कियो आपुनो रघुबीर गरीब-निवाज ॥ ९ ॥ १९२ जो पै जानकिनाथ सों नातो नेहु न नीच। स्वारथ-परमारथ कहा, कलि कुटिल बिगोयो बीच ॥ १ ॥ धरम बरन आश्रमनिके पैयत पोथिही पुरान। करतब बिनु बेष देखिये, ज्यों सरीर बिनु प्रान ॥ २ ॥ बिहित बेद-----साधन सबै, सुनियत दायक फल चारि। बिदित राम प्रेम बिनु जानिबो जैसे सर-सरिता बिनु बारि ॥ ३ ॥ नाना पथ निरबानके, नाना बिधान बहु भाँति। तुलसी तू मेरे कहे जपु राम-नाम दिन-राति ॥ ४ ॥ १९३ अजहुँ आपने रामके करतब समुझत हित होइ। कहँ तू,कहँ कोसलधनी, तोको कहा कहत सब कोइ ॥ १ ॥ रीझि निवाज्यो कबहिं तू, कब खीझि दई तोहिं गारि। दरपन बदन निहारिकै, सुबिचारि मान हिय हारि ॥ २ ॥ बिगरी जनम अनेककी सुधरत पल लगै न आधु। 'पाहि कृपानिधि' प्रेमसों कहे को न राम कियो साधु ॥ ३ ॥ बालमीकि-केवट-कथा, कपि-भील-भालु-सनमान। सुनि सनमुख जो न रामसों, तिहि को उपदेसहि ग्यान ॥ ४ ॥ का सेवा सुग्रीवकी, का प्रीति-रीति-निरबाहु। जासु बंधु बध्यो ब्याध ज्यों, सो सुनत सोहात न काहु ॥ ५ ॥ भजन बिभीषनको कहा, फल कहा दियो रघुराज। राम गरीब-निवाजके बड़ी बाँह-बोलकी लाज ॥ ६ ॥ जपहि नाम रघुनाथको, चरचा दूसरी न चालु। सुमुख,सुखद,साहिब,सुधी,समरथ,कृपालु,नतपालु ॥ ७ ॥ सजल नयन,गदगदगिरा, गहबर मन,पुलक सरीर। गावत गुनगन रामके केहिकी न मिटी भव-भीर ॥ ८ ॥ प्रभु कृतग्य सरबस्य हैं,परिहरु पाछिली गलानि। तुलसी तोसों रामसों कछु नई न जान-पहिचानि ॥ ९ ॥ १९४ जो अनुराग न राम सनेही सों। तौ लह्यो लाहु कहा नर-देही सों ॥ १ ॥ जो तनु धरि, परिहरि सब सुख, भये सुमति राम-अनुरागी। सो तनु पाइ अघाइ किये अघ, अवगुन-उदधि अभागी ॥ २ ॥ ग्यान-बिराग,जोग-जप,तप-मख,जग मुद-मग नहिं थोरे। राम-प्रेम बिनु नेम जाय जैसे मृग-जल-जलधि-हिलोरे ॥ ३ ॥ लोक-बिलोकि, पुरान-बेदि सुनि, समुझि-बूझि गुरु-ग्यानी। प्रीति-प्रतीति राम-पद-पंकज सकल-सुमंगल-खानी ॥ ४ ॥ अजहुँ जानि जिय, मानि हारि हिय, होइ पलक महँ नीको। सुमिरु सनेहसहित हित रामहिं, मानु मतो तुलसीको ॥ ५ ॥ १९५ बलि जाउँ हौं राम गुसाईं।कीजे कृपा आपनी नाईं ॥ १ ॥ परमारथ सुरपुर-साधन सब स्वारथ सुखद भलाई। कलि सकोप लोपी सुचाल, निज कठिन कुचाल चलाई ॥ २ ॥ जहँ जहँ चित चितवत हित, तहँ नित नव बिषाद अधिकाई। रुचि-भावती भभरि भागहि, समुहाहिं अमित अनभाई ॥ ३ ॥ आधि-मगन मन, ब्याधि-बिकल तन,बचन मलीन झुठाई। एतेहुँ पर तुमसों तुलसीकी प्रभु सकल सनेह सगाई ॥ ४ ॥ १९६ काहेको फिरत मन, करत बहु जतन, मिटै न दुख बिमुख रघुकुल-बीर। कीजै जो कोटि उपाइ,त्रिबिध ताप न जाइ, कह्यो जो भुज उठाय मुनिबर कीर ॥ १ ॥ सहज टेव बिसारि तुही धौं देखु बिचारि, मिलै न मथत बारि घृत बिनु छीर। समुझि तजहि भ्रम, भजहि पद-जुगम, सेवत सुगम, गुन गहन गंभीर ॥ २ ॥ आगम निगम ग्रंथ, रिषि-मुनि, सुर-संत, सब ही को एक मत सुनु, मतिधीर। तुलसिदास प्रभु बिनु पियास मरै पसु, जद्यपि है निकट सुरसरि-तीर ॥ ३ ॥ १९७ नाहिन चरन-रति ताहि तें सहौं बिपति, कहत श्रुति सकल मुनि मतिधीर। बसै जो ससि-उछंग सुधा-स्वादित कुरंग, ताहि क्यों भ्रम निरखि रबिकर-नीर ॥ १ ॥ सुनिय नाना पुरान, मिटत नाहिं अग्यान, पढ़िय न समुझिय जिमि खग कीर। बँधत बिनहिं पास सेमर-सुमन-आस, करत चरत तेइ फल बिनु हीर ॥ २ ॥ कछु न साधन-सिधि, जानौं न निगम-बिधि, नहिं जप-तप, बस मन, न समीर। तुलसिदास भरोस परम करुना-कोस, प्रभु हरिहैं बिषम भवभीर ॥ ३ ॥ राग भैरवी १९८ मन पछितैहै अवसर बीते। दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु ही ते ॥ १ ॥ सहसबाहु दसबदन आदि नृप बचे न काल बलीते। हम-हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते ॥ २ ॥ सुत बनितादि जानि स्वारथरत, न करु नेह सबही ते। अंतहु तोहिं तजैंगे पामर! तू न तजै अबही ते ॥ ३ ॥ अब नाथहिं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते। न बुझे----काम अगिनि तुलसी कहुँ, बिषय-भोग बहु घी ते ॥ ४ ॥ कि १९९ काहे को फिरत मूढ़ मन धायो। तजि हरि-चरन-सरोज सुधारस, रबिकर-जल लय लायो ॥ १ ॥ त्रिजग देव नर असुर अपर जग जोनि सकल भ्रमि आयो। गृह बनिता, सुत, बंधु भये बहु, मातु-पिता जिन्ह जायो ॥ २ ॥ जाते निरय-निकाय निरंतर, सोइ इन्ह तोहि सिखायो। तुव हित होइ, कटै भव-बंधन, सो मगु तोहि न बतायो ॥ ३ ॥ अजहुँ बिषय कहँ जतन करत, जद्यपि बहुबिधि डहँकायो। पावक-काम भोग-घृत तें सठ, कैसे परत बुझायौ ॥ ४ ॥ बिषयहीन दुख, मिले बिपति अति, सुख सपनेहुँ नहिं पायो। उभय प्रकार प्रेत-पावक ज्यों धन दुखप्रद श्रुति गायो ॥ ५ ॥ छिन-छिन छीन होत जीवन, दुरलभ तनु बृथा गँवायो। तुलसिदास हरि भजहि आस तजि, काल -उरग जग खायो ॥ ६ ॥ २०० ताँबे सो पीठि मनहुँ तन पायो। नीच,मीच जानत न सीस पर, ईस निपट बिसरायो ॥ १ ॥ अवनि रवनि, धन-धाम, सुहृद-सुत, को न इन्हहिं अपनायो ? काके भये, गये सँग काके, सब सनेह छल-छायो ॥ २ ॥ जिन्ह भूपनि जग-जीति, बाँधि जम, अपनी बाँह बसायो। तेऊ काल कलेऊ कीन्हे, तू गिनती कब आयो ॥ ३ ॥ देखु बिचारि, सार का साँचो,कहा निगम निजु गायो। भजिहिं न अजहुँ समुझि तुलसी तेहि,जेहि महेस मन लायो ॥ ४ ॥ २०१ लाभ कहा मानुष-तनु पाये। काय-बचन-मन सपनेहुँ कबहुँक घटत न काज पराये ॥ १ ॥ जो सुख सुरपुर-नरक, गेह-बन आवत बिनहिं बुलाये। तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन, समुझत नहिं समुझाये ॥ २ ॥ पर-दारा, परद्रोह, मोहबस किये मूढ़ मन भाये। गरभबास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये ॥ ३ ॥ भय-निद्रा, मैथुन-अहार, सबके समान जग जाये। सुर-दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गवाँये ॥ ४ ॥ गई न निज-पर-बुद्धि सुद्ध ह्वे रहे न राम-लय लाये। तुलसिदास यह अवसर बीते का पुनि के पछिताये ॥ ५ ॥ २०२ काजु कहा नरतनु धरि सार् यो। पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न बिचार् यो ॥ १ ॥ द्वैत मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवतरु टरै न टार् यौ। रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिं काटि निवार् यो ॥ २ ॥ संसय-सिंधु नाम बोहित भजि निज आतमा न तार् यो। जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिं हार् यो ॥ ३ ॥ देखि आनकि सहज संपदा द्वेष-अनल मन-जार् यो। सम,दम,दया,दीन-पालन, सीतल हिय हरि न सँभार् यो ॥ ४ ॥ प्रभु गुरु पिता सखा रघुपति तैं मन क्रम बचन बिसार् यो। तुलसिदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधार् यो ॥ ५ ॥ २०३ श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान। जेहि सेवत पाइय हरि सुख-निधान भगवान ॥ १ ॥ परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दूरि। जद्यपि निकट हृदय निज रहे सकल भरिपूरि ॥ २ ॥ दुइज द्वेत-मति छाड़ि चरहि महि-मंडल धीर। बिगत मोह-माया-मद हृदय बसत रघुबीर ॥ ३ ॥ तीज त्रिगुन-पर परम पुरुष श्रीरमन मुकुंद। गुन सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद ॥ ४ ॥ चौथि चारि परिहरहु बुद्धि-मन-चित-अहंकार। बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार ॥ ५ ॥ पाँचइ पाँच परस,रस,सब्द,गंध अरु रूप। इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ॥ ६ ॥ छठ षटबरग करिय जय जनकसुता-पति लागि। रघुपति-कृपा-बारि बिनु नहीं बुताइ लोभागि ॥ ७ ॥ सातैं सप्तधातु-निरमित तनु करिय बिचार। तेहि तनु केर एक फल, कीजै पर-उपकार ॥ ८ ॥ आठइँ आठ प्रकृति-पर निरबिकार श्रीराम। केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम ॥ ९ ॥ नवमी नवद्वार-पुर बसि जेहि न आपु भल कीन्ह। ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारून दुख लीन्ह ॥ १० ॥ दसइँ दसहु कर संजम जो न करिय जिय जानि। साधन बृथा होइ सब मिलहिं न सारंगपानि।११ ॥ एकादसी एक मन बस कै सेवहु जाइ। सोइ ब्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ ॥ १२ ॥ द्वादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रेलोक। परहित-निरत सो पारन बहुरि न ब्यापत सोक ॥ १३ ॥ तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवंत। मन-क्रम-बचन-अगोचर, ब्यापक, ब्याप्य, अनंत ॥ १४ ॥ चौदसि चौदह भुवन अचर-चर-रूप गोपाल। भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल ॥ १५ ॥ पूनों प्रेम-भगति-रस हरि-रस जानहिं दास। सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, बिषय-उदास ॥ १६ ॥ त्रिबिध सूल होलिय जरे, खेलिय अब फागु। जो जिय चहसि परमसुख, तौ यहि मारग लागु ॥ १७ ॥ श्रुति-पुरान-बुध-संमत चाँचरि चरित मुरारि। करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ॥ १८ ॥ संसय-समन, दमन दुख, सुखनिधान हरि एक। साधु-कृपा बिनु मिलहिं न, करिय उपाय अनेक ॥ १९ ॥ भव सागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन। तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन ॥ २० ॥ राग कान्हरा २०४ जो मन लागै रामचरन अस। देह-गेह-सुत-बित-कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस ॥ १ ॥ द्वंद्वरहित, गतमान, ग्यानरत, बिषय-बिरत खटाइ नाना कस। सुखनिधान सुजान कोसलपति ह्वे प्रसन्न, कहु, क्यों न होंहि बस ॥ २ ॥ सर्वभूत-हित, निर्ब्यलीक चित, भगति-प्रेम दृढ़ नेम, एकरस। तुलसिदास यह होइ तबहिं जब द्रवै ईस, जेहि हतो सीसदस ॥ ३ ॥ २०५ जो मन भज्यो चहै हरि-सुरतरु। तौ तज बिषय-बिकार, सार भज, अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करु ॥ १ ॥ सम,संतोष, बिचार बिमल अति, सतसंगति,यर चारि दृढ़ करि धरु। काम- क्रोध अरु लोभ-मोह-मद, राग-द्वेष निसेष करि परिहरु ॥ २ ॥ श्रवन कथा, मुख नाम, हृदय हरि, सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरु। नयननि निरखि कृपा-समुद्र हरि अग-जग-रूप भूप सीताबरु ॥ ३ ॥ इहै भगति, बैराग्य-ग्यान यह, हरि-तोषन यह सुभ ब्रत आचरु। तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरु ॥ ४ ॥ २०६ नाहिन और कोउ सरन लायक दूजो श्रीरघुपति-सम बिपति-निवारन। काको सहज सुभाउ सेवकबस, काहि प्रनत परप्रीति अकारन ॥ १ ॥ जन-गुन अलप गनत सुमेरु करि, अवगुन कोटि बिलोकि बिसारन। परम कृपालु, भगत-चिंतामनि,बिरद पुनीत, पतितजन-तारन ॥ २ ॥ सुमिरत सुलभ,दास-दुख हरि चलत तुरत, पटपीत सँभार न। साखि पुरान-निगम-अगम सब, जानत द्रुपद-सुता अरु बारन ॥ ३ ॥ जाको जस गावत कबि-कोबिद, जिन्हके लोभ-मोह,मद-मार न। तुलसिदास तजि आस सकल भजु, कोसलपति मुनिबधू-उधारन ॥ ४ ॥ २०७ भजिबे लायक, सुखदायक रघुनायक सरिस सरनप्रद दूजो नाहिन। आनँदभवन, दुखदवन, सोकसमन रमारमन गुन गनत सिराहिं न ॥ १ ॥ आरत, अधम, कुजाति, कुटिल, खल, पतित, सभीत कहुँ जे समाहिं न। सुमिरत नाम बिबसहूँ बारक पावत सो पद, जहाँ सुर जाहिं न ॥ २ ॥ जाके पद-कमल लुब्ध मुनि-मधुकर, बिरत जे परम सुगतिहु लुभाहिं न। तुलसिदास सठ तेहि न भजसि कस, कारुनिक जो अनाथहिं दाहिन ॥ ३ ॥ राग कल्याण २०८ नाथ सों कौन बिनती कहि सुनावौं। त्रिबिध बिधि अमित अवलोकि अघ आपने, सरन सनमुख होत सकुचि सिर नावौं ॥ १ ॥ बिरचि हरिभगतिको बेष बर टाटिका, कपट-दल हरित पल्लवनि छावौं। नामलगि लाइ लासा ललित-बचन कहि, ब्याध ज्यों बिषय-बिहँगनि बझावौं ॥ २ ॥ कुटिल सतकोटि मेरे रोमपर वारियहि, साधु गनतीमें पहलेहि गनावौं। परम बर्बर खर्ब गर्ब-पर्बत चढ्यो, अग्य सर्बग्य,जन-मनि जनावौं ॥ ३। साँच किधौं झूठ मोको कहत कोउ- कोउ राम! रावरो, हौं तुम्हरो कहावौं। बिरदकी लाज करि दास तुलसिहिं देव! लेहु अपनाइ अब देहु जनि बावौ ॥ ४ ॥ २०९ नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी। करम-मन-बचन पन सत्य करुनानिधे! एक। गति राम! भवदीय पदत्रानकी ॥ १ ॥ कोह-मद-मोह-ममतायतन जानि मन, बात नहि जाति कहि ग्यान-बिग्यानकी। काम-संकलप उर निरखि बहु बासनहिं, आस नहिं एकहू आँक निरबानकी ॥ २ ॥ बेद-बोधित करम धरम बिनु अगम अति, जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी। सिद्ध-सुर-मनुज दनुजादिसेवत कठिन, द्रवहिं हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी ॥ ३ ॥ भगति दुरलभ परम, संभु-सुक-मुनि-मधुप, प्यास पदकंज-मकरंद-मधुपानकी। पतित-पावन सुनत नाम बिस्रामकृत, भ्रमित पुनि समझि चित ग्रंथि अभिमानकी ॥ ४ ॥ नरक-अधिकार मम घोर संसार-तम- कूपकहीं, भूप! मोहि सक्ति आपानकी। दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन, सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी ॥ ५ ॥ २१० औरु कहँ ठौरु रघुबंस-मनि! मेरे। पतित-पावन प्रनत-पाल असरन-सरन, बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि केरे ॥ १ ॥ समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो, करत नहिं कान बिनती बदन फेरे। तदपि ह्वे निडर हौं कहौं करुना-सिंधु, क्योंऽब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे ॥ २ ॥ मुख्य रुचि बसिबेकी पुर रावरे, राम! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे। अगम अपबरग, अरु सरग सुकृतैकफल, नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे ॥ ३ ॥ कतहुँ नहिं ठाउँ, कहँ जाउँ कोसलनाथ! दीन बितहीन हौं, बिकल बिनु डेरे। दास तुलसिहि बास देहु अब करि कृपा, बसत गज गीध ब्याधादि जेहि खेरे ॥ ४ ॥ २११ कबहुँ रघुबंसमनि ! सो कृपा करहुगे। जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र, खल नर तरे, तिन्हहि सम मानि मोहि नाथ उद्धरहुगे ॥ १ ॥ जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि, अधम आचरन कछु हृदय नहि धरहुगे। दीनहित! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपालि, चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे ॥ २ ॥ मोह-मद-मान-कामादि खलमंडली, सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे। जोग-जप-जग्य-बिग्यान ते अधिक अति, अमल दृढ़ भगति दै परम सुख भरहुगे ॥ ३ ॥ मंदजन-मौलिमनि सकल, साधनहीन, कुटिल मन, मलिन जिय जानि जो डरहुगे। दासतुलसी बेद-बिदित बिरुदावली, बिमल जस नाथ! केहि भाँति बिस्तरहुगे ॥ ४ ॥ राग केदारा २१२ रघुपति बिपति-दवन। परम कृपालु, प्रनत-प्रतिपालक, पतित-पावन ॥ १ ॥ कूर, कुटिल, कुलहीन,दीन,अति मलिन जवन। सुमिरत नाम राम पठये सब अपने भवन ॥ २ ॥ गज-पिंगला-अजामिल-से खल गनै धौं कवन। तुलसिदास प्रभु केहि न दीन्हि गति जानकी-रवन ॥ ३ ॥ २१३ हरि-सम आपदा-हरन। नहि कोउ सहज कृपालु दुसह दुख-सागर-तरन ॥ १ ॥ गज निज बल अवलोकि कमल गहि गयो सरन। दीन बचन सुनि चले गरुड़ तजि सुनाभ-धरन ॥ २ ॥ द्रुपदसुताको लग्यो दुसासन नगन करन। 'हा हरि पाहि' कहत पूरे पट बिबिध बरन ॥ ३ ॥ इहे जानि सुर-नर-मुनि-कोबिद सेवत चरन। तुलसिदास प्रभु को न अभय कियो नृग-उद्धरन ॥ ४ ॥ राग कल्यान २१४ ऐसी कौन प्रभुकी रीति ? बिरद हेतु पुनीत परिहरि पाँवरनि पर प्रीति ॥ १ ॥ गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाई। मातुकी गति दई ताहि कृपालु जादवराइ ॥ २ ॥ काममोहित गोपिकनिपर कृपा अतुलित कीन्ह। जगत-पिता बिरंचि जिन्हके चरनकी रज लीन्ह ॥ ३ ॥ नेमतें सिसुपाल दिन प्रति देत गनि गनि गारि। कियो लीन सु आपमें हरि राज-सभा मँझारि ॥ ४ ॥ ब्याध चित दै चरन मार् यो मूढ़मति मृग जानि। सो सदेह स्वलोक पठयो प्रगट करि निज बानि ॥ ५ ॥ कौन तिन्हकी कहै जिन्हके सुकृत अरु अघ दोउ। प्रगट पातकरूप तुलसी सरन राख्यो सोउ ॥ ६ ॥ २१५ श्रीरघुबीरकी यह बानि। नीचहू सों करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि ॥ १ ॥ परम अधम निषाद पाँवर, कौन ताकी कानि ? लियो सो उर लाइ सुत ज्यौं प्रेमको पहिचानि ॥ २ ॥ गीध कौन दयालु, जो बिधि रच्यो हिंसा सानि ? जनक ज्यों रघुनाथ ताकहँ दियो जल निज पानि ॥ ३ ॥ प्रकृति-मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन-खानि। खात ताके दिये फल अति रुचि बखानि बखानि ॥ ४ ॥ रजनिचर अरु रिपु बिभीषन सरन आयो जानि। भरत ज्यों उठि ताहि भैंटत देह-दसा भुलानि ॥ ५ ॥ कौन सुभग सुसील बानर, जिनहिं सुमिरत हानि। किये ते सब सखा, पूजे भवन अपने आनि ॥ ६ ॥ राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि। भजहि ऐसे प्षभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि ॥ ७ ॥ २१६ हरि तज और भजिये काहि ? नाहिनै कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि ॥ १ ॥ कनककसिपु बिरंचिको जन करम मन अरु बात। सुतहिं दुखवत बिधि न बरज्यो कालके घर जात ॥ २ ॥ संभु-सेवक जान जग, बहु बार दिये दस सीस। करत राम-बिरोध सो सपनेहु न हटक्यो ईस ॥ ३ ॥ और देवनकी कहा कहौं, स्वारथहिके मीत। कबहु काहु न राख लियो कोउ सरन गयउ सभीत ॥ ४ ॥ को न सेवत देत संपति लोकहू यह रीति। दासतुलसी दीनपर एक राम ही की प्रीति ॥ ५ ॥ २१७ जो पै दूसरो कोउ होइ। तौ हौं बारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोइ ॥ १ ॥ काहि ममता दीनपर, काको पतितपावन नाम। पापमूल अजामिलहि केहि दियो अपनो धाम ॥ २ ॥ रहे संभु बिरंचि सुरपति लोकपाल अनेक। सोक-सरि बूड़त करीसहि दई काहु न टेक ॥ ३ ॥ बिपुल-भूपति-सदहि महँ नर-नारि कह्यो 'प्रभु पाहि'। सकल समरथ रहे, काहु न बसन दीन्हों ताहि ॥ ४ ॥ एक मुख क्यों कहौं करुनासिंधुके गुन-गाथ ? भक्तहित धरि देह काह न कियो कोसलनाथ! ॥ ५ ॥ आपसे कहुँ सौंपिये मोहि जो पै अतिहि घिनात। दासतुलसी और बिधि क्यों चरन परिहरि जात ॥ ६ ॥ २१८ कबहि देखाइहौ हरि चरन। समन सकल कलेस कलि-मल ,सकल मंगल- करन ॥ १ ॥ सरद-भव सुंदर तरुनतर अरुन-बारिज-बरन। लच्छि-लालित-ललित करतल छबि अनूपम धरन ॥ २ ॥ गंग-जनक अनंग-अरि-प्रिय कपट-बटु बलि-छरन। बिप्रतिय नृग बधिकके दुख-दोस दारुन दरन ॥ ३। सिद्ध-सुर-मुनि-बृंद-बंदित सुखद सब कहँ सरन। सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन-तरन ॥ ४ ॥ कृपासिंधु सुजान रघुबर प्रनत-आरति-हरन। दरस-आस-पियास तुलसीदास चाहत मरन ॥ ५ ॥ २१९ द्वार हौं भोर ही को आजु। रटत रिरिहा आरि और न, कौर ही तें काजु ॥ १ ॥ कलि कराल दुकाल दारुन, सब कुभाँति कुसाजु। नीच जन, मन ऊँच जैसी कोढँमेंकी खाजु ॥ २ ॥ हहरि हियमें सदय बूझ्यो जाइ साधु-समाजु। मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ, तिन्ह कह्यो कोसलराजु ॥ ३ ॥ दीनता-दारिद दलै को कृपाबारिधि बाजु। दानि दसरथरायके, तू बानइत सिरताजु ॥ ४ ॥ जनमको भूखो भिखारी हौं गरीबनिवाजु। पेट भरि तुलसिहि जेंवाइय भगति-सुधा सुनाजु ॥ ५ ॥ २२० करिय सँभार, कोसलराय! और ठौर न और गति, अवलंब नाम बिहाय ॥ १ ॥ बूझि अपनी आपनो हितु आप बाप न माय। राम! राउर नाम गुर,सुर,स्वामि,सखा,सहाय ॥ २ ॥ रामराज न चले मानस-मलिनके छल छाय। कोप तेहि कलिकाल कायर मुएहि घालत घाय ॥ ३ ॥ लेत केहरिको बयर ज्यों भैक हनि गोमाय। त्योंहि राम-गुलाम जानि निकाम देत कुदाय ॥ ४ ॥ अकनि याके कपट-करतब, अमित अनय-अपाय। सुखि हरिपुर बसत होत परीछितहि पछिताय ॥ ५ ॥ कृपासिंधु! बिलोकिये, जन-मनकी साँसति साय। सरन आयो, देव! दीनदयालु! देखन पाय ॥ ६ ॥ निकट बोलि न बरजिये, बलि जाउँ, हनिय न हाय। देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनिके न्याय ॥ ७ ॥ अरुन मुख, भ्रू बिकट, पिंगल नयन रोष-कषाय। बीर सुमिरि समीरको घटिहै चपल चित चाय ॥ ८ ॥ बिनय सुनि बिहँसे अनुजसों बचनके कहि भाय। 'भली कही' कह्यो लषन हूँ हँसि,बने सकल बनाय ॥ ९ ॥ दई दीनहिं दादि, सो सुनि सुजन-सदन बधाय। मिटे संकट-सोच, पोच-प्रपंच, पाप-निकाय ॥ १० ॥ पेखि प्रीति-प्रतीति जनपर अगुन अनघ अमाय। दासतुलसी कहत मुनिगन,'जयति जय उरुगाय' ॥ ११ ॥ २२१ नाथ! कृपाहीको पंथ चितवत दीन हौं दिनराति। होइ धौं केहि काल दीनदयालु! जानि न जाति ॥ १ ॥ सुगुन, ग्यान-बिराग-भगति, सु-साधननिकी पाँति। भजे बिकल बिलोकि कलि अघ-अवगुननिकी थाति ॥ २ ॥ अति अनीति-कुरीति भइ भुइँ तरनि हू ते ताति। जाउँ कहँ ? बलि जाउँ, कहूँ न ठाउँ, मति अकुलाति ॥ ३ ॥ आप सहित न आपनो कोउ, बाप! कठिन कुभाँति। स्यामघन! सींचिये तुलसी, सालि सफल सुखाति ॥ ४ ॥ २२२ बलि जाउँ, और कासों कहौं ? सदगुनसिंधु स्वामि सेवक-हित कहुँ न कृपानिधि-सो लहौं ॥ १ ॥ जहँ जहँ लोभ लोल लालचबस निजहित चित चाहनि चहौं। तहँ तहँ तरनि तकत उलूक ज्यों भटकि कुतरु-कोटर गहौं ॥ २ ॥ काल-सुभाउ-करम बिचित्र फलदायक सुनि सिर धुनि रहौं। मोको तौ सकल सदा एकहि रस दुसह दाह दारुन दहौं ॥ ३ ॥ उचित अनाथ होइ दुखभाजन भयो नाथ! किंकर न हौं। अब रावरो कहाइ न बूझिये, सरनपाल! साँसति सहौं ॥ ४ ॥ महाराज! राजीवबिलोचन! मगन-पाप-संताप हौं। तुलसी प्रभु!जब तब जेहि तेहि बिधि राम निरबहौं ॥ ५ ॥ २२३ आपनो कबहुँ करि जानिहौ। राम गरीबनिवाज राजमनि, बिरद-लाज उर आनिहौ ॥ १ ॥ सील-सिंधु,सुंदर,सब लायक,समरथ, सदगुन-खानि हौ। पाल्यो है,पालत,पालहुगे प्रभु, प्रनत-प्रेम पहिचानिहौ ॥ २ ॥ बेद-पुरान कहत,जग जानत, दीनदयालु दिन-दानि हौ। कहि आवत, बलि जाऊँ,मनहुँ मेरी बार बिसारे बानि हौ ॥ ३ ॥ आरत-दीन-अनाथनिके हित मानत लौकिक कानि हौ। है परिनाम भलो तुलसीको सरनागत-भय-भानि हौ ॥ ४ ॥ २२४ रघुबरहि कबहुँ मन लागिहै ? कुपथ,कुचाल,कुमति,कुमनोरथ, कुटिल कपट कब त्यागिहै ॥ १ ॥ जानत गरल अमिय बिमोहबस, अमिय गनत करि आगिहै। उलटी रीति-प्रीति अपनेकी तजि प्रभुपद अनुरागिहै ॥ २ ॥ आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राम-प्रेम-पगि पागिहै। ऐसे गुन गाइ रिझाइ स्वामिसों पाइहै जो मुँह माँगिहै ॥ ३ ॥ तू यहि बिधि सुख-सयन सोइहै,जियकी जरनि भूरि भागिहै। राम-प्रसाद दासतुलसी उर राम-भगति-जोग जागिहै ॥ ४ ॥ २२५ भरोसो और आइहै उर ताके। कै कहुँ लहै जो रामहि-सो साहिब, कै अपनो बल जाके ॥ १ ॥ के कलिकाल कराल न सूझत, मोह-मार-मद छाके। कै सुनि स्वामि-सुभाउ न रह्यो चित, जो हित सब अँग थाके ॥ २ ॥ हौं जानत भलिभाँति अपनपौ, प्रभु-सो सुन्यो न साके। उपल,भील,खग,मृग रजनीचर, भले भये करतब काके ॥ ३ ॥ मोको भलो राम-नाम सुरतरु-सो, रामप्रसाद कृपालु कृपाके। तुलसी सुखी निसोच राज ज्यों बालक माय-बबाके ॥ ४ ॥ २२६ भरोसो जाहि दूसरो सो करो। मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो ॥ १ ॥ करम उपासन,ग्यान,बेदमत, सो सब भाँति खरो। मोहि तो 'सावनके अंधहि' ज्यों सूझत रंग हरों ॥ २ ॥ चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो। सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परुसि धरो ॥ ३ ॥ स्वारथ औ परमारथ हू को नहि कुंजरो-नरो। सुनियत सेतु पयोध पषाननि करि कपि कटक-तरो ॥ ४ ॥ प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो। मेरे तो माय-बाप दोउ आखर हौं सिसु-अरनि अरो ॥ ५ ॥ संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो। अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो ॥ ६ ॥ २२७ नाम राम रावरोई हित मेरे। स्वारथ-परमारथ साथिन्ह सों भुज उठाइ कहौं टेरे ॥ १ ॥ जननि-जनक तज्यो जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडेरे। मोहुँसो कोउ-कोउ कहत रामहि को, सो प्रसंग केहि केरे ॥ ३२ ॥ फिर् यौ ललात बिनु नाम उदर लगि, दुखउ दुखित मोहि हेरे। नाम-प्रसाद लहत रसाल फल अब हौं बबुर बहेरे ॥ ३ ॥ साधत साधु लोक-परलोकहि,सुनि गुनि जतन घनेरे। तुलसीके अवलंब नामको, एक गाँठि कइ फेरे ॥ ४ ॥ २२८ प्रिय रामनामतें जाहि न रामो। ताको भलो कठिन कलिकालहुँ आदि-मध्य-परिनामो ॥ १ ॥ सकुचत समुझि नाम-महिमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो। राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छाँह घोर घामो ॥ २ ॥ नाम-प्रभाउ सही जो कहै कोउ सिला सरोरुह जामो। जो सुनि सुमिरि भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील-भामो ॥ ३ ॥ बालमीकि-अजामिलके कछु हुतो न साधन सामो। उलटे पलटे नाम-महातम गुंजनि जितो ललामो ॥ ४ ॥ रामतें अधिक नाम-करतब, जेहि किये नगर-गत गामो। भये बजाइ दाहिने जो जपि तुलसिदाससे बामो ॥ ५ ॥ २२९ गरैगी जीह जो कहौं औरको हौं। जानकी-जीवन! जनम-जनम जग ज्यायो तिहारेहि कौरको हौं ॥ १ ॥ तीनि लोक, तिहुँ काल न देखत सुहृद रावरे जोरको हौं। तुमसों कपट करि कलप-कलप कृमि ह्वेहौं नरक घोरको हौं ॥ २ ॥ कहा भयो जो मन मिलि कलिकालहिं कियो भौंतुवा भौंरको हौं। तुलसिदास सीतल नित यहि बल, बड़े ठेकाने ठौरको हौं ॥ ३ ॥ २३० अकारन को हितू और को है। बिरद 'गरीब-निवाज' कौनको, भौंह जासु जन जोहै ॥ १ ॥ छोटो-बड़ो चहत सब स्वारथ, जो बिरंचि बिरचो है। कोल कुटिल, कपि-भालु पालिबो कौन कृपालुहि सोहै ॥ २ ॥ काको नाम अनख आलस कहें अघ अवगुननि बिछोहै। को तुलसीसे कुसेवक संग्रह्यो, सठ सब दिन साईं द्रोहै ॥ ३ ॥ २३१ और मोहि को है, काहि कहिहौं ? रंक-राज ज्यों मनको मनोरथ, केहि सुनाइ सुख लहिहौं ॥ १ ॥ जम-जातना,जोनि-संकट सब सहे दुसह अरु सहिहौं। मोको अगम,सुगम तुमको प्रभु, तउ फल चारि न चहिहौं ॥ २ ॥ खेलिबेको खग-मृग,तरु-कंकर है रावरो राम हौं रहिहौं। यहि नाते नरकहुँ सचु या बिनु परमपदहुँ दुख दहिहौं ॥ ३ ॥ इतनी जिय लालसा दासके, कहत पानही गहिहौं। दीजै बचन कि हृदय आनिये 'तुलसिको पन निर्बहिहौ' ॥ ४ ॥ २३२ दीनबंधु दूसरो कहँ पावो ? को तुम बिनु पर-पीर पाइ है ? केहि दीनता सुनावों ॥ १ ॥ प्रभु अकृपालु,कृपालु अलायक, जहँ-जहँ चितहिं डोलावों। इहै समुझि सुनि रहौं मौन ही, कहि भ्रम कहा गवावों ॥ २ ॥ गोपद बुड़िबे जोग करम करौं, बातनि जलधि थहावों। अति लालची,काम-किंकर मन, मुख रावरो कहावों ॥ ३ ॥ तुलसी प्रभु जियकी जानत सब, अपनो कछुक जनावों। सो कीजै,जेहि भाँति छाँडि छल द्वार परो गुन गावों ॥ ४ ॥ २३३ मनोरथ मनको एकै भाँति। चाहत मुनि-मन-अगम सुकृत-फल, मनसा अघ न अघाति ॥ १ ॥ करमभूमि कलि जनम,कुसंगति, मति बिमोह-मद-माति। करत कुजोग कोटि, कयों पैयत परमारथ-पद सांति ॥ २ ॥ सेइ साधु-गुरु,सुनि पुरान-श्रुति बूझ्यो राग बाजी ताँति। तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरु-सो, ज्यों दरपन मुख-कांति ॥ ३ ॥ २३४ जनम गयो बादिहिं बर बीति। परमारथ पाले न पर् यो कछु, अनुदिन अधिक अनीति ॥ १ ॥ खेलत खात लरिकपन गो चलि, जौबन जुवतिन लियो जीति। रोग-बियोग-सोग-श्रम-संकुल बड़ि बय बृथहि अतीति ॥ २ ॥ राग-रोष-इरिषा-बिमोह-बस रुची न साधु-समीति। कहे न सुने गुनगन रघुबरके, भइ न रामपद-प्रीति ॥ ३ ॥ हृदय दहत पछिताय-अनल अब, सुनत दुसह भवभीति। तुलसी प्रभु तें होइ सो कीजिय समुझि बिरदकी रीति ॥ ४ ॥ २३५ ऐसेहि जनम-समूह सिराने। प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने ॥ १ ॥ जे जड जीव कुटिल,कायर,खल, केवल कलिमल-साने। सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ, हरितें अधिक करि माने ॥ २ ॥ सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने। सदा मलीन पंथके जल ज्यो, कबहुँ न हृदय थिराने ॥ ३ ॥ यह दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने। तुलसी चित-चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने ॥ ४ ॥ २३६ जो पै जिय जानकी-नाथ न जाने। तौ सब करम-धरम श्रमदायक ऐसेइ कहत सयाने ॥ १ ॥ जे सुर, सिद्ध,मुनीस, जोगबिद बेद-पुरान बखाने। पूजा लेत,देत पलटे सुख हानि-लाभ अनुमाने ॥ २ ॥ काको नाम धोखेहू सुमिरत पातकपुंज पराने। बिप्र-बधिक, गज-गीध कोटि खल कौनके पेट समाने ॥ ३ ॥ मेरु-से दोष दूरि करि जनके, रेनु-से गुन उर आने। तुलसिदास तेहि सकल आस तजि भजहि न अजहुँ अयाने ॥ ४ ॥ २३७ काहे न रसना, रामहि गावहि ? निसदिन पर-अपवाद बृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥ १ ॥ नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि। ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि ॥ २ ॥ काम-कथा कलि-कैरव-चंदनि, सुनत श्रवन दै भावहि। तिनहिं हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि ॥ ३ ॥ जातरूप मति, जुगति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि। सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ॥ ४ ॥ बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहि। तुलसिदास भव तरहि, तिहुँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥ ५ ॥ २३८ आपनो हित रावरेसों जो पै सूझै। तौ जनु तनुपर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जूझै ॥ १ ॥ निज अवगुन,गुनराम! रावरे लखि-सुनि-मति-मन-रूझै। रहनि-कहनि-समुझनि तुलसीकी को कृपालु बिनु बूझै ॥ २ ॥ २३९ जाको हरि दृढ़ करि अंग कर् यो। सोइ सुसील,पुनीत,बेदबिद, बिद्या-गुननि भर् यो ॥ १ ॥ उतपति पांडु-सुतनकी करनी सुनि सतपंथ डर् यो। ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन जस सुनि-सुनि लोक तर् यो ॥ २ ॥ जो निज धरम बेदबोधित सो करत न कछु बिसर् यो। बिनु अवगुन कृकलास कूप मज्जित कर गहि उधर् यो ॥ ३ ॥ ब्रह्म बिसिख ब्रह्मांड दहन छम गर्भ न नृपति जर् यो। अजर-अमर, कुलिसहुँ नाहिंन बध, सो पुनि फेन मर् यो ॥ ४ ॥ बिप्र अजामिल अरु सुरपति तें कहा जो नहिं बिगर् यो। उनको कियो सहाय बहुत, उरको संताप हर् यो ॥ ५ ॥ गनिका अरु कंदरपतें जगमहँ अघ न करत उबर् यो। तिनको चरित पवित्र जानि हरि निज हृदि-भवन धर् यो ॥ ६ ॥ केहि आचरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जानि पर् यो। तुलसिदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खर् यो ॥ ७ ॥ २४० सोइ सुकृती,सुचि साँचो जाहि राम! तुम रीझे। गनिका,गीध,बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे ॥ १ ॥ कबहुँ न डग्यो निगम-मगतें पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये। गजधौं कौन दिछित, जाके सुमिरत लै सनाभ बाहन तजि धाये ॥ २ ॥ सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो। बायों दियो बिभव कुरुपतिको, भोजन जाइ बिदुर-घर कीन्हो ॥ ३ ॥ मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई। तुलसी सहज सनेह राम बस, और सबै जलकी चिकनाई ॥ ४ ॥ २४१ तब तुम मोहूसे सठनिको हठि गति न देते। कैसेहु नाम लेइ कोउ पामर, सुनि सादर आगे ह्वे लेते ॥ १ ॥ पाप-खानि जिय जानि अजामिल जमगन तमकि तये ताको भे ते। लियो छुड़ाइ, चले कर मींजत, पीसत दाँत गये रिस-रेते ॥ २ ॥ गौतम-तिय,गज,गीध,बिटप,कपि, हैं नाथहिं नीके मालुम जेते। तिन्ह तिन्ह काजनि -------------- साधु-समाजु तजि कृपासिंधु तब तब उठिगे ते ॥ ३ ॥ तिन्ह के काज अजहुँ अधिक आदर येहि द्वारे, पतित पुनीत होत नहिं केते। मेरे पासंगहु न पूहिहैं,ह्वे गये,है, होने खल जेते ॥ ४ ॥ हौं अबलौं करतूति तिहारिय चितवत हुतो न रावरे चेते। अब तुलसी पूतरो बाँधिहै, सहि न जात मोपै परिहास एते ॥ ५ ॥ २४२ तुम सम दींनबंधु,न दीन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई। मोसम कुटिल-मौलिमन नहिं जग, तुमसम हरि,!न हरन कुटिलाई ॥ १ ॥ हौं मन-बचन-कर्म पातक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई। हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ-हित, चित यहि सुरति कबहुँ नहिं जाई ॥ २ ॥ हौं आरत,आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई। हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई ॥ ३ ॥ तुम सुखधाम राम श्रम-भंजन, हौं अति दुखित त्रिबिध श्रम पाई। यह जिय जानि दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुझि प्रभुताई ॥ ४ ॥ २४३ यहै जानि चरनन्हि चित लायो। नाहिन नाथ! अकारनको हितु तुम समान पुरान-श्रुति गायो ॥ १ ॥ जननि जनक,सुत-दार, बंधुजन भये बहुत जहँ जहँ हौं जायो। सब स्वारथहित प्रीति, कपट चित,काहू नहिं हरिभजन सिखायो ॥ २ ॥ सुर-मुनि,मनुज-दनुज,अहि-किन्नर, मैं तनु धरि सिर काहि न नायो। जरत फिरत त्रयताप पापबस, काहु न हरि! करि कृपा जुड़ायो ॥ ३ ॥ जतन अनेक किये सुख-कारन, हरिपद-बिमुख सदा दुख पायो। अब थाक्यो जलहीन नाव ज्यों देखत बिपति-जाल जग छायो ॥ ४ ॥ मो कहँ नाथ! बूझिये, यह गति सुख-निधान निज पति बिसरायो। अब तजि रौष करहु करुना हरि! तुलसिदास सरनागत आयो ॥ ५ ॥ २४४ याहि ते मैं हरि ग्यान गँवायो। परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहि, बाहर फिरत बिकल भयो धायो ॥ १ ॥ ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद अति मतिहीन मरम नहिं पायो। खोजत गिरि,तरु,लता,भूमि, बिल परम सुगंध कहाँ तें आयो ॥ २ ॥ ज्यों सर बिमल बारि परिपूरन, ऊपर कछु सिवार तृन छायो। जारत हियो ताहि तजि हौं सठ, चाहत यहि बिधि तृषा बुझायो ॥ ३ ॥ ब्यापत त्रिबिध ताप तनु दारुन, तापर दुसह दरिद्र सतायो। अपनेहि धाम नाम-सुरतरु तजि बिषय-बबूर-बाग मन लायो ॥ ४ ॥ तुम-सम ग्यान-निधान, मोहि सम मूढ़ न आन पुराननि गायो। तुलसिदास प्रभु! यह बिचारि जिय कीजै नाथ उचित मन भायो ॥ ५ ॥ २४५ मोहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो। याके लिये सुनहु करुनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो ॥ १ ॥ सीतल मधुर पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जन खोयो। बहु भाँतिन स्रम करत मोहबस, बृथहि मंदमति बारि बिलोयो ॥ २ ॥ करम-कीच जिय जानि,सानि चित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो। तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो ॥ ३ ॥ तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो। डासत ही गइ बीति निसा सब, कबहुँ न नाथ! नींद भरि सोयो ॥ ४ ॥ २४६ लोक-बेद हूँ बिदित बात सुनि-समुझि। मोह-मोहित बिकल मति थिति न लहति। छोटे-बड़े,खोटे-खरे, मोटेऊ दूबरे, राम! रावरे निबाहे सबहीकी निबहति ॥ १ ॥ होती जो आपने बस, रहती एक ही रस, दूनी न हरष-सोक-सांसति सहति। चहतो जो जोई जोई, लहतो सो सोई सोई, केहू भाँति काहूकी न लालसा रहति। ॥ २ ॥ करम,काल, सुभाउ गुन-दोष जीव जग मायाते, सो सभै भौंह चकित चहति। ईसन-दिगीसनि, जोगीसनि,मुनीसनि हू, छोड़ति छोड़ाये तें,गहाये तें गहति ॥ ३ ॥ सतरंजको सो राज, काठको सबै समाज, महाराज बाजी रची, प्रथम न हति। तुलसी प्रभुके हाथ हारिबो-जीतिबो नाथ! बहु बेष, बहु मुख सारदा कहति ॥ ४ ॥ २४७ राम जपु जीह! जानि, प्रीति सों प्रतीत मानि, रामनाम जपे जैहै जियकी जरनि। रामनामसों रहनि, रामनामकी कहनि, कुटिल कलि-मल-सोक-संकट-हरनि ॥ १ ॥ रामनामको प्रभाउ पूजियत गनराउ, कियो न दुराउ, कही आपनी करनि। भव-सागरको सेतु, कासीहू सुगति हेतु, जपत सादर संभु सहित घरनि ॥ २ ॥ बालमीकि ब्याध हे अगाध-अपराध-निधि, 'मरा' 'मरा' जपे पूजे मुनि अमरनि। रोक्यो बिंध्य, सोख्यो सिंधु घटजहुँ नाम-बल, हार् यो हिय,खारो भयो भूसुर-डरनि ॥ ३ ॥ नाम-महिमा अपार, सेष-सुक बार बार, मति-अनुसार बुध बेदहू बरनि। नामरति-कामधेनु तुलसीको कामतरु, रामनाम है बिमोह-तिमिर-तरनि ॥ ४ ॥ २४८ पाहि,पाहि राम! पाहि रामभद्र, रामचंद्र! सुजस स्रवन सुनि आयो हौं सरन। दीनबंधु! दीनता-दरिद्र-दाह-दोष-दुख, दारुन दुसह दर-दुरित-हरन ॥ १ ॥ जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल, सब खल भूप भये भूतल-भरन। तब तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि, थापे मुनि,सुर,साधु, आस्रम, बरन ॥ २ ॥ बेद,लोक,सब साखी, काहूकी रती न राखी, रावनकी बंदि लागे अमर मरन। ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ, रामराज भयो धरम चारिहु चरन ॥ ३ ॥ सिला,गुह,गीध,कपि,भील,भालु,रातिचर, ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन। पील-उद्धरन! सीलसिंधु! ढील देखियतु, तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन ॥ ४ ॥ २४९ भली भाँति पहिचाने-जाने साहिब जहाँ लौं जग, जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम। प्रीति न प्रवीन,नीतिहीन,रीतिके मलीन, मायाधीन सब किये कालहू करम ॥ १ ॥ दानव-दनुज बड़े महामूढ़ मूँड़ चढ़े, जीते लोकनाथ नाथ! बलनि भरम। रीझि-रीझि दिये बर, खीझी-खीझि घाले घर, आपने निवाजेकी न काहूको सरम ॥ २ ॥ सेवा-सावधान तू सुजान समरथ साँचो, सदगुन-धाम राम! पावन परम। सुरुख,सुमुख,एकरस,एकरूप,तोहि, बिदित बिसेषि घटघटके मरम ॥ ३ ॥ तोसो नतपाल न कृपाल,न कँगाल मो-सो, दयामें बसत देव सकल धरम। राम कामतरु-छाँह चाहै रुचि मन माँह, तुलसी बिकल,बलि, कलि-कुधरम ॥ ४ ॥ २५० तौं हौं बार बार प्रभुहि पुकारिकै खिझावतो न, जो पै मोको होतो कहूँ ठाकुर-ठहरु। आलसी-अभागे मोसे तैं कृपालु पाले-पोसे, राजा मेरे राजाराम,अवध सहरु ॥ १ ॥ सेये न दिगीस,न दिनेस,न गनेस, गौरी, हित कै न माने बिधि हरिउ न हरु। रामनाम ही सों जोग-छेम, नेम, प्रेम-पन, सुधा सो भरोसो एहु,दूसरो जहरु ॥ २ ॥ समाचार साथके अनाथ-नाथ! कासों कहौं, नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरु। निज काज, सुरकाज,आरतके काज,राज! बूझिये बिलंब कहा कहूँ न गहरु ॥ ३ ॥ रीति सुनि रावरी प्रतीति-प्रीति रावरे सों, डरत हौं देखि कलिकालको कहरु। कहेही बनैगी कै कहाये,बलि जाउँ,राम, 'तुलसी! तू मेरो, हारि हिये न हहरु' ॥ ४ ॥ २५१ राम! रावरो सुभाउ, गुन सील महिमा प्रभाउ, जान्यो हर,हनुमान,लखन,भरत। जिन्हके हिये-सुथरु राम-प्रेम-सुरतरु, लसत सरस सुख फूलत फरत ॥ १ ॥ आप माने स्वामी कै सखा सुभाइ भाइ,पति, ते सनेह-सावधान रहत डरत। साहिब-सेवक-रीति, प्रीति-परिमिति,नीति, नेमको निबाह एक टेक न टरत ॥ २ ॥ सुक-सनकादिक, प्रहलाद-नारदादि कहैं, रामकी भगति बड़ी बिरति-निरत। जाने बिनु भगति न, जानिबो तिहारे हाथ, समुझी सयाने नाथ! पगनि परत ॥ ३ ॥ छ-मत बिमत, न पुरान मत,एक मत, नेति-नेति-नेति नित निगम करत। औरनिकी कहा चली ? एकै बात भलै भली, राम-नाम लिये तुलसी हू से तरत ॥ ४ ॥ २५२ बाप! आपने करत मेरी घनी घटि गई। लालची लबारकी सुधारिये बारक,बलि, रावरी भलाई सबहीकी भली भई ॥ १ ॥ रोगबस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु, पर-अपबाद मिथ्या-बाद बानी हई। साधनकी ऐसी बिधि, साधन बिना न सिधि, बिगरी बनावै कृपानिधिकी कृपा नई ॥ २ ॥ पतित-पावन, हित आरत-अनाथनिको, निराधारको अधार,दीनबंधु,दई। इन्हमें न एकौ भयो, बूझि न जूझ्यो न जयो, ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत बई ॥ ३ ॥ स्वाँग सूधो साधुको, कुचालि कलितें अधिक, परलोक फीकी मति, लोक-रंग-रई। बड़े कुसमाज राज! आजुलौं जो पाये दिन, महाराज! केहू भाँति नाम-ओट लईः ॥ ४ ॥ राम! नामको प्रताप जानियत नीके आप, मोको गति दूसरी न बिधि निरमई। खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु, रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई ॥ ५ ॥ २५३ राम राखिये सरन, राखि आये सब दिन। बिदित त्रिलोक तिहुँ काल न दयाल दूजो, आरत-प्रनत-पाल को है प्रभु बिन ॥ १ ॥ लाले पाले,पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी, नाथ! पै अनाथनिसों भये न उरिन। स्वामी समरथ ऐसो, हौं तिहारो जै सो. तैसो, काल-चाल हेरि होति हिये घनी घिन ॥ २ ॥ खीझि-रीझि,बिहँसि-अनख, क्यों हूँ एक बार, 'तुलसी तू मेरो' बलि, कहियत किन? जाहिं सूल निरमूल, होहिं सुख अनुकूल, महाराज राम! रावरी सौं, तेहि छिन ॥ ३ ॥ २५४ राम! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है। सुजन-सनेही, गुरु-साहिब, सखा-सुहृद्, राम-नाम प्रेम-पन अबिचल बितु है ॥ १ ॥ सतकोटि चरित अपार दधिनिधि मथि, लियो काढ़ि वामदेव नाम-घृतु है। नामको भरो सो. बल चारिहू फलको फल, सुमिरिये छाड़ि छल, भलो कृतु है ॥ २ ॥ स्वारथ-साधक, परमारथ-दायक नाम, राम-नाम सारिखो न और हितु है। तुलसी सुभाव कही, साँचिये परैगी सही, सीतानाथ-नाम नित चितहूको चितु है ॥ ३ ॥ २५५ राम!रावरो नाम साधु-सुरतरु है। सुमिरे त्रिबिध घाम हरत, पूरत काम, सकल सुकृत सरसिजको सरु है ॥ १ ॥ लाभहुको लाभ, सुखहूको सुख, सरबस, पतित-पावन, डरहूको डरु है। नीचेहूको ऊँचेहूको, रंकहूको रावहूको, सुलभ, सुखद आपनो-सो घरु है ॥ २ ॥ बेद हू, पुरान हू पुरारि हू पुकारि कह्यो, नाम-प्रेम चारिफलहूको फरु है। ऐसे राम-नाम सों न प्रीति, न प्रतीति मन, मेरे जान, जानिबो सोई नर खरु है ॥ ३ ॥ नाम-सो न मातु-पितु, मीत-हित, बंधु-गुरु, साहिब सुधी सुसील सुधाकरु है। नामसों निबाह नेहु, दीनको दयालु! देहु, दासतुलसीको, बलि, बड़ो बरु है ॥ ४ ॥ २५६ कहे बिनु रह्यो न परत,कहे राम! रस न रहत। तुमसे सुसाहिबकी ओट जन खौटो-खरो, कालकी, करमकी कुसाँसति सहत ॥ १ ॥ करत बिचार सार पैयत न कहूँ कछु, सकल बड़ाई सब कहाँ ते लहत ? नाथकी महिमा सुनि, समुझि आपनि ओर, हेरि हारि कै हहरि हृदय दहत ॥ २ ॥ सखा न, सुसेवक न, सुतिय न, प्रभु आप, माय-बाप तुही साँचो तुलसी कहत। मेरी तौ थोरी है, सुधरैगी बिगरियौ,बलि, राम! रावरी सों, रही रावरी चहत ॥ ३ ॥ २५७ दीनबंधु! दूरि किये दीनको न दूसरी सरन। आपको भले हैं सब, आपनेको कोऊ कहूँ, सबको भलो है राम! रावरो चरन ॥ १ ॥ पाहन,पसु,पतंग,कोल,भील,निसिचर, काँच ते कृपानिधान किये सुबरन। दंडक-पुहुमि पाय परसि पुनीत भई, उकठे बिटप लागे फूलन-फरन ॥ २ ॥ पतित-पावन नाम बाम हू दाहिनो, देव! दुनी न दुसह-दुख-दूषन-दरन। सीलसिंधु! तोसों ऊँची-नीचियौ कहत सोभा, तोसो तुही तुलसीको आरति-हरन ॥ ३ ॥ २५८ जानि पहिचानि मैं बिसारे हौं कृपानिधान! एतो मान ढीठ हौं उलटि देत खौरि हौं। करत जतन जासों जोरिबे को जोगीजन, तासों क्योंहू जुरी, सो अभागो बैठो तोरि हौं ॥ १ ॥ मोसो दोस-कोसको भुवन-कोस दूसरो न, आपनी समुझि सूझि आयो टकटोरि हौं। गाड़ीके स्वानकी नाईं,माया मोहकी बड़ाई, छिनहिं तजत, छिन भजत बहोरि हौं ॥ २ ॥ बड़ो साईं-द्रोही न बराबरी मेरीको कोऊ, नाथकी सपथ किये कहत करोरि हौं। दूरि कीजै द्वारतें लबार लालची प्रपंची, सुधा-सो सलिल सूकरी ज्यों गहडोरिहौं ॥ ३ ॥ राखिये नीके सुधारि, नीचको डारिये मारि, दुहूँ ओरकी बिचारि, अब न निहोरिहौं। तुलसी कही है साँची रेख बार बार खाँची, ढील किये नाम-महिमाकी नाव बोरिहौं ॥ ४ ॥ २५९ रावरी सुधारी जो बिगारी बिगरैगी मेरी,। कहौं,बलि,बेदकी न लोक कहा कहैगो ? प्रभुको उदास-भाउ, जनको पाप-प्रभाउ, दुहूँ भाँति दीनबन्धु ! दीन दुख दहैगो ॥ १ ॥ मैं तो दियो छाती पबि,लयो कलिकाल दबि, साँसति सहत,परबस को न सहैगो ? बाँकी बिरुदावली बनैगी पाले ही कृपालु ! अंत मेरो हाल हेरि यौं न मन रहैगो ॥ २ ॥ करमी-धरमी, साधु-सेवक, बिरत-रत, आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहैगो ? तेरे मुँह फेरे मोसे कायर-कपूत-कूर, लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो ? ॥ ३ ॥ काल पाय फिरत दसा दयालु ! सबहीकी, तोहि बिनु मोहि कबहूँ न कोऊ चहैगो। बचन-करम-हिये कहौं राम ! सौंह किये, तुलसी पै नाथके निबाहेई निबहैगो ॥ ४ ॥ २६० साहिब उदास भये दास खास खीस होत, मेरी कहा चली ? हौं बजाय जाय रह्यो हौं। लोकमें न ठाउँ, परलोकको भरोसो कौन ? हौं तो, बलि जाउँ,रामनाम ही ते लह्यो हौं ॥ १ ॥ करम,सुभाउ,काम,कोह,लोभ,मोह,- ग्राह अति गहनि गरीबी गाढ़े गह्यो हौं। छोरिबेको महाराज,बाँधिबेको कोटि भट, पाहि प्रभु !पाहि, तिहुँ ताप-पाप दह्यो हौं ॥ २ ॥ रीझि-बूझि सबकी प्रतीति-प्रीति एही द्वार, दूधको जर् यो पियत फूँकि फूँकि मह्यो हौं। रटत-रटत लट्यो,जाति-पाँति-भाँति घट्यो, जूठनिको लालची चहौं न दूध-नह्यो हौं ॥ ३ ॥ अनत चह्यो न भलो,सुपथ सुचाल चल्यो, नीके जिय जानि इहाँ भलो अनचह्यो हौं। तुलसी समुझि समुझायो मन बार बार, अपनो सो नाथ हू सों कहि निरबह्यो हौं ॥ ४ ॥ २६१ मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं, राम !रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं। निपट सयाने हौ कृपानिधान ! कहा कहौं ? लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं ॥ १ ॥ मानस मलीन,करतब कलिमल पीन, जीह हू न जप्यो नाम,बक्यो आउ-बाउ मैं। कुपथ कुचाल चल्यो, भयो न भूलिहू भलो, बाल-दसा हू न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं ॥ २ ॥ देखा-देखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई, प्रकटि जनाई, कियो दुरित-दुराउ मैं। दोष राग रोष---- पोषे, गोगन समेत मन, द्वेष इनकी भगति कीन्ही इनही को भाउ मैं ॥ ३ ॥ आगिली-पाछिली, अबहूँकी अनुमान ही तें, बूझियत गति, कछु कीन्हों तो न काउ मैं। जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी हू, झूठे-साँचे आसरो साहब रघुराउ मैं ॥ ४ ॥ २६२ कह्यो न परत,बिनु कहे न रह्यो परत, बड़ो सुख कहत बड़े सों,बलि,दीनता। प्रभुकी बड़ाई बड़ी,आपनी छोटाई छोटी, प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ॥ १ ॥ दुहू ओर समुझि सकुचि सहमत मन, सनमुख होत सुनि स्वामी-समीचीनता। नाथ-गुनगाथ गाये,हाथ जोरि माथ नाये, नीचऊ निवाजे प्रीति-रीतिकी प्रबीनता ॥ २ ॥ एही दरबार है गरब तें सरब-हानि, लाभ जोग-छेमको गरीबी-मिसकीनता। मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो, बूझि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता ॥ ३ ॥ यहाँकी सयानप,अयानप सहस सम, सूधौ सतभाय कहे मिटति मलीनता। गीध-सिला-सबरीकी सुधि सब दिन किये, होइगी न साई सों सनेह-हित-हीनता ॥ ४ ॥ सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु, सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता। करुनानिधान ! बरदान तुलसी चहत, सीतापति-भक्ति-सुरसरि-नीर-मीनता ॥ ५ ॥ २६३ नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी। रावरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम लियो, रुचिर रहनि रुचि मति गति तीयकी ॥ १ ॥ कुकृत-सुकृत बस सब ही सों संग पर् यो, परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी। मेरे भलेको गोसाई ! पोचको,न सोच-संक, हौंहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी ॥ २ ॥ ग्यानहू-गिराके स्वामी,बाहर-अंतरजामी, यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी ? तुलसी तिहारो,तुमहीं पै तुलसीके हित, राखि कहौं हौं तो जो पै व्हहौ माखी घीयकी ॥ ३ ॥ २६४ मेरो कह्यो सुनि पुनि भावै तोहि करि सो। चारिहू बिलोचन बिलोकु तू तिलोक महँ, तेरो तिहु काल कहु को है हितू हरि-सो ॥ १ ॥ नये-नये नेह अनुभये देह-गेह बसि, परखे प्रंपंची प्रेम, परत उघरि सो। सुहृद-समाज दगाबाजिहीको सौदा-सूत, जब जाको काज तब मिलै पाँय परि सो ॥ २ ॥ बिबुध सयाने, पहिचाने कैधौं नाहीं नीके, देत एक गुन, लेत कोटि गुन भरि सो। करम-धरम श्रम-फल रघुबर बिनु, राखको सो होम है, ऊसर कैसो बरिसो ॥ ३ ॥ आदि-अंत-बीच भलो भलो करै सबहीको, जाको जस लोक-बेद रह्यो है बगरि-सो। सीतापति सारिखो न साहिब सील-निधान, कैसे कल परै सठ! बैठो सो बिसरि-सो ॥ ४ ॥ जीवको जीवन-प्रान, प्रानको परम हित, प्रीतम,पुनीतकृत नीचन निदरि सो। तुलसी! तोको कृपालु जो कियो कोसलपालु, चित्रकूटको चरित्र चेतु चित करि सो ॥ ५ ॥ २६५ तन सुचि,मनरुचि, मुख कहौं 'जन हौं सिय-पीको'। केहि अभाग जान्यो नहिं, जो न होइ नाथ सों नातो-नेह न नीको ॥ १ ॥ जल चाहत पावक लहौं, बिष होत अमीको। कलि-कुचाल संतनि कही सोइ सही, मोहि कछु फहम न तरनि तमीको ॥ २ ॥ जानि अंध अंजन कहै बन-बाघिनी-घीको। सुनि उपचार बिकारको सुबिचार करौं जब, तब बुधि बल हरै हीको ॥ ३ ॥ प्रभु सों कहत सकुचात हौं, परौं जनि फिरि फीको। निकट बोलि,बलि,बरजिये,परिहरै ख्याल अब तुलसिदास जड़ जीको ॥ ४ ॥ २६६ ज्यों ज्यों निकट भयो चहौं कृपालु! त्यों त्यों दूरि पर् यो हौं। तुम चहुँ जुग रस एक राम! हौं हूँ रावरो, जदपि अघ अवगुननि भर् यो हौं ॥ बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छर् यो हौं। हौं सुबरन कुबरन कियो, नृपतें भिखारि करि, सुमतितें कुमति कर् यो हौं ॥ २ ॥ अगनित गिरि-कानन फिरयो, बिनु आगि जर् यो हौं। चित्रकूट गये हौं लखि कलिकी कुचालि सब, अब अपडरनि डर् यो हौं ॥ ३ ॥ माथ नाइ नाथ सों कहौं, हात जोरि खर् यो हौं। चीन्हों चोर जिय मारिहै तुलसी सो कथा सुनि प्रभुसों गुदरि निबर् यो हौं ॥ ४ ॥ २६७ पन करि हौं हठि आजुतें रामद्वार पर् यो हौं। 'तू मेरो'यह बिन कहे उठिहौ न जनमभरि, प्रभुकी सौकरि निर् यो हौं ॥ १ ॥ दै दै धक्का जमभट थके, टारे न टर् यो हौं। उदर दुसह साँसति सही बहुबार जनमि जग, नरकनिदरि निकर् यो हौं ॥ २ ॥ हौं मचला लै छाड़िहौं, जेहि लागि अर् यो हौं। तुम दयालु,बनिहै दिये,बलि,बिलँब न कीजिये, जात गलानि गर् यौ हौं ॥ ३ ॥ प्रगट कहत जो सकुचिये, अपराध-भर् यो हौं। तौ मनमें अपनाइये, तुलसीहि कृपा करि, कलि बिलोकि हहर् यो हौं ॥ ४ ॥ २६८ तुम अपनायो तब जानिहौं,जब मन फिरि परिहै। जेहि सुभाव बिषयनि लग्यो, तेहि सहज नाथ सौं नेह छाड़ि छल करिहै ॥ १ ॥ सुतकी प्रीति,प्रतीति मीतकी, नृप ज्यों डर डरिहै। अपनो सो स्वारथ स्वामिसों, चहुँ बिधि चातक ज्यों एक टेकते नहिं टरिहै ॥ २ ॥ हरषिहै न अति आदरे, निदरे न जरि मरिहै। हानि-लाभ दुख-सुख सबै समचित हित-अनहित,कलि-कुचालि परिहरिहै ॥ ३ ॥ प्रभु-गुन सुनि मन हरषिहै, नीर नयननि ढरिहै। तुलसिदास भयो रामको बिस्वास,प्रेम लखि आनँद उमगि उर भरिहै ॥ ४ ॥ २६९ राम कबहुँ प्रिय लागिहौ जैसे नीर मीनको? सुख जीवन ज्यों जीवको, मनि ज्यों फनिको हित, ज्यों धन लोभ-लीनको ॥ १ ॥ ज्यों सुभाय प्रिय लगति नागरी नागर नवीनको। त्यों मेरे मन लालसा करिये करुनाकर! पावन प्रेम पीनको ॥ २ ॥ मनसाको दाता कहैं श्रुति प्रभु प्रबीनको। तुलसिदासको भावतो,बलि जाउँ दयानिधि! दीजे दान दीनको ॥ ३ ॥ २७० कबहुँ कृपा करि रघुबीर! मोहू चितैहो। भलो-बुरो जन आपनो,जिय जानि दयानिधि! अवगुन अमित बितैहो ॥ १ ॥ जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जितैहो। हौं सनाथ ह्वेहौ सही,तुमहू अनाथपति, जो लघुतहि न भितैहो ॥ २ ॥ बिनय करौं अपभयहु तें, तुम्ह परम हितै हो। तुलसिदास कासों कहै, तुमही सब मेरे,प्रभु-गुरु,मातु-पितै हो ॥ ३ ॥ २७१ जैसो हौं तैसो राम रावरो जन, जनि परिहरिये। कृपासिंधु,कोसलधनी! सरनागत-पालक, ढरनि आपनी ढरिये ॥ १ ॥ हौं तौ बिगरायल और को, बिगरो न बिगरिये। तुम सुधारि आये सदा सबकी सबही बिधि, अब मेरियो सुधरिये ॥ २ ॥ जग हँसिहै मेरे संग्रहे, कत इहि डर डरिये। कपि-केवट कीन्हे सखा जेहि सील,सरल चित, तेहि सुभाउ अनुसरिये ॥ ३ ॥ अपराधी तउ आपनो, तुलसी न बिसरिये। टूटियो बाँह गरे परै, फूटेहु बिलोचन पीर होत हित करिये ॥ ४ ॥ २७२ तुम जनि मन मैलो करो, लोचन जनि फेरो। सुनहु राम! बिनु रावरे लोकहु परलोकहु कोउ न कहूँ हितु मेरो ॥ १ ॥ अधम अगुन-अलायक-आलसी जानि-------अनेरो। अधनु स्वारथके साथिन्ह तज्यो तिजराको- सो टोटक,औचट उलटि न हेरो ॥ २ ॥ भगतिहीन, बेद-बाहिरो लखि कलिमल घेरो। देवनिहू देव! परिहरयो, अन्याव नतिनको हौं अपराधीसब केरो ॥ ३ ॥ नामकी ओट पेट भरत हौं, पै कहावत चेरो। जगत-बिदित बात ह्वे परी, समुझिये धौं अपने, लोक कि बेद बड़ेरो ॥ ४ ॥ ह्वेहै जब-जब तुमहिं तें तुलसीको भलेरो। देव दिन-हू-दिन-----बिगरि है,बलि जाउँ, बिलंब किये,अपनाइये सबेरो ॥ ५ ॥ दीन २७३ तुम तजि हौं कासों कहौं, और को हितु मेरे ? दीनबंधु!सेवक,सखा,आरत,अनाथपर सहज छोह केहि केरे ॥ १ ॥ बहुत पतित भवनिधि तरे बिनु तरि बिनु बेरे। कृपा-कोप-सतिभायहू, धोखेहु-तिरछेहू,राम! तिहारेहि हेरे ॥ २ ॥ जो चितवनि सौंधी लगै, चितइये सबेरे। तुलसिदास अपनाइये, कीजै न ढील, अब जिवन-अवधि अति नेरे ॥ ३ ॥ २७४ जाउँ कहाँ, ठौर है कहाँ देव! दुखित-दीनको ? को कृपालु स्वामी-सारिखो, राखे सरनागत सब अँग बल-बिहीनको ॥ १ ॥ गनिहि,गुनिहि साहिब लहै, सेवा समीचीनको। अधम -----अगुन आलसिनको पालिबो फबि आयो रघुनायक नवीनको ॥ २ ॥ अधन मुखकै कहा कहौं, बिदित है जीकी प्रभु प्रबीनको। तिहू काल, तिहु लोकमें एक टेक रावरी तुलसीसे मन मलीनको ॥ ३ ॥ २७५ द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहूँ। हैं दयालु दुनी दस दिसा,दुख-दोष-दलन-छम, कियो न सँभाषन काहूँ ॥ १ ॥ जन्यो तनु-------कुटिल कीट ज्यों, तज्यों मातु-पिताहूँ। जनतेऊ काहेको रोष,दोष काहि धौं,मेरे ही अभाग मोसों सकुचत छुइ सब छाहूँ ॥ २ ॥ दुखित देखि संतन कह्यो, सोचै जनि मन माँहू। तोसे पसु-पाँवर-पातकी परिहरे न सरन गये, रघुबर ओर बिनाहूँ ॥ ३ ॥ तुलसी तिहारो भये भयो सुखी प्रीती-प्रतीति बिनाहू। नामकी महिमा,सील नाथको, मेरो भलो बिलोकि अब तें सकुचाहुँ,सिहाहूँ ॥ ४ ॥ २७६ कहा न कियो,कहाँ न गयो, सीस काहि न नायो ? राम रावरे बिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो ॥ १ ॥ आस-बिबस खास दास ह्वे नीच प्रभुनि जनायो। हा हा करि दीनता कही द्वार-द्वार बार-बार, परी न छार,मुह बायो ॥ २ ॥ असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो। मान महिमा------प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो ॥ ३ ॥ असु नाथ! हाथ कछु नाहि लग्यो, लालच ललचायो। साँच कहौं,नाच कौन सो जो, न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचायो ॥ ४ ॥ मन श्रवन-नयन-मग------लगे, सब थल पतियायो। अग मूड़ मारि,हिय हारिकै, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो ॥ ५ ॥ दसरथके! समरथ तुहीं, त्रिभुवन जसु गायो। तुलसि नमत अवलोकिये,बाँह-बोल बलि दै बिरुदावली बुलायो ॥ ६ ॥ २७७ राम राय! बिनु रावरे मेरे को हितु साँचो ? स्वामी-सहित सबसों कहौं,सुनि-गुनि बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो ॥ १ ॥ देह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो। किये बिचार सार कदलि ज्यों, मनि कनकसंग लघु लसत बीच बिच काँचो।२। 'बिनय-पत्रिका' दीनकी,बापु! आपु ही बाँचो। हिये हेरि तुलसी लिखी,सो सुभाय सही करि बहुरि पूँछिये पाँचो ॥ ३ ॥ २७८ पवन-सुवन! रिपु-दवन! भरतलाल! लखन! दीनकी। निज निज अवसर सुधि किये,बलि जाउँ, दास-आस पूजि है खासखीनकी ॥ १ ॥ राज-द्वार भली सब कहैं साधु-समीचीनकी। सुकृत-सुजस,साहिब-कृपा,स्वारथ-परमारथ,गति भये गति-बिहीनकी ॥ २ ॥ समय सँभारि सुधारिबी तुलसी मलीनकी। प्रीति-रीति समुझाइबी नतपाल कृपालुहि परमिति पराधीनकी।३ ॥ २७९ मारुति-मन,रुचि भरतकी लखि लषन कही है। कलिकालहु नाथ!नाम सों परतीति-प्रीति एक किंकरकी निबही है ॥ १ ॥ सकल सभा सुनि लै उठी, जानी रीति रही है। कृपा गरीब निवाजकी,देखत गरीबको साहब बाँह गही है ॥ २ ॥ बिहँसि राम कह्यो 'सत्यहै,सुधि मैं हूँ लही है'। रघुनाथ मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथकी,परी---------सही है ॥ ३ ॥ रघुनाथ हाथ ॥ श्रीसीतारामार्पणमस्तु ॥ ॥ इतिश्री ॥
% Text title            : Vinaypatrika
% File name             : Vinaypatrika_i.itx
% itxtitle              : vinayapatrikA
% engtitle              : Vinaypatrika
% Category              : tulasIdAsa, raama, hindi
% Location              : doc_z_otherlang_hindi
% Sublocation           : raama
% Author                : Goswami Tulasidas
% Language              : Hindi
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Transliterated by     : Mr. Balram J. Rathore, Ratlam, M.P., a retired railway driver
% Description-comments  : Converted from ISCII to ITRANS
% Acknowledge-Permission: Dr. Vineet Chaitanya, vc@iiit.net
% Latest update         : August 28, 2021
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% Site access           : https://sanskritdocuments.org

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