||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १७ ||
||ॐ श्री परमात्मने नमः ||
अध्याय सतरावा |
श्रद्धात्रयविभागयोगः |
विश्वविकासित मुद्रा| जया सोडी तुझी योगमुद्रा| तया नमोजी गणेंद्रा| श्रीगुरुराया ||१||
त्रिगुणत्रिपुरीं वेढिला| जीवत्वदुर्गीं आडिला| तो आत्मशंभूनें सोडविला| तुझिया स्मृती ||२||
म्हणौनि शिवेंसीं कांटाळा| गुरुत्वें तूंचि आगळा| तऱ्ही हळु मायाजळा- | माजीं तारूनि ||३||
जे तुझ्याविखीं मूढ| तयांलागीं तूं वक्रतुंड| ज्ञानियांसी तरी अखंड| उजूचि आहासी ||४||
दैविकी दिठी पाहतां सानी| तऱ्ही मीलनोन्मीलनीं| उत्पत्ति प्रळयो दोन्ही| लीलाचि करिसी ||५||
प्रवृत्तिकर्णाच्या चाळीं| उठली मदगंधानिळीं| पूजीजसी नीलोत्पलीं| जीवभृंगांच्या ||६||
पाठीं निवृत्तिकर्णताळें| आहाळली ते पूजा विधुळे| तेव्हां मिरविसी मोकळें| आंगाचें लेणें ||७||
वामांगीचा लास्यविलासु| जो हा जगद्रूप आभासु| तो तांडवमिसें कळासु| दाविसी तूं ||८||
हें असो विस्मो दातारा| तूं होसी जयाचा सोयरा| सोइरिकेचिया व्यवहारा| मुकेचि तो ||९||
फेडितां बंधनाचा ठावो| तूं जगद्बंधु ऐसा भावो| धरूं वोळगे उवावो| तुझाचि आंगीं ||१०||
तंव दुजयाचेनि नांवें तया| देहही नुरेचि पैं देवराया| जेणें तूं आपणपयां| केलासि दुजा ||११||
तूंतें करूनि पुढें| जे उपायें घेती दवडे| तयां ठासी बहुवें पाडें| मागांचि तूं ||१२||
जो ध्यानें सूये मानसीं| तयालागीं नाहीं तूं त्याचे देशीं| ध्यानही विसरे तेणेंसीं| वालभ तुज ||१३||
तूतें सिद्धचि जो नेणे| तो नांदे सर्वज्ञपणें| वेदांही येवढें बोलणें| नेघसी कानीं ||१४||
मौन गा तुझें राशिनांव| आतां स्तोत्रीं कें बांधों हाव| दिसती तेतुली माव| भजों काई ||१५||
दैविकें सेवकु हों पाहों| तरी भेदितां द्रोहोचि लाहों| म्हणौनि आतां कांहीं नोहों| तुजलागीं जी ||१६||
जैं सर्वथा सर्वही नोहिजे| तैं अद्वया तूतें लाहिजे| हें जाणें मी वर्म तुझें| आराध्य लिंगा ||१७||
तरी नुरोनि वेगळेंपण| रसीं भजिन्नलें लवण| तैसें नमन माझें जाण| बहु काय बोलों ||१८||
आतां रिता कुंभ समुद्रीं रिगे| तो उचंबळत भरोनि निगे| कां दशीं दीपसंगें| दीपुचि होय ||१९||
तैसा तुझिया प्रणितीं| मी पूर्णु जाहलों श्रीनिवृत्ती| आतां आणीन व्यक्तीं| गीतार्थु तो ||२०||
तरी षोडशाध्यायशेखीं| तिये समाप्तीच्या श्लोकीं| जो ऐसा निर्णयो निष्टंकीं| ठेविला देवें ||२१||
जे कृत्याकृत्यव्यवस्था| अनुष्ठावया पार्था| शास्त्रचि एक सर्वथा| प्रमाण तुज ||२२||
तेथ अर्जुन मानसें| म्हणे हें ऐसें कैसें| जे शास्त्रेंवीण नसे| सुटिका कर्मा ||२३||
तरी तक्षकाची फडे| ठाकोनि कैं तो मणि काढे| कैं नाकींचा केशु जोडे| सिंहाचिये ? ||२४||
मग तेणें तो वोंविजे| तरीच लेणें पाविजे| एऱ्हवीं काय असिजे| रिक्तकंठीं ? ||२५||
तैसी शास्त्रांची मोकळी| यां कैं कोण पां वेंटाळी| एकवाक्यतेच्या फळीं| पैसिजे कैं ? ||२६||
जालयाही एकवाक्यता| कां लाभें वेळु अनुष्ठितां| कैंचा पैसारु जीविता| येतुलालिया ||२७||
आणि शास्त्रें अर्थें देशें काळें| या चहूंही जें एकफळे| तो उपावो कें मिळे| आघवयांसी ? ||२८||
म्हणौनि शास्त्राचें घडतें| नोहें प्रकारें बहुतें| तरी मुर्खा मुमुक्षां येथें| काय गति पां ? ||२९||
हा पुसावया अभिप्रावो| जो अर्जुन करी प्रस्तावो| तो सतराविया ठावो| अध्याया येथ ||३०||
तरी सर्वविषयीं वितृष्णु| जो सकळकळीं प्रवीणु| कृष्णाही नवल कृष्णु| अर्जुनत्वें जो ||३१||
शौर्या जोडला आधारु| जो सोमवंशाचा शृंगारु| सुखादि उपकारु| जयाची लीला ||३२||
जो प्रज्ञेचा प्रियोत्तमु| ब्रह्मविद्येचा विश्रामु| सहचरु मनोधर्मु| देवाचा जो ||३३||
अर्जुन उवाच |
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः |
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ||१||
तो अर्जुन म्हणे गा तमालश्यामा| इंद्रियां फांवलिया ब्रह्मा| तुझां बोलु आम्हा| साकांक्षु पैं जी ||३४||
जें शास्त्रेंवांचूनि आणिकें| प्राणिया स्वमोक्षु न देखे| ऐसें कां कैंपखें| बोलिलासी ||३५||
तरी न मिळेचि तो देशु| नव्हेचि काळा अवकाशु| जो करवी शास्त्राभ्यासु| तोही दुरी ||३६||
आणि अभ्यासीं विरजिया| होती जिया सामुग्रिया| त्याही नाहीं आपैतिया| तिये वेळीं ||३७||
उजू नोहेचि प्राचीन| नेदीचि प्रज्ञा संवाहन| ऐसें ठेलें आपादन| शास्त्राचें जया ||३८||
किंबहुना शास्त्रविखीं| एकही न लाहातीचि नखी| म्हणौनि उखिविखी| सांडिली जिहीं ||३९||
परी निर्धारूनि शास्त्रें| अर्थानुष्ठानें पवित्रें| नांदताति परत्रें| साचारें जे ||४०||
तयांऐसें आम्हीं होआवें| ऐसी चाड बांधोनि जीवें| घेती तयांचें मागावे| आचरावया ||४१||
धड्याचिया आखरां| तळीं बाळ लिहे दातारा| कां पुढांसूनि पडिकरा| अक्षमु चाले ||४२||
तैसें सर्वशास्त्रनिपुण| तयाचें जें आचरण| तेंचि करिती प्रमाण| आपलिये श्रद्धे ||४३||
मग शिवादिकें पूजनें| भूम्यादिकें महादानें| आग्निहोत्रादि यजनें| करिती जे श्रद्धा ||४४||
तयां सत्त्वरजतमां- /| माजीं कोण पुरुषोत्तमा| गति होय ते आम्हां| सांगिजो जी ||४५||
तंव वैकुंठपीठींचें लिंग| जो निगमपद्माचा पराग| जिये जयाचेनि हें जग| अंगच्छाया ||४६||
काळ सावियाचि वाढु| लोकोत्तर प्रौढु| आद्वितीय गूढु| आनंदघनु ||४७||
इयें श्लाघिजती जेणें बिकें| तें जयाचें आंगीं असिकें| तो श्रीकृष्ण स्वमुखें| बोलत असे ||४८||
श्री भगवानुवाच |
त्रिविध भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा |
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ||२||
म्हणे पार्था तुझा अतिसो| हेंही आम्ही जाणतसों| जे शास्त्राभ्यासाचा आडसो| मानितोसि कीं ||४९||
नुसधियाची श्रद्धा| झोंबों पाहसी परमपदा| तरी तैसें हें प्रबुद्धा| सोहोपें नोहे ||५०||
श्रद्धा म्हणितलियासाठीं| पातेजों नये किरीटी| काय द्विजु अंत्यजघृष्टीं| अंत्यजु नोहे ? ||५१||
गंगोदक जरी जालें| तरी मद्यभांडां आलें| तें घेऊं नये कांहीं केलें| विचारीं पां ||५२||
चंदनु होय शीतळु| परी अग्नीसी पावे मेळु| तैं हातीं धरितां जाळूं| न शके काई ? ||५३||
कां किडाचिये आटतिये पुटीं| पडिलें सोळें किरीटी| घेतलें चोखासाठीं| नागवीना ? ||५४||
तैसें श्रद्धेचें दळवाडें| अंगें कीर चोखडें| परी प्राणियांच्या पडे| विभागीं जैं ||५५||
ते प्राणिये तंव स्वभावें| आनादिमायाप्रभावें| त्रिगुणाचेचि आघवे| वळिले आहाती ||५६||
तेथही दोन गुण खांचती| मग एक धरी उन्नती| तैं तैसियाचि होती वृत्ती| जीवांचिया ||५७||
वृत्तीऐसें मन धरिती| मनाऐसी क्रिया करिती| केलिया ऐसी वरीती| मरोनि देहें ||५८||
बीज मोडे झाड होये| झाड मोडे बीजीं सामाये| ऐसेनि कल्पकोडी जाये| परी जाति न नशे ||५९||
तियापरीं यियें अपारें| होत जात जन्मांतरें| परी त्रिगुणत्व न व्यभिचरें| प्राणियांचें ||६०||
म्हणूनि प्राणियांच्या पैकीं| पडिली श्रद्धा अवलोकीं| ते होय गुणासारिखी| तिहीं ययां ||६१||
विपायें वाढे सत्त्व शुद्ध| तेव्हां ज्ञानासी करी साद| परी एका दोघे वोखद| येर आहाती ||६२||
सत्त्वाचेनि आंगलगें| ते श्रद्धा मोक्षफळा रिगे| तंव रज तम उगे| कां पां राहाती ? ||६३||
मोडोनि सत्त्वाची त्राये| रजोगुण आकाशें जाये| तेव्हां तेचि श्रद्धा होये| कर्मकेरसुणी ||६४||
मग तमाची उठी आगी| तेव्हां तेचि श्रद्धा भंगी| हों लागे भोगालागीं| भलतेया ||६५||
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत |
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यछ्रद्धः स एव सः ||३||
एवं सत्त्वरजतमा- /| वेगळी श्रद्धा सुवर्मा| नाहीं गा जीवग्रामा- /| माजीं यया ||६६||
म्हणौनि श्रद्धा स्वाभाविक| असे पैं त्रिगुणात्मक| रजतमसात्त्विक| भेदीं इहीं ||६७||
जैसें जीवनचि उदक| परी विषीं होय मारक| कां मिरयामाजीं तीख| उंसीं गोड ||६८||
तैसा बहुवसें तमें| जो सदाचि होय निमे| तेथ श्रद्धा परीणमे| तेंचि होऊनि ||६९||
मग काजळा आणि मसी| न दिसे विवंचना जैसी| तेवीं श्रद्धा तामसी| सिनी नाहीं ||७०||
तैसीच राजसीं जीवीं| रजोमय जाणावी| सात्त्विकीं आघवीं| सत्त्वाचीच ||७१||
ऐसेनि हा सकळु| जगडंबरु निखिळु| श्रद्धेचाचि केवळु| वोतला असे ||७२||
परी गुणत्रयवशें| त्रिविधपणाचें लासें| श्रद्धे जें उठिलें असे| तें वोळख तूं ||७३||
तरी जाणिजे झाड फुलें| कां मानस जाणिजे बोलें| भोगें जाणिजे केलें| पूर्वजन्मींचें ||७४||
तैसीं जिहीं चिन्हीं| श्रद्धेचीं रूपें तीन्हीं| देखिजती ते वानी| अवधारीं पां ||७५||
यजन्ते सात्त्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः |
प्रेतान् भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ||४||
तरी सात्त्विक श्रद्धा| जयांचा होय बांधा| तयां बहुतकरूनि मेधा| स्वर्गीं आथी ||७६||
ते विद्याजात पढती| यज्ञक्रिये निवडती| किंबहुना पडती| देवलोकीं ||७७||
आणि श्रद्धा राजसा| घडले जे वीरेशा| ते भजती राक्षसां| खेचरां हन ||७८||
श्रद्धां जे कां तामसी| ते मी सांगेन तुजपाशीं| जे कां केवळ पापराशी| आतिकर्कशी निर्दयत्वें ||७९||
जीववधें साधूनि बळी| भूतप्रेतकुळें मैळीं| स्मशानीं संध्याकाळीं| पूजिती जे ||८०||
ते तमोगुणाचें सार| काढूनि निर्मिले नर| जाण तामसियेचें घर| श्रद्धेचें तें ||८१||
ऐसी इहीं तिहीं लिंगीं| त्रिविध श्रद्धा जगीं| पैं हें ययालागीं| सांगतु असें ||८२||
जे हे सात्त्विक श्रद्धा| जतन करावी प्रबुद्धा| येरी दोनी विरुद्धा| सांडाविया ||८३||
हे सात्त्विकमति जया| निर्वाहती होय धनंजया| बागुल नोहे तया| कैवल्य तें ||८४||
तो न पढो कां ब्रह्मसूत्र| नालोढो सर्व शास्त्र| सिद्धांत न होत स्वतंत्र| तयाच्या हातीं ||८५||
परी श्रुतिस्मृतींचे अर्थ| जे आपण होऊनि मूर्त| अनुष्ठानें जगा देत| वडील जे हे ||८६||
तयांचीं आचरती पाउलें| पाऊनि सात्त्विकी श्रद्धा चाले| तो तेंचि फळ ठेविलें| ऐसें लाहे ||८७||
पैं एक दीपु लावी सायासें| आणिक तेथें ल्ॐ बैसें| तरी तो काय प्रकाशें| वंचिजे गा ? ||८८||
कां येकें मोल अपार| वेंचोनि केलें धवळार| तो सुरवाडु वस्तीकर| न भोगी काई ? ||८९||
हें असो जो तळें करी| तें तयाचीच तृषा हरी| कीं सुआरासीचि अन्न घरीं| येरां नोहे ? ||९०||
बहुत काय बोलों पैं गा| येका गौतमासीचि गंगा| येरां समस्तां काय जगां| वोहोळ जाली ? ||९१||
म्हणौनि आपुलियापरी| शास्त्र अनुष्ठीती कुसरी| जाणे तयांते श्रद्धाळु जो वरी| तो मूर्खुही तरे ||९२||
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः |
दंभाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ||५||
ना शास्त्राचेनि कीर नांवें| खाकरोंही नेणती जीवें| परी शास्त्रज्ञांही शिवें| टेंकों नेदिती ||९३||
वडिलांचिया क्रिया| देखोनि वाती वांकुलिया| पंडितां डाकुलिया| वाजविती ||९४||
आपलेनीचि आटोपें| धनित्वाचेनि दर्पें| साचचि पाखंडाचीं तपें| आदरिती ||९५||
आपुलिया पुढिलांचिया| आंगीं घालूनि कातिया| रक्तमांसा प्रणीतया| भर भरु ||९६||
रिचविती जळतकुंडीं| लाविती चेड्याच्या तोंडीं| नवसियां देती उंडी| बाळकांची ||९७||
आग्रहाचिया उजरिया| क्षुद्र देवतां वरीया| अन्नत्यागें सातरीया| ठाकती एक ||९८||
अगा आत्मपरपीडा| बीज तमक्षेत्रीं सुहाडा| पेरिती मग पुढां| तेंचि पिके ||९९||
बाहु नाहीं आपुलिया| आणि नावेतेंही धनंजया| न धरी होय तया| समुद्रीं जैसें ||१००||
कां वैद्यातें करी सळा| रसु सांडी पाय खोळां| तो रोगिया जेवीं जिव्हाळा| सवता होय ||१०१||
नाना पडिकराचेनि सळें| काढी आपुलेचि डोळे| तें वानवसां आंधळें| जैसें ठाके ||१०२||
तैसें तयां आसुरां होये| निंदूनि शास्त्रांची सोये| सैंघ धांवताती मोहें| आडवीं जे कां ||१०३||
कामु करवी तें करिती| क्रोधु मारवी ते मारिती| किंबहुना मातें पुरिती| दुःखाचा गुंडां ||१०४||
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः |
मां चैवान्तः शरीरस्थं तान् विद्ध्यासुरनिश्चयान् ||६||
आपुलां परावां देहीं| दुःख देती जें जें कांहीं| मज आत्मया तेतुलाही| होय शीणु ||१०५||
पैं वाचेचेनिही पालवें| पापियां तयां नातळावें| परी पडिलें सांगावें| त्यजावया ||१०६||
प्रेत बाहिरें घालिजे| कां अंत्यजु संभाषणीं त्यजिजे| हें असो हातें क्षाळिजे| कश्मलातें ? ||१०७||
तेथ शुद्धीचिया आशा| तो लेपु न मनवे जैसा| तयांतें सांडावया तैसा| अनुवादु हा ||१०८||
परी अर्जुना तूं तयांतें| देखसी तैं स्मर हो मातें| जे आन प्रायश्चित्त येथें| मानेल ना ||१०९||
म्हणौनि जे श्रद्धा सात्त्विकी| पुढती तेचि पैं येकी| जतन करावी निकी| सर्वांपरी ||११०||
तरी धरावा तैसा संगु| जेणें पोखे सात्त्विक लागु| सत्त्ववृद्धीचा भागु| आहारु घेपें ||१११||
एऱ्हवीं तरी पाहीं| स्वभाववृद्धीच्या ठाईं| आहारावांचूनि नाहीं| बळी हेतु ||११२||
प्रत्यक्ष पाहें पां वीरा| जो सावध घे मदिरा| तो होऊनि ठाके माजिरा| तियेचि क्षणीं ||११३||
कां जो साविया अन्नरसु सेवी| तो व्यापिजे वातश्लेष्मस्वभावीं| काय ज्वरु जालिया निववी| पयादिक ? ||११४||
नातरी अमृत जयापरी| घेतलिया मरण वारी| कां आपुलियाऐसें करी| जैसें विष ||११५||
तेवीं जैसा घेपे आहारु| धातु तैसाचि होय आकारु| आणि धातु ऐसा अंतरु| भावो पोखे ||११६||
जैसें भांडियाचेनि तापें| आंतुलें उदकही तापे| तैसी धातुवशें आटोपे| चित्तवृत्ती ||११७||
म्हणौनि सात्त्विकु रसु सेविजे| तैं सत्त्वाची वाढी पाविजे| राजसा तामसा होईजे| येरी रसीं ||११८||
तरी सात्त्विक कोण आहारु| राजसा तामसा कायी आकारु| हें सांगों करीं आदरु| आकर्णनीं ||११९||
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः |
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिम शृणु ||७||
आणि एकसरें आहारा| कैसेनि तिनी मोहरा| जालिया तेही वीरा| रोकडें द्ॐ ||१२०||
तरी जेवणाराचिया रुची| निष्पत्ति कीं बोनियांची| आणि जेवितां तंव गुणांची| दासी येथ ||१२१||
जे जीव कर्ता भोक्ता| तो गुणास्तव स्वभावता| पावोनियां त्रिविधता| चेष्टे त्रिधा ||१२२||
म्हणौनि त्रिविधु आहारु| यज्ञुही त्रिप्रकारु| तप दान हन व्यापारु| त्रिविधचि ते ||१२३||
पैं आहार लक्षण पहिले? | सांगों जें म्हणितलें| तें आईक गा भलें| रूप करूं ||१२४||
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिवर्धनाः |
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ||८||
तरी सत्त्वगुणाकडे| जें दैवें भोक्ता पडे| तैं मधुरीं रसीं वाढे| मेचु तया ||१२५||
आंगेंचि द्रव्यें सुरसें| जे आंगेंचि पदार्थ गोडसे| आंगेंचि स्नेहें बहुवसें| सुपक्वें जियें ||१२६||
आकारें नव्हती डगळें| स्पर्शें अति मवाळें| जिभेलागीं स्नेहाळें| स्वादें जियें ||१२७||
रसें गाढीं वरी ढिलीं| द्रवभावीं आथिलीं| ठायें ठावो सांडिलीं| अग्नितापें ||१२८||
आंगें सानें परीणामें थोरु| जैसें गुरुमुखींचें अक्षरु| तैशी अल्पीं जिहीं अपारु| तृप्ति राहे ||१२९||
आणि मुखीं जैसीं गोडें| तैसीचिहि ते आंतुलेकडे| तिये अन्नीं प्रीति वाढे| सात्त्विकांसी ||१३०||
एवं गुणलक्षण| सात्त्विक भोज्य जाण| आयुष्याचें त्राण| नीच नवें हें ||१३१||
येणें सात्त्विक रसें| जंव देहीं मेहो वरीषे| तंव आयुष्यनदी उससे| दिहाचि दिहा ||१३२||
सत्त्वाचिये कीर पाळती| कारण हाचि सुमती| दिवसाचिये उन्नती| भानु जैसा ||१३३||
आणि शरीरा हन मानसा| बळाचा पैं कुवासा| हा आहारु तरी दशा| कैंची रोगां ||१३४||
हा सात्त्विकु होय भोग्यु| तैं भोगावया आरोग्यु| शरीरासी भाग्यु| उदयलें जाणो ||१३५||
आणि सुखाचें घेणें देणें| निकें उवाया ये येणें| हें असो वाढे साजणें| आनंदेंसीं ||१३६||
ऐसा सात्त्विकु आहारु| परीणमला थोरु| करी हा उपकारु| सबाह्यासी ||१३७||
आतां राजसासि प्रीती| जिहीं रसीं आथी| करूं तयाही व्यक्ती| प्रसंगें गा ||१३८||
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः |
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ||९||
तरी मारें उणें काळकुट| तेणें मानें जें कडुवट| कां चुनियाहूनि दासट| आम्ल हन ||१३९||
कणिकीतें जैसें पाणी| तैसेंचि मीठ बांधया आणी| तेतुलीच मेळवणी| रसांतरांची ||१४०||
ऐसें खारट अपाडें| राजसा तया आवडे| ऊन्हाचेनि मिषें तोंडें| आगीचि गिळी ||१४१||
वाफेचिया सिगे| वातीही लाविल्या लागे| तैसें उन्ह मागे| राजसु तो ||११४२||
वावदळ पाडूनि ठाये| साबळु डाहारला आहे| तैसें तीख तो खाये| जें घायेविण रुपे ||१४३||
आणि राखेहूनि कोरडें| आंत बाहेरी येके पाडें| तो जिव्हादंशु आवडे| बहु तया ||१४४||
परस्परें दांतां| आदळु होय खातां| तो गा तोंडीं घेतां| तोषों लागे ||१४५||
आधींच द्रव्यें चुरमुरीं| वरी परवडिजती मोहरी| जियें घेतां होती धुवारी| नाकेंतोंडें ||१४६||
हें असो उगें आगीतें| म्हणे तैसें राइतें| पढियें प्राणापरौतें| राजसासि गा ||१४७||
ऐसा न पुरोनि तोंडा| जिभा केला वेडा| अन्नमिषें अग्नि भडभडां| पोटीं भरी ||१४८||
तैसाचि लवंगा सुंठे| मग भुईं गा सेजे खाटे| पाणियाचें न सुटे| तोंडोनि पात्र ||१४९||
ते आहार नव्हती घेतले| व्याधिव्याळ जे सुतले| ते चेववावया घातलें| माजवण पोटीं ||१५०||
तैसें एकमेकां सळें| रोग उठती एके वेळे| ऐसा राजसु आहारु फळे| केवळ दुःखें ||१५१||
एवं राजसा आहारा| रूप केलें धनुर्धरा| परीणामाचाहि विसुरा| सांगितला ||१५२||
आतां तया तामसा| आवडे आहारु जैसा| तेंही सांगों चिळसा| झणें तुम्ही ||१५३||
तरी कुहिलें उष्टें खातां| न मनिजे तेणें अनहिता| जैसें कां उपहिता| म्हैसी खाय ||१५४||
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् |
उच्छिष्टमपि चामेध्यम् भोजनं तामसप्रियम् ||१०||
निपजलें अन्न तैसें| दुपाहरीं कां येरें दिवसें| अतिकरें तैं तामसें| घेईजे तें ||१५५||
नातरी अर्ध उकडिलें| कां निपट करपोनि गेलें| तैसेंही खाय चुकलें| रसा जें येवों ||१५६||
जया कां आथि पूर्ण निष्पत्ती| जेथ रसु धरी व्यक्ती| तें अन्न ऐसी प्रतीती| तामसा नाहीं ||१५७||
ऐसेनि कहीं विपायें| सदन्ना वरपडा होये| तरी घाणी सुटे तंव राहे| व्याघ्रु जैसा ||१५८||
कां बहुवें दिवशीं वोलांडिलें| स्वादपणें सांडिलें| शुष्क अथवा सडलें| गाभिणेंही हो ||१५९||
तेंही बाळाचे हातवरी| चिवडिलें जैसी राडी करी| का सवें बैसोनि नारी| गोतांबील करी ||१६०||
ऐसेनि कश्मळें जैं खाय| तैं तया सुखभोजन ऐसें होय| परी येणेंही न धाय| पापिया तो ||१६१||
मग चमत्कारु देखा| निषेधाचा आंबुखा| जया का सदोखा| कुद्रव्यासी ||१६२||
तया अपेयांच्या पानीं| अखाद्यांच्या भोजनीं| वाढविजे उतान्ही| तामसें तेणें ||१६३||
एवं तामस जेवणारा| ऐसैसी मेचु हे वीरा| तयाचें फल दुसरां| क्षणीं नाहीं ||१६४||
जे जेव्हांचि हें अपवित्र| शिवे तयाचें वक्त्र| तेव्हांचि पापा पात्र| जाला तो कीं ||१६५||
यावरतें जें जेवीं| ते जेविती वोज न म्हणावी| पोटभरती जाणावी| यातना ते ||१६६||
शिरच्छेदें काय होये| का आगीं रिघतां कैसें आहे| हें जाणावें काई पाहें| परी साहातुचि असे ||१६७||
म्हणौनि तामसा अन्ना| परीणामु गा सिनाना| न सांगोंचि गा अर्जुना| देवो म्हणे ||१६८||
आतां ययावरी| आहाराचिया परी| यज्ञुही अवधारीं| त्रिधा असे ||१६९||
परी तिहींमाजीं प्रथम| सात्त्विक यज्ञाचें वर्म| आईक पां सुमहिम - | शिरोमणी ||१७०||
अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते |
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ||११||
तरी एकु प्रियोत्तमु- /| वांचोनि वाढों नेदी कामु| जैसा का मनोधर्मु| पतिव्रतेचा ||१७१||
नाना सिंधूतें ठाकोनि गंगा| पुढारां न करीचि रिगा| का आत्मा देखोनि उगा| वेदु ठेला ||१७२||
तैसें जे आपुल्या स्वहितीं| वेंचूनियां चित्तवृत्ती| नुरवितीचि अहंकृती| फळालागीं ||१७३||
पातलेया झाडाचें मूळ| मागुतें सरों नेणेंचि जळ| जिरालें गां केवळ| तयाच्याचि आंगीं ||१७४||
तैसें मनें देहीं| यजननिश्चयाच्या ठायीं| हारपोनि जें कांहीं| वांछितीना ||१७५||
तिहीं फळवांच्छात्यागीं| स्वधर्मावांचूनि विरागीं| कीजे तो यज्ञु सर्वांगीं| अळंकृतु ||१७६||
परी आरिसा आपणपें| डोळां जैसें घेपें| कां तळहातींचें दीपें| रत्न पाहिजे ||१७७||
नाना उदितें दिवाकरें| गमावा मार्गु दिठी भरे| तैसा वेदु निर्धारें| देखोनियां ||१७८||
तियें कुंडें मंडप वेदी| आणीकही संभारसमृद्धी| ते मेळवणी जैसी विधी| आपणपां केली ||१७९||
सकळावयव उचितें| लेणीं पातलीं जैसीं आंगातें| तैसे पदार्थ जेथिंचे तेथें| विनियोगुनी ||१८०||
काय वानूं बहुतीं बोलीं| जैसी सर्वाभरणीं भरली| ते यज्ञविद्याचि रूपा आली| यजनमिषें ||१८१||
तैसा सांगोपांगु| निफजे जो यागु| नुठऊनियां लागु| महत्त्वाचा ||१८२||
प्रतिपाळु तरी पाटाचा| झाडीं कीजे तुळसीचा| परी फळा फुला छायेचा| आश्रयो नाहीं ||१८३||
किंबहुना फळाशेवीण| ऐसेया निगुती निर्माण| होय तो यागु जाण| सात्त्विकु गा ||१८४||
अभिसन्धाय तु फलं दंभार्थमपि चैव यत् |
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ||१२||
आतां यज्ञु कीर वीरेशा| करी पैं याचिऐसा| परी श्राद्धालागीं जैसा| अवंतिला रावो ||१८५||
जरी राजा घरासि ये| तरी बहुत उपेगा जाये| आणि कीर्तीही होये| श्राद्ध न ठके ||१८६||
तैसा धरूनि आवांका| म्हणे स्वर्गु जोडेल असिका| दीक्षितु होईन मान्यु लोकां| घडेल यागु ||१८७||
ऐसी केवळ फळालागीं| महत्त्व फोकारावया जगीं| पार्था निष्पत्ति जे यागीं| राजस पैं ते ||१८८||
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् |
श्रद्दाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ||१३||
आणि पशुपक्षिविवाहीं| जोशी कामापरौता नाहीं| तैसा तामसा यज्ञा पाहीं| आग्रहोचि मूळ ||१८९||
वारया वाट न वाहे| कीं मरण मुहूर्त पाहे| निषिद्धांसीं बिहे| आगी जरी ||१९०||
तरी तामसाचिया आचारा| विधीचा आथी वोढावारा| म्हणूनि तो धनुर्धरा| उत्सृंखळु ||१९१||
नाहीं विधीची तेथ चाड| नये मंत्रादिक तयाकड| अन्नजातां न सुये तोंड| मासिये जेवीं ||१९२||
वैराचा बोधु ब्राह्मणा| तेथ कें रिगेल दक्षिणा| अग्नि जाला वाउधाणा| वरपडा जैसा ||१९३||
तैसें वायांचि सर्वस्व वेंचे| मुख न देखती श्रद्धेचें| नागविलें निपुत्रिकाचें| जैसें घर ||१९४||
ऐसा जो यज्ञाभासु| तया नाम यागु तामसु| आइकें म्हणे निवासु| श्रियेचा तो ||१९५||
आता गंगेचें एक पाणी| परी नेलें आनानीं वाहणीं| एक मळीं एक आणी| शुद्धत्व जैसें ||१९६||
तैसें तिहीं गुणीं तप| येथ जाहलें आहे त्रिरूप| तें एक केलें दे पाप| उद्धरी एक ||१९७||
तरी तेंचि तिहीं भेदीं| कैसेनि पां म्हणौनि सुबुद्धी| जाणों पाहासी तरी आधीं| तपचि जाण ||१९८||
येथ तप म्हणजे काई| तें स्वरूप द्ॐ पाहीं| मग भेदिलें गुणीं तिहीं| तें पाठीं बोलों ||१९९||
तरी तप जें कां सम्यक्| तेंही त्रिविध आइक| शारीर मानसिक| शाब्द गा ||२००||
आतां गा तिहीं माझारीं| शारीर तंव अवधारीं| तरी शंभु कां श्रीहरी| पढियंता होय ||२०१||
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ||१४||
तया प्रिया देवतालया| यात्रादिकें करावया| आठही पाहार जैसें पायां| उळिग घापे ||२०२||
देवांगणमिरवणियां| अंगोपचार पुरवणियां| करावया म्हणियां| शोभती हात ||२०३||
लिंग कां प्रतिमा दिठी| देखतखेंवों अंगेष्टी| लोटिजे कां काठी| पडली जैसी ||२०४||
आणि विधिविनयादिकीं| गुणीं वडील जे लोकीं| तया ब्राह्मणाची निकी| पाइकी कीजे ||२०५||
अथवा प्रवासें कां पीडा| का शिणले जे सांकडां| ते जीव सुरवाडा| आणिजती ||२०६||
सकल तीर्थांचिये धुरे| जियें कां मातापितरें| तयां सेवेसी कीर शरीरें| लोण कीजे ||२०७||
आणि संसाराऐसा दारुणु| जो भेटलाचि हरी शीणु| तो ज्ञानदानीं सकरुणु| भजिजे गुरु ||२०८||
आणि स्वधर्माचा आगिठां| देह जाड्याचिया किटा| आवृत्तिपुटीं सुभटा| झाडी कीजे ||२०९||
वस्तु भूतमात्रीं नमिजे| परोपकारीं भजिजे| स्त्रीविषयीं नियमिजे| नांवें नांवें ||२१०||
जन्मतेनि प्रसंगे| स्त्रीदेह शिवणें आंगें| तेथूनि जन्म आघवें| सोंवळें कीजे ||२११||
भुतमात्राचेनि नांवें| तृणही नासुडावें| किंबहुना सांडावे| छेद भेद ||२१२||
ऐसैसी जैं शरीरीं| रहाटीची पडे उजरी| तैं शारीर तप घुमरी| आलें जाण ||२१३||
पार्था समस्तही हें करणें| देहाचेनि प्रधानपणें| म्हणौनि ययातें मी म्हणें| शारीर तप ||२१४||
एवं शारीर जें तप| तयाचें दाविलें रूप| आतां आइक निष्पाप| वाङ्मय तें ||२१५||
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् |
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ||१५||
तरी लोहाचें आंग तुक| न तोडितांचि कनक| केलें जैसें देख| परीसें तेणें ||२१६||
तैसें न दुखवितां सेजे| जावळिया सुख निपजे| ऐसें साधुत्व कां देखिजे| बोलणां जिये ||२१७||
पाणी मुदल झाडा जाये| तृण ते प्रसंगेंचि जियें| तैसें एका बोलिलें होये| सर्वांहि हित ||२१८||
जोडे अमृताची सुरसरी| तैं प्राणांतें अमर करी| स्नानें पाप ताप वारी| गोडीही दे ||२१९||
तैसा अविवेकुही फिटे| आपुलें अनादित्व भेटे| आइकतां रुचि न विटे| पीयुषीं जैसी ||२२०||
जरी कोणी करी पुसणें| तरी होआवें ऐसें बोलणें| नातरी अवर्तणें| निगमु का नाम ||२२१||
ऋग्वेदादि तिन्ही| प्रतिष्ठीजती वाग्भुवनीं| केली जैसी वदनीं| ब्रह्मशाळा ||२२२||
नातरी एकाधें नांव| तेंचि शैव का वैष्णव| वाचे वसे तें वाग्भव| तप जाणावें ||२२३||
आतां तप जें मानसिक| तेंही सांगों आइक| म्हणे लोकनाथनायक | नायकु तो ||२२४||
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः |
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ||१६||
तरी सरोवर तरंगीं| सांडिलें आकाश मेघीं| का चंदनाचें उरगीं| उद्यान जैसें ||२२५||
नाना कळावैषम्यें चंद्रु| कां सांडिला आधीं नरेंद्रु| नातरी क्षीरसमुद्रु| मंदराचळें ||२२६||
तैसीं नाना विकल्पजाळें| सांडुनि गेलिया सकळें| मन राहे का केवळें| स्वरूपें जें ||२२७||
तपनेंवीण प्रकाशु| जाड्येंवीण रसीं रसु| पोकळीवीण अवकाशु| होय जैसा ||२२८||
तैसी आपली सोय देखे| आणि आपलिया स्वभावा मुके| हिंवली जैसी आंगिकें| हिवों नेदी निजांग ||२२९||
तैसें न चलतें कळंकेंवीण| शशिबिंब जैसें परीपूर्ण| तैसें चोखी शृंगारपण| मनाचें जें ||२३०||
बुजाली वैराग्याची वोरप| जिराली मनाची धांप कांप| तेथ केवळ जाली वाफ| निजबोधाची ||२३१||
म्हणौनि विचारावया शास्त्र| राहाटवावें जें वक्त्र| तें वाचेचेंही सूत्र| हातीं न धरी ||२३२||
तें स्वलाभ लाभलेपणें| मन मनपणाही धरूं नेणें| शिवतलें जैसें लवणें| आपुलें निज ||२३३||
तेथ कें उठिती ते भाव| जिहीं इंद्रियमार्गीं धांव| घेऊनि ठाकावे गांव| विषयांचे ते ||२३४||
म्हणौनि तिये मानसीं| भावशुद्धिचि असे अपैसी| रोमशुचि जैसी| तळहातासी ||२३५||
काय बहु बोलों अर्जुना| जैं हे दशा ये मना| तैं मनोतपाभिधाना| पात्र होय ती ||२३६||
परी ते असो हें जाण| मानस तपाचें लक्षण| देवो म्हणे संपूर्ण| सांगितलें ||२३७||
एवं देहवाचाचित्तें| जें पातलें त्रिविधत्वातें| तें सामान्य तप तूतें| परीसविलें गा ||२३८||
आतां गुणत्रयसंगें| हेंचि विशेषीं त्रिविधीं रिगे| तेंही आइक चांगें| प्रज्ञाबळें ||२३९||
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः |
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ||१७||
तरी हेंचि तप त्रिविधा| जें दाविलें तुज प्रबुद्धा| तेंचि करीं पूर्णश्रद्धा| सांडूनि फळ ||२४०||
जैं पुरतिया सत्त्वशुद्धी| आचरिजे आस्तिक्यबुद्धी| तैं तयातेंचि गा प्रबुद्धी| सात्त्विक म्हणिपे ||२४१||
सत्कारमानपूजार्थं तपो दंभेन चैव यत् |
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवं ||१८||
नातरी तपस्थापनेलागीं| दुजेपण मांडूनि जगीं| महत्त्वाच्या शृंगीं| बैसावया ||२४२||
त्रिभुवनींचिया सन्माना| न वचावें ठाया आना| धुरेचिया आसना| भोजनालागीं ||२४३||
विश्वाचिया स्तोत्रा| आपण होआवया पात्रा| विश्वें आपलिया यात्रा| कराविया यावें ||२४४||
लोकांचिया विविधा पूजा| आश्रयो न धरावया दुजा| भोग भोगावे वोजा| महत्त्वाचिया ||२४५||
अंग बोल माखूनि तपें| विकावया आपणपें| अंगहीन पडपे| जियापरी ||२४६||
हें असो धनमानीं आस| वाढौनी तप कीजे सायास| तैं तेंचि तप राजस| बोलिजे गा ||२४७||
परी पहुरणी जें दुहिलें| तैं तें गुरूं न दुभेचि व्यालें| का उभें शेत चारिलें| पिकावया नुरे ||२४८||
तैसें फोकारितां तप| कीजे जें साक्षेप| तें फळीं तंव सोप| निःशेष जाय ||२४९||
ऐसें निर्फळ देखोनि करितां| माझारीं सांडी पंडुसुता| म्हणौनि नाहीं स्थिरता| तपा तया ||२५०||
एऱ्हवीं तरी आकाश मांडी| जो गर्जोनि ब्रह्मांड फोडी| तो अवकाळु मेघु काय घडी| राहात आहे ? ||२५१||
तैसें राजस तप जें होये| तें फळीं कीर वांझ जाये| परी आचरणींही नोहे| निर्वाहतें गा ||२५२||
आतां तेंचि तप पुढती| तामसाचिये रीती| पैं परत्रा आणि कीर्ती| मुकोनि कीजे ||२५३||
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः |
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ||१९||
केवळ मूर्खपणाचा वारा| जीवीं घेऊनि धनुर्धरा| नाम ठेविजे शरीरा| वैरियाचें ||२५४||
पंचाग्नीची दडगी| खोलवीजती शरीरालागीं| का इंधन कीजे हें आगी | आंतु लावी ||२५५||
माथां जाळिजती गुगुळु| पाठीं घालिजती गळु| आंग जाळिती इंगळु| जळतभीतां ||२५६||
दवडोनि श्वासोच्छ्वास| कीजती वायांचि उपवास| कां घेपती धूमाचें घांस| अधोमुखें ||२५७||
हिमोदकें आकंठें| खडकें सेविजती तटें| जितया मांसाचे चिमुटे| तोडिती जेथ ||२५८||
ऐसी नानापरी हे काया| घाय सूतां पैं धनंजया| तप कीजे नाशावया| पुढिलातें ||२५९||
आंगभारें सुटला धोंडा| आपण फुटोनि होय खंडखंडा| कां आड जालियातें रगडा| करी जैसा ||२६०||
तेवीं आपलिया आटणिया| सुखें असतया प्राणिया| जिणावया शिराणिया| कीजती गा ||२६१||
किंबहुना हे वोखटी| घेऊनि क्लेशाची हातवटी| तप निफजे तें किरीटी| तामस होय ||२६२||
एवं सत्त्वादिकांच्या आंगीं| पाडिलें तप तिहीं भागीं| जालें तेंही तुज चांगी| दाविलें व्यक्ती ||२६३||
आतां बोलतां प्रसंगा| आलें म्हणौनि पैं गा| करूं रूप दानलिंगा| त्रिविधा तया ||२६४||
येथ गुणाचेनि बोलें| दानही त्रिविध असे जालें| तेंचि आइक पहिलें| सात्त्विक ऐसें ||२६५||
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे |
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ||२०||
तरी स्वधर्मा आंतौतें| जें जें मिळे आपणयातें| तें तें दीजे बहुतें| सन्मानयोगें ||२६६||
जालया सुबीजप्रसंगु| पडे क्षेत्रवाफेचा पांगु| तैसाचि दानाचा हा लागु| देखतसें ||२६७||
अनर्घ्य रत्न हातां चढे| तैं भांगाराची वोढी पडे| दोनी जालीं तरी न जोडे| लेतें आंग ||२६८||
परी सण सुहृद संपत्ती| हे तिन्ही येकीं मिळती| जे भाग्य धरी उन्नती| आपुल्याविषयीं ||२६९||
तैसें निफजावया दान| जैं सत्त्वासि ये संवाहन| तैं देश काळ भाजन| द्रव्यही मिळे ||२७०||
तरी आधीं तंव प्रयत्नेंसीं| होआवें कुरुक्षेत्र का काशी| नातरी तुके जो इहींसीं| तो देशुही हो ||२७१||
तेथ रविचंद्रराहुमेळु| होतां पाहे पुण्यकाळु| का तयासारिखा निर्मळु| आनुही जाला ||२७२||
तैशा काळीं तिये देशीं| होआवी पात्र संपत्ती ऐसी| मूर्ति आहे धरिली जैसी| शुचित्वेंचि कां ||२७३||
आचाराचें मूळपीळ| वेदांची उतारपेठ| तैसें द्विजरत्न चोखट| पावोनियां ||२७४||
मग तयाच्या ठाईं वित्ता| निवर्तवावी स्वसत्ता| परी प्रियापुढें कांता| रिगे जैसी ||२७५||
का जयाचें ठेविलें तया| देऊनि होईजे उतराइया| नाना हडपें विडा राया| दिधला जैसा ||२७६||
तैसेनि निष्कामें जीवें| भूम्यादिक अर्पावें| किंबहुना हांवे| नेदावें उठों ||२७७||
आणि दान जया द्यावें| तयातें ऐसेया पाहावें| जया घेतलें नुमचवे| कायसेंनही ||२७८||
साद घातलिया आकाशा| नेदी प्रतिशब्दु जैसा| का पाहिला आरसा| येरीकडे ||२७९||
नातरी उदकाचिये भूमिके| आफळिलेनि कंदुकें| उधळौनि कवतिकें| न येईजे हाता ||२८०||
नाना वसो घातला चारू| माथां तुरंबिला बुरू| न करी प्रत्युपकारू| जियापरी ||२८१||
तैसें दिधलें दातयाचें| जो कोणेही आंगें नुमचे| अर्पिलया साम्य तयाचें| कीजे पैं गा ||२८२||
ऐसिया जें सामग्रिया| दान निफजे वीरराया| तें सात्त्विक दानवर्या| सर्वांही जाण ||२८३||
आणि तोचि देशु काळु| घडे तैसाचि पात्रमेळु| दानभागुही निर्मळु| न्यायगतु ||२८४||
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः |
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ||२१||
परी मनीं धरूनि दुभतें| चारिजे जेवीं गाईतें| का पेंव करूनि आइतें| पेरूं जाइजे ||२८५||
नाना दिठी घालुनि आहेरा| अवंतुं जाइजे सोयिरा| का वाण धाडिजे घरा| वोवसीयाचे ||२८६||
पैं कळांतर गांठीं बांधिजे| मग पुढिलांचें काज कीजे| पूजा घेऊनि रसु दीजे| पीडितांसी ||२८७||
तैसें जया जें दान देणें| तो तेणेंचि गा जीवनें| पुढती भुंजावा भावें येणें| दीजे जें का ||२८८||
अथवा कोणी वाटे जातां| घेतलें उमचों न शकता| मिळे जैं पंडुसुता| द्विजोत्तमु ||२८९||
तरी कवड्या एकासाठीं| अशेषां गोत्रांचींच किरीटी| सर्व प्रायश्चित्तें सुयें मुठीं| तयाचिये ||२९०||
तेवींचि पारलौकिकें| फळें वांछिजती अनेकें| आणि दीजे तरी भुके| येकाही नोहे ||२९१||
तेंही ब्राह्मणु नेवो सरे| कीं हाणिचेनि शिणें झांसुरें| सर्वस्व जैसें चोरें| नागऊनि नेलें ||२९२||
बहु काय सांगों सुमती| जें दीजे या मनोवृत्ती| तें दान गा त्रिजगतीं| राजस पैं ||२९३||
अदेशकाले यद्दनमपात्रेभ्यश्च दीयते |
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ||२२||
मग म्लेंच्छांचे वसौटें| दांगाणे हन कैकटे| का शिबिरें चोहटे| नगरींचे ते ||२९४||
तेही ठाईं मिळणी| समयो सांजवेळु कां रजनी| तेव्हां उदार होणें धनीं| चोरियेच्या ||२९५||
पात्रें भाट नागारी| सामान्य स्त्रिया का जुवारी| जिये मूर्तिमंते भुररीं| भुले तया ||२९६||
रूपानृत्याची पुरवणी| ते पुढां डोळेभारणी| गीत भाटीव तो श्रवणीं| कर्णजपु ||२९७||
तयाहीवरी अळुमाळु| जैं घे फुलागंधाचा गुगुळु| तंव भ्रमाचा तो वेताळु| अवतरे तैसा ||२९८||
तेथ विभांडूनियां जग| आणिले पदार्थ अनेग| तेणें घालूं लागे मातंग| गवादी जैसी ||२९९||
एवं ऐसेनि जें देणें| तें तामस दान मी म्हणें| आणि घडे दैवगुणें| आणिकही ऐक ||३००||
विपायें घुणाक्षर पडे| टाळिये काउळा सांपडे| तैसे तामसां पर्व जोडे| पुण्यदेशीं ||३०१||
तेथ देखोनि तो आथिला| योग्यु मागोंही आला| तोही दर्पा चढला| भांबावें जरी ||३०२||
तरी श्रद्धा न धरी जिवीं| तया माथाही न खालवी| स्वयें न करी ना करवी| अर्घ्यादिक ||३०३||
आलिया न घली बैसों| तेथ गंधाक्षतांचा काय अतिसो| हा अप्रसंगु कीर असो| तामसीं नरीं ||३०४||
पैं बोळविजे रिणाइतु| तैसा झकवी तयाचा हातु| तूं करणें याचा बहुतु| प्रयोगु तेथ ||३०५||
आणि जया जें दे किरीटी| तयातें उमाणी तयासाठीं| मग कुबोलें कां लोटी| अवज्ञेच्या ||३०६||
हें बहु असो यापरी| मोल वेंचणें जें अवधारीं| तया नांव चराचरीं| तामस दान ||३०७||
ऐशीं आपुलाला चिन्हीं| अळंकृतें तिन्हीं| दानें दाविलीं अभिधानीं| रजतमाचिया ||३०८||
तेथ मी जाणत असें| विपायें तूं गा ऐसें| कल्पिसील मानसें| विचक्षणा ||३०९||
जें भवबंधमोचक| येकलें कर्म सात्त्विक| तरी कां वेखासी सदोख| येर बोलावीं ? ||३१०||
परी नोसंतितां विवसी| भेटी नाहीं निधीसी| का धूं न साहतां जैसी| वाती न लगे ||३११||
तैसें शुद्धसत्त्वाआड| आहे रजतमाचें कवाड| तें भेदणे यातें कीड| म्हणावें कां ? ||३१२||
आम्ही श्रद्धादि दानांत| जें समस्तही क्रियाजात| सांगितलें कां व्याप्त| तिहीं गुणीं ||३१३||
तेथ भरंवसेनि तिन्ही| न सांगोंचि ऐसें मानीं| परी सत्त्व दावावया दोन्ही| बोलिलों येरें ||३१४||
जें दोहींमाजीं तिजें असे| तें दोन्ही सांडितांचि दिसे| अहोरात्रत्यागें जैसें| संध्यारूप ||३१५||
तैसें रजतमविनाशें| तिजें जें उत्तम दिसे| तें सत्त्व हें आपैसें| फावासि ये ||३१६||
एवं दाखवावया सत्त्व तुज| निरूपिलें तम रज| तें सांडूनि सत्त्वें काज| साधीं आपुलें ||३१७||
सत्त्वेंचि येणें चोखाळें| करीं यज्ञादिकें सकळें| पावसी तैं करतळें| आपुलें निज ||३१८||
सूर्यें दाविलें सांतें| काय एक न दिसे तेथें| तेवीं सत्त्वें केलें फळातें| काय नेदी ? ||३१९||
हे कीर आवडतांविखीं| शक्ति सत्त्वीं आथी निकी| परी मोक्षेंसी एकीं| मिसळणें जें ||३२०||
तें एक आनचि आहे| तयाचा सावावो जैं लाहे| तैं मोक्षाचाही होये| गांवीं सरतें ||३२१||
पैं भांगार जऱ्हीं पंधरें| तऱ्ही राजावळींचीं अक्षरें| लाहें तैंचि सरे| जियापरी ||३२२||
स्वच्छें शीतळें सुगंधें| जळें होती सुखप्रदें| परी पवित्रत्व संबंधें| तीर्थाचेनि ||३२३||
नयी हो कां भलतैसी थोरी| परी गंगा जैं अंगीकारी| तैंचि तिये सागरीं| प्रवेशु गा ||३२४||
तैसें सात्त्विका कर्मां किरीटी| येतां मोक्षाचिये भेटी| न पडे आडकाठी| तें वेगळें आहे ||३२५||
हा बोलु आइकतखेवीं| अर्जुना आधि न माये जीवीं| म्हणे देवें कृपा करावी| सांगावें तें ||३२६||
तेथ कृपाळुचक्रवर्ती| म्हणे आईक तयाची व्यक्ती| जेणें सात्त्विक तें मुक्ती- | रत्न देखे ||३२७||
ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः |
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ||२३||
तरी अनादि परब्रह्म| जें जगदादि विश्रामधाम| तयाचें एक नाम| त्रिधा पैं असे ||३२८||
तें कीर अनाम अजाती| परी अविद्यावर्गाचिये राती- /| माजी वोळखावया श्रुती| खूण केली ||३२९||
उपजलिया बाळकासी| नांव नाहीं तयापासीं| ठेविलेनि नांवेंसी| ओ देत उठी ||३३०||
कष्टले संसारशीणें| जे देवों येती गाऱ्हाणें| तयां ओ दे नांवें जेणें| तो संकेतु हा ||३३१||
ब्रह्माचा अबोला फिटावा| अद्वैततत्त्वें तो भेटावा| ऐसा मंत्रु देखिला कणवा| वेदें बापें ||३३२||
मग दाविलेनि जेणें एकें| ब्रह्म आळविलें कवतिकें| मागां असत ठाके| पुढां उभें ||३३३||
परी निगमाचळशिखरीं| उपनिषदार्थनगरीं| आहाति जे ब्रह्माच्या येकाहारीं| तयांसीच कळे ||३३४||
हेंही असो प्रजापती| शक्ति जे सृष्टि करिती| ते जया एका आवृत्ती| नामाचिये ||३३५||
पैं सृष्टीचिया उपक्रमा- / पूर्वीं गा वीरोत्तमा| वेडा ऐसा ब्रह्मा| एकला होता ||३३६||
मज ईश्वरातें नोळखे| ना सृष्टिही करूं न शके| तो थोरु केला एकें| नामें जेणें ||३३७||
जयाचा अर्थु जीवीं ध्यातां| जें वर्णत्रयचि जपतां| विश्वसृजनयोग्यता| आली तया ||३३८||
तेधवां रचिलें ब्रह्मजन| तयां वेद दिधलें शासन| यज्ञा ऐसें वर्तन| जीविकें केलें ||३३९||
पाठीं नेणों किती येर| स्रजिले लोक अपार| जाले ब्रह्मदत्त अग्रहार| तिन्हीं भुवनें ||३४०||
ऐसें नाममंत्रें जेणें| धातया अढंच करणें| तयाचें स्वरूप आइक म्हणे| श्रीकांतु तो ||३४१||
तरी सर्व मंत्रांचा राजा| तो प्रणवो आदिवर्णु बुझा| आणि तत्कारु जो दुजा| तिजा सत्कारु ||३४२||
एवं ॐतत्सदाकारु| ब्रह्मनाम हें त्रिप्रकारु| हें फूल तुरंबी सुंदरु| उपनिषदाचें ||३४३||
येणेंसीं गा होऊनि एक| जैं कर्म चाले सात्त्विक| तैं कैवल्यातें पाइक| घरींचें करी ||३४४||
परी कापुराचें थळींव| आणून देईल दैव| लेवों जाणणेंचि आडव| तेथ असे बापा ||३४५||
तैसें आदरिजेल सत्कर्म| उच्चरिजेल ब्रह्मनाम| परी नेणिजेल जरी वर्म| विनियोगाचें ||३४६||
तरी महंताचिया कोडी| घरा आलियाही वोढी| मानूं नेणतां परवडी| मुद्दल तुटे ||३४७||
कां ल्यावया चोखट| टीक भांगार एकवट| घालूनि बांधिली मोट| गळा जेवीं ||३४८||
तैसें तोंडीं ब्रह्मनाम| हातीं तें सात्त्विक कर्म| विनियोगेंवीण काम| विफळ होय ||३४९||
अगा अन्न आणि भूक| पासीं असे परी देख| जेऊं नेणतां बालक| लंघनचि कीं ||३५०||
का स्नेहसूत्र वैश्वानरा| जालियाही संसारा| हातवटी नेणतां वीरा| प्रकाशु नोहे ||३५१||
तैसे वेळे कृत्य पावे| तेथिंचा मंत्रुही आठवे| परी व्यर्थ तें आघवें| विनियोगेंवीण ||३५२||
म्हणौनि वर्णत्रयात्मक| जे हें परब्रह्मनाम एक| विनियोगु तूं आइक| आतां याचा ||३५३||
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः |
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ||२४||
तरी या नामींचीं अक्षरें तिन्हीं| कर्मा आदिमध्यनिदानीं| प्रयोजावीं पैं स्थानीं| इहीं तिन्हीं ||३५४||
हेंचि एकी हातवटी| घेउनि हन किरीटी| आले ब्रह्मविद भेटी| ब्रह्माचिये ||३५५||
ब्रह्मेंसीं होआवया एकी| ते न वंचती यज्ञादिकीं| जे चावळलें वोळखीं| शास्त्रांचिया ||३५६||
तो आदि तंव ओंकारु| ध्यानें करिती गोचरु| पाठीं आणिती उच्चारु| वाचेही तो ||३५७||
तेणें ध्यानें प्रकटें| प्रणवोच्चारें स्पष्टें| लागती मग वाटे| क्रियांचिये ||३५८||
आंधारीं अभंगु दिवा| आडवीं समर्थु बोळावा| तैसा प्रणवो जाणावा| कर्मारंभीं ||३५९||
उचितदेवोद्देशे| द्रव्यें धर्म्यें आणि बहुवसें| द्विजद्वारां हन हुताशें| यजिती पैं ते ||३६०||
आहवनीयादि वन्ही| निक्षेपरूपीं हवनीं| यजिती पैं विधानीं| फुडे होउनी ||३६१||
किंबहुना नाना याग| निष्पत्तीचे घेउनि अंग| करिती नावडतेया त्याग| उपाधीचा ||३६२||
कां न्यायें जोडला पवित्रीं| भूम्यादिकीं स्वतंत्रीं| देशकाळशुद्ध पात्रीं| देती दानें ||३६३||
अथवा एकांतरां कृच्छ्रीं| चांद्रायणें मासोपवासीं| शोषोनि गा धातुराशी| करिती तपें ||३६४||
एवं यज्ञदानतपें| जियें गाजती बंधरूपें| तिहींच होय सोपें| मोक्षाचें तयां ||३६५||
स्थळीं नावा जिया दाटिजे| जळीं तियांचि जेवीं तरीजे| तेवीं बंधकीं कर्मीं सुटिजे| नामें येणें ||३६६||
परी हें असो ऐसिया| या यज्ञदानादि क्रिया| ओंकारें सावायिलिया| प्रवर्तती ||३६७||
तिया मोटकिया जेथ फळीं| रिगों पाहाती निहाळीं| प्रयोजिती तिये काळीं| तच्छब्दु तो ||३६८||
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपः क्रियाः |
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ||२५||
जें सर्वांही जगापरौतें| जें एक सर्वही देखतें| तें तच्छब्दें बोलिजे तें| पैल वस्तु ||३६९||
तें सर्वादिकत्वें चित्तीं| तद्रूप ध्यावूनियां सुमती| उच्चारेंही व्यक्ती| आणिती पुढती ||३७०||
म्हणती तद्रूपा ब्रह्मा तया| फळेंसीं क्रिया इयां| तेंचि होतु आम्हां भोगावया| कांहींचि नुरो ||३७१||
ऐसेनि तदात्मकें ब्रह्में| तेथ उगाणूनि कर्में| आंग झाडिती न ममें| येणें बोलें ||३७२||
आतां ओंकारें आदरिलें| तत्कारें समर्पिलें| इया रिती जया आलें| ब्रह्मत्व कर्मा ||३७३||
तें कर्म कीर ब्रह्माकारें| जालें तेणेंही न सरे| जे करी तेणेंसी दुसरें| आहे म्हणौनि ||३७४||
मीठ आंगें जळीं विरे| परी क्षारता वेगळी उरे| तैसें कर्म ब्रह्माकारें| गमे तें द्वैत ||३७५||
आणि दुजे जंव जंव घडे| तंव तंव संसारभय जोडे| हें देवो आपुलेनि तोंडें| बोलती वेद ||३७६||
म्हणौनि परत्वें ब्रह्म असे| तें आत्मत्वें परीयवसे| सच्छब्द या रिणादोषें| ठेविला देवें ||३७७||
तरी ओंकार तत्कारीं| कर्म केलें जें ब्रह्मशरीरीं| जें प्रशस्तादि बोलवरी| वाखाणिलें ||३७८||
प्रशस्तकर्मीं तिये| सच्छब्दा विनियोगु आहे| तोचि आइका होये| तैसा सांगों ||३७९||
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते |
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ||२६||
तरी सच्छब्दें येणें| आटूनि असताचें नाणें| दाविजे अव्यंगवाणें| सत्तेचें रूप ||३८०||
जें सत् तेंचि काळें देशें| होऊं नेणेचि अनारिसे| आपणपां आपण असे| अखंडित ||३८१||
हें दिसतें जेतुलें आहे| तें असतपणें जें नोहे| देखतां रूपीं सोये| लाभे जयाची ||३८२||
तेणेंसीं प्रशस्त तें कर्म| जें जालें सर्वात्मक ब्रह्म| देखिजे करूनि सम| ऐक्यबोधें ||३८३||
तरी ओंकार तत्कारें| जें कर्म दाविलें ब्रह्माकारें| तें गिळूनि होईजे एकसरें| सन्मात्रचि ||३८४||
ऐसा हा अंतरंगु| सच्छब्दाचा विनियोगु| जाणा म्हणे श्रीरंगु| मी ना म्हणें हो ||३८५||
ना मीचि जरी हो म्हणें| तरी श्रीरंगीं दुजें हेंचि उणें| म्हणौनि हें बोलणें| देवाचेंचि ||३८६||
आतां आणिकीही परी| सच्छब्दु हा अवधारीं| सात्त्विक कर्मा करी| उपकारु जो ||३८७||
तरी सत्कर्में चांगें| चालिलीं अधिकारबगें| परी एकाधें कां आंगें| हिणावती जैं ||३८८||
तैं उणें एकें अवयवें| शरीर ठाके आघवें| कां अंगहीन भांडावें| रथाची गती ||३८९||
तैसें एकेंचि गुणेंवीण| सतचि परी असतपण| कर्म धरी गा जाण| जिये वेळे ||३९०||
तेव्हां ओंकार तत्कारीं| सावायिला हा चांगी परी| सच्छब्दु कर्मा करी| जीर्णोद्धारु ||३९१||
तें असतपण फेडी| आणी सद्भावाचिये रूढी| निजसत्त्वाचिये प्रौढी| सच्छब्दु हा ||३९२||
दिव्यौषध जैसें रोगिया| कां सावावो ये भंगलिया| सच्छब्दु कर्मा व्यंगलिया| तैसा जाण ||३९३||
अथवा कांहीं प्रमादें| कर्म आपुलिये मर्यादे| चुकोनि पडे निषिद्धे| वाटे हन ||३९४||
चालतयाही मार्गु सांडे| पारखियाचि अखरें पडे| राहाटीमाजीं न घडे| काइ काइ ? ||३९५||
म्हणौनि तैसी कर्मा| राभस्यें सांडे सीमा| असाधुत्वाचिया दुर्नामा| येवों पाहे जें ||३९६||
तेथ गा हा सच्छब्दु| येरां दोहींपरीस प्रबुद्धु| प्रयोजिला करी साधु| कर्मातें यया ||३९७||
लोहा परीसाची घृष्टी| वोहळा गंगेची भेटी| कां मृता जैसी वृष्टी| पीयूषाची ||३९८||
पैं असाधुकर्मा तैसा| सच्छब्दुप्रयोगु वीरेशा| हें असो गौरवुचि ऐसा| नामाचा यया ||३९९||
घेऊनि येथिंचें वर्म| जैं विचारिसी हें नाम| तैं केवळ हेंचि ब्रह्म| जाणसी तूं ||४००||
पाहें पां ॐतत्सत् ऐसें| हें बोलणें तेथ नेतसे| जेथूनि कां हें प्रकाशे| दृश्यजात ||४०१||
तें तंव निर्विशिष्ट| परब्रह्म चोखट| तयाचें हें आंतुवट| व्यंजक नाम ||४०२||
परी आश्रयो आकाशा| आकाशचि का जैसा| या नामानामी आश्रयो तैसा| अभेदु असे ||४०३||
उदयिला आकाशीं| रवीचि रवीतें प्रकाशी| हे नामव्यक्ती तैसी| ब्रह्मचि करी ||४०४||
म्हणौनि त्र्यक्षर हें नाम| नव्हे जाण केवळ ब्रह्म| ययालागीं कर्म| जें जें कीजे ||४०५||
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते |
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ||२७||
तें याग अथवा दानें| तपादिकेंही गहनें| तियें निफजतु कां न्यूनें| होऊनि ठातु ||४०६||
परी परीसाचा वरकली| नाहीं चोखाकिडाची बोली| तैसी ब्रह्मीं अर्पितां केलीं| ब्रह्मचि होती ||४०७||
उणिया पुरियाची परी| नुरेचि तेथ अवधारीं| निवडूं न येती सागरीं| जैसिया नदी ||४०८||
एवं पार्था तुजप्रती| ब्रह्मनामाची हे शक्ती| सांगितली उपपत्ती| डोळसा गा ||४०९||
आणि येकेकाही अक्षरा| वेगळवेगळा वीरा| विनियोगु नागरा| बोलिलों रीती ||४१०||
एवं ऐसें सुमहिम| म्हणौनि हें ब्रह्मनाम| आतां जाणितलें कीं सुवर्म| राया तुवां ? ||४११||
तरी येथूनि याचि श्रद्धा| उपलविली हो सर्वदा| जयाचें जालें बंधा| उरों नेदी ||४१२||
जिये कर्मीं हा प्रयोगु| अनुष्ठिजे सद्विनियोगु| तेथ अनुष्ठिला सांगु| वेदुचि तो ||४१३||
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् |
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ||२८||
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः ||१७अ ||
ना सांडूनि हे सोये| मोडूनि श्रद्धेची बाहे| दुराग्रहाची त्राये| वाढऊनियां ||४१४||
मग अश्वमेध कोडी कीजे| रत्नें भरोनि पृथ्वी दीजे| एकांगुष्ठींही तपिजे| तपसाहस्रीं ||४१५||
जळाशयाचेनि नांवें| समुद्रही कीजती नवे| परी किंबहुना आघवें| वृथाचि तें ||४१६||
खडकावरी वर्षले| जैसें भस्मीं हवन केलें| कां खेंव दिधलें| साउलिये ||४१७||
नातरी जैसें चडकणा| गगना हाणितलें अर्जुना| तैसा समारंभु सुना| गेलाचि तो ||४१८||
घाणां गाळिले गुंडे| तेथ तेल ना पेंडी जोडे| तैसें दरिद्र तेवढें| ठेलेंचि आंगीं ||४१९||
गांठीं बांधली खापरी| येथ अथवा पैलतीरीं| न सरोनि जैसी मारी| उपवासीं गा ||४२०||
तैसें कर्मजातें तेणें| नाहीं ऐहिकीचें भोगणें| तेथ परत्र तें कवणें| अपेक्षावें ||४२१||
म्हणौनि ब्रह्मनामश्रद्धा| सांडूनि कीजे जो धांदा| हें असो सिणु नुसधा| दृष्टादृष्टीं तो ||४२२||
ऐसें कलुषकरिकेसरी| त्रितापतिमिरतमारी| श्रीवर वीर नरहरी| बोलिलें तेणें ||४२३||
तेथ निजानंदा बहुवसा- /| माजीं अर्जुन तो सहसा| हरपला चंद्रु जैसा| चांदिणेनि ||४२४||
अहो संग्रामु हा वाणिया| मापें नाराचांचिया आणिया| सूनि माप घे मवणिया| जीवितेंसी ||४२५||
ऐसिया समयीं कर्कशें| भोगीजत स्वानंदराज्य कैसें| आजि भाग्योदयो हा नसे| आनी ठाईं ||४२६||
संजयो म्हणे कौरवराया| गुणा रिझों ये रिपूचिया| आणि गुरुही हा आमुचिया| सुखाचा येथ ||४२७||
हा न पुसता हे गोठी| तरी देवो कां सोडिते गांठी| तरी कैसेंनि आम्हां भेटी| परमार्थेंसीं ||४२८||
होतों अज्ञानाच्या आंधारां| वोसंतीत जन्मवाहरा| तों आत्मप्रकाशमंदिरा- /| आंतु आणिलें ||४२९||
एवढा आम्हां तुम्हां थोरु| केला येणें उपकारु| म्हणौनि हा व्याससहोदरु| गुरुत्वें होय ||४३०||
तेवींचि संजयो म्हणे चित्तीं| हा अतिशयो या नृपती| खुपेल म्हणौनि किती| बोलत असों ||४३१||
ऐसी हे बोली सांडिली| मग येरीचि गोठी आदरिली| जे पार्थें कां पुसिली| श्रीकृष्णातें ||४३२||
याचें जैसें कां करणें| तैसें मीही करीन बोलणें| ऐकिजो ज्ञानदेवो म्हणे| निवृत्तीचा ||४३३||
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां सप्तदशोऽध्यायः ||
Encoded and proofread by
Chhaya Deo, Sharad Deo, and Vishwas Bhide.
Assisted by
Sunder Hattangadi, Joshi, and Shree Devi Kumar.
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% File name : dn17.itx
%--------------------------------------------
% Text title : Dnyaneshvari or Bhavarthadipika Chapter 17
% Author : Sant Dnyaneshwar
% Language : Marathi, Sanskrit
% Subject : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments :
% Transliterated by : Vishwas Bhide vishwas_bhide@yahoo.com, santsahitya@yahoo.co.in, Sharad and Chhaya Deo
% Proofread by : Vishwas Bhide vishwas_bhide@yahoo.com, santsahitya@yahoo.co.in, Sharad and Chhaya Deo
% Latest update : June 20, 2005
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