पुराण विषय अनुक्रमणिका

( से तक )



लेखक

राधा गुप्ता सुमन अग्रवाल विपिन कुमार




समर्पण

एक सफल व्यवसायी होते हुए भी आजीवन साहित्य प्रेमी, विद्या व्यसनी, गीर्वाणवाणी की सेवा हेतु समुत्सुक, हमारे प्रेरणा स्रोत एवं पथ - प्रदर्शक, परम पूज्य पिता स्वर्गीय श्री बलवीर सिंह एवं अगाध वात्सल्यमयी मां स्वर्गीया श्रीमती प्रेमलता की पुण्य स्मृति में प्रकाशित


श्री बलवीर सिंह : जन्म - मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, वि.सं. १९७८( -१२-१९२१ . ); निकुञ्ज वास : श्रावण शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०५५( ३०--१९९८ई. )

श्रीमती प्रेमलता : जन्म : श्रावण कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं. १९८५( १३--१९२८ई.) ; निकुञ्ज वास : माघ कृष्ण द्वितीया, वि.सं. २०३८( २०--१९८१ई. )

बहुमुखी प्रतिभा के धनी लाला बलवीर सिंह जी का जन्म देवबन्द के एक साधारण परिवार में हुआ। उनका प्रारम्भिक जीवन घोर आर्थिक अभाव में व्यतीत हुआ। देवबन्द में हरपतराय ऐंग्लो वैदिक कालेज से हाईस्कूल खुर्जा कालेज से इण्टरमीडिएट प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। उच्च शिक्षा के लिए धन का प्रबन्ध होने पर अपने अग्रज भाई को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए स्वयं सेंट्रल सेक्रेट्रिएट में क्लर्क के पद पर नौकरी करके अपना पूरा वेतन बडे भाई को भेजते हुए आपने स्वयं का जीवननिर्वाह एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में किया। पूरी तरह व्यस्त संघर्षरत रहने के बाद भी शिक्षा को विराम नहीं दिया और लाहौर विश्वविद्यालय से हिन्दी में प्रभाकर बी.. आनर्स करके विश्वविद्यालय में तृतीय स्थान प्राप्त किया। भाई इन्जीनियर बन गए उच्च वेतन पर डालमिया के यहाँ कार्य करने लगे। उसी समय बाबूजी का जापान जाना तय होगया। लेकिन काल की गति कि भाई का देहान्त हो गया। बाबूजी माता-पिता का दुःख देख सके और नौकरी छोड घर चले आए।

आर्थिक अभाव में मात्र तेरह रुपये से व्यापार प्रारम्भ किया जिसमें बाबूजी का वेश आडे गया तो आनन फानन में ही पैण्ट-शर्ट उतार धोती-कुर्ता धारण कर लिया। कठोर परिश्रम, पूरी इमानदारी और शुद्ध व्यावसायिक बुद्धि द्वारा अपने व्यापार को कपडा बुनने-रंगने से प्रारम्भ करके देवबन्ध की सफल व्यावसायिक संस्था मामचन्द बलवीर सिंह का रूप प्रदान किया।

व्यावसायिक व्यस्तता सामाजिक कार्यों स्वाध्याय के प्रति उनके लगाव को कम कर सकी। प्रारम्भ में कांग्रेस में रहे,फिर आजादी के समय वैचारिक उग्रता के कारण राजनैतिक कैदी के रूप में दो बार जेल जाना पडा जिसने बाबूजी के पिता और परिवार की कमर तोड दी। परन्तु बाबूजी की प्रखरता में कोई कमी नहीं आई और जीवन भर अपने सम्पर्क के प्रत्येक व्यक्ति को वे प्रेरणा देते रहे। चाहे गोरक्षा आन्दोलन हो, भारत-चीन भारत-पाक युद्ध, अकाल हो या बाढ, स्थानीय मुद्दे हों , प्रत्येक समय प्रेरणा का एक स्रोत बने रहते थे। सभी कार्यों के बीच होम्योपैथी का उनका शौक कभी दब सका और दुःसाध्य रोगों में भी निर्भीक होकर अपने मरीजों को पूरे विश्वास के साथ दवाई देकर उनकी शुभकामनाएं प्राप्त करते रहे।

उनके जीवन में कितनी भी बडी त्रासदी या कष्ट उन्हें हिला सके। अपनी आत्मा से भी प्रिय अपने बडे भाई का निधन हो अथवा परम प्रिय पुत्री की परिवार सहित अन्तिम यात्रा या व्यवसाय के उतार-चढाव अथवा स्वयं के शारीरिक कष्ट। यहाँ तक कि कैंसर की बीमारी में भी उनके चेहरे पर कोई शिकन देख पाया। आत्मविश्वास दृढ संकल्प के साथ किसी भी परिस्थिति में वे सदैव सम रहते थे। किसी भी प्रतिकूल अवसर पर सदैव कहते थेराजी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रजा है। यहाँ यूं भी वाह वाह है यहाँ यूं भी वाह वाह है

पूरे जीवन महापुरुषों का सत्संग स्वाध्याय उनका शौक बना रहा। भ्रातृमण्डल पुस्तकालय की स्थापना उनके स्वाध्याय प्रेम का ही परिणाम है। उन्होंने सदैव यही चाहा कि उनसे सम्बन्धित किसी भी बालक की शिक्षा आर्थिक अभाव के कारण अधूरी रह जाए। संस्कृत प्रेमी बाबूजी ने देवीकुण्ड संस्कृत पाठशाला के विकास के लिए पूर्ण प्रयास किया। अध्ययन तो अपने अन्तिम समय तक करते ही रहे। योगवासिष्ठ का उनका गहन अध्ययन उनकी पुत्री के डी.लिट् में सहायक बना।

अपने जीवन के अन्तिम तीन मास उन्होंने आत्म विश्लेषण में व्यतीत किए। और पूर्णकाम, पूर्ण शान्त, श्री जी के ध्यान में मग्न होकर श्रावण शुक्ल सप्तमी तदनुसार ३०--१९९८ई. को प्रातःकाल ब्रह्मलीन हो गए। उनका जीवन हमें सदैव प्रेरणा देता रहेगा।







प्राक्कथन

विकसित समाज अपने कुछ आदर्शों पर आधारित रहता है। ये आदर्श कौन से हैं, यह उस समाज में उपलब्ध दन्तकथाओं से परिलक्षित होता है। इन दन्तकथाओं का संकलन जिन ग्रन्थों में होता है, उन्हें पुराण या अंग्रेजी में माइथालाजी कहा जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि यह ग्रन्थ केवलमात्र समाज में प्रचलित व्यवहारों का, नियमों का दर्पण मात्र ही हों। इन कथाओं के पीछे पर्दे में कुछ योग, विज्ञान, दर्शन आदि के गम्भीर तथ्य भी छिपे रहते हैं, ऐसी परम्परागत रूप से मान्यता रही है। भारत में जो मुख्य रूप से १८ पुराणों का संग्रह प्रसिद्ध है, उसके बारे में तो यह भी मान्यता है कि वह वेदों की परोक्ष रूप से व्याख्याएं प्रस्तुत करते हैं, वेदों के जिन शब्दों का अर्थ ज्ञात नहीं है, उन शब्दों के अर्थ कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। वैदिक शब्दों के अर्थोंको समझने के लिए आज एकमात्र यास्क का निरुक्त ही उपलब्ध है और उसमें वेद के कुछ एक शब्द ही लिए गए हैं। उन शब्दों की व्याख्या भी ऐसी है जो सामान्य रूप से बोधगम्य नहीं है। दूसरी ओर, पुराणों की कथाएं सर्वसुलभ हैं और उन कथाओं के रहस्यों को समझ कर शब्दों के मूल अर्थ तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन यह मानना होगा कि इस दिशा में गंभीर प्रयासों की आवश्यकता है।

पुराणों ने भारतीय समाज के लिए एक व्यवहार शास्त्र भी प्रस्तुत किया है। पुत्र का माता - पिता के साथ, पत्नी का पति के साथ, गुरु का शिष्य के साथ, राजा का प्रजा के साथ, भृत्य का स्वामी के साथ व्यवहार कैसा हो, यह सब पुराणों में उपलब्ध है। समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों की कल्पना की गई है जिनके अलग - अलग कर्तव्य निर्धारित किए गए हैं। यह वर्ण व्यवस्था उचित है या नहीं, इसमें विवाद नहीं हो सकता, लेकिन यह जन्म के आधार पर हो या कर्म के आधार पर, इस विषय में लगता है पुराणों में भी अन्तर्विवाद है। कहीं जन्म के आधार पर मानी गई है, कहीं कर्म को प्रधानता दी गई है, कहीं जन्म से प्राप्त वर्ण को कर्मों द्वारा परिवर्तित करते हुए दिखाया गया है।

समाज में लोगों की श्रद्धा को किस ओर उन्मुख किया जाए, इसका भी प्रयास पुराणों में किया गया है। पुराणों में विभिन्न देवताओं के पूजन - अर्चन की विधि का विस्तार से वर्णन है। मूर्ति निर्माण में देवता की मूर्ति कैसी बनानी चाहिए, उसकी प्रतिष्ठा के लिए मन्दिर का स्वरूप कैसा होना चाहिए, यह सब पुराणों में वास्तुकला के अन्तर्गत मिलता है। पुराणों में प्रस्तुत देवताओं की साकार मूर्तियों का स्वरूप बहुत लम्बे काल से विवाद का विषय रहा है, विदेशी आक्रमणकारियों की घृणा का पात्र बना है, लेकिन अनुमान यह है कि वैदिक साहित्य में देवताओं के जिन गुणों की व्याख्या शब्दों में की गई है, पुराणों में उसका सरलीकरण करते हुए उसे एक साकार रूप दिया गया है।

पुराणों में दन्तकथाओं में अन्तर्निहित राजाओं की वंशावलियां भी प्राप्त होती हैं और काल निर्धारण के संदर्भ में आधुनिक पुरातत्त्वविदों के बीच यह वंशावलियां विवाद का विषय रही हैं। कहा जाता है कि भूगर्भ से प्राप्त शिलालेखों से राजाओं का जो कालनिर्धारण होता है, वह पौराणिक आधार पर किए गए कालनिर्धारण से मेल नहीं खाता। अतः पुराणों की कथाओं के पात्र किसी वास्तविक घटना के आधार पर लिए गए हैं या काल्पनिक प्रस्तुति हैं, इसका निर्णय करना कठिन है।

पुराणों में भूगोल का विस्तृत वर्णन मिलता है। लेकिन यह भूगोल कहीं तो पृथिवी के आधुनिक मानचित्र से मेल खाता है, कहीं नहीं। ऐसा लगता है कि भूगोल के इस विस्तृत वर्णन के पीछे पुराण प्राचीन भारतीय विचारधारा को प्रस्तुत कर रहे हैं।

पुराणों में मुगलकालीन तथा अंग्रेजों के शासनकाल तक के राजाओं के नाम भी उपलब्ध होते हैं। भविष्य पुराण में तो यह वर्णन अतिशयोक्ति तक पहुंच गया है और कहा जाता है कि इस पुराण का मूल रूप उपलब्ध होने के कारण कुछ विद्वानों ने नई कल्पना करके इसकी क्षतिपूर्ति की है। तथ्य चाहे कुछ भी रहा हो, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह पुराण भी वेद व्याख्या प्रस्तुत करने में सबसे अग्रणी है और इसका जो अंश कल्पित प्रतीत होता है, वह भी बहुत सारगर्भित है।

भारतीय समाज का आधार होते हुए भी पुराणों के मन्थन के उतने गम्भीर प्रयास नहीं किए गए हैं जितने अपेक्षित थे। श्रीमती राधा गुप्ता, श्रीमती सुमन अग्रवाल श्री विपिन कुमार द्वारा प्रस्तुत पुराण विषय अनुक्रमणिका के इस भाग में से लेकर तक के पुराणों के विषयों और नामों का संकलन किया गया है। आशा है यह ग्रन्थ अध्येताओं को, चाहे वह किसी भी क्षेत्र के हों, नई सामग्री प्रस्तुत करेगा। इससे पहले इन्हीं लेखकों द्वारा ग्रन्थ ° पुराण विषय अनुक्रमणिका ° ( वैदिक टिप्पणियों सहित ) प्रकाशित किए जा चुके हैं, लेकिन टिप्पणी लेखन का कार्य बहुत बृहत् है और यह उचित ही है कि अनुक्रमणिका को बिना टिप्पणियों के ही प्रकाशित कर दिया जाए। इस ग्रन्थ में पुराणों के बहुत से विषयों को चुना गया है, लेकिन विषयों के शीर्षकों का चुनाव बृहत् कार्य है और उसे भविष्य में और अधिक बृहत् रूप में दिया जा सकता है।

लेखक - त्रय ने अपना संकलन केवल पुराणों तक ही सीमित नहीं रखा है। पुराणों के अतिरिक्त उन्होंने वाल्मीकि रामायण, योगवासिष्ठ, महाभारत, कथासरित्सागर, लक्ष्मीनारायण संहिता जैसे ग्रन्थों से भी सामग्री का चयन किया है। लक्ष्मीनारायण संहिता ग्रन्थ भाषा की दृष्टि से अपेक्षाकृत अर्वाचीन काल का प्रतीत होता है लेकिन लेखकों ने अपने संकलन में उसे स्थान देना उचित समझा है। भविष्य के इतिहासकारों के लिए यह एक चेतावनी का विषय है। आज से हजार - दो हजार वर्ष पश्चात् के इतिहासकार कह सकते हैं कि लक्ष्मीनारायण संहिता भी एक पुराण है क्योंकि इस समय के अनुक्रमणिका बनाने वाले लेखक - त्रय ने इसे अपनी अनुक्रमणिका में स्थान दिया है। लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि किसी ग्रन्थ के पुराण कहलाने के लिए पांच या दस लक्षण निर्धारित कर दिए गए हैं। जिन ग्रन्थों में यह सारे लक्षण मिलेंगे, केवल उन्हें ही पुराण कहा जा सकता है। अतः लेखक - त्रय अपने संकलन में चाहे जिस ग्रन्थ को स्थान दें, उन्हें पुराणों की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

मैं कामना करता हूं कि लेखक - त्रय इस अनुक्रमणिका का शेष भाग भी शीघ्र पूरा करने में समर्थ हों। यह कार्य बहुत ही श्रमसाध्य तथा शोधपरक है। इन ग्रन्थों के आने से भारतीय विद्या के विद्वानों तथा शोध छात्रों को लाभ होगा, ऐसा मेरा विश्वास है। भगवान् उन्हें सामर्थ्य और सुविधा प्रदान करे, इसी अभिलाषा के साथ मैं उन्हें बधाई भी देता हूं तथा उत्साहवर्धन भी करता हूं। संयोगवश, लेखक - त्रय का सम्बन्ध भी मेरे पैतृक जन्मस्थान से ही है।

पुष्पेन्द्र कुमार

२४-१०-२००४ .



भूमिका

पिछले एक दशक में माननीय डा. फतहसिंह के निर्देशन में पुराणों के माध्यम से वैदिक तत्त्वों की व्याख्या का प्रयास किया जाता रहा है जो विभिन्न ग्रन्थों के माध्यम से प्रस्फुटित हुआ है। वर्तमान ग्रन्थ इस दिशा में नवीनतम उपलब्धि है। प्रस्तुत ग्रन्थ में विभिन्न विषयों पर पुराणों में आए संदर्भों का संकलन किया गया है और जहां - जहां संभव हो सका है, उन पर वैदिक साहित्य के संदर्भ में टिप्पणी की गई है। आभासी रूप में तो पुराणों की कथाएं आधारहीन लगती हैं और कुछ विचारकों का मानना है कि पुराणों को समझने की कुञ्जी खोई गई है। लेकिन यह सौभाग्य है कि आज जितनी मात्रट में वैदिक साहित्य उपलब्ध है, उसके आधार पर पुराणों के अधिकांश भाग की व्याख्या संभव प्रतीत होती है। इतना ही नहीं, वैदिक साहित्य को, जिसे एक प्रकार से बौद्धिक स्तर से परे कहकर उपेक्षित कर दिया जाता है, उसे बौद्धिक स्तर पर समझने में भी पुराण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते प्रतीत होते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि पुराण तथा शेष वैदिक साहित्य एक दूसरे के पूरक हैं। आज स्वतन्त्र भारत में हमें यह सुविधा प्राप्त हुई है कि हम इन दोनों का सम्यक् अवलोकन करके आवश्यक तथ्यों को सामने लाएं। इतना ही नहीं, लेखकों की यह कामना है कि इस अवगाहन से इतनी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हो कि वह आधुनिक काल के विज्ञानों को समझने के लिए भी उपयोगी हो सके और कम से कम भारत में आधुनिक विज्ञान की शाखाओं का अध्ययन पुराणों और वेदों को आधार बनाकर किया जा सके।

आचार्य श्री रङ्गनाथ जी सेलूकर, गङ्गाखेड, महाराष्ट्र द्वारा भारत के विभिन्न नगरों में आयोजित वैदिक परम्परा के यज्ञों के माध्यम से लेखकों को वैदिक तत्त्वों के रहस्य समझने में विशेष सहायता मिली है और इसके लिए लेखक उनके आभारी हैं।


- लेखक - त्रय



प्राक्कथन

श्रीमती राधा गुप्ता तथा श्री विपिन कुमार के माध्यम से पुराण विषय अनुक्रमणिका के सृजन का जो कार्य चल रहा है , उसे देखकर मुझे अत्यन्त आत्मिक सन्तोष का अनुभव होता है। विगत वर्षों में हमारे देश में वेदों के पुनरुद्धार का प्रयत्न तो बहुत किया गया है , लेकिन उसमें सफलता अधिक नहीं मिल सकी है। दूसरी ओर , पुराण धार्मिक ग्रन्थों की कोटि में होने पर भी उनको ऐतिहासिक राजाओं आदि का वर्णन समझकर उनकी उपेक्षा सी कर दी गई है। यह हर्ष का विषय है कि श्रीमती राधा गुप्ता तथा उनके सहयोगी लेखकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पुराण और वेद अन्योन्याश्रित हैं और पुराण कोई ऐतिहासिक राजाओं का वर्णन होकर वेदों के छिपे रहस्यों को प्रकट करने का एक माध्यम हैं जिनको समझने के लिए तर्क और श्रद्धा दोनों की आवश्यकता पडती है। पुराणों का महत्त्व इसलिए और अधिक हो जाता है क्योंकि हमारे सारे समाज का आधार पुराणगत वर्णन हैं। पुराणों में किसी तथ्य का वर्णन जिस रूप में भी उपलब्ध है , चाहे वह वर्तमान दृष्टि से उचित है या अनुचित , हमारे कट्टरपन्थी समाज में उसका अक्षरशः पालन हो रहा है। लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि पुराणों की भाषा को अक्षरशः उसी रूप में मानना जिसमें वह कही गई है , मूढता होगा। पुराणों में सूक्ष्म और कारण शरीर की घटनाओं को स्थo शरीर के स्तर पर समझने योग्य बनाया गया है। यदि पुराणों में शूद्र की छाया पडने का निषेध है तो इस कथन को आंख - कान बंद करके मानना तो मूर्खों का काम होगा। महाभारत आदि ग्रन्थों में यह स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि ब्राह्मण कौन है , कौन क्षत्रिय है , कौन वैश्य है और कौन शूद्र। जिसने अपने काम , क्रोध आदि पर विजय पा ली हो वह ब्राह्मण हो सकता है , इस प्रकार पुराणों की दृष्टि से सोचा जाए तो हम सभी शूद्र अथवा शूद्रेतर ही हैं , ब्राह्मणत्व का तो कहीं नाम ही नहीं है।

प्रायः कहा जाता है कि वेद पढने का अधिकार केवल ब्राह्मण को है और शूद्र तो केवल पुराण ही सुन सकता है। इस कथन में तनिक भी संदेह का स्थान नहीं है। जब तक व्यक्ति बिल्कुल सात्विक हो जाए , मोक्ष की अवस्था के एकदम निकट पहुंच जाए, तब तक वेदों को समझना बहुत कठिन कार्य है। दूसरी ओर , पुराणकारों ने राजाओं की कथाओं के माध्यम से वेद के जिन रहस्यों के उद्घाटन का प्रयास किया है , उन रहस्यों को क्षुद्र बुद्धि का व्यक्ति , जिसे शूद्र कहा जाता है , श्रद्धापूर्वक सुनकर रहस्यों को समझ सकता है।

यह तो रही पुराणों की बात। लेकिन वर्तमान में प्रस्तुत पुराण विषय अनुक्रमणिका पढने का अधिकार किसको है ? मेरा विचार है कि वैसे तो पुराणों में रुचि रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति इसे पढकर पूरे वैदिक समुद्र में स्नान का आनन्द ले सकता है , लेकिन जो व्यक्ति ध्यान साधना की प्रक्रिया से गुजर चुका है , वह पुराण विषय अनुक्रमणिका के माध्यम से वैदिक समुद्र में गोते लगाकर अपनी साधना को वेदोन्मुखी, पुराणोन्मुखी बना सकता है जिसकी विगत हजारों वर्षों से आवश्यकता रही है।


डाँ. हरिहर त्रिवेदी

साहित्य वाचस्पति , काव्यतीर्थ ,एफ.आर..एस. ( लन्दन ),

निदेशक ( सेवा निवृत्त ) पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग ,

.प्र.शासन।


प्रस्तावना

पुराण विषय अनुक्रमणिका नामक ग्रन्थ शृंखला की यह द्वितीय कडी है। श्री विपिन कुमार और उनकी सुयोग्य अनुजा श्रीमती राधा गुप्ता एम..,पीएच.डी., डी.लिट्. का यह अत्यन्त सराहनीय सम्मिलित प्रयास है। पुराणों में प्रयुक्त वैदिक पारिभाषिक शब्दों के सन्दर्भ प्रस्तुत करते हुए लेखक द्वय ने अपने व्यापक अध्ययन के आधार पर इसमें पुराणगत वैदिक सन्दर्भ खोजने एवं स्थान स्थान पर उनकी व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयास भी किया है।। इससे केवल इसको एक सन्दर्भ ग्रन्थ कहा जा सकता है , अपितु इसमें संदर्भ संग्रह के साथ साथ जो यत्र तत्र व्याख्या मिलती है उसके आधार पर इसे वेद एवं पुराण का तुलनात्मक अध्ययन भी कह सकते हैं। इस दृष्टि से , इस ग्रन्थ शृंखला को पुराण एवं वेद का आधारभूत सम्बन्ध बतलाने वाला भी कह सकते हैं। सामान्यतः विद्वान् पुराण परम्परा को ऐतिहासिक दृष्टि से परवर्ती काल का मानते हैं , परन्तु वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में पुराण , पुराणविद् और पुराणवेद जैसे शब्द इस मान्यता पर पुनर्विचार करने को बाध्य करते हैं।

अतः पुराणों में प्रयुक्त वैदिक सन्दर्भों का यह संग्रह ग्रन्थ वेद और पुराण के शोधकर्ताओं के लिए अतिशय उपादेय हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वेद और पुराण एक ही वेद विज्ञान को दो भिन्न प्रकार से प्रस्तुत करते हैं। इस ग्रन्थमाला में वेद और पुराण की तुलनात्मक दृष्टि को अपनाकर हमारी सनातन भारतीय संस्कृति के उन रहस्यों के उद्घाटन का प्रयास किया गया है जो परम्पराजनित अनेक पूर्वाग्रहों के कारण अभी तक दुर्बोध बने हुए हैं। आशा है कि श्री विपिन कुमार की वैज्ञानिक दृष्टि और श्रीमती राधा गुप्ता का सांस्कृतिक वैदुष्य इस दिशा में उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ शोधार्थियों और सुविज्ञ प्राध्यापकों के लिए एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करेगा। इस स्तुत्य कार्य के लिए दोनों ही साधुवाद के पात्र हैं। -फतहसिंह




प्राक्कथन

यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधाविनं कुरु।।

परमात्मा से मेधा बुद्धि की प्रार्थना की गई। मत्वा कर्माणि सीव्यति , जो मनुष्य मनन करके कार्यों को करने में तत्पर होता है , वही मानव है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही साथ परमात्मा ने जीवमात्र के हित के लिए अपना ज्ञान दिया। इस ज्ञान के द्वारा मानव ने अपने को सुखी बनाने के साधनों का निर्माण किया। अतः जहाँ पशु योनि केवल भोग भोगने में ही तत्पर है , वहाँ मनुष्य भोग और कर्म प्रधान है। वेदों से आचार - विचार , ज्ञान - विज्ञान , विश्वबन्धुत्व तथा प्राणिमात्र आदि के कल्याणकारक सिद्धान्तों का आविष्कार हुआ है। इन आदर्शों की छाप किसी समय सारे विश्व में थी और भारत जगद्गुरु बन गया था। भारतवर्ष को पहचानना है तो संस्कृत साहित्य को अपनाना आवश्यक है।

कतिपय विशेष विभूतियां सामने आती हैं और इस भौतिकवाद की चकाचौन्ध से प्रभावित होकर मानव संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करने में तत्पर रहती हैं। आज मेरे सम्मुख लेखकद्वय का प्रयास वर्तमान पुस्तक के रूप में है। लेखकों की जिज्ञासा को समझा कि उनका प्रयास है कि वैदिक शब्दों की व्याख्या के लिए पहले पुराणों में बिखरे हुए वैदिक शब्दों को , जो कथा रूप में प्रकट किए गए हैं , उनको समझना ठीक है। देखा जाए तो वेदों में कोई लौकिक कथा और इतिहास नहीं है , उनमें सार्वभौमिक सिद्धान्त हैं। लेखकद्वय ने बृहत् कार्यभार ग्रहण किया। विचित्र बात यह है कि एक ही माता - पिता के इन दोनों भाई - बहिनों पर आस्तिक और संस्कारित परिवार का प्रभाव पडा। यह प्रभाव इतना पडा कि पुत्री को संस्कृत की विदुषी बनते देख इनके पिता श्री बलवीर सिंह जी कुशल व्यापारी होते हुए भी आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो गए , पुत्र भी वैराग्य की ओर अग्रसर हो बिना संस्कृत पढे ही स्वाध्यायरत हो वेदों की ओर प्रवृत्त हो गया। देवबन्द का सौभाग्य है - जिस भूमि में इन दोनों ने जन्म लिया। सौ.राधा गुप्ता प्रारम्भ से ही मेधावी छात्र रही। एम.. संस्कृत पढते समय ही वेद, निरुक्त , दर्शन आदि को जैसे ही पढा , दूसरे दिन बडी सरलता के साथ सुना कर ही अगला पाठ पढना नित्य नियम था। यह प्रखर बुद्धि निन्तर वृद्धि करती करती कठिन गृहस्थ भार को सुगृहिणी बन कर अपने परिवार को भी योग्य बना संस्कृत का स्वाध्याय कर पीएच.डी. और डी.लिट्. की उपाधियों से अलंकृत हुई। एक आदर्श विदुषी का अनुकरणीय साहस तप से कम नहीं है। चि.विपिन का स्वभाव भी छात्र अवस्था से तार्किक था। अपनी अवस्था के अनुसार प्रश्नों को पूछना - जब तक सन्तुष्ट हो जाता था , तब तक चैन नहीं मिलता था। एक सम्पन्न घराने का एम.एस.सी. युवक अन्य युवकों की भांति भौतिकवादी बन सकता था , परन्तु आध्यात्मिक प्रभाव ऐसा पडा कि वैदिक ज्ञान की ओर प्रवृत्ति हो गई। साथ ही दिल्ली में डा. फतहसिंह जी के सान्निध्य से वैदिक छात्र ही बन गया और वैदिक तत्व मंजूषा ( पुराणों में वैदिक संदर्भ ) प्रस्तुत कर दी। गुरु भाव रूप में दोनों ने अपनी कृतियां मुझे भेंट की।

लेखकद्वय ने यह पुराण विषय अनुक्रमणिका लिखने में अथक प्रयास किया। प्रायः २२ पुराणों , संहिता , श्रौत और गृह्य सूत्रों , ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषदों, ऋग्वेद, अथर्ववेद, निरुक्त आदि का स्वाध्याय कर विशेष टिप्पणियों द्वारा शब्दों को सरलता से समझाने का प्रयास सराहनीय है जो अनुसंधान करने वालों के लिए पथप्रदर्शक बनेगा। मैं अपने इन लेखकद्वय के भविष्य की उज्ज्वल कामना करता हुआ इनके दीर्घजीवन और यशस्वी बनने की प्रार्थना करता हूं।

शमिति।

ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी , वि. सम्वत्~ २०५५

विश्वम्भरदेव शास्त्री

सेवामुक्त प्रवक्ता

स्वतन्त्रता सेनानी

शिक्षक नगर

देववृन्द



पुराण विषय अनुक्रमणिका के द्वितीय भाग की भूमिका

पुराण विषय अनुक्रमणिका के वर्तमान खण्ड में वर्णमाला के तथा से आरम्भ होने वाले शब्दों का संकलन किया गया है। इस खण्ड में शब्दों पर वैदिक टिप्पणियों के अतिरिक्त , परिशिष्ट के रूप में वैदिक साहित्य के उन वाक्यांशों को दिया गया है जिनके आधार पर प्रस्तुत अनुक्रमणिका में शब्दों पर टिप्पणियां की गई हैं। परिशिष्ट के आरम्भ में कुछ शीर्षक हैं जिनमें केवल उन्हीं वाक्यांशों को स्थान दिया गया है जिनका उपयोग टिप्पणी लेखन में नहीं हो सका। परवर्ती शीर्षकों में सभी वाक्यांशों का समावेश है , चाहे उनका उपयोग टिप्पणी लेखन में हुआ हो या हुआ हो। परिशिष्ट के कुछ अंश ऐसे भी हैं जो कम्प्यूटर टंकण के समय नष्ट हो गए हैं और इस कारण से वह परिशिष्ट में स्थान नहीं पा सके। परिशिष्ट टिप्पणी के अध्ययन से हमें एक विषय की विस्तृत जानकारी एक साथ मिल सकती है। हो सकता है कि वैदिक संहिताओं , ब्राह्मणों , उपनिषदों और श्रौत ग्रन्थों के कम्प्यूटर में लिपिबद्ध होने के पश्चात् वैदिक वाक्यांशों के लेखन की आवश्यकता पडे , किन्तु अभी तो यह परिशिष्ट अपरिहार्य है। स्वयं लेखक - द्वय भी इसका उपयोग करते रहते हैं।

लेखक - द्वय डाँ. सीताराम गुप्ता के आभारी हैं जिनके कारण इस ग्रन्थ के परिशिष्ट का टंकण लेखन के तुरन्त पश्चात् सम्भव हो पाया। इसके अतिरिक्त प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जिन सज्जनों का सहयोग लेखकों को प्राप्त होता रहा है , लेखक - द्वय उनके आभारी हैं।

विपिन कुमार

राधा गुप्ता


पुराण विषय अनुक्रमणिका के पिछले भाग की समालोचनाएं :

फाल्गुन पूर्णिमा , २०५२

..९६

विश्वम्भरदेव शास्त्री

सेवा मुक्त प्रवक्ता ,

हरपतराय . मा. विद्यालय, देवबन्द।

लेखक - द्वय द्वारा संकलित पुराण विषय अनुक्रमणिका का यह प्रथम भाग प्राप्तकर अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। इस भौतिक काल के कलरव में रहते हुए भी तन्तुं तन्वन् रजसो भानुमन्विहि ( ऋग्वेद )के अनुसार पूर्व पुण्यों के उदय तथा पैत्रिक संस्कारों के प्रभाव से आध्यात्मिक देवधारा में अवगाहन का फल किसी भाग्यशाली को प्राप्त होता है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण है - स्वाध्यायशील श्री बलवीरसिंह जी की संस्कृत के प्रति अगाध श्रद्धा रही - अपने सतत् परिश्रम से योगवासिष्ठ जैसे गहन ग्रन्थ को हृदयपटल पर अंकित करना साधारण बुद्धि का काम नहीं। प्रातः भ्रमण काल में अपने अनुभव प्रकट करते और कहते रहते - शास्त्री जी , मैं संस्कृत तो पढा ही नहीं। आज अपने ज्ञान को अपनी सन्तानों द्वारा विकसित देख इनको कितनी आनन्दानुभूति हो रही है , यह अवर्णनीय है।

पिता की आध्यात्मिक प्रकृति का उत्तराधिकार पुत्री सौ. राधा और विपिन को प्राप्त हुआ। ऐश्वर्य कांक्षिणी राधा गृहस्थ का भार सम्भालते हुए भी ऋषियों की थाति संस्कृत के प्रति कितनी निष्ठा रखती है , यह तो एम. . परीक्षा के समय उसकी प्रखर बुद्धि का आभास हो गया था। जो एक बार पढ लिया , उसकी पुनरावृत्ति कभी नहीं की। पुनः पी. एच. डी. और डी. लिट् की उच्चतम उपाधि से अलंकृत हुई - अब अपने अर्जित कोष को वितरण करने में तत्पर है।

चि. विपिन का प्रारम्भिक जीवन जिज्ञासु प्रकृति का रहा। तर्क - वितर्क करके किसी बात का निर्णय करना एक स्वभाव था। वह उत्कण्ठा इतनी जागृत हुई कि बिना संस्कृत विषय पढे ही - वेदार्थ जानने की लालसा बढी और अपना जीवन ही मुनिवत् वैदिक साहित्य की ओर अर्पित कर दिया। मैं दोनों की पूर्ण सफलता की कामना करता हूं - इनका यह सात्विक प्रयास निरन्तर उन्नत होता रहे। परम पिता परमात्मा इनके उज्ज्वल भविष्य में सहायक बनें। वेद मन्त्र द्वारा मैं भी अपनी सद्भावना प्रस्तुत करता हूं।

हिरण्यमयेन पात्रेण , सत्यख्यापिहितं मुखम~ तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।

शमिति

-विश्वम्भरदेव शास्त्री

देवबन्द


आपकी यह साहित्य सेवा अत्यन्त श्लाघनीय एवं महत्त्वपूर्ण है। ऐसे दीर्घकालसाध्य एवं बहु - आयामी कार्य प्रायः संस्थाविशेष के माध्यम से ही होते रहे हैं। इस प्रथम भाग के पर्यालोचन से ज्ञात होता है कि आपने पुराणों के साथ ही वैदिक वाङ्मय के आलोडन में भी पर्याप्त प्रयास किया है।

इस ग्रन्थ के अध्येता को मूल स्थान और उसके विकास - विस्तार का ज्ञान भी सहज प्राप्त हो जाता है। संस्कृत साहित्य की विशाल परिधि में व्याप्त तथ्यों का एकत्र प्रस्तुतीकरण परमोपयोगी बना है। हां, एक बात यह भी स्मरणीय है कि हमारे यहां वेंकटेश्वर प्रेस , मुम्बई से प्रकाशित पुराण जब प्रकाशित हुए थे , तब उनके प्रकाशन के समय शोधदृष्टि को महत्त्व नहीं दिया गया था। किन्तु उस समय के पश्चात् अनेक अनुसन्धान कर्ताओं ने कतिपय पाठ और मिलने के सङ्केत दिये हैं ( जैसे स्कन्द पुराण का एक उमाखण्ड नेपाल के संस्कृत विश्वविद्यालय से कुछ वर्ष पूर्व सम्पादित होकर छपा है उसकी भूमिका में सम्पादक ने बंगाल और अन्य प्रदेशों की पाण्डुलिपियों से उसे प्राप्त कर छपवाया है ) इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्त्त और ब्रह्माण्डपुराण के भी कुछ भाग तञ्जौर और अन्यत्र अन्य दक्षिण के पुस्तकालयों में मिलते हैं। मराठी के एक प्राचीन मासिक अंकुश ( पूना से प्रकाशित ) में ब्रह्माण्डपुराण के गणेश खण्ड का सूचन है जिसमें बहुत सा विषय इधर के ब्रह्माण्डपुराणों में अनुपलब्ध है।

- रुद्र देव त्रिपाठी

- १५ , मणिद्वीप ,

रामटेकरी , मन्दसौर ( .प्र. )

४५८००९

वेद से जोडने वाला पुराण - संदर्भ - कोष

पुराण महोदधि के रत्नों की खोज के क्रम में विश्वकोषीय प्रयास का एक नमूना हाल ही में सामने आया है , जिसमें अकारादि क्रम से पुराणों के वर्ण्य विषयों ,संज्ञाओं तथा अभिधानों के अर्थों, सन्दर्भों आदि का विवरण , साथ ही उनके वैदिक उत्सों का विवरण ही नहीं , उनके निर्वचन और व्याख्या की दिशा देने वाले मंतव्यों का भी समावेश है। लगता है कि यदि पूरा विश्वकोष बनाने का प्रयास किया जाए , तो यह दशाब्दियों में जाकर पूरा होने वाला विराट् उपक्रम होगा क्योंकि हमारे सामने आया यह संदर्भ कोष तो केवल से तक के शब्दों का ही वर्णक्रम कोष है। यदि क्रम चलता रहे तो तक पूरा होने में जाने कितने खण्ड आवश्यक होंगे। इस नमूने से भी इस कार्य की विशालता का आभास हो जाता है। यद्यपि कुछ पुराण कोश हिन्दी में प्रकाशित हुए हैं , श्री सिद्धेश्वर शास्त्री चित्राव जैसे विद्वानों ने मराठी आदि भाषाओं में चरित्र कोष ( संज्ञाओं और नामों के कोष ) भी प्रकाशित किए थे , जिनके हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुए , तथापि शोधात्मक दृष्टि से किस संज्ञा की किस प्रकार कथाएं पुराणों में आती हैं , यह संदर्भ देने के साथ उनका रूप वेदों , ब्राह्मणों , उपनिषदों आदि में कैसा था , उसका प्रतीक लेकर पुराणों में जो कथाएं आई , उनकी वैदिक परंपरा के साथ संगति किस प्रकार बिठाई जा सकती है , इसका सर्वांगीण विवेचन करने वाला संपूर्ण वर्णक्रम कोश अब तक देखने में नहीं आया था। इस प्रयास के पूर्ण होने से यह अपेक्षा पूरी हो सकती है , ऐसी आशा बंधी है।

डां. फतहसिंह जैसे वेद विद्वान् के मार्गदर्शन में शोध करने वाले दो अनुसंधित्सुओं के परिश्रम से प्रसूत यह अनुक्रमणिका अत्रि , इन्द्र , अंगिरा आदि चरित्रों की ,अवतार, अग्निष्टोम आदि अवधारणाओं की तथा अंक, इन्द्रिय आदि संज्ञाओं की प्रविष्टि देकर उनका संदर्भ किस पुराण में कहां आया है , इसका निर्देश करती है। उसके बाद महत्वपूर्ण प्रविष्टियों में विस्तृत टिप्पणी देकर यह स्पष्ट करती है कि वेद वाङ्मय में इस का मूल क्या था तथा पुराणों में जो कथाएं बनीं , उन्हें वैदिक अवधारणा के प्रतीक के रूप में कैसे समझा जाए। उदाहरणार्थ अश्व शब्द की प्रविष्टि पहले तो पुराणों में वर्णित अश्वों के प्रकार , उनकी चिकित्सा आदि का , अश्वों के उपाख्यानों का , पुराणों में आए अश्व , अश्वमेध , अश्वरथ, अश्वदान आदि का ससंदर्भ ( खण्डों और अध्यायों के संदर्भों सहित ) विवरण है , फिर टिप्पणी के रूप में वैदिक अवधारणाओं का विमर्श है कि किस प्रकार ज्ञान , क्रिया , भावना के त्रिक में भावना अश्व है , उसे मेध्य (पावन ) बनाना अश्वमेध है। इसके साथ ऋग्वेद में आए अश्वसूक्तों , ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का अश्व बनकर उक्थों से असुरों को निकाल फेंकने के उल्लेखों के साथ भविष्य पुराण की हयविजय कथा की संगति , सूर्य के रथ के सात अश्वों की , आश्वमेधिक अश्व की बंधन रज्जु के १३ अरत्नि लंबे होने को १३ मासों का प्रतीक समझने की , अश्वशीर्ष दधीचि द्वारा मधुविद्या के उपदेश की ( दधि, मधु , घृत , परमान्नों की साधना ) , कद्रू - विनता को द्यावापृथिवी का रूप मानने की , पुराणों की सत्यवान् - सावित्री कथा को सावित्रेष्टि का प्रतीक मानने पर विचार करने की , प्राण - अपान को मन की पराक् और अर्वाक् गति को पुराण में वर्णित अश्व युगलों के प्रतीक से समझने की , वैदिक श्यावाश्व और पौराणिक श्यामकर्ण अश्व में क्या कोई समानता देखी जा सकती है - ऐसे संकेत देने की डां. फतहसिंह की जो टिप्पणी है , वह वैदिक विज्ञान के साथ पौराणिक अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने की दृष्टि से मूल्यवान् मार्गदर्शन देती है। - - - - - -इस अनुक्रमणिका में समस्त महत्वपूर्ण पुराणों के साथ - साथ रामायण , महाभारत , लक्ष्मीनारायण संहिता और कथासरित्सागर के भी सन्दर्भ - निर्देश हैं। स्पष्ट है कि यह कार्य इतने विपुल श्रम और समय की अपेक्षा करता है कि सदियों तक ऐसा संकलन होते रहने पर भी इसका ओर - छोर मिले क्योंकि हमारा वैदिक वाङ्मय इतना विशाल है कि हजारों वर्षों के कालखण्ड में व्याप्त होने के कारण बहुत सा अब तक अनुपलब्ध है। पुराण साहित्य भी उतना ही ( उससे भी अधिक ) विराट् है। इसके साथ तंत्र वाङ्मय ( आगम ) और अन्य लौकिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन भी करना हो , तो यह कार्य मानव साध्य ही नहीं रहता। अतः ऐसा प्रत्येक उपक्रम पूर्णता का दावा तो नहीं कर सकता किन्तु महत्वपूर्ण पहल करके इतिहास की सिकता पर अपने पदांक अवश्य छोड सकता है। इस दृष्टि से ऐसे सराहनीय प्रयासों का भरपूर स्वागत किया जाना चाहिए।

ऐसे मार्गदर्शक कोषों से वैदिक वाङ्मय के मूल उत्सों का पुराणों और लौकिक साहित्य की धाराओं में आकर बढने - घटने, बदलने आदि का तुलनात्मक अध्ययन करने की दिशा में जो प्रेरणा मिलेगी , उससे आगे कुछ अन्य विद्वान् भी ऐसे कार्यों में प्रवृत्त होंगे, ऐसी आशा की जानी चाहिए। कुछ वैदिक संज्ञाएं किस प्रकार बदल गई , इसके उदाहरणस्वरूप अहिर्बुध्न्य शब्द लिया जा सकता है , जो एक देव - संज्ञा बन गई है। इस कोष में भी वैसी ही प्रविष्टि है और संदर्भ - संकेत दिए गए हैं। और तो और , एक अहिर्बुध्न्य संहिता भी उपलब्ध है। लगता है मूलतः ये दो शब्द थे अहि: बुध्निय - तलहटी में रहने वाला अहि। वेदों में स्पष्ट उल्लेख है - अहे बुध्न्य मंत्रं मे गोपाय। आश्चर्य की बात यह है कि यह बुध्निय अहि अहिर्बुध्न्यः बनकर एक नाम बन गया। पुरानी पहचान मिट गई। इस कोष में इसका निर्वचन किसी ज्योvतिष ग्रन्थ के संदर्भ में बुध रूपी बोध प्राप्ति के मार्ग में स्थापित किया जा सकने वाला अहि कहकर तो दे दिया गया है। Fछा होता बुध्न्य अहि निर्वचन स्पष्ट ही दे दिया जाता। जैसा ऊपर उल्लेख है , इस प्रकार के अध्ययनों का कोई ओर - छोर नहीं है , अतः पूर्णता तो ऐसे प्रयत्नों को प्राvत्साहित, समर्थित और पूरक अध्ययनों से उपबृंहित करने से ही आएगी।

वैदिक अवधारणाओं का पुराण , दर्शन तथा अन्य शास्त्रीय परम्पराओं की समन्वित सनातनता में अध्ययन करने का जो क्रम मधुसूदन ओझा, गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी आदि ने चलाया था , उसे ऐसे प्रयत्न बखूबी आगे बढाते हैं। इस ग्रन्थ की वैदिक टिप्पणियों में डां. फतहसिंह का अभिगम पूर्णतः शोधात्मक, तथ्यपरक एवं वस्तुनिष्ठ है। प्रमाण और सन्दर्भ देकर वे अपनी बात कहते हैं और जहां विशेष अध्ययन अपेक्षित है , वहां अपना तर्कशुद्ध अनुमान यह कहकर उल्लिखित कर देते हैं कि इस दिशा में आगे अनुसंधान किया जा सकता है।

कलानाथ शास्त्री

राजस्थान पत्रिका

१६ - - १९९६


पुराण : वेदालोक में

वैदिक वाङ्मय के प्रख्यात विवेचक डाँ फतहसिंह के सुयोग्य शिष्य श्री विपिन कुमार ने अपनी अनुजा डाँ राधा गुप्ता के सहकार से वैदिक टिप्पणियों सहित पुराणों के विषयों की अनुक्रमणिका की संरचना करने का उपक्रम किया है। इसके प्रथम खण्ड से इसकी उपादेयता और महनीयता स्पष्ट है। इस खण्ड में , और से आरम्भ होने वाले ४०७ शब्दों को लिया गया है। इनमें से अधिकांश शब्दों पर वैदिक सन्दर्भों की विवेचना के साथ विशद टिप्पणियाँ प्रस्तुत की गई हैं। इससे वैदिक और पौराणिक वाङ्मय के अन्त: - सम्बन्ध का प्रकाशन सम्भव हो सका है।

समस्त विश्व के चिन्तकों पर और विशेष रूप से भारतीय चिन्तन - परम्परा पर वैदिक विचारों का अप्रतिम प्रभाव है। वैदिक वाङ्मय में निहित गूढ तत्त्वों के विश्लेषण के प्रयास विद्वान् करते रहे हैं। महाभारत के आरम्भ ( ..२७ ) में कहा गया है कि इतिहास और पुराण वैदिक चिन्तन के सम्यक् उपबृंहण ( अर्थात् , विवेचन ) के लिए हैं अन्यथा वेद मन्त्रों के

अध्ययन - मात्र से वेदों की रक्षा सम्भव नहीं है। वहीं (..८६ ) में कहा गया है - पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योvत्स्ना प्रकाशिता। पुराण विविध आख्यानों और उपाख्यानों द्वारा , लोकशिक्षण के साथ साथ, वेदों के महनीय चिन्तन का विवेचन प्रस्तुत करते हैं। किन्हीं विद्वानों के विचारानुसार वेदार्थ के उपबृंहण करने वाले विविध प्रयासों में पुराणों की प्रमुखता है।

उपबृंहण शब्द का अर्थ है किसी तथ्य की पुष्टि अथवा विवेचन। वेदार्थ के उपबृंहण के लिए पुराणों ने अनेक विधाएं अपनाई हैं। जैसे , कहीं वैदिक मन्त्रों की पदावली पौराणिक स्तुतियों में स्पष्टतः परिलक्षित होती है। ऋग्वेद के पुरुष - सूक्त की पदावली विष्णु की पौराणिक स्तुतियों में बहुधा मिलती है। वैदिक विचारों का व्याख्यान कथानक - रूप में विविध स्थलों पर प्राप्त होता है। उदाहरण - स्वरूप , शतपथ ब्राह्मण ...१८ और तैत्तिरीय आरण्यक .१२. में अहल्यायै जार जैसे वाक्य से रात्रि के अंधकार के निवारक सूर्य के उदय का वर्णन प्रस्तुत हुआ है। वैदिक साहित्य में अहल्या शब्द रात्रि का वाचक है। अह: ( दिन ) का जिसमें लय होता है वह अहल्या ( रात्रि ) है। रात्रि का जरण ( विच्छेद ) करने वाला सूर्य है। पुराणों में गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ इन्द्र नामक देव का उपपति रूप में समागम वर्णित है। यहाँ , वैदिक और पौराणिक वर्णनों में , अन्तर शब्दप्रयोग - गत भी है। वेद में अहल्या और पुराण में अहिल्या , दो भिन्न - भिन्न वर्तनियां हैं। किन्तु इस स्वल्प भेद को छोड दें तो दोनों में साम्य स्पष्ट है। सूर्य रात्रि का जरण ( जीर्णतापादन ) करता है तो इन्द्र अहिल्या का।

वैदिक और पौराणिक वाङ्मयों में वर्णित तथ्यों की समानता को बूझने की दिशा में विपिन कुमार और राधा गुप्ता ने संदर्भ कोश की रचना का जो उपक्रम किया है उससे वैदिक तथ्यों का विवेचन और उभय वाङ्मयों के अन्तः संबंधों का गहन परिचय प्राप्त हो सकेगा , यह विश्वास है।

पुराण - विषयानुक्रमणिका के इस प्रथम खण्ड में शब्दों के पौराणिक संदर्भों का उल्लेख है और उनकी विवेचना हेतु वैदिक वाङ्मय में उन - उन शब्दों के प्रयोग - स्थलों का निर्देश किया गया है। वैदिक तथ्यों की विवेचना में पौराणिक वर्णनों द्वारा मिलने वाली सहायता की ओर इंगित किया गया है। उदाहरण - स्वरूप , इषु शब्द के विभिन्न प्रयोगों की समीक्षा करते हुए इस शब्द का अभिप्रेतार्थ सीधा , सरल निर्दिष्ट किया है। अनेक टिप्पणियों द्वारा विभिन्न शब्दों के प्रयोगों के लम्बे इतिहास पर व्यापक दृष्टि से विचार करने का महनीय कार्य किया गया है। आशा है , अगि| खण्डों में वे वैदिक तथ्यों की विवेचना में और भी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करेंगे। श्री विपिन कुमार ने विज्ञान की उच्च शिक्षा प्राप्त की है। उनके वैदिक ज्ञान के साथ विज्ञान का गंभीर परिचय सोने में सुहागे के रूप में यहाँ इस ग्रन्थ में परिलक्षित होता है।

- श्री रमेशचन्द्र चतुर्वेदी

( श्री लालबहादुर शास्त्री राष्टि} संस्कृत विद्यापीठ , नई दिल्ली )

वेद सविता, सितम्बर १९९७


जो कार्य लेखक - द्वय श्री विपिन कुमार और डाँ राधा गुप्ता द्वारा अब आरम्भ किया जा रहा है, वह अबसे ५० वर्ष पूर्व समाप्त हो जाना चाहिए था। प्रस्तुत कार्य में वर्णमाला के केवल तीन अक्षरों - , की पुराण अनुक्रमणिका प्रस्तुत की गई है। इस प्रकार लगता है कि वर्णमाला के ५० अक्षरों की पूरी अनुक्रमणिका बनाने के लिए इस आकार के १५ -२० भागों की आवश्यकता पडेगी। आज के भौतिक प्रतिस्पर्धा के युग में संस्कृत का गहन अध्ययन करने का समय प्रत्येक व्यक्ति के पास नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा कम है। अतः ऐसे कार्य की बहुत आवश्यकता है जो शिक्षित वर्ग की आध्यात्मिक जिज्ञासा को पूरा कर सके। अब प्रस्तुत पुस्तक इस दिशा में एक और प्रयास है। हमारे पौराणिक साहित्य में बहुत सा ज्ञान भरा पडा है जिसे प्रकाश में लाने की आवश्यकता है। लेखकों ने अपनी विषय अनुक्रमणिका बनाते समय सर्वमान्य १८ पुराणों को तो लिया ही है , इसके अतिरिक्त हरिवंश पुराण , देवीभागवत पुराण , वाल्मीकि रामायण , कथासरित्सागर , योगवासिष्ठ , लक्ष्मीनारायण संहिता , महाभारत आदि ग्रन्थों को भी अपनी अनुक्रमणिका में सम्मिलित किया है जिससे यह अनुक्रमणिका पौराणिक ज्ञान की दृष्टि से अपनी पूर्णता को प्राप्त करती हुई प्रतीत होती है। हो सकता है कि किसी आध्यात्मिक रहस्य का उद्घाटन १८ पुराणों में हो पाया हो और वह रामायण , महाभारत आदि ग्रन्थों में हो गया हो। उदाहरण के लिए अगस्त्य ऋषि को पुराणों में समुद्र का पान करते हुए वर्णित किया गया है। लेकिन यह समुद्र कौन सा है जिसका अगस्त्य ऋषि पान करते हैं , इसका उद्घाटन केवल योगवासिष्ठ में ही किया गया है कि यह काल का समुद्र है। और जिन तथ्यों का रहस्योद्घाटन पौराणिक साहित्य में नहीं हो पाया , उनको लेखकों द्वारा वैदिक साहित्य के माध्यम से अपनी टिप्पणियों में उद्घाटित करने का प्रयास किया है। जहां लेखकों ने रहस्योद्घाटन करने में अपने का असमर्थ पाया , वहां इन्होंने उन प्रश्नों को भविष्य के लिए खुला छोड दिया है। इसके अतिरिक्त सबसे अच्छी बात यह है कि लेखकों ने किसी उद्घाटित तथ्य के लिए ऐसा नहीं लिखा है कि यही सर्वमान्य तथ्य है , ल्क उन्होंने लिखा है कि उन्हें ऐसा प्रतीत होता है , अथवा ऐसी संभावना है। Fछा होता यदि परिशिष्ट के रूप में लेखक वैदिक साहित्य के वह अंश भी दे देते जो वह समझ नहीं पाए हैं क्योंकि पाठक को यह जानने का अधिकार है कि कहीं लेखकों ने तथ्यों को अपने पक्ष में तोड - मरोड तो नहीं लिया है , अथवा केवल अपने पक्ष की बात स्वीकार करके दूसरे पक्ष की उपेक्षा तो नहीं कर दी है। आशा है आगे के भागों में लेखक इस पर विचार करेंगे।

बहुत सुन्दर प्रयास होते हुए भी यह ग्रन्थ त्रुटियों से मुक्त नहीं है। पुराणों में उपलब्ध बहुत सी सामग्री प्रस्तुत अनुक्रमणिका में स्थान नहीं पा सकी है। उदाहरण के लिए , स्कन्द पुराण के वैष्णव खण्ड के अन्तर्गत जगन्नाथ क्षेत्र माहात्म्य में अध्याय में अन्तर्वेदी का वर्णन आता है जो पौराणिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। लेकिन प्रस्तुत अनुक्रमणिका में अन्तर्वेदी शीर्षक के अन्तर्गत इसका उल्लेख ही नहीं है। ऐसा लगता है जैसे लेखकों ने पुराणों का गम्भीर अध्ययन ही किया हो। अनुक्रमणिका में कहीं तो महाभारत से सामग्री का चयन कर लिया गया है , कहीं वह छोड दिया गया है। यही हाल टिप्पणियों का है। किसी - किसी शीर्षक के लिए तो लम्बी - लम्बी टिप्पणियां लिख डाली हैं , किसी के लिए साहित्य का गहन अध्ययन किए बिना छोटी सी टिप्पणी लिख दी है और किसी शीर्षक के लिए बिल्कुल ही नहीं लिखी है। फिर , लेखकों ने जो सहायक ग्रन्थ सूची दी है , उससे लगता है कि लेखकों द्वारा सामग्री का चयन बहुत अधूरा है। तान्त्रिक साहित्य को तो लेखकों ने छुआ ही नहीं है , गृह्य सूत्र ग्रन्थों को भी नहीं छुआ है। जो कुछ श्रौत सूत्रों के ग्रन्थ लिए हैं , वह भी गिने चुने हैं। और टिप्पणियों के पठन से यह ज्ञात हो जाता है कि लेखकों ने अपने टिप्पणी लेखन में इन सबका उपयोग भी नहीं किया है। मात्र दिखावे के लिए ग्रन्थों को सूची में सम्मिलित कर लिया गया है। यह एक बडा दोष है जिसे आगे के भागों में सुधारा जाना चाहिए। एक बात और है। हमारा सारा प्राचीन ज्ञान आध्यात्मिक रहस्यों पर आधारित है। लेखकद्वय से यह आशा नहीं की जा सकती कि साधना के क्षेत्र में उनका विकास बहुत अधिक होगा। हमारे देश में ऐसे व्यक्ति विद्यमान हैं जिनकी साधना बहुत उच्च स्तर की है। यदि लेखक अपना लेखन कार्य करते समय ऐसे महापुरुषों से परामर्श कर लेते तो प्रस्तुत कार्य पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकता था।

आशा है कि यह ग्रन्थ सनातन धर्मावलम्बियों , आर्य समाजिययों और नास्तिकों , सबके लिए समान रूप से उपयोगी होगा। यही नहीं , इसमें मुस्लिम धर्मावलम्बियों के लिए भी अकबर और ईद आदि शब्दों की नई व्याख्याएं प्रस्तुत हैं। अकबर शब्द की व्याख्या करते समय यदि अकवारि शब्द को थोडा और स्पष्ट कर दिया जाता तो सभी लोगों की समझ में सकता था।

- डाँ सच्चिदानन्द शास्त्री

सार्वदेशिक साप्ताहिक ,

नई दिल्ली

११ अगस्त , १९९६


श्री विपिन कुमार तथा डाँ. राधा गुप्ता द्वारा पुराण विषय अनुक्रमणिका नाम से तैयार किया गया ग्रन्थ सर्वथा स्तुत्य है। प्रथम भाग में केवल से तक ही पहुfचा जा सका है। परन्तु १८६ पृष्ठों के इस भाग को देखकर भी यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि पूरा ग्रन्थ भारतीय परम्परा को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। यद्यपि नाम से यही प्रतीत होता है कि इसका सम्बन्ध पुराण साहित्य से होगा , परन्तु अनेक संदर्भों में तथा टिप्पणियों के लेखन में वैदिक ग्रन्थों का उल्लेख कर स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ वस्तुतः पुराणों की वेदमूलकता सिद्ध कर रहा है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि प्रायः पुराणों को गपोडों के ग्रन्थ माना जाता है , यद्यपि पुराण स्वयं इतिहास पुराणाभ्यां वेदान् समुपबृंहयेत की रट लगाते रहे हैं।

निसंदेह , इससे पुराणों एवं रामायण - महाभारत के अनेक प्रसंगों में प्रयुक्त प्रतीकवाद को समझने में बडी सहायता मिलेगी। इससे भी बडी बात यह है कि यह प्रतीकवाद वेदमूलक सिद्ध होगा। ऐसे महत्वपूर्ण और उपयोगी कार्य के लिए लेखकद्वय बधाई के पात्र हैं। आशा है यह ग्रन्थ प्रत्येक पुस्तकालय की शोभा बढाएगा और प्राचीन वाङ्मय , इतिहास और संस्कृति का प्रत्येक अध्येता इससे लाभान्वित होगा।

फतहसिंह

एम.., डी.लिट.

पूर्व निदेशक , प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान ,जोधपुर ,

और वेद संस्थान , नई दिल्ली

वर्तमान निदेशक, वैदिक अनुसन्धान केन्द्र , जोधपुर



मुख्य ग्रन्थ सूची

अग्नि पुराण ( नाग प्रकाशक , दिल्ली ; हिन्दी अनुवाद : कल्याण विशेषांक वर्ष ४४ ४५ , गीताप्रेस , गोरखपुर )

कथासरित्सागर ( बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् , पटना( हिन्दी अनुवाद सहित ) ; मोतीलाल बनारसी दास , दिल्ली ( केवल मूल संस्कृत )

कूर्म पुराण ( नाग प्रकाशक , दिल्ली ; कल्याण विशेषांक वर्ष? गीताप्रेस गोरखपुर )

गणेश पुराण ( नाग प्रकाशक, दिल्ली )

गरुड पुराण ( चौखम्बा विद्याभवन , वाराणसी तथा नाग प्रकाशक , दिल्ली )

गर्ग संहिता ( खेमराज श्रीकृष्ण दास , बम्बई ; हिन्दी अनुवाद : कल्याण विशेषांक वर्ष ४४ ४५ , गीताप्रेस , गोरखपुर )

देवीभागवत पुराण ( नाग प्रकाशक , दिल्ली )

नारदीय पुराण ( नाग प्रकाशक , दिल्ली )

पद्म पुराण ( नाग प्रकाशक , दिल्ली )

ब्रह्म पुराण ( नाग प्रकाशक , दिल्ली ; हिन्दी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग ( हिन्दी अनुवाद सहित ) )

ब्रह्मवैवर्त्त पुराण ( राधाकृष्ण मोर, कलकत्ता ; मोतीलाल बनारसी दास , दिल्ली )

ब्रह्माण्ड पुराण ( कृष्ण दास अकादमी , वाराणसी )

भविष्य पुराण ( नाग प्रकाशक , दिल्ली ; हिन्दी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग ( हिन्दी अनुवाद सहित ) )

भागवत पुराण ( गीताप्रेस , गोरखपुर ( हिन्दी अनुवाद सहित ) )

मत्स्य पुराण ( कल्याण विशेषांक वर्ष ५८ ५९ , गीताप्रेस , गोरखपुर ( हिन्दी अनुवाद सहित ) ; नाग प्रकाशक , दिल्ली )

महाभारत ( गीताप्रेस , गोरखपुर ( हिन्दी अनुवाद सहित ) ) ,

मार्कण्डेय पुराण ( मनसुसराय मोर , कलकत्ता ; नाग प्रकाशक ,दिल्ली )

योगवासिष्ठ ( मोतीलाल बनारसी दास , दिल्ली )

लक्ष्मीनारायण संहिता ( चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस , वाराणसी )

लिङ्ग पुराण ( मोतीलाल बनारसीदास , दिल्ली )

वराह पुराण ( मेहरचन्द लछमनदास , दिल्ली )

वामन पुराण ( कल्याण वर्ष ५६ विशेषांक , गीताप्रेस , गोरखपुर ( हिन्दी अनुवाद सहित ) ; नाग प्रकाशक , दिल्ली )

वायु पुराण ( आनन्दाश्रम , पूना ) ; नाग प्रकाशक ,दिल्ली )

वाल्मीकि रामायण ( गीताप्रेस , गोरखपुर ( हिन्दी अनुवाद सहित ) )

विष्णु पुराण ( गीताप्रेस , गोरखपुर ( हिन्दी अनुवाद सहित ) ; नाग प्रकाशक, दिल्ली )

विष्णु धर्मोत्तर पुराण ( नाग प्रकाशक , दिल्ली )

शिव पुराण ( नाग प्रकाशक, दिल्ली )

स्कन्द पुराण ( नाग प्रकाशक , दिल्ली )

हरिवंश पुराण ( गीताप्रेस , गोरखपुर ( हिन्दी अनुवाद सहित ) )