अक्षत
टिप्पणी : अथर्ववेद की पैप्पलाद संहिता १९.४०.१५ में कहा गया है कि जो ओदन पुत्रकामा अदिति पकाती है, तथा जो ओदन वैश्वदेव उद्देश्य के लिए पकाया जाता है, वह हमारे लिए अक्षत भाग है। पैप्पलाद संहिता १०.९.३ में कहा गया है कि हमारे प्राण और अपना अक्षत रहें। पैप्पलाद संहिता ५.३०.४ में प्रार्थना की गई है कि हमारा धान्य सहस्रधार हो व अक्षत रहे।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अक्षर
टिप्पणी : ताण्ड्य ब्राह्मण ८.६.१३ के अनुसार जीवन रूपी यज्ञ में जो कुछ अनृत बोला जाता है, वह यज्ञ में छिद्र रूप है जिसका पूरण अक्षर द्वारा करते हैं। ऋग्वेद १.१६४.३९ व १.१६४.४२ में गौ से क्षरने वाले अक्षर के लक्षण कहे गए हैं – वह विश्वेदेवों को जीवित रखता है। ऋग्वेद १.१६४.२४ के अनुसार अक्षर से सात वाणियां निकलती हैं। ऐतरेय आरण्यक ३.२.१ में उष्माण, स्पर्श, स्वर व अन्तस्थ अक्षरों का शरीर के अस्थि, मज्जा आदि में उद्भव कहा गया है। उपनिषदों में क्षर-अक्षर का पर्याप्त विवेचन किया गया है। योगशिखोपनिषद ३.२ में अक्षर को परम नाद, शब्दब्रह्म कहा गया है। सुबालोपनिषद २ व १५ के अनुसार अक्षर को तमस या मृत्यु में लीन करना होता है जिससे परम पद की प्राप्ति होती है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अगस्त्य
टिप्पणी : उपरोक्त कथाओं में विन्ध्याचल पर्वत को अहंकार का प्रतीक माना जा सकता है। काल समुद्र पान के लिए अपेक्षित साधना के लिए ऋग्वेद प्रथम मण्डल के अन्त में अगस्त्य ऋषि के सूक्त द्रष्टव्य हैं। अगस्त्य और इनके शिष्य तोलकप्पियार(तमिल भाषा के प्रथम व्याकरणकार) के सम्बन्ध में कथा और उसके निहितार्थ के लिए केन्द्र भारती पत्रिका के अक्तूबर १९८० के अंक में डा. फतहसिंह का लेख द्रष्टव्य है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.