अङ्गुष्ठ

      टिप्पणी : पद्म पुराण आदि में वर्णित बलि व वामन की कथा में पादाङ्गुष्ठ से ब्रह्मरन्ध्र के भेदन की यौगिक व्याख्या के संदर्भ में, जैसे-जैसे प्राण या श्वास पादाङ्गुष्ठ में पहुंचता है, शरीर की शक्ति ब्रह्मरन्ध्र की ओर गति करती है। ऐसा संभव है कि इस स्थिति के पूर्ण रूप में विकसित होनेपर ब्रह्मरन्ध्र का भेदन हो जाता हो और सारे बाहरी ब्रह्माण्ड में स्थित शक्ति व्यक्ति के अन्दर गङ्गा के रूप में प्रवेश कर जाती हो।

      पुराणों में अङ्गुष्ठ और अङ्गुलियों के संयोगों द्वारा शरीर के विभिन्न अङ्गों का स्पर्श करने तथा गात्रवीणा के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १०.१.१.८ में उल्लेख है कि अङ्गुष्ठ पुमान् है, अङ्गुलियां स्त्री रूप हैं(अङ्गुष्ठा इति पुमांसः अङ्गुलय इति स्त्रियः )। अङ्गुलियां नाना वीर्य वाली होती हैं(तस्मान् नाना वीर्या अङ्गुलयः सर्वास्व् अङ्गुष्ठम् उप नि गृह्णाति तस्मात् समावद्वीर्यो ऽन्याभिर् अङ्गुलिभिस् तस्मात् सर्वा अनु सं चरति यत् सह सर्वाभिर् मिमीत सꣳश्लिष्टा अङ्गुलयो जायेरन् । - तैत्तिरीय संहिता ६.१.९.५)। अङ्गुष्ठ व अङ्गुलियों के स्पर्श द्वारा यह अङ्गुष्ठ रूपी पुरुष अङ्गुलियों रूपी स्त्रियों से मिथुन करता है। शतपथ ब्राह्मण ११.५.२.१ के अनुसार अङ्गुष्ठ आग्नेय है, अङ्गुलियां सौम्य हैं(प्रजापतिर्ह चातुर्मास्यैरात्मानं विदधे। स इममेव दक्षिणं बाहुं वैश्वदेवं हविरकुरुत तस्यायमेवाङ्गुष्ठ आग्नेयं हविरिदं सौम्यमिदं सावित्रं)।

      शिव पुराण में तारकासुर द्वारा पादाङ्गुष्ठ मात्र से भूमि का स्पर्श करके तप करने के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १.३.५.७ का यह उल्लेख उपयोगी हो सकता है कि जिससे द्वेष करता हो, उसका अङ्गुष्ठों से दमन करने की कल्पना करके पादाङ्गुष्ठों से भूमि का पीडन करे।

      पुराणों में सार्वत्रिक रूप से अङ्गुष्ठ पुरुष के उल्लेखों के संदर्भ में तैत्तिरीय आरण्यक १०.३८.१ के मन्त्र के अनुसार अङ्गुष्ठमात्र पुरुष अङ्गुष्ठ के समाश्रित है, वह सारे जगत का ईश है, इत्यादि। इसी तथ्य की पुनरावृत्ति महानारायणोपनिषद ७१(अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽङ्गुष्ठं च समाश्रितः ।), कठोपनिषद ४.१३, श्वेताश्वरोपनिषद ३.१३ आदि में भी की गई है। लेकिन विष्णुधर्मोत्तर पुराण का अङ्गुष्ठ पुरुष का वर्णन सबका अतिक्रमण करता है।

      यज्ञ कार्य में हाथ का प्रतीक स्रुवा नामक यज्ञ पात्र तथा अङ्गुष्ठ का प्रतीक स्रुवा का अग्र भाग होता है(अथर्ववेद परिशिष्ट २७.२.४(अङ्गुष्ठाग्रप्रमाणेन निम्नं शिरसि खानयेत् ॥), कात्यायन श्रौत सूत्र १.३.३९(अरत्निमात्रः स्रुवोऽङ्गुष्ठपर्ववृत्तपुष्करः)।

      वैदिक संहिताओं में अङ्गुष्ठ का उल्लेख अथर्ववेद २०.१३६.१६ मन्त्र में आया है जहां तैलकुण्ड को आङ्गुष्ठ कहा गया है(यः कुमारी पिङ्गलिका वसन्तं पीवरी लभेत्।
      तैलकुण्डमिमाङ्गुष्ठं रोदन्तं शुदमुद्धरेत्॥)। जो कुमारी पिङ्गलिका को वसन्त में ग्रहण करने में सफल हो सकता हो, वही इस रोते हुए शुद्ध आङ्गुष्ठ का उद्धार कर सकता है। श्री जगन्नाथ वेदालंकार द्वारा कुन्ताप सूक्त सौरभम् नामक पुस्तक में इसकी व्याख्या पठनीय है।

      अङ्गुष्ठ के अन्य उपयोगी संदर्भों में बौधायन श्रौत सूत्र २६.२४.१ के अनुसार यज्ञ में यूपों की स्थापना के संदर्भ में यूपों की ऊंचाई क्रमशः अङ्गुष्ठ पर्व मात्र द्वारा कम होती जाती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.१.३ के अनुसार अङ्गुष्ठों द्वारा आहुति देने से निर्ऋति को दूर करने में समर्थ होते हैं। शतपथ ब्राह्मण ३.१.२.४ में अङ्गुष्ठ और अङ्गुलियों के नखों में से पहले किसको काटा जाए, इस पर दैव और मानुष रूप से विचार किया गया है।

      प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.

      स वै नखान्येवाग्रे निकृन्तते । दक्षिणस्यैवाग्रे सव्यस्य वा अग्रे मानुषेऽथैवं देवत्राङ्गुष्ठयोरेवाग्रे कनिष्ठिकयोर्वा अग्रे मानुषेऽथैवं देवत्रा – माश ३.१.२.४