अच्युत
टिप्पणी : अथर्ववेद ६.८८.३ में ध्रुव और अच्युत बनने की कामना की गई है जो पुराणों की ध्रुव की कथा के तुलनीय है। ऋग्वेद १.१६७.८ में मरुद्गण अच्युत ध्रुवों का च्यवन करके ईं अग्नि की वृद्धि करते हैं। वह अच्युतों का ओज से च्यवन करते हैं(ऋग्वेद १.८५.४)। ऋग्वेद ६.१५.१ में अतिथि अग्नि अच्युत गर्भ का भक्षण कर जाती है। अग्नि स्वयं अच्युत है(ऋग्वेद ६.२.९)। वह स्वयं अच्युत होते हुए घृत और मधु से लिप्त भूमि का च्यवन करा देती है। इन्द्र अच्युत होकर अपने बल से पर्वतों और भूमि को च्यवित कर देता है(ऋग्वेद ६.३१.२ इत्यादि)। इन्द्र अच्युत स्वात(स्वाती?) आदि से गायों को ले आता है। इन्द्र मेनि(मन की शक्ति?) को अच्युत कर देता है। इन्द्र व दुन्दुभि के लिए अच्युतच्युत विशेषण आया है(ऋग्वेद २.१२.९, ६.१८.५, अथर्ववेद ५.२०.१२) जो विभिन्न कोशों में अच्युत होने का प्रतीक हो सकता है। अथर्ववेद ९.२.१५ में बृहती के लिए कहा गया है कि यह च्युत और अच्युत दोनों अवस्थाओं में विद्युत और स्तनयित्नु का भरण करती है। शतपथ ब्राह्मण १.६.१.६ के अनुसार देवों ने ऋतुओं का आह्वान करते हुए भी अग्नि को आयतन से च्युत नहीं किया, अतः अग्नि अच्युत है। स्कन्द पुराण की निरुक्ति के अनुसार जिस भक्त का आनन्द प्रलय काल में भी च्युत न हो, वह अच्युत है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अज
टिप्पणी : वेदों में दिए गए विवरण के आधार पर अज और अजा शब्दों में अन्तर करना कठिन हो जाता है। ऋग्वेद १०.१६.४ तथा अथर्ववेद के अजौदन सूक्त ९.५ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अज भाग को निरन्तर पकाकर शुद्ध करना पडता है। अथर्ववेद ४.१४.६ में अज को घृत द्वारा सुशोभित कर एक सुपर्ण या गरुड बना दिया गया है जिस पर आरूढ होकर नाक लोक को जाते हैं। वह अज बैठा तो नाक लोक में है, जबकि उसके पैर चार दिशाओं में प्रतिष्ठित हैं। चार दिशाओं को ज्ञान, दक्षता, विवेक व आनन्द प्राप्ति की दिशाएं कह सकते हैं। काठक संहिता २३.१० में गायत्री अजा के कान पकड कर स्वर्ग जाकर वहां से सोम लाने में सफल होती है। ऋग्वेद १.१६२ के मन्त्रों में अश्वमेध के कर्मकाण्ड से सम्बन्धित जो मन्त्र दिए गए हैं, वह मनुष्य व्यक्तित्व को भावना रूपी अश्व बनाने से पूर्व अज भाग से प्राप्य बल को प्राप्त करने के लिए प्रतीत होते हैं। अथर्ववेद १८.२.२२ में प्रेत के लिए अज द्वारा शीत करने का उल्लेख है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अजगर
टिप्पणी : जैमिनीय ब्राह्मण २.२६७ के अनुसार गुदाओं से अहि और अजगरों की उत्पत्ति हुई। काठक संहिता ४३.४ व ३५.५ में उल्लेख है कि अजगर से सर्प उत्पन्न हुए। मैत्रायणी संहिता ३.१४.१९ इत्यादि के अनुसार बल के लिए अजगर की प्राप्ति करे। गोपथ ब्राह्मण १.२.२ के अनुसार स्वप्न अजगर बन जाता है और ब्रह्मचारी स्वप्न रूपी अजगर पर विजय पाने के लिए सुषुप्ति में निद्रा लेते हैं। अजगर का अर्थ है जो अज रूपी शक्ति को ग्रस ले। गुदा की सर्वोच्च स्थिति गुदगुदी या आनन्द है। स्वप्न का सुदर्शन चक्र बनना अपेक्षित है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.