अणिमा
टिप्पणी : छान्दोग्य उपनिषद में ६.५.१ से ६.१२.१ तक अणिमा आदि सिद्धियों की विभिन्न उदाहरणों द्वारा व्याख्या की गई है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अणु
टिप्पणी : वैशेषिक दर्शन ७.१.२३ के अनुसार विभुत्व के अभाव में मन अणु है। मैत्रायणी उपनिषद ७.११ में हृदय में खजाग्नि? के संयोग से एक अणु, कण्ठदेश में दो अणु तथा जिह्वाग्र देश में तीन अणु होने का उल्लेख है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अण्ड
टिप्पणी : तैत्तिरीय आरण्यक ३.११.४ के अनुसार अण्डकोश में भुवन छिपा हुआ है। सूत्रात्म शरीर को प्राण वायु गर्भ के जरायु की भांति घेरे हुए है। यह सुवर्णकोश रजस से आवृत है। शतपथ ब्राह्मण ६.१.२.१ में अण्ड के क्रमिक विकास का वर्णन किया गया है। प्रजापति सर्वप्रथम अग्नि द्वारा पृथिवी के साथ मिथुन करके अण्ड उत्पन्न करते हैं, फिर वायु द्वारा अन्तरिक्ष के साथ, फिर आदित्यों द्वारा दिवः के साथ। शतपथ ब्राह्मण ११.१.६.१ के अनुसार जब तक अण्ड का भेदन नहीं होता, तब तक संवत्सर का दर्शन नहीं हो सकता। त्रिशिख ब्राह्मणोपनिषद २.५९ के अनुसार मनुष्य के कन्दस्थान की आकृति अण्डाकार है जिसमें नाभि और चक्र आदि स्थित हैं। योगकुण्डल्योपनिषद ३.२३ के अनुसार अण्ड को ज्ञानाग्नि से तप्त करके कारण देह में प्रवेश किया जा सकता है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अतिथि
टिप्पणी : साधना काल में शक्तियों का अवतरण अतिथि रूप में ही होता है। - फतहसिंह
ऋग्वेद में जिन ऋचाओं में अतिथि शब्द आया है, वह अधिकांश रूप में अग्नि अतिथि के लिए है। दुरोण? में स्थित अतिथि को श्रेष्ठ माना जाता है। अथर्ववेद ९.६ से ९.११ सूक्तों में अतिथि की महिमा का वर्णन किया गया है और यही सूक्त पुराणों में अतिथि महिमा वर्णन के आधार प्रतीत होते हैं। ऋग्वेद में कुछ राजाओं को अतिथिग्व, अतिथियों का सत्कार करने वाला, संज्ञा दी गई है। ब्राह्मण ग्रन्थों जैसे मैत्रायणी संहिता ३.७.९ में आतिथ्य को यज्ञ का शीर्ष कहा गया है। यज्ञ के शीर्ष को कर्मकाण्ड में उपसद रूपी ग्रीवा पर स्थापित करते हैं। उपसद अहोरात्र, पक्ष, मासों आदि का प्रतीक है। शब्दकल्पद्रुम में उद्धृत व्याकरण के अनुसार अतिथि वह है जिसे चन्द्रमा की कला प्रभावित न करे।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.