अरिष्टनेमि
टिप्पणी : ऋग्वेद १०.१७८ सूक्त के ऋषि तार्क्ष्य - पुत्र अरिष्टनेमि हैं तथा सूक्त का देवता तार्क्ष्य है । दूसरी ओर, पुराणों में अरिष्टनेमि को तार्क्ष्य का पिता भी कहा गया है । महाभारत आदि पर्व ६५.४० में विनता के ६ पुत्रों में अरिष्टनेमि, तार्क्ष्य आदि हैं । इस भेद की विद्यमानता के अनपेक्ष, यह स्पष्ट है कि अधिकांश स्थलों पर तार्क्ष्य और अरिष्टनेमि को एक साथ रखा गया है । पञ्चचूडा इष्टकाओं के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ८.६.१.१९ इत्यादि के अनुसार तार्क्ष्य सेनानी है और अरिष्टनेमि ग्रामणी है । पुराणों में भी सूर्य के रथ आदि पर तार्क्ष्य सेनानी और अरिष्टनेमि ग्रामणी की स्थिति के उल्लेख हैं । यह संकेत देता है कि अरिष्टनेमि व तार्क्ष्य साधना की दो स्थितियां हैं । ग्रामणी वैश्य होता है, सेनानी क्षत्रिय । ग्रामणी का कार्य ग्राम की व्यवस्था को, दिन प्रतिदिन के कार्यकलाप को सुचारु रूप से चलाना है । महाभारत शान्तिपर्व २८८ में मुनि अरिष्टनेमि द्वारा राजा सगर को दिए गए मोक्षविषयक उपदेश का वर्णन है जिसमें गृहस्थ जीवन के कर्मों से उपरत होकर मोक्ष की ओर प्रस्थान का वर्णन है । वैदिक भाषा में यह कहा जा सकता है कि ग्रामणी से तात्पर्य साधना के दैनिक जीवन में विस्तार से है जबकि तार्क्ष्य से तात्पर्य ऊर्ध्वमुखी साधना से हो सकता है ( तृक्ष धातु गतौ, गमन अर्थ में है (काशकृत्स्नधातुव्याख्यानम् १.२७७ ( गं से ज्ञान का ग्रहण भी होता है ) । संभव है कि यह तृषा, दिव्य प्यास से सम्बन्धित हो । वैदिक निघण्टु में तार्क्ष्य अश्वनामों में से एक है । ऐतरेय ब्राह्मण ४.२० इत्यादि के अनुसार तार्क्ष्य पवित्र करने वाली वायु है(ऽयं वै तार्क्ष्यो योऽयं पवत एष स्वर्गस्य लोकस्याभिवोळ्हा) ।
अरिष्टनेमि का वास्तविक अर्थ श्री रजनीश द्वारा किसी व्याख्यान में दिए गए इस कथन से समझा जा सकता है कि तीर्थंकर महावीर जहां भी उपस्थित रहते थे, उनके परितः एक निश्चित परिधि में हिंसा हो ही नहीं सकती थी । यही संकेत महाभारत वन पर्व १८४ में भी प्राप्त होता है जहां एक राजा अनजान में मुनि अरिष्टनेमि के पशु रूप धारण किए हुए पुत्र का वध कर देता है लेकिन जैसे ही अरिष्टनेमि को यह ज्ञात होता है, पुत्र पूर्ववत् जीवित हो जाता है, अथवा कह सकते हैं कि वह मरता ही नहीं । खिल २.४.१ में तार्क्ष्य अरिष्टनेमि को देवताओं का महत् वायस कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि संस्कृत शब्द वायस/काक के अर्थ का स्पष्टीकरण अंग्रेजी भाषा के शब्द वायस, अन्तरात्मा की आवाज से किया जा सकता है । यही पुराणों में प्रकट होने वाले अपशकुन भी हो सकते हैं ।
ऋग्वेद १.८९.६ का लोक प्रसिद्ध स्वस्त्ययन मन्त्र है जिसमें तार्क्ष्य अरिष्टनेमि से भी स्वस्ति देने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद ३.५३.१७ व १.१८०.१० में इन्द्र व अश्विनौ के रथों की नेमियों ( परिधियों ) के अरिष्टनेमि होने की कामना की गई है ।
प्रथम लेखन : १९९४ ई., संशोधन : ५.१.२०१२ई.
अरिष्टा
टिप्पणी : तैत्तिरीय संहिता ४.१.९.२ में पृथिवी देवी से प्रार्थना की गई है कि वह यज्ञ में अरिष्टा होकर आए। ऋग्वेद १०.८५.२४ में वधू के अरिष्टा होकर पति के साथ जाने की कामना की गई है। यज्ञ में वाक् अरिष्टा होनी चाहिए।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.