प्रथम प्रकाशित – १९९४ ई., इण्टरनेट पर प्रकाशित – १९-८-२०१० ई. (श्रावण शुक्ल दशमी, विक्रमी संवत २०६७)
अरुणाचल
टिप्पणी – स्कन्दपुराण में अरुणाचल के माहात्म्य में पार्वती शिव के नेत्र मूंद लेती हैं तो उन्हें प्रायश्चित्त रूप में कम्पा नदी तट पर तप करने के लिए जाना पडता है । वहां वह सिकता लिङ्ग की उपासना करती हैं । इसके पश्चात् अरुणाचल पर आकर तप करती हैं । वैदिक साहित्य में उषा और अरुण का सम्बन्ध सार्वत्रिक रूप से मिलता है । भौतिक जगत में भी उषाकाल में अरुणोदय होता है । इससे निष्कर्ष निकलता है कि वैदिक साहित्य की उषा पुराणों की पार्वती या उमा है । वैसे भी उषा शब्द की निरुक्ति ऊं सा के रूप में कर सकते हैं । पार्वती द्वारा शिव के नेत्रों को बंद करना अत्याधिक आन्तरिक प्रकाश के कारण चक्षुओं का अन्तर्मुखी होना हो सकता है । इस अवस्था में उषा को पृथिवी पर अवतरण करना होगा । ऋग्वेद १०.१६८.१ के अनुसार वायु स्वर्ग में जाकर तो अरुणता उत्पन्न करती है और पृथिवी पर आकर रेणु या धूल बिखेरती है । यही धूल पार्वती द्वारा पूजित सिकता लिङ्ग हो सकता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१०.१.४ में आठ सिकताओं एजत्का, जीवत्का, क्षुल्लका, शिपिविष्टका, सरिस्ररा, सुशेरवा, अजिरासः तथा गमिष्णवः के नाम गिनाए गए हैं । साथ ही साथ संवत्सर के १३ मासों को अरुण आदि संज्ञा दी गई है – अरुण, अरुणरज, पुण्डरीक, विश्वजित्, अभिजित्, आर्द्र, पिन्वमान्, अन्नवान्, रसवान्, इरावान्, सर्वौषध, संभर, महस्वान् । प्रथम सिकता का नाम एजत्का अर्थात् कंपाने वाली है । यह विचारणीय है कि क्या पार्वती की कथा में इन आठों सिकताओं का परोक्ष रूप में समावेश किया गया है ? विभिन्न मासों में अरुणाचल के माहात्म्य का उल्लेख स्कन्द पुराण १.३.१.६.१०८ में हुआ है ।
स्कन्द पुराण १.३.१.९ में अरुणाचल की प्रदक्षिणा के माहात्म्य को तैत्तिरीय आरण्यक १.२३.५ में दिए गए विवरण की सहायता से समझा जा सकता है । इस प्रकार प्राची दिशा में अरुणकेतु से सूर्य की प्रतिष्ठा होती है , दक्षिण दिशा में अग्नि की, पश्चिम दिशा में वायु की, उत्तर दिशा में इन्द्र की , मध्य में पूषा की, ऊपर की ऊर्ध्वा दिशा में देवों, मनुष्यों, पितरों, गन्धर्वों व अप्सराओं की ।
अरुणाचल माहात्म्य वर्णन में कुछ स्थानों पर तैत्तिरीय संहिता के मन्त्र असौ यस्ताम्रो अरुणः उत बभ्रुः सुमंगलः । ये चेमा रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशो अवैषां हेड ईमहे । का उल्लेख है । वेदों में अन्य कईं मन्त्रों में भी ताम्र, बभ्रु और अरुण का एक ही स्थान पर उल्लेख किया गया है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.२६३ में इस प्रश्न का आँशिक उत्तर उपलब्ध होता है । प्रजापति के रेतस् या शक्ति का सम्यक् उपचार करने पर सर्वप्रथम रोहित या लोहित पशु उत्पन्न हुए, फिर तप्यमान रेतस् से अरुण पशु, तप्त रेतस् से बभ्रु पशु, दह्यमान रेतस् से श्वेत व कृष्ण पशु उत्पन्न हुए। ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्यत्र वर्णन के अनुसार यह श्वेत और कृष्ण दिन और रात्रि हैं । इसका अर्थ यह है कि साधक पुरुष प्रकाश के दर्शन का आरम्भ लोहित रूप में करता है, फिर वह अरुण, बभ्रु प्रकाशों का दर्शन करके दिन और रात्रि की सृष्टि अपने अन्दर करता है । फिर अर्धमासों का, फिर मासों का, ऋतुओं का व अन्त में संवत्सर का दर्शन करता है । शतपथ ब्राह्मण में कईं स्थानों पर उद्दालक आरुणि और श्वेतकेतु आरुणेय का उल्लेख आता है जो अग्निहोत्र, दर्शपूर्ण मास यज्ञ, संवत्सर आदि का ज्ञान प्रदान करते हैं ( उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण ११.४.१.१) । अरुणाचल माहात्म्य के आरम्भ में ही विष्णु यज्ञ वराह का रूप धारण करके ज्योतिस्तम्भ के मूल का अन्वेषण करते हैं । ब्रह्मा का हंस बनना और सुपर्ण में सम्बन्ध विचारणीय है । शतपथ ब्राह्मण ७.२.३.८ तथा तैत्तिरीय संहिता ५.६.४.१ में अब्द, अयवा, उषा, अरुण आदि चिति व पुरीष के युगलों के रूपों में कथित १३ व्याहृतियों का अर्थ विचारणीय है ।
अरुणाचल माहात्मय प्रसंग के अन्त में वज्राङ्गद के अश्व का शोण पर्वत से गिर कर कलाधर विद्याधर बनने का उल्लेख है । वैदिक साहित्य में उषा के अरुण अश्वों ( ऋग्वेद १.९२.१५), मरुतों के पिशंग व अरुण अश्वों(ऋग्वेद ५.५७.४ तथा १.८८.२) आदि का उल्लेख है । ऐतरेय ब्राह्मण ४.९ में विभिन्न देवता विभिन्न प्रकार के अश्वों पर आरूढ होकर प्रतियोगिता करते हैं । तैत्तिरीय आरण्यक १.१२.४ में अरुणाश्वों को पृथिवी पर स्थित वसुगणों या अग्नियों का वाहन कहा गया है । उनसे पृथिवी पर आने की प्रार्थना की गई है । दूसरी ओर ताम्र अश्वों पर आरूढ रुद्रों से दूर जाने की प्रार्थना की गई है ।