अयं चित्रः माघ शुक्ल एकादशी, विक्रम संवत् २०७१ तिथौ गार्गेयपुरम्, कर्नूल मध्ये ज्योति अप्तोर्याम सोमयागस्य श्री राजशेखर शर्मा महोदयस्य संग्रहात् साभार गृहीतमस्ति।
सोमयागे सुत्यादिवसे माध्यन्दिन सवने ग्रावस्तुद् ऋत्विजः स्वशस्त्रस्य उच्चारणं करोति। तस्य शस्त्रस्य ऋचानां समूहः ऋग्वेदे १०.९४ सूक्ते प्रकटयति। अस्य सूक्तस्य ऋषिः अर्बुदः कार्द्रवेयः भवति एवं देवता ग्रावाणः भवति। निरुक्तोपनिषद १.१० अनुसारेण, यदा गर्भे शुक्रस्य स्थापना भवति, तदा पंचरात्रि पर्यन्तं तस्य संज्ञा बुद्बुदं भवति, सप्तरात्रि पर्यन्तं पेशी, चत्वारिंशत् रात्रि पर्यन्तं अर्बुदं एवं पंचविशति रात्रि पर्यन्तं घनं भवति। शतपथ ब्राह्मणानुसारेण यदा वायुः पृथिवीतत्त्वे प्रवेशं करोति, तदा बुद्बुदस्य सृष्टिः भवति। बुद्बुदस्य रचनानन्तरं मृद, शर्करा, अश्मा, हिरण्यादस्य क्रमानुसारेण सृष्टिः भवति। अत्र वायुः प्राणानां रूपमस्ति। अतः यदा निरुक्तोपनिषदे बुद्बुदस्य रचनस्य कथनं प्रकटयति, अयं संकेतः भवति यत् जड तत्त्वे यदा वचसः, मनसः, प्राणस्य प्रवेशं भवति, तदा गर्भः संजायते। अर्बुदं बुद्बुदस्य एकं विकसित रूपमस्ति। अर्बुदस्य विकसिततमं रूपं ग्रावाणः सन्ति। ग्रावाणः अर्थात् दिव्याः प्राणाः। ग्रावाणः रूपाः ते प्राणाः अशुद्धात् सोमात् शुद्धस्य सोमस्य विश्लेषणं कर्तुं समर्थाः भविष्यन्ति। ग्री – विज्ञाने। अथर्ववेदे अपि अर्बुदस्य सूक्तं प्रकटयति। अनेनानुसारेण अर्बुदस्य विकसिततमं रूपं न्यर्बुदि अस्ति, अयं प्रतीयते। लौकिकां भाषायां अर्बुदं, न्यर्बुदं संख्यानां क्रमिक रूपेण वर्धिताः रूपाः भवन्ति – अर्बुदं – अरब(१००कोटि)।
लक्ष्मीनारायण संहिता १.५५१ मध्ये अर्बुदाचलस्य अतिरिक्तं रहस्यं प्रकटी भवति यत् त्रिपुष्कराणां तादात्म्यं अर्बुदाचलस्य व्योम, शिखर एवं भूमि अथवा सरोवराणां सह भवति। अतः त्रिपुष्कराणां ये गुणाः सन्ति, तेषामनुसारेण अर्बुदाचलस्य गुणानां ग्रहणं अपि बोधगम्यं भवति।
(प्रथम प्रकाशित – ईसवी सन् १९९४)
अर्बुद
टिप्पणी : अर्बुदाचल माहात्म्य के अन्तर्गत सर्वप्रथम तक्षक नाग द्वारा उत्तंक ऋषि के कुण्डलों के हरण की कथा आती है । तक्षक कुण्डल चुरा कर बिल में घुस गया । उत्तंक ने उस बिल को एक काष्ठ दण्ड से खोदा इत्यादि । उत्तंक = उत् + तंक । तकि/तंक धातु दुःख उठाने, परिश्रम करने के अर्थ में प्रयुक्त होती है । उत् अर्थात् ऊपर । उत्तंक तप का प्रतीक है । ऐसे तपस्वी के मार्ग में विभिन्न बाधाएं अपना सिर उठाती हैं । भूख - प्यास उनमें से एक है । इसी समय में उसकी सत्य की प्राप्ति रूपी कुण्डलों का हरण तक्षक नाग कर लेता है । तपस्वी फिर श्वभ्र खोदने के रूप में तप आरम्भ करता है । उत्तंक की तपस्या ऐसी है जिसमें उसने अपने आनन्द को भी भुला दिया है । अतः उत्तंक के द्वारा खोदा गया श्वभ्र शुष्क है, आनन्दरहित है । वसिष्ठ की नन्दिनी गौ उसमें गिर पडती है । तब सरस्वती इस श्वभ्र को भर कर नन्दिनी को बाहर निकालती है । सरस्वती अर्थात् रस वाली । वह इस श्वभ्र को रसमय बना देती है । जब परमानन्द रूपी रस प्राप्त होने लगता है तो नन्दिनी रूपी आनन्दवृत्ति का भी उद्धार हो जाता है । हिमवान् - पुत्र नन्दिवर्धन का कार्य भी इस शुष्क श्वभ्र को आनन्द रस से पूर्ण करना है । - फतहसिंह
ऋग्वेद १०.९४ सूक्त का ऋषि कद्रू - पुत्र अर्बुद सर्प है । इस सूक्त का देवता ग्रावाण: अर्थात् सोम को कूटने के पत्थर हैं । अथर्ववेद ११.११ सूक्त का देवता अर्बुदि है और ऋषि कांकायन है । इसके अतिरिक्त ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में अर्बुद शब्द प्रकट होता है । संख्या के अर्थ में अर्बुद शब्द को हिन्दी में अरब कहते हैं । अर्बुद संख्या के पश्चात् न्यर्बुद संख्या आती है । अर्बुद शब्द के निहितार्थ को समझने के लिए हमें ब्राह्मण ग्रन्थों का आश्रय लेना होगा । ऐतरेय ब्राह्मण ६.१ में उल्लेख है कि यज्ञ में पाप नाश न हो सकने के कारण देवों को उनका भाग प्राप्त नहीं हो पा रहा था । इस क्षण में अर्बुद काद्रवेय सर्प ऋषि ने अपनी ग्रावस्तोत्रीय ऋचा का गान करने का प्रस्ताव किया । माध्यन्दिन सवन में गान से सोम और देवों को मद तथा विष आक्रान्त करने लगा । उससे बचने के लिए उन्होंने ग्रावस्तुत नामक अर्बुद ऋत्विज के सिर पर उष्णीष/पट्टी बांध दी जिससे वह देख न सके । लेकिन समस्या का हल नहीं हुआ । यहां उल्लेख है कि ग्रावस्तोत्रीय ऋचा मन है । शतपथ ब्राह्मण १४.२.२.३३ में उल्लेख है कि ग्रावाण: प्राण हैं । इस प्रकार ऋग्वेद का यह सूक्त मन और प्राण के युगल से सम्बन्धित है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.१६.३ में उल्लेख है कि वाक् अर्बुद बन सकती है । तब यह सूक्त मन और वाक् का युगल हो जाता है । साधना में सर्वदा यह प्रयत्न किया जाता है कि मन से उत्पन्न वाक् शक्ति किसी प्रकार अन्तर्मुखी हो जाए । दूसरे शब्दों में, मन बाहरी संसार में दौड न लगाए, शरीर के प्राणों में ही आत्मसात् हो जाए । स्कन्द पुराण के अर्बुदाचल माहात्म्य का यही रहस्य है । माहात्म्य में जो विभिन्न कथाएं दी गई हैं, वह वाक् को अन्तर्मुखी करने की विभिन्न विधाएं हैं जिनका सम्बन्ध ऋग्वेद व अथर्ववेद के सूक्तों के मन्त्रों से होना चाहिए । सबसे स्पष्ट राजा वेणु की कथा है जो पूर्व जन्म में पक्षी था और उसका घोंसला अर्बुदाचल पर था । अपने घोंसले की अनायास परिक्रमा करने के कारण वह अगले जन्म में वेणु राजा बना ।
अर्बुदाचल पर वसिष्ठ का आश्रम होने के संदर्भ में वसिष्ठ को सर्वाधिक बसने वाले प्राणों के रूप में समझा जा सकता है । वसिष्ठ ऋषि द्वारा अर्बुदाचल पर शिव के निवास के लिए तप करने की कथा को न्यर्बुदि के माध्यम से समझा जा सकता है । अथर्ववेद ११.११.४ में उल्लेख है कि न्यर्बुदि ईशान देव है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.१६.३ में कहा गया है कि न्यर्बुद भूमा वाक् है । यह भूमा वाक् पार्वती और शिव का ही रूप हो सकता है ।
आश्वलायन श्रौत सूत्र १०.७.५ में पारिप्लव इष्टि के अन्तर्गत पांचवें दिन का अधिपति अर्बुद काद्रवेय है । सर्प उसकी विशः/प्रजाएं हैं । विष विद्या वेद है । यह विशः और विष का सम्बन्ध ध्यान देने योग्य है । डा. फतहसिंह के आध्यात्मिक चिन्तन के अनुसार जब मन बाहर को दौडता है तो शरीर के सारे नाग प्राण शरीर में विष उगलने लगते हैं । इसके विपरीत, विशः शब्द का अर्थ अन्त:प्रवेश से है । तब यह प्राण सोमरस को शुद्ध करने वाले ग्रावाण:/पत्थर बन जाते हैं । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, सारा अर्बुदाचल माहात्म्य प्राणों को अन्तर्मुखी करके उन्हें एक नये रूप में प्रकट करना है ।
ब्राह्मण ग्रन्थों में अर्बुद सर्प ऋषि के साथ ऋग्वेद १०.१८९ की सार्पराज्ञी ऋषि वाली वाक् सम्बन्धी ऋचाओं को भी सम्बद्ध किया गया है । ताण्ड्य ब्राह्मण ४.९.४ इत्यादि में पुनः - पुनः उल्लेख आता है कि अर्बुद सर्प ने इन ऋचाओं के जप से अपनी मृत त्वचा को त्याग कर नवीन रूप प्राप्त किया । भावार्थ ऊपर के वर्णन से स्पष्ट है ।
ताण्ड्य ब्राह्मण ९.८.८ तथा जैमिनीय ब्राह्मण में उल्लेख है कि यदि दीक्षित यजमान की सत्र काल में मृत्यु हो जाए तो उसका संस्कार करके अर्बुदी ऋचाओं का पाठ किया जाता है । ताण्ड्य ब्राह्मण २५.१५.३ में विषुवत अह में किए जाने वाले सर्प सत्र का वर्णन है जिसमें सारे सर्प ऋत्विजों में अर्बुद ग्रावस्तोता बनता है । ऋग्वेद १०.१७५ सूक्त का ऋषि अर्बुद - पुत्र ऊर्ध्वग्रावा है ।
निरुक्तोपनिषद १.१० में पांच रात्रि के गर्भ की स्थिति को बुद्-बुद, सात रात्रि को पेशी, १४ रात्रि वाले गर्भ को अर्बुद व २५ रात्रि वाले को घन की संज्ञा दी गई है । व्याकरण की दृष्टि से अर्बुद शब्द की निरुक्ति अज्ञात है । सायणाचार्य महोदय ने ऋग्वेद २.११.२० की व्याख्या में अम्बूनि ददाति इति अर्बुद अर्थात् मेघ व्याख्या की है ।
In Ayurveda, word Arbuda is taken as a swelling, tumour. In mathematics, arbuda signifies one hundred million. In Soma yaaga, there is a priest called Graavastuta. This priest compliments the ritual by recitation of his own mantras at a stage which could not be otherwise completed. He is said to be the son of serpent mother Kadru. When he recites his mantras, a type of intoxication starts flowing from his eyes which stops only when his eyes are closed with a band of cloth. Can this ritual serve as the origin of the whole of virtues sung in puraanas like Skand puraana? In order to understand the meaning of Arbuda, one has to understand the functions of priest Graavastuta. Graavastuta means one who sings the virtues of those graavas/stones which are used in purification of soma. At lower stage, our teeth are also these stones. The higher is the quality of soma, the higher type of graavaa/stone will be required to purify it. These stones can be called life forces. There is a hymn in Rigveda recited by sage Arbuda in praise of stones. It means that Arbuda knows which type of life force is to be deployed for purifying different types of somas. In penances, the state of Arbuda seems to develop by development of a raised portion on the head, just like the raised part on the back of a cow. This raised part is said to absorb sunrays more effectively. It comes from mantras that the stones talk to each other, perhaps when these strike each other. This has been symbolized as their talk. But when stones are symbolic of life forces, then this talk may be of advance informations about our life. But it has been stated that even if we start getting this advance information, the cause and effect chain does not break automatically. Further efforts have to be made for that.
संशोधन – २८-५-२०१०(ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदा, विक्रमी संवत् २०६७)
अर्बुद काद्रवेय सर्प को ग्रावस्तुत ऋत्विज कहा गया है । अतः अर्बुद शब्द को समझने के लिए यह पहले यह समझना होगा कि ग्रावस्तुत के क्या अर्थ हैं । ग्रावाणः सोम कूटने के पत्थरों को कहते हैं । सोम जितना शुद्ध होगा, ग्रावाणः अर्थात् उसे कूटने के पत्थरों का स्वरूप भी उतना ही सूक्ष्म होता चला जाएगा । कहा जाता है कि इस लोक में सोम में वृत्रासुर प्रवेश कर गया है(शतपथ ब्राह्मण ३.९.४.२) । अतः उसे कूटने के लिए हमें अपने दांतों रूपी पत्थरों/ग्रावाणः की आवश्यकता पडती है (शतपथ ब्राह्मण ३.५.४.२४)। शतपथ ब्राह्मण ४.३.५.१६ में सोमयाग के तृतीय सवन में दधि के मन्थन के लिए दधि का स्पर्श उपांशु सवन नामक एक ग्रावा से कराया जाता है । कहा गया है कि यह उपांशु सवन विवस्वान् आदित्य का एक रूप है । ऐतरेय ब्राह्मण २.२१ के अनुसार उपांशु सवन ग्रावा द्वारा व्यान की सिद्धि होती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि दधि रूपी सोम के सवन के लिए विवस्वान् आदित्य, डा. फतहसिंह के शब्दों में वासनारहित आदित्य रूपी ग्रावा की आवश्यकता पडती है । इससे व्यान की सिद्धि भी कही गई है । ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रावस्तुत ऋत्विज के संदर्भ में व्यान की सिद्धि सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । ऐतरेय ब्राह्मण ७.१ आदि में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है कि जब ऋत्विजों के मध्य मेध्य गौ पशु के अंगों का वितरण किया जाता है तो ग्रावस्तुत को तीन कीकसाओं सहित स्कन्ध मणिक देने का निर्देश है । जैसा कि व्यान शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, गौ के स्कन्ध पर ककुद व्यान प्राण की विकसित अवस्था का प्रतीक है । इसके द्वारा गौ पशु सूर्य की शक्ति का सर्वाधिक अवशोषण करने में समर्थ होता है । बुद्ध व्यक्तियों के भी सिर में ककुद उत्पन्न हो जाता है, ऐसा प्रसिद्ध है । श्वेताम्बर जैन साधुओं द्वारा मृत्यु पश्चात् अपने सिर की मणि दूसरे पात्र व्यक्ति को देने के उल्लेख भी आते हैं । यह कहा जा सकता है कि यह मणियां उच्चतर स्थिति के सोम के सवन के लिए उपयोगी होती होंगी ।
आयुर्वेद में अर्बुद शब्द का प्रयोग फोडे आदि के लिए होता है । निरुक्तोपनिषद में अर्बुद को गर्भ की एक विकासमान अवस्था कहा गया है जिसका विकास बुद्-बुद से आरम्भ होता है । बुद्बुद का जन्म मृत्तिका में वायु के, प्राणों के प्रवेश से होता है । ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि अध्यात्म में पृथिवी तत्त्व में प्राणों के प्रवेश पर बुद्बुद का विकास अर्बुद के रूप में हो जाता होगा । बुद् धातु उपरि गमने अर्थ में है । लोक में दिखाई भी देता है कि बुद्बुद जल के ऊपर तैरता है ।
ऋग्वेद १०.९४ सूक्त में कद्रू – पुत्र अर्बुद ऋषि द्वारा ग्रावाणः की स्तुति की गई है ( प्रैते वदन्तु प्र वयं वदाम ग्रावभ्यो वाचं वदता वदद्भ्यः इत्यादि ) । इसका अर्थ यह हो सकता है कि अर्बुद ऋषि ने ग्रावाणः रूपी विभिन्न प्राणों के मह्त्व को समझ लिया है कि कौन से ग्रावा का उपयोग कहां करना है । लक्ष्मीनारायण संहिता में अर्बुदाचल माहात्म्य के वर्णन में अर्बुदाचल को मध्यम पुष्कर/ अन्तरिक्ष में स्थित पुष्कर भी कहा गया है । ज्येष्ठ पुष्कर पर शिव – पार्वती की स्थिति कही गई है । ब्रह्माण्ड पुराण में वर्णन आता है कि परशुराम मध्यम पुष्कर में तपस्या कर रहे हैं और उन्हें एक मृग – मृगी का वार्तालाप सुनाई देता है कि यदि यह व्यक्ति कनिष्ठ पुष्कर में जाकर अगस्त्य से कृष्ण प्रेमामृत स्तोत्र सीख ले तो इसे सिद्धि मिल सकती है । इन मृग – मृगी को ग्रावाणः या प्राणों के रूप में ही समझा जा सकता है जो व्यक्ति को साधना में आगे निर्देश देते हैं । यह खेल कहां तक चलता है, इसका संकेत हमें ताण्ड्य ब्राह्मण २५.१५.३ में सर्पसत्र के वर्णन से मिलता है जहां कहा गया है कि सर्प सत्र में धृतराष्ट्र ऐरावत सर्प ब्रह्मा नामक ऋत्विज बना, पृथुश्रवा दौरेश्रवस उद्गाता बना, ग्लाव व अजगाव प्रस्तोता – प्रतिहर्त्ता बने , अर्बुद ग्रावस्तुत ऋत्विज बना इत्यादि । यह संदर्भ महाभारत के राजा धृतराष्ट्र की सभा जैसा ही है जहां मन्त्री संजय को दूरदृष्टि प्राप्त थी । यह कहा जा सकता है कि जहां अर्बुद काद्रवेय ग्रावस्तोता बन कर आएगा, जैसा कि वह देवों के यज्ञ में आया कहा गया है, वहां स्थिति दूर – श्रवण आदि की ही होगी । लेकिन अर्बुद के ग्रावस्तोता बनने पर कमी यह रही कि उसके चक्षुओं से विष और मद निकलता रहा जिससे देव भी आक्रान्त हो गए और सोम भी । जब उसके चक्षुओं को बन्द किया गया, तब जाकर स्थिति में सुधार हुआ । अर्बुद ग्रावस्तोता से अगली स्थिति ताण्ड्य ब्राह्मण २५.१८.५ में भग के ग्रावस्तोता ऋत्विज बनने के द्वारा दिखाई गई है । इस याग में तप गृहपति है, ब्रह्म ब्रह्मा है, इरा पत्नी है, अमृत उद्गाता है, भूत प्रस्तोता, भविष्य प्रतिहर्ता, सत्य होता, ऋत मैत्रावरुण, ऊर्क् उन्नेता, वाक् सुब्रह्मण्य, प्राण अध्वर्यु, अपान प्रतिप्रस्थाता इत्यादि हैं । जैसा कि पौराणिक साहि्त्य में सार्वत्रिक उल्लेख आते हैं, भग देवता में लगता है हमारे सारे कर्मफलों का, कार्य – कारण का इतिहास बन्द है । भग को भाग्य कहा जा सकता है । दक्ष के यज्ञ में भग देवता की आंखे फोड दी थी । उसके पश्चात् से भग देवता मित्र की आंखों से देखता है । साधना के स्तर पर कहा जा सकता है कि भग देवता की आंखे फोडनी पडेंगी, तभी कार्य – कारण सम्बन्ध से छुटकारा मिल सकता है । एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि अर्बुद काद्रवेय सर्प भग देवता की आंखें फूटने से पहले की स्थिति है । कद्रू को कर्दः, कर्दम, कीचड अर्थ में ले सकते हैं जो कर्मफलों के जलने से उत्पन्न होता है । महाभारत उद्योग पर्व १६.२६ में उल्लेख है कि राजा नहुष की दृष्टि में विष था जिससे वह देवताओं, ऋषियों आदि जिसको भी देख लेता था, उसके तेज का हरण कर लेता था । ऐसा ही सुग्रीव – बाली की कथा में बाली के विषय में प्रसिद्ध है ।
संदर्भ
अध्वर्यवो य उरणं जघान नव चख्वांसं नवतिं च बाहून् ।
यो अर्बुदमव नीचा बबाधे तमिन्द्रं सोमस्य भृथे हिनोत ॥ - २,०१४.०४
ऋषिः – अर्बुदः काद्रवेयः सर्पः, दे. ग्रावाणः, छ. जगती, ५,७,१4 त्रिष्टुप् ।
प्रैते वदन्तु प्र वयं वदाम ग्रावभ्यो वाचं वदता वदद्भ्यः।
यदद्रयः पर्वताः साकमाशवः श्लोकं घोषं भरथेन्द्राय सोमिनः॥ १०.०९४.०१
एते वदन्ति शतवत्सहस्रवदभि क्रन्दन्ति हरितेभिरासभिः।
विष्ट्वी ग्रावाणः सुकृतः सुकृत्यया होतुश्चित्पूर्वे हविरद्यमाशत॥ १०.०९४.०२
एते वदन्त्यविदन्नना मधु न्यूङ्खयन्ते अधि पक्व आमिषि।
वृक्षस्य शाखामरुणस्य बप्सतस्ते सूभर्वा वृषभाः प्रेमराविषुः॥ १०.०९४.०३
बृहद्वदन्ति मदिरेण मन्दिनेन्द्रं क्रोशन्तोऽविदन्नना मधु।
संरभ्या धीराः स्वसृभिरनर्तिषुराघोषयन्तः पृथिवीमुपब्दिभिः॥ १०.०९४.०४
सुपर्णा वाचमक्रतोप द्यव्याखरे कृष्णा इषिरा अनर्तिषुः।
न्यङ्नि यन्त्युपरस्य निष्कृतं पुरू रेतो दधिरे सूर्यश्वितः॥ १०.०९४.०५
उग्रा इव प्रवहन्तः समायमुः साकं युक्ता वृषणो बिभ्रतो धुरः।
यच्छ्वसन्तो जग्रसाना अराविषुः शृण्व एषां प्रोथथो अर्वतामिव॥ १०.०९४.०६
दशावनिभ्यो दशकक्ष्येभ्यो दशयोक्त्रेभ्यो दशयोजनेभ्यः।
दशाभीशुभ्यो अर्चताजरेभ्यो दश धुरो दश युक्ता वहद्भ्यः॥ १०.०९४.०७
ते अद्रयो दशयन्त्रास आशवस्तेषामाधानं पर्येति हर्यतम्।
त ऊ सुतस्य सोम्यस्यान्धसोंऽशोः पीयूषं प्रथमस्य भेजिरे॥ १०.०९४.०८
ते सोमादो हरी इन्द्रस्य निंसतेंऽशुं दुहन्तो अध्यासते गवि।
तेभिर्दुग्धं पपिवान्सोम्यं मध्विन्द्रो वर्धते प्रथते वृषायते॥ १०.०९४.०९
वृषा वो अंशुर्न किला रिषाथनेळावन्तः सदमित्स्थनाशिताः।
रैवत्येव महसा चारवः स्थन यस्य ग्रावाणो अजुषध्वमध्वरम्॥ १०.०९४.१०
तृदिला अतृदिलासो अद्रयोऽश्रमणा अशृथिता अमृत्यवः।
अनातुरा अजराः स्थामविष्णवः सुपीवसो अतृषिता अतृष्णजः॥ १०.०९४.११
ध्रुवा एव वः पितरो युगेयुगे क्षेमकामासः सदसो न युञ्जते।
अजुर्यासो हरिषाचो हरिद्रव आ द्यां रवेण पृथिवीमशुश्रवुः॥ १०.०९४.१२
तदिद्वदन्त्यद्रयो विमोचने यामन्नञ्जस्पा इव घेदुपब्दिभिः।
वपन्तो बीजमिव धान्याकृतः पृञ्चन्ति सोमं न मिनन्ति बप्सतः॥ १०.०९४.१३
सुते अध्वरे अधि वाचमक्रता क्रीळयो न मातरं तुदन्तः।
वि षू मुञ्चा सुषुवुषो मनीषां वि वर्तन्तामद्रयश्चायमानाः॥ १०.०९४.१४
11.11 काङ्कायनः। अर्बुदिः। अनुष्टुप्..
ये बाहवो या इषवो धन्वनां वीर्याणि च ।
असीन् परशून् आयुधं चित्ताकूतं च यद्धृदि ।
सर्वं तदर्बुदे त्वममित्रेभ्यो दृशे कुरूदारांश्च प्र दर्शय ॥१॥
उत्तिष्ठत सं नह्यध्वं मित्रा देवजना यूयम् ।
संदृष्टा गुप्ता वः सन्तु या नो मित्राण्यर्बुदे ॥२॥
उत्तिष्ठतमा रभेतामादानसंदानाभ्याम् ।
अमित्राणां सेना अभि धत्तमर्बुदे ॥३॥
अर्बुदिर्नाम यो देव ईशानश्च न्यर्बुदिः ।
याभ्यामन्तरिक्षमावृतमियं च पृथिवी मही ।
ताभ्यामिन्द्रमेदिभ्यामहं जितमन्वेमि सेनया ॥४॥
उत्तिष्ठ त्वं देवजनार्बुदे सेनया सह ।
भञ्जन्न् अमित्राणां सेनां भोगेभिः परि वारय ॥५॥
सप्त जातान् न्यर्बुद उदाराणां समीक्षयन् ।
तेभिष्ट्वमाज्ये हुते सर्वैरुत्तिष्ठ सेनया ॥६॥
प्रतिघ्नानाश्रुमुखी कृधुकर्णी च क्रोशतु ।
विकेशी पुरुषे हते रदिते अर्बुदे तव ॥७॥
संकर्षन्ती करूकरं मनसा पुत्रमिच्छन्ती ।
पतिं भ्रातरमात्स्वान् रदिते अर्बुदे तव ॥८॥
अलिक्लवा जाष्कमदा गृध्राः श्येनाः पतत्रिणः ।
ध्वाङ्क्षाः शकुनयस्तृप्यन्त्वमित्रेषु समीक्षयन् रदिते अर्बुदे तव ॥९॥
अथो सर्वं श्वापदं मक्षिका तृप्यतु क्रिमिः ।
पौरुषेयेऽधि कुणपे रदिते अर्बुदे तव ॥१०॥ {२५}
आ गृह्णीतं सं बृहतं प्राणापानान् न्यर्बुदे ।
निवाशा घोषाः सं यन्त्वमित्रेषु समीक्षयन् रदिते अर्बुदे तव ॥११॥
उद्वेपय सं विजन्तां भियामित्रान्त्सं सृज ।
उरुग्राहैर्बाह्वङ्कैर्विध्यामित्रान् न्यर्बुदे ॥१२॥
मुह्यन्त्वेषां बाहवश्चित्ताकूतं च यद्धृदि ।
मैषामुच्छेषि किं चन रदिते अर्बुदे तव ॥१३॥
प्रतिघ्नानाः सं धावन्तूरः पटौरावाघ्नानाः ।
अघारिणीर्विकेश्यो रुदत्यः पुरुषे हते रदिते अर्बुदे तव ॥१४॥
श्वन्वतीरप्सरसो रूपका उतार्बुदे ।
अन्तःपात्रे रेरिहतीं रिशां दुर्णिहितैषिणीम् ।
सर्वास्ता अर्बुदे त्वममित्रेभ्यो दृशे कुरूदारांश्च प्र दर्शय ॥१५॥
खडूरेऽधिचङ्क्रमां खर्विकां खर्ववासिनीम् ।
य उदारा अन्तर्हिता गन्धर्वाप्सरसश्च ये ।
सर्पा इतरजना रक्षांसि ॥१६॥
चतुर्दंष्ट्रां छ्यावदतः कुम्भमुष्कामसृङ्मुखान् ।
स्वभ्यसा ये चोद्भ्यसाः ॥१७॥
उद्वेपय त्वमर्बुदेऽमित्राणाममूः सिचः ।
जयंश्च जिष्णुश्चामित्रां जयतामिन्द्रमेदिनौ ॥१८॥
प्रब्लीनो मृदितः शयां हतोऽमित्रो न्यर्बुदे ।
अग्निजिह्वा धूमशिखा जयन्तीर्यन्तु सेनया ॥१९॥
तयार्बुदे प्रणुत्तानामिन्द्रो हन्तु वरंवरम् ।
अमित्राणां शचीपतिर्मामीषां मोचि कश्चन ॥२०॥ {२६}
उत्कसन्तु हृदयान्यूर्ध्वः प्राण उदीषतु ।
शौष्कास्यमनु वर्तताममित्रान् मोत मित्रिणः ॥२१॥
ये च धीरा ये चाधीराः पराञ्चो बधिराश्च ये ।
तमसा ये च तूपरा अथो बस्ताभिवासिनः ।
सर्वांस्तामर्बुदे त्वममित्रेभ्यो दृशे कुरूदारांश्च प्र दर्शय ॥२२॥
अर्बुदिश्च त्रिषन्धिश्चामित्रान् नो वि विध्यताम् ।
यथैषामिन्द्र वृत्रहन् हनाम शचीपतेऽमित्राणां सहस्रशः ॥२३॥
वनस्पतीन् वानस्पत्यान् ओषधीरुत वीरुधः ।
गन्धर्वाप्सरसः सर्पान् देवान् पुण्यजनान् पितॄन् ।
सर्वांस्तामर्बुदे त्वममित्रेभ्यो दृशे कुरूदारांश्च प्र दर्शय ॥२४॥
ईशां वो मरुतो देव आदित्यो ब्रह्मणस्पतिः ।
ईशां व इन्द्रश्चाग्निश्च धाता मित्रः प्रजापतिः ।
ईशां व ऋषयश्चक्रुरमित्रेषु समीक्षयन् रदिते अर्बुदे तव ॥२५॥
तेषां सर्वेषामीशाना उत्तिष्ठत सं नह्यध्वम् ।
मित्रा देवजना यूयमिमं संग्रामं संजित्य यथालोकं वि तिष्ठध्वम् ॥२६॥ {२७}
देवा ह वै सर्वचरौ सत्रं निषेदुस्ते ह पाप्मानं नापजघ्निरे तान्होवाचार्बुदः काद्रवेयः सर्प ऋषिर्मन्त्रकृदेका वै वो होत्राऽकृता तां वोऽहं करवाण्यथ पाप्मानमपहनिष्यध्व इति ते ह तथेत्यूचुस्तेषां ह स्म स मध्यंदिने मध्यंदिन एवोपोदासर्पद्ग्राव्णोऽभिष्टौति। तस्मान्मध्यंदिने मध्यंदिन एव ग्राव्णोऽभिष्टुवन्ति तदनुकृति। स ह स्म येनोपोदासर्पत्तद्धाप्येतर्ह्यर्बुदोदासर्पणी नाम प्रपदस्ति। तान्ह राजा मदयांचकार ते होचुराशीविषो वै नो राजानमवेक्षते हन्तास्योष्णीषेणाक्ष्यावपिनह्यामेति तथेति तस्य होष्णीषेणाक्ष्यावपिनह्युस्तस्मादुष्णीषमेव पर्यस्य ग्राव्णोऽभिष्टुवन्ति तदनुकृति। तान्ह राजा मदयामेव चकार ते होचुः स्वेन वै नो मन्त्रेण ग्राव्णोऽभिष्टौति हन्तास्यान्याभिर्ऋग्भिर्मन्त्रमापृणचामेति तथेति तस्य हान्याभिर्ऋग्भिर्मन्त्रमापपृचुस्ततो हैनान्न मदयांचकार तद्यदस्यान्याभिर्ऋग्भिर्मन्त्रमापृञ्चन्ति शान्त्या एव। ते ह पाप्मानपजघ्निरे तेषामन्वपहतिं सर्पाः पाप्मानमपजघ्निरे त एतेऽपहतपाप्मानो हित्वा पूर्वां जीर्णां त्वचं नवयैव प्रयन्ति। अप पाप्मानं हते य एवं वेद॥ ऐ.ब्रा. 6.1॥
अश्वमेधगतमन्त्रकथनम् -- शताय स्वाहा । सहस्राय स्वाहा । अयुताय स्वाहा । नियुताय स्वाहा। प्रयुताय स्वाहा । अर्बुदाय स्वाहा। न्यर्बुदाय स्वाहा । समुद्राय स्वाहा – तै.सं. 7.2.20.1
अयुताय स्वाहा नियुताय स्वाहा प्रयुताय स्वाहा_इत्य् आह । त्रय इमे लोकाः ।
इमान् एव लोकान् अवरुन्धे । अर्बुदाय स्वाहा_इत्य् आह । वाग् वा अर्बुदम् । वाचम् एवावरुन्धे । न्यर्बुदाय स्वाहा_इत्य् आह । यो वै वाचो भूमा । तन् न्यर्बुदम् । वाच एव भूमानम् अवरुन्धे । समुद्राय स्वाहा_इत्य् आह । समुद्रम् एवाऽऽप्नोति । - तै.ब्रा. 3.8.16.3
अश्वमेधे पारिप्लवाख्यानम् -- पञ्चमे अहन्य् अर्बुदः काद्रवेयस् तस्य सर्पा विशस् त इम आसत इति सर्पाः सर्पविद इत्य् उपसमानीताः स्युस् तान् उपदिशति विष विद्या वेदः सो अयम् इति विष विद्याम् निगदेत् । - आश्व.श्रौ.सू. – 10.7.5
- - -अस्थानि निधाय मार्जालीये स्तुवीरन्। अर्बुदस्यर्ग्भिस् स्तुवते। अर्वुदो वै सर्पः। एताभिर् मृतां त्वचम् अपाहत। भ्रियन्त इव वा एते ये मृताय कुर्वन्तीति। मृताम् एवैताभिस् त्वचम् अपघ्नते॥ - जै.ब्रा. १.३४५
यद् अनुष्टुप् प्रतिपद् भवति, अभिपूर्वम् एव तद् वाचा समृध्यन्ते। सो वा अर्बुदस्यर्क्षु भवति। अर्बुदो वै सर्प एताभिर् मृतां त्वचम् अपाहत। - जै.ब्रा. २.२२२
गवामयने द्वादशरात्रे दशमेअहनि आहवनीयोपस्थानम् -- पत्नीः संयाज्य प्राञ्च उदेत्यायं सहस्रमानव इत्यतिच्छन्दसाहवनीयमुपतिष्ठन्ते। इमे वै लोका अतिच्छन्दा एष्वेव लोकेषु प्रतितिष्ठन्ति। गोरिति निधनं भवति विराजो वा एतद्रूपं यद्गौर्विराज्येव प्रतितिष्ठन्ति
प्रत्यञ्चः प्रपद्य सार्पराज्ञ्या ऋग्भिः स्तुवन्ति। अर्बुदः सर्प एताभिर्मृतां त्वचमपाहत मृतामेवैताभिर्स्त्वचमपघ्नते। तिसृभिः स्तुवन्ति त्रय इमे लोका एष्वेव प्रतितिष्ठन्ति
मनसोपावर्तयति। मनसा हिङ्करोति मनसा प्रस्तौति मनसोद्गायति मनसा प्रतिहरति मनसा निधनमुपयन्त्यसमाप्तस्य समाप्त्यै। यद्वै वाचा न समाप्नुवन्ति मनसा तत् समाप्नुवन्ति – तां.ब्रा. ४.९.४
यदि दीक्षितानां प्रमीयते दग्ध्वास्थीन्युपनह्य यो नेदिष्ठी स्यात् तं दीक्षयित्वा सह यजेरन्। एतदन्यत् कुर्युरभिषुत्यान्यत् सोममगृहीत्वा ग्रहान् यासौ दक्षिणा स्रक्तिस्तद्वा स्तुयुर्मार्जालीये वा। अपि वा एतस्य यज्ञे यो दीक्षितः प्रमीयते तमेतेन निरवदयन्ते। यामेन स्तुवन्ति यमलोकमेवैनं गमयन्ति। तिसृभिः स्तुवन्ति तृतीये हि लोके पितरः। पराचीभिः स्तुवन्ति पराङ्हीतोऽसौ लोकः। सर्पराज्ञ्या ऋग्भिः (आयं गौः इति – ऋ. १०.१८९) स्तुवन्ति। अर्बुदः सर्प एताभिर्मृतां त्वचमपाहत मृतामेवैताभिस्त्वचमपघ्नते। ता ऋचोऽनुब्रुवन्तस्त्रिर्मार्जालीयं परियन्ति सव्यानूरूनाघ्नानाः। स्तुतमनुशंसत्यमुष्मिन्नेवैनं लोके निध्नुवन्ति। - तांब्रा. ९.८.१
द्वितीये मासि घनः संपद्यते पिण्डः पेश्यर्बुदं वा तत्र घनः पुरुषः पेशी स्त्री अर्बुदं नपुंसकम् – चरक संहिता शारीर 4.१०