आघार
आघार शब्द का अर्थ है – आहवनीय के वायव्यकोण से आग्नेयकोण पर्यन्त निर्ऋतिकोण से ईशान्य कोण पर्यन्त आज्य को क्षारण करना। अध्वर्यु वेद – दर्भमुष्टि से अग्नि को तीन बार वीजनकर स्रुव से ध्रुवा पात्र के आज्य को लेकर वेद के साथ स्रुव को पकडकर बैठे हुए उत्तर परिधिसन्धि से दक्षिणपरिधि सन्धि तक अविच्छिन्न आज्य धारा को क्षारण करेगा। यह एक आघार है और प्रजापति इसका देवता है। प्रजापति को वाचा उच्चारण न करते हुए मन से ध्यान करना चाहिए। जहाँ – जहाँ प्रजापति देवताक कर्म हों, वहाँ मन से ध्यान करना है, लेकिन वाचा उच्चारण नहीं करना है। तैत्तिरीय संहिता के दूसरे काण्ड के पांचवें प्रपाठक में एक आख्यायिका है। एक समय मन और वाक् का याग सम्बन्धी हव्य वहन में कलह हो गया। कलह के शमन के लिए दोनों प्रजापति के पास गए। प्रजापति ने निर्णय दिया – प्रथम मन से चिन्तित विषय को वाक् कहता है। अतः मन ही श्रेष्ठ है। तब वाक् देवता ने क्रुद्ध होकर प्रजापति को शाप दिया कि जहाँ भी तुम्हारे लिए कर्म होगा, वहाँ वाचा उच्चारण नहीं होगा। इसलिए प्रजापति का मन से ध्यान किया जाता है। अतः प्रथम आघार के लिए स्रुव द्वारा ध्रुवा पात्रगत आज्य का ग्रहण किया गया। उस आज्य को पूर्ण करना आवश्यक है। अतः अध्वर्यु स्रुव द्वारा आज्यस्थालीगत आज्य को लेकर उसे ध्रुवा में छोडकर आग्नीध्र को अग्नि और परिधि संमार्ग के लिए प्रैष देकर आग्नीध्र स्फ्य से संमार्ग करते हुए वेदि के उत्तर भाग में बैठे हुए अध्वर्यु दाहिने हाथ से जुहू और बांये हाथ से उपभृत पात्र को लेकर वेदि को लांघकर दक्षिण भाग में