प्रथम प्रकाशित – १९९४ ई., इण्टरनेट पर प्रकाशित – १९-८-२०१० ई.( श्रावण शुक्ल दशमी, विक्रमी संवत् २०६७)
आरुणि
टिप्पणी – महाभारत आदि पर्व ३.२२ में वर्णन आता है कि धौम्य उपाध्याय का शिष्य आरुणि केदार कुल्या से बहते जल को रोकने के लिए स्वयं जल में लेट गया । उपाध्याय के पुकारने पर आरुणि जल से उठा । तब उपाध्याय ने उसका उद्दालक नामकरण किया । आरुणि दिव्य जल के क्षय को लेटकर कैसे रोक सकता है, इसके लिए तैत्तिरीय आरण्यक १.२६.१ का वर्णन संदर्भ के अनुरूप है । इसके अनुसार अरुणकेतु की प्रतिष्ठा पूर्व दिशा में करने से सूर्य की प्रतिष्ठा होती है, दक्षिण में करने से अग्नि की, पश्चिम में करने से वायु की, उत्तर में करने से इन्द्र की, मध्य में करने से पूषा की, ऊपर की दिशा में करने से देवों, मनुष्यों, पितरों, गन्धर्वों और अप्सराओं की प्रतिष्ठा होती है । अतः आवश्यकता अनुसार ऊर्ध्व दिशा की प्रगति को रोककर क्षैतिज दिशाओं में विकास करना होता है ।
पुराणों में आरुणि के दर्शन पर व्याध की हिंसा वृत्ति समाप्त होने की कथा को समझने के लिए साधना में तथा तदनुरूप संवत्सर चक्र में अरुण के प्राकट्य को समझ लेगा उपयोगी होगा । ऋग्वेद १.७३.७(त्वे अग्ने सुमतिं भिक्षमाणा दिवि श्रवो दधिरे यज्ञियासः । नक्ता च चक्रुरुषसा विरूपे कृष्णं च वर्णमरुणं च सं धुः ॥) व ८.७३.१६(अरुणप्सुरुषा अभूदकर्ज्योतिरृतावरी । अन्ति षद्भूतु वामवः ॥) इत्यादि के अनुसार अरुण का प्राकट्य सर्वप्रथम उषा काल के साथ होता है । उसके पश्चात् आरोहण करते हुए सूर्य को भी अथर्ववेद १३.३.३६ तथा ऋग्वेद १.९२.२ (उदपप्तन्नरुणा भानवो वृथा स्वायुजो अरुषीर्गा अयुक्षत । अक्रन्नुषासो वयुनानि पूर्वथा रुशन्तं भानुमरुषीरशिश्रयुः ॥) में अरुण सुपर्ण कहा गया है । तैत्तिरीय आरण्यक १०.६३.१ में प्रजापति आरुणि सुपर्णेय को मोक्ष प्राप्ति हेतु सत्य, तप, दम, शम आदि का उपदेश देते हैं । तैत्तिरीय संहिता ४.५.१.२ के सार्वत्रिक मन्त्र असौ यः ताम्रो अरुणः उत बभ्रुः सुमंगलः इति में जिस अरुण का उल्लेख है, वह सूर्य का रौद्र रूप ही लगता है । ऋग्वेद ९.४०.२ के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि अरुण के योनि में आरोहण करने के पश्चात् उसका रूप सौम्य हो जाता है । ऋग्वेद ९.७८.४ में सोम के इस रूप को अरुण द्रप्स(अंग्रेजी में ड्रांप) कहा गया है । ऋग्वेद १.१०५.१८ में अरुण रूपी चन्द्रमा या सोम को माया का भक्षण करने वाला(वृक) कहा गया है, जबकि ऋग्वेद १०.१४४.५ में उल्लेख है कि श्येन ने चारु, अवृक अरुण सोम का स्वर्ग से आहरण किया । अरुण सोम का कौन सा रूप वृक है और कौन सा अवृक, यह विचारणीय है । याज्ञिक दृष्टिकोण से हिरण्मय कोश, विज्ञानमय कोश और मनोमय कोश की दैवी त्रिलोकी में चल रहा यज्ञ अध्वर कहलाता है । इसमें हिंसा की आवश्यकता नहीं रह जाती । इसके विपरीत, अन्नमय कोश, प्राणमय कोश और मनोमय कोश की मानुषी त्रिलोकी में चल रहे यज्ञ में असुर शक्तियों की हिंसा की आवश्यकता होती है ।