आवसथ्य
टिप्पणी : श्रौत कार्य में आवसथ्य अग्नि का स्थान आहवनीय अग्नि के उत्तर में और सभ्य अग्नि का दक्षिण में होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.४.६ तथा आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ४.२.१ आदि में कहा गया है कि सभ्य़ अग्नि सभा है जहां यजमान अक्षक्रीडा/द्यूत करता है। सभ्य अग्नि यजमान को अक्षों को विजित करने में सहायता करती है। इसके पश्चात् यजमान आवसथ्य में आकर जीते हुए हिरण्य अक्षों द्वारा ऋत्विजों को अन्न प्रस्तुत करता है। आवसथ्य अग्नि को परिषद कहा गया है(आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ६.३.४) जिसका देवता अहिर्बुध्न्य है जो पार्थिव स्तर के विष को पीकर उसे सोम द्वारा सिंचित करने योग्य बनाता रहता है। यजमान द्वारा आवसथ्य पर प्रस्तुत अन्न कोई साधारण अन्न नहीं है, अपितु दिव्य अन्न है जिसे यजमान या इन्द्र अपनी अक्षों रूपी एकान्तिक साधना द्वारा प्राप्त करता है। इस एकान्तिक साधना के फल का सभी स्तरों पर विस्तार करना है। ऐतरेय उपनिषद १.३.१२ के अनुसार तीन आवसथ हैं जिनका इन्द्र दर्शन करता है। यह तीन कौन से हैं, यह स्पष्ट नहीं है। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.९.४ का कथन है कि आवसथ्य में जिस अन्न का ग्रहण करते हैं, वह वह ऊर्जा है जिसे मनुष्य संचित करता है। सीता का जन्म भी पृथिवी के कर्षण द्वारा हुआ है। अतः वह भी मानवी ऊर्जा का रूप है। इस ऊर्जा का उपभोग अक्षों को विजित करके ही किया जा सकता है। हो सकता है कि अहिर्बुध्न्य अग्नि जिस पार्थिव विष का पान करता है, उस ऊर्जा से वह छाया सीता रूपी ऊर्जा का निर्माण करता हो।
ऐसा प्रतीत होता है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में आवसथ्य का नाम न लेकर केवल आहवनीय के उत्तर में आदि कह कर ही काम चला लिया गया है(उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण १२.९.३.११ - उत्तरेऽग्नौ पयोग्रहान् जुह्वति। उत्तरेऽग्नौ पशून् श्रपयंति(सौत्रामणी याग)।)।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
‘आ-वसथ’ परिवार के निवास-कक्षों और रसोई, भंडार आदि प्रदेश को कहते हैं। भोजन बनाने आदि में काम में लेने के लिए ‘आ-वसथ्य’ अग्नि से अंगारे लिए जाते हैं। - डा. अभयदेव शर्मा, वेद सविता, वर्ष३३/३, फरवरी २०१३, पृष्ठ४०
संदर्भ
*अग्न्युपस्थानम् : एता ह वै देवता – योऽस्ति तस्मिन्वसन्ति – इन्द्रो, यमो, राजा नडो नैषिधः, अनश्नन्त्साङ्गमनः, असन् पांसवः। - - - अथ यदेतत् भस्मोद्धृत्य परावपन्ति, एष एवासन् पांसवः। - मा.श. २.३.२.१
असन् पांसवः – आवसथ्यः, अनश्नन्त्साङ्गमनः - सभ्यः – सायण भाष्य
अग्ने दीदाय मे सभ्य विजित्यै शरदः शतमिति सभ्यम् । अन्नमावसथीयमभिहराणि शरदः शतम् । आवसथे श्रियं मन्त्रमहिर्बुध्नियो नियच्छत्वित्यावसथ्यम् -आपस्तम्बश्रौतसूत्रम् ४.२.१
*सौत्रामणी - देवयोनिर्वा एषः। यदाहवनीयः। तस्यैतावमृतपक्षौ। यावेतावभितोऽग्नी। - - - -उत्तरेऽग्नौ पयोग्रहान् जुह्वति। उत्तरेऽग्नौ पशून् श्रपयंति। पशूनेव तन्मर्त्यान् सतोऽमृतयोनौ दधाति। मर्त्यान् सतोऽमृतयोनेः प्रजनयति। अप ह वै पशूनां पुनर्मृत्युं जयति। नास्मात् यज्ञो व्यवच्छिद्यते। य एवमेतद्वेद। -- - दक्षिणेऽग्नौ सुराग्रहान् जुह्वति। दक्षिणेऽग्नौ पावयंति पवित्राभिस्त्रिषंयुक्ताभिः। पितॄनेव तन्मर्त्यान् सतोऽमृतयोनौ दधाति। मर्त्यान् सतोऽमृतयोनेः प्रजनयति। अप ह वै पितॄणां पुनर्मृत्युं जयति। - - - तद्यदेतावग्नी आहवनीयात् विह्रियेते। तेनाहवनीयौ। अथ यदाहवनीयं पुनर्नाश्नुवाते। तेनानाहवनीयौ। तेनोभौ होमा उपाप्नोति। यश्चाहवनीये। यश्चानाहवनीये। यच्च हुतम्। यच्चाहुतम्। - - - - उत्तरेऽग्नौ पशुभिः पुरोडाशैः पयोग्रहैरिति चरन्ति। यदु चान्यत्। तेन देवानेव तद्देवलोके प्रीणाति। त एनं प्रीताः प्रीणन्ति। - - -दक्षिणेऽग्नौ सुराग्रहान् जुह्वति। दक्षिणेऽग्नौ पावयन्ति पवित्राभिस्त्रिषंयुक्ताभिः। पितॄनेव तत्पितृलोके प्रीणाति। - मा.श. १२.९.३.११
*आवसथ्याधानं दारकाले। दायाद्यकाल एकेषाम्। वैश्यस्य बहुपशोर्गृहादग्निमाहृत्य। चातुष्प्राश्यपचनवत्सर्वम्। अरणिप्रदानमेके। ०००००० - पारस्कर गृह्य सूत्र १.२.१