बस्त/बकरा
टिप्पणी : पुराणों में सार्वत्रिक रूप से शिव द्वारा दक्ष यज्ञ विध्वंस की कथा आती है जिसमें दक्ष के सिर का अग्नि में होम कर दिया जाता है और फिर दक्ष को जीवित करने के लिए उस पर बस्त/बकरे का सिर लगाया जाता है । कहीं - कहीं बकरे के बदले मेष का सिर लगाने का भी उल्लेख है । दक्ष के यज्ञ के विध्वंस होने का मूल कारण यह है कि वह अपने जामाता शिव से रुष्ट है कि शिव अशुचि अवस्था में रहता है, श्मशान वासी है, कपाली है आदि । दूसरी ओर शिव भी अपने श्वसुर दक्ष का आदर नहीं करते । दक्ष यज्ञ में जो ब्राह्मण शिव का पक्ष लेते हैं, उन्हें दक्ष वेद - बाह्य होने का शाप देते हैं । ब्राह्मण भी दक्ष के यज्ञ के ध्वंस का शाप देते हैं । वास्तविकता यह है कि दक्ष की स्थिति तो वेद के स्तर पर, श्रुति के स्तर पर ही प्राप्त हो सकती है । स्मृति के स्तर पर दक्षता नहीं प्राप्त हो सकती । स्मृति के स्तर पर पाप, दोष विद्यमान रहते हैं जिनका शोधन शिव के द्वारा ही संभव है ( दूसरी ओर, ऋग्वेद की ऋचाओं के अनुसार दक्ष की प्राप्ति हरि योग द्वारा होती है ) । दक्षता को आधुनिक विज्ञान में तापगतिकी के द्वितीय सिद्धान्त के अनुसार इस प्रकार समझा जा सकता है कि किसी यन्त्र के लिए, जो एक प्रकार की ऊर्जा का दूसरे प्रकार की ऊर्जा में रूपान्तरण कर रहा है, यह असम्भव है कि वह एक ऊर्जा को १०० प्रतिशत दूसरी ऊर्जा में रूपान्तरित कर दे । उस ऊर्जा का कुछ न कुछ भाग तीसरे प्रकार की ऊर्जा में व्यर्थ चला जाता है । उदाहरण के लिए, यदि एक पंखा विद्युतीय ऊर्जा को यान्त्रिक ऊर्जा में बदल रहा है तो उस विद्युतीय ऊर्जा का कुछ न कुछ भाग तापीय ऊर्जा में भी व्यर्थ चला जाता है । लेकिन वेद के ऋषि एक ऐसी दक्षता की बात भी करते हैं जहां १०० प्रतिशत दक्षता प्राप्त करना संभव है । वह स्थिति तब आ सकती है जब मनुष्य की चेतना जड स्तर से ऊपर उठ जाए, जहां ऐसी स्थिति आ जाए कि जैसे ही कोई विचार मन में आया, वह कल्प वृक्ष की भांति कार्य में परिणत हो गया । योग में कहा जाता है कि विशुद्धि चक्र में सारी जडता समाप्त हो जाती है, वहां वर्णमाला के व्यंजनों का लोप हो जाता है, केवल स्वर रह जाते हैं । लेकिन हमारा जो शरीर जडता में बद्ध है, उसमें दक्षता लाने का क्या उपाय है? इस दक्षता का लेखा - जोखा बस्त/बकरे के द्वारा लिया गया है । यही कारण है कि दक्ष को बकरे का सिर जोडा जाता है । बस्त का कार्य यह है कि जिस ऊर्जा का रूपान्तरण अवांछित ऊर्जा में हो, वह उसका शोधन कर ले, उसे उपयोगी ऊर्जा में बदल ले । उदाहरण के लिए, हम जो भोजन करते हैं, उससे पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक रसायन उत्पन्न होते हैं और हमारे शरीर में ऐसी प्रक्रिया चलती रहती है कि वह अतिरिक्त ऊर्जा वाले रसायनों को भंडारित करती रहती है । जितनी शर्करा भोजन से बनती है, उस सबका इन्सुलिन नामक रसायन द्वारा भण्डारण हो जाता है । यह बस्त/बकरे का एक पक्ष कहा जा सकता है । जब भण्डारित ऊर्जा को कार्य रूप में परिणत करना होता है तो भण्डारित द्रव्यों से इथाइल एल्कोहल रसायन का निर्माण होता है । इथाइल एल्कोहल के अणु के टूटने पर बहुत थोडी सी ऊष्मा का जनन होता है जो हमारे शरीर के कोशों द्वारा ग्रहण कर ली जाती है । इस स्तर पर दक्षता में वृद्धि किस प्रकार संभव है, यह अन्वेषणीय है । लेकिन वैदिक साहित्य का बस्त केवल देह के स्तर तक की दक्षता तक सीमित नहीं है । वह इससे भी आगे जाता है । वह बस्त ऐसा होना चाहिए कि देह के स्तर पर तो दक्षता आए ही, उससे आगे देवताओं को भी वहां से हवि मिलना आरम्भ हो जाए ।
ऋग्वेद की ऋचाओं में बस्त शब्द तो एक - दो बार ही प्रकट हुआ है, वहां वस्त, वस्तो: शब्द पर्याप्त मात्रा में प्रकट हुआ है । वैदिक निघण्टु में वस्तो: का वर्गीकरण अह नामों के अन्तर्गत किया गया है । अतः ऋग्वेद की ऋचाओं के सायण भाष्य में वस्तो: का सीधा अर्थ दिन कर दिया गया है । लेकिन भाष्यकार को ऐसा करते हुए सन्देह अवश्य रहा है क्योंकि कुछ एक ऋचाओं के भाष्य में इस तथ्य को भी इंगित किया गया है कि वस्तो: शब्द में षष्ठी विभक्ति है और तदनुसार इसका अर्थ 'वस्त का' होना चाहिए । ऋग्वेद की ऋचाओं में प्रायः 'दोषा वस्तो:' शब्द प्रकट होता है ( उदाहरण के लिए, ऋ. १.१०४.१, १.१७९.१ आदि ) । चूंकि दोषा का वर्गीकरण वैदिक निघण्टु में रात्रि नामों के अन्तर्गत किया गया है, अतः दोनों शब्दों का भाष्य रात - दिन कर दिया गया है ।
ऋग्वेद की ऋचाओं में केवल एक ऋचा १.१६३.१३ (श्वानं बस्तो बोधयितारमब्रवीत् इति ) में प्रत्यक्ष रूप से बस्त का उल्लेख हुआ है, अन्यथा सभी ऋचाओं में वस्त शब्द आता है । इसके सायण भाष्य में बस्त का अर्थ वस् (आच्छादने) धातु के आधार पर 'सर्वस्य वासयिता आदित्य' किया गया है । इसी प्रकार ऋग्वेद ६.४.२ (स नो विभावा चक्षणिर्न वस्तो: ) में वस्तो: का अर्थ सूर्य किया गया है । लेकिन सिन्धु मुद्राओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बस्त आदित्य नहीं है, अपितु आदित्य का कोई पूर्व रूप हो सकता है । जैसे सूर्य के पूर्व उषा प्रकट होती है, वैसे ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ऋग्वेद में वस्त की उषा को दोषा नाम दिया गया है । अतः ऋग्वेद की ऋचाओं में जहां - जहां भी दोषा वस्तो: शब्द प्रकट हुआ है, उसे इसी अर्थ में लिया जा सकता है । ऋग्वेद ७.१०.२ में कहा गया है कि वस्त का स्व: उषाओं में चमका । स्व: वह अवस्था होती है जहां कोई जडता, कोई अहंकार शेष नहीं रहता, सब पवित्र हो जाता है । उस समय वस्त की दोषा उषाओं के तुल्य होगी । बस्त के संदर्भ में उक्त अनुमान की पुष्टि छान्दोग्य उपनिषद के आधार पर भी हो सकती है जहां कहा गया है कि अज अवस्था सूर्योदय से पूर्व की अवस्था है, अवि सूर्योदय की, गौ मध्याह्न की, अश्व सायाह्न की और पुरुष अस्त की । शतपथ ब्राह्मण २.३.४.२८ से संकेत मिलता है कि वैदिक साहित्य में दोषा - वस्तो: अवस्था को गार्हपत्य अग्नि का रूप दिया गया है ।
सायण भाष्य में प्रायः वस्त की निरुक्ति वस् - आच्छादने धातु के आधार पर की गई है । उदाहरण के लिए, सूर्य अपने तेज द्वारा आच्छादन करता है, अग्नि अपने भास द्वारा ( भासांसि वस्ते सूर्यो न शुक्र: ( ऋ. ६.४.३) । काशकृत्स्न धातु कोश में वस्त धातु अर्दने(प्रेरणे?) अर्थ में दी गई है जिसका अर्थ हिंसा, प्रार्थना, अभीप्सा आदि होता है । शांखायन श्रौत सूत्र १५.१२.३ में राजसूय याग के संदर्भ में भार्गव होता द्वारा ऐन्द्रापूषण बस्त की इष्टि करके यागदीक्षा लेने का निर्देश है । यह संकेत करता है कि बस्त में देवों को यज्ञीय अग्नि की भांति आह्वान करने का कोई गुण विद्यमान है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १८.२१.७ में राजसूय के संदर्भ में सुब्रह्मण्य ऋत्विज हेतु बस्त दक्षिणा का निर्देश है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १७.१९.६ में अग्निचयन के संदर्भ में राजन्य हेतु व्याघ्र चर्म, वैश्य हेतु बस्ताजिन, ब्रह्मवर्चसकामी हेतु कृष्णाजिन, पुष्टिकामी हेतु बस्ताजिन आदि का उल्लेख है । बौधायन श्रौत सूत्र २.५.४ में 'बस्ते मे अपमर्या' कथन उपलब्ध होता है । कात्यायन श्रौत सूत्र ८.९.१ में आतिथ्येष्टि के संदर्भ में त्वाष्ट्र बस्त का उत्सृजन करने का निर्देश है । त्वष्टा कार्य रूप में परिणत करने वाला, देह के स्तर का देव है । वह आसुरी भी हो सकता है, दैवी भी ।
सिन्धु घाटी की मुद्राओं का बस्त वैदिक तथ्यों को आकृतियों के रूप में स्पष्ट करता है । एक मुद्रा संख्या २५१६ में एक बकरे के मुख के सामने एक तीरनुमा नांद रखा है जो ष अक्षर का संकेतक है और उसकी पीठ पर पुच्छ के समीप ड लिखा है । इस लेख का अर्थ इस प्रकार समझा जा सकता है कि ष अक्षर ऊष्माण है, अर्थात् देह में जो क्रियाएं ऊष्मा उत्पन्न करती हैं, ष अक्षर उनका द्योतक है । यह ऊष्मा ही हमारी सारी क्रियाओं को संचालित करती है, ऊष्मा के कारण ही हम जीवित रह पाते हैं । लेकिन योग में यह संभव है कि इस ऊष्मा का रूपान्तरण इस प्रकार कर दिया जाए कि यह ऊर्जा देह के व्यापारों को चलाने के बदले चेतना के ऊर्ध्वमुखी विकास में लग सके । देह के स्तर पर उतनी ही ऊष्मा शेष रहे जितनी आवश्यक है । उदाहरण के लिए, जब हम कोई शारीरिक श्रम करते हैं, तो अतिरिक्त ऊष्मा जनन के कारण स्वेद उत्पन्न हो जाता है, जब भ्रमण करते हैं तो पैरों में अतिरिक्त ऊष्मा का जनन हो जाता है । सिन्धु मुद्रा में यह बताया गया है कि बकरा/बस्त इस ऊष्मा का भक्षण करके उसे 'ड' में रूपान्तरित करता है । यह उल्लेखनीय है कि पूरे वैदिक साहित्य में ट वर्ग से आरम्भ होने वाले शब्दों का प्रयोग नहीं के बराबर हुआ है । ऐसा क्यों है, यह अन्वेषणीय है । डा. राघवप्रसाद चौधरी द्वारा लिखित पुस्तक 'पाञ्चरात्र आगम' ( बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १९८७ई.) में सनत्कुमार संहिता का निर्देश देते हुए कहा गया है कि ट वर्ग इन्द्रियों के विषयों क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध से सम्बद्ध है । च वर्ग इन्द्रिय है तो ट वर्ग उसका विषय है । इस प्रकार मुद्रा २५१६ में ष , ड का उल्लेख व्यर्थ ऊष्मा से 'रूप' में रूपान्तरण हो सकता है । अग्नि पुराण ३४८ में उपलब्ध एकाक्षर कोश से प्रतीत होता है कि वर्णमाला में ट, ठ, ड, ढ और ण वर्ण चन्द्रमा से, सोम से सम्बन्धित हैं ( एकाक्षर कोश के अनुसार ड रुद्र, ध्वनि और त्रास अर्थ में है ) ।
मुद्रा संख्या ९२०४ में बकरे के मुख के नीचे ण संकेताक्षर वाला पात्र रखा है ? जबकि बकरे के ऊपर ठ संकेताक्षर वाला चिह्न है । यह संकेत करता है कि बकरा ण का रूपान्तर ठ में करता है । ठ चन्द्र मण्डल का प्रतीक है । ण को अग्निपुराण के एकाक्षर कोश में निश्चय अर्थ में प्रयुक्त होने वाला कहा गया है, जबकि न को वृन्द अर्थ में । जैसा कि डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने स्पष्ट किया है, वृन्द अवस्था प्रकृति की वह अवस्था है जहां वह चार कदम प्रगति करती है और फिर चार कदम पीछे की ओर लौट आती है । इस प्रकार कुल प्रगति शून्य हो जाती है । इसके विपरीत, ण अवस्था निश्चय की अवस्था है जहां कोई आकस्मिकता, चांस शेष नहीं रहता । बस्त/बकरे में यह शक्ति है कि वह इस स्थिति से ऊपर उठाकर चन्द्रमण्डल की ठ स्थिति तक पहुंचा सकता है । सिन्धु मुद्रा संख्या २५६५ में क्रमशः ण और ध प्रकट हुए हैं ( अर्थात् ठ के स्थान पर ध) । ध का अर्थ धन या धारण करने की सामर्थ्य लिया जा सकता है । अन्य मुद्राओं में ण और ट, ठ, ड आदि प्रकट हुए हैं ।
मुद्रा संख्याओं १८०३, ३३०३, ३३७३ आदि में नु ढ बु द्र ष र ध अथवा न ढ बु द्र ष र ध अथवा णु ढ बु द्र ष र ध चिह्न प्रकट हुए हैं । यदि न को वृन्द अर्थ में लें तो नु ढ का अर्थ ऐसा मान सकते हैं कि नु अव्यवस्था से व्यवस्था की ओर अग्रसर होने (एण्ट्रांपी के घटने ) का संकेत है । ढ इसी संदर्भ का आज्ञा सूचक चिह्न हो सकता है । बु चिह्न के संदर्भ में, बि को अग्नि पुराण में पक्षी कहा गया है । मिस्र की सभ्यता में इसे आत्मा का रूप दिया गया है । द्र का अर्थ है द्रवीभूत होना, भेदन करना । इस प्रकार इस मुद्रा को अग्निचयन प्रक्रिया का प्रतीक मान सकते हैं जहां पहले अग्नि का विभिन्न चितियों/परतों में चयन किया जाता है और फिर उसको एक श्येन का रूप दे दिया जाता है जो आकाश में उडने में समर्थ है । इससे आगे ष को उष्मा का, र के व्यवस्थित ऊर्जा का और ध को धारण करने का प्रतीक मान सकते हैं । यह उल्लेखनीय है कि मुद्रा संख्या १८०३ आदि में मुद्रा के एक पार्श्व में बस्त का चिह्न है, दूसरे पार्श्व में लेख है ।
ऋग्वेद की ऋचाओं में प्रति वस्त भी प्रकट हुआ है ( जैसे २.३९.३, ४.४५.५, ६.३.६, । अर्थ अन्वेषणीय है ।
सिन्धु मुद्राओं में बकरे के चित्र पर जो लेख प्रकट हुए हैं, वह नीचे दिए गए हैं -
मुद्रा संख्या लेख(दांये से बांये पठन )
१७०१ ष ध म णु
१७०२ ष पौ X म णु X
१८०१ बस्त आकृति (एक पार्श्व)
ष ध म णु (दूसरा पार्श्व )
१८०३ बस्त आकृति (एक पार्श्व )
ध र ष द्र बु ढ णु (दूसरा पार्श्व )
२५१६ ड
ष
२५६५ ध
ण
२८५१ च न X न ष र क/ह(एक पार्श्व)
ष क पु ( दूसरा पार्श्व, बस्त की आकृति सहित )
२८५५ च न X न ष र क/ह (एक पार्श्व )
X ष पु(दूसरा पार्श्व )
अस्पष्ट प्राणी का चित्र (तीसरा पार्श्व )
३३०३ ध र ष द्र बु ढ नु(एक पार्श्व )
बस्त आकृति (दूसरा पार्श्व )
३३४५ ष ध म णु (एक पार्श्व )
बस्त आकृति (दूसरा पार्श्व )
३३५७ च ष ग्र ध ? व(एक पार्श्व )
बस्त आकृति (दूसरा पार्श्व )
३३७३ ध र ष द्र बु ढ न (एक पार्श्व )
बस्त आकृति (दूसरा पार्श्व )
३४०५ ष पौ म णु (एक पार्श्व )
बस्त आकृति (दूसरा पार्श्व )
४६०१ ब्र ह च?, बस्त की आकृति सहित, लेख पठन बांए से दांए(एक पार्श्व )
ग व, बस्त की आकृति सहित(दूसरा पार्श्व )
५३२९ ., बस्त की आकृति सहित (एक पार्श्व )
X ह न्द ल प (दूसरा पार्श्व )
६४०२ बस्त आकृति ; श र उ च व पै X(प्रथम पंक्ति )
ह म (द्वितीय पंक्ति)
चि रा उ ( तृतीय पंक्ति )
८०४२ न, बस्त की आकृति सहित
८०५२ न, बस्त की आकृति सहित
९२०४ बस्त आकृति, ठ(प्रथम पंक्ति )
ण (द्वितीय पंक्ति )
बनवाली (पारपोला, आठ पार्श्वों वाली घनाकार मुद्राएं)
B - ८ बस्त आकृति, बस्त की पीठ पर ष म
B - ९ बस्त आकृति, पीठ पर णु ट
णु?
B - १२ बस्त आकृति, ढ
बनवाली ठ
ण
बनवाली ट
M - ५७८ ष पै बु ढ (एक पार्श्व )
बस्त आकृति (दूसरा पार्श्व )
B - २३ बस्त आकृति, चि राउ , पै इत्यादि(एक पार्श्व )
जहाज की आकृति?(दूसरा पार्श्व )