इन्द्रकील
टिप्पणी : कील धातु बन्धन के अर्थ में आती है, आसुरी शक्तियों का बन्धन करना। कील से उच्च अवस्था है कीर, कीर्तन करना। शत्रुओं को कीलित करनेके रूप में अर्जुन मूक असुर का वध करता है। मूक अर्थात् वह अवस्था जो कीर्तन करने में असमर्थ है। अथवा ऐसा भी कहा जा सकता है कि कीर्तन से पूर्व मूक अवस्था प्राप्त करना आवश्यक है जिसमें आसुरी शक्तियां बाधक हैं। ऋग्वेद की ऋचाओं में कीरः और कीरःचित् यह दो शब्द आते हैं जिनमें से कीरःचित् का प्रयोग अधिक हुआ है। अग्नि, इन्द्र, विष्णु, बृहस्पति, अश्विनौ आदि का यजन कीरिचित् होकर करने पर साधक को आध्यात्मिक धन प्राप्त होते हैं(उदाहरणार्थ, ऋग्वेद ७.९७.१०)। पुराणों में अर्जुन के समक्ष ईशान शिव के कल्याणकारी रूप के प्रकट होने से पूर्व शिव के किरात रूप के प्रकट होने की कथा से यह संकेत मिलता है कि कील और कीर (शाब्दिक अर्थ शुक या तोता पक्षी) के बीच में किरात की अवस्था और है। किर धातु विक्षेप अर्थात् साधना में प्रकट हुए विघ्नों के निराकरण के अर्थों में आती है(उदाहरणार्थ, ऋग्वेद १.३२.१३ में उल्लेख है कि इन्द्र को मिह/वर्षा और ह्रादुनी भी विचलित नहीं कर सके)। पौराणिक कथा में अर्जुन के समक्ष पहले इन्द्र और फिर ईशान शिव के प्रकट होने के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि वैदिक भाषा में ईशान शिव इन्द्र का ही विकसित रूप है(द्रष्टव्य : ऋग्वेद ७.२१.८)।
कील शब्द पर विचार करते समय मन्त्रों के कीलित होने के संदर्भों पर भी विचार करना उपयुक्त होगा। शुक रहस्योपनिषद १.१८ में पहले सोहं(प्राणों की पराक् और अर्वाक् गति) को कीलक कहा गया है। उसके पश्चात् सौः को तथा अन्त में परमात्मा को। यह शरीर में मूलाधार आदि चक्रों के प्रतीक भी हो सकते हैं। त्रिपाद् विभूति महानारायणोपनिषद ५.१२ में विभिन्न लोकों की यात्रा के संदर्भ में ऋषिलोक में सूर्य व सोम मण्डलों में जाकर वहां कीलक नारायण का ध्यान करके ध्रुव मण्डल का दर्शन करके फिर शिंशुमार चक्र का दर्शन करने का उल्लेख है। नारायण पूर्वतापिन्युपनिषद ४.१७ तथा तुलस्युपनिषद ७०.३ में भी नारायण को कीलक कहा गया है। पीताम्बरोपनिषद ४२२.२ तथा वनदुर्गोपनिषद ४३६.१४ में जिह्वा को कीलक कहा गया है। अतः यह कहा जा सकता है कि कीलक अवस्था पराक्-अर्वाक् गति से क्रमशः ध्रुव अवस्थाओं को प्राप्त करने की अवस्थाएं हैं। ऋग्वेद ७.१००.४ में कीर साधक के ध्रुव होने का उल्लेख है। अथर्ववेद ४.११.१० में एक ऐसे अनड्वान् (प्राण का प्रतीक) की कल्पना की गई है जो एक कील(कीलाल) के चारों ओर घूम रहा है और उसके पीछे-पीछे कृषक चल रहा है। इसी मन्त्र का दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि अनड्वान श्रम से ही कीलाल अवस्था को प्राप्त करता है। कीलाल का सामान्य अर्थ अन्न रस किया जाता है जिसका देवगण पान करते हैं। ऋग्वेद १०.९१.१४ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.१.२ में अग्नि को कीलाल का पान करने वाला तथा सोम पृष्ठ वाला कहा गया है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.