इन्द्रजाल
टिप्पणी : अमरकण्टक शब्द की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि मर्त्य स्तर पर तृषा, क्रोध, काम आदि अग्नि की जो ज्वालाएं हैं, वह साधना में तुरीयावस्था को प्राप्त करने पर शान्त होकर जाल या जल बन जाती हैं। अथर्ववेद ८.८.५ में इन्द्र के जाल का वर्णन किया गया है जिसकी सहायता से वह असुरों को वश में करता है। इस सूक्त में इन्द्र के जाल को बृहत् तथा अन्तरिक्ष आदि कहा गया है। जैमिनीय ब्राह्मण १.१३५ के अनुसार बृहत् जाल की साधना से पूर्व रथन्तर की साधना करनी पडती है। रथन्तर द्वारा अन्न प्राप्त होता है जो रथ रूपी अशना/क्षुधा को शान्त करता है। रथन्तर तथा अन्तरिक्ष आदि को स्व-निरीक्षण, अपने अन्दर प्रवेश करना, एकान्तिक साधना का प्रतीक कहा जा सकता है। योगवासिष्ठ में राजा लवण का आख्यान यह संकेत करता है कि एकान्तिक साधना में तो वासनाएं अपना सिर नहीं उठाती, लेकिन जब अश्व पर आरूढ होकर बृहत् की साधना करनी होती है तो अतृपत् पडी सारी वासनाओं का सामना करना पडता है। यह वासनाएं दिव्य ज्ञान की मांग करती हैं। आख्यान में यही चाण्डाल कन्या हो सकती है। आख्यान के अनुसार जब राजा लवण ने चाण्डाली-पुत्रों की क्षुधा शान्ति हेतु स्व-शरीर का परित्याग करने का निश्चय कर लिया तो शाम्बरिक द्वारा उत्पन्न इन्द्रजाल अदृश्य हो गया। अतः यह कहा जा सकता है कि योगवासिष्ठ में इन्द्रजाल के आख्यान के माध्यम से जाल अवस्था से पूर्व रथन्तर की साधना को दर्शाया गया है। इसे इन्द्रजाल का पूर्व रूप कहा जा सकता है। इन्द्रजाल का उत्तर रूप क्या होगा, यह अथर्ववेद ८.८.५ के आधार पर अन्वेषणीय है। शब्दकल्पद्रुम कोश में इन्द्रजाल शीर्षक के अन्तर्गत इन्द्रजालतन्त्र नामक पुस्तक को उद्धृत किया गया है जिसमें इन्द्रजाल के अधिपति जालेश रुद्र का उल्लेख आया है। अथर्ववेद ६.५७.२ में जालाष को उग्र भेषज कहा गया है जो तन, मन सबकी चिकित्सा करती है। अथर्ववेद १९.१०.६ के शम्/शान्ति सूक्त में इन्द्र से वसुओं के द्वारा शान्ति करने, वरुण से आदित्यों के द्वारा व जलाष रुद्र से रुद्रों के द्वारा शान्ति करने की कामना की गई है। ऐसा कहा जा सकता है कि जल का चिकित्सा करने वाली ओषधि के रूप में परिणत होना इन्द्रजाल से उच्चतर स्थिति है।
महोपनिषद ४.४७ में इन्द्रजाल से मुक्ति पाने के संदर्भ में कहा गया है कि द्रष्टा व दृश्य का अलग-अलग आभासित होना ही जगत में इन्द्रजाल का प्रतीक है। यह इन्द्रजाल मन के कारण ही विस्तार पाता है और जब तक यह विद्यमान है, तब तक मोक्ष नहीं मिल सकता।
जाल के संदर्भ में पौराणिक साहित्य में जालन्धर का वर्णन उल्लेखनीय है जो योग साहित्य में जालन्धर बन्ध का प्रतीक है। भस्मजाबालोपनिषद २.२५ में चार जालों वाले ब्रह्मकोश का उल्लेख है। महोपनिषद ६.३२ में तृष्णा रूपी शबरी व वासना के जाल को तीक्ष्ण बुद्धि की शलाका से इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर देने का निर्देश है जैसे वायु जल के जाल को छिन्न-भिन्न कर देती है। कात्यायन श्रौत सूत्र ७.४.७ में यज्ञ में यजमान-पत्नी के सिर पर तीन पर्यायों वाला जाल बांधने का निर्देश है। इसके अतिरिक्त, हाथ व पैरों की अंगुलियों के बीच की त्वचा का बत्तख पक्षी के पादों की भांति, जाल की भांति होना बुद्धत्व के लक्षणों में आता है। यास्क निरुक्त ६.२७ में मधु के जाल में विचरण करने वाले मत्स्यों के जाल-बद्ध हो जाने का उल्लेख है।
शतपथ ब्राह्मण ३.३.२.१७ आदि में सार्वत्रिक रूप से सुब्रह्मण्या निगद का वर्णन आता है।सोम-क्रय करने के समय यज्ञ के उच्छिष्ट फेंकने वाले गर्त में बैठ कर इन्द्र का आह्वान किया जाता है कि अहल्या के जार इन्द्र, हमारे आह्वान पर आओ। इन्द्र के अहल्या का जार होने की व्याख्या के बारे में विभिन्न कल्पनाएं की गई हैं। डा. फतसिंह का विचार है कि जरा, जार आदि जॄ- स्तुति धातु से सम्बन्धित हैं। ऐसा भी संभव हो सकता है कि इन्द्र के जार बनने की अवस्था इन्द्रजाल से उच्चतर अवस्था का प्रतीक हो। निम्नतर स्थिति में वासनाओं की कामना इन्द्र को प्राप्त करने की थी। उच्चतर स्थिति में गौतम की पत्नी अहल्या और इन्द्र दोनों ही एक दूसरे से मिलन की कामना करते हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.४.४.१ के अनुसार संधि होना ही जार होना है। ऋग्वेद की ऋचाओं में अग्नि, अश्विनौ, सोम आदि को भी जार कहा गया है। ऋग्वेद १०.७.५ में अग्नि को अध्वर का जार कहा गया है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.