इन्द्राग्नि
टिप्पणी : ऋग्वेद में १.२१, १.१०८, १.१०९, ३.१२, ५.८६, ६.५९, ६.६०, ७.९३, ७.९४, ८.३८, ८.४०, १०.१६१ आदि सूक्त इन्द्राग्नि-द्वय देवता के हैं। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि वेद में अग्नि और इन्द्र देवताओं को मिलाकर इन्द्राग्नी का नामकरण करने से किस उद्देश्य की पूर्ति की गई है। यज्ञ कार्य में तीन सवन होते हैं – प्रातःसवन, माध्यन्दिन सवन और तृतीय या सायंसवन। प्रातःसवन में अग्नि का विकास होता है, माध्यन्दिन में इन्द्र का और तृतीय में विश्वेदेवों का। यह सामान्य स्थिति है। लेकिन यदि अग्नि और इन्द्र का विकास चरम सीमा तक हो जाए, पुराणों की भाषा में इन्द्र वृत्र का वध कर दे और अग्नि इतनी प्रबल हो जाए कि वह(हिरण्यय कोश के?) जल में छिपे हुए इन्द्र को खोजने के लिए जल में प्रवेश करने में समर्थ हो जाए, तो तृतीय सवन में विश्वेदेवों का स्थान इन्द्राग्नी ले लेते हैं। शतपथ ब्राह्मण २.४.३.६, २.५.४.८, ४.२.२.४, १०.४.१.९ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.१६.३ में अग्नि को ब्राह्मण, इन्द्र को क्षत्रिय तथा विश्वेदेवों को विशः या प्रजा कहा गया है। अग्नि का ब्राह्मण स्वरूप कैसा होगा, इस विषय में ऋग्वेद की प्रथम ऋचा अग्निमीळे पुरोहितम् इत्यादि उल्लेखनीय हैं। पुरोहित क्षत्रिय यजमान के विकास में सहायता करता है। पद्म पुराण ५.८४.८४ के अनुसार अग्नि ज्वाला से कर्मों को जलाकर विषयों को काला बना देना है। वैदिक भाषा में अग्नि का कार्य मुख्य रूप से यजमान द्वारा अर्पित हवि को देवताओं तक पहुंचाना तथा गायत्री सुपर्ण बन कर स्वर्ग से सोम लाना होता है। इन्द्र का कार्य वृत्र आदि शत्रुओं का वध करना तथा अग्नि द्वारा प्रस्तुत हवि का सेवन करना, अपनी इन्द्रियों द्वारा उस हवि में मधु की अनुभूति करना होता है। इन्द्राग्नि का स्वरूप कैसा होगा, इस संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१.१.११ तथा तैत्तिरीय संहिता ४.४.१०.२ आदि में विशाखा नक्षत्र के देवता के रूप इन्द्राग्नि-द्वय का उल्लेख आता है। इन्द्राग्नि से सम्बन्धित वैदिक ऋचाओं में विशाखा का नाम नहीं आता, अतः प्रश्न उठता है कि इन्द्राग्नि और विशाखा में क्या सामञ्जस्य है? इसका उत्तर तैत्तिरीय ब्राह्मण में विशाखा नक्षत्र के राधा उपनाम से मिलता है। विशाखा नक्षत्र के पश्चात् अनुराधा नक्षत्र आता है। अनुराधा से पूर्व के नक्षत्र को राधा नाम दिया गया है और वैदिक ऋचाओं में इन्द्राग्नि के संदर्भ में राधा या राधस् शब्द का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है(यद्यपि इन्द्राग्नि ललिता देवी के सहस्रनामों में से एक है, किन्तु यह उल्लेखनीय है कि पुराणों में ललिता, विशाखा व राधा के अपने विशिष्ट स्थान हैं)। इस प्रकार इन्द्राग्नि देवता के स्वरूप को समझने के लिए विशाखा नक्षत्र के स्वरूप को समझने की आवश्यकता है(द्र. विशाखा शब्द पर टिप्पणी)। पद्म पुराण ५.८४-५.१०३ में वैशाख मास महात्म्य का वर्णन है(वैशाख मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा की स्थिति विशाखा नक्षत्र के निकट होती है, जबकि इस मास में सूर्य मेष राशि में रहता है)। वैशाख मास में मधु दैत्य के हनन के पश्चात् जलशायी विष्णु/माधव की महिमा का गुणगान किया गया है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि सारा जीवन विष्णुमय, यज्ञमय हो गया है तथा यज्ञ में माधुर्य में जो मधु दैत्य रूपी आसुरी तत्त्व था, वह नष्ट हो गया है। यह स्थिति वैदिक साहित्य के तृतीय सवन का वर्णन करती है जहां इन्द्र मधु की अनुभूति करने में समर्थ होता है। तैत्तिरीय संहिता १.६.२.४, १.६.११.६ तथा बौधायन श्रौत सूत्र ३.१८.१७ में इस स्थिति की इन्द्राग्नि को इन्द्रियावी तथा अन्नाद, अन्न का भक्षण करने वाली कहा गया है। जैमिनीय ब्राह्मण २.१३२, २.१३३ व शांखायन श्रौत सूत्र १४.२९ आदि में इस अवस्था का वर्णन इन्द्राग्नि के कुलाय अर्थात् मधु के छत्ते के रूप में किया गया है।
पद्म पुराण में वैशाख मास में अश्वत्थ वृक्ष का सिंचन करने तथा विष्णु को तुलसी पत्र अर्पित करने का निर्देश है। इसका अर्थ होगा कि अश्वत्थ वृक्ष और तुलसी वृक्ष ही विशाखाएं हैं जिनके मूल में, हिरण्यय कोश में(द्र. शतपथ ब्राह्मण १०.४.१.६) विष्णु शयन कर रहे हैं। हिरण्यय कोश में जल ही जल है, मधु ही मधु है जिसका निचले कोशों में अवतरण कराना होता है, उसे अश्वत्थ और तुलसी वृक्षों का रूप देना होता है। पद्म पुराण ५.९४.७५ में मुनिशर्मा नामक ब्राह्मण को पर्युषित, सूचक आदि प्रेतों के दर्शन होते हैं। पर्युषित नामक प्रेत के पर्युषित नाम का कारण यह है कि पूर्व जन्म में वह स्वयं तो स्वादिष्ट भोजन करता था तथा दूसरों को पर्युषित/बासी भोजन देता था। हिरण्यय कोश से जिस मधु का अवतरण होता है, उसे नित्यप्रति नया करने की आवश्यकता है, हिरण्यय कोश में पहुंच कर उस मधु के अवतारण की आवश्यकता है, अन्यथा वह बासी हो जाएगा। शतपथ ब्राह्मण ४.३.१.२३, गोपथ ब्राह्मण २.२.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.४.३ आदि में इन्द्राग्नि को प्राणापानौ अथवा प्राणोदानौ कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण ५.३.३.८ में इन्द्राग्नि को वृषभ/अनड्वान् कहा गया है। इसका सामान्य अर्थ यह लिया जाता है कि यह प्राणों की पराक् और अर्वाक् गति का प्रतीक है। लेकिन पुराणों का उपरोक्त आधार इसकी अद्भुत व्याख्या प्रस्तुत करता है। वैदिक साहित्य में मित्रावरुणौ देवता-द्वय आदि के लिए भी प्राणापानौ आदि गतियों का उल्लेख आया है। लेकिन मित्रावरुण की स्थिति वरुण के पाश खुलने के पश्चात् मित्र द्वारा अनुग्रह की स्थिति है, जबकि इन्द्राग्नि की स्थिति वरुण के पाश खुलने और वृत्र का वध होने के पश्चात् यज्ञ के विष्णुमय होने की स्थिति है।
यजुर्वेद १२.५४ तथा तैत्तिरीय संहिता ४.२.९.४, ५.७.६.३ आदि में इन्द्राग्नि और बृहस्पति का साथ-साथ उल्लेख आया है। शतपथ ब्राह्मण ८.७.२.६ आदि में इन्द्राग्नि और बृहस्पति को अलग-अलग माना गया है लेकिन तैत्तिरीय संहिता ५.५.६.२ के अनुसार इन्द्राग्नि ही बृहस्पति है(पुराणों में बृहस्पति इन्द्र के पुरोहित हैं)। तैत्तिरीय संहिता ५.७.१५.१ में कटि प्रदेश से नीचे के प्राणों के रूप में इन्द्राग्नि को शिखण्ड तथा इन्द्राबृहस्पति को ऊरु कहा गया है। इसको इस प्रकार समझा जा सकता है कि शिखण्ड अवस्था चेतना की गर्भावस्था है, जबकि ऊरु चेतना की विस्तीर्ण अवस्था है।
शतपथ ब्राह्मण १.८.३.४, २.४.३.५ आदि में अमावास्या के देवता के रूप में इन्द्राग्नि का उल्लेख आता है। वर्णन आता है कि अमावास्या को सूर्य रूपी इन्द्र चन्द्रमा रूपी वृत्र को ग्रस लेता है तथा चन्द्रमा पृथिवी पर ओषधियों आदि में विलीन हो जाता है। वैदिक साहित्य में अमावास्या को इन्द्राग्नि हेतु १२-कपाल पुरोडाश अर्पित करने का उल्लेख आता है जिसका निहितार्थ अपेक्षित है। पुराणों में अमावास्या तथा पूर्णिमा का सम्बन्ध क्रमशः निष्काम और सकाम भक्ति से जोडा गया है।
इन्द्राग्नि के स्वरूप को समझने का तीसरा सूत्र वैदिक साहित्य में अच्छावाक् ऋत्विज की प्रकृति से प्राप्त होता है। शतपथ ब्राह्मण ३.६.२.१२ के अनुसार जब गायत्री ने स्वर्ग से सोम का हरण किया, उस समय सोम की रक्षा का भार अच्छावाक् ऋत्विज पर था। अपने कर्तव्य से च्युति के कारण अच्छावाक् को स्वर्ग प्राप्त नहीं हो सका, लेकिन इन्द्राग्नि की सहायता से वह स्वर्ग प्राप्त कर सका। शतपथ ब्राह्मण ४.३.१.१ में अच्छावाक् ऋत्विज इन्द्राग्नि-द्वय की सहायता से ऋतुओं और संवत्सर को उत्पन्न करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ऋतुएं इन्द्राग्नि के लिए ग्रह अथवा प्रतिष्ठा का स्थान बनती हैं। अच्छावाक् ऋत्विज(द्र. अच्छावाक् पर संक्षिप्त टिप्पणी) की वाक् यज्ञ के अन्त में अनुष्टुप् छन्द की वाक् होती है(जैमिनीय ब्राह्मण १.३१९) जिसके द्वारा प्रकट हुए इष्ट देवता की स्तुति की जाती है।
प्रथम प्रकाशन – १९९४ई.
३.९.२.[१४]
स दक्षिणेन निष्क्रामति । ता दक्षिणायां श्रोणौ सादयतीन्द्राग्न्योर्भागधेयी स्थेति विश्वेभ्यो ह्येना देवेभ्यो गृह्णातीन्द्राग्नी हि विश्वे देवास्ताः पुनराहृत्याग्रेण पत्नीं सादयति स जघनेन पत्नीं पर्येत्य ता आदत्ते – माश ३.९.२.[१४]
यास् ते अग्ने सूर्ये रुच उद्यतो दिवम् आतन्वन्ति रश्मिभिः । ताभिः सर्वाभी रुचे जनाय नस् कृधि ॥ या वो देवाः सूर्ये रुचो गोष्व् अश्वेषु या रुचः । इन्द्राग्नी ताभिः सर्वाभी रुचं नो धत्त बृहस्पते – तैसं ४.२.९.४
यास् ते अग्ने सूर्ये रुच उद्यतो दिवम् आतन्वन्ति रश्मिभिः । ताभिः सर्वाभी रुचे जनाय नस् कृधि ॥ या वो देवाः सूर्ये रुचो गोष्व् अश्वेषु या रुचः । इन्द्राग्नी ताभिः सर्वाभी रुचं नो धत्त बृहस्पते ॥ तैसं ५.७.६.३
इन्द्राग्नी त्वा बृहस्पतिर् अस्मिन् योनाव् असीषदन् ॥ - वा.मा.सं. १२.५४
कस्मात् सत्याद् यातयाम्नीर् अन्या इष्टका अयातयाम्नी लोकम्पृणेत्य् ऐन्द्राग्नी हि बार्हस्पत्येति ब्रूयात् । इन्द्राग्नी च हि देवानाम् बृहस्पतिश् चायातयामानः । अनुचरवती भवति । अजामित्वाय । अनुष्टुभानु चरति । आत्मा वै लोकम्पृणा प्राणो ऽनुष्टुप् तस्मात् प्राणःसर्वाण्य् अङ्गान्य् अनु चरति - तैसं ५.५.६.२
मित्रावरुणौ श्रोणीभ्याम् इन्द्राग्नी शिखण्डाभ्याम् इन्द्राबृहस्पती ऊरुभ्याम् इन्द्राविष्णू अष्ठीवद्भ्याम् । - तैसं ५.७.१५.१
तौ यौ ताविन्द्राग्नी एतौ तौ रुक्मश्च पुरुषश्च रुक्म एवेन्द्रः पुरुषोऽग्निस्तौ हिरण्मयौ भवतो ज्योतिर्वै हिरण्यं ज्योतिरिन्द्राग्नी अमृतं हिरण्यममृतमिन्द्राग्नी -माश १०.४.१.[६]
इन्द्राग्नि
१.
उद्ग्राभश्च
निग्राभश्च
ब्रह्म
देवाँ
अवीवृधत्
।
अथा
सपत्नानिन्द्राग्नी
मे
विषूचीनान्
व्यस्यताम्
।। ।
काठ
१,
१२
।
२. अबध्नन्निन्द्राग्निभ्यां छागम् । मै ४,१३, ८।।
३. अमृतँ इन्द्राग्नी । माश १०, ४, १,६।
४. अथ यद्वसुवने वसुधेयस्येति यजति । अग्निर्वै वसुवनिरिन्द्रो वसुधेयोऽस्ति वै छन्दसां देवतेन्द्राग्नी एवैवमु हैतद्देवताया एव वषट्क्रियते देवतायै हूयते। माश १, ८, २, १६ ।
५. इन्द्राग्नी अव्यथमानाम् इति स्वयमातृण्णाम् उप दधाति । इन्द्राग्निभ्यां वा इमौ लोकौ विधृतौ । अनयोर् लोकयोर् विधृत्यै । अधृतेव वा एषा यन् मध्यमा चितिः । अन्तरिक्षम् इव वा एषा । इन्द्राग्नी इत्य् आह । इन्द्राग्नी वै देवानाम् ओजोभृतौ । ओजसैवैनाम् अन्तरिक्षे चिनुते धृत्यै स्वयमातृण्णाम् उप दधाति । अन्तरिक्षं वै स्वयमातृण्णा । तैसं ५, ३, २, १ ।
६. इन्द्राग्निभ्यां क्रुञ्चान् (आलभते)। मै ३,१४,३ ।
७. इन्द्राग्निभ्यामोजोदाभ्यामोष्टारौ । काठ ५०, १।
८. इन्द्राग्निभ्यां बलदाभ्याँ सीरवाहा अवी द्वे । काठ ५०, १।
९. इन्द्राग्नियोरहं देवयज्ययेन्द्रियाव्यन्नादो भूयासम् । तैसं १, ६, २, ४ ।
१०. इन्द्राग्नियोर्विशाखे । युगानि परस्तात्कृषमाणा अवस्तात् । तै १, ५, १, ३ ।
११. इन्द्राग्नी इव बलेन (भूयासम् ) । मं २, ४, १४ ।
ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेद्भ्रातृव्यवानोजो वै वीर्यमिन्द्राग्नी ओजसैवैनं वीर्येणाभिभवत्यै - काठ ९, १७
ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत् सजातकाम ओजो वै वीर्यमिन्द्राग्नी ओजसैवैनान् वीर्येणाधस्तादुपास्यते - काठ ९, १७
ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत् प्रजाकामः प्रजापतेर्वै प्रजास्सिसृक्षमानस्य तस्येन्द्राग्नी प्रजा अपागूहताँ सोऽवेदिन्द्राग्नी वै मे प्रजा अपाधुक्षतामिति स एतमैन्द्राग्नमपश्यदेकादशकपालं ततो वै तस्मै तौ प्रजाः पुनरदत्तामिन्द्राग्नी एतस्य प्रजामपगूहतो योऽलं प्रजायै सन् प्रजां न विन्दते ता एव भागधेयेनोपधावति ता अस्मै प्रीतौ प्रजां पुनर्दत्तः पुनर्दातृमती याज्यानुवाक्ये भवतस्समृद्ध्या - काठ ९, १७
ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत् संग्राममभिप्रयानोजो वै वीर्यमिन्द्राग्नी ओजसैवैनं वीर्येणाभिप्रयात्यैन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत् संग्राममागत्यौजो वै वीर्यमिन्द्राग्नी ओजसैवैनं वीर्येण जयत्यैन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत् संग्रामं जित्वौजसा वा एष वीर्येण व्यृध्यते यस्संग्रामं जयति सर्वेण हीन्द्रियेण सर्वेण वीर्येण जयत्योजो वीर्यमिन्द्राग्नी - काठ ९, १७
१२. इन्द्राग्नी एतस्य प्रजामपगूहतो यो ऽलं प्रजायै सन् प्रजां न विन्दते । काठ ९, १७।
१३. कस्मात् सत्याद् यातयाम्नीर् अन्या इष्टका अयातयाम्नी लोकम्पृणेत्य् ऐन्द्राग्नी हि बार्हस्पत्येति ब्रूयात् । इन्द्राग्नी च हि देवानाम् बृहस्पतिश् चायातयामानः । अनुचरवती भवति । अजामित्वाय । तैसं ५, ५, ६, २।।
१४. इन्द्राग्नी पशूनां भूयिष्ठभाजौ करोति । क ४६, ३ ।
१५. इन्द्राग्नी वा इदँ सर्वम् । माश ४, २, २, १४ ।
१६. इन्द्राग्नी वृत्रहणा (+जुषेथाम् ।तैसं.)। तैसं १, १, १४, १; काठ ४, १५ ।
१७. इन्द्राग्नी वै देवानामयातयामानौ । तै १, १, ६, ५, २,५,१।
अग्नीषोमयोर् अहं देवयज्यया वृत्रहा भूयासम् इन्द्राग्नियोर् अहं देवयज्ययेन्द्रियाव्यन्नादो भूयासम् इन्द्रस्याहं देवयज्ययेन्द्रियावी भूयासम्- तैसं १.६.२.४
१८. इन्द्राग्नी वै देवानामोजस्वितमौ । माश १३, १, २, ६ ।
१९. इन्द्राग्नी वै देवानामोजिष्ठौ (+ बलिष्ठौ । तै. ]; बलिष्ठौ सहिष्ठौ सत्तमौ पारयिष्णुतमौ
ऐ.J)। ऐ २, ३६; तां २४, १७, ३; तै ३, ८,७, १; ष ३. ७ ।
२०. इन्द्राग्नी वै देवानामोजोभृतौ ( °वानां मुखम् [कौ.1)। मै ३, २, ९; कौ ४, १४ ।
२१. इन्द्राग्नी वै (हि !माश २,९,२,१४]) विश्वे देवाः । माश २,४,४,१३, ९,२,१४, १०,४,१,९ ।
२२. इन्द्राग्नी वै सर्वे देवाः। कौ १२, ६; १६, ११; माश ६, १, २, २८ ।
२३. इन्द्राग्नी शिखण्डाभ्याम् (प्रीणामि )। तैसं ५.७.१५.१; काठ ५३, ५।
२४. इन्द्राग्नी सर्वा देवताः । काठ ३४, १।
२५. इन्द्राग्नी हि प्राणोदानौ । माश ४, ३, १, २२ ।
२६. इन्द्राग्न्योः पक्षतिः । मै ३, १५,५ ।
२७. इन्द्राग्न्योरहं देवयज्ययौजस्वान् वीर्यावान् भूयासम् । काठ ५, १।
२८. इन्द्राग्न्योर्धेनुर्दक्षिणायामुत्तरवेद्याश्श्रोण्यामासन्ना । काठ ३४, १५।
२९. एतद्ध वा इन्द्राग्न्योः प्रियं धाम यद्वागिति । ऐ ६, ७; गो २, ५, १३ ।
३०. एताभिर्वा इन्द्राग्नी अत्यन्या देवता अभवताम् । तां २४, १७, २ .
३१. एतौ ह वा आशिष्ठौ देवतानां यदिन्द्राग्नी । जै १, ३०४ ।
३२. ओज इन्द्राग्नी । मै ४, ७, ८, काठ २९, ९; क ४६, २ ।
३३. ओजोभृतौ ( जो बलं [तं.] ) वा एतौ देवानां यदिन्द्राग्नी । तैसं ६,५,४, १; तै १,६,४,४ ॥
३४. ओजो (+वै [मै १, १०, १०; ३, २, ८; काठ.]) वीर्यमिन्दाग्नी। मै १,१०,१०; २, १, १, ३,२,८; काठ ९, १७, २९, ९, ३४, १।
३५. क्षत्रं वा इन्द्राग्नी ( +विड् ऋतवः [काठ २८, २; क..)। काठ २८, २; २९, १०; क ४४, २; माश २,४,२,६ ।
ऋतुपात्रेणैन्द्राग्नं गृह्णाति क्षत्रं वा इन्द्राग्नी विडृतवो विश्येव क्षत्रमध्यूहति – काठ २८.२
क्षत्रं वा इन्द्राग्नी क्षत्रमिन्द्रः क्षत्रमेव संपाद्य प्रतिष्ठापयति – काठ २९.१०
३६, ज्योतिर् इन्द्राग्नी यद् ऐन्द्राग्नम् ऋतुपात्रेण गृह्णाति ज्योतिर् एवास्मा उपरिष्टाद् दधाति सुवर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै । ओजोभृतौ वा एतौ देवानां यद् इन्द्राग्नी यद् ऐन्द्राग्नो गृह्यत ओज एवाव रुन्द्धे । तैसं ६, ५, ४, १; माश १०, ४,१,६।
३७. त इन्द्राग्नी अब्रुवन् । युवं न इमां तृतीयां चितिमुपधत्तमिति किं नौ ततो भविष्यतीति युवमेव नः श्रेष्ठौ भविष्यथ इति तथेति तेभ्य एतामिन्द्राग्नी तृतीयां चितिमुपाधत्तां तस्मादाहुरिन्द्राग्नी एव देवानां श्रेष्ठाविति। स वा इन्द्राग्निभ्यामुपदधाति । विश्वकर्मणा सादयतीन्द्राग्नी च वै विश्वकर्मा चैतां तृतीयां चितिमपश्यंस्तस्मादिन्द्राग्निभ्यामुपदधाति विश्वकर्मणा सादयति । माश ८, ३, १, ३।।
३८ तावेव (इन्द्राग्नी) अस्मिन् ( यजमाने ) इन्द्रियं वीर्यं धत्तः । तैसं २, २, १, ३
३९. तेजो वा ( जो वै वीर्यम् [मै.) इन्द्राग्नी । मै ३, ३, ८; काठ ३४, १।
४०. दर्शपूर्णमासयोर्वै देवते स्त इन्द्राग्नीऽएव । माश २, ४, ४, १७ ।
४१. तदिन्द्राग्नी कृणुतां तद्विशाखे । तन्नो देवा अनुमदन्तु यज्ञम् । पश्चात्पुरस्तादभयं नो अस्तु । नक्षत्राणामधिपत्नी विशाखे । श्रेष्ठाविन्द्राग्नी भुवनस्य गोपौ। विषूचः शत्रूनपबाधमानौ । अप क्षुधं नुदतामरातिम् । पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तात् । उन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय । तस्यां देवा अधि संवसन्तः । उत्तमे नाक इह मादयन्ताम् । पृथ्वी सुवर्चा युवतिः सजोषाः । पौर्णमास्युदगाच्छोभमाना । आप्याययन्ती दुरितानि विश्वा । उरुं दुहां यजमानाय यज्ञम् । तै ३, १, १, ११ ।
४२. प्रतिष्ठे वा इन्द्राग्नी । कौ ३, ६; ५.४; शांआ २, १३ ।
४३. प्राणापानौ (प्राणोदानौ [माश.) वा (+ एतौ देवानां यत् ।तै.) इन्द्राग्नी । मै १, ५,६:१०,७ :१०; काठ ७, ५, ३४,१; ३६,२; गो २,२,१; तै १,६,४,३; माश २,५,२,८ ।
४४. बलं वै तेज (ब्रह्मक्षत्रे वा [कौ.] ) इन्द्राग्नी । कौ १२,८; गो २,१,२२ ।
४५. ब्रह्म चैव क्षत्रं च सयुजा अकर् , यदग्निश्चेन्द्रश्च भूयिष्ठभाजौ देवतानां, तस्माद् ब्राह्मणश्च राजा च भूयिष्ठभाजौ मनुष्याणाम् ( ब्रह्म = अग्निः, क्षत्रम् = इन्द्रः )। मै ४,७,८ ।
४६. भद्रेन्द्राग्नी नो भवतामृतावृधा । काठसंक ६१: ११ ।
४७. ये नः सपत्ना अप ते भवन्त्विन्द्राग्निभ्यामव बाधामहे तान् । तैसं ४,७,१४, ४ ।
४८. विशाखं नक्षत्रमिन्द्राग्नी देवता । मै २, १३,२० ।
४९. शुचिं नु स्तोमं नवजातमद्येन्द्राग्नी वृत्रहणा जुषेथाम् । काठ १३, १५ ।
५०. सवनैरिन्द्राग्नी (गृहिणौ)। जै १,२८० ।
५१. सह इन्द्राग्नी । मै ४,७,८ ।
५२. अथैन्द्राग्नम् आज्यम्। स ह स उद्भिद् एव स्तोमः। इन्द्राग्नी एव तौ। तौ हीदं सर्वम् आजिसृत्यायाम् उदभिन्त्ताम्। जै १,३१२।।
५३. सूर्यो वा इन्द्रस्सोऽग्निं नक्तं प्राविशत्युभा एवैनौ सहेट्टे | काठ ७, ४ ॥
ब्रह्म वा अग्निः । क्षत्रमिन्द्रः । यदैन्द्राग्नो भवति । ब्रह्मक्षत्रे एवावरुन्धे । - तैब्रा ३.९.१६.३
तौ यत्रेन्द्राग्नी उज्जिगीवांसौ तस्थतुस्तद्विश्वे देवा अन्वाजग्मुः। क्षत्रं वा इन्द्राग्नी । विशो विश्वे देवा यत्र वै क्षत्रमुज्जयत्यन्वाभक्ता वै तत्र विट् – माश २.४.३.५
क्षत्रं वा इन्द्राग्नी । विशो विश्वे देवा यत्र वै क्षत्रमुज्जयत्यन्वाभक्ता वै तत्र विट्तद्विश्वान्देवानन्वाभजतां तस्मादेष वैश्वदेवश्चरुर्भवति - माश २.४.३.[६]
तेजो वा अग्निरिन्द्रियं वीर्यमिन्द्र एताभ्यामेनमुभाभ्यां वीर्याभ्यामघ्नन्ब्रह्म वा अग्निः क्षत्रमिन्द्रस्ते उभे संरभ्य ब्रह्म च क्षत्रं च सयुजौ कृत्वा ताभ्यामेनमुभाभ्यां वीर्याभ्यामघ्नन् – माश २.५.४.८
तदेतद्ब्रह्म च क्षत्रं चाग्निरेव ब्रह्मेन्द्रः क्षत्रमिन्द्राग्नी वै विश्वे देवा विडु विश्वे देवास्तदेतद्ब्रह्म क्षत्रं विट् – माश १०.४.१.[९]
वाजस्यैनं प्रसवेनापोहामीत्यमावास्यायामैन्द्राग्नं ह्यामावास्यं हविर्भवति – माश १.८.३.४
अच्छावाकस्य हैनं गोपनायां जहार सोऽच्छावाकोऽहीयत। तमिन्द्राग्नी अनुसमतनुताम् । प्रजानां प्रजात्यै तस्मादैन्द्राग्नोऽच्छावाकः – माश ३.६.२.[१३]
ऋतुग्रहाः -- तदस्मै पुरोडाशबृगलम्पाणावादधदाहाच्छावाक वदस्व यत्ते वाद्यमित्यहीयत वा अच्छावाकः। तमिन्द्राग्नी अनुसमतनुताम् । प्रजानां प्रजात्यै तस्मादैन्द्राग्नोऽच्छावाकः – माश ४.३.१.१
[°ग्नि- अन्तरिक्ष ९२ द्र.
इन्द्राग्नि-स्तोम
१. अथैष इन्द्राग्न्योः स्तोम एतेन वा इन्द्राग्नी अत्यन्या देवता अभवतामत्यन्याः प्रजा भवति य एवं वेद । तां १९,१७,१।
२. पुरोधा कामो (इन्द्राग्निस्तोमेन) यजेत । तां १९,१७,७ ।
ऐन्द्राग्न (आज्यस्तोत्र-)
१. इयं वामस्य मन्मन इत्यैन्द्राग्नम् । तां १२, ८, ७ ।
२. ऐन्द्राग्नं वै सामतस्तृतीयं सवनम् । कौ ४,४ ।
३. ऐन्द्राग्न उन्नीतः (ग्नः संहितः [काठ ४८,१) । काठ ३४, १६; ४८,१ ।
४. ऐन्द्राग्नम् (पयः) उपसन्नम् । मै १,८,१० ।
५. ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत् (+ प्रजाकामः । तैसं २, २,१,१; जनतामेष्यन् (तैसं २, २,१,४]) । तैसं २,२, १, १;४; मै २,१,१ (तु. तैसं १,८,३,१; मै २,६,२) ।
६. ऐन्द्राग्नं पुनरुत्सृष्टमा लभेत य आ तृतीयात् पुरुषात् सोमं न पिबेत् । तैसं २,१, ५, ५ ।
७. ऐन्द्राग्ना ऊरू । ऐआ १,५,१।
८. ऐन्द्राग्नानि ह्युक्थ्यानि । मै ३,९,५; काठ १४,९; माश ४,२,५,१४; ४,६,३,३ ।
९. ऐन्द्राग्नो ऽग्नौ मथ्यमान (सोमः) ऐन्द्राग्नोग्नौ प्रह्रियमाणे । काठ ३४, १४ ।
१०. ऐन्द्राग्नो द्वादशकपालः (+ पुरोडाशो भवति ।माश..) । मै १, १०,१; काठ ९,४,१५, १; क ८,५; माश १,६,४,३,२,५,२,८ (तु. तैसं. १,८,१,२,७,१)।
११. ऐन्द्राग्नो यज्ञः । जै १,१०६ ।
१२. ऐन्द्राग्नो वा अपरपक्षः । मै १,५, ७ ।
१३. कृष्णग्रीवः शितिकक्षोऽञ्जिषक्थस्त ऐन्द्राग्नाः । मै ३,१३,५ ।
१४. दिश एवैन्द्राग्नेन ( देवा अजयन् )। जै १,१०५।
१५. संहित ऐन्द्राग्नः (पशुः) । मै ४,७,८ ॥ [°ग्न- अनडुङ्- ९ द्र.] ।
ऐन्द्राग्नी- अपरपक्ष- २ द्र.।
इन्द्रापूषन्->ऐन्द्रापौष्ण- ऐन्द्रापौष्णं चरुम् (निर्वपति) । तैसं १,८,८,१ । इन्द्राबृहस्पति- इन्द्राबृहस्पती ऊरुभ्याम् (प्रीणामि) । तैसं ५,७,१५, १; काठ ५३,५ ।
ऐन्द्राबार्हस्पस्त्य
१. उन्नतः शितिबाहुः, शितिपृष्ठस्त ऐन्द्राबार्हस्पत्याः । मै ३, १३,८ ।
२. ऐन्द्राबार्हस्पत्यं चरुं निवपेद् राजन्याय बुभूषते । काठ ११,४ ।
३. ऐन्द्राबार्हस्पत्यं ब्राह्मणाच्छंसिन उक्थं भवति । गो २, ४,१४,१६ ।
४. ऐन्द्राबार्हस्पत्या अरुणललामास्तूपराः । काठ ४९,२ ।
५. शितिककुच्छितिपृष्ठश्शितिभसत् त ऐन्द्राबार्हस्पत्याः । काठ ४९,४ ।
६. षड्भिरैन्द्राबार्हस्पत्यैः (पशुभिः) शिशिरे (यजते) । माश १३, ५,४,२८ ।