इरावती
टिप्पणी: पुराणों की भांति वैदिक निघण्टु में भी इरावती की परिगणना नदी नामों के अन्तर्गत की गई है। ऋग्वेद ५.६३.६ के अनुसार जब पर्जन्य वर्षण होता है तो इरावती वाक् सुनाई पडती है। ऋग्वेद ७.९९.३ तथा शतपथ ब्राह्मण ३.५.३.१४ में उल्लेख है कि विष्णु द्वारा तीन पगों में ब्रह्माण्ड मापन के समय इरावती धेनुमती हो सकती है। इससे पूर्व यज्ञ कार्य में यजमान-पत्नी हविर्धान शकट के अक्षों में आज्य लगाती है जिससे धुरे व अक्ष के घर्षण से उत्पन्न होने वाली क्रूर वाक् समाप्त हो जाए(बौधायन श्रौत सूत्र ६.२४.३४)। हो सकता है कि यही क्रूर वाक् विष्णु के क्रमण के पश्चात् इरावती हो जाती हो। ऋग्वेद ५.६९.२ के अनुसार वरुण की धेनुएं इरावती हैं जिनका दोहन करके मित्र देवता मधु के सिन्धु प्राप्त करते हैं। अथर्ववेद ८.१९.४ व ८.१३.९ में विराज गौ का आह्वान मनुष्य इरावती के नाम से करते हैं और उसका दोहन करके उससे कृषि और सस्य प्राप्त करते हैं। इस प्रकार इरावती के नदी, वाक् और धेनु तीन रूप प्राप्त होते हैं। वैदिक विद्वानों का विचार है कि नदी का सम्बन्ध नाद से है। इसी प्रकार वैदिक निघण्टु में धेनु शब्द की परिगणना भी वाक् नामों के अन्तर्गत की गई है। अतः इरावती के तीनों ही रूप वाक् के तीन प्रकार हैं जिनमें सूक्ष्म अन्तर विचारणीय है। जैमिनीय ब्राह्मण १.१७५ के अनुसार वयो यज्ञा वो अग्नये गिरा गिरा च दक्षसे ऋचा को साम में रूपान्तरित करने पर गिरा गिरा शब्दों के स्थान पर इरा इरा कहा जाता है जिससे गिरा(वाणी) की क्रूरता समाप्त हो जाए। ऐतरेय ब्राह्मण ७.१३ में पुत्र की तुलना भव सागर से तारने वाली इरावती नौका से की गई है। यह नौका किस प्रकार बन सकती है, यह अन्वेषणीय है।
ऋग्वेद ७.४०.५, ७.६७.१० व ७.६९.८ में अश्विनी देवता-द्वय से इरावत् होकर वर्ति में जाने की प्रार्थना की गई है। हो सकता है कि दीपक की यह वर्ति सुषुम्ना नाडी हो जो हिरण्यय कोश में जाकर फिर लौटती है और वहां से मधु लाती है।
अथर्ववेद ७.६२.६ में गृहों के इरावान्, सूनृतावान् आदि होने की कामना की गई है। सूनृता और इरा का साथ-साथ उल्लेख तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.६.११, ३.१०.१.१ तथा आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ४.८.२ आदि में भी हुआ है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१०.१.४ में अरुण, अरुणरजा आदि १३ मासों के अन्तर्गत १०वें मास को इरावान् नाम दिया गया है।
प्रथम प्रकाशन – १९९४ ई.
वाचं सु मित्रावरुणाविरावतीं पर्जन्यश्चित्रां वदति त्विषीमतीम् ।
अभ्रा वसत मरुतः सु मायया द्यां वर्षयतमरुणामरेपसम् ॥ऋ. ५.६३.६॥
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे ।
त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसृणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः ॥५.६९.२॥
इरावती धेनुमती हि भूतं सूयवसिनी मनुषे दशस्या ।
व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ॥७.९९.३॥
सोदक्रामत्सा
मनुष्यान्
आगच्छत्तां
मनुष्या
उपाह्वयन्तेरावत्येहीति
।
तस्या
मनुर्वैवस्वतो
वत्स
आसीत्पृथिवी
पात्रम्
।
तां
पृथी
वैन्योऽधोक्तां
कृषिं
च
सस्यं
चाधोक्।
ते
स्वधां
कृषिं
च
सस्यं
च
मनुष्या
उप
जीवन्ति
कृष्टराधिरुपजीवनीयो
भवति
य
एवं
वेद
॥२४॥
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८.१३.९