इष
आश्विन् मासस्य कृष्णपक्षः पितॄणां श्राद्धतः सम्बद्धः अस्ति, शुक्लपक्षः नवरात्रे देवीनां अर्चनातः। श्राद्धस्य प्रकृतिः तिथ्यानुसारेण परिवर्तते (द्र. श्राद्धोपरि टिप्पणी)। अयं प्रतीयते यत् आश्विन् मासस्य कृष्णपक्षे येषां पितॄणां श्राद्धं भवति, तत् पितृरूपाणां कारणानां पुष्टिकरणमस्ति। तेषां पोषणेन शुक्लपक्षे प्रकृतिः देवीनां रूपं धारयिष्यति।
टिप्पणी : ऋग्वेद की १५० से अधिक ऋचाओं में इष शब्द प्रकट हुआ है । वैदिक निघण्टु में इषम् की परिगणना अन्न नामों के अन्तर्गत की गई है । इसी कारण से वैदिक साहित्य के सायण भाष्य में अधिकांश स्थानों पर इष का अर्थ अन्न किया गया है । इष~ धातु इच्छा के अर्थ में भी आती है, अतः कुछेक स्थानों पर इष का अर्थ इच्छानुसार प्रकट होने वाला अन्न भी किया गया है ।
वैदिक ऋचाओं में इष शब्द २ रूपों में प्रकट होता है - इ उदात्त और ष उदात्त । शुक्ल यजुर्वेद का आरम्भ इषे त्वा ऊर्जे त्वा वायव स्थ इत्यादि से होता है और अन्तिम अध्याय ४० का आरम्भ ईशावास्यमिदं सर्वं आदि पर होता है । इषे त्वा ऊर्जे त्वा में इ अनुदात्त और ष उदात्त है । यह अनुमान लगाना कठिन है कि इष के इन दोनों रूपों - इ उदात्त और ष उदात्त में क्या अन्तर है । लेकिन यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यजुर्वेद का आरम्भ करने के लिए इष और ऊर्ज को अनिवार्य मान लिया गया है जिसे ईशा स्तर तक ले जाना है । ऋग्वेद की ऋचाओं में इष के साथ प्रायः रयि( जैसे ऋग्वेद १.१८१.१, ६.६०.१३, ६.६८.५, ८.५.३६, ८.४६.२, ८.९३.३४) अथवा रायः ( जैसे ऋग्वेद १.५३.५, १.५४.११, १.१२०.९, ३.२३.२, ६.२०.६ आदि), श्रव( जैसे ऋग्वेद ६.१७.१४) और वाज शब्द प्रकट होते हैं ( जैसे ऋग्वेद १.११७.१, १.११७.१०, १.१२०.९, १.१२१.१५, १.१८०.२, १.१८१.६, २.६.५, ३.३०.११, ४.३२.७, ६.२४.९, ६.६०.१२-१३, ६.६५.३, ७.४२.६, ८.९२.१०, ८.९३.३४ आदि ) । यह ऐसा संकेत देता है कि चूंकि इष~ धातु इच्छा के अर्थ में है, अतः इच्छा के साथ ज्ञान और क्रिया का सम्मिलन करने के लिए वाज और रयि को इष शब्द के साथ रखा गया है । डा. फतहसिंह वाज को क्रिया शक्ति मानते हैं । रयि क्या होगी, यह अन्वेषणीय है । ऋग्वेद १.११७.१० का कथन है कि यातमिषा च विदुषे च वाजम् - हम इष और विद्वत्ता के द्वारा वाज को प्राप्त करे । ऐसा कहा जा सकता है कि यजुर्वेद के ईशावास्यम् में ईशा में इन तीनों का दो - दो के युग्मों के रूप में समावेश है । इस उपनिषद की एक यजु में कहा गया है कि जो अविद्या की उपासना करते हैं, वे भी अन्ध तम: को प्राप्त होते हैं और जो विद्या की उपासना करते हैं, वे उससे भी अधिक अन्ध तम: को प्राप्त होते हैं । उचित यह है कि अविद्या से मृत्यु को तर कर विद्या से अमृत को प्राप्त किया जाए । डा. अभयदेव शर्मा अविद्या का अर्थ उस व्यक्ति से लेते हैं जिसने विधिवत् ज्ञान प्राप्त नहीं किया है लेकिन जो अपनी आत्मा की आवाज के अनुसार कार्य करता है । यह अर्थ न्यूनाधिक रूप में उचित ही है क्योंकि यहां अविद्या इच्छा शक्ति से सम्बन्धित होनी चाहिए । उपनिषद में इसी प्रकार के अन्य युग्म भी दिए गए हैं - जैसे असम्भूति और सम्भूति आदि । इसी प्रकार की स्थिति की कल्पना एक रथ के संदर्भ में भी की जा सकती है कि रथ के लिए इष, रयि और वाज या इच्छा, ज्ञान व क्रिया तीनों का होना आवश्यक है ।
इष को अभीप्सा के रूप में समझा जा सकता है । इष के स्वरूप को समझने के लिए डा. लक्ष्मीनारायण धूत द्वारा प्रकृति के विषय में दिए गए वक्तव्य का उल्लेख करना उपयोगी होगा । ''एक व्यक्ति जो शराब से छक कर बेतरतीब चहलकदमी करते हुए कुछ दूर स्थित अपने घर पहुंचने की कोशिश कर रहा है, उसके सफल होने की संभावना/प्रायिकता की गणना एक सूत्र द्वारा की जा सकती है । सूत्र के अनुसार अधिकतम संभावना यही है कि वह मनुष्य चहलकदमी करते हुए अपने गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुंच पाएगा और जहां था, वहीं रह जाएगा । इसकी संभावना बहुत कम ही है कि बेतरतीब चहलकदमी करते हुए वह अपनी गन्तव्य दिशा में चल पडे । जब तक व्यक्ति में एक निश्चित दिशा में विकास की कामना, अभीप्सा न हो, वह जहां था, वहीं रह जाएगा । यही हाल समष्टि प्रकृति के विकास का है । समष्टि प्रकृति के विकास को गुणवत्ता के आधार पर तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है - सत्, रज व तम । सत् वे क्रियाएं हैं जिनका परिणाम ऊर्ध्वमुखी विकास के रूप में होता है । तम वे क्रियाएं हैं जो अवनति की ओर ले जाती हैं ( आधुनिक विज्ञान के अनुसार इस विश्व की यादृच्छिकता की माप/एण्ट्रांपी में वृद्धि हो रही है जो उसे प्रलय की ओर ले जा रही है ) । वे बहुसंख्यक क्रियाएं जिनके परिणाम में स्थिति लगभग अपरिवर्तनीय रहती है, रज कही जा सकती हैं । मनुष्येतर प्राणियों में यद्यपि चेतन शक्ति ने प्राण और मन के स्तर पर उन्हें संवेदनशीलता तो प्रदान की है तथापि वहां अपरा प्रकृति की क्रियाशीलता ही अधिक प्रभावी होने से यथास्थिति बनाये रखने वाली रज क्रियाओं का बाहुल्य होना स्वाभाविक होगा । विकास की ओर ले जाने वाली सत् क्रियाओं की अल्प संभावना/प्रायिकता ही प्राणियों के विकास की इतनी मन्द गति का कारण हो सकती है जिसके कारण मनुष्य शरीर के विकास में प्रकृति को लाखों वर्षों का समय लगा है । कुछ अधिक उन्नत प्राणियों में प्रकृति पुरुष - तत्त्व ( चेतन बल, परमात्मा ) के अनुरूप होकर कार्य करने लगती है । इस प्रकार की क्रियाशील प्रकृति को गीता में और अन्यत्र भी परा प्रकृति कहा गया है । अपरा प्रकृति या भौतिक प्रकृति संभाविता सिद्धान्त पर, जूए या द्यूत या चांस के सिद्धान्त पर कार्य करती है । जैसे - जैसे चेतना का विकास होता है, यह सिद्धान्त कमजोर होता जाता है ।''
यदि इष को अभीप्सा मान लिया जाए तो एक प्रश्न उठ खडा होता है कि वैदिक निघण्टु में इषम् को अन्न नामों के अन्तर्गत परिगणित किया गया है जबकि अभीप्सा अर्थ लेने पर वह प्राण के अन्तर्गत परिगणित होगा क्योंकि प्राण ही तो अभीप्सा करते हैं । इस संदर्भ में डा. फतहसिंह का यह कथन उद्धृत किया जा सकता है कि अन्न और प्राण में मूल धातु अन् - प्राणने है ।
पुराणकारों ने इष की व्याख्या इष को आश्विन् मास के साथ और ऊर्ज को कार्तिक मास के साथ सम्बद्ध करके की है । शतपथ ब्राह्मण ४.३.१.१७ व ८.३.२.६ में भी इष व ऊर्ज को शरद ऋतु कहा गया है जहां इष शब्द में ष और ऊर्ज में ज उदात्त हैं । यही वह रूप हैं जहां से शुक्ल यजुर्वेद का आरम्भ होता है । आश्विन् मास के कृष्ण पक्ष में, जब सूर्य कन्या राशि में होता है, मुख्य रूप से पितरों का श्राद्ध किया जाता है जबकि शुक्ल पक्ष में नवरात्रों का अनुष्ठान किया जाता है । ऋग्वेद १.१६५.१५ सूक्त अगस्त्य ऋषि का है जिसमें विद्यामेषं वृजनं जीरदानुं पद आता है जिसकी पुनरावृति अगस्त्य ऋषि के अनेक सूक्तों में की गई है । इस पद का अर्थ है कि हम इष को वृजन - पापों का वर्जन करने वाला और जीरदानु - जीवन प्रदान करने वाला जानें । इस ऋचा के अनुसार इष के दो रूप हैं - पापों का नाश करने वाला और जीवन प्रदान करने वाला । यह आश्चर्यजनक है कि पुराणों में ऊर्ज मास में तुलसी वृक्ष की अर्चना का गुणगान किया गया है और कहा गया है कि कृष्ण की पटरानी सत्यभामा के आंगन में कल्पवृक्ष का आविर्भाव इसलिए हो पाया क्योंकि उसने पूर्व जन्म में तुलसी वृक्ष की अर्चना की थी । तुलसी तुला, तुरीय अवस्था का प्रतीक है और कल्प वृक्ष इष की, इच्छा शक्ति की पराकाष्ठा है जिसे पुराणकारों ने तुला के पश्चात् स्थान दिया है । तुला का अर्थ होगा कि जितना हमारा दैवी पक्ष ज्योतिर्मय हो, उतना ही मर्त्य पक्ष भी विकसित हो - तुला जैसी स्थिति हो । वास्तविक अन्न कल्पवृक्ष द्वारा ही प्राप्त हो सकता है ।
ऋग्वेद ७.६६.९ में इष और स्व का उल्लेख आता है । ऐतरेय ब्राह्मण ६.७ में इसकी व्याख्या के रूप में कहा गया है कि अयं लोक इष है और असौ लोक स्व: है । शतपथ ब्राह्मण १.७.३.१४ में स्विष्टकृदाहुति के संदर्भ में स्व और इष का उल्लेख आता है जहां इषः को प्रजा कहा गया है और यह अपेक्षा की गई है कि यह प्रजा ऐसी हो जो यज्ञ में भागीदार हो । यहां कहा गया है कि यजमान ही यज्ञ में प्रजा रूप हैं जो अर्चना करते हुए, श्रान्त होते हुए विचरण करते हैं । शतपथ ब्राह्मण ४.१.२.[१५] में भी प्रजा को यायजूक बनाने की अपेक्षा की गई है । ऐसा प्रतीत होता है कि डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने अभीप्सा के विषय में जो विचार प्रकट किए हैं, वह प्रजा के संदर्भ में ब्राह्मणों के कथन का रूपान्तर ही है । प्रजा को यज्ञीय बनाना और अभीप्सा को ऊर्ध्वमुखी बनाना एक ही तथ्य के दो पहलू लगते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.७.१३ में सुब्रह्मण्या के पांच पदों के उल्लेख के पश्चात् कामना की गई है कि सुब्रह्मण्या हमारे लिए इष व ऊर्ज का दोहन करे । सुब्रह्मण्या के विषय में कहा गया है कि एक ब्रह्म है, एक सुब्रह्म । ब्रह्म की प्राप्ति के पश्चात् उसका सभी स्तरों पर विस्तार करना है, उसे सुब्रह्म बनाना है । यही सुब्रह्मण्या है । ऋग्वेद ३.१११.२, ४.५३.७, ६.५२.१६, ७.९६.६, ९.८.९, ९.२३.३ आदि में इष( उदात्त इ) के साथ प्रजा शब्द प्रकट होता है । ऐतरेय आरण्यक ५.२.२ का कथन है कि इळा को मित्रावरुण इष बना दें । जैमिनीय ब्राह्मण १.८८ के अनुसार उद्गाता द्वारा स्तोत्र आरम्भ से पूर्व जिन शब्दों का उच्चारण किया जाता है, वह मधु करिष्यामि आदि हैं । अन्त में भद्रंभद्रम् इषमूर्जम् आदि का उच्चारण किया जाता है । जैसा कि भद्र शब्द की टिप्पणी में स्पष्ट किया गया है, भद्र स्थिति में पृष्ठ अर्थात् अचेतन मन विद्यमान रहता है जिसे श्री में, चेतन मन में रूपान्तरित करना अपेक्षित होता है । वर्तमान संदर्भ में भद्रंभद्रम् के पश्चात् इषमूर्जम् का उल्लेख है जो संकेत करता है कि इषमूर्जम् की स्थिति भी श्री के समकक्ष होनी चाहिए । जैमिनीय ब्राह्मण १.९३ में कहा गया है कि अन्नाद्यकामी हेतु मन्त्र आ सुवोर्जमिषम् च नः है । ऋग्वेद ६.५२.१६ में उल्लेख आता है कि अग्नि व पर्जन्य देवताओं में से एक ने इळा का व दूसरे ने गर्भ का जनन किया और कि यह हमारे लिए प्रजावती इष: लाएं । यह ऋचा भी संकेत करती है कि इष के रूप में इळा के, अचेतन मन के चेतन मन में रूपान्तरण का कार्य चल रहा है । उपनिषदों में पर्जन्य वृष्टि द्वारा अन्न, अन्न से रेतः, रेतः से गर्भ के उत्पन्न होने का उल्लेख आता है । गर्भ से चेतन का जन्म होता है । ऊपर वैदिक ऋचा में स्व: और इष: का जो उल्लेख है, उसमें स्व: की, पूर्ण रूप से चेतन तत्त्व की साधना लोक में स्वाध्याय के रूप में की जाती है जिसका आरम्भ श्रावणी पूर्णिमा अथवा रक्षाबन्धन पर्व से होता है । फिर जो कुछ अचेतन रह जाता है, उसकी साधना इष और ऊर्ज के रूप में की जाती है ।
केवल ऋग्वेद ८.२५.५ ही ऐसा संदर्भ है जिसके आधार पर इष के दो रूपों - इ उदात्त व ष उदात्त - की व्याख्या का प्रयत्न किया जा सकता है । इस ऋचा में कहा गया है कि इष: वास्त्वधि श्रितः ( यहां ष उदात्त है ) । फिर ८.२५.६ में दिव्या और पार्थिवी इष: का उल्लेख है जहां इ उदात्त है । अतः यदि वास्तु शब्द का ज्ञान हो जाए तो ष उदात्त वाले इष: का भी कुछ ज्ञान हो सकता है । तैत्तिरीय आरण्यक ४.४२.१ का कथन है इडायै वास्त्वसि । इसका अर्थ हुआ कि वास्तु का सम्बन्ध इडा से है । काठक संकलन ६०:८ में उल्लेख है कि वास्तोष्पति हमारे लिए भद्र हो । यह संकेत करता है कि वास्तु का सम्बन्ध भद्र से है । कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार की इष में इडा का, अचेतन तत्त्व का बाहुल्य है । इससे विपरीत स्थिति इ उदात्त वाले इष की हो सकती है । शतपथ ब्राह्मण १.७.१.२ में उल्लेख आता है कि गौ के दुग्ध का यज्ञ कार्य में उपयोग करने के लिए गौ के स्तनों से वत्स को दूर हटाया जाता है और यह कार्य पलाश शाखा द्वारा किया जाता है । पलाश शाखा को वृक्ष से तोडते समय कहा जाता है कि इषे त्वा ऊर्जे त्वा । यहां इष में ष उदात्त है और ऊर्ज में ज । वास्तव में यह संदर्भ शुक्ल यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र की व्याख्या है । शतपथ ब्राह्मण ६.६.३.७ में कहा गया है कि ब्रह्म ही पलाश है । अतः यह कहा जा सकता है कि पलाश शाखा का ग्रहण करने का उद्देश्य इस ब्रह्म का निचले स्तर पर विस्तार करना है ।
वैदिक निघण्टु में इषम् और ऊर्क् दोनों को अन्न नामों में परिगणित किया गया है । दोनों में अन्तर शतपथ ब्राह्मण ४.३.१.१७ के आधार पर समझा जा सकता है जहां इषे त्वा को अध्वर्यु से और ऊर्जे त्वा को प्रतिप्रस्थाता से सम्बद्ध किया गया है । याज्ञिक भाषा में यह कहा जा सकता है कि अध्वर्यु ऋत्विज आहवनीय अग्नि से और प्रतिप्रस्थाता ऋत्विज गार्हपत्य अग्नि से सम्बन्धित हैं, अथवा अध्वर्यु यजमान से और प्रतिप्रस्थाता यजमान - पत्नी से सम्बन्धित हैं । सामान्य भाषा में यह कहा जा सकता है कि अध्वर्यु पुरुष से और प्रतिप्रस्थाता प्रकृति से सम्बद्ध हैं । शतपथ ब्राह्मण १.८.१.१४ में इडा भक्षण के संदर्भ में इष को प्राण से और ऊर्ज को उदान से सम्बद्ध किया गया है । इतना ही नहीं, इषे प्राणाय का सम्बन्ध मनसस्पति से और ऊर्जे उदानाय का सम्बन्ध वाचस्पति से जोडा गया है । यह उल्लेख अग्निहोत्र की क्रिया की ओर ध्यान आकर्षित करता है जहां एक आहुति मन से और दूसरी वाक् से दी जाती है । यह हो सकता है कि मन, वाक् और प्राण के युगलों के रूप में यहां पूरे संवत्सर का चित्रण किया गया हो ।
इष का आरम्भ कहां से हो, इस संदर्भ में वैदिक ऋचाओं में कुछ संकेत मिलते हैं । ऋग्वेद ७.५९.२( इष में इ उदात्त ) तथा १.५३.४ व ६.६८.५( इष में ष उदात्त ) में इष के संदर्भ में द्वेष का उल्लेख है । यह कहा जा सकता है कि द्वेष के समाप्त होने पर इष का जन्म होता है । जैसा कि द्वेष की टिप्पणी में कहा जा चुका है, सारा मनुष्य व्यक्तित्व छोटी - छोटी इकाईयों में विभाजित है और यह इकाईयां एक दूसरे का विरोध करती हैं । विज्ञान की भाषा में इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि लोहे के कणों में चुम्बकत्व छोटी - छोटी इकाईयों में विभाजित रहता है और सामान्य स्थिति में कुल मिलाकर लोहे का चुम्बकत्व शून्य होता है । लेकिन यदि इन इकाईयों को किसी प्रकार से एक दूसरे के अनुदिश बना दिया जाए, किसी प्रकार से सहयोगी बना दिया जाए तो उसी लोहे में भारी चुम्बकत्व उत्पन्न हो जाता है । यही स्थिति द्वेष की भी समझनी चाहिए । अक्ष रूप वाले इस इष का स्वरूप इषु शब्द को समझने में उपयोगी होगा ।
इष/आश्विन् मास के सूर्य का नाम क्या है, इस संदर्भ में पुराणों में मतभेद पाया जाता है। अधिकांश पुराण आश्विन् मास के सूर्य का नाम पूषा तथा कार्तिक मास के सूर्य का नाम पर्जन्य बताते हैं लेकिन भागवत पुराण ही संभवतः ऐसा पुराण है जहां मासों के क्रम को तोडकर इष मास के सूर्य का नाम त्वष्टा तथा कार्तिक मास के सूर्य का नाम विष्णु कहा गया है। भागवतकार ने ऐसा किसी विशेष उद्देश्य से किया है या यह केवल भ्रष्ट पाठ है, अन्वेषणीय है।
भविष्य पुराण में इष मास के संदर्भ में भगशर्मा द्विज की कथा दी गई है जिसने मत्स्य आदि मांसभोजी विप्रों का उद्धार किया और उन्हें वैष्णवी विद्या का साक्षात्कार कराया। डा. फतहसिंह के अनुसार मत्स्य विज्ञानमय कोश की शक्तियां हैं जो कभी-कभी अन्नमय-प्राणमय-मनोमय कोश में अवतरित हो जाती हैं। जैसा कि ऊपर इष के संदर्भ में कहा जा चुका है, इष अभीप्सा का द्योतक है। लेकिन यह आवश्यक नहीं कि यह अभीप्सा कल्पवृक्ष का रूप धारण कर सके, हरेक कामना की पूर्ति कर सके। ऐसी स्थिति में तो मर्त्य जीव को केवल मत्स्य रूपी शक्ति ही यदा कदा प्राप्त हो सकती है। यदि इष को कल्पवृक्ष का रूप देना है तो इष/आश्विन् मास के कृत्यों पर ध्यान देना होगा। आश्विन् मास के पूर्वपक्ष में पितरों का श्राद्ध किया जाता है। डा. फतहसिंह के अनुसार हमारे जीवन के लिए आवश्यक हमारी नैसर्गिक वृत्तियां जैसे आहार/अशना, निद्रा, क्रोध, भय, मैथुन आदि हमारे पितर हैं जिनका रूप रौद्र है(हमारे मृत परिजनों और हमारी नैसर्गिक वृत्तियों में क्या सम्बन्ध है, यह एक अलग विषय है)। अशना/क्षुधा का रूप कितना उग्र है, हम सब परिचित ही हैं। इस रौद्र रूप को सौम्य किया जा सके, तभी इष रूपी अभीप्सा तमोगुणी से सतोगुणी में बदल सकती है और तभी कल्पवृक्ष का जन्म हो सकता है। इष का रूपान्तरण पूरी तरह सतोगुणी होने के पश्चात् फिर सावित्री कन्या का प्रादुर्भाव होता है। सावित्री कन्या के रूप में आश्विन् मास के अपर पक्ष में दैवी कन्याओं का आह्वान किया जाता है।
प्रथम लेखन : २५-६-२००६ई., संशोधन : ७-१०-२०१२ ई.(आश्विन् कृष्ण सप्तमी, विक्रम संवत् २०६९)
Word Isha with it’s different forms appears at more than 200 places in Rigveda. The importance of this word can be gauged from the fact that White Yajurveda starts with this word – ishe twaa uurje twaa. This word appears in two forms – one where letter ‘i’ is accentuated and the other where ‘sha’ is accentuated. There must be top – bottom difference in the meaning between the two, but a clearcut idea has not yet been formed. For example, according to Dr. Fatah Singh, one may be symbolic of immortal part while the other may be symbolic of mortal part. In the word book for Rigveda, this word has been classifed under the synonyms for cereals but as we ponder over the vedic mantras, it becomes difficult to justify this fact. It appears that isha is connected with craving, wish. And this craving should be so strong that whatever is desired, that is fulfilled. One is supposed to develop oneself upto this potential. What is the natural hinderence in achieving this? It can be understood from the example of iron. Magnetism is naturally present in iron, but it can not be expressed because iron is divided into various grains whose magnetism is opposite to each other. As soon as the magnetism of grains is aligned, a high magnetism is expressed by iron. Similar is the situation with human being. Here, the disorder is called aversion within oneself.
Dr. Lakshminarayan Dhoot has expressed his views about why the upward development in nature takes so much long time, say millions of years. The reason is that the craving for upward development is not so steep. It is hazy, just like the footsteps of a drunken person. It seems that he is in a way expressing what has been said in vedic mantras about Isha. Vedic mantras say that there are two parts – one is that which is steep and the other is which is hazy. The hazy one has to be improved to the level where it is most pure like the sweetest among foods. It has been named in mantras as the progeny. In other words, the unconscious part of the mind has to be converted into conscious one by constant effort, gradually removing the roadblocks.
Vedic literature talks of three main forms of energies – craving, knowledge and action. In modern sciences, craving is absent. For full development, one has to develop this trio. It seems that vedic mantras have given sufficient indications about this fact. This appears more explicitly in the Iishaavaasyopanishada where it is said that neither craving nor knowledge can take one beyond dark, but only a combination of the two can do the needful.
In puraanic literature, word isha appears mainly as the first of the two months of winter season. The sequence of sacred deeds performed during these two months can shed more light on the meaning of this word. The second month is famous for worship of herb Tulasi. It has been stated that consort Satyabhaamaa of lord Krishna could get the wish fulfilling tree planted in her courtyard only because she had worshipped Tulasi tree in her previous birth. This indicates that the ultimate goal of isha/craving is to give it the form of a wish fulfilling tree.
It is important to note that the conscious part of the mind has been taken care of in the form of restart of self study of vedas from the full moon day of Shraavana/August month.
पुराण विषय अनुक्रमणिका के प्रथम भाग ( वर्ष १९९४ ई ) में प्रकाशित इष की टिप्पणी :
ऋग्वेद १.१३०.३ तथा शतपथ ब्राह्मण १.२.२.६ आदि के अनुसार इष वर्षा है जो अद्रियों में फंसकर रह गई है और इन्द्र इष को अद्रियों से मुक्त करके इसे बहने योग्य बनाता है, यहां तक कि यह इष नदी ( नाद का प्रतीक? ) का रूप धारण कर लेती है ( ऋग्वेद ४.१६.२१ तथा अगले सूक्तों में इसकी पुनरावृत्तियां ) । तैत्तिरीय संहिता ४.६.१.१ में मरुद्गण जलों, ओषधियों व वनस्पतियों से इष व ऊर्ज का संभरण करके हमें प्रदान करते हैं । शतपथ ब्राह्मण १.८.१.१४ में इष का सम्बन्ध इडा/इला से स्थापित किया गया है । होता इडा को लेकर ओष्ठ से छूता है । छूते समय वह कहता है कि इष और प्राण की प्राप्ति के लिए वह मनस्पति होकर यज्ञीय इला का भक्षण कर रहा है । इसके पश्चात् वह पुनः इडा को ओष्ठों से छूकर कहता है कि ऊर्जा व उदान की प्राप्ति के लिए वह वाचस्पति होकर यज्ञीय इडा का भक्षण कर रहा है । शतपथ ब्राह्मण ४.३.१.१७ में इष का सम्बन्ध अध्वर्यु से और ऊर्ज का सम्बन्ध प्रतिप्रस्थाता ऋत्विज से जोडा गया है । अध्वर्यु यजमान से और प्रतिप्रस्थाता यजमान - पत्नी से सम्बन्धित होता है । इस प्रकार इडा के इष और ऊर्ज नामक दो भाग किए गए हैं । लौकिक व्यवहार में आश्विन् मास का नाम इष और कार्तिक मास का नाम ऊर्ज है । इष के बारे में जो भी व्यावहारिक ज्ञान हमें प्राप्त हो सकता है, वह आश्विन् मास के क्रियाकलापों के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है । आश्विन् मास का कृष्ण पक्ष पितृ श्राद्ध से सम्बन्धित है और शुक्ल पक्ष विशेष रूप से नवरात्रों से । श्राद्धों में पितरों को श्रद्धा( शृतं दधाति इति ) रूपी अन्न प्रस्तुत किया जाता है । अतः यह विचारणीय है कि क्या इष भी श्रद्धा रूपी अन्न ही है ? यह संभव है कि श्रद्धा के विकसित होते हुए उत्तरोत्तर रूपों का निरूपण इष के द्वारा किया गया हो । अथर्ववेद ४.३९.२ में पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ और दिशाओं रूपी धेनुओं के वत्स क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य व चन्द्रमा बनते हैं और इन धेनुओं से प्रत्येक बार इष, ऊर्ज और काम का दोहन किया जाता है । लेकिन यह अन्तर्निहित है कि वत्स के अनुसार इष आदि के रूप में में भी परिवर्तन हो जाएगा । इस प्रकार पृथिवी से लेकर दिशाओं तक हमें इष के ४ रूप प्राप्त होते हैं । पुराणों में आश्विन् मास के संदर्भ में चण्डिका देवी द्वारा महिषासुर के वध के वर्णन में चण्डिका देवी चन्द्रिका का रूप हो सकती है । ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाओं में इष के साथ मही विशेषण का प्रयोग हुआ है ( उदाहरणार्थ ऋग्वेद २.३४.८, ३.२२.४, ३.३०.१८, ४.३२.७, ९.१५.७) । मही पृथिवी को भी कहते हैं । अतः यह संभव हो सकता है कि महिषासुर इष के मही अथवा पृथिवी वाले रूप से सम्बन्धित हो, जबकि चण्डिका चन्द्रमा वाले रूप से । महिष के पृथिवी वाले रूप की पुष्टि शतपथ ब्राह्मण ७.३.१.२३ से होती है जहां इष व ऊर्ज के संदर्भ में अग्नि को महिष कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ८.३.४.१० में इष, ऊर्ज, रयि व पोष, इन चार को अन्न रूपी पशु के चार पाद कहा गया है क्योंकि पशु चार पाद वाला ही होता है ।
लक्ष्मीनारायण संहिता में आश्विन् पूर्णिमा को राधा व कृष्ण के रास के संदर्भ में ऋग्वेद १.४६.६, ७.५.८ तथा अथर्ववेद १९.४०.४ की ऋचाएं उल्लेखनीय हैं ।
ऋग्वेद में इष के साथ बहुत से विशेषणों का प्रयोग हुआ है । ऋग्वेद ८.२३.२९ में अग्नि को गोमती इष: कहा गया है । ऋग्वेद १.४८.१५ तथा ५.७९.८ में उषा से गोमती इष: प्रदान करने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद ९.१०१.११ में गो त्वचा पर चित्/चेतन की गई इष के प्राप्त होने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद ८.८.१५ में आश्विनौ से घृत को चुआने वाले इष को देने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद ८.२२.९ में अश्विनौ से पीवरी इष को रथ में जोडकर हिरण्यय कोश तक आरोहण करने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद ७.७०.३ में पर्वत की मूर्द्धा पर स्थित अश्विनौ से भक्तों के लिए इष को बहाने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद १.१११.२, ४.५३.७ व ९.२३.३ में प्रजावती इष को प्राप्त करने की कामना की गई है । यद्यपि तैत्तिरीय संहिता आदि में भी प्रजावती इष का उल्लेख आया है, किन्तु प्रजावती इष क्या है, यह स्पष्ट नहीं हो पाया है । प्रजावती इष का अर्थ हमारी वह प्रजा, इच्छा, विचार आदि हो सकते हैं जो हमसे इष रूपी अन्न की प्राप्ति होने के लालच में हमारे आसपास ही मंडराते रहते हैं, अन्यथा ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि प्रजापति की प्रजा उत्पन्न होते ही उससे दूर चली जाती है । प्रजावती इष का निहितार्थ प्रज्ञावती इष भी हो सकता है ( पुराणों में प्रज्ञा को श्रद्धा की पुत्री कहा गया है ) । ऋग्वेद ६.५२.१६ में अग्नि और पर्जन्य से इडा और गर्भ के उत्पन्न होने का उल्लेख है जिसके पश्चात् प्रजावती इष प्राप्त होने की कामना की गई है । तैत्तिरीय संहिता ७.५.९.२ से ऐसा संकेत मिलता है कि जब इष व ऊर्ज का वितरण यजमान की प्रजा हेतु समाप्त हो जाता है, प्रजाएं तृप्त हो जाती हैं तो इष व ऊर्ज को आत्मा में धारण करना पडता है । ऐसा करने से शततन्तु वाली वीणा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।
ऋग्वेद ६.६०.१२ में इन्द्राग्नि से वाजवती इष: देने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद ३.६२.१४, १०.१७.८ आदि में अनमीवा इष का उल्लेख आया है । यह रोग से युक्त और रोग से मुक्त इष कौन सी है, यह अन्वेषणीय है । तैत्तिरीय संहिता ४.२.४.३ में गार्हपत्य अग्नि चयन के संदर्भ में अनमीवा इष: शब्द का प्रयोग हुआ है । शतपथ ब्राह्मण ७.१.१.२५ में अशना को अमीवा कहा गया है । ऋग्वेद १.१६५ सूक्त से आरम्भ होने वाले अगस्त्य ऋषि के सूक्तों में 'विद्यामेषं वृजनं जीरदानुं' यह सूक्तों की अन्तिम ऋचा की टेक है । ऋग्वेद ४.२० से आरम्भ होने वाले सूक्तों की टेक इषं जरित्रे नद्यो न पीपे: है । इष: के अन्य विशेषणों में पूर्वी( ३.३०.१८, ९.८७.९ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.६.१०.५), रथिनी( १.९.८), शश्वती( १.२७.७), अश्वावती ( १.३०.१७ व ८.५.१०), चित्रा( १.६३.८), सस्रुषी( १.८६.५), वीरवती( १.८६.८ व ८.४३.१५), सहस्रिणी( १.१८८.२, २.६.५ व ९.६१.३), बृहती( ३.१.२२, ९.१३.४, ९.४२.६, ९.४९.१, ९.७२.९, ९.९७.२५), मानुषी( ३.२.१०), वामी ( ३.५३.१), श्रवाय्य ( ५.३८.२), ऊर्जयन्ती ( ५.४१.१८), रेवती( ९.७२.९), पिप्युषी( ८.७.१९, ८.५४.७, ८.७२.१६, ९.८६.१८, १०.१४३.६), पीवरी( ८.५.२०), त्रिष्टुभ( ८.६९.१) आदि का प्रयोग हुआ है । ऋग्वेद ६.६९.१ तथा अथर्ववेद ३.१५.८, १९.५५.२ व २०.२१.४ आदि में समिषा शब्द प्रकट हुआ है जिसकी व्याख्या के रूप में ऐतरेय ब्राह्मण ६.१५ का कहना है कि इष तो केवल अन्न ही है, समिष तो अन्नाद्य, अन्नों में श्रेष्ठतम है । ऋग्वेद ३.५४.२२ की ऋचा स्वदस्व हव्या समिषो दिदीहि इत्यादि का विनियोग ऐतरेय ब्राह्मण २.९ में स्विष्टकृत् अग्नि के लिए प्रस्तुत पुरोडाश के लिए किया गया है । तैत्तिरीय संहिता १.४.२.१ व १.४.३.१ में उपांशु व अन्तर्याम ग्रहों के वर्णन के अन्तर्गत अन्तर्याम की स्थिति में समिष का प्रयोग हुआ है । दोनों ही ग्रहों की स्थिति में इष के मधुमती होने की कामना की गई है । तैत्तिरीय संहिता २.१.११.३ में प्रकट हुए सं इष: शब्द की व्याख्या सायण भाष्य में स्विष्टकृत अग्नि के संदर्भ में ही की गई है । तैत्तिरीय संहिता ३.४.११.१ में अग्नियों के सुगार्हपत्य स्थिति प्राप्त करने के पश्चात् उनसे समिष: होने की कामना की गई है । तैत्तिरीय संहिता ४.१.१०.१ में अग्नि के रायः, पोष व समिष के द्वारा मादित होने पर रिष से रहित होने की कामना की गई है । तैत्तिरीय संहिता ४.६.२.१ के अनुसार समिष स्थिति तब होती है जब हमारे व्यक्तित्व में सप्तर्षि ( २ आंखें, २ कान, २ घ्राण व मुख ) मिलकर एक हो जाते हैं ।
गोपथ ब्राह्मण १.१.२९ के अनुसार ऋग्वेद की प्रथम ऋचा अग्निमीळे पुरोहितं इत्यादि का विनियोग ऋग्वेद के अध्ययन से पूर्व किया जाता है, इषे त्वोर्जे त्वा इत्यादि( यजुर्वेद १.१) का विनियोग यजुर्वेद के अध्ययन से पूर्व तथा अग्न आयाहि वीतये इत्यादि ( सामवेद पूर्वार्चिक १.१) का विनियोग सामवेद से पूर्व किया जाता है ।
ऋग्वेद ८.१००.११ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.६.१० आदि में देवों द्वारा वाक् को उत्पन्न करने का उल्लेख है जिसको प्रसन्न करने पर वह धेनु बनकर हमारे लिए इष व ऊर्ज रूपी दुग्ध प्रदान कर सकती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१२.२ में अश्विनौ द्वारा इडाओं से इष, ऊर्ज आदि के दोहन करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.५.५ में यज्ञ के पात्रों की ही गौ के रूप में कल्पना की गई है । इस प्रकार स्रुचा पात्र ही गौ है, यजमान से सम्बन्धित ४ जुहू पात्र ही उसके ४ पाद हैं, यजमान - पत्नी या असुरों से सम्बन्धित ८ उपभृत नामक पात्र ही उसके ८ शफ हैं, चार ध्रुवा पात्र ही उसके ४ स्तन हैं जो इष व ऊर्ज रूपी दुग्ध प्रदान करने हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.७.१२ में सुब्रह्मण्या वाक् को देवों की धेनु कहा गया है जिसके पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ, दिशाएं व परोरजा नामक पांच पाद हैं । यह इन्द्र के लिए इष, ऊर्ज आदि दुग्ध देती है ।
आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १०.२२.१२ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.७.११ में सोमक्रयणी के ६ पदों में विष्णु के क्रमण का उल्लेख है । इनमें पहला पद इष, दूसरा ऊर्ज, तीसरा व्रत, चौथा मयोभव, पांचवा पशु व छठा रायस्पोष है । बौधायन गृह्य सूत्र १.१.२८ में इसी सूत्र का विनियोग विवाह कर्म में विष्णु क्रमण के लिए किया गया है । तैत्तिरीय संहिता ३.२.६.१ में पृषदाज्य के संदर्भ में एक इष में विष्णु के क्रमण का उल्लेख है । इस प्रकार इष की अवस्था विष्णु के क्रमण का आरम्भ है । यह विचारणीय है कि यह तथ्य पुराणों में इष शुक्ल एकादशी को विष्णु के शयन आदि की व्याख्या कर सकता है या नहीं ।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
संदर्भ
इष
*अश्वि॑ना॒ यज्व॑री॒रिषो॒ द्र॑त्पाणी॒ शुभस्पती॑ । पुरु॑भुजा चन॒स्यत॑म् ॥ - ऋग्वेद १.३.१
*अ॒स्मे धेहि॒ श्रवो बृ॒हद् द्यु॒म्नम् सहस्रसातमम् । इन्द्र॒ ता र॒थिनी॒रिषः॑ ॥ - ऋ. १.९.८
*स न॒: स्तवा॑न॒ आ भ॑र गाय॒त्रेण॒ नवी॑यसा । रयिं वी॒र॑ती॒मिष॑म् ॥ - ऋ. १.१२.११
*यम॑ग्ने पृ॒त्सु मर्त्य॒मवा॒ वाजे॑षु॒ यं जु॒नाः । स यन्ता॒ शश्वती॒रिषः॑ ॥ - ऋ. १.२७.७
*आश्वि॑ना॒वश्वा॑वत्ये॒षा या॑तं॒ शवी॑रया । गोम॑द् दस्रा॒ हिर॑ण्यवत्॥ - ऋ. १.३०.१७
*यम॒ग्निं मेध्या॑तिथिः॒ कण्व॑ ई॒ध ऋ॒तादधि॑ । तस्य॒ प्रेषा॑ दीदियु॒स्तमि॒मा ऋच॒स् तम॒ग्निं॑ व॑र्धयामसि ॥ - ऋ. १.३६.११
*या न॒: पीप॑रदश्विना॒ ज्योति॑ष्मती॒ तम॑स्ति॒रः । ताम॒स्मे रा॑साथा॒मिष॑म् ॥ - ऋ. १.४६.६
इट् – इष- अन्नम्-सा.भा.
*अ॒र्वाञ्चा॑ वां॒ सप्त॑योऽध्वर॒श्रियो॒ वह॑न्तु॒ सव॒नेदुप॑ । इषं॑ पृ॒ञ्चन्ता॑ सु॒कृते॑ सुदान॑व॒ आ ब॒र्हिः सी॑दतं नरा ॥ - ऋ. १.४७.८
*उषो॒ यद॒द्य भा॒नुना॒ वि द्वारा॑वृणवो॑ दि॒वः । प्र नो॑ यच्छतादवृ॒कं पृ॒थु च्छ॒र्दि: प्र दे॑वि॒ गोम॑ती॒रिषः॑ ॥ - ऋ. १.४८.१५
*इन्द्रे॑ण॒ दस्युं॑ द॒रय॑न्त इन्दु॑भिर्यु॒तद्वे॑षसः॒ समि॒षा र॑भेमहि ॥ - ऋ. १.५३.४
*समि॑न्द्र रा॒या समि॒षा र॑भेमहि॒ सं वाजे॑भिः पुरुश्च॒न्द्रैर॒भिद्यु॑भिः । सं दे॒व्या प्रम॑त्या वी॒रशु॒ष्मया॒ गोअ॑ग्र॒याश्वा॑वत्या रभेमहि ॥ - ऋ. १.५३.५
*स शेवृ॑ध॒मधि॑ धा द्यु॒म्नम॒स्मे महि॑ क्ष॒त्रं ज॑ना॒षाळि॑न्द्र॒ तव्य॑म् । रक्षा॑ च नो म॒घोन॑: पा॒हि सू॒रीन् रा॒ये च॑ नः स्वप॒त्या इ॒षे धाः॑ ॥ - ऋ. १.५४.११
*त्वं त्यां न॑ इन्द्र देव चि॒त्रामिष॒मापो॒ न पीपयः॒ परि॑ज्मन् । यया॑ शूर॒ प्रत्य॒स्मभ्यं॒ यंसि॒ त्मन॒मूर्जं॒ न वि॒श्वध॒ क्षर॑ध्यै ॥ - ऋ. १.६३.८
*आ यदि॒षे नृपतिं॒ तेज॒ आन॒ट् छुचि॒ रेतो॒ निषिक्तं॒ द्यौर॒भीके॑ । अ॒ग्निः शर्ध॑मनव॒द्यं युवा॑नं स्वा॒ध्यं॑ जनयत् सूदय॑च्च ॥ - ऋ. १.७१.८
अ॒स्य श्रो॑ष॒न्त्वा भुवो॒ विश्वा॒ यश्च॑र्ष॒णीर॒भि । सूरं॑ चित्स॒स्रुषी॒रिषः॑ ॥१.८६.५
*आ वि॒द्युन्म॑द्भिर्मरुतः स्व॒र्कै रथे॑भिर्यात ऋष्टि॒मद्भि॒रश्व॒पर्णैः । आ वर्षि॑ष्ठया न इ॒षा वयो॒ न प॑प्तता सुमायाः ॥ - ऋ. १.८८.१
*अर्च॑न्ति॒ नारी॑र॒पसो न वि॒ष्टिभि॑: समा॒नेन॒ योज॑ने॒ना प॑रा॒वतः॑ । इषं॒ वह॑न्तीः सुकृते॑ सुदान॑वे विश्वेदह॒ यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥ - ऋ. १.९२.३
*द्र॒विणो॒दा द्रवि॑णसस्तु॒रस्य॑ द्रविणो॒दाः सन॑रस्य॒ प्र यं॑सत् । द्र॒विणो॒दा वी॒र॑ती॒मिषं॑ नो द्रविणो॒दा रा॑सते दी॒र्घमायु॑: ॥ - ऋ. १.९६.८
*आ नो॑ य॒ज्ञाय॑ तक्षत ऋभु॒मद्वय॒: क्रत्वे॒ दक्षा॑य सुप्र॒जाव॑तीमिष॑म् । यथा॒ क्षया॑म॒ सर्व॑वीरया वि॒शा तन्न॒: शर्धा॑य धासथा॒ स्वि॑न्द्रि॒यम् ॥ - ऋ. १.१११.२
*याभि॑रङ्गिरो॒ मन॑सा निर॒ण्यथो ऽग्रं॒ गच्छ॑थो विव॒रे गोअ॑र्णसः । याभि॒र्मनुं॒ शूर॑मि॒षा स॒मा॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥ - ऋ. १.११२.१८
*मध्व॒: सोम॑स्याश्विना॒ मदा॑य प्र॒त्नो होता वि॑वासते वाम् । ब॒र्हिष्म॑ती रा॒तिर्विश्रि॑ता॒ गीरि॒षा या॑तं नास॒त्योप॒ वाजै॑: ॥ - ऋ. १.११७.१
*ए॒तानि॑ वां श्रव॒स्या॑ सुदानू॒ ब्रह्मा॑ङ्गू॒षं सद॑नं॒ रोद॑स्योः । यद् वां॑ प॒ज्रासो॑ अश्विना॒ हव॑न्ते या॒तमि॒षा च॑ वि॒दुषे॑ च॒ वाज॑म् ॥ - ऋ. १.११७.१०
*यवं॒ वृके॑णाश्विना॒ वप॒न्तेषं॑ दु॒हन्ता॒ मनु॑षाय दस्रा । अ॒भि दस्युं॒ वकु॑रेणा॒ धम॑न्तो॒रु ज्योति॑श्चक्रथु॒रार्याय ॥ - ऋ. १.११७.२१
*प्र या घोषे॒ भृग॑वाणे॒ न शोभे॒ यया॑ वा॒चा यज॑ति पजि॒|यो वा॑म् । प्रैष॒युर्न वि॒द्वान् ॥ - ऋ. १.१२०.५
*दु॒हीयन् मि॒त्रधि॑तये यु॒वाकु॑ रा॒ये च॑ नो मिमी॒तं वाज॑वत्यै । इ॒षे च॑ नो मिमीतं धेनु॒मत्यै॑ ॥ - ऋ. १.१२०.९
*त्वं नो॑ अ॒स्या इ॑न्द्र दु॒र्हणा॑याः पा॒हि व॑ज्रिवो दुरि॒ताद॒भीके॑ । प्र नो॒ वाजा॑न् र॒थ्यो॒३॑ अश्व॑बुध्यानि॒षे य॑न्धि॒ श्रव॑से सूनृता॑यै ॥ - ऋ. १.१२१.१४
*मा सा ते॑ अ॒स्मत् सु॑म॒तिर्वि द॑स॒द् वाज॑प्रमह॒: समिषो॑ वरन्त । आ नो॑ भज मघव॒न् गोष्व॒र्यो मंहि॑ष्ठास्ते सध॒माद॑: स्याम ॥ - ऋ. १.१२१.१५
*प्र तद् वो॑चेयं॒ भव्या॒येन्द॑वे॒ हव्यो॒ न य इ॒षवा॒न् मन्म॒ रेज॑ति रक्षो॒हा मन्म॒ रेज॑ति । स्व॒यं सो अ॒स्मदा नि॒दो व॒धैर॑जेत दुर्म॒तिम् । अ॑ स्रवेद॒घशं॑सोऽवत॒रम॑ क्षु॒द्रमि॑व स्रवेत् ॥ - ऋ. १.१२९.६
*व॒नेम॒ तद्धोत्र॑या चि॒तन्त्या॑ व॒नेम॑ र॒यिं र॑यिवः सु॒वीर्यं॑ र॒ण्वं सन्तं॑ सु॒वीर्य॑म् । दु॒र्मन्मा॑नं
सु॒मन्तु॑भिरेमि॒षा पृ॑चीमहि । आ स॒त्याभि॒रिन्द्रं॑ द्यु॒म्नहू॑तिभि॒र्यज॑त्रं द्यु॒म्नहू॑तिभिः ॥ - ऋ. १.१२९.७
*अवि॑न्दद् दि॒वो निहि॑तं॒ गुहा॑ नि॒धिं वेर्न गर्भं॒ परि॑वीत॒मश्म॑न्यन॒न्ते अ॒न्तरश्म॑नि । व॒|जं व॒ज्री गवा॑मिव॒ सिषा॑सन्नङ्गि॑रस्तमः । अपा॑वृणो॒दिष॒ इन्द्रः॒ परी॑वृता॒ द्वार॒ इषः॒ परी॑वृताः ॥ - ऋ. १.१३०.३
*अ॒भी नो॑ अग्न उ॒क्थमिज्जु॑गुर्या॑ द्यावा॒क्षामा॒ सिन्ध॑वश्च॒ स्वगू॑र्ताः । गव्यं॒ यव्यं॒ यन्तो॑ दी॒र्घाहेषं॒ वर॒मरु॒ण्यो॑ वरन्त ॥ - ऋ. १. १४०.१३
*अत्रा॑ ते रूपमु॑त्त॒मम॑पश्यं॒ जिगी॑षमाणमि॒ष आ प॒दे गो: । य॒दा ते॒ मर्तो॒ अनु॒ भोग॒मान॒ळादिद् ग्रसि॑ष्ठ ओष॑धीरजीगः ॥ - ऋ. १.१६३.७
*एवेदेते प्रति मा रोचमाना अनेद्यः श्रव॒ एषो॒ दधा॑नाः । सं॒चक्ष्या॑ मरुतश्च॒न्द्रव॑र्णा॒ अच्छा॑न्त मे छ॒दया॑था च नू॒नम् ॥ - ऋ. १.१६५.१२
*ए॒ष वः स्तोमो॑ मरुत इयं गीर्मा॑न्दा॒र्यस्य॑ मा॒न्यस्य॑ का॒रोः । एषा या॑सीष्ट त॒न्वे॑ व॒यां वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१६५.१५, १.१६६.१५, १६७.११, १.१६८.१०
*स॒हस्रं॑ त इन्द्रो॒तयो॑ नः स॒हस्र॒मिषो॑ हरिवो गू॒र्तत॑माः । स॒हस्रं॒ रायो॑ माद॒यध्यै॑ सह॒स्रिण॒ उप॑ नो यन्तु॒ वाजाः॑ ॥ - ऋ. १.१६७.१
*व॒व्रासो॒ न ये स्व॒जाः स्वत॑वस इषं॒ स्व॑रभि॒जाय॑न्त॒ धूत॑यः । स॒हस्रिया॑सो अ॒पां नोर्मय॑ आ॒सा गावो॒ वन्द्या॑सो॒ नोक्षणः॑ ॥ - ऋ. १.१६८.२
*को वो॒ऽन्तर्म॑रुत ऋष्टिविद्युतो॒ रेज॑ति॒ त्मना॒ हन्वे॑व जि॒ह्वया॑ । ध॒न्व॒च्युत॑ इ॒षां न याम॑नि पुरु॒प्रैषा॑ अहन्यो॒३॒॑ नैत॑शः ॥ - ऋ. १.१६८.५
*त्वं माने॑भ्य इन्द्र वि॒श्वज॑न्या॒ रदा म॒रुद्भिः॑ शु॒रुधो॒ गोअ॑ग्राः । स्तवा॑नेभिः स्तवसे देव दे॒वैर्वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१६९.८
*त्वं पा॑हीन्द्र॒ सही॑यसो॒ नॄन् भवा म॒रुद्भि॒रव॑यातहेळाः । सुप्र॒के॒तेभिः॑ सास॒हिर्दधा॑नो वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१७१.६
*ए॒ष स्तोम इन्द्र॒ तुभ्य॑म॒स्मे ए॒तेन गा॒तुं ह॑रिवो विदो नः । आ नो ववृत्याः सुवि॒ताय देव वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१७३.१३
*त्वम॒स्माकमिन्द्र वि॒श्वध स्या अवृ॒कत॑मो न॒रां नृ॑पा॒ता । स नो॒ विश्वा॑सां स्पृ॒धां स॑हो॒दा वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१७४.१०
*यथा॒ पूर्वे॑भ्यो जरि॒तृभ्य इन्द्र॒ मय इ॒वापो॒ न तृष्य॑ते ब॒भूथ । तामनु त्वा नि॒विदं जोहवीमि वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१७५.६ , १.१७६.६
*ओ सुष्टु॑त इन्द्र याह्य॒र्वाङ्ङुप॒ ब्रह्मा॑णि मा॒न्यस्य का॒रोः । वि॒द्याम॒ वस्तो॒रव॑सा गृ॒णन्तो वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१७७.५
*ए॒वा नृभि॒रिन्द्रः॑ सुश्रव॒स्या प्र॑खा॒दः पृ॒क्षो अ॒भि मि॒त्रिणो भूत् । स॒म॒र्य इ॒षः स्त॑वते॒ विवा॑चि सत्राक॒रो यज॑मानस्य॒ शंसः ॥ - ऋ. १.१७८.४
*त्वया व॒यं म॑घवन्निन्द्र॒ शत्रू॑न॒भि ष्या॑म मह॒तो मन्य॑मानान् । त्वं त्रा॒ता त्वमु नो वृ॒धे भू॑र्वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१७८.५
*यु॒वमत्य॒स्याव नक्षथो॒ यद्विप॑त्मनो॒ नर्य॑स्य॒ प्रय॑ज्योः । स्वसा॒ यद् वां विश्वगूर्ती॒ भरा॑ति वाजा॒येट्टे मधुपावि॒षे च ॥ - ऋ. १.१८०.२
*तं वां॒ रथं व॒यम॒द्या हु॑वेम॒ स्तोमै॑रश्विना सुवि॒ताय॒ नव्य॑म् । अरि॑ष्टनेमिं॒ परि॒ द्यामि॑या॒नं वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१८०.१०
*कदु॒ प्रेष्ठा॑वि॒षां र॑यी॒णाम॑ध्व॒र्यन्ता॒ यदु॑न्निनी॒थो अ॒पाम् । अ॒यं वां य॒ज्ञो अ॑कृत॒ प्रशस्तिं॒ वसुधिती॒ अवि॑तारा जनानाम् ॥ - ऋ. १.१८१.१
*प्र वां श॒रद्वा॑न् वृष॒भो न नि॒ष्षाट् पू॒र्वीरिष॑श्चरति॒ मध्व इ॒ष्णन् । एवै॑र॒न्यस्य पी॒पय॑न्त॒ वाजै॒र्वेष॑न्तीरू॒र्ध्वा न॒द्यो न आगुः॑ ॥ - ऋ. १.१८१.६
*यु॒वां पूषेवा॑श्विना॒ पुरं॑धिर॒ग्निमु॒षां न ज॑रते ह॒विष्मा॑न् । हु॒वे यद् वां वरिव॒स्या गृ॑णा॒नो वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१८१.९
*तद् वां नरा नासत्या॒वनु ष्या॒द् यद्वां॒ माना॑स उ॒चथ॒मवोचन् । अ॒स्माद॒द्य सद॑सः सो॒म्यादा वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१८२.८
*अता॑रिष्म॒ तम॑सस्पा॒रम॒स्य प्रति वां॒ स्तोमो अश्विनावधायि । एह या॑तं प॒थिभिर्देव॒यानै॑र्वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१८३.६, १.१८४.६
*उ॒भा शंसा॒ नर्या॒ माम॑विष्टामु॒भे मामू॒ती अव॑सा सचेताम् । भूरि चिद॒र्यः सु॒दास्त॑रायेषा मद॑न्त इषयेम देवाः ॥ - ऋ. १.१८५.९
*इ॒दं द्या॑वापृथिवी स॒त्यमस्तु॒ पित॒र्मात॒र्यदि॒होप॑ब्रुवे वा॑म् । भू॒तं दे॒वाना॑मव॒मे अवो॑भिर्वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१८५.११
*प्रेष्ठं वो॒ अति॑थिं गृणीषे॒ ऽग्निं श॒स्तिभि॑स्तु॒र्वणिः स॒जोषाः । अस॒द् यथा नो व॒रु॑णः सुकी॒र्तिरिष॑श्च पर्षदरिगू॒र्तः सू॒रिः ॥ - ऋ. १.१८६.३
*इ॒यं सा वो अ॒स्मे दीधि॑तिर्यजत्रा अपि॒प्राणी च॒ सद॑नी च भूयाः । नि या दे॒वेषु॒ यत॑ते वसू॒यु॒र्वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१८६.११
*तनू॑नपादृ॒तं य॒ते मध्वा य॒ज्ञः सम॑ज्यते । दध॑त् सह॒स्रिणी॒रिषः॑ ॥ - ऋ. १.१८८.२
*अवो॑चाम नि॒वच॑नान्यस्मि॒न् मान॑स्य सू॒नुः स॑हसा॒ने अ॒ग्नौ । व॒यं स॒हस्र॒मृषि॑भिः सनेम वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१८९.८
*ए॒वा म॒हस्तु॑विजा॒तस्तुवि॑ष्मा॒न् बृह॒स्पति॑र्वृष॒भो धा॑यि दे॒वः । स नः स्तु॒तो वी॒रव॑द् धातु॒ गोम॑द् वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं जी॒रदा॑नुम् ॥ - ऋ. १.१९०.८
*स नो वृ॒ष्टिं दि॒वस्परि॒ स नो॒ वाज॑मन॒र्वाण॑म् । स नः सह॒स्रिणी॒रिषः॑ ॥ - ऋ. २.६.५
*ए॒वा ते गृत्सम॒दाः शू॑र॒ मन्मा॑व॒स्यवो॒ न व॒युना॑नि तक्षुः । ब्र॒ह्म॒ण्यन्त इन्द्र ते॒ नवी॑य॒ इष॒मूर्जं सुक्षि॒तिं सु॒म्नम॑श्युः ॥ - ऋ. २.१९.८
*यद्दे॒वस्य॒ शव॑सा॒ प्रारि॑णा॒ असुं रि॒णन्न॒पः । भुव॒द् विश्व॑म॒भ्यादे॑व॒मोज॑सा वि॒दादूर्जं श॒तक्र॑तुर्वि॒दादिष॑म् ॥ - ऋ. २.२२.४
*तं नो दात मरुतो वा॒जिनं॒ रथ आपा॒नं ब्रह्म चि॒तय॑द् दि॒वेदि॑वे । इषं स्तो॒तृभ्यो वृ॒जने॑षु का॒रवे स॒निं मे॒धामरि॑ष्टं दु॒ष्टरं॒ सहः ॥ - ऋ. २.३४.७
*यद्यु॒ञ्जते म॒रुतो रु॒क्मव॑क्ष॒सो ऽश्वा॒न् रथे॑षु॒ भग॒ आ सुदान॑वः । धे॒नुर्न शिश्वे॒ स्वस॑रेषु पिन्वते॒ जना॑य रा॒तह॑विषे म॒हीमिष॑म् ॥ - ऋ. २.३४.८
*इ॒मं य॒ज्ञं स॑हसाव॒न् त्वं नो देव॒त्रा धे॑हि सुक्रतो॒ ररा॑णः । प्र यं॑सि होतर्बृह॒तीरिषो॒ नो ऽग्ने॒ महि॒ द्रवि॑ण॒मा य॑जस्व ॥ - ऋ. ३.१.२२
*वि॒शां क॒विं वि॒श्पतिं॒ मानु॑षी॒रिषः॒ सं सी॑मकृण्व॒न् त्स्वधि॑तिं॒ न तेज॑से । स उ॒द्वतो नि॒वतो याति॒ वेवि॑ष॒त् स गर्भ॑मे॒षु भुव॑नेषु दीधरत् ॥ - ऋ. ३.२.१०
*अग्ने॒ जर॑स्व स्वप॒त्य आयु॑न्यू॒र्जा पि॑न्वस्व॒ समिषो दिदीहि नः । वयां॑सि जिन्व बृह॒तश्च जागृव उ॒शिग्दे॒वाना॒मसि सु॒क्रतु॑र्वि॒पाम् ॥ - ऋ. ३.३.७
*प्र वा॑मर्चन्त्यु॒क्थिनो नीथा॒विदो जरि॒तारः । इन्द्रा॑ग्नी॒ इष॒ आ वृ॑णे ॥ - ऋ. ३.१२.५
*पु॒री॒ष्या॑सो अ॒ग्नयः प्राव॒णेभिः स॒जोष॑सः । जु॒षन्तां य॒ज्ञम॒द्रुहो ऽनमी॒वा इषो म॒हीः ॥ - ऋ. ३.२२.४
*अम॑न्थिष्टां॒ भार॑ता रेवद॒ग्निं दे॒वश्र॑वा दे॒ववा॑तः सु॒दक्ष॑म् । अग्ने॒ वि प॑श्य बृह॒ताभि रा॒येषां नो ने॒ता भ॑वता॒दनु॒ द्यून् ॥ - ऋ. ३.२३.२
*एको॒ द्वे वसु॑मती समी॒ची इन्द्र॒ आ प॑प्रौ पृथि॒वीमु॒त द्याम् । उ॒तान्तरि॑क्षाद॒भि नः समी॒क इ॒षो र॒थीः स॒युजः शूर॒ वाजा॑न् ॥ - ऋ. ३.३०.११
*स्व॒स्तये वा॒जिभि॑श्च प्रणेतः॒ सं यन्म॒हीरिष आ॒सत्सि I पू॒र्वीः । रा॒यो व॒न्तारो बृह॒तः स्या॑मा॒ऽस्मे अ॑स्तु भग इन्द्र प्र॒जावा॑न् ॥ - ऋ. ३.३०.१८
*इन्द्रा॑पर्वता बृह॒ता रथे॑न वा॒मीरिष॒ आ व॑हतं सु॒वीराः । वी॒तं ह॒व्यान्य॑ध्व॒रेषु देवा॒ वर्धे॑थां गी॒र्भिरिळ॑या मद॑न्ता ॥ - ऋ. ३.५३.१
*स्वद॑स्व ह॒व्या समिषो दिदीह्यस्म॒द्र्य१॒॑क् सं मि॑मीहि॒ श्रवां॑सि । विश्वां अग्ने पृ॒त्सु ताञ्जे॑षि शत्रू॒नहा॒ विश्वा सु॒मना दीदिही नः ॥ - ऋ. ३.५४.२२
*अश्वि॑ना॒ परि॑ वा॒मिषः॑ पुरू॒चीरी॒युर्गी॒र्भिर्यत॑माना॒ अमृ॑ध्राः । रथो॑ ह वामृत॒जा अद्रि॑जूतः॒ परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी या॑ति स॒द्यः ॥ - ऋ. ३.५८.८
*मि॒त्रो दे॒वेष्वा॒युषु॒ जना॑य वृ॒क्तब॑र्हिषे । इष॑ इष्टव्र॑ता अकः ॥ - ऋ. ३.५९.९
*सोमो॑ अ॒स्मभ्यं॑ द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे च प॒शवे॑ । अ॒न॒मी॒वा इष॑स्करत् ॥ - ऋ. ३.६२.१४
‘ इसुसोः सामर्थ्ये ' इति संहितायां सत्वम् ।' आदेशप्रत्यययोः' इति षत्वम् ।-सा.भा.
*नू ष्टु॒त इ॑न्द्र॒ नू गृ॑णा॒न इषं॑ जरि॒त्रे न॒द्यो॒३॒॑ न पी॑पेः । अका॑रि ते हरिवो॑ ब्रह्म॒ नव्यं॑ धि॒या स्या॑म र॒थ्यः॑ सदा॒साः ॥ - ऋ. ४.१६.२१, ४.१७.२१, ४.१९.११, ४.२०.११, ४.२१.११, ४.२२.११, ४.२३.११, ४.२४.११,
*त्वं ह्येक॒ ईशि॑ष॒ इन्द्र॒ वाज॑स्य गोम॑तः । स नो॑ यन्धि म॒हीमिष॑म् ॥ - ऋ. ४.३२.७
*द॒धि॒क्राव्ण॑ इ॒ष ऊ॒र्जो म॒हो यदम॑न्महि म॒रुतां॒ नाम॑ भ॒द्रम् । स्व॒स्तये वरु॑णं मि॒त्रम॒ग्निं हवा॑मह॒ इन्द्रं॒ वज्र॑बाहुम् ॥ - ऋ. ४.३९.४
*सत्वा॑ भरि॒षो ग॑वि॒षो दु॑वन्य॒सच्छ्र॑व॒स्यादि॒ष उ॒षस॑स्तुरण्य॒सत् । स॒त्यो द्र॒वो द्र॑व॒रः प॑तङ्ग॒रो द॑धि॒क्रावेष॒मूर्जं॒ स्व॑र्जनत् ॥ - ऋ. ४.४०.२
*आग॑न् दे॒व ऋ॒तुभि॒र्वर्ध॑तु क्षयं॒ दधा॑तु नः सवि॒ता सु॑प्र॒जामिष॑म् । स नः॑ क्ष॒पाभि॒रह॑भिश्च जिन्वतु प्र॒जाव॑न्तं र॒यिम॒स्मे समि॑न्वतु ॥ - ऋ. ४.५३.७
*व्य॑र्य॒मा वरु॑णश्चेति॒ पन्था॑मि॒षस्पतिः॑ सुवि॒तं गा॒तुम॒ग्निः । इन्द्रा॑विष्णू नृ॒वदु॒ षु स्तवा॑ना॒ शर्म॑ नो यन्त॒ममम॑वद् वरू॑थम् ॥ - ऋ. ४.५५.४
*नू रो॑दसी बृ॒हद्भि॑र्नो॒ वरू॑थैः॒ पत्नी॑वद्भिरि॒षय॑न्ती स॒जोषाः॑ । उ॒रू॒ची विश्वे॑ यज॒ते नि पा॑तं धि॒या स्या॑म र॒थ्यः॑ सदा॒साः ॥ - ऋ. ४.५६.४
*हव्य॒वाळ॒ग्निर॒जरः॑ पि॒ता नो॑ वि॒भुर्वि॒भावा॑ सु॒दृशी॑को अ॒स्मे । सुगा॒र्ह॒प॒त्याः समिषो॑ दिदीह्यस्म॒द्र्य१॒क् सं मि॑मीहि॒ श्रवां॑सि ॥ - ऋ. ५.४.२
*अ॒ग्निं तं म॑न्ये॒ यो वस॒nरस्तं॑ यं यन्ति॑ धे॒नवः॑ । अस्त॒मर्वन्त आ॒शवो ऽस्तं॒ नित्या॑सो वा॒जिन॒ इषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥ - ऋ. ५.६.१
*सो अ॒ग्निर्यो वसु॑र्गृणे सं यमा॒यन्ति॑ धे॒नवः॑ । समर्व॑न्तो रघु॒द्रुवः॒ सं सु॑जा॒तासः॑ सूरय॒ इषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥ - ऋ. ५.६.२
*अ॒ग्निर्हि वा॒जिनं॑ वि॒शे ददा॑ति वि॒श्वच॑र्षणिः । अ॒ग्नी रा॒ये स्वा॒भुवं॒ स प्री॒तो या॑ति॒ वार्य॒मिषं स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥ - ऋ. ५.६.३
*आ ते॑ अग्न इधीमहि द्यु॒मन्तं॑ देवा॒जर॑म् । यद्ध॒ स्या ते॒ पनी॑यसी स॒मिद् दी॒दय॑ति॒ द्यवीषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥ - ऋ. ५.६.४
*आ ते॑ अग्न ऋ॒चा ह॒विः शुक्र॑स्य शोचिषस्पते । सुश्च॑न्द्र॒ दस्म॒ विश्प॑ते॒ हव्य॑वा॒ट् तुभ्यं॑ हू॒यत॒ इषं स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥ - ऋ. ५.६.५
*प्रो त्ये अ॒ग्नयो॒ ऽग्निषु॒ विश्वं॑ पुष्यन्ति॒ वार्य॑म् । ते हि॑न्विरे॒ त इ॑न्विरे॒ त इ॑षण्यन्त्यानु॒षगिषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥ - ऋ. ५.६.६
*तव॒ त्ये अ॑ग्ने अ॒र्चयो॒ महि॑ व्राधन्त वा॒जिनः॑ । ये पत्व॑भिः श॒फानां॑ व्र॒जा भु॒रन्त॒ गोना॒मिषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥ - ऋ. ५.६.७
* नवा॑ नो अग्न॒ आ भ॑र स्तो॒तृभ्यः॑ सुक्षि॒तीरिषः॑ । ते स्या॑म॒ य आ॑नृ॒चुस्त्वादू॑तासो॒ दमेदम॒ इषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥ - ऋ. ५.६.८
*उ॒भे सु॑श्चन्द्र स॒र्पिषो॒ दर्वी॑ श्रीणीष आ॒सनि॑ । उ॒तो न॒ उत् पु॑पूर्या उ॒क्थेषु शवसस्पत॒ इषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥ - ऋ. ५.६.९
*ए॒वाँ अ॒ग्निम॑जुर्यमुर्गी॒र्भिर्य॒ज्ञेभि॑रानु॒षक् । दध॑द॒स्मे सु॒वीर्य॑मु॒त त्यदा॒श्वश्व्य॒मिषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥ - ऋ. ५.६.१०
*सखा॑यः॒ सं वः स॒म्यञ्च॒मिषं॒ स्तोमं॑ चा॒ग्नये॑ । वर्षि॑ष्ठाय क्षिती॒नामू॒र्जो नप्त्रे॒ सह॑स्वते ॥ ( ऋषि: इष आत्रेयः ) - ऋ. ५.७.१
*सं
यदि॒षो
वना॑महे॒
सं
ह॒व्या
मानु॑षाणाम्
।
उ॒त
द्यु॒म्नस्य॒
शव॑स
ऋ॒तस्य॑
र॒श्मिमा
द॑दे
।
- ऋ.
५.७.३
*इति॑
चिन्म॒न्युम॒ध्रिज॒स्त्वादा॑त॒मा
प॒शुं
द॑दे
।
आद॑ग्ने॒
अपृ॑ण॒तो
ऽत्रिः॑
सासह्या॒द्
दस्यू॑नि॒षः
सा॑सह्या॒न्नॄन्
॥
- ऋ.
५.७.१०
*यदी॑मिन्द्र
श्र॒वाय्य॒मिषं॑
शविष्ठ
दधि॒षे
।
प॒प्र॒थे
दी॑र्घ॒श्रुत्त॑मं॒
हि॑रण्यवर्ण
दु॒ष्टर॑म्
॥
- ऋ.
५.३८.२
*तां
वो॑
देवाः
सुम॒तिमू॒र्जय॑न्ती॒मिष॑मश्याम
वसवः॒
शसा॒
गोः
।
सा
नः॑
सु॒दानु॑र्मृळय॑न्ती
दे॒वी
प्रति॒
द्रव॑न्ती
सुवि॒ताय॑
गम्याः
॥
- ऋ.
५.४१.१८
*तन्नो॑ अन॒र्वा स॑वि॒ता वरू॑थं॒ तत् सिन्ध॑व इ॒षय॑न्तो॒ अनु॑ ग्मन् । उप यद्वोचे॑ अध्व॒रस्य॒ होता॑ रा॒यः स्या॑म॒ पत॑यो॒ वाज॑रत्ना: ॥ - ऋ. ५.४९.४
*वृ॒ष्टिद्या॑वा री॒त्या॑पे॒षस्पती॒ दानु॑मत्याः । बृ॒हन्तं॒ गर्त॑माशाते ॥ - ऋ. ५.६८.५
*ता वां स॒म्यग॑द्रुह्वा॒णेष॑मश्याम॒ धायसे । व॒यं ते रु॑द्रा स्याम ॥ - ऋ. ५.७०.२
*इ॒दं हि वां॑ प्र॒दिवि॒ स्थान॒मोक॑ इ॒मे गृ॒हा अ॑श्विने॒दं दु॑रो॒णम् । आ नो॑ दि॒वो बृ॑ह॒तः पर्व॑ता॒दा ऽद्भ्यो या॑त॒मिष॒मूर्जं॒ वह॑न्ता ॥ - ऋ. ५.७६.४
*उ॒त नो॒ गोम॑ती॒रिष॒ आ व॑हा दुहितर्दिवः । सा॒कं सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॑ शुक्रैः शोच॑द्भिर॒र्चिभिः॒ सुजा॑ते॒ अश्व॑सूनृते ॥ - ऋ. ५.७९.८
*ए॒वेन्द्रा॒ग्निभ्या॒महा॑वि ह॒व्यं शू॒ष्यं घृ॒तं न पू॒तमद्रि॑भिः । ता सू॒रिषु॒ श्रवो॑ बृ॒हद् र॒यिं गृ॒णत्सु॑ दिधृत॒मिषं॑ गृ॒णत्सु॑ दिधृतम् ॥ - ऋ. ५.८६.६
*नृ॒वद् व॑सो॒ सद॒मिद्धे॑ह्य॒स्मे भूरि॑ तो॒काय॒ तन॑याय प॒श्वः । पू॒र्वीरिषो॑ बृह॒तीरा॒रेअ॑घा अ॒स्मे भ॒द्रा सौ॑श्रव॒सानि॑ सन्तु ॥ - ऋ. ६.१.१२
*अ॒ग्ना यो मर्त्यो॒ दुवो॒ धियं॑ जु॒जोष॑ धी॒तिभिः॑ । भस॒न्नु ष प्र पू॒र्व्य इषं॑ वुरी॒ताव॑से ॥ - ऋ. ६.१४.१
*ए॒वा पा॑हि प्र॒त्नथा॒ मन्द॑तु त्वा श्रु॒धि ब्रह्म॑ वावृ॒धस्वो॒त गी॒र्भिः । आ॒विः सूर्यं॑ कृणु॒हि पी॑पि॒हीषो॑ ज॒हि शत्रूँ॑र॒भि गा इ॑न्द्र तृन्धि ॥ - ऋ. ६.१७.३
*स नो॒ वाजा॑य॒ श्रव॑स इ॒षे च॑ रा॒ये धे॑हि द्यु॒मत॑ इन्द्र॒ विप्रा॑न् । भ॒रद्वा॑जे नृ॒वत॑ इन्द्र सू॒रीन् दि॒वि च॑ स्मैधि॒ पार्ये॑ न इन्द्र ॥ - ऋ. ६.१७.१४
*प्र श्ये॒नो न म॑दि॒रमं॒शुम॑स्मै॒ शिरो॑ दा॒सस्य॒ नमु॑चेर्मथा॒यन् । प्राव॒न्नमीं॑ सा॒प्यं स॒सन्तं॑ पृ॒णग्रा॒या समि॒षा सं स्व॒स्ति ॥ - ऋ. ६.२०.६
*ग॒म्भी॒रेण॑ न उ॒रुणा॑मत्रि॒न् प्रेषो य॑न्धि सुतपाव॒न् वाजा॑न् । स्था ऊ॒ षु ऊ॒र्ध्व ऊ॒ती अरि॑षण्यन्न॒क्तोर्व्यु॑ष्टौ॒ परि॑तक्म्यायाम् ॥ - ऋ. ६.२४.९
*स गोम॑घा जरि॒त्रे अश्व॑श्चन्द्रा॒ वाज॑श्रवसो॒ अधि॑ धेहि॒ पृक्षः॑ । पी॒पि॒हीषः॑ सु॒दुघा॑मिन्द्र धे॒नुं भ॒रद्वा॑जेषु सु॒रुचो॑ रुरुच्याः ॥ - ऋ. ६.३५.४
*म॒न्द्रस्य॑ क॒वेर्दि॒व्यस्य॒ वह्ने॒र्विप्र॑मन्मनो वच॒नस्य॒ मध्वः॑ । अपा॑ न॒स्तस्य॑ सच॒नस्य॑ दे॒वेषो॑ युवस्व गृण॒ते गोअ॑ग्राः ॥ - ऋ. ६.३९.१
*नू गृ॑णा॒नो गृ॑ण॒ते प्र॑त्न राज॒न्निषः॑ पिन्व वसु॒देया॑य पू॒र्वीः । अ॒प ओष॑धीरवि॒षा वना॑नि॒ गा अर्व॑तो॒ नॄनृ॒चसे॑ रिरीहि ॥ - ऋ. ६.३९.५
*वरि॑ष्ठे न इन्द्र व॒न्धुरे॑ धा॒ वहि॑ष्ठयोः शताव॒न्नश्व॑यो॒रा । इष॒मा व॑क्षी॒षां वर्षि॑ष्ठां॒ मा न॑स्तारीन्मघव॒न् रायो॑ अ॒र्यः ॥ - ऋ. ६.४७.९
*भ॒रद्वा॑जा॒य॑ धुक्षत द्वि॒ता । धे॒नुं च॑ वि॒श्वदो॑हस॒मिषं॑ च वि॒श्वभो॑जसम् ॥ - ऋ. ६.४८.१३
*ते नो॑ रु॒द्रः सर॑स्वती स॒जोषा॑ मी॒ळ्हुष्म॑न्तो॒ विष्णु॑र्मृळन्तु वा॒युः । ऋ॒भु॒क्षा वाजो॒ दैव्यो॑ विधा॒ता प॒र्जन्या॒वाता॑ पिप्यता॒मिषं॑ नः ॥ - ऋ. ६.५०.१२
*ये के च॒ ज्मा म॒हिनो॒ अहि॑माया दि॒वो ज॑ज्ञि॒रे अ॒पां स॒धस्थे॑ । ते अ॒स्मभ्य॑मि॒षये॒ विश्व॒मायुः॒ क्षप॑ उ॒स्रा व॑रिवस्यन्तु दे॒वाः ॥ - ऋ. ६.५२.१५
*अग्नी॑पर्जन्या॒वव॑तं॒ धियं मे॒ ऽस्मिन् हवे॑ सुहवा सुष्टु॒तिं नः॑ । इळा॑म॒न्यो ज॒नय॒द् गर्भ॑म॒न्यः प्र॒जाव॑ती॒रिष॒ आ ध॑त्तम॒स्मे ॥ - ऋ. ६.५२.१६
*ता नो॒ वाज॑वती॒रिष॑ आ॒शून् पि॑पृत॒मर्व॑तः । इन्द्र॑म॒ग्निं॑ च॒ वोळ्ह॑वे ॥ - ऋ. ६.६०.१२
*उ॒भा वा॑मिन्द्राग्नी आहु॒वध्या॑ उ॒भा राध॑सः स॒ह मा॑द॒यध्यै॑ । उ॒भा दा॒तारा॑वि॒षां र॑यी॒णामु॒भा वाज॑स्य सा॒तये॑ हुवे वाम् ॥ - ऋ. ६.६०.१३
*ता नव्य॑सो॒ ज॑रमाणस्य॒ मन्मोप॑ भू॒षतो युयुजा॒नस॑प्ती । शुभं॒ पृक्ष॒मिष॒मूर्जं॒ वह॑न्ता॒ होता॑ यक्षत् प्र॒त्नो अ॒ध्रुग्युवा॑ना ॥ - ऋ. ६.६२.४
*आ वां॒ वयोऽश्वा॑सो॒ वहि॑ष्ठा अ॒भि प्रयो॑ नासत्या वहन्तु । प्र वां॒ रथो॒ मनो॑जवा असर्जी॒षः पृ॒क्ष इ॒षिधो॒ अनु॑ पू॒र्वीः ॥ - ऋ. ६.६३.७
*पु॒रु हि वां॑ पुरुभुजा दे॒ष्णं धे॒नुं न॒ इषं॑ पिन्वत॒मस॑क्राम् । स्तुत॑श्च वां माध्वी सुष्टु॒तिश्च॒ रसा॑श्च॒ ये वा॒मनु॑ रा॒तिमग्म॑न् ॥ - ऋ. ६.६३.८
*श्रवो॒ वाज॒मिष॒मूर्जं॒ वह॑न्ती॒र्नि दा॒शुष॑ उषसो॒ मर्त्या॑य । म॒घोनी॑र्वी॒रव॒त्पत्य॑माना॒ अवो॑ धात विध॒ते रत्न॑म॒द्य ॥ - ऋ. ६.६५.३
*श्रु॒ष्टी वां॑ य॒ज्ञ उद्य॑तः स॒जोषा॑ मनु॒ष्वद् वृ॒क्तब॑र्हिषो॒ यज॑ध्यै । आ य इन्द्रा॒वरु॑णावि॒षे अ॒द्य म॒हे सु॒म्नाय॑ म॒ह आ॑व॒वर्तत् ॥ - ऋ. ६.६८.१
*स इत् सु॒दानुः स्ववाँ॑ ऋ॒तावेन्द्रा॒ यो वां॑ वरुण॒ दाश॑ति॒ त्मन् । इ॒षा स द्वि॒षस्त॑रे॒द् दास्वा॒न् वंस॑द् र॒यिं र॑यि॒वत॑श्च॒ जना॑न् ॥ - ऋ. ६.६८.५
*सं वां॒ कर्म॑णा॒ समि॒षा हि॑नो॒मीन्द्रा॑विष्णू॒ अप॑सस्पा॒रे अ॒स्य । जु॒षेथां॑ य॒ज्ञं द्रवि॑णं च धत्त॒मरि॑ष्टैर्नः प॒थिभिः॑ पा॒रय॑न्ता ॥ - ऋ. ६.६९.१
*ताम॑ग्ने अ॒स्मे इष॒मेर॑यस्व॒ वैश्वा॑नर द्यु॒मतीं जातवेदः । यया॒ राधः॒ पिन्व॑सि विश्ववार पृ॒थु श्रवो॑ दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य ॥ - ऋ. ७.५.८
*नू त्वाम॑ग्न ईमहे॒ वसि॑ष्ठा ईशा॒नं सू॑नो सहसो॒ वसू॑नाम् । इषं॑ स्तो॒तृभ्यो॑ म॒घव॑द्भ्य आनड् यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥ - ऋ. ७.७.७, ७.८.७,
ए॒वाग्निं स॑ह॒स्यं१॒॑ वसि॑ष्ठो रा॒यस्का॑मो वि॒श्वप्स्न्य॑स्य स्तौत् ।
इषं॑ र॒यिं प॑प्रथ॒द्वाज॑म॒स्मे यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒ः सदा॑ नः ॥७.४२.६
यानि स्थानान्यश्विना दधाथे दिवो यह्वीष्वोषधीषु विक्षु । नि पर्वतस्य मूर्धनि सदन्तेषं जनाय दाशुषे वहन्ता ॥७.७०.३॥
*उ॒त नो॒ गोम॑ती॒रिष॑ उ॒त सा॒तीर॑हर्विदा । वि प॒थ: सा॒तये॑ सितम् ॥ - ऋ. ८.५.९
*आ नो॒ गोम॑न्तमश्विना सु॒वीरं॑ सु॒रथं॑ र॒यिम् । वो॒ळ्हमश्वा॑वती॒रिषः॑ ॥ - ऋ. ८.५.१०
*तेन॑ नो वाजिनीवसू॒ पश्वे॑ तो॒काय॒ शं गवे॑ । वह॑तं॒ पीव॑री॒रिषः॑ ॥ - ऋ. ८.५.२०
*उ॒त नो॑ दि॒व्या इष॑ उ॒त सिन्धूँ॑रहर्विदा । अप॒ द्वारे॑व वर्षथ: ॥ - ऋ. ८.५.२१
*आ व॑हेथे परा॒कात् पू॒र्वीरश्नन्ता॑वश्विना। इषो॒ दासी॑रमर्त्या ॥ - ऋ. ८.५.३१
*रथं॑ वा॒मनु॑गायसं॒ य इ॒षा वर्त॑ते स॒ह । न च॒क्रम॒भि बा॑धते ॥ - ऋ. ८.५.३४
*यु॒वं मृ॒गं जा॑गृ॒वांसं॒ स्वद॑थो वा वृषण्वसू । ता नः॑ पृङ्क्तमि॒षा र॒यिम् ॥ - ऋ. ८.५.३६
*प्र यद् व॑स्त्रि॒ष्टुभ॒मिषं॒ मरु॑तो॒ विप्रो॒ अक्ष॑रत् । वि पर्व॑तेषु राजथ ॥ - ऋ. ८.७.१
*उदी॑रयन्त वा॒युभि॑र्वा॒श्रासः॒ पृश्नि॑मातरः । धु॒क्षन्त॑ पि॒प्युषी॒मिष॑म् ॥ - ऋ. ८.७.३
*इ॒मा उ॑ वः सुदानवो घृ॒तं न पि॒प्युषी॒रिषः॑ । वर्धा॑न् का॒ण्वस्य॒ मन्म॑भिः ॥ - ऋ. ८.७.१९
यो वां॑ नासत्या॒वृषि॑र्गी॒र्भिर्व॒त्सो अवी॑वृधत् । तस्मै॑ स॒हस्र॑निर्णिज॒मिषं॑ धत्तं घृत॒श्चुतं॑ ॥८.८.१५
*वर्ध॑स्वा॒ सु पु॑रुष्टुत॒ ऋषि॑ष्टुताभिरू॒तिभिः॑ । धु॒क्षस्व॑ पि॒प्युषी॒मिष॒मवा॑ च नः ॥ - ऋ. ८.१३.२५
*वी॒ळु॒प॒विभि॑र्मरुत ऋभुक्षण॒ आ रु॑द्रासः सुदी॒तिभिः॑ । इ॒षा नो॑ अ॒द्या ग॑ता पुरुस्पृहो य॒ज्ञमा सो॑भरी॒यवः॑ ॥ - ऋ. ८.२०.२
*गोभि॑र्वा॒णो अ॑ज्यते॒ सोभ॑रीणां॒ रथे॒ कोशे॑ हिर॒ण्यये॑ । गोब॑न्धवः सुजा॒तास॑ इ॒षे भु॒जे म॒हान्तो॑ नः॒ स्पर॑से॒ नु ॥ - ऋ. ८.२०.८
*आ हि रु॒हत॑मश्विना॒ रथे॒ कोशे॑ हिर॒ण्यये॑ वृषण्वसू । यु॒ञ्जाथां॒ पीव॑री॒रिषः॑ ॥ - ऋ. ८.२२.९
*ताभि॒रा या॑तं वृष॒णोप॑ मे॒ हवं॑ वि॒श्वप्सुं॑ वि॒श्ववा॑र्यम् । इ॒षा मंहि॑ष्ठा पुरु॒भूत॑मा नरा॒ याभिः॒ क्रिविं॑ वावृ॒धुस्ताभि॒रा ग॑तम् ॥ - ऋ. ८.२२.१२
*येषा॑माबा॒ध ऋ॒ग्मिय॑ इ॒षः पृ॒क्षश्च॑ नि॒ग्रभे॑ । उ॒प॒विदा॒ वह्नि॑र्विन्दते॒ वसु॑ ॥ - ऋ. ८.२३.३
*त्वं हि सु॑प्र॒तूरसि॒ त्वं नो॒ गोम॑ती॒रिषः॑ । म॒हो रा॒यः सा॒तिम॑ग्ने॒ अपा॑ वृधि ॥ - ऋ. ८.२३.२९
*नपा॑ता॒ शव॑सो म॒हः सू॒नू दक्ष॑स्य सु॒क्रतू॑ । सृ॒प्रदा॑नू इ॒षो वास्त्वधि॑ क्षितः ॥(दे. मित्रावरुणौ) - ऋ. ८.२५.५
*सं या दानू॑नि येमथुर्दि॒व्या: पार्थि॑वी॒रिषः॑ । नभ॑स्वती॒रा वां॑ चरन्तु वृ॒ष्टयः॑ ॥ - ऋ. ८.२५.६
*ता वा॑म॒द्य ह॑वामहे ह॒व्येभि॑र्वाजिनीवसू । पू॒र्वीरि॒ष इ॒षय॑न्ता॒वति॑ क्ष॒पः ॥ - ऋ. ८.२६.३
*यद॒दो दि॒वो अ॑र्ण॒व इ॒षो वा॒ मद॑थो गृ॒हे । श्रु॒तमिन्मे॑ अमर्त्या ॥ - ऋ. ८.२६.१७
*प्र स क्षयं॑ तिरते॒ वि म॒हीरिषो॒ यो वो॒ वरा॑य॒ दाश॑ति । प्र प्र॒जाभि॑र्जायते॒ धर्म॑ण॒स्पर्यरि॑ष्टः॒ सर्व॑ एधते ॥ - ऋ. ८.२७.१६
स त्वं विप्रा॑य दा॒शुषे॑ र॒यिं दे॑हि सह॒स्रिणं॑ । अग्ने॑ वी॒रव॑ती॒मिषं॑ ॥८.४३.१५
*त्वां हि स॒त्यम॑द्रिवो वि॒द्म दा॒तारIमि॒षाम् । वि॒द्म दा॒तारं॑ रयी॒णाम् ॥ - ऋ. ८.४६.२
*सन्ति॒ ह्य१॒॑र्य आ॒शिष॒ इन्द्र॒ आयु॒र्जना॑नाम् । अ॒स्मान् न॑क्षस्व मघव॒न्नुपाव॑से धु॒क्षस्व॑ पि॒प्युषी॒मिष॑म् ॥ - ऋ. ८.५४.७
*प्रप्र॑
वस्त्रि॒ष्टुभ॒मिषं॑
म॒न्दद्वी॑रा॒येन्द॑वे
।
धि॒या
वो॑
मे॒धसा॑तये॒
पुरं॒ध्या
वि॑वासति
॥
- ऋ.
८.६९.१
*अ॒ग्निरि॒षां
स॒ख्ये
द॑दातु
न॒
ईशे॒
यो
वार्या॑णाम्
।
अ॒ग्निं
तो॒के
तन॑ये॒
शश्व॑दीमहे॒
वसुं॒
सन्तं॑
तनू॒पाम्
॥
- ऋ.
८.७१.१३
*इ॒षा
म॑न्द॒स्वादु॒
ते
ऽरं॒
वरा॑य
म॒न्यवे॑
।
भुव॑त्त
इन्द्र॒
शं
हृदे॒
॥
- ऋ.
८.८२.३
*अत॑श्चिदिन्द्र
ण॒
उपा
ऽऽया॑हि
श॒तवा॑जया
।
इ॒षा
स॒हस्र॑वाजया
॥
- ऋ.
८.९२.१०
*इन्द्र॑
इ॒षे
द॑दातु
न
ऋभु॒क्षण॑मृ॒भुं
र॒यिम्
।
वा॒जी
द॑दातु
वा॒जिन॑म्
॥
- ऋ.
८.९३.३४
दे॒वीं वाच॑मजनयन्त दे॒वास्तां वि॒श्वरू॑पाः प॒शवो॑ वदन्ति । सा नो॑ म॒न्द्रेष॒मूर्जं॒ दुहा॑ना धे॒नुर्वाग॒स्मानुप॒ सुष्टु॒तैतु॑ ॥८.१००.११
*ए॒ष
उ॒
स्य
पु॑रुव्र॒तो
ज॑ज्ञा॒नो
ज॒नय॒न्निषः॑
।
धार॑या
पवते
सु॒तः
॥
- ऋ.
९.३.१०
*नृ॒चक्ष॑सं
त्वा
व॒यमिन्द्र॑पीतं
स्व॒र्विद॑म्
।
भ॒क्षी॒महि॑
प्र॒जामिष॑म्
॥
- ऋ.
९.८.९
*उ॒त
नो॒
वाज॑सातये॒
पव॑स्व
बृह॒तीरिषः॑
।
द्यु॒मदि॑न्दो
सु॒वीर्य॑म्
॥
- ऋ.
९.१३.४
*अ॒भि
क्षिपः॒
सम॑ग्मत
म॒र्जय॑न्तीरि॒षस्पति॑म्
।
पृ॒ष्ठा
गृ॑भ्णत
वा॒जिनः॑
॥
- ऋ.
९.१४.७
*ए॒तं
मृ॑जन्ति॒
मर्ज्य॒मुप॒
द्रोणे॑ष्वा॒यवः॑
।
प्र॒च॒क्रा॒णं
म॒हीरिषः॑
॥
- ऋ.
९.१५.७
*अ॒भ्य॑र्ष
बृ॒हद्यशो॑
म॒घव॑द्भ्यो
ध्रु॒वं
र॒यिम्
।
इषं॑
स्तो॒तृभ्य॒
आ
भ॑र
॥
- ऋ.
९.२०.४
*आ
प॑वमान
नो
भरा॒ऽर्यो
अदा॑शुषो॒
गय॑म्
।
कृ॒धि
प्र॒जाव॑ती॒रिषः॑
॥
- ऋ.
९.२३.३
*प॒रि॒ष्कृ॒ण्वन्ननि॑ष्कृतं॒
जना॑य
या॒तय॒न्निषः॑
।
वृ॒ष्टिं
दि॒वः
परि॑
स्रव
॥
- ऋ.
९.३९.२
*विश्वा॑
सोम
पवमान
द्यु॒म्नानी॑न्द॒वा
भ॑र
।
वि॒दाः
स॑ह॒स्रिणी॒रिषः॑
॥
- ऋ.
९.४०.४
*आ
प॑वस्व
म॒हीमिषं॒
गोम॑दिन्दो॒
हिर॑ण्यवत्।
अश्वा॑व॒द्वाज॑वत्सु॒तः
॥
- ऋ.
९.४१.४
*गोम॑न्न:
सोम
वी॒रव॒दश्वा॑व॒द्वाज॑वत्सु॒तः
।
पव॑स्व
बृह॒तीरिषः॑
॥
- ऋ.
९.४२.६
*पव॑स्व
वृ॒ष्टिमा
सु
नो॒
ऽपामू॒र्मिं
दि॒वस्परि॑
।
अ॒य॒क्ष्मा
बृ॑ह॒तीरिषः॑
॥
- ऋ.
९.४९.१
*परि॑
णो॒
अश्व॑मश्व॒विद्गोम॑दिन्दो॒
हिर॑ण्यवत्।
क्षरा॑
सह॒स्रिणी॒रिषः॑
॥
- ऋ.
९.६१.३
*उत
नो
गोम॑ती॒रिषो॒
विश्वा
अर्ष
परिष्टुभः
।
गृणानो
जमदग्निना
॥
- ऋ.
९.६२.२४
*इष॒मूर्जं॑
च
पिन्वस॒
इन्द्रा॑य
मत्स॒रिन्त॑मः
।
च॒मूष्वा
नि
षी॑दसि
॥
- ऋ.
९.६३.२
*आ
न॑
इन्दो
म॒हीमिषं॒
पव॑स्व
वि॒श्वद॑र्शतः
।
अ॒स्मभ्यं॑
सोम
गातु॒वित्॥
- ऋ.
९.६५.१३
*इषं॑
तो॒काय॑
नो॒
दध॑द॒स्मभ्यं
सोम
वि॒श्वतः॑
।
आ
प॑वस्व
सह॒स्रिण॑म्
॥
- ऋ.
९.६५.२१
*पव॑स्व
ज॒नय॒न्निषो॒
ऽभि
विश्वा॑नि॒
वार्या॑
।
सखा॒
सखि॑भ्य
ऊ॒तये॑
॥
- ऋ.
९.६६.४
*अग्न॒
आयूं॑षि
पवस॒
आ
सु॒वोर्ज॒मिषं॑
च
नः
।
आ॒रे
बा॑धस्व
दु॒च्छुना॑म्
॥
- ऋ.
९.६६.१९
*आ
तू
न॑
इन्दो
श॒तदा॒त्वश्व्यं॑
स॒हस्र॑दातु
पशु॒मद्धिर॑ण्यवत्।
उप॑
मास्व
बृह॒ती
रे॒वती॒रिषो
ऽधि॑
स्तो॒त्रस्य॑
पवमान
नो
गहि
॥
- ऋ.
९.७२.९
*दि॒वो यः स्क॒म्भो ध॒रुणः॒ स्वा॑तत॒ आपू॑र्णो अं॒शुः प॒र्येति॑ वि॒श्वतः॑ । सेमे म॒ही रोद॑सी यक्षदा॒वृता॑ समीची॒ने दा॑धार॒ समिषः॑ क॒विः ॥ - ऋ. ९.७४.२
*आ नः॑ सोम सं॒यन्तं॑ पि॒प्युषी॒मिष॒मिन्दो॒ पव॑स्व॒ पव॑मानो अ॒स्रिध॑म् । या नो॒ दोह॑ते॒ त्रिरह॒न्नस॑श्चुषी क्षु॒मद्वाज॑व॒न्मधु॑मत् सु॒वीर्य॑म् ॥ - ऋ. ९.८६.१८
*इष॒मूर्जं॑ पवमाना॒भ्य॑र्षसि श्ये॒नो न वंसु॑ क॒लशे॑षु सीदसि । इन्द्रा॑य॒ मद्वा॒ मद्यो॒ मदः॑ सु॒तो दि॒वो वि॑ष्ट॒म्भ उ॑प॒मो वि॑चक्ष॒णः ॥ - ऋ. ९.८६.३५
*उ॒त स्म॑ रा॒शिं परि॑ यासि॒ गोना॒मिन्द्रे॑ण सोम स॒रथं॑ पुना॒नः । पू॒र्वीरिषो॑ बृह॒तीर्जी॑रदानो॒ शिक्षा॑ शचीव॒स्तव॒ ता उ॑प॒ष्टुत् ॥ - ऋ. ९.८७.९
*इष॒मूर्ज॑म॒भ्य१॒॑र्षाश्वं॒ गामु॒रु ज्योतिः॑ कृणुहि॒ मत्सि॑ दे॒वान् । विश्वा॑नि॒ हि सु॒षहा॒ तानि॒ तुभ्यं॒ पव॑मान॒ बाध॑से सोम॒ शत्रू॑न् ॥ - ऋ. ९.९४.५
*अर्वाँ॑ इव॒ श्रव॑से सा॒तिमच्छेन्द्र॑स्य वा॒योर॒भि वी॒तिम॑र्ष । स नः॑ स॒हस्रा॑ बृह॒तीरिषो॑ दा॒ भवा॑ सोम द्रविणो॒वित्पु॑ना॒नः ॥ - ऋ. ९.९७.२५
*व॒यं
ते॑
अ॒स्य
वृ॑त्रह॒न्
वसो॒
वस्वः॑
पुरु॒स्पृहः॑
।
नि
नेदि॑ष्ठतमा
इ॒षः
स्याम॑
सु॒म्नस्या॑ध्रिगो
॥
- ऋ.
९.९८.५
*सु॒ष्वा॒णासो॒
व्यद्रि॑भि॒श्चिता॑ना॒
गोरधि॑
त्व॒चि
।
इष॑म॒स्मभ्य॑म॒भित॒:
सम॑स्वरन्
वसु॒विदः॑
॥
- ऋ.
९.१०१.११
*यस्य॑
ते
पी॒त्वा
वृ॑ष॒भो
वृ॑षा॒यते
ऽस्य
पी॒ता
स्व॒र्विदः॑
।
स
सु॒प्रके॑तो
अ॒भ्य॑क्रमी॒दिषो
ऽच्छा॒
वाजं॒
नैत॑शः
॥
- ऋ.
९.१०८.२
*विश्वे॑षां॒ ह्य॑ध्व॒राणा॒मनी॑कं चि॒त्रं के॒तुं जनि॑ता त्वा ज॒जान॑ । स आ य॑जस्व नृ॒वती॒रनु॒ क्षाः स्पा॒र्हा इषः॑ क्षु॒मती॑र्वि॒श्वज॑न्याः ॥ - ऋ. १०.२.६
*ऋ॒तस्य॒ हि व॑र्त॒नयः॒ सुजा॑त॒मिषो॒ वाजा॑य प्र॒दिवः॒ सच॑न्ते । अ॒धी॒वा॒सं रोद॑सी वावसा॒ने घृ॒तैरन्नै॑र्वावृधाते॒ मधू॑नाम् ॥ - ऋ. १०.५.४
*यस्ते॑ अग्ने सुम॒तिं मर्तो॒ अक्ष॒त् सह॑सः सूनो॒ अति॒ स प्र शृ॑ण्वे । इषं॒ दधा॑नो॒ वह॑मानो॒ अश्वै॒रा स द्यु॒माँ अम॑वान् भूषति॒ द्यून् ॥ - ऋ. १०.११.७
*सर॑स्वति॒ या स॒रथं॑ य॒याथ॑ स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती । आ॒सद्या॒स्मिन् ब॒र्हिषि॑ मादयस्वाऽनमी॒वा इष॒ आ धे॑ह्य॒स्मे ॥ - ऋ. १०.१७.८
*ए॒वा ते॑ अग्ने विम॒दो म॑नी॒षामूर्जो॑ नपाद॒मृते॑भिः स॒जोषाः॑ । गिर॒ आ व॑क्षत् सुम॒तीरि॑या॒न इष॒मूर्जं॑ सुक्षि॒तिं विश्व॒माभाः॑ ॥ - ऋ. १०.२०.१०
*यु॒वां मृ॒गेव॑ वार॒णा मृ॑ग॒ण्यवो॑ दो॒षा वस्तो॑र्ह॒विषा॒ नि ह्व॑यामहे । यु॒वं होत्रा॑मृतु॒था जुह्व॑ते न॒रेषं॒ जना॑य वहथ: शुभस्पती ॥ - ऋ. १०.४०.४
*अ॒हं गु॒ङ्गुभ्यो॑ अतिथि॒ग्वमिष्क॑र॒मिषं॒ न वृ॑त्र॒तुरं॑ वि॒क्षु धा॑रयम् । यत् प॑र्णय॒घ्न उ॒त वा॑ करञ्ज॒हे प्राहं म॒हे वृ॑त्र॒हत्ये॒ अशु॑श्रवि ॥ - ऋ. १०.४८.८
*प्र मे॒ नमी॑ सा॒प्य इ॒षे भु॒जे भू॒द्गवा॒॒मेषे॑ स॒ख्या कृ॑णुत द्वि॒ता । दि॒द्युं यद॑स्य समि॒थेषु॑ मं॒हय॒मादिदे॑नं॒ शंस्य॑मु॒क्थ्यं॑ करम् ॥ - ऋ. १०.४८.९
*के ते नर॑ इन्द्र॒ ये त॑ इ॒षे ये ते॑ सु॒म्नं स॑ध॒न्य१॒॑मिय॑क्षान् । के ते॒ वाजा॑यासु॒र्या॑य हिन्विरे॒ के अ॒प्सु स्वासू॒र्वरा॑सु॒ पौंस्ये॑ ॥ - ऋ. १०.५०.३
*कृ॒ष्णा यदद्गोष्व॑रु॒णीषु॒ सीद॑द् दि॒वो नपा॑ताश्विना हुवे वाम् । वी॒तं मे य॒ज्ञमा ग॑तं मे॒ अन्नं॑ वव॒न्वांसा॒ नेष॒मस्मृ॑तध्रू ॥ - ऋ. १०.६१.४
*वि॒श्वक॑र्मा॒ विम॑ना॒ आद्विहा॑या धा॒ता वि॑धा॒ता प॑र॒मोत सं॒दृक् । तेषा॑मि॒ष्टानि॒ समि॒षा म॑दन्ति॒ यत्रा॑ सप्तऋ॒षीन् प॒र एक॑मा॒हुः ॥ - ऋ. १०.८२.२
*ए॒वा म॒हो अ॑सुर व॒क्षथा॑य वम्र॒कः प॒ड्भिरुप॑ सर्प॒दिन्द्र॑म् । स इ॑या॒नः क॑रति स्व॒स्तिम॑स्मा॒ इष॒मूर्जं॑ सुक्षि॒तिं विश्व॒माभाः॑ ॥ - ऋ. १०.९९.१२
*वंस॑गेव पूष॒र्या॑ शि॒म्बाता॑ मि॒त्रेव॑ ऋ॒ता श॒तरा॒ शात॑पन्ता । वाजे॑वो॒च्चा वय॑सा घर्म्ये॒ष्ठा मेषे॑वे॒षा स॑प॒र्या॒३॒॑ पुरी॑षा ॥ - ऋ. १०.१०६.५
*इषं॑ दु॒हन्त्सु॒दुघां॑ वि॒श्वधा॑यसं यज्ञ॒प्रिये॒ यज॑मानाय सुक्रतो । अग्ने॑ घृ॒तस्नु॒स्त्रिर्ऋ॒तानि॒ दीद्य॑द्व॒र्तिर्य॒ज्ञं प॑रि॒यन्त्सु॑क्रतूयसे ॥ - ऋ. १०.१२२.६
*अव॒ त्या बृ॑ह॒तीरिषो॑ वि॒श्वश्च॑न्द्रा अमित्रहन् । शची॑भिः शक्र धूनु॒हीन्द्र॒ विश्वा॑भिरू॒तिभि॑र्दे॒वी जनि॑त्र्यजीजनद्भ॒द्रा जनि॑त्र्यजीजनत् ॥ - ऋ. १०.१३४.३
*ऊर्जो॑ नपाज्जातवेदः सुश॒स्तिभि॒र्मन्द॑स्व धी॒तिभि॑र्हि॒तः । त्वे इष॒: सं द॑धु॒र्भूरि॑वर्पसश्चि॒त्रोत॑यो वा॒मजा॑ताः ॥ - ऋ. १०.१४०.३
*इष्क॒र्तार॑मध्व॒रस्य॒ प्रचे॑तसं॒ क्षय॑न्तं॒ राध॑सो म॒हः । रा॒तिं वा॒मस्य॑ सुभगां॑ म॒हीमिषं॒ दधा॑सि सान॒सिं र॒यिम् ॥ - ऋ. १०.१४०.५
*आ
वां॑
सु॒म्नै:
शं॒यू
इ॑व॒
मंहि॑ष्ठा॒
विश्व॑वेदसा
।
सम॒स्मे
भू॑षतं
नरोत्सं॒
न
पि॒प्युषी॒रिषः॑
॥
- ऋ.
१०.१४३.६
*ऋ॒चा
क॒पोतं
नुदत
प्र॒णोद॒मिषं॒
मद॑न्तः
परि॒
गां
न॑यध्वम्
।
सं॒यो॒पय॑न्तो
दुरि॒तानि॒
विश्वा॑
हि॒त्वा
न॒
ऊर्जं॒
प्र
प॑ता॒त्
पति॑ष्ठः
॥
- ऋ.
१०.१६५.५
तमाच्छिनत्ति । इषे त्वोर्जे त्वेति वृष्ट्यै तदाह यदाहेषे त्वेत्यूर्जे त्वेति यो वृष्टादूर्ग्रसो जायते तस्मै तदाह – माश १.७.१.[२]
आ यजतामेज्या इष इति । प्रजा वा इषस्ता एवैतद्यायजूकाः करोति ता इमाः प्रजा यजमाना अर्चन्त्यः श्राम्यन्त्यश्चरन्ति - १.७.३.[१४]
*स समवदायेडाम्, पूर्वाद्धं पुरोडाशस्य प्रशीर्य, पुरस्ताद् ध्रुवायै निदधाति, तां होत्रे प्रदाय दक्षिणात्येति। स होतुरिह निलिम्पति। तद्धोतौष्ठयोर्निलिम्पते – मनसस्पतिना ते हुतस्याश्नामीषे प्राणायेति। अथ होतुरिह निलिम्पति। तद्धोतौष्ठयोर्निलिम्पते – वाचस्पतिना ते हुतस्याश्नामि – ऊर्जे उदानाय इति। - श.ब्रा. १.८.१.१३
अन्तर्यामग्रहः-- उरुष्य राय एषो यजस्वेति पशवो वै रायो गोपाय पशूनित्येवैतदाहेषो यजस्वेति प्रजा वा इषस्ता एवैतद्यायजूकाः करोति – माश ४.१.२.[१५]
उपयामगृहीतोऽसि । इषे त्वेत्येवाध्वर्युर्गृह्णात्युपयामगृहीतोऽस्यूर्जे त्वेति प्रतिप्रस्थातैतावेव शारदौ स यच्छरद्यूर्ग्रस ओषधयः पच्यन्ते तेनो हैताविषश्चोर्जश्च – माश ४.३.१.[१७]
घर्म प्रचरणम्-- इषे पिन्वस्वेति वृष्ट्यै तदाह यदाहेषे पिन्वस्वेत्यूर्जे पिन्वस्वेति यो वृष्टादूर्ग्रसो जायते तस्मै तदाह – माश १४.२.२.[२७]
इष ऊर्जे सीद इति - वर्षं वा इषे यद् उपरिष्टाद् वर्षस्यैधते तद् ऊर्जे – जैब्रा १.८०
इषम् ऊर्जम् इति - वर्षे वा इषे यद् उपरिष्टाद् वर्षस्यैधते तद् ऊर्जे - तद् एवैतेनावरुन्द्धे॥जैब्रा 1.88॥
एताम् एव प्रतिपदं कुर्वीतान्नाद्यकामः। आ सुवोर्जम् इषं च नः इति ह्य् अस्या इषं चैवैतेनोर्जे चावरुन्द्धे॥ - जैब्रा १.९३
मधुमतीर्न इषस्कृधीति देवता वा इषो देवेभ्य एवैनं मधुमन्तं करोति – काठ.सं. २७.१-२
परोरजास्ते पञ्चमः पादः । सा न इषमूर्जं धुक्ष्व । तेज इन्द्रियम् । ब्रह्म-वर्चसमन्नाद्यम् । - तैब्रा. ३.७.७.१३
इषं स्वश्च धीमहीत्ययं वै लोक इषमित्यसौ लोकः स्वः – ऐब्रा ६.७
इषं नो मित्रावरुणा कर्तनेळां पीवरीमिषं कृणुही न इन्द्र, इति । - ऐआ ५.२.२