उग्रसेन
टिप्पणी : उग्रसेन पर टिप्पणी से पूर्व अग्निहोत्र , अग्निष्टोम , आहुति , अनन्त , इन्द्रसेन और उग्र की टिप्पणियों का पठन उपयोगी होगा । राजा उग्रसेन पूर्व जन्म में मरुत्त थे । ऋग्वेद की ऋचाओं में उग्र शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से इन्द्र के लिए तथा गौण रूप से मरुतों ( उदाहरणार्थ ऋग्वेद १.२३.१० , १.१६६.६ , ५.५७.३ ) , अग्नि आदि के लिए हुआ है । उग्रसेन के चरित्र में मरुतों तथा इन्द्र दोनों के गुण मिले हुए हैं । उग्रसेन बनने से पूर्व राजा मरुत्त द्वारा की गई साधना अपेक्षत है । राजा मरुत्त के संदर्भ में वर्णन आता है कि उसने अपने यज्ञ के आचार्य के लिए संवर्त ऋषि के वरण का निश्चय किया । उसे पता लगा कि जो व्यक्ति काशी विश्वनाथ मन्दिर के बाहर शव देखकर लौट जाए वह संवर्त ऋषि होगा । इस कथा की व्याख्या डा. फतहसिंह द्वारा वैदिक तत्त्व मंजूषा में की जा चुकी है । ऋग्वेद ७.५६.७ में उल्लेख आता है कि मरुतों का ओज उग्र है और शवस् नामक बल स्थिर हैं । अतः मरुत अवस्था की दशा में शव साधना को स्थिर बनाना होगा , चित्तवृत्तियों का पूर्णत निरोध करना होगा । उसके पश्चात उग्र बनने की साधना आरंभ होगी । यह अन्वेषणीय है कि उग्रसेन शब्द की व्याख्या उग्रश्येन ( शतपथ ब्राह्मण ३.३.४.१५ ) शब्द द्वारा सम्यक् प्रकार से की जा सकती है या नहीं ? पौराणिक और वैदिक साहित्य में अग्नि द्वारा श्येन का रूप धारण करके स्वर्ग लोक से सोम लाने का आख्यान प्रसिद्ध है ।
राजा उग्रसेन के पुत्र कंस के संदर्भ में , ऋग्वेद की कईं ऋचाओं जैसे ८.३२.२ तथा १०.११३.६ में उल्लेख आता है कि इन्द्र ने उग्र बन कर वृत्र द्वारा रोके हुए आपः / जल को मुक्त किया । तैत्तिरीय संहिता २.४.७.१ के अनुसार मरुत / वात आपः की धारा की सृष्टि करने वाला होता है । तैत्तिरीय संहिता ३.३.३.२ तथा ३.३.४.१ के अनुसार सूर्य की रश्मियां उग्र बन कर द्युलोक से वृष्टि का च्यावयन करती हैं जिसे ग्रहण करने के लिए सम्यक् पात्र की आवश्यकता होती है जिससे पात्र में एकत्रित सोम को शुद्ध करके बाद में देवों को प्रस्तुत किया जा सके । इस पात्र को कंस या देवपान चमस कहते हैं । कंस का विस्तृत वर्णन वैदिक तत्त्व मंजूषा भाग ४ में किया जा चुका है । सारांश यह है कि मानव देह रूपी इस सुराकंस को कैसे इतना शुद्ध किया जाए कि यह ऊपर से आने वाली शक्तियों का , ओषधियों का रस धारण करने में समर्थ बन जाए , शतपथ ब्राह्मण १४.९.३.१ के शब्दों में उदुम्बर काष्ठ का कंस बन जाए ।
उग्रसेन के अन्य पुत्रों न्यग्रोध व राष्ट्रपाल के संदर्भ में ऐतरेय ब्राह्मण ७.३१ , ७.३३ , ७.३४ , ८.१ तथा ८.४ दृष्टव्य हैं जहां यजमान अपनी आत्मा में तथा न्यग्रोध आदि वनस्पति में क्षत्र बल की प्रतिष्ठा करके अपने राष्ट्र को उग्र बनाता है ।
मथुरा के राजा उग्रसेन के द्वारका के राजा बनने के संदर्भ में , पुराणों में मथुरा का स्थान हृदय प्रदेश तथा द्वारका का स्थान कण्ठ प्रदेश कहा गया है ( वायु पुराण १०४.७६ ) । हृदय अनाहत चक्र से सम्बद्ध है जिसका मुख्य तत्त्व वायु है । अथर्ववेद ९.१.३ से प्रतीत होता है कि अग्नि और वात के संयोग से उग्र मधुकशा का जन्म होता है । यह मधुकशा मथुरा का रूपांतर हो सकता है । कण्ठ प्रदेश विशुद्धि चक्र से सम्बन्धित है जिसका मुख्य तत्त्व आकाश है । पुराणों में शिव की उग्र नामक मूर्ति का सम्बन्ध वायु तत्त्व से और भीम का सम्बन्ध आकाश से कहा गया है । ऋग्वेद १.१००.१२ ,२.३३.११ तथा ४.२०.६ में उग्र व भीम शब्दों का साथ - साथ उल्लेख आया है । यह संकेत करता है कि भीम उग्र की विकसित अवस्था है । तैत्तिरीय संहिता २.४.७.१ में ( आनन्द की )वृष्टि के विभिन्न चरणों का वर्णन किया गया है जिसमें प्रथम चरण पुरोवात वर्षा है जो जीवन प्रदान करती है । दूसरा चरण वात सहित वर्षा है जिसे उग्र कहा गया है । तीसरा चरण स्तनयन / गर्जन के साथ वर्षा है जिसे भीम कहा गया है । चौथा चरण अशनि - रहित , अवस्फूर्जन सहित वर्षा है जिसे त्वेष कहा गया है । पांचवां चरण अतिरात्र वर्षा है जिसे पूर्ति कहा गया है । छठां चरण बहुवर्षा है जिसे श्रुत कहा गया है । इससे अगले चरण आतप वर्षा आदि हैं । इस प्रकार द्वारका का सम्बन्ध भीम से होना चाहिए । इसी तथ्य को और आगे समझने में शांखायन श्रौत सूत्र १६.९.२ तथा शतपथ ब्राह्मण १३.५.४.३ के उल्लेख उपयोगी होंगे । शौनक ऋषि ने परीक्षित के चार पुत्रों ( तुलनीय : भागवत पुराण में परीक्षित के चार पुत्रों का उल्लेख ) में से जनमेजय को तो अश्वमेध यज्ञ कराया , उग्रसेन को ज्योति अतिरात्र , भीमसेन को गौ अतिरात्र और श्रुतसेन को आयु अतिरात्र ( शतपथ ब्राह्मण में यह क्रम भिन्न प्रकार से है ) । अतः उग्रसेन का मुख्य उद्देश्य ज्योति की उपलब्धि करना है । ( तुलनीय : उर्वशी - पुरूरवा कथा में उग्रसेन गन्धर्व द्वारा मेषों की चोरी करना और फिर प्रकाश करना ) । इस ज्योति की उपलब्धि मुख्यतः अग्निहोत्र और अग्निष्टोम यज्ञों द्वारा हो सकती है ( अग्निहोत्र में आहुति का मन्त्र है : अग्निः ज्योति: ज्योतिरग्निः स्वाहा । सूर्यो ज्योति: ज्योति: सूर्य: स्वाहा ) । पुराणों के सार्वत्रिक श्लोक अग्निहोत्र फलं वेदा शील वृत्त श्रुतं फलम् के अनुसार अग्निहोत्र से वेद का ज्ञान होता है । लेकिन यह ज्ञान ऐसा नहीं है कि इसका विस्तार किया जा सके ( दृष्टव्य : अनन्त पर टिप्पणी ) । ज्योति से अगली अवस्था गौ अतिरात्र की है जिसे भीमसेन प्राप्त करता है । स्कन्द पुराण में द्वारका के वर्णन के अन्तर्गत गोमती नदी का व्यापक उल्लेख मिलता है जो यह संकेत करता है कि द्वारका , गौ और भीम स्थितियां परस्पर संबंधित हैं । गौ से अगली अवस्था आयु की है जिसे श्रुतसेन प्राप्त करता है । ऋग्वेद की ऋचाओं में उग्र श्रुत को प्राप्त करने के व्यापक उल्लेख मिलते हैं ( उदाहरण के लिए ऋग्वेद २.३३.११ ,३.३०.२२ आदि ) । पुराणों के श्लोक के अनुसार श्रुत ज्ञान शील का परिणाम है । पुराणों में उग्रसेन की द्वारका स्थित सुधर्मा सभा की प्रशंसा में कहा जाता है कि राजा उग्रसेन धन्य हैं जिनकी सभा में कृष्ण , अनन्त बलराम आदि सदैव विराजमान रहते हैं । वेद ज्ञान से श्रुत ज्ञान को प्राप्त होना ही अनन्तता को , अनन्त आनन्द को , बलराम को प्राप्त होना है जिसके लिए शील अथवा बलराम का सीर /हल अपेक्षित है ।
उग्रसेन के यदु वंश से संबंधित होने के संदर्भ में , ऋग्वेद १.३६.१८ , ५.३१.८ तथा ८.४.७ में उग्र द्वारा तुर्वसु और यदु के आह्वान का उल्लेख आता है । निहितार्थ अपेक्षित है । पद्म पुराण में गोभिल असुर द्वारा उग्रसेन का रूप धारण करके संगीत द्वारा उग्रसेन - पत्नी पद्मिनी को आकृष्ट करने के संदर्भ में ऋग्वेद १.१००.१२ ऋचा दृष्टव्य है जहां शव अवस्था की प्राप्ति से पाञ्चजन्य बनने का उल्लेख है ।
स्कन्द पुराण में अक्षमाला शूद्रा द्वारा स्थापित शिवलिंग की पूजा से उग्रसेन द्वारा पुत्र प्राप्ति के वर्णन के संदर्भ में अक्षमालिकोपनिषद तथा ऋग्वेद १०.३४.८ दृष्टव्य हैं ।
शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ । शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम् ॥ऋ. ३.३०.२२॥
गिरिर्न यः स्वतवाँ ऋष्व इन्द्रः सनादेव सहसे जात उग्रः । आदर्ता वज्रं स्थविरं न भीम उद्नेव कोशं वसुना न्यृष्टम् ॥ऋ. ४.२०.६॥
यः सृबिन्दमनर्शनिं पिप्रुं दासमहीशुवम् । वधीदुग्रो रिणन्नपः ॥ऋ. ८.३२.२॥
..... सूर्यस्य रश्मिभिः । आऽस्मिन्न् उग्रा अचुच्यवुर् दिवो धारा असश्चत- तैसं ३.३.३.२
अह्न
एव
रूपेण
सूर्यस्य
रश्मिभिर्
दिवो
वृष्टिं
च्यावयति
।
आऽस्मिन्न्
उग्राः
अचुच्यवुर्
इत्य्
आह
– तैसं
३.३.४.१
पुरोवातो वर्षञ् जिन्वरावृत् स्वाहा वातावद् वर्षन्न् उग्ररावृत् स्वाहा स्तनयन् वर्षन् भीमरावृत् स्वाहानशन्य् अवस्फूर्जन् दिद्युद् वर्षन् त्वेषरावृत् स्वाहा – तैसं २.४.७.१