उग्रायुध
टिप्पणी : अथर्ववेद ३.१९.७ में उग्रबाहु होकर उग्रायुध बनने का उल्लेख है । उग्र बाहु शब्द का उल्लेख अन्य बहुत सी ऋचाओं जैसे ऋग्वेद ८.२०.१२ तथा ८.६१.१० में भी हुआ है । जैमिनीय ब्राह्मण २.१६५ में उग्रायुध मानश्चित्त का उल्लेख आया है । पुराणों में उग्रायुध के साथ नीपों का सम्बन्ध जोडा गया है । शब्दकोशों में नीप की निरुक्ति नीचं पतति अर्थात् पर्वत के शिखर से नीचे भूमि पर गिरने वाले जल के रूप में की गई है । ऋग्वेद ८.५१.१ के भाष्य में नीप की निरुक्ति ' नयति हविर्देवान् , पाति यजमानं च ' , ऐसी अग्नि के रूप में की गई है । ऐसा प्रतीत होता है कि उग्र - आयुध अर्थात् आयु के धारण के लिए यह आवश्यक है कि हमारे शीर्षस्थ कोश से नीचे क्षय होने वाले आपः का वृथा क्षरण रोका जाए । यही उग्रायुध द्वारा नीपों का संहार हो सकता है । ऋग्वेद ८.२९.५ तथा १०.१०३.३ ऋचाएं भी उग्रायुध के संदर्भ में विचारणीय हैं ।