उत्तान
टिप्पणी – पौराणिक साहित्य में उत्तान के संदर्भ में उल्लेख जितने सरल से लगते हैं, वैदिक साहित्य में उनका निहितार्थ उतना ही गंभीर है । उत्तान शब्द को उत्थान अर्थात् समाधि से व्युत्थान और उदान, इन दो शब्दों से सम्बद्ध किया जा सकता है । यदि उत्तान को उत्थान से सम्बद्ध किया जाए तो इसकी पुष्टि पुराणों के इस कथन से होती है कि उत्तानपाद वीर और काम्या का, अथवा मनु और शतरूपा का पुत्र है । डा. फतहसिंह की विचारधारा के अनुसार वीर स्थिति समाधि की स्थिति होती है । काम्या के संदर्भ में तैत्तिरीय आरण्यक ३.१०.२ में वर्णन आता है कि काम ही दक्षिणा का दाता है, काम ही प्रतिगृहीता है, काम के लिए ही दक्षिणा को ग्रहण किया जाता है, काम के लिए यह दक्षिणा उत्तान अंगिरस ग्रहण करे । स्थावर और जंगम, सारी प्रकृति इसके लिए लालायित है, उसमें काम रूपी कामना विद्यमान है कि कौन ऐसा वीर है जो उसे दिव्य रस का आस्वादन करा सके । समाधि की स्थिति ही वह वीर है जो जड प्रकृति में दिव्य प्राणों का सिंचन कर सकती है । इसी तथ्य को विस्तार देते हुए संभवतः स्कन्द पुराण में शिव द्वारा उत्तानपाद को आठ आधिभौतिक और आध्यात्मिक पुष्पों का वर्णन किया गया है । पुष्प जड प्रकृति की सर्वाधिक चेतन अवस्था है । यदि स्कन्द पुराण में वर्णित इन पुष्पों का विकास कर लिया जाए तो फिर पुराणों में वर्णित काम के पुष्प बाण व्यर्थ हो जाएंगे ।
वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से उत्तान अंगिरस के लिए अयानः दक्षिणा देने का उल्लेख आता है ( तैत्तिरीय आरण्यक ३.१०.४, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १४.११.३) जिसका अर्थ सोमलता का वहन करने वाली शकट किया जाता है , जबकि ताण्ड्य ब्राह्मण १.८.११, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.३.४.५, काठक संहिता ९.९ व मानव श्रौत सूत्र ५.२.१४.१२ में उत्तान अङि्गरस के लिए अप्राणत् दक्षिणा का उल्लेख आया है जिसका भाष्य में अर्थ आसन, शय्या आदि प्राणरहित वस्तुएं किया गया है । विष्णुधर्मोत्तर पुराण में यह रहस्य इस रूप में प्रकट हुआ है कि उत्तान अंगिरस के लिए छत्र, कृष्णाजिन, शय्या, रथ, उपानह आदि अप्राणीय वस्तुओं की दक्षिणा दे । इसका अर्थ यह हो सकता है कि उत्तान अंगिरस प्राणों के विकास की स्थिति में यद्यपि उदान प्राण का विकास होता है, लेकिन इस उदान प्राण को छत्र, उपानह, आसन आदि रूप देने के लिए विशेष दक्षता की आवश्यकता होती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.२.५.३ व २.३.४.६ का कथन है कि यह पृथिवी(इयं ) उत्तान आंगिरस बन सकती है, अतः जो कुछ भी इस पृथिवी से सम्बन्धित है, वह सब उत्तान अंगिरस को दक्षिणा में देते हैं । उत्तान अंगिरस को आसन की दक्षिणा के संदर्भ में यह सरलता से कल्पना की जा सकती है कि उत्तान अवस्था में सारी पृथिवी पद्म पुष्प रूपी आसन बन जाती है, वह जीवंत हो जाती है। स्कन्द पुराण में इस स्थिति का चित्रण ऐसी देवशिला के रूप में किया गया है जिस पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश, तीनों देव विराजमान हैं । छत्र, उपानह, कृष्णाजिन आदि के निहितार्थ अन्वेषणीय हैं ।
पद्म पुराण में पहले तीक्ष्ण तनु में और फिर उत्तानमुख में आहुति देने के उल्लेख की व्याख्या के संदर्भ में तैत्तिरीय संहिता ५.५.३.२ तथा शतपथ ब्राह्मण १०.५.५.१ में यह विवेचन किया गया है कि उखा पर पुरुष शीर्ष को उत्तान मुख स्थापित किया जाए, या अधोमुख, या पार्श्वमुख इत्यादि । पुरुष शीर्ष की स्थापना अग्नि के श्येन रूप के अनुसार करनी है जिससे कि वह उडकर स्वर्ग से सोम ला सके । पक्षी का मुख तो नीचे की ओर होता है । यदि वह उत्तानमुख होगा तो उडेगा कैसे । और यदि न्यङ् मुख करते हैं तो प्रश्न होता है कि अग्नि के मुख में आहुति कैसे डालेंगे जिसे अग्नि के माध्यम से देवों तक पहुंचाना है । इसका उत्तर यह दिया गया है कि अग्नि का विस्तार प्रत्येक दिशा में करना होता है । यदि पुरुष के उत्तान मुख की स्थापना उखा नामक यज्ञ पात्र पर की जाती है तो यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि पुराणों के कथन के अनुसार भोजन की मुख में आहुति के लिए केवल उत्तानमुख होना ही आवश्यक नहीं है, अपितु उस उत्तानशीर्ष पुरुष शीर्ष का जो कबन्ध या शरीर है, वह भी उखा का, उत्तान उखा का रूप होना चाहिए । उखा को ब्राह्मण ग्रन्थों में ज्योति का प्रतीक कहा गया है । व्यावहारिक दृष्टिकोण से, योग में यह ध्यान रखना होता है कि केवल उतना ही आहार ग्रहण किया जाए जितने से मुख पर विकसित आभामण्डल का अधोपतन न हो। लेकिन ऐसा हो सकता है कि मुख पर आभामण्डल का पतन न हो लेकिन उत्तान उखा पात्र से ज्योति विलीन हो जाए । ऐसी स्थिति से बचना है ।
स्कन्द पुराण में उत्तानपाद द्वारा शिव से विन्ध्य पर्वत पर गंगा अवतरण के सम्बन्ध में पृच्छा के संदर्भ में पुराणों का यह कथन कात्यायन श्रौत सूत्र ८.२.७ तथा आश्वलायन श्रौत सूत्र ४.५.८ के इस कथन को समझने में उपयोगी हो सकता है कि उत्तान पाणि द्वारा प्रस्तर का निह्नवन करते हैं । भाष्यों में निह्नवन का अर्थ स्पर्श करना और नमस्कार करना किया गया है । प्रस्तर नामक तृण की स्थापना यज्ञ में आहवनीय अग्नि के समीप की जाती है । ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि प्रस्तर केशों का, जटाओं का रूप है । शिव की इन जटाओं में गंगा जल का वास है । यदि उत्तानपाणि होकर इन जटा रूपी प्रस्तरों का स्पर्श हो जाए तो गंगा का अवतरण हो सकता है । ब्राह्मण ग्रन्थों में उत्तान पाणि शब्द का उल्लेख कईं स्थानों पर आया है । शतपथ ब्राह्मण १०.५.५.७ में पुरुष शीर्ष से नीचे तीन उत्तान यज्ञ पात्रों का उल्लेख है – उखा, उलूखल और स्रुचा । यज्ञ कार्य में अग्नि में आज्य की आहुति देते समय स्रुचा नामक पात्र में आज्य भर कर उसे हाथ में पकड कर उससे आहुति देते हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों के कथन हैं कि वाक् ही स्रुचा है, योषा स्रुचा है, स्रुचा रूपी बाहु से ही वृत्र का वध किया जाता है जिसमें घृत वज्र का काम देता है । स्रुचा के उत्तान रूप की सम्यक् व्याख्या अन्वेषणीय है । अथर्ववेद ३.१८.२ तथा ऋग्वेद १०.१४५.२ के भाव सूक्त में उत्तानपर्णा ओषधि का उल्लेख आया है जो पति की सपत्नों का नाश करके पति को वश में करती है । सायण भाष्य में इसका अर्थ पाठा नामक ओषधि किया गया है, लेकिन बिल्वोपनिषद १६, १८ व ३० में उत्तान बिल्व पत्रों को शिव के मस्तक पर अर्पित करने के उल्लेख हैं । देह में हाथ भी पर्ण का प्रतीक है । पुराणों में पार्वती के उत्तानहस्ता होने के उल्लेख को समझने के लिए इन सब उल्लेखों की सम्यक् व्याख्या अपेक्षित है । अथर्ववेद ३.२१.१० में आपः उत्तानशीवरी का उल्लेख आया है जिसमें यह अन्वेषणीय है कि क्या उत्तानशीवरी का अर्थ उत्तान शिव किया जा सकता है ।
पुराणों में बाल कृष्ण द्वारा उत्तानशायी स्थिति में पूतना के स्तनों व प्राणों के पान के उल्लेख के संदर्भ में त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद २.४२ में कूर्म की भांति कूर्मासन में उत्तानशयन का उल्लेख है । अथर्ववेद २०.१३३.४ में कुमारी के उत्तानशयन का उल्लेख है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३६७ में भी उत्तानशय्या का उल्लेख आता है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १०.१५.९ व काठक संहिता २३.५ में दीक्षित यजमान के लिए आहवनीय के समीप न्यङ् व उत्तान शयन का निषेध किया गया है । वास्तव में उत्तानशयन द्वारा किस रहस्य की ओर इंगित किया जा रहा है, यह अन्वेषणीय है । माता के गर्भ में बालक की स्थिति भी उत्तानवत् ही होती है । ऋग्वेद १.१६४.३३, अथर्ववेद ९.१०.१२, कात्यायन श्रौत सूत्र ७.३.२५ तथा शतपथ ब्राह्मण ३.२.१.२९ में उत्तानमुख वाली योनि में गर्भ का उल्लेख है । यह गर्भ की स्थिति दीक्षा प्राप्त यजमान की स्थिति होती है । क्या उत्तानशयन से तात्पर्य गर्भ में शयन से है अथवा नहीं, यह अन्वेषणीय है । इसके अतिरिक्त, वर्तमान अनुक्रमणिका में आकाशशयन शीर्षक के अन्तर्गत जो पुराणों के निर्देश दिए गए हैं, क्या वह उत्तान शयन से ही संबंधित हैं, यह अन्वेषणीय है ।
स्कन्द पुराण में उत्तानपाद व शिव के संवाद में भृगु पर्वत से कुण्ड में पतन के उल्लेखों के संदर्भ में गोपथ ब्राह्मण १.२.९ में अग्नि, आदित्य व यम को अंगिरस और वायु, आपः व चन्द्रमा को भृगु कहा गया है । यहीं पर यह भी वर्णन किया गया है कि इनमें से किसके कितने पाद हैं । अग्नि ६ पादों वाला है जिसके पाद पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ, आपः, ओषधि व वनस्पति हैं । आदित्य ३ पाद वाला है जिसके तीन लोक रूपी तीन पाद हैं । वायु एक पाद है जिसका आकाश पाद है । चन्द्रमा २ पाद वाला है जिसके पूर्व पक्ष व अपर पक्ष २ पाद हैं । शतपथ ब्राह्मण १.७.१.२० में उदक से पूर्ण उत्तान पात्र का उल्लेख है जो असुरों से रक्षा करता है । इसका अर्थ होगा कि उत्तान अंगिरस होने की सार्थकता तब है जब वह दिव्य सोम रस का, आपः का आहरण कर सके, अंगिरस से भृगु बन सके । ऊर्ध्वमुखी अथवा उत्तान स्थिति को अंगिरस तथा अधोमुखी स्थिति को भृगु कहा जा सकता है . ऋग्वेद ४.१३.५, १०.२७.१३ तथा १०.१४२.५ में न्यङ् और उत्तान शब्दों का साथ – साथ उल्लेख आया है और हो सकता है कि इसी तथ्य को पुराणों में अंगिरस और भृगु के रूप में दर्शाया गया हो । यह आरोहण – अवरोहण साधना की एक स्थिति है । दूसरी स्थिति वह है जब आरोहण – अवरोहण की आवश्यकता नहीं रहती, ध्रुव स्थिति । स्कन्द पुराण में इसे राजा चित्रसेन द्वारा देवशिला पर ब्रह्मा, विष्णु व महेश की स्थिति के रूप में दर्शाया गया है जबकि अन्य पुराणों में उत्तानपाद – पुत्र ध्रुव के रूप में । आधुनिक भौतिक विज्ञान के अनुसार जब पदार्थ में सूक्ष्म कण आरोहण – अवरोहण क्रिया में भाग लेते हैं तो ऊर्जा का क्षय होता है, जबकि वह कण जो अपने ही चक्र की परिधि में चक्कर लगाते रहते हैं, उनमें ऊर्जा का क्षय नहीं होता ।
ऋग्वेद १०.१२९, १०.१३०, १०.१४५ आदि सूक्त भावसूक्त कहलाते हैं जिनमें असत् से सत् की उत्पत्ति आदि का वर्णन है । इन सूक्तों की अभी तक कोई सम्यक् व्याख्या नहीं हो पाई है । उत्तानपाद का प्रकरण इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ऋग्वेद १०.७२.३ में भी असत् से सत् की उत्पत्ति का उल्लेख है और साथ ही साथ उत्तानपद से भू के उत्पन्न होने आदि का भी उल्लेख है . इसी प्रकार ऋग्वेद १०.१४५.२ के भावसूक्त में उत्तानपर्णा ओषधि का उल्लेख है ।
प्रथम प्रकाशित – १९९९ई., इण्टरनेट पर प्रकाशित – २२-८-२०१० ई. ( श्रावण शुक्ल त्रयोदशी, विक्रम संवत् २०६७)
संदर्भ
१सनेमि
चक्रमजरं
वि
वावृत
उत्तानायां
दश
युक्ता
वहन्ति।
सूर्यस्य
चक्षू
रजसैत्यावृतं
तस्मिन्नार्पिता
भुवनानि
विश्वा
॥
-
ऋग्वेद
१.१६४.१४
२द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्म माता पृथिवी महीयम्। उत्तानयोश्चम्वो३र्योनिरन्तरत्रा पिता दुहितुर्गर्भमाधात् ॥ - ऋ.१.१६४.३३
३उत्तानायामजनयन् त्सुषूतं भुवदग्निः पुरुपेशासु गर्भः। - ऋ.२.१०.३
४वयं ते अद्य ररिमा हि काममुत्तानहस्ता नमसोपसद्य। (अग्निः) - ऋ.३.१४.५
५उत्तानायामव भरा चिकित्वान् त्सद्यः प्रवीता वृषणं जजान। अरुषस्तूपो रुशदस्य पाज इळायास्पुत्रो वयुनेऽजनिष्ट ॥ - ऋ.३.२९.३
६अनायतो अनिबद्धः कथायं न्यङ्ङुत्तानोऽव पद्यते न। कया याति स्वधया को ददर्श दिवः स्कम्भः समृतः पाति नाकम् ॥ - ऋ.४.१३.५, ४.१४.५
७यदीं गणस्य रशनामजीगः शुचिरङ्क्ते शुचिभिर्गोभिरग्निः। आद् दक्षिणा युज्यते वाजयन्त्युत्तानामूर्ध्वो अधयज्जुहूभिः ॥ - ऋ.५.१.३
८वीती यो देवं मर्तो दुवस्येदग्निमीळीताध्वरे हविष्मान्। होतारं सत्ययजं रोदस्योरुत्तानहस्तो नमसा विवासेत् ॥ - ऋ.६.१६.४६
९पत्तो जगार प्रत्यञ्चमत्ति शीर्ष्णा शिरः प्रति दधौ वरूथम्। आसीन ऊर्ध्वामुपसि क्षिणाति न्यङ्ङुत्तानामन्वेति भूमिम् ॥ - ऋ.१०.२७.१३
१०देवानां युगे प्रथमे ऽसतः सदजायत। तदाशा अन्वजायन्त तदुत्तानपदस्परि ॥ भूर्जज्ञ उत्तानपदो भुव आशा अजायन्त। अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि ॥ - ऋ.१०.७२.४
११गुहा शिरो निहितमृधगक्षी असिन्वन्नत्ति जिह्वया वनानि। अत्राण्यस्मै पड्भिः सं भरन्त्युत्तानहस्ता नमसाधि विक्षु ॥ - ऋ.१०.७९.२
१२प्रत्यस्य श्रेणयो ददृश्र एकं नियानं बहवो रथासः। बाहू यदग्ने अनुमर्मृजानो न्यङ्ङुत्तानामन्वेषि भूमिम् ॥ - ऋ.१०.१४२.५
१३उत्तानपर्ण सुभगे देवजूते सहस्वति। सपत्नीं मे परा धम पतिं मे केवलं कुरु ॥ - ऋ.१०.१४५.२, अथर्व३.१८.२
१४ये पर्वताः सोमपृष्ठा आप उत्तानशीवरीः। वातः पर्जन्य आदग्निस्ते क्रव्यादमशीशमन् ॥ - अ.३.२१.११०
१५उत्तानायै शयानायै तिष्ठन्ती वाव गूहसि। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥ - अ.२०.१३३.४
१६तस्य वा उत्तानस्याऽऽङ्गीरसस्याप्राणत्प्रतिजग्रहुषः। अष्टममिन्द्रियस्यापाक्रामत्। तदेतेनैव प्रत्यगृह्णात्। - - - तैत्तिरीय ब्राह्मण २.३.४.५
१७अथोत्तानं पशुं पर्यस्यन्ति। स तृणमन्तर्दधाति। ओषधे त्रायस्व - - - शतपथ ब्रा.३.८.२.१२
१८अथोत्तानेन पाणिना मध्यमे परिधौ प्रागुपमार्ष्टि, पराञ्चमेवास्मिन्नेतत्प्राणं दधाति। देवेभ्यस्त्वा मरीचिपेभ्यः इति। - मा.श.४.१.१.२४
१९अथात्र नीचा पाणिना मध्यमे परिधौ प्रत्यगुपमार्ष्टि। इदं वाऽउपांशुं हुत्वोत्तानेन पाणिना मध्यमे परिधौ प्रागुपमार्ष्टि। - - - -मा.श.४.१.२.२३
२०मृदासम्भरण हेतु अवट खनन : सन्ते वायुर्मातरिश्वा दधातु इति। अयं वै वायुर्मातरिश्वा - योऽयं पवते। उत्तानाया हृदयं यद्विकस्तम् इति। उत्तानाया ह्यस्या एतद् हृदयं विकस्तम्। - - -मा.श.६.४.३.४
२१घर्म सन्दीपनं ब्राह्मणम् : अथ दक्षिणत उत्तानेन पाणिना निह्नुते - विश्वाभ्यो मा नाष्ट्राभ्यस्पाहि इति। - मा.श.१४.१.३.२४
२२अन्नादनशक्तिकामस्येष्टि विधिः :- - - अन्नाद्यं दुह उत्तानेषु कपालेष्वधि श्रयत्ययातयामत्वाय त्रयः पुरोडाशा भवन्ति त्रय इमे लोका एषां लोकानामाप्त्या - - - - तैत्तिरीय सं.२.३.६.२
२३उत्तानेषु कपालेष्वधि श्रयत्ययातयामत्वाय द्वादशकपालः पुरोडाशः भवति वैश्वदेवत्वाय - - - - तै.सं.२.३.७.३
२४राष्ट्रभृन्मन्त्राणां काम्यप्रयोगाभिधानम् : यस्य कामयेतान्नाद्यम् आ ददीयेति तस्य समायामुत्तानो निपद्य भुवनस्य पत इति तृणानि संगृह्णीयात् प्रजापतिर्वै भुवनस्य पतिः प्रजापतिनैवास्यान्नाद्यमा दत्त - - - -तै.सं.३.४.८.६
२५मृदा हरणाभिधानम् : सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातूत्तानायै हृदयं यद्विलिष्टम्। देवानां यश्चरति प्राणथेन तस्मै च देवि वषडस्तु तुभ्यम्। - तै.सं.४.१.४.१
२६अन्तर्यामग्रहकथनम् : यदि कामयेतावर्षुकः स्यादित्युत्तानेन नि मृज्यात् वृष्टिमेवोद्यच्छति - तै.सं.६.४.५.६
२७असौ वै स्वराडियं विराडुत्तानायां स्त्रियां पुमान् रेतस्सिञ्चत्या अस्यां रेतस्सिञ्चतीयं प्रजनयति - - - काठ. सं. २०.६
२८नोत्तानो दीक्षितश्शयीत यदुत्तानश्शयीत देवलोकमुपावर्तेत न न्यङ् शयीत यन्न्यङ् शयीत पितृलोकमुपावर्तेत। - काठ. सं. २३.५
२९ता उत्तानशय्याम् अपश्यत्। स शीर्ष्णैवमौ प्राञ्चाव् अगृह्णाद्, बाहुभ्याम् इमान् नाना, - - - -जै.ब्रा.३.३६७
३०जाघन्या पत्नीसंयाजनम्। उत्तानायाः देवानां पत्नीभ्योऽवद्यति। इडां च। - कात्यायन श्रौ.सू.६.९.१५
३१आतिथ्येष्टिः : प्रस्तरे निह्नुवत उत्तानहस्ता दक्षिणोत्ताना वेष्टा राय इति। - कात्यायन श्रौ.सू.८.२.७
३२दीक्षा संस्कारः : कृष्णविषाणां त्रिवलिं पञ्चवलिं वोत्तानां दशायां बध्नीते। तया कण्डूयनम्। उपस्पृशत्यनया दक्षिणस्या ध्रुव उपरीन्द्रस्य योनिरिति। - कात्यायन श्रौ.सू. ७.३.२५
३३अनुयाजेष्विष्टेषु व्यूहति - - - -वाजस्य मा प्रसवेन प्रोहामीत्युत्तानेन दक्षिणेन जुहूं प्राचीमग्निरग्नीषोमौ तमपनुदन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मो - - - शांखायन श्रौ.सू.४.९.५
३४अथास्या उत्तानमञ्जलिमधस्ताद्योक्त्रस्य निधायात्मनश्च सव्यं पूर्णपात्रं निनयन्वाचयेत् - - - आश्वलायन श्रौ.सू.१.११.८
३५तेषां दक्षिणत उत्ताना अङ्गुलीः करोति प्राचीनावीती तूष्णींम् स्वधा पितृभ्य इति वा। - आश्वलायन श्रौ.सू.२.३.२१
३६स्पृष्ट्वोदकं निह्नवन्ते प्रस्तरे पाणीन्निधायोत्तानान्दक्षिणान्त्सव्यान्नीच एष्टा राय एष्टा वामानि प्रेषे भगाय। - आश्वलायन श्रौ. सू.४.५.८
३७आपो देवीरग्रेपुव इत्यभिमन्त्र्योत्तानानि पात्राणि पर्यावर्त्य शुन्धध्वं दैव्याय कर्मण इति त्रिः प्रोक्ष्य प्रज्ञाते पवित्रे निदधाति। - आपस्तम्ब श्रौ.सू. १.११.१०
३८उत्तानानि पात्राणि पर्यावर्त्य शुन्धध्वं दैव्याय कर्मण इति त्रिः प्रोक्ष्य - - - -आप.श्रौ.सू.१.१९.३
३९दक्षिणेनाहवनीयं प्राङ् शेते न न्यङ् नोत्तानो नाग्नेरपपर्यावर्तत। - आप.श्रौ.सू.१०.१५.९
४०यदिन्द्राय राथंतरायेति यथासमाम्नातं द्वादशसूत्तानेषु कपालेष्वधिश्रयति। - आप.श्रौ.सू.१९.२२.८