उदान
टिप्पणी : योग में उदान वायु का स्थान कण्ठ में विशुद्धि चक्र कहा जाता है और विशुद्धि चक्र में उदान वायु के विशिष्ट कार्य क्या - क्या हैं , इसका वर्णन स्वामी योगेश्वरानन्द की प्राण विज्ञान आदि पुस्तकों में विस्तार से किया गया है । स्वामी योगेश्वरानन्द ने उदान आदि वायुओं को सत्त्व , रज और तम , तीन भागों में विभाजित किया है और इन्हीं गुणों के आधार पर उनके विशिष्ट कार्यों का वर्णन किया है । पुराणों में एक ओर तो स्थूल स्तर पर उदान वायु के कार्यों का वर्णन आता है । दूसरी ओर जहां मृत्यु के पश्चात् उदान के कार्यों का वर्णन आता है , वह सूक्ष्म स्तर की उदान वायु की ओर संकेत हो सकता है । ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में सुरतान्त में नि:श्वास से उदान आदि की उत्पत्ति का उल्लेख आता है । यह संभव है कि समाधि के पश्चात् व्युत्थान की स्थिति में वायु का प्राण , अपान आदि में विभाजन होता हो । शतपथ ब्राह्मण ४.१.२.१ के वर्णन के अनुसार प्राण उपांशु पात्र है और उदान अन्तर्याम पात्र है । अन्तर्याम के लिए कहा गया है कि यह प्रजा का नियमन करता है , अतः इसे अन्तर्याम कहा जाता है । मार्कण्डेय पुराण में उदान वायु द्वारा दान किए हुए अन्नों से आह्लाद प्रदान करने का उल्लेख आता है । यह संभव है कि समाधि से व्युत्थान की प्रारम्भिक अवस्था प्राण हो जिसे उपांशु कहा गया है । यह आत्मा को प्राप्त होने वाले प्राण हो सकते हैं । इसके पश्चात् आत्मिक आनन्द का प्रजा में विस्तार होता है । इसके लिए अन्तर्याम की , नियमन की आवश्यकता पडती है ( यह उल्लेखनीय है कि जैमिनीय ब्राह्मण २.३७ , शांखायन ब्राह्मण १२.४ , ऐतरेय ब्राह्मण २.२१ , तैत्तिरीय संहिता ६.४.६.४ में अपान के लिए भी अन्तर्याम पात्र की व्यवस्था की गई है ) । इस तथ्य की पुष्टि वैदिक साहित्य में प्राण को प्रायणीय अतिरात्र और उदान को उदयनीय अतिरात्र कहने से भी होती है ( द्र. उदय शब्द पर टिप्पणी तथा जैमिनीय ब्राह्मण २.५८ , ३.३१९ , ऐतरेय ब्राह्मण १.७ व ४.१४ , गोपथ ब्राह्मण १.५.४ )।
ब्रह्मा के उदान से पुलस्त्य तथा व्यान से पुलह ऋषि की सृष्टि होने के पुराणों के सार्वत्रिक उल्लेख के संदर्भ में , वैदिक साहित्य में उदान के साथ बृहती छन्द और बृहत् साम को सम्बद्ध किया गया है ( जैमिनीय ब्राह्मण १.२२९ )। डा. फतहसिंह के अनुसार पुलस्त्य से तात्पर्य पुरस्त्यान , पुर के विस्तार से है । इस प्रहेलिका को समझने के लिए भौतिक विज्ञान की सहायता लेनी पडेगी । भौतिक विज्ञान के अनिश्चितता के सिद्धान्त के अनुसार पदार्थ के सूक्ष्म अंशों के लिए संवेग के प्रसार की अनिश्चितता और दिशा के प्रसार की अनिश्चितता का गुणनफल एक स्थिरांक है । इसका अर्थ है कि यदि किसी सूक्ष्म कण के संवेग को एक निश्चित सीमा में बद्ध कर दिया जाए तो उस कण का दिशा में प्रसार उतना ही अनिश्चित हो जाएगा । यदि दिशा में प्रसार को सीमाबद्ध करें तो संवेग का प्रसार अनिश्चित हो जाएगा । उदान और पुलस्त्य के वर्तमान संदर्भ में उदान को संवेग और पुलस्त्य को दिशा के तुल्य मान सकते हैं । यदि उदान को सीमाबद्ध करेंगे तो पुर का , दिशा का स्त्यान अर्थात् विस्तार हो जाएगा । व्यान और उससे उत्पन्न पुलह ऋषि के संदर्भ में स्थिति इससे भिन्न है । व्यान के साथ वामदेव्य साम को सम्बद्ध किया जाता है ( जैमिनीय ब्राह्मण १.२२९ ) । यह गर्भ रूप स्थिति है । पुलह शब्द की व्याख्या पुरह , पुर में बद्ध के रूप में की जा सकती है । यह उदान से विपरीत स्थिति है । पुराणों में पुलस्त्य से रावण आदि राक्षसों तथा पुलह से वानरों की सृष्टि का वर्णन आता है । राम के अयोध्या में प्रतिष्ठित होने के लिए ( जीवात्मा को आत्मा में रमण करने के लिए ? ) और पुलस्त्य वंश से संघर्ष करने के लिए पुलह - वंश के वानरों की सहायता लेनी पडती है । यह उल्लेखनीय है कि उदान , व्यान आदि के साथ पुलस्त्य , पुलह आदि ऋषियों को सम्बद्ध करना पुराणों की अपनी मौलिकता है ।
देवीभागवत पुराण में सभ्य अग्नि को उदान रूप कहा गया है । यह अपने प्रकार का एकमात्र उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण ७.१.२.२१ , ११.५.३.८ , आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ९.१०.२ , कात्यायन श्रौत सूत्र २५.१०.१७ आदि में गार्हपत्य को उदान और आहवनीय अग्नि को प्राण कहा गया है । ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार प्राण अन्न का भक्षण करने वाले हैं , जबकि उदान अन्नप्रद है ( शतपथ ब्राह्मण ११.२.४.६ ) । यह संभव है कि देवों को जो वास्तविक हवि प्रदान की जानी है , उसके अन्न का एकमात्र स्रोत केवल उदान प्राण ही हो ।
डा. फतहसिंह का कथन है कि उदान प्राण ओदन के पकने से उत्पन्न होता है । ओदन पकाने का अथर्ववेद में भली भाति वर्णन है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३४६ , गोपथ ब्राह्मण २.१.७ तथा तैत्तिरीय संहिता १.६.३.३ के कथन से डा.फतहसिंह की धारणा की पुष्टि होती है ।
त्रिपिटक ग्रन्थों के अन्तर्गत वर्गीकृत ग्रन्थ उदान (अनुवादक : भिक्षु जगदीश काश्यप , प्रकाशक : भारतीय बौद्ध शिक्षा परिषद् , बुद्ध विहार , लखनऊ ) की प्रस्तावना में कहा गया है कि भावातिरेक मे सन्तों के मुख से जो प्रीति वाक्य निकला करता है , उसे उदान कहते हैं । यह कथन सत्य हो सकता है , क्योंकि उदान प्राण विशुद्धि चक्र में वाणी को नियन्त्रित करता है ।
पुराणों में कहीं तो देह में उदान के अर्ध होने का उल्लेख है , कहीं ऊर्ध्व होने का । यह पुस्तक मुद्रण की त्रुटि भी हो सकती है और वास्तविकता भी । हो सकता है कि सामान्य जनों में उदान की अधो दिशा में प्रवृत्ति ही भुक्त अन्न के रसास्वादन आदि के लिए उत्तरदायी हो , और साधना द्वारा उदान को ऊर्ध्व दिशा में प्रवृत्त करना पडता हो ।
पुराणों में उदान को समान - पुत्र तथा व्यान - पिता कहने के सार्वत्रिक उल्लेख के संदर्भ की पुष्टि बृहदारण्यक उपनिषद ३.९.२६ (शतपथ ब्राह्मण १४.६.९.२७ ) , गोपथ ब्राह्मण १.५.५ आदि के कथनों से होती है ।
देह में प्राण , अपान आदि वायुओं का स्पष्ट रूप से अभिज्ञान किस प्रकार होगा , इसका वर्णन मैत्रायणी उपनिषद ७.५ में किया गया है । इस वर्णन के अनुसार उदान के साथ पंक्ति छन्द , हेमन्त व शिशिर ऋतु आदि सम्बद्ध हैं जबकि अन्य वायुओं के साथ वसन्त आदि अन्य ऋतुएं । यदि देह में किसी अंग में आन्तरिक शीतलता का अनुभव हो रहा है तो वह उदान वायु का कार्य हो सकता है । योगीजनों द्वारा लिपिबद्ध किए गए अनुभवों से ज्ञात होता है कि साधना की एक अवस्था में आकर शरीर हिम के समान शीतल हो जाता है । यह भी कहा जाता है कि शरीर में जहां - जहां से कुण्डलिनी शक्ति ऊर्ध्वगमन करेगी , वहीं - वहीं शीतलता आ जाएगी । आधुनिक भौतिक विज्ञान के अनुसार शीतलता तब उत्पन्न होती है जब उष्मा का किसी प्रकार से निर्गमन हो रहा हो । उदान द्वारा शीतलता उत्पन्न करने की प्रक्रिया को आधुनिक ठोस पदार्थ विज्ञान के आधार पर समझा जा सकता है । ठोस पदार्थ में इलेक्ट्रानों का प्रवाह एक ऊर्जा पट्ट ( एनर्जी बैण्ड ) विशेष में ही सीमित रहता है । इस ऊर्जा पट्ट से ऊपर जो ऊर्जा के स्तर हैं , वहां इलेक्ट्रान गति नहीं कर सकता । यह ऊर्जा का अन्तराल कहलाता है । इस ऊर्जा अन्तराल से ऊपर फिर ऊर्जा पट्ट का आरम्भ हो जाता है । यदि किसी इलेक्ट्रान को पहले ऊर्जा पट्ट से दूसरे ऊर्जा पट्ट में स्थान्तरित करना हो तो उसे बाहर से इतनी ऊर्जा देनी आवश्यक है कि वह ऊर्जा अन्तराल का अतिक्रमण कर सके । शीतलता उत्पन्न करने के आधुनिक विज्ञान में इलेक्ट्रान ऊर्जा अन्तराल को पार करने के लिए ऊर्जा का ग्रहण बाहर से नहीं , अपितु अपने परिवेशी माध्यम / पदार्थ से ही करता है , अतः ऊर्जा की न्यूनता के कारण पदार्थ शीतल हो जाता है । बहुत संक्षेप में वर्णित इस प्रक्रिया को तापवैद्युत शीतन ( थर्मोइलेक्ट्रिक कूलिंग ) कहा जाता है । उदान के साथ भी ऐसा ही कुछ होता होगा । ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण ४.१.२.१२ आदि ) कि उदान उदयनीय है । इससे यह समझा जा सकता है कि सूर्य के उदय होने पर सारी ऊर्जा सूर्य में समाहित हो जाती है और इस कारण से शरीर शीतल हो जाता है । पौराणिक व वैदिक साहित्य में जब उदान के लिए ऊर्ध्व दिशा का निर्धारण किया जाता है , तो उससे भी तात्पर्य ऊर्जा के ऊर्ध्व होने , वृद्धि करने से लिया जा सकता है , यद्यपि उदान और ऊर्जा में वही सम्बन्ध हो सकता है जो जड पदार्थ के विज्ञान में संवेग( मोमेन्टम ) और ऊर्जा ( एनर्जी ) में है । शांखायन श्रौत सूत्र १.१०.२ आदि में प्राण के साथ इष तथा उदान के साथ ऊर्ज को सम्बद्ध किया गया है जिसका निहितार्थ अन्वेषणीय है ।
सुबालोपनिषद ९ में उदान वायु का अभिज्ञान जिह्वा के माध्यम से , रसों का अनुभव करने के माध्यम से किया गया है । यह रस का अभिज्ञान ही विकसिक होकर उदान का अभिज्ञान करा सकता है ।
ध्यानबिन्दूपनिषद ९६ में उदान के शंख वर्ण का उल्लेख आता है । देवीभागवत पुराण के अनुसार उदान का वर्ण शक्रगोप सम है । श्री लैडबीटर की पुस्तक दी चक्राज ( थियोसोफिकल पब्लिशिंग हाउस , मद्रास ) , पृष्ठ ४३ में उदान वायु के बैंगनी - नीले रंग का उल्लेख है ।
गरुड पुराण में उदान वायु द्वारा दोषों को सन्धियों में फेंकने का उल्लेख आता है । त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद ३.८० में भी उदान को सब सन्धियों में स्थित कहा गया है । महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में प्राणापान रूप अहोरात्र के मध्य में तथा सत् व असत् के मध्य में अग्नि के उदान रूप होने आदि का कथन है । यह अन्वेषणीय है कि सन्धि से तात्पर्य केवल स्थूल शरीर की सन्धियों से ही है अथवा महाभारत के वर्णन के अनुसार सूक्ष्म शरीर की सन्धियों से भी ।
देवीभागवत पुराण में प्राणाग्निहोत्र के संदर्भ में उदान की आहुति मध्यमा , अनामिका व अंगुष्ठ से देने का निर्देश है , जबकि प्राणाग्निहोत्रोपनिषद १ में सब अंगुलियों से ।
प्राणाग्निहोत्रोपनिषद ४ में उदान का तादात्म्य उद्गाता नामक ऋत्विज से किया गया है । अतः उदान को समझने के लिए उद्गाता शब्द की टिप्पणी द्रष्टव्य है ।
उदान आदि वायुओं को अमृत बनाना वैदिक साहित्य का सार्वत्रिक लक्ष्य है । सुबालोपनिषद ९ से संकेत मिलता है कि प्राण , उदान आदि को अमृत बनाने के लिए इन्हें विज्ञान के स्तर तक ले जाना पडता है । शतपथ ब्राह्मण १०.१.४.५ के अनुसार अग्निचयन में चतुर्थी चिति उदान का प्रतीक है और अमृत है । तैत्तिरीय आरण्य १०.३६.१ व १०.६९.१ से संकेत मिलता है कि जब श्रद्धा में प्राण , उदान आदि का निवेश किया जाता है तो अमृत प्राप्त होता है ।
प्रथम प्रकाशन : १९९९ ई.
संदर्भ
उदान
१अथ पिनष्टि - प्राणाय त्वोदानाय त्वा व्यानाय त्वा दीर्घामनुप्रसितिमायुषे धाम् - इति । - - - शतपथ ब्राह्मण १.२.१.१९
२स यदाह - प्राणाय त्वोदानाय त्वेति , तत्प्राणोदानौ दधाति । - - - - मा.श.१.२.१.२१
३द्रव्य संस्कारः। स्रुचां वेदेन सम्मार्जनं : स वा इत्यग्रैरन्तरतः सम्मार्ष्टि , इति मूलैर्बाह्यतः । इतीव वा अयं प्राणः , इतीवोदानः । प्राणोदानावेवैतद्दधाति । तस्मादितीवेमानि लोमानि , इतीवेमानि । - मा.श.१.३.१.७
४यद्वेवेति च प्रेति चान्वाह । प्रेति वै प्राणः , एत्युदानः ; प्राणोदानावेवैतद्दधाति । - - - -प्रेति वै रेतः सिच्यते , एति प्रजायते । - - - मा.श.१.४.१.५
५शान्ति कर्म : प्राणो वै प्रवान् ,- - - - - -अपानो वा एतवान् , - - - - । बृहच्छोचा यविष्ठ्य इति । उदानो वै बृहच्छोचाः , उदानमेवैतया समिन्धे । - मा.श.१.४.३.३
६यदि तृतीयस्यामनुव्याहरेत् , तं ( शत्रुं )प्रति ब्रूयात् - उदानं वा एतदात्मनोऽग्नावाधाः , उदानेनात्मन आर्तिमारिष्यसि इति । - मा.श.१.४.३.१३
७स होतुरिह निलिम्पति । तद्धोतौष्ठयोर्निलिम्पते - मनसस्पतिना ते हुतस्याश्नामीषे प्राणायेति । अथ होतुरिह निलिम्पति । तद्धोतौष्ठयोर्निलिम्पते - वाचस्पतिना ते हुतस्याश्नामि - ऊर्जे उदानाय इति । - मा.श.१.८.१.१५
८सोऽयं पुरुषेऽन्तः प्रविष्टस्त्रेधा विहितः - प्राण उदानो व्यान इति । - मा.श.३.१.३.२०
९ऐन्द्रः प्राणोऽअङ्गेऽअङ्गे निदीध्यद्। ऐन्द्र उदानोऽअङ्गेऽअङ्गे निधीतः इति । यदङ्गशो विकृत्तो भवति - तत् प्राणोदानाभ्यां सन्दधाति । - मा.श.३.८.३.३७
१०दश पाण्या अंगुलयः , दश पाद्याः , दश प्राणाः , प्राण उदानो व्यानः - इत्येतावान्वै पुरुषो - यः परार्द्ध्यः पशूनाम् - सर्वेऽनु पशवः । - मा.श.३.८.४.१
११अथ ग्रहयागाः : - - - - -तत्रायमुपांशुग्रहः । प्राणो ह वाऽअस्योपांशुः , व्यान उपांशुसवनः ,उदान एवान्तर्यामः । मा.श.४.१.१.१
१२अन्तर्यामग्रहः : प्राणो ह वाऽअस्योपांशुः , व्यान उपांशुसवनः , उदान एवान्तर्यामः । अथ यस्मादन्तर्यामो नाम । यो वै प्राणः स उदानः स व्यानः । तमेवास्मिन्नेतत्पराञ्चं प्राणं दधाति ;यदुपांशुं गृह्णाति - तमेवास्मिन्नेतत्प्रत्यञ्चमुदानं दधाति यदन्तर्यामं गृह्णाति । सोऽस्यायमुदानोऽन्तरात्मन् - यतस्तद्यदस्यैषोऽन्तरात्मन् - यतः । यद्वा एनेनेमाः प्रजा यताः । तस्मादन्तर्यामो नाम । तमन्तः पवित्राद्गृह्णाति । प्रत्यञ्चमेवास्मिन्नेतदुदानं दधाति सोस्यायमुदानोऽन्तरात्मन् हितः । एतेनो हास्याप्युपांशुरन्तः पवित्राद्गृहीतो भवति । समानं ह्येतद् - यदुपाश्वन्तर्यामौ - प्राणोदानौ हि । । - मा.श.४.१.२.१
१३प्राणोदानौ ह वाऽअस्यैतौ ग्रहौ । तयोरुदितेऽन्यतरं जुहोति - अनुदितेऽन्यतरम् । प्राणोदानयोर्व्याकृत्यै । प्राणोदानावेवैतद्व्याकरोति । तस्मादेतौ समानावेव सन्तौ नानेवाचक्षते - प्राण इति चोदान इति च । - मा.श.४.१.२.११
१४तद् यदेनेनेमाः प्रजाः प्राणत्यश्चोदनत्यश्चान्तरिक्षमनुचरन्ति - तेन वैश्वदेवः । - मा.श.४.१.२.१६
१५तं गृहीत्वा परिमार्ष्टि । नेद्व्यवश्चोतदिति । तं न सादयति । उदानो ह्यस्यैषः । तस्मादयमसन्न उदानः संचरति । यदीत्त्वभिचरेद् - अथैनं सादयेद् । अमुष्य त्वोदानं सादयामीति । - मा.श.४.१.२.१७
१६समानं ह्येतद् - यदुपांश्वन्तर्यामौ - प्राणोदानौ हि । - मा.श.४.१.२.१८
१७ताऽउ ह चरका: - नानैव मन्त्राभ्यां जुह्वति । प्राणोदानौ वा अस्यैतौ नानावीर्यौ । प्राणोदानौ कुर्म इति वदन्तः । तदु तथा न कुर्यात् । मोहयन्ति ह ते यजमानस्य प्राणोदानौ । - मा.श.४.१.२.१९
१८किमु तत्तूष्णीं जुहुयात् । समानं ह्येतद् - यदुपांश्वन्तर्यामौ - प्राणोदानौ हि । - मा.श.४.१.२.२०
१९अथात्र नीचा पाणिना मध्यमे परिधौ प्रत्यगुपमार्ष्टि । प्रत्यञ्चमेवास्मिन्नेतदुदानं दधाति । - मा.श.४.१.२.२३
२०तं प्रत्याक्रम्य सादयति । उदानाय त्वा इति । उदानो ह्यस्यैषः । तानि वै संस्पृष्टानि सादयति । प्राणोदानानेवैतत्संस्पर्शयति । प्राणोदानान्त्सन्दधाति । - मा.श.४.१.२.२४
२१इयं ह वाऽउपांशुः । प्राणो ह्युपांशुः । इमां ह्येव प्राणन्नभिप्राणिति । असावेवान्तर्यामः । उदानो ह्यन्तर्यामः । अमुं ह्येव लोकमुदनन्नभ्युदनिति । - मा.श.४.१.२.२७
२२यदि सावित्रमन्तर्यामपात्रेण गृह्णीयात् - उपांशुपात्रेणैतम् । समानं ह्येतत् - यदुपांश्वन्तर्यामौ । प्राणो हि । यो वै प्राणः स उदानः । वृषा वै प्राणः , योषा पत्नी । मिथुनमेवैतत्प्रजननं क्रियते । - मा.श.४.४.२.१०
२३पात्रावकाशमन्त्राः : अथान्तर्यामम् - उदानाय मे वर्चोदा वर्चसे पवस्व इति । - मा.श.४.५.६.२
२४प्राणो वै वायुः । नियुत्वते भवति । उदानो वै नियुतः । प्राणोदानावेवास्मिन्नेतद्दधाति । - मा.श.६.२.२.६,७
२५त्रयो वै प्राणाः - प्राण उदानो व्यानः । तानेवास्मिन्नेतद्दधाति । - मा.श.६.४.२.५
२६सैषा त्रेधा विहिता वागनुष्टुप् । तामेषोऽग्निः प्राणो भूत्वाऽनुसञ्चरति । य आहवनीयेऽग्निः - स प्राणः , सोऽसावादित्यः । - - - -अथ यो गार्हपत्येऽग्निः - स उदानः । - मा.श.७.१.२.२१
२७स्वयमातृण्णेष्टकोपधानम् :विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय इति । प्राणो वै स्वयमातृण्णा सर्वस्माऽउ वाऽएतस्मै प्राणः । - मा.श.७.४.२.८
२८तद्याः पुस्तादुपदधाति - ताः प्राणभृतः । - - - -अथ याः उत्तरतः - ताः श्रोत्रभृतः , ता उदानभृतः । मा.श.८.१.३.६
२९तदु ह चरकाध्यर्यवः - अन्या एवापानभृतो व्यानभृत उदानभृतः समानभृतः , चक्षुर्भृतोv मनोभृतः श्रोत्रभृतो वाग्भृत - इत्युपदधाति । न तथा कुर्यात् । -मा.श.८.१.३.७
३०अथ दक्षिणत उपधायोत्तरत उपदधाति । व्यानो होदानो भूत्वाऽऽङ्गुल्यग्रेभ्य इति संचरति । उदान उ ह व्यानो भूत्वाऽऽङ्गुल्यग्रेभ्य इति सञ्चरति । - मा.श.८.१.३.९
३१स्वयमातृण्णेष्टकोपधानम् : विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय इति । प्राणो वै स्वयमातृण्णा । - मा.श.८.३.१.१०
३२तिसृभिरस्तुवत - इति । त्रयो वै प्राणाः - प्राणः , उदानः , व्यानः । - मा.श.८.४.३.४
३३चत्वारिंशच्छन्दस्येष्टकोपधानम् : ककुप्छन्द: - इति । प्राणो वै ककुप्छन्द: । त्रिककुप्छन्द इति । उदानो वै त्रिककुप्छन्द: । - मा.श.८.५.२.४
३४तद्याः पुरस्तादुपदधाति - प्राणस्तासां प्रथमा , व्यानो द्वितीया , उदानस्तृतीया । उदानश्चतुर्थी , व्यानः पञ्चमी , प्राणः षष्ठी । प्राणः सप्तमी , व्यानोऽष्टमी , उदानो नवमी । यजमान एवात्र दशमी । - मा.श.८.५.२.७
३५पुरीष निवपनम् :विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय इति । प्राणो वै स्वयमातृण्णा । - मा.श.८.७.३.१९
३६वातहोमः : त्रयो वै प्राणाः - प्राण उदानो व्यानः । तैरेवैनमेतद्युनक्ति । - मा.श.९.४.२.१०
३७चतुर्थीं चितिं चिनोति - सा हास्यैषोदान एव । तद्वै तदमृतम् । अमृतं ह्युदानः । - मा.श.१०.१.४.५
३८अथाध्यात्मम् । उदान एव पूर्णमाः । उदानेन ह्ययं पुरुषः पूर्यत इव । प्राण एव दर्शः । ददृश इव ह्यं प्राणः । तदेतावन्नादश्चान्नप्रदश्च दर्शपूर्णमासौ । प्राण एवान्नादः । प्राणेन हीदमन्नमद्यते । उदान एवान्नप्रदः । उदानेन हीदमन्नं प्रदीयते । - मा.श.१०.२.४.६
३९प्राण उदानमप्यगात् - इति गार्हपत्य आहुतिं जुहुयाम् । सैव प्रायश्चित्तिः । - मा.श.११.५.३.८
४०उदानः प्राणमप्यगात् - इत्याहवनीय आहुतिं जुहुयाम् । सैव प्रायश्चित्तिः । - मा.श.११.५.३.९
४१उपनयनधर्माभिधायकं ब्राह्मणम् : त्रयो वै प्राणाः । प्राण उदानो व्यानः । तानेवास्मिंस्तद्दधाति । अथार्द्धर्चशः । द्वौ वा इमौ प्राणौ । प्राणोदानावेव । प्राणोदानावेवास्मिंस्तद्दधाति । अथ कृत्स्नाम् । एको वा अयं प्राणः कृत्स्न एव । - मा.श.११.५.४.१५
४२सर्वप्राश्चित्तविधायकं ब्राह्मणं : अथ मनो ह वा अंशुः , वागदाभ्यः । प्राण एवांशुः , उदानोऽदाभ्यः । - मा.श.११.५.९.२
४३पशुदेवताविकल्पाभिधायकं ब्राह्मणम् :तं प्राची दिक् प्राणेत्यनुप्राणत् , - -- - - -तमुदीची दिगुदानेत्यनुप्राणत् उदानमेवास्मिंस्तददधात् । - मा.श.११.८.३.६
४४गवामयनीय संवत्सरस्य पुरुषविधोपासनम् : उदान एवोदयनीयोऽतिरात्रः । उदानेन ह्युद्यंति । स एष संवत्सरोऽध्यात्मं प्रतिष्ठितः । - मा.श.१२.२.४.१६
४५तिसृभिस्तिसृभिः पावयन्ति । त्रयो वै प्राणाः । प्राण उदानो व्यानः । - मा.श.१२.८.१.११
४६सौत्रामण्यां सोमसम्पत्तिः : त्रेधाविहितो वा अयं प्राणः । प्राण उदानो व्यान इति । यथारूपमेवास्मिन् प्राणं दधाति । - मा.श.१२.८.२.२७
४७घर्मसन्दीपनं ब्राह्मणम् : प्राणो वै मधु । प्राणमेवास्मिन्नेतद्दधाति । त्रीणि भवंति । त्रयो वै प्राणाः । प्राण उदानो व्यानः । तानेवास्मिन्नेतद्दधाति । - मा.श.१४.१.३.३०
४८प्रवर्ग्येऽवकाशोपस्थानं ब्राह्मणम् : ते वा एते त्रयोऽवकाशा भवंति । त्रयो वै प्राणाः - प्राण उदानो व्यानः । - मा.श.१४.१.४.७
४९घर्मोद्वासनं : प्राणा वै धवित्राणि - - -त्रयो वै प्राणाः । प्राण उदानो व्यानः । - मा.श.१४.३.१.२१
*५०सप्तान्नब्राह्मणं वा संवर्गविद्याब्राह्मणम् : यः कश्च शब्दः । वागेव सा । एषा हि अंतमायत्ता । एषा हि न प्राणोऽपानो व्यान उदानः समानः । अन इति एतत्सर्वं प्राण एव । - मा.श.१४.४.३.१०
५१उषस्तब्राह्मणं वा निर्गुणात्मविद्याब्राह्मण~ : - - - - - - - - -स त आत्मा सर्वांतरः । य उदानेनोदनिति , स त आत्मा सर्वांतरः । यः समानेन समानिति - - -। मा.श.१४.६.५.१
५२शाकल्यब्राह्मणग्रन्थो वा शाकल्यब्राह्मणम् : कस्मिन्नु व्यानः प्रतिष्ठित इति । उदान इति । कस्मिन्नूदानः प्रतिष्ठित इति । समान इति । - मा.श.१४.६.९.२७
५३अथ यद्द्वितीयं प्राश्नाति तेनोदानापानौ तृप्यतः । तम् उदानापानाव् आहतुश् श्रद्धा ते मा विगात् सर्वैः कामैस् तृप्य स्वर्गं लोकम् आप्नुहीति । - जैमिनीय ब्राह्मण १.४१
५४तस्माद् एतेनैकम् एव प्राणेन करोति यद्एव प्राणान् उदन्तो ऽनूदनिति । - जै.ब्रा.१.१२७
५५स यथाक्रमणाद् आक्रमणम् आक्रम्योदन्यात् तादृक् तत् । - जै.ब्रा.१.१३९
५६प्राणव्यानोदाना ह खलु वा एतानि सामानि । प्राण एव रथन्तरं व्यानो वामदेव्यम् उदानो बृहत् । तस्माद् एवम् एव कार्यं प्राणव्यानोदानानां संतत्या अव्यवच्छेदायेति । - जै.ब्रा.१.२२९
५७तस्माद् एतेनैकम् एव प्राणेन करोति यद्एव प्राणान् उदनतो ऽनूदनिति । - जै.ब्रा.१.२५४
५८मन एव महाव्रतीयम् अहः । उदान एवोदयनीयो ऽतिरात्रः । - जै.ब्रा.२.५८
५९अथ यद्ऊर्ध्वं श्रोत्राभ्यां तद् उत्तरो ऽतिरात्रः । प्राण एव पूर्वो ऽतिरात्र , उदान उत्तरः । तौ प्रायणीयोदयनीयाव् इति परोक्षम् आचक्षते । - जै.ब्रा.३.३१९
६०- - - - -ताभ्यो ऽवर्षत् । तत ओदनो ऽजायत । तम् अशित्वोदानन् । स उदनो ऽभवत्~ । तद् उदनस्योदनत्वम् । उदनो ह वै नामैष । तम् ओदन इति परोक्षम् आचक्षते । - जै.ब्रा.३.३४६
६१प्राणो वै संवत्सर उदाना मासा यदुत्सृजन्ति प्राण एवोदानान्दधति यो दीक्षितः प्रमीयते या संवत्सरस्यानुत्सृष्टस्य शुक्सा तमृच्छति । - ताण्ड्य ब्राह्मण ५.१०.३
६२प्राणो वै प्रायणीय उदान उदयनीयः समानो होता भवति समानौ हि प्राणोदानौ प्राणानां क्लृप्त्यै प्राणानां प्रतिप्रज्ञात्यै । - ऐतरेय ब्राह्मण १.७
६३यो वै संवत्सरस्य प्राणोदानौ वेद स वै स्वस्ति संवत्सरस्य पारमश्नुतेऽतिरात्रो वा अस्य प्रायणीयः प्राण उदान उदयनीयः । - ऐ.ब्रा.४.१४
६४मुखं महाव्रतम् । तस्योदान एवोदयनीयोऽतिरात्रः । उदानेन ह्युद्यन्ति । - गोपथ ब्राह्मण १.५.४
६५यावन्तः समाना पञ्चदशकृत्वस्तावन्त उदानाः । यावन्त उदानाः पञ्चदशकृत्वस्तावन्त्येतादीनि । - - -गो.ब्रा.१.५.५
६६ओदन प्रकरणम् : -- - - - - प्राणापानौ मे पाहि , समानव्यानौ मे पाह्युदानरूपे मे पाहि । - गो.ब्रा.२.१.७
६७छन्दसामु ह षष्ठेनाह्नाक्तानां रसो ऽत्यनेदत् । तं प्रजापतिरुदानाद् नाराशंस्या गायत्र्या रैभ्या त्रिष्टुभा परिक्षित्या जगत्या गाथयानुष्टुभा । - गो.ब्रा.२.६.११
६८वाचे पुरुषमालभते । प्राणमपानं व्यानमुदानँ समानं तान्वायवे । - तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.४.१८.१
६९अथाध्यात्मम् । प्राणो व्यानोऽपान उदानः समानः । चक्षुः श्रोत्रं मनो वाक्त्वक् । चर्म माँसँ स्नावास्थि मज्जा - - -तैत्तिरीय आरण्यक ७.७.१
प्राणाहुति मन्त्राः : - - - -उदाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि । उदानाय स्वाहा । - - -तै.आ.१०.३३.१
७०प्राणाहुतिषु विकल्पितानि मन्त्रान्तराणि : उदाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि । शिवो मा विशाप्रदाहाय । उदानाय स्वाहा । - तै.आ.१०.३४.१
७१भुक्तस्यानुमन्त्रणे मन्त्रम् : - - -उदाने निविश्यामृतँ हुतम् । उदानमन्नेनाऽऽप्यायस्व । - - -तै.आ.१०.३६.१
७२प्राणाहुति मन्त्राः : श्रद्धायामुदाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि । - तै.आ.१०.६९.१
७३स एष वायुः पञ्चविधः प्राणोऽपानो व्यान उदानः समानः । - ऐ.आ.२.३.३
७४अन्वाहार्यपचनम् : - - -प्राणापानौ मे पाहि समानव्यानौ मे पाह्युदानव्यानौ मे पाह्यक्षितोऽसि- - -। तैत्तिरीय संहिता १.६.३.३
७५स्वयमातृण्णादीष्टकोपधानम् : - - -पृथिवीं मा हिfसीर्विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्राय - - -तै.सं.४.२.९.१
७६तृतीय चितौ स्वयमातृण्णादीष्टकाभिधानम् : अन्तरिक्षं मा हिfसीर्विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्राय - - - । - तै.सं.४.३.६.१
७७चोडाख्येष्टकाभिधानम् : - - - -दिवं मा हिfसीर्विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्राय - - - । - तै.सं.४.४.३.३
७८गवामयनस्य गुणविकाररूप उत्सर्गः : यत्पौर्णमास्या मासान्त्संपाद्याहरुत्सृजन्ति संवत्सरायैव तदुदानं दधति - तै.सं.७.५.६.२
७९अथैकयोर्ध्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम् । - - - - - तेजो ह वा उदानस्तस्मादुपशान्ततेजाः । - प्रश्नोपनिषद ३.७
८०मनो ह वाव यजमान इष्टफलमेवोदानः स एनं यजमानमहरह गमयति । - प्रश्नोपनिषद ४.४
८१अथाध्यात्मम् । प्राणो व्यानोऽपान उदानः समानः । चक्षुः श्रोत्रं मनो वाक् त्वक् । चर्म माँसँ स्नावास्थि मज्जा । - तैत्तिरीयोपनिषद ९.७.१
८२अथ योऽस्योर्ध्वः सुषिः स उदानः स वायुः स आकाशस्तदेतदोजश्च महश्चेत्युपासीतौजस्वी महस्वान्भवति य एवं वेद । - छान्दोग्योपनिषद ३.१३.४
८३अथ यां पञ्चमीं जुहुयात्तां जुहुयादुदानाय स्वाहेत्युदानस्तृप्यति । उदाने तृप्यति त्वक् तृप्यति त्वचि तृप्यन्त्यां वायुस्तृप्यति - - - -- -छान्दोग्योपनिषद ५.२३.१
८४यः कश्च शब्दो वागेव सैषा ह्यन्तमायत्तैषा हि न प्राणोऽपानो व्यान उदानः समानोऽन इत्येतत्सर्वं प्राण एव । -बृहदारण्यकोपनिषद१.५.३
८५ - - -स त आत्मा सर्वान्तरो य उदानेनोदानिति स त आत्मा सर्वान्तर एष त आत्मा सर्वान्तरः । - बृहदारयक उपनिषद३.४.१
८६- - - -कस्मिन्नु व्यानः प्रतिष्ठित इत्युदान इति कस्मिन्नूदानः प्रतिष्ठित इति समान इति स एष नेति नेति - - - -। - बृहदारण्यक उपनिषद ३.९.२६
८७प्राण आद्यो हृदि स्थाने अपानस्तु पुनर्गुदे । समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमाश्रितः । - - - - - -अपाण्डुर उदानश्च व्यानो ह्यर्चि:समप्रभः । - अमृतनादोपनिषद ३५
८८स एको नाशकत्स पञ्चधात्मानं विभज्योच्यते यः प्राणोऽपानः समान उदानो व्यान इति । - - - - -उत्तरं व्यानस्य रूपं चैतेषामन्तरा प्रसूतिरेवोदानस्याथ योऽयं पीताशितमुद्गिरति निगिरतीति वैष वाव स उदानः । - मैत्रायण्युपनिषद २.६
८९प्राणाय स्वाहाऽपानाय स्वाहा व्यानाय स्वाहा समानाय स्वाहोदानाय स्वाहेति पञ्चभिरभिजुहोति । - मैत्रायण्युपनिषद ६.९
९०प्राणोऽग्निस्तस्येमा इष्टका यः प्राणो व्यानोऽपानः समान उदान स शिरः पक्षसीपृष्ठपुच्छवानेषोऽग्निः पुरुषविदः - मैत्रायण्युपनिषद६.३३
९१मित्रावरुणौ पंक्तिस्त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ शाक्वररैवते हेमन्तशिशिरा उदानोऽङ्गिरसश्चन्द्रमा ऊर्ध्वा उद्यन्ति तपन्ति वर्षन्ति - - - -मैत्रायण्युपनिषद ७.५
९२- - -यो वरुणमेवास्तमेति सौम्यामेवाप्येति यः सौम्यामेवास्तमेत्युदानमेवाप्येति य उदानमेवस्तमेति विज्ञानमेवाप्येति तदमृत ० होवाच । - सुबालोपनिषद ९
९३योऽयं विज्ञानघन उत्क्रामन्प्राणं दहत्यपानं व्यानमुदानं समानं वैरम्भं मुख्यमन्तर्यामं - - - सुबालोपनिषद १५
९४सुषुम्ना मध्यदेशे तु प्राणमार्गास्त्रयः स्मृताः । प्राणोऽपान समानश्चोदानो व्यानस्तथैव च ।- - - - - - - - - । - ध्यानबिन्दूपनिषद ५६
९५वकारं जीवबीजं च उदानं शङ्खवर्णकम् । - ध्यानबिन्दूपनिषद ९६
९६प्राणोऽपान समानश्चोदानव्यानौ च वायवः । पञ्चकर्मेन्द्रियैर्युक्ताः क्रियाशक्तिबलोद्यताः । - ब्रह्मविद्योपनिषद ६७
९७प्राणापानौ समानश्च उदानो व्यान एव च । नागः कूर्मश्च कृकरो देवदत्तो धनंजयः । चरन्ति दशनाडीषु दश प्राणादि वायवः । - त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद २.७६
९८समानः सर्वगात्रेषु सर्वव्यापी व्यवस्थितः । उदानः सर्वसन्धिस्थः पादयोर्हस्तयोरपि । व्यान - - - -त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद २.८०
९९प्राणापानादिचेष्टादि क्रियते व्यानवायुना । उज्जीर्यते शरीरस्थमुदानेन नभस्वता । - त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद २.८४
१००समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमध्यगः । व्यानः सर्वशरीरे तु प्रधानाः पञ्च वायवः । - योगचूडामण्युपनिषद २४
१०१आदित्यो वै व्यानः समानोदानोऽपानः प्राणः । - सूर्योपनिषद
१०२प्राणोऽपानस्तथा व्यानः समानोदान एव च । नागः कूर्मश्च कृकरो देवदत्तो धनंजयः । एते नाडीषु सर्वासु चरन्ति दश वायवः । - जाबालदर्शनोपनिषद ४.२३
१०३- - - -उदानसंज्ञो विज्ञेयः पादयोर्हस्तयोरपि । समानः सर्वदेहेषु व्याप्य तिष्ठत्यसंशयः । - जाबालदर्शनोपनिषद ४.२९
१०४समान सर्वसामीप्यं करोति मुनिपुङ्गव । उदान ऊर्ध्वगमनं करोत्येव न संशयः । व्यानो विवादकृत्प्रोक्तो मुने वेदान्तवेदिभिः । - जाबालदर्शनोपनिषद ४.३२
१०५प्राणाय स्वाहा । अपानाय स्वाहा । व्यानाय स्वाहा । समानाय स्वाहा । उदानाय स्वाहा इति कनिष्ठिकाङ्गुल्याङ्गुष्ठेन च प्राणे जुहोमि । अनामिकयाऽपाने । मध्यमया व्याने । सर्वाभिरुदाने । - प्राणाग्निहोत्रोपनिषद १.१
१०६अस्य शारीरयज्ञस्य - - - - -समानो मैत्रावरुणः । उदान उद्गाता । शरीरं वेदिः । - - - - -प्राणाग्निहोत्रोपनिषद४.१
१०७उदानमूर्ध्वगं कृत्वा प्राणेन सह वेगतः । बन्धोऽयं सर्वनाडीनामूर्ध्वं याति निरोधकः । - वराहोपनिषद ५.४४
१०८प्रायश्चित्तम् :अथापरं प्रजापतेर्भागोऽस्यूर्जस्वान् पयस्वान् । अक्षितोऽस्यक्षित्यै त्वा । प्राणापानौ मे पाहि समानव्यानौ मे पाह्युदानरूपे मे पाहि । - द्राह्यायण श्रौत सूत्र १२.३.२२
१०९प्रातः-सायं कर्म : होम्यमुपसाद्य । प्राणापानाभ्यां स्वाहा समानव्यानाभ्यां स्वाहोदानरूपाभ्यां स्वाहेत्यात्मन्येव जुहुयात् । - कौशिक सूत्र ७२.४२
११०इळोपह्वानम् : वाचस्पतिना ते हुतस्य प्राश्नामीषे प्राणायेति पूर्वमञ्जनमधरौष्ठे निलिम्पति । मनसस्पतिना ते हुतस्य प्राश्नाम्यूर्ज उदानायेत्युत्तरौष्ठ उत्तरम् । - शाङ्खायन श्रौत सूत्र१.१०.२
१११यदि होमकाले प्राण उदानमप्यगादिति गार्हपत्ये जुहुयात् । यदि गार्हपत्य उदानः प्राणमप्यगादित्याहवनीये । यदि दक्षिणाग्निर्व्यान उदानमप्यगादित गार्हपत्ये । - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ९.१०.४
११२दर्शपूर्ण मासः : अन्वाहार्यमभिघार्योद्वास्यान्तरा - - - -प्रजापतेर्भागोऽस्यूर्जवान् पयस्वान् प्राणापानौ मे पाहि समानव्यानौ मे पाह्युदानव्यानौ मे पाह्यूर्गस्यूर्जं मयि धेहि - - -कात्यायन श्रौत सूत्र ३.४.२७
११३सत्राणि : अग्निहोत्र आसन्नेषु चेत्पात्रेष्वाहवनीयोऽनुगच्छेद्गार्हपत्ये जुहुयात्प्राण उदानमप्यगादिति । गार्हपत्यश्चेदाहवनीय उदानः प्राणमप्यगादिति । दक्षिणाग्निश्चेद्गार्हपत्ये व्यान उदानमप्यगादिति । - कात्यायन श्रौत सूत्र २५.१०.१७
११४सोमयागः : अभिचरन्त्सादयेदविसृजन्नमुष्य त्वा प्राणं सादयामीति । उदानमित्यन्तर्याम् । पाणिना चापिदधात्यमुष्य त्वा प्राणमपिदधामीति उदानमित्यन्तर्यामम् । - कात्यायन श्रौत सूत्र ९.४.२७
११५उदाने पर्जन्यम्(प्रजापतिरावेशयत्) – शां.आ. ११.१
११६चन्द्रमा उदानः – जै.उ.ब्रा. ४.११.१.९