उपबर्हण
टिप्पणी : ऋग्वेद की कईं ऋचाओं में बर्हणा शब्द प्रकट हुआ है जिसका सायण भाष्य अधिकांश स्थानों पर बर्ह - हिंसायाम् धातु के आधार पर करने का प्रयत्न किया गया है । लेकिन यह प्रयत्न ऋचाओं के रहस्यों पर प्रकाश डालने में असफल है । वैदिक निघण्टु में बर्हणा को पद नामों के अन्तर्गत रखा गया है । इसके अतिरिक्त , ऋग्वेद १०.८५.७ , अथर्ववेद ९.५.२९ , १२.२.१९ व २० तथा १५.३.७ में आसन्दी के संदर्भ में उपबर्हण ( पर्यंक पर तकिया ? )शब्द प्रकट हुआ है । कहीं पर ब्रह्म को (अथर्ववेद १५.३.७ ) , कहीं चित्ति को ( ऋग्वेद १०.८५.७ ) , कहीं अनड्वान को (अथर्ववेद ९.५.२९ ) , कहीं रूप / छन्द को ( तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१६.१० , काठक संहिता २८.४ , मैत्रायणी संहिता १.६.४ ), कहीं श्री को ( कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद १.५ , ऐतरेय ब्राह्मण ८.१२ ) उपबर्हण कहा गया है । शब्द कोशों में बर्हण को पुच्छ कहा गया है । शरीर में मेरुदण्ड भी मस्तिष्क की पुच्छ जैसा है । इस आधार पर उपबर्हण को समझने का सूत्र हमें आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ५.२०.७ तथा १२.६.१ से प्राप्त होता है जहां उल्लेख आता है कि आग्नीध्र नामक ऋत्विज को अज पूर्णपात्र अथवा हिरण्य पूर्णपात्र तथा सार्वसूत्र उपबर्हण की दक्षिणा दी जाए । इसका तात्पर्य हुआ कि उपबर्हण से पूर्व अज अवस्था तथा हिरण्यय कोश की अवस्था को पुष्ट करना है , उसे पूर्ण बनाना है , उसके पश्चात् मनुष्य व्यक्तित्व के निचले कोशों में व्युत्थान करना है , उसे मयूर पुच्छ की भांति चित्रित करना है , संगीत से ओतप्रोत करना है । जब वैदिक साहित्य में उपबर्हण द्वारा रूप प्राप्त करने की बात कही जाती है तथा उसे श्री, चित्ति आदि कहा जाता है , तो उससे यही तात्पर्य हो सकता है । बर्हण व उपबर्हण में क्या अन्तर है तथा ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में उपबर्हण की निरुक्ति को किस प्रकार उचित सिद्ध किया जा सकता है , यह विचारणीय है । पुराणों में उपबर्हण गन्धर्व की विस्तृत कथा वैदिक ऋचाओं की किन - किन ग्रन्थियों पर प्रकाश डालती है , यह भी अन्वेषणीय है ।
उपबर्हण
रपत्कविरिन्द्रार्कसातौ क्षां दासायोपबर्हणीं कः।
करत्तिस्रो मघवा दानुचित्रा नि दुर्योणे कुयवाचं मृधि श्रेत्॥ १.१७४.०७
सनत्साश्व्यं पशुमुत गव्यं शतावयम्।
श्यावाश्वस्तुताय या दोर्वीरायोपबर्बृहत्॥ ५.०६१.०५
आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि।
उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्॥ १०.०१०.१०
चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अभ्यञ्जनम्।
द्यौर्भूमिः कोश आसीद्यदयात्सूर्या पतिम्॥ १०.०८५.०७
अनुपूर्ववत्सां धेनुमनड्वाहमुपबर्हणम् ।
वासो हिरण्यं दत्त्वा ते यन्ति दिवमुत्तमाम् ॥२९॥ शौअ ९.५.२९
सीसे मृड्ढ्वं नडे मृड्ढ्वमग्नौ संकसुके च यत्।
अथो अव्यां रामायां शीर्षक्तिमुपबर्हणे ॥१९॥
सीसे मलं सादयित्वा शीर्षक्तिमुपबर्हणे ।
अव्यामसिक्न्यां मृष्ट्वा शुद्धा भवत यज्ञियाः ॥२०॥ - शौ १२.२.१९-२०
चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अभ्यञ्जनम् ।
द्यौर्भूमिः कोश आसीद्यदयात्सूर्या पतिम् ॥६॥ शौ १४.१.६
वेद आस्तरणं ब्रह्मोपबर्हणम् ॥७॥- शौ १५.३.७
आ घा ता गच्छान् उत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्न् अजामि ।
उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्॥११॥ - शौ १८.१.११
उपबर्हणं सर्वसूत्रं देयम् , छन्दसां वा एतन् निरूपं यदुपबर्हणं सर्वसूत्रं , यदुपबर्हणं सर्वसूत्रं ददाति छन्दांस्येवावरुन्द्धे , पशवो वै छन्दांसि , पशून् एवावरुन्द्धे - मै १.६.४
उपबर्हणं ददात्येतद्वै छन्दसां रूपं रूपेणैव च्छन्दाँस्यवरुन्द्धे – काठ २८.४
उपबर्हणं
त्वा
ग्रीवामयान्मणयो
यक्ष्माज्जत्रव्यात्
।
अङ्गरोगादभ्यञ्जनमन्नं
त्वान्तष्ट्यामयात्
।।पै
७.१५.७।।
चित्तिरावत्
उपबर्हणं
चक्षुरावदभ्यञ्जनम्
।
द्यौर्भूमि:
कोश
आसीद्यदयात्
सूर्या
पतिम्
।।
पै
१८.१.५
।।
यश आस्तरणं श्रियमुपबर्हणं – ऐ.ब्रा. ८.१२