उशिज
टिप्पणी : वायु पुराण में उशिज को पथ्या व अथर्वण का पुत्र कह कर यह संकेत किया गया है कि उशिज समाधि से व्युत्थान की अवस्था है क्योंकि ऐतरेय ब्राह्मण १.७ का कथन है कि पथ्या अदिति है , अखण्ड शक्ति है जिससे सूर्य का उदय होता है और जिसमें अस्त होता है । पथ्या स्वस्ति है, कल्याण की स्थिति है । जैसा कि अथर्वा शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है , मनोमय कोश से लेकर अन्नमय कोश तक के जीवात्मा का नाम अथर्वण है जो अपने सच्चे स्वरूप को भूला हुआ है । इन दोनों के संयोग से उशिज का जन्म होता है । यह अदिति के विपरीत दिति अवस्था है ( गोपथ ब्राह्मण २.२.१३ आदि ) । वैदिक साहित्य में उशिक् और उशिज , दो शब्द आते हैं । उशिक् शब्द निघण्टु में कामना के अर्थों में और उशिज: मेधावी नामों के अन्तर्गत आता है । उशिज: का प्रयोग ऋग्वेद में बहुवचन में हुआ है , अर्थात् उशिज: शब्द उशिज का बहुवचन हो सकता है । उशिक् शब्द का प्रयोग प्रायः वासनाओं के शोधन हेतु किया गया है । यज्ञ में पोता नामक ऋत्विज की अग्नि के लिए उशिगसि कवि: , इस प्रकार कहा जाता है ( तैत्तिरीय संहिता १.३.३.१ इत्यादि ) । वासनाएं शुद्ध होने के पश्चात् ८ वसुओं में परिवर्तित हो जाती हैं । अतः तैत्तिरीय संहिता ४.४.१.२ आदि में उशिक् से वसुओं को प्रसन्न करने की प्रार्थना की गई है(उशिग् असि वसुभ्यस् त्वा वसूञ् जिन्व) । भौतिक विज्ञान की दृष्टि से उशिक् को इस प्रकार समझा जा सकता है कि यदि किसी गैस में से विद्युत का प्रवाह किया जाए तो गैस प्लाज्मा स्थिति में परिवर्तित हो जाती है जिसका प्रत्येक कण कामना से पूर्ण होता है , किसी दूसरे से मिलने के लिए आतुर रहता है । अन्य शब्दों में , यदि अणु में किसी भौतिक प्रक्रिया से झूलते हुए बंधन उत्पन्न कर दिए जाएं तो वह अणु कामना युक्त हो जाता है । इतना ही नहीं , जैसा कि वैदिक साहित्य में कामनाओं का रूपांतरण करके उन्हें वसु बनाने का उल्लेख है , ऐसे ही आजकल भौतिक विज्ञान ऐसे झूलते बंधन उत्पन्न करने में समर्थ हो गया है जिन्हें किसी विशेष प्रयोजन के लिए , किसी विशेष कार्य की सिद्धि के लिए प्रयोग किया जा सकता है । लेकिन अध्यात्म में कामनाओं का रूपांतरण वसुओं में कैसे किया जाए , यह अन्वेषणीय है (मर्मृजेन्यः उशिक्ऽभिः न अक्रः ॥ - ऋग्वेद १.१८९.७ ) ।
पुराणों में उशिज द्वारा ममता के गर्भ में अपना वीर्य स्थापित करने की कथा में उशिज को उशिक् ही माना जा सकता है । इस कथा में ममता का , ममत्व का , जहां भी वासना है उसका , रूपांतरण करना है । उस ममत्व को देवों को अर्पित करने योग्य सर्वश्रेष्ठ अन्न जिसे अन्नाद्य कहते हैं , में रूपांतरित करना है ( ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार प्राण ही अन्नाद्य है ) । और पौराणिक साहित्य का कथन है कि यह कार्य उस शक्ति द्वारा किया जा सकता है जो जीवात्मा समाधि अवस्था से ग्रहण करने में सफल होता है ।
ऐसा प्रतीत होता है कि निघण्टु में मेधावी अर्थ वाले उशिज: शब्द का विस्तार पुराणों में दीर्घतमा की कथा द्वारा किया गया है । ऋग्वेद की ऋचाओं में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है ( जैसे ऋग्वेद ४.१.१५ , ४.१६.६ आदि ) कि उशिजों ने गोमन्त व्रज का आच्छादन किया । दीर्घतमा गौ धर्म का पालन करता है और अन्त में सुरभि गौ प्रसन्न होकर उसे चाटकर उसका तमस् व अन्धत्व नष्ट कर देती है । महानारायणोपनिषद १६.६ तथा तैत्तिरीय आरण्यक १०.४१ व १०.४२.१ में सुरभि से मेधा प्रदान करने की प्रार्थना की गई है । हो सकता है कि ऋग्वेद की ऋचाओं ( जैसे ऋग्वेद ४.६.११, १०.४६.२ व ४ )में उशिजों द्वारा नम: की ओर प्रवृत्त होकर (डा. फतहसिंह के अनुसार नम: मनः का उल्टा है ) जो उपलब्धियां की गई हैं , गौ धर्म का पालन उसी नम: का संकेत हो ।
यह एक विचित्र तथ्य है कि मेधा प्राप्ति के लिए जिस कथा का वर्णन उशिज के लिए होना चाहिए था , वह देवीभागवत पुराण में उतथ्य के लिए किया गया है । मूर्ख उतथ्य जो सत्यव्रत भी है , बाण से विद्ध शूकर को देखकर दयार्द्र हो उठता है और उसके मुख से सरस्वती के बीज मन्त्र ए का अनायास उच्चारण हो जाता है और वह विद्वान बन जाता है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र २४.६.१२ तथा आश्वलायन श्रौत सूत्र १२.११.४ आदि में औचथ्य गौतम और औशिज गौतमों के प्रवरों का साथ - साथ ही उल्लेख आता है । अतः हो सकता है कि उचथ्य और उशिज किसी प्रकार परस्पर सम्बद्ध हों ।
पुराणों में उशिज के अंगिरस ऋषियों में से एक होने के कथन के संदर्भ में , जैसा कि अंगिरस शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है , अंगिरस क्रमशः प्रगति करने वाले प्राण हैं । तैत्तिरीय संहिता ६.३.६.१ आदि का कथन है कि ऋत्विज ही उशिज नामक वह्नियां हैं । शतपथ ब्राह्मण ९.५.२.१६ का कथन है कि आत्मा ही यज्ञ का यजमान है और अंग ही ऋत्विज हैं । शतपथ ब्राह्मण १०.४.१.१९ के अनुसार प्रजापति की जो षोडश कलाएं हैं , वही यज्ञ के १६ ऋत्विज हैं । पुराणों में उशिज के अंगिरसों में से एक होने का कथन ऋग्वेद की उन ऋचाओं को समझने में सहायता करता है जहां इन्द्र व अग्नि आदि के साथ उशिज शब्द का उल्लेख आता है ( उदाहरण के लिए ऋग्वेद १.१३१.५ )।
संदर्भ
उशिक् / उशिज
१धिष्णियाभिधानम् :तुथोऽसि विश्ववेदा उशिगसि कविः - - - - - तै.सं.१.३.३.१
२यूपे पशुनियोजनार्थमुपाकरणाभिधानम् :- - - - -वह्नीरुशिजो - - - -- - तै.सं.१.३.७.१
३गार्हपत्याहवनीययोरुपस्थानम् : सोमानँ स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते। कक्षीवन्तं य औशिजम्। - तै.सं.१.५.६.४
४सौमिकब्रह्मत्वविधिः : प्रवाऽस्यनुवाऽसीत्याह मिथुनत्वायोशिगसि वसुभ्यस्त्वा वसूञ्जिन्वेत्याह - तै.सं.३.५.२.३
५अदाभ्यांशुग्रहापेक्षितमन्त्राभिधानम् :- - -उशिक त्वं देव सोम गायत्रेण छन्दसाऽग्नेः प्रियं पाथो अपीहि - - -तै.सं.२.३.३.२
६चातुर्मास्यगतवैश्वदेवास्यपर्वविहितहविषां याज्यापुरोनुवाक्या : स हव्यवाडमर्त्य उशिग्दूतश्चनोहितः। अग्निर्धिया समृण्वति। - तै.सं.४.१.११.४
७आसन्दीस्थापिताग्नेरुपस्थानम् : त्वामग्ने यजमाना अनु द्यून्विश्वा वसूनि दधिरे वार्याणि। त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वव्रुः
॥ - तै.सं.४.२.२.५
८आहवनीयचयनार्थलोष्टक्षेपाद्यभिधानम् : रातिं भृगूणामुशिजं कविक्रतुं पृणक्षि सानसिम् रयिम्। - तै.सं.४.२.७.३
९पञ्चमचितिशेषस्तोमभागाभिधानम् : - - -उशिगसि वसुभ्यस्त्वा वसूञ्जिन्व - - - तै.सं.४.४.१.२
१० - - - प्रवेत्यहरनुवेति रात्रिमुशिगिति वसून्प्रकेत इति रुद्रान् - - - तै.सं.५.३.६.१
११केषांचिद्धविषामभिधानम् : - - - -एतं वै पर आट्णारः कक्षीवाँ औशिजो वीतहव्यः - - -प्रजाकामा अचिन्वत ततो वै ते सहसँ सहस्रं पुत्रानविन्दन्त - - -तै.सं.५.६.५.३
१२अन्वारोहणाद्यभिधानम् : पिता मातरिश्वाऽच्छिद्रा पदा धा अच्छिद्रा उशिजः
पदाऽनु तक्षुः - - -तै.सं.५.६.८.६
१३पशुनियोजनम :वह्नीरुशिज इत्याहर्त्विजो वै वह्नय उशिजस्तस्मादेवमाह - -तै.सं.६.३.६.१
१४बृहदुपस्थानम् : अथान्तरेणाहवनीयं च गार्हपत्यं च प्राङ् तिष्ठन्नग्निमीक्षमाणो जपति। सोमानं स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते। कक्षीवन्तं य औशिजः। - शतपथ ब्रा.२.३.४.३.५
१५अग्नीषोमीयपशुयागः : उशिजो वह्नितमान् इति। विद्वांसो हि देवा। तस्मादाह उशिजो वह्नितमानिति। -मा.श.३.७.३.१०
१६अदाभ्य-अंशु ग्रहः : अथांशून्पुनरप्यर्जति। उशिक्त्वं देव सोमाग्नेः
प्रियं पाथोऽपीहि, वशी त्वं देव सोमेंद्रस्य प्रियं पाथोऽपीहि, अस्मत्सखा त्वं देव सोम विश्वेषां देवानां प्रियं पाथोऽपीहि इति। -मा.श. ११.५.९.१२
१७इन्द्रः सुवर्षा जनयन्नहानि। जिगायोशिग्भिः पृतना अभिश्रीः। प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नाम्। अविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय इति। - तै.ब्रा.२.४.३.६
१८स्तोमभागाः : उशिगसि वसुभ्यस्त्वा वसून् जिन्व सवितृप्रसूता बृहस्पतये स्तुत। - तां.ब्रा.१.९.९
१९काक्षीवतं भवति। कक्षीवान्वा एतेनौशिजः प्रजातिं भूमानमगच्छत् प्रजायते बहुर्भवति काक्षीवतेन तुष्टुवानः। - तां.ब्रा.१४.११.१६
२०पराह्णारस्त्रसदस्यः पौरुकुत्सो वीतहव्यः श्रायसः कक्षीवानौशिजस्त एतत्प्रजातिकामा सत्रायणमुपायँस्ते सहस्रं सहस्रं पुत्रानपुष्यन्नेवं वाव ते सहस्रं सहस्रं पुत्रान् पुष्यन्ति य एतदुपयन्ति ॥ -तां.ब्रा.२५.१६.३
२१उशिगसि, प्रकेतो ऽसि, सुदितिरसीति। - - - -गोपथ ब्रा.२.२.१३
२२तस्य पाहि नो अग्न एकये त्य् एतासु नार्मेधस्यर्क्षु रथन्तरं पृष्ठं भवति। एताभिर् वै नृमेधा औशिजो ऽग्नेर् हरांस्य् अपैरयत। - जै.ब्रा.२.१३७
२३कक्षीवतामाङ्गिरसौचथ्यगौतमौशिजकाक्षीवतेति। दीर्घतमसामाङ्गिरसौचथ्यदैर्घतमसेति। - आश्व.श्रौ.सू.१२.११.४
२४सोमग्रह ग्रहण मन्त्राः : - - - तिस्रो यह्वस्य समिधः परिज्मनो देवा अकृण्वन्नुशिजो अमर्त्यवे। - - - - आप.श्रौ.सू.१२.७.१०
२५आधवनानंशून्प्रज्ञातान्निधायोशिक्त्वं देव सोम गायत्रेण छन्दसेत्येतैः
प्रतिमन्त्रमनुसवनमेकैकं महाभिषवेष्वपिसृजति। - आप.श्रौ.सू.१२.८.४
२६अथौचथ्या गौतमाः। तेषां त्र्यार्षेयः। आङ्गिरसौचथ्य गौतमेति। गोतमवदुचथ्यवदङ्गिरोवदिति। अथौशिजा गौतमाः। तेषां त्र्यार्षेयः। आङ्गिरसौशिज काक्षीवतेति। कक्षीवद्वदुशिजवदङ्गिरोवदिति। - आप.श्रौ.सू.२४.६.१२
२७- - - चतुरो धिष्णियान्समान्तरालानुदगन्तान् तुथो ऽसि विश्ववेदा रौद्रेणोशिगसि कवी रौद्रेणाङ्घारिरसि बम्भारी रौद्रेणावस्युरसि दुवस्वान्रौद्रेणेत्येतैः ब्राह्मणाच्छंसिपोतृनेष्ट्रच्छावाकानं प्रतिमन्त्रमुपवपति - - -वैखा.श्रौ.सू.१४.१२
२८- - - अदाभ्यांशूनां प्रथममुशिक् त्वं देव सोमेति प्रातःसवने ऽपिसृज्याभिषुणुयान्माध्यन्दिने मध्यममुत्तमं तृतीयसवने - - -वैखा.श्रौ.सू.१५.१३
२९तुथ उशिगन्धारिरवस्युरिति ब्राह्मणाच्छंसिप्रभृतीनामुदञ्चः। - द्राह्या.श्रौ.सू.४.२.९
३०- - -सोमानँ स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते। कक्षीवन्तं य औशिजमित्यथ रात्रिमुपतिष्ठते - - -बौधा.श्रौ.सू.३.९
३१पशुबन्ध :- - -बर्हिषी आदायोपाकरोत्युपवीरस्युपो देवान्दैवीर्विशः
प्रागुर्वह्नीरुशिजो - - - बौधा.श्रौ.सू.४.५
३२अग्निष्टोम प्रातः सवनम् : तुथो ऽसि विश्ववेदा इत्युत्तरतो ब्राह्मणाच्छँसिन उशिगसि कविरित्युत्तरतः पोतुः - - - - - बौधा.श्रौ.सू.६.२९
३३अग्निचयनम् :- - - -अग्नेरुक्थेनाग्निमनुशँसति पिता मातरश्वाच्छिद्रा पदा धा अच्छिद्रा उशिजः पदानुतक्षुः- -बौधा.श्रौ.सू.१०.४९
३४औपानुवाक्यम् : अथ प्रदक्षिणमावृत्य राजन्येवाँशूनपिसृजत्युशिक् त्वं देव सोम गायत्रेण छन्दसाग्नेः प्रियं पाथो अपीह्यस्मत्सखा त्वं देव सोम जागतेन छन्दसा विश्वेषां देवानां प्रियं पाथो अपीही- - -बौधा.श्रौ.सू.१४.१२
३५अंशून्त्सोमे निदधात्युशित्त्कमिति प्रतिमन्त्रम्। - कात्या.श्रौ.सू.१२.५.१८
३६ज्योतिष्टोमे धिष्ण्योपस्थानम् : तुथोऽसि विश्ववेदा इति ब्राह्मणाच्छंसिनः। उशिगसि कविरसीति पोतुः। - - - - -शांखा.श्रौ.सू.६.१२.१७
३७आज्यं शंसिष्यन्पिता मातरिश्वाच्छिद्रा पदोशिगसीयानुतक्षिषत्- - - - शांखा.श्रौ.सू.७.९.१
३८पुरुषमेधप्रकरणम् : शौनःशेपं प्रथमम्। - - -काक्षीवतं द्वितीयम्। यथा कक्षीवानौशिजः स्वनये भावयव्ये सनिं ससान। - - शांखा.श्रौ.सू.१६.११.१