There is a hymn in Atharvaveda which tells the proceduce of hair shaving in initiation ritual. Here god Savitaa provides the blade and god air provides hot water. Why god air brings water, this may partially be answered on the basis that the feeling of hot and cold falls under the area of touch whose presiding deity is air.
What is the esoteric meaning of hot water? It is well known fact that anger produces hotness in blood. But in vedic mythology, the luster at the face is also supposed to be hot. In vedic ritual, hotness is produced by pouring milk in boiling butter. This represents the hotness which may appear in celibacy, the overall luster of the body. According to Dr. Fatah Singh, our senses, which receive information from outside and communicate it inside, work due to hotness. This is a big question in modern science and spiritual science also how these can be made introvert. The answer may be that as these get cool, these become introvert.
उष्ण
टिप्पणी : उष्ण शब्द ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में केवल २ - ३ बार ही प्रकट हुआ है । अथर्ववेद ६.६८.१ में दीक्षा हेतु यजमान का क्षौर कर्म करने हेतु वर्णन आता है कि सविता देव क्षौर कर्म हेतु छुरी / उस्तरा ग्रहण करता है तथा वायु उष्ण उदक लाता है । अन्य देवता अन्य कार्य करते हैं । वायु उष्ण उदक क्यों लाता है , इसका उत्तर नारद पुराण में उष्ण , शीत आदि के स्पर्श तन्मात्रा के अन्तर्गत होने के उल्लेख के आधार पर दिया जा सकता है । स्पर्श तन्मात्रा का वर्गीकरण वायु तत्त्व के अन्तर्गत किया जाता है । डा. फतहसिंह का विचार है कि समाधि अवस्था में केवल आकाश तत्त्व प्रधान होता है । समाधि से व्युत्थान पर अन्य तत्त्वों - वायु , अग्नि, जल , पृथिवी आदि का क्रमशः प्रादुर्भाव होता है ।
उष्ण उदक से क्या तात्पर्य है , इसका स्पष्टीकरण हमें वाल्मीकि रामायण में कईं स्थानों पर मिलता है । वा.रामायण २.५९.१ व ४.५५.१८ में विरहजनित उष्ण अश्रुओं का उल्लेख है । वा.रामायण ३.२२.५ में राक्षसी द्वारा राम के उष्ण रुधिर पान करने की इच्छा का उल्लेख है । इसका अर्थ यह हुआ कि रामायणकार ने क्रोध आदि की स्थिति में रक्त के उष्ण हो जाने के तथ्य को परोक्ष रूप से स्वीकार किया है । वैदिक कर्मकाण्ड में प्रवर्ग्य कर्म में उबलते हुए घृत में दुग्ध डालकर घर्म उत्पन्न किया जाता है । यह घर्म अतिरिक्त ऊर्जा का प्रतीक कहा जाता है । घर्म की प्रकृति भी उष्ण कही जा सकती है । मुख पर प्रकट होने वाले तेज को भी गर्भोपनिषद १ में उष्ण कहा गया है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अथर्ववेद ६.६८.१ में श्मश्रु वपन हेतु जिस उष्ण उदक का उल्लेख है , वह मुख के तेज जैसी ही कोई घटना है । शतपथ ब्राह्मण ८.७.२.११ के अनुसार अग्निचिति में प्राण तो स्वयमातृण्णा ( नैसर्गिक रूप से छिद्र धारण करने वाली ) इष्टका है जबकि आदित्य लोकम्पृणा इष्टका है जो प्राण में उष्णता उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी है । लोक में , उष्णता से रहित प्राण को मृत कहा जाता है । अध्यात्म में , समाधि अवस्था मृत अवस्था के तुल्य है ।
ऋग्वेद १०.४.२ में गायों के उष्ण व्रज का उल्लेख आता है । यदि गायों को प्राणों का प्रतीक मान लिया जाए तो इन्द्रियों सहित हमारा यह शरीर उष्ण व्रज कहा जा सकता है । ऐसा संभव है कि हमारी जो सारी इन्द्रियां बहिर्मुखी होकर कार्य कर रही हैं , जो बाहर के संसार से आवेगों को ग्रहण करके उन्हें अन्दर भेज रही हैं और डा. फतहसिंह के शब्दों में जिन्हें आदित्य , आदान करने वाले , कहा जाता है , उसका कारण उष्णता ही हो । जैसे - जैसे उष्णता समाप्त होती है , इन्द्रियां स्वयं ही अन्तर्मुखी होने लगती हैं , हमारे अंग चुम्बक की भांति क्रियाशील होकर हमारी श्वास को ग्रहण करने लगते हैं ।
वैदिक साहित्य ( जैसे बौधायन श्रौत सूत्र १७.४० , भारद्वाज गृह्य सूत्र २.१२ में उष्ण उदक में शीत उदक तथा शीत उदक में उष्ण उदक ग्रहण करने के उल्लेख आते हैं जिसकी व्यावहारिक व्याख्या अपेक्षित है । पुराणों में सार्वत्रिक रूप से उष्ण तीर्थ में अभया देवी के वास तथा उष्ण के द्युतिमान - पुत्र होने के उल्लेखों की व्याख्या भी अपेक्षित है ।
यं त्वा जनासो अभि संचरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ।
दूतो देवानामसि मर्त्यानामन्तर्महाँश्चरसि रोचनेन॥ १०.००४.०२