Yaska’s classical book on interpretation of vedic words is the first source for searching the meaning of vedic words. But the aphorism type nature of interpretation of Yaska provides ample scope to verify from other sources what he says. In case of Ushnik chhanda, he says that it may mean lusture, or it may also belong to a headscarf. Let us think freely what Ushnik may mean. There are two forms of this word – one is ushnik and the other is ushnihaa. Can these two forms have different meanings, is yet to be seen. Ushnik should mean one which generates heat and ushnihaa should mean one who destroys heat. The source of heat in our body is the food which ultimately gets converted into chemicals which generate heat on disintegration. Rajneesh in his lectures has said enough about Buddhist monks who can regulate the generation of heat and cold. But vedic literature goes beyond that. According to this, this heat may be converted into lusture, a lusture which may provide insight. The description available about ushnik chhanda also indicates that initially, ushnik chhanda may be connected with the state of an animal. The characteristics of an animal is that it has limited sight. Man is also an animal. But through performance of right actions, man can go beyond animal. He can have wide insight. In other words, ushnik may be connected with conscious and unconscious minds. One has to gradually ascend from unconscious to conscious mind. Kakup chhanda has been put as the pair of ushnik where only conscious mind is present.
The key to understanding word ushnik may be said to be the statement of one sacred text that ushnik chhanda is the state of a goat and sheep while Brihati chhanda is the state of cow and horse. The deeper meanings of this statement are available on veda study on cow. The states of ushnik and brihati can be interchanged. Brihati in Gavaamayana yaaga belongs to a state when there is unhindered flow of energy from sun to earth.
One has to remember that chhanda state comes only after the initial stages of an animal and bird are crossed. Ushnik chhanda has been connected with god Savitaa, the god who inspires for any rightful action, who leads to a work with maximum efficiency. On the one hand there is the head of a yaaga and on the other hand is the neck in the form of ushnik chhanda.
The above remarks on Ushnik can be tested for explanation of the story of formation of different parts of a goddess out of the essence of different gods and then the killing of demon Buffalo by the goddess. A pious buffalo is considered as the carrier of lord Yama. On the other hand, a buffalo having unconscious mind may be considered as demon Buffalo.
Esoteric aspect of exothermic and endothermic reactions
उष्णिक्
टिप्पणी : किसी शब्द की निरुक्ति की इच्छा होने पर सबसे पहले ध्यान यास्क - कृत निरुक्त पर जाता है क्योंकि ऐसे प्रमाण हैं कि यास्क ने जो कहा है, वह निरर्थक नहीं है । छन्दों के विषय में यास्क का कथन है कि गायत्री गायते: स्तुतिकर्मणः । - -- - गायतो मुखादुदपतत् इति च ब्राह्मणम् । उष्णिग् - उत्स्नाता भवति । स्निह्यतेर्वा स्यात्कान्तिकर्मणः । उष्णीषिणी वा इत्यौपमिकम् । उष्णीषं स्नायते: । ( यास्क निरुक्त ७.१२) । वैदिक पदानुक्रम कोश ( संहिता भाग) में भी उष्णिक् की निरुक्ति उद - स्निह के आधार पर की गई है । यास्क के कथन इतने संक्षिप्त सूत्र रूप में हैं कि उनको व्यावहारिक स्तर पर सिद्ध करना होगा । उष्णिक् शब्द से ही सर्वप्रथम यह आभास हो जाता है कि यह किसी प्रकार उष्णता से सम्बन्धित है । प्राणियों के जीवन का आधार यह है कि प्राणी जो भोजन करता है, वह पच कर शरीर में उष्णता उत्पन्न करता है । यही जीवन का लक्षण है । यदि शरीर शीतल हो जाए तो मृत्यु हो जाती है । लेकिन ऐसा भी होता है कि भोजन के पचने के कारण अतिरिक्त ऊष्मा उत्पन्न हो जाती है जिससे शरीर में दाह उत्पन्न हो जाता है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इस समय शरीर में शर्करा के जलने की मात्रा में वृद्धि हो जाती है जिससे अतिरिक्त ऊष्मा उत्पन्न होती है । योग में समझा जाता है कि ऊष्मा के उत्पन्न होने की दर पर नियन्त्रण किया जा सकता है । रजनीश ने अपने व्याख्यानों में बौद्ध साधकों का उल्लेख किया है जिनकी परीक्षा इस लक्षण से होती है कि उन्होंने कितने कम समय में उष्णता को शीतलता में या शीत को उष्णता में बदला । वैदिक साहित्य के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि अतिरिक्त उष्णता को स्नेह में, कान्ति में रूपान्तरित करने की आवश्यकता है । पौराणिक साहित्य में इसे स्नान का रूप दिया गया है ( द्र. लक्ष्मीनारायण संहिता में औष्णालयी स्त्रियों के गृह में कृष्ण द्वारा स्नान कर्म का उल्लेख ) ।
शांखायन ब्राह्मण ११.२ का कथन है कि मुख गायत्री है, वाक् अनुष्टुप्, बल - वीर्य त्रिष्टुप्, गो - अश्व बृहती, अज - अवि आदि उष्णिक्, बल - वीर्य ( पश्चात्) जगती । यह कथन एक प्रकार से उष्णिक् छन्द को समझने की कुञ्जी है । जैसा कि गौ शब्द की टिप्पणी में छान्दोग्य उपनिषद के आधार पर कहा गया है, सूर्य उदय से पूर्व की अवस्था अज है । अज अवस्था में केवल ताप, तप विद्यमान रहता है । उदित सूर्य की अवस्था अवि है । मध्याह्न काल के सूर्य की अवस्था गौ तथा अपराह्न काल के सूर्य की अवस्था अश्व है । निधन पुरुष है । अतः यह कहा जा सकता है कि उष्णिक् में सूर्योदय से पूर्व तथा उदय काल की अवस्थाओं का समावेश है । शांखायन ब्राह्मण का यह कथन इससे भी आगे जाकर वैदिक साहित्य के अन्य कथनों की व्याख्या का आधार बनता है । गवामयन नामक संवत्सरात्मक सत्र में सुपर्ण के ६ - ६ मासों के २ पक्षों की कल्पना की गई है । इन दोनों पक्षों के बीच में एक दिन की संज्ञा विषुवान् ( विशेष रूप से प्रेरणा प्रदान करने वाला ) होती है । इस दिन सत्र में बृहती छन्द में ही सारे स्तोत्र होते हैं । इसी आधार पर भौतिक रूप में पृथिवी पर विषुवत रेखा की कल्पना की गई है । पृथिवी पर विषुवत रेखा पर सूर्य की किरणें सीधी पडती हैं, अर्थात् पृथिवी और सूर्य का अविच्छिन्न सम्बन्ध हो जाता है । यज्ञ के इस विषुवान् अह के परितः स्वरसाम नामक ३ दिन होते हैं जिनमें से एक के लिए उष्णिहा का उल्लेख आया है ( शांखायन ब्राह्मण २४.५) । कहा गया है ( शांखायन ब्राह्मण २६.१) कि विषुवान् यज्ञ का शीर्ष है और उष्णिह ग्रीवा है । अन्यत्र कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण ८.६.२.११ ) कि गायत्री शीर्ष है और उष्णिक् ग्रीवा है ।
एक अच्छे शीर्ष के लिए एक अच्छी ग्रीवा की आवश्यकता होती है । और वैदिक साहित्य में ग्रीवा के निर्माण के लिए विशेष प्रबन्ध करने होते हैं । ग्रीवा सारे शरीर का रस भाग होता है और ग्रीवा की पुष्टि के लिए सारे शरीर से असुरों को निकाल बाहर करना होता है । यज्ञ की भाषा में इसे उपसद इष्टि नाम दिया गया है जबकि शीर्ष को प्रवर्ग्य कहा गया है । ऋग्वेद १०.१६३.२ की ऋचा में उष्णिहा प्रकार की ग्रीवा(?) से यक्ष्म दोष को निकालने का उल्लेख है । इसी मन्त्र की पुनरुक्ति अथर्ववेद २.३३.२ व २०.९६.१८ में भी की गई है जिससे संकेत मिलता है कि यह कोई महत्त्वपूर्ण मन्त्र है । इस मन्त्र में यह स्पष्ट नहीं है कि उष्णिहा ग्रीवा का विशेषण है या ग्रीवा के अतिरिक्त शरीर का कोई अन्य भाग । अथर्ववेद ६.१३४.१ में भी ग्रीवा: और उष्णिहा शब्दों का साथ - साथ उल्लेख आया है । ऐतरेय आरण्यक १.४.१ में भी उष्णिह छन्द की तुलना ग्रीवा से की गई है ।
उष्णिक्/उष्णिहा छन्द का उष्णता के साथ सम्बन्ध एक अन्य प्रकार से भी दृष्टिगोचर होता है । वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता २८.२५ में होता यक्षत्तनूनपातमुद्भिदं इति यजु का कथन है जिसके साथ उष्णिहा छन्द का भी उल्लेख है । यहां तनूनपात् शब्द यह संकेत करता है कि यह यजु ग्रीष्म ऋतु से सम्बद्ध है क्योंकि याज्ञिक कर्मकाण्ड के मन्त्रों में ऐसा पाया जाता है । वसन्त ऋतु के साथ गायत्री छन्द को सम्बद्ध किया जाता है क्योंकि वसन्त ऋतु में सारे प्राण जाग्रत हो जाते हैं, एक नए जीवन का उदय हो जाता है । यजुर्वेद के इस मन्त्र में इन्द्रिय के उष्णिहा छन्द के साथ वयः के रूप में दित्यवाह गौ का उल्लेख भी है । जैसा कि छन्द शब्द की टिप्पणी में उल्लेख किया जा चुका है, छन्द निर्माण से पूर्व की अवस्थाएं क्रमशः पशु और वयः/पक्षी की होती हैं । सीमित दृष्टि वाले को पशु कहा जाता है । वयः की दृष्टि इससे ऊपर होती है । दित्यवाह प्रकार की गौ के उल्लेख से तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में अन्यत्र उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि उष्णिहा छन्द को मरुतों से सम्बद्ध किया गया है । कहा गया है ( ) कि उष्णिक् छन्द के एक पाद में ७ अक्षर होते हैं और मरुतों के गण भी सात ही हैं । तैत्तिरीय संहिता ४.३.५.१ में उष्णिहा छन्द के वयः के रूप में त्रिवत्स वयः का उल्लेख है । ऐसा हो सकता है कि त्रिवत्स के रूप में मन, प्राण और वाक् का उल्लेख हो । शतपथ ब्राह्मण ८.२.४.१४ में आहवनीय चिति में द्वितीय चिति के संदर्भ में इस यजु की व्याख्या की गई है और कहा गया है कि उष्णिक् होकर ही त्रिवत्सों ने उच्चक्रमण किया । शुक्ल यजुर्वेद १४.१८ में प्रसिद्ध यजु मा च्छन्दो प्रमा च्छन्दो प्रतिमा छन्दो आदि का कथन है । इस यजु के तीन भाग हैं जो परस्पर सम्बद्ध प्रतीत होते हैं । इस के आधार पर उष्णिक् छन्द वाक् छन्द के समतुल्य होता है जिसका देवता रुद्र है । इसके विपरीत, इसी यजु की पुनरुक्ति तैत्तिरीय संहिता ४.३.७.१ में भी की गई है लेकिन यहां उष्णिक् छन्द मन छन्द के तुल्य कहा गया है । इस यजु में रुद्र को उष्णिक् छन्द का देवता कहा गया है जबकि अन्य संदर्भों में उष्णिक् के देवता के रूप में सविता का उल्लेख आया है ( ऋग्वेद १०.१३०.४, ऐतरेय ब्राह्मण ८.६ ) तथा गायत्री के देवता के रूप में अग्नि का उल्लेख है ।
वैदिक कर्मकाण्ड में प्रायः बृहती व उष्णिक् छन्दों के व्यतिषजन/विहरण का उल्लेख आता है ( उदाहरणार्थ ऐतरेय ब्राह्मण ४.३, शांखायन ब्राह्मण १७.२, आश्वलायन श्रौत सूत्र ६.३.७ ) । व्यतिषजन से तात्पर्य है कि जहां बृहती का प्रयोग होना है, वहां उष्णिक् का प्रतिस्थापन और इसके विपरीत । कहा गया है कि औष्णिह पुरुष है जबकि पशु बार्हत हैं । इस प्रकार पशुओं की प्रतिष्ठा पुरुष में करता है । इस कथन की व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१५८ का कथन है कि इन्द्र ने गायत्री में स्थित होकर उष्णिक् व ककुभ के द्वारा वृत्र पर वज्र का प्रहार किया लेकिन वह असफल(?) रहा । फिर उसने उष्णिक् - ककुभ में स्थित होकर सभ व पौष्कल सामों को बाहु - द्वय बनाकर वज्र का प्रहार किया और वृत्र का वध किया । यह उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद १०.१३०.४ आदि में उष्णिक् के साथ सविता देवता को सम्बद्ध किया गया है । किसी कार्य को करने की प्रेरणा सविता देवता से आनी चाहिए । फिर बाहुओं द्वारा उसका क्रियान्वन होना चाहिए । तभी कर्म को यज्ञ का रूप दिया जा सकता है । गायत्री में स्थित होकर वृत्र का हनन करने में असफलता का कारण यह हो सकता है कि गायत्री द्वारा प्राप्त प्रेरणा बहुत उच्च स्तर पर, बहुत ही क्षीण होती होगी । जैमिनीय ब्राह्मण १.१६० में पुष्कल आङ्गिरस साम को उष्णिक् के साथ सम्बद्ध किया गया है । अतः सभ ककुप् के साथ सम्बद्ध होना चाहिए ।
जैमिनीय ब्राह्मण १.२२९ का कथन है कि पुरुषकामी ककुप् में स्थित होकर, ककुप् द्वारा करे । पशुकामी उष्णिकों द्वारा करे । पशु विकल्प से उष्णिक् हैं । जैमिनीय ब्राह्मण १.२०९ व १.३०५ का कथन है कि उष्णिह वज्र है और वज्र के द्वारा ही पशुओं का परिग्रहण किया जाता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.३०५ व १.३०९ का कथन है कि साम गान में ककुभ का आरम्भ स्वर से किया जाता है जबकि उष्णिह का आरम्भ ऐळ या निधनवत् किया जाता है । प्राण स्वर है । वीर्य निधन है वीर्य उष्णिक् है । पशु इळा हैं, पशु उष्णिक् हैं । जब छन्दों का व्यतिषजन ( उलट - फेर ) करना होता है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.२५६) तो ककुभ को ऐळ करते हैं और उष्णिह को स्वारम् । इळा से अभिप्राय चेतन व अचेतन मन के युग्म से लिया जाता है । स्वर स्थिति पूर्ण रूप से चेतन प्राण हो सकती है । सोमयाग में उष्णिक् - ककुभ आदि छन्दों का स्थान आर्भव पवमान में आता है ( जैमिनीय ब्राह्मण १.२४२) । आर्भव पवमान देव व मनुष्य की मिश्रित अवस्था होती है । तैत्तिरीय संहिता २.४.११.१ में ककुप् को त्रिष्टुप् का वीर्य तथा उष्णिहा को जगती का वीर्य कहा गया है । त्रिष्टुप् व जगती को समझने के लिए ऋषि - छन्द पर लिखी टिप्पणी द्रष्टव्य है ।
ब्राह्मण ग्रन्थों में उष्णिक् व ककुप् छन्दों को सार्वत्रिक रूप से चक्षुओं के साथ सम्बद्ध किया गया है ( उदाहरण के लिए जैमिनीय ब्राह्मण १.२५४, २.५८) । गायत्री को प्राण कहा गया है । कहा जा सकता है कि जो उष्णता, कान्ति शरीर के स्थूल भाग को पुष्ट करने में लग रही थी, वही जब आरोहण करती है तो उससे आन्तरिक चक्षुओं को प्राप्त कान्ति का विकास होता है ।
अथर्ववेद १०.१०.२० में वशा गौ के उष्णिहा से बल की उत्पत्ति का उल्लेख है । बल को मुख्य प्राण के परितः मण्डल/वाल के रूप में लिया जा सकता है । यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उष्णिक् से तात्पर्य उष्णता को उत्पन्न करने वाला और उष्णिहा से तात्पर्य उष्णता का नाश करने वाला लिया जा सकता है ?
उष्णिक् पर उपरोक्त टिप्पणी की सफलता या असफलता की परीक्षा दुर्गा सप्तशती के मध्यम चरित्र की व्याख्या के रूप में की जा सकती है । मध्यम चरित्र के ऋषि विष्णु हैं, देवता महालक्ष्मी तथा छन्द उष्णिक् है । मध्यम चरित्र में देवों द्वारा प्रदत्त विभिन्न प्रकार के तेजों से देवी के विभिन्न अङ्गों का निर्माण तथा देवी द्वारा महिषासुर के वध का वर्णन है । शुद्ध महिष यम का वाहन है । जब महिष में अचेतन मन का प्रवेश हो जाए तो वह महिषासुर हो सकता है । प्रथम चरित्र का छन्द गायत्री तथा उत्तम चरित्र का छन्द अनुष्टुप् है ।
संदर्भ
उष्णिक्
*अग्निचयने : त्रिवत्सो वयऽउष्णिक् छन्दः - माध्यन्दिन संहिता १४.१०
*उष्णिक् छन्दो = वाक् छन्दो - मा.सं. १४.१८
*सौत्रामणी :- तनूनपाच्छुचिव्रतस्तनूपाश्च सरस्वती। उष्णिहा छन्दऽइन्द्रियं दित्यवाड् गौर्वयो दधुः ॥ - माध्यन्दिन संहिता २१.१३
*अश्वमेधः :-गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पङ्क्त्या सह। बृहत्युष्णिहा ककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥ - मा.सं. २३.३३
*तुर्यवाहऽउष्णिहे - मा.सं. २४.१२
*होता यक्षत्तनूनपातमुद्भिदं यं गर्भमदितिर्दधे शुचिमिन्द्रं वयोधसम्। उष्णिहं छन्दऽइन्द्रियं दित्यवाहं गां वयो दधद्वेत्वाज्यस्य होतर्यज - मा.सं. २८.२५
*देवीर्द्वारो वयोधसं शुचिमिन्द्रमवर्धयन्। उष्णिहा छन्दसेन्द्रियं प्राणमिन्द्रे वयो दधद्वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज - मा.सं. २८.३६
*अग्नेर्गायत्र्यभवत्सयुग्वोष्णिहया सविता सं बभूव। अनुष्टुभा सोम उक्थैर्महस्वान् बृहस्पतेर्बृहती वाचमावत्॥ - ऋ. १०.१३०.४
*ग्रीवाभ्यस्त उष्णिहाभ्यः कीकसाभ्यो अनूक्यात्। यक्ष्मं दोषण्य१मंसाभ्यां बाहुभ्यां वि वृहामि ते ॥ - ऋ. १०.१६३.२, अथर्ववेद २.३३.२, २०.९६.१८
*अयं वज्रस्तर्पयतामृतस्यावास्य राष्ट्रमप हन्तु जीवितम्। शृणातु ग्रीवाः प्र शृणातूष्णिहा वृत्रस्येव शचीपतिः ॥ - अ. ६.१३४.१
*पादाभ्यां ते जानुभ्यां श्रोणिभ्यां परि भंससः। अनूकादर्षणीरुष्णिहाभ्यः शीर्ष्णो रोगमनीनशम् ॥ - अ. ९.१३.२१/९.८.२१
*आस्नस्ते गाथा अभवन्नुष्णिहाभ्यो बलं वशे। पाजस्याज्जिज्ञे यज्ञ स्तनेभ्यो रश्मयस्तव ॥ - अ. १०.१०.२०
*आ त्वा रुरोह बृहत्यू३त पङ्क्तिरा ककुब्वर्चसा जातवेदः। आ त्वा रुरोहोष्णिहाक्षरो वषट्कार आ त्वा रुरोह रोहितो रेतसा सह ॥ - अ. १३.१.१५
*गायत्र्यु१ष्णिहानुष्टुब्बृहती पङ्क्तिस्त्रिष्टुब्जगत्यै। - अथर्ववेद १९.२१.१
*त्रिष्टुभो वा एतद्वीर्यं यत् ककुदुष्णिहा जगत्यै यदुष्णिहककुभावन्वाह तेनैव सर्वाणि छन्दांस्यव रुन्द्धे गायत्री वा एषा यदुष्णिहा - तैत्तिरीय संहिता २.४.११.१
*विश्वेदेवा देवतोष्णिहा छन्द आग्रयणस्य पात्रमसीन्द्रो देवता ककुच्छन्द उक्थानां पात्रमसि - तै.सं. ३.१.६.३
* पञ्चाविर्वयो गायत्री छन्दस्त्रिवत्सो वय उष्णिहा छन्दः - - - -ऋषयो वय ककुच्छन्दो - तै.सं. ४.३.५.१
*उष्णिहा छन्दो = मनश्छन्दो - तै.सं. ४.३.७.१(तुलनीय मा.सं. १४.१८)
*बृहतीरुष्णिहाः पङ्क्तीरक्षरपङ्क्तीरिति विषुरूपाणि छन्दांस्युप दधाति विषुरूपा वै पशवः - तै.सं. ५.३.८.२
*रथमुष्णिहाभिः - तै.सं. ५.७.१४.१
*उष्णिहा वाऽऽयुष्कामः कुर्वीत। आयुर्वा उष्णिक् - ऐतरेय ब्राह्मण १.५
*यदिन्द्र पृतनाज्ये अयं ते अस्तु हर्यतः इत्युष्णिहश्च बृहतीश्च व्यतिषजति औष्णिहो वै पुरुषो बार्हताः पशवः पुरुषमेव तत्पशुभिर्व्यतिषजति, पशुषु प्रतिष्ठापयति, यदुष्णिक् च बृहती च ते द्वे अनुष्टुभौ, तेनो वाचो रूपादनुष्टुभो रूपाद् वज्ररूपान्नैति। - ऐ.ब्रा. ४.३
*आसन्दी आरोहणम् : अग्निष्ट्वा गायत्र्या सयुक्छन्दसाऽऽरोहतु, सवितोष्णहा, सोमोऽनुष्टुभा - - - -ऐ.ब्रा. ८.६
*द्वितीया चितिः :- त्रिवत्सो वयः इति। त्रिवत्सं वयसाऽऽप्नोvत्। उष्णिक् छन्दः इति। उष्णिग्घ भूत्वा त्रिवत्सा उच्चक्रमुः। - शतपथ ब्राह्मण ८.२.४.१४
*- - - एतेनैवास्य रूपेण सहस्रम् एष उष्णिहः सञ्चितो भवति - श.ब्रा. ८.३.१.३
*तृतीया चितिः :- श.ब्रा. ८.३.३.६
*पञ्चमी चितिः :- ग्रीवा उष्णिहः। ता अनन्तर्हिता गायत्रीभ्य उपदधाति। अनन्तर्हितास्तच्छीर्ष्णो ग्रीवा दधाति। - श.ब्रा. ८.६.२.११
*प्राणो गायत्री, चक्षुरुष्णिग्, वागनुष्टुब्, मनो बृहती, श्रोत्रं पङ्क्तिः - श.ब्रा. १०.३.१.१
*अष्टाविंशत्यक्षरा वा उष्णिक्। अष्टाविंशतिर् भृग्वङ्गिरसो देवाः। त उष्णिहम् अन्वायत्ताः। - - - - जैमिनीय ब्राह्मणम् १.३१
*यावन्त्य उ ह वै बृहत्या अक्षराण्य् उष्णिक्ककुभोस् च तावद् इतस् स्वर्गो लोकः - जै.ब्रा. १.१३६
*उष्णिक् ककुब्भ्यां वा इन्द्रो वृत्राय वज्रम् उदयच्छद् गायत्र्योस् तिष्ठन्। - - - - स उष्णिक्ककुभोस् तिष्ठन् सभ पौष्कले बाहू कृत्वा प्राहरत्। तम् अहन् - जै.ब्रा. १.१५८
*येन प्राचा प्राभ्रंशत सा ककुब् अभवत्। तस्मात् ककुभा पूर्वार्धे ऽक्षराणि भूयिष्ठानि। अथ येन प्रतीचा प्राभ्रंशत सोष्णिग् अभवत्। तस्माद् उष्णिहो जघनार्धेऽक्षराणि भूयिष्ठानि। - - - - - - जै.ब्रा. १.१५९
*पुष्कल आंगिरस साम - - - -पशव इव उष्णिक् - जै.ब्रा. १.१६०
*तद् आहुर् यन्ति वा एते अनुष्टुभौ य उष्णिक्ष्व~ अच्छावाकसाम कुर्वन्तीति। अर्वाग् उष्णिहाश् च खलु वा एतासाम् एका मध्य उष्णिग् एकापर उष्णिग् एका - जै.ब्रा. १.१८८
*तद् यद् एता उष्णिहो ऽन्ततः क्रियन्ते - वज्रो वा उष्णिहः - वज्रेणैव तत् पशून् परिगृह्णाति अपरापाय - जै.ब्रा. १.२०९
*इन्द्र सुतेषु सोमेषु इत्य् उष्णिहो भवन्ति। देवपुरा वा एषा यद् उष्णिहः। ता यद् अन्ततः क्रियन्ते देवपुराम् एवैतद् अन्ततः परिहरन्ति - जै.ब्रा. १.२२७
*ककुप्सु पुरुषकामः। - - - -उष्णिक्षु पशुकामः। पशवो वा उष्णिक् - जै.ब्रा. १.२२९
*षट् छन्दांसि तृतीयसवनं गायत्र्य~ उष्णिक्ककुभाव् अनुष्टुब् जगती बृहती। - - - -यानि चत्वार्य् अतिरिच्यन्ते तान्य् उष्णिह्य् उपदधाति - जै.ब्रा. १.२४२
*आर्भव पवमानः :- अथोष्णिक्ककुभौ, चक्षुषी ते। समानं छन्दः। द्वे सामनी - जै.ब्रा.१.२५४
*यद्य् एनम् उष्णिक् ककुभोर् अनुव्याहरेद् यज्ञस्य चक्षुषी अचीक्लृपं यज्ञमारो भविष्यसीत्य् एनं ब्रूयात् - जै.ब्रा. १.२५५
*अथैतां स्वरेण ककुभम् अभ्यारोहति। प्राणस् स्वरो विवृहः ककुप्। - - - अथैतां निधनेनोष्णिहम् अभ्यारोहति। वज्रो वै निधनं पशव उष्णिक्। - - - जै.ब्रा. १.३०५
*स्वरेण ककुभम् आरभेत। - - - -ऐळेन वा निधनवता वोष्णिहम् आरभेत। वीर्यं निधनं वीर्यम् उष्णिक्। पशव इळा पशव उष्णिक् - जै.ब्रा. १.३०९
*ये एवैते उष्णिक्ककुभोस् सामनी ते वैव तृचयोः कुर्यात् ते वैकर्चयोः। - जै.ब्रा. १.३१०
*अथैते उष्णिक्ककुभाव् आ प्रतिहाराद् अनवानं गेये। संशीर्णम् इवैतच् छन्दः पुरुषछन्दसम् उष्णिक्ककुभौ। - जै.ब्रा. १.३३७
*प्राण गायत्री, चक्षुषी उष्णिक्ककुभौ, श्रोत्रं जगती - जै.ब्रा. २.५८
*अथैतां नदं व ओदतीनाम् इत्य् उष्णिहाभाजनम् आर्भव पवमाने क्रियन्ते। तास् सप्ताक्षरपदा भवन्ति। सप्त प्राणाः। - जै.ब्रा. २.२२५
*ऐळं ककुभि, स्वारम् उष्णिहि। त्रिरात्रम् एवैतन् मध्यतो व्यतिषजन्त्य् अवस्रंसाय - जै.ब्रा. २.२५६
* पूर्वो वै बृहत्यै पृष्ठेषु योग उत्तरो गायत्र्यै पूर्वा वा उष्णिक् ककुभोर् आर्भवे योग उत्तरो ऽनुष्टुभः। - जै.ब्रा. २.२८७
*उष्णिक्ककुब्भ्यां वा इन्द्रो वृत्राय वज्रं प्राहरत्। - - - -ककुभि पराक्रमतोष्णिहा प्राहरत्। तस्मात् ककुभ मध्यमान्य् अक्षराणि भूयिष्ठानि। - - - - तस्माद् उष्णिह उत्तमान्य् अक्षराणि भूयिष्ठानि। - - - अथोष्णिग् अब्रवीत् - अथ वै मां पूर्वाम् आचक्षन्ता इति। - जै.ब्रा. ३.२९५
*पावमान्यस् सत्य ऐन्द्रियो भवन्ति वीर्यवतीः। तस्माद् एता एवोष्णिह्मùककुभः कार्याः। तासु सभम् उक्त ब्राह्मणम्। अथ पौष्कलम् उक्त ब्राह्मणम्। - जै.ब्रा. ३.२९६
*अष्टादशनवदशाभ्याम् उष्णिक्ककुभौ (अकल्पत) - जै.ब्रा. ३.३२५
*औष्णिहं प्रउगं कुर्यादित्याहुरायुर्वा उष्णिगायुष्मान्भवति। गायत्री, उष्णिग्, अनुष्टुप् बृहती पङ्क्ति त्रिष्टुप् जगती - ऐतरेय आरण्यक १.१.३
*नदं व ओदतीनामितीf३ उष्णिहाक्षरैर्भवत्यनुष्टुप्पादैः आयुर्वा उष्णिग्वागनुष्टुप् - ऐ.आ. १.३.८
*अथ सूददोहाः प्राणो वै सूददोहाः प्राणेन पर्वाणि दधाति। अथातो ग्रीवास्ता आचक्षते यथा छन्दसमुष्णिह इति। - ऐ.आ. १.४.१
*पक्ष्याकारस्य शस्त्रस्य अन्नरूपा अशीतयो वक्तव्याः। औष्णिहीं तृचाशीतिं शंसत्यसौ वै लोको द्यौरौष्णिही तृचाशीतिर्यदेवामुष्मिfल्लोके यशो यन्महो यन्मिथुनं यदन्नाद्यं याऽपचितिर्यद्देवानां दैवं तदश्नवै (गायत्री तृचाशीति अयं लोक, बार्हती अन्तरिक्ष लोक) - ऐ.आ. १.४.३
*तस्य उष्णिग्लोमानि त्वग्गायत्री त्रिष्टुम्मांसमनुष्टुप्स्नावान्यस्थि जगती पङ्क्तिर्मज्जा प्राणा बृहती - ऐ.आ. २.१.६
*पञ्चविध यज्ञः - स्तोमतो, सामतो, गायत्र्युष्णिग् बृहती त्रिष्टुब् द्विपदेति च्छन्दस्तः शिरो दक्षिणः पक्ष उत्तरः पक्षः पुच्छमात्मेत्याख्यानम्। - ऐ.आ. २.३.४
*होतुः प्रेङ्खे वाणधारणं : सप्तभिश्छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः स्थानानि अस्य ऊर्ध्वमुद्गृहणीयात्। गायत्रेण त्वा छन्दसोदूहाम्यौष्णिहेन त्वा ऽनुष्टुभेन त्वा बार्हतेन त्वा पाङ्क्तेन त्वा त्रैष्टुभेन त्वा जागतेन त्वा - - - ऐ.आ. ५.१.४
*शस्त्र : गायत्री तृचाशीतिः, - - - - बार्हती तृचाशीतिः, - - - - औष्णिही तृचाशीतिः - ऐ.आ. ५.२.५
*यस्य ह कस्य च षट् समानस्य च्छन्दसस्ता गायत्रीमभिसंपद्यन्ते यस्य सप्त ता उष्णिह यस्याष्टौ ता अनुष्टुभं - शां.ब्रा. ९.२
*प्रातरनुवाके सप्त छन्दांसि : मुखं गायत्री, वागनुष्टुप्, बलं वीर्यं त्रिष्टुप्, गोश्व बृहती अजाविकमेवोष्णिक् बलं वीर्यं जगती - शांखायन ब्राह्मण ११.२
*मध्ये बार्हताश्चौष्णिहाश्च पशवो बलेनैव तद्वीर्येणोभयतः पशून् परिगृह्य यजमाने दधाति - शां.ब्रा. ११.३
*षड्विधं मरुत्वतीयं शंसति षड्वा ऋतवः संवत्सरः संवत्सरस्यैवाऽऽप्त्या अनुष्टुभं गायत्रीं बृहतीमुष्णिहं त्रिष्टुभं जगतीमिति षट् छन्दांसि शंसति - शां.ब्रा. १५.२
*उष्णिहश्च बृहतीश्च विहरति यजमानच्छन्दसमेवोष्णिक्पशवो बृहती - शां.ब्रा. १७.२
*तृतीयम् अहः :- औष्णिहो वैश्वमनसः प्रउगो रथन्तरं वै साम सृज्यमानमौष्णिहो वैश्वमनसः प्रउगोऽन्वसृज्यत - - - - शां.ब्रा. २०.४
*जागतं वै तृतीयमहः तद्यदौष्णिह आत्रेयस्तृतीयस्याह्नः प्रउगः - - - - शां.ब्रा. २२.३
*माधुच्छन्दसः प्रथमस्य स्वरसाम्नः प्रउगो गार्त्समदो द्वितीयस्य औष्णिह आत्रेयस्तृतीयस्य - शां.ब्रा. २४.५
*अष्टाविंशिनावभितो विषुवन्तं मासावष्टाविंशत्यक्षरोष्णिगौष्णिह्यो ग्रीवा अथैतच्छिरो यज्ञस्य यद्विषुवान् - शां.ब्रा. २६.१
*यावन्तः प्रगाथास्तावन्त्यौष्णिहानि तृचानि - शां.ब्रा. २७.२
*चतुथेr अहनि - - - -गायत्रीषु मैत्रावरुणाय प्रणयन्त्युष्णिक्षु ब्राह्मणाच्छंसिने ऽनुष्टुप्सु अच्छावाकाय - - - - शां.ब्रा. ३०.३
*पञ्च छन्दांसि रात्रौ शंसन्त्यनुष्टुभं गायत्रीमुष्णिहं त्रिष्टुभं जगतीम् - शां.ब्रा. ३०.११
*गायत्री गायतेः स्तुतिकर्मणः। त्रिगमना वा विपरीता। गायतो मुखादुदपतत् इति च ब्राह्मणम्। उष्णिग् - उत्स्नाता भवति। स्निह्यतेर्वा स्यात्कान्तिकर्मणः। उष्णीषिणी - वा इत्यौपमिकम्। उष्णीषं स्नायतेः - यास्क निरुक्त ७.१२
*इष्ट्ययनानि : न तु याज्या ह्रसीयसी। नोष्णिङ्न बृहती - आश्वलायन श्रौत सूत्र २.१४.२२
*उष्णिहो बृहतीभिः (विहरेत्) उष्णिहो तूत्तमान् पादान् द्वौ कुर्यात् - आश्व.श्रौ.सू. ६.३.७
*मरुत्वतीय शस्त्रम् : सखाय आ शिषामहि इति तिस्र उष्णिहो मरुत्वां इन्द्र इति मरुत्वतीयम् - आश्व.श्रौ.सू. ८.१२.१७
*य इन्द्र सोमपातमः इति षळुष्णिहः, युध्मस्य ते इति निष्केवल्यम् - आश्व.श्रौ.सू. ८.१२.२२