ऋतध्वज
टिप्पणी : ऋतध्वज के संदर्भ में वैदिक साहित्य में कोई प्रत्यक्ष उल्लेख उपलब्ध नहीं है । आप्टे के संस्कृत - अंग्रेजी कोश में रुद्र के ऋतध्वज नाम का उल्लेख है । यदि ऋत लोक को वायु का लोक माना जाए तो वायु लोक की चरम सीमा तृतीय नेत्र है । अतः इसे ऋतध्वज कहा जा सकता है । ऋग्वेद ५.४३.७, अथर्ववेद ६.३६.१, तैत्तिरीय संहिता १.५.११.१ तथा तैत्तिरीय आरण्यक ४.५.२ के आधार पर ऋतध्वज को घर्म भी कह सकते हैं । ऋतध्वज द्वारा शूकर रूप धारी पातालकेतु राक्षस को बाण से वेधन के प्रसंग के संदर्भ में, पौराणिक साहित्य में यज्ञ को यज्ञवराह / शूकर का रूप दिया जाता है । सायण भाष्य में ऋत का अर्थ स्थान - स्थान पर यज्ञ किया गया है । डा. फतहसिंह के अनुसार यज्ञ के कईं स्तर हैं । निचले स्तर पर, मर्त्य स्तर पर वरुण का यज्ञ चलता है । ऋतध्वज द्वारा पातालकेतु का पीछा करते हुए गर्त में प्रवेश करने से तात्पर्य अपने व्यक्तित्व के निचले कोशों मे, स्तरों में प्रवेश से हो सकता है ।
ऋतध्वज - पत्नी मदालसा, जिसे कुण्डला की सखी कहा गया है और जिसे ऋतध्वज गर्त में प्रवेश करने के पश्चात् पाता है, के सम्बन्ध में वैदिक साहित्य से कोई प्रत्यक्ष संकेत नहीं मिलता । परोक्ष संकेत बौधायन श्रौत सूत्र ६.१९, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ११.१.१० से इस प्रकार प्राप्त होता है कि अग्निष्टोम यज्ञ के प्रातःसवन में आग्नीध्र नामक ऋत्विज से पूछा जाता है कि आपः मद उत्पन्न करते हैं या नहीं ? आग्नीध्र उत्तर देता है कि ' मदन्ति देवी अमृता ऋतावृध ।' तब आग्नीध्र से कहा जाता है कि उन्हें ले आओ । तब आग्नीध्र मदन्ती नामक पात्र को छूकर, हिरण्य रखकर सोम का सिंचन करता है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १३.१३.८ में भी द्युलोक के यज्ञ द्वारा तथा पृथिवी में ऋत द्वारा वर्धन होने पर मोद का उल्लेख आता है । इन प्रसंगों में मदन्ती मदालसा का रूप हो सकता है । मदालसा के बारे में दूसरा परोक्ष संकेत ऋग्वेद १.१६१.९ से मिल सकता है जहां ऋभुगण ऋता को बोलते हुए चमसों / यज्ञपात्रों का निर्माण करते हैं । जैसा कि महाभारत में स्पष्ट किया गया है, ऋता सत्त्व के १८ गुणों से युक्त प्रकृति का नाम है । इसकी सहायता से ऋभुगण एक चमस के ४ चमस बना देते हैं । चार चमस मदालसा के ४ पुत्रों के संकेत हो सकते हैं।